भाग-17 पैदलयात्रा लमडल झील वाय गज पास (4470मीटर) 25अगस्त2015
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पिछली किश्त में मैने आपको बताया था कि हम गज पर्वत के शिखर को लांघ कर, अब दूसरी ओर एक बहुत विशाल ग्लेशियर को पार कर रहे थे........... लमडल झील की तरफ जाने हेतू, मुझ से आगे राणा चरण सिंह बर्फ पर तेजी से नंगे पाँव चल रहे थे और मैं सम्भलता-सम्भलता हुआ बहुत धीरे-धीरे अपनी स्टिक के सहारे पैर जमा-जमा कर आगे बढ़ रहा था, क्योंकि वह उतराई बेहद टेढ़ी थी...... मेरा एक कमजोर कदम और नतीजा "शोट-कट " बन सकता था... चरण सिंह कुछ आगे बढ़ कर नंगे पैर ही बर्फ में खड़े हो मेरा इंतजार करते, परन्तु मेरी चाल बहुत धीमी हो चुकी थी.... मैं हर कदम फूंक-फूंक कर रख रहा था.... चरण सिंह को गज पास से नंगे पैर पवित्र लमडल झील की तरफ जाते देख मेरे मन में यही विचार आ रहा था कि "आस्था बड़ी बलवान है, भाई " और उन्हें देख मेरा तन-मन आध्यात्मिक रंग में रंग गया और मैने उसी मस्ती में भगवान शिव को समर्पित एक पहाड़ी भजन ऊंची आवाज़ में गाना शुरू कर दिया........
शिव कैलाशों के वासी, धौली धारों के राजा,
शंकर संकट हरना.....
तेरे कैलाशों का अंत ना पाया, अंत बेअंत तेरी माया,
मेरे रामा, अंत बेअंत तेरी माया.....
शिव कैलाशों के वासी, धौली धारों के राजा,
शंकर संकट हरना....
दूरां-दूरां दे यात्रू आए, करदे ने जय-जय कारां,
मेरे रामा, करदे ने जय-जय कारां....
शिव कैलाशों के वासी, धौली धारों के राजा,
शंकर संकट हरना....
ऊंची-ऊंची धारां, पैण पुहारां, गज-गज पई जांदा पाड़ा,
मेरे रामा, गज-गज पई जांदा पाड़ा....
शिव कैलाशों के वासी, धौली धारों के राजा,
शंकर संकट हरना....
ग्लेशियर को पार करते-करते अंधेरा छाने लगा और उसके बाद कई सारी बड़ी-छोटी चट्टानों को पार करने के पश्चात जब हम आखिर लमडल झील तक पहुँचें, तो डूब चुके दिन की आखिरी हल्की सी रौशनी में मैने सम्पूर्ण लमडल झील को क्षणिक देखा और फिर क्षण भर में ही गुप्प अंधेरा छा गया.... हमने टार्च की रौशनी में आगे बढ़ना जारी रखा और मुझे चरण सिंह ने झील के आखिरी छोर तक जा कर टार्च की रौशनी में गज नदी का उद्गम स्थल भी दिखाया, जिसमें महाबली भीम द्वारा गज पर्वत के दूसरी ओर किये गदा प्रहार के कारण भूमिगत रुप में झील का पानी उस ओर निकल रहा था......और लमडल के उस छोर पर हम दोनों बैठ गए........ जिस प्रकार मैदानी इलाकों में पानी के किनारे जलचरों, मंढेकों और झिगरों के स्वरों का एक "संगीत सम्मेलन" चल रहा होता है, परन्तु वहाँ अंधेरे की भाँति ही झील भी बिल्कुल स्थिर व शांत थी, एक अजीब सी खामोशी जिसमें मुझे अपने भीतर का "शंखनाद" सुनाई दे रहा था.......
