मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

भाग-11 पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास.....Lamdal yatra via Gaj pass(4470mt)

भाग-11  पैदलयात्रा लमडल झील वाय गज पास (4470मीटर)
                 
इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र (http://vikasnarda.blogspot.com/2017/04/1-lamdal-yatra-via-gaj-pass-4470mt.html?m=1) स्पर्श करें।

                            मैं हम से रुठ गए हमारे मददगार चरण सिंह को मुझे लमडल ले जाने के लिए मना रहा था...... परन्तु उनका रुठना जारी ही रहा..... वैसे तो मैं बहुत अकडू स्वभाव का हूँ, परन्तु इस स्थिति में मुझ में परिवर्तन जाने कैसे हो गया.... अंतत: मैने चरण सिंह के आगे अपने दोनों हाथ जोड़े और गज पर्वत की तरफ देख कर बोला..... राणा जी, यदि आप मुझे इस पर्वत के शिखर तक ले जाए और फिर भगवान शंकर की पवित्र झील लमडल के दर्शन करवा लाये, तो मैं तमाम उमर आपका कर्जदार रहूंगा.................... मेरे दिल से निकले इन सच्चे शब्दों ने राणा चरण सिंह के दिल को छेड़ दिया और वह मेरी तरफ देख कर बोले....... "पंडित जी, क्या भाग सकोगे मेरे पीछे-पीछे "...........मैने झट से कहा... "राणा जी, यदि आप बीस कदम भागोंगे...तो मैं अठारह कदम तो आपके पीछे भाग ही लूंगा "..........और चरण सिंह एकाएक उठे और बोले,"चलो अब चलते हैं "........
                                 चरण सिंह बोले कि आप अपना साथ ले जाने वाला जरुरी सामान इक्ट्ठा कर लो, जब तक मैं चाचा के घर में भाभी को बोल आता हूँ, कि मैं आपके साथ जा रहा हूँ और पीछे से वे मेरी भैंसों और ऋषभ की रोटी-पानी का पूरा ख़्याल रखे........ मैने झट से अपनी रक्सक पैक कर पीठ पर डाल झोपड़ी से बाहर निकल कर गज पर्वत के शिखर की ओर देख कर मन ही मन कहा, " हे गज... मैं आ रहा हूँ, मुझे स्वीकार करो "............एकाएक मेरे अवचेतन मन में मुझे गज पर्वत के मधुर बोल सुनाई दिये.......... "स्वागत है मानुष, प्रकृति ने मुझे तेरे सुखों के लिए ही गड़ा है...... विधाता के नियम अनुसार मेरे ज़िम्मे तुम्हें निर्मल जल, फल-फूल, खनिज, जड़ी-बूटी तथा वन संपदा देते रहना है..... आओ, मेरे शिखर पर चढ़ो, मैं तुम्हें रोमांच की चरम सीमा की अद्भुत अनुभूति करवाऊंगा.......... और मेरे शिखर से इस सृष्टि की सुन्दरता को देखो..... "
                           "चले पंडित जी अब ".........मेरी गज पर्वत से हो रही इस अलौकिक वार्ता का क्रम टूटा, राणा चरण सिंह के इस कथन द्वारा............ अपने कंधे पर एक गर्म कम्बल और छड़ी ले तैयार खड़े थे चरण सिंह......  ऋषभ ने मुस्कराते हुए हमे विदा किया और हमने हंसते हुए एक-दूसरे को कहा कि भाई अपना-अपना ख्याल रखना.........
                              दोस्तों, सच बताना कि आपको इस रोमांचक पदयात्रा पर मेरे साथ-साथ जाने का आभास हो रहा है या नही............ तो लो, अब शुरू हो रही है लमडल के लिए आगे की पदयात्रा........ पर चरण सिंह चल नही भाग रहे थे, ऐसे जैसे की गज नदी भाग रही थी और मैं ग्लेशियर से निकली एक नन्ही सी बूँद की चाल के समान चल पा रहा था, जो कि गज नदी में मिलने के लिए प्रयासरत हो....... यानि कि मुझ से दस गुणा तेज थी राणा चरण सिंह की चाल,  या वो जानबूझ कर मेरी परीक्षा ले रहे होंगे.....खैर थोड़ी देर बाद ही वह मेरी दशा समझ गए और उन्होंने अपनी चाल मेरे मुताबिक धीमी कर ली.......