वहीं बैठे-बैठे मैने चरण सिंह से पूछा कि इस स्थान व झील की खोज किसने की थी, तो चरण सिंह ने कहा कि हम गद्दी जाति के किसी बुजुर्ग ने ही की होगी....जो भेड़-बकरियाँ चराते-चराते यहाँ तक पहुंच गए होगें..... फिर धीरे-धीरे गद्दीयों के साथ और लोग भी इस झील के पवित्र जल में नहाने व भगवान शिव को माथा टेकने पहुंचने लगे........ पर वो सब पुरुष ही होते थे, क्योंकि औरतों का यहाँ आना वर्जित था, या यूँ कहे कि यात्रा कठिन होने के कारण औरते यहाँ पहुंच ही नहीं सकती थी.......फिर कालान्तर में एक महत्वपूर्ण घटना घटी.....
चम्बा के एक परिवार में जेठानी हमेशा अपनी देवरानी को बांझ होने का ताना देती.......देवरानी ने गद्दी लोगों से सुन रखा था कि, चम्बा धार पर्वत के ऊपर भगवान शिव का डल(झील) है....यहाँ मांगी सब मनोकामनाएँ भगवान शिव पूर्ण कर देते हैं....... सो वह औरत लोगों के लाख मना करने के बावजूद भी हठ कर पहाड पर चढ़ गई और लमडल पहुंच गई................. और डल पर आ कर बोली, "हे शिव.... मुझे औलाद दो या फिर मेरे प्राण हर लो, मैं बांझ रुप में ज़िंदा नही रहना चाहती"..........और अपनी जान देने हेतू लमडल झील की ओर बढ़ने लगी...... तभी दो नाग मनुष्य रुप में प्रकट हुए और उन्होंने उस हठी स्त्री की व्याकुलता, यह कह शांत की..."हे माता, आप भगवान शिव से अपनी मन्नत मांग कर अपने घर-संसार में वापस जाएं, वे आपको निराश नही होने देंगे...... आखिर उस स्त्री ने वैसा ही किया और समय अनुसार उसे दो पुत्रों की प्राप्ति हुई...... मन्नत पूर्ण होने पर, उसने अपने कथन अनुसार दो भेडू भगवान शिव को अर्पण करने हेतू लमडल झील में छोड़ दिये और देखते ही देखते दोनों भेडू झील में डूब गए, यानि कि भगवान शिव ने भेट स्वीकार कर ली, तब के बाद से अब यहाँ तक औरते भी आ रही हैं, इस झील से ऊपर एक ओर झील है...... धामघौड़ी महाकाली डल, यहाँ अब भी औरतों का जाना वर्जित है...........
लमडल पर दी गई बलि की बात सुन कर मेरे कान खड़े हो गए और मैने चरण सिंह से पूछा, क्या अब भी लमडल पर पशुबलि दी जाती है, तो चरण सिंह ने कहा...जी हां, जिनकी मन्नत पूर्ण होती हैं, वे लोग भेडू झील पर अर्पण करते हैं..........लमडल का जल भेडू के शरीर पर डाल उसे "क.... " दिया जाता है, हम बहुत से गद्दी लोग भी हर साल जून महीने में भगवान शिव को "न्ऊआला"(भेडू की बलि नामक भेट) अर्पण करते हैं, इसलिए कि भगवान शिव हमारी व हमारी भेड़ों को भालू व बीमारियों से बचा कर रखे..... और आश्चर्यजनक बात है, पंडित जी.... कि बलि देने के बाद हम भेड़ों की रखवाली या उनका पीछा नही करते..... भेड़े बेख़ौफ इन पहाडों में चरती हैं और कभी हमारी भेड़ों पर भालू का हमला भी नही होता....
मैं बलि प्रथा का कट्टर विरोधी हूँ, सो तैश में बोला, "राणा जी, माफ़ करना...... क्या आपको लगता है कि भगवान शिव अपने भगतों से बलि मांगते हैं.... किसी भी धर्म का देवता व भगवान ऐसा नही कर सकता, इन निर्दोष, गूंगे जानवरों को हम मनुष्य जाति के जीभ के स्वाद के लिए ही बलि नामक ढ़कोसले में धकेला जाता है".......मेरी बात सुन कर चरण सिंह शांत रहे और बोले, "पंडित जी यह सब पुरातन काल से चलता आ रहा है, इसलिए अब भी इस रिवाज़ का निर्वाह आस्थासहित हो रहा है..... चलो छोड़ो इन बातों को, हम मंदिर की तरफ चलते हैं"........ और हम दोनों वहां से उठ कर झील के किनारे बने एक छोटे से शिव मंदिर की तरफ चल दिये....
झील के किनारे एक ऊंची शिला पर एक छोटा सा शिव मंदिर, जिसमें कई सारी भगवान शिव की मूर्तियाँ और शिव लिंग स्थापित है..... बहुत सारे झंडे, त्रिशूल, खेल वाले संगल और नंदी की मूर्तियाँ मंदिर के आसपास पड़ी थी....... मैने चरण सिंह की तरह ही मंदिर जाने से पहले लमडल के पवित्र जल से औपचारिक स्नान के छीटें लेकर.....मंदिर में शिव लिंग पर जल चढ़ा कर भगवान शिव की वंदना की.....मन एक चित शांत हो रहा था, कि तभी दिमाग में एक तीव्र विचार घूम गया कि, विकास इस झील पर इस छोटे से मंदिर के अलावा....... रात काटने के लिए कोई भी स्थान नही है...... रात के आठ बज चुके थे, बस चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा..... और क्या रात यहां झील के किनारे खुले में ही काटनी पड़ेगी.......
......................(क्रमश:)
इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र (http://vikasnarda.blogspot.com/2017/04/1-lamdal-yatra-via-gaj-pass-4470mt.html?m=1) स्पर्श करें।
पिछली किश्त में मैने आपको बताया था कि हम गज पर्वत के शिखर को लांघ कर, अब दूसरी ओर एक बहुत विशाल ग्लेशियर को पार कर रहे थे........... लमडल झील की तरफ जाने हेतू, मुझ से आगे राणा चरण सिंह बर्फ पर तेजी से नंगे पाँव चल रहे थे और मैं सम्भलता-सम्भलता हुआ बहुत धीरे-धीरे अपनी स्टिक के सहारे पैर जमा-जमा कर आगे बढ़ रहा था, क्योंकि वह उतराई बेहद टेढ़ी थी...... मेरा एक कमजोर कदम और नतीजा "शोट-कट " बन सकता था... चरण सिंह कुछ आगे बढ़ कर नंगे पैर ही बर्फ में खड़े हो मेरा इंतजार करते, परन्तु मेरी चाल बहुत धीमी हो चुकी थी.... मैं हर कदम फूंक-फूंक कर रख रहा था.... चरण सिंह को गज पास से नंगे पैर पवित्र लमडल झील की तरफ जाते देख मेरे मन में यही विचार आ रहा था कि "आस्था बड़ी बलवान है, भाई " और उन्हें देख मेरा तन-मन आध्यात्मिक रंग में रंग गया और मैने उसी मस्ती में भगवान शिव को समर्पित एक पहाड़ी भजन ऊंची आवाज़ में गाना शुरू कर दिया........
शिव कैलाशों के वासी, धौली धारों के राजा,
शंकर संकट हरना.....
तेरे कैलाशों का अंत ना पाया, अंत बेअंत तेरी माया,
मेरे रामा, अंत बेअंत तेरी माया.....
शिव कैलाशों के वासी, धौली धारों के राजा,
शंकर संकट हरना....
दूरां-दूरां दे यात्रू आए, करदे ने जय-जय कारां,
मेरे रामा, करदे ने जय-जय कारां....
शिव कैलाशों के वासी, धौली धारों के राजा,
शंकर संकट हरना....
ऊंची-ऊंची धारां, पैण पुहारां, गज-गज पई जांदा पाड़ा,
मेरे रामा, गज-गज पई जांदा पाड़ा....
शिव कैलाशों के वासी, धौली धारों के राजा,
शंकर संकट हरना....
ग्लेशियर को पार करते-करते अंधेरा छाने लगा और उसके बाद कई सारी बड़ी-छोटी चट्टानों को पार करने के पश्चात जब हम आखिर लमडल झील तक पहुँचें, तो डूब चुके दिन की आखिरी हल्की सी रौशनी में मैने सम्पूर्ण लमडल झील को क्षणिक देखा और फिर क्षण भर में ही गुप्प अंधेरा छा गया.... हमने टार्च की रौशनी में आगे बढ़ना जारी रखा और मुझे चरण सिंह ने झील के आखिरी छोर तक जा कर टार्च की रौशनी में गज नदी का उद्गम स्थल भी दिखाया, जिसमें महाबली भीम द्वारा गज पर्वत के दूसरी ओर किये गदा प्रहार के कारण भूमिगत रुप में झील का पानी उस ओर निकल रहा था......और लमडल के उस छोर पर हम दोनों बैठ गए........ जिस प्रकार मैदानी इलाकों में पानी के किनारे जलचरों, मंढेकों और झिगरों के स्वरों का एक "संगीत सम्मेलन" चल रहा होता है, परन्तु वहाँ अंधेरे की भाँति ही झील भी बिल्कुल स्थिर व शांत थी, एक अजीब सी खामोशी जिसमें मुझे अपने भीतर का "शंखनाद" सुनाई दे रहा था.......
वहीं बैठे-बैठे मैने चरण सिंह से पूछा कि इस स्थान व झील की खोज किसने की थी, तो चरण सिंह ने कहा कि हम गद्दी जाति के किसी बुजुर्ग ने ही की होगी....जो भेड़-बकरियाँ चराते-चराते यहाँ तक पहुंच गए होगें..... फिर धीरे-धीरे गद्दीयों के साथ और लोग भी इस झील के पवित्र जल में नहाने व भगवान शिव को माथा टेकने पहुंचने लगे........ पर वो सब पुरुष ही होते थे, क्योंकि औरतों का यहाँ आना वर्जित था, या यूँ कहे कि यात्रा कठिन होने के कारण औरते यहाँ पहुंच ही नहीं सकती थी.......फिर कालान्तर में एक महत्वपूर्ण घटना घटी.....
चम्बा के एक परिवार में जेठानी हमेशा अपनी देवरानी को बांझ होने का ताना देती.......देवरानी ने गद्दी लोगों से सुन रखा था कि, चम्बा धार पर्वत के ऊपर भगवान शिव का डल(झील) है....यहाँ मांगी सब मनोकामनाएँ भगवान शिव पूर्ण कर देते हैं....... सो वह औरत लोगों के लाख मना करने के बावजूद भी हठ कर पहाड पर चढ़ गई और लमडल पहुंच गई................. और डल पर आ कर बोली, "हे शिव.... मुझे औलाद दो या फिर मेरे प्राण हर लो, मैं बांझ रुप में ज़िंदा नही रहना चाहती"..........और अपनी जान देने हेतू लमडल झील की ओर बढ़ने लगी...... तभी दो नाग मनुष्य रुप में प्रकट हुए और उन्होंने उस हठी स्त्री की व्याकुलता, यह कह शांत की..."हे माता, आप भगवान शिव से अपनी मन्नत मांग कर अपने घर-संसार में वापस जाएं, वे आपको निराश नही होने देंगे...... आखिर उस स्त्री ने वैसा ही किया और समय अनुसार उसे दो पुत्रों की प्राप्ति हुई...... मन्नत पूर्ण होने पर, उसने अपने कथन अनुसार दो भेडू भगवान शिव को अर्पण करने हेतू लमडल झील में छोड़ दिये और देखते ही देखते दोनों भेडू झील में डूब गए, यानि कि भगवान शिव ने भेट स्वीकार कर ली, तब के बाद से अब यहाँ तक औरते भी आ रही हैं, इस झील से ऊपर एक ओर झील है...... धामघौड़ी महाकाली डल, यहाँ अब भी औरतों का जाना वर्जित है...........
लमडल पर दी गई बलि की बात सुन कर मेरे कान खड़े हो गए और मैने चरण सिंह से पूछा, क्या अब भी लमडल पर पशुबलि दी जाती है, तो चरण सिंह ने कहा...जी हां, जिनकी मन्नत पूर्ण होती हैं, वे लोग भेडू झील पर अर्पण करते हैं..........लमडल का जल भेडू के शरीर पर डाल उसे "क.... " दिया जाता है, हम बहुत से गद्दी लोग भी हर साल जून महीने में भगवान शिव को "न्ऊआला"(भेडू की बलि नामक भेट) अर्पण करते हैं, इसलिए कि भगवान शिव हमारी व हमारी भेड़ों को भालू व बीमारियों से बचा कर रखे..... और आश्चर्यजनक बात है, पंडित जी.... कि बलि देने के बाद हम भेड़ों की रखवाली या उनका पीछा नही करते..... भेड़े बेख़ौफ इन पहाडों में चरती हैं और कभी हमारी भेड़ों पर भालू का हमला भी नही होता....
मैं बलि प्रथा का कट्टर विरोधी हूँ, सो तैश में बोला, "राणा जी, माफ़ करना...... क्या आपको लगता है कि भगवान शिव अपने भगतों से बलि मांगते हैं.... किसी भी धर्म का देवता व भगवान ऐसा नही कर सकता, इन निर्दोष, गूंगे जानवरों को हम मनुष्य जाति के जीभ के स्वाद के लिए ही बलि नामक ढ़कोसले में धकेला जाता है".......मेरी बात सुन कर चरण सिंह शांत रहे और बोले, "पंडित जी यह सब पुरातन काल से चलता आ रहा है, इसलिए अब भी इस रिवाज़ का निर्वाह आस्थासहित हो रहा है..... चलो छोड़ो इन बातों को, हम मंदिर की तरफ चलते हैं"........ और हम दोनों वहां से उठ कर झील के किनारे बने एक छोटे से शिव मंदिर की तरफ चल दिये....
झील के किनारे एक ऊंची शिला पर एक छोटा सा शिव मंदिर, जिसमें कई सारी भगवान शिव की मूर्तियाँ और शिव लिंग स्थापित है..... बहुत सारे झंडे, त्रिशूल, खेल वाले संगल और नंदी की मूर्तियाँ मंदिर के आसपास पड़ी थी....... मैने चरण सिंह की तरह ही मंदिर जाने से पहले लमडल के पवित्र जल से औपचारिक स्नान के छीटें लेकर.....मंदिर में शिव लिंग पर जल चढ़ा कर भगवान शिव की वंदना की.....मन एक चित शांत हो रहा था, कि तभी दिमाग में एक तीव्र विचार घूम गया कि, विकास इस झील पर इस छोटे से मंदिर के अलावा....... रात काटने के लिए कोई भी स्थान नही है...... रात के आठ बज चुके थे, बस चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा..... और क्या रात यहां झील के किनारे खुले में ही काटनी पड़ेगी.......
......................(क्रमश:)
मैं राणा चरण सिंह पीछे-पीछे गज पास को लांघ कर लमडल झील पर जाने के लिए इस ग्लेशियर की ओर बढ़ रहा था.... |
और, चरण सिंह बर्फ में नंगे पैर ही खड़े मेरा इंतजार करते... जब तक मैं उनके पास नही पहुंच जाता, ऐसा कई बार हुआ... |
लमडल झील पर औपचारिक स्नान के छीटें.... |
ओम नमो शिवाय:...... |
हर हर महादेव.... |
बस..... जब मैं लमडल झील पर पहुंचा, तो इतनी ही रोशनी बची थी झील को देखने के लिए.....और दूसरे ही क्षण सब कुछ अंधेरे में तबदील हो गया... |
मंदिर के पास लमडल झील के किनारे लगा, यह सूचना पट.... ( अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें ) |
गजब नंगे पैर साक्षात शिव ही है यह तो
जवाब देंहटाएंजी हां लोकेन्द्र जी गजब।
हटाएंजी हां लोकेन्द्र जी गजब।
हटाएंबली प्रथा का विरोधी में भी हु पर क्या करे किसी को कुछ कह नही सकते...
जवाब देंहटाएंबलि किसी देव-देवी को नही, बल्कि बलि दे रहे इंसान की जीभों को चाहिए होती है, प्रतीक जी।
हटाएंअपनी पवित्र ओर पारम्परिक सोच मैं कितने पक्के है ये गद्दी लोग।
जवाब देंहटाएंभोले की माया ॐ नमः शिवाए🙏
सही कहा आपने सुमित जी , जय भोले।
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