                              मुझे अब वह प्राकृतिक सौंदर्य नजर आ रहा था, जो कल रात के अंधेरे में चरण सिंह के डेरे पर आने के समय दिखाई नही दे रहा था..... हर तरफ देवदार, राई, गूं, अेस आदि के गगनचुंबी पेड़ों की भरमार थी, इन पेड़ों के बारे में चरण सिंह ने बताया कि इस घाटी के बहुत सारे पेड़ अंग्रेजों के द्वारा उनके शासनकाल में लगवायें गए थे, और इन पेड़ रोपन क्रम में उनके स्वर्गीय पिता जी भी शामिल थे......  चरण सिंह ने मुझे कई पेड़ दिखाये जो कि उनके पिता, चाचा व दादा द्वारा लगाये गये थे और बग्गा के रास्ते में आई एक समतल जगह दिखाई, जिस पर उस समय इन पेड़ों को तैयार करने के लिए अंग्रेजों की पौध-नर्सरी होती थी.......... अब मुझे समझ में आया कि, हिमाचल प्रदेश में पहाडों पर इतने पेड़ों के होने में आजादी से पहले की अंग्रेजी हुकूमत का बहुत योगदान रहा है, क्योंकि अंग्रेज भी मेरी तरह ही पहाडों के दीवाने थे........ और पहाडों पर जितने भी पर्यटक  स्थल विकसित हुए हैं, सब अंग्रेजों द्वारा ही स्थापित किये गए हैं.....जैसे शिमला, डलहौजी, मंसूरी जैसे बेशुमार नाम हैं दोस्तों.........
                              जिस पहाड पर हम चल रहे थे उसके सामने वाले पहाड पर गज नदी के किनारे एक काफी खुली व समतल जगह पर कुछ घर नजर आए, तो चरण सिंह बोले, "लो भाई जी, आपका बग्गा आ गया ".........यहां आप लोग कल रात में आना चाहते थे और हम इस स्थान को स्थानीय लोग बग्गा नही "बग्ग" कहते हैं....... बग्ग का अर्थ होता है, जो धरती बग्ग रही हो.... मतलब जिस पर खेती हो रही हो और खेती का नाम सुन कर मैने चरण सिंह से कहा, "भाई मैं पंजाब में खेती भी करता हूँ "........चरण सिंह ने फिर से मेरा परीक्षा लेते हुए पूछा, " अच्छा तो यह बताओ.... पंडितजी यह बग्ग वाली सारी जगह कितनी होगी "........मैने अनुमान लगाया और बोला.... राणा जी, दस एकड़........ तो चरण सिंह बोले, हां बिल्कुल सही यह 82कनाल जमीन है.... जो सरकार ने दो स्थानीय गांवों के गद्दी लोगों को गर्मीयों के मौसम में अपनी भेड़-बकरी रखने के लिए यह जगह दी है.....तो मैं बोला, "ठीक है.... पर खेती कहां हो रही है राणा जी "..........
                          चरण सिंह बोले, "पहले होती थी यहां खेती और हम रैयल धार पहाड पर अपने डेरे के आसपास भी करते थे खेती, आलू और मक्की आदि की खेती........ परन्तु अब जंगली जानवर बहुत हो गये हैं इन पहाडो में.....सब उजाड़ देते हैं, इसलिए हम गद्दी लोग इन इलाकों में अब खेती नही कर पाते.... बस भेड़-बकरी चराते है अब "..........बग्गा में कई भेड़-बकरी वाले गद्दीयों के डेरे और एक सराय भी है, जो कि लमडल के दो दिवसीय वार्षिक मेले "नौयान"के समय पदयात्रियों के ठहरने के लिए इस्तेमाल की जाती है........
                             और उन खूबसूरत पहाडों की वीरानी को तोड़ती एक नन्ही सी गद्दी लोगो की बस्ती "बग्ग" की कुछ तस्वीरें खींच कर हम दोनों आगे बढ़ गए गज नदी की ओर......
             

                                                                        ............................(क्रमश:)
अंग्रेेजों के समय की पौध-नर्सरी वाली समतल जगह पर खड़े चरण सिंह.... 
आखिर मेरी मेहनत रंग लाई..... राणा चरण सिंह मुझे ले लमडल की ओर चल पड़े..... 

धौलाधार हिमालय में गद्दीयों की बस्ती... "बग्गा"

कंधों पर लाठी,  उसपर हाथ रख चलना... यह चरण सिंह की मस्त चाल थी.. 

अपनी दिनचर्या में व्यस्त बग्ग वासी 

बग्गा की सराय... जो दो दिवसीय वार्षिक मेला "नौआन" के समय पदयात्रियों को सुविधा प्रदान करती है...

( अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )

5 टिप्‍पणियां: