रविवार, 16 अगस्त 2020

भाग-10 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा" (Kinner Kailash Yatra)

भाग-10 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

इस यात्रा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र http://vikasnarda.blogspot.com/2020/05/blog-post.html?m=1स्पर्श करें।

  आशा और आशंका...!

     22अगस्त 2017....सुबह 10बजे, नंदू लड़खड़ाता हुआ बैठ-बैठ कर नीचे उतरता जा रहा था, जबकि मैं उसी जगह पर खड़ा उसे एक टक देख रहा था। मोड़ मुड़ कर जब नंदू मुझे दिखाई देना बंद हो गया, तो एक गहरी साँस छोड़ पुन: एक गहरी साँस भर कर ऊपर की तरफ़ चल तो पड़ा....पर बार-बार पीछे मुड़कर नंदू की तरफ़ देखता हूँ, जैसे ही मुझे वह दोबारा पगडंडी पर उतरता दिखाई पड़ता है.....मैं ऊँची आवाज़ में चिल्लाता हूँ-
"नंदू, मुड़ आ....चलते हैं यार, ज्यादा दूर नहीं होगा किन्नर कैलाश!"
                     नंदू भी चीखा- "नहीं विक्की, तू चला जा... मेरी बस है अब, मैं तेरा गुफ़ा में इंतजार करूँगा!!"
मुझे पता था कि मैं एक औपचारिकता ही निभा रहा हूँ, परंतु नंदू ने अपने त्याग से मुझे बंधन-मुक्त कर डाला कि मैं हर हाल में किन्नर कैलाश जा सकूँ।
                      फिर से खड़ा हो....नीचे बहुत दूर पहुँच चुके नंदू को देखता रहता हूँ तब तक, जब तक वह मेरी आँखों से ओझल नहीं हो जाता। तब एकाएक मुझे एकाकीपन का एहसास होता है, घाटी के मध्य पत्थरों पर उछल-कूद मचा रहे बर्फीले पानी की आवाज़ मेरे कानों में गूंजने लगी... जिसे मैं कुछ समय पहले तक सुनकर अनसुना कर रहा था।
                     चंद कदम और ही चढ़ा था कि एक गर्जना सुनाई दी, सामने मेरी दाईं ओर के पहाड़ पर से चट्टानें टूट-टूट कर नीचे गिर रही थी। अपनी तरफ यानि बाईं ओर के पहाड़ के ऊपर की तरफ़ देख शुक्र मनाता हूँ कि यहाँ पहाड़ शांत बैठा है, उसमें दाईं तरफ़ के पहाड़ सी बेचैनी नहीं है.....परंतु मेरे मन को बेचैन होने से कौन रोक सकता था भला!!!!
                    बीस-तीस कदम चढ़ते ही पगडंडी किनारे एक चट्टान पर "ॐ" लिखा देख ठहर जाता हूँ, नास्तिक होने के बावजूद भी मुझ में श्रद्धा के कुछ भाव जीवित हैं....शायद मेरे जीवन के पहले 18वर्ष जो आस्तिकता में बीते हैं या मेरे संस्कारों की वजह से। चट्टान पर स्प्रे पेंट से लिखा "ॐ" देख मन की बेचैनी को ठहराव मिलने लगता है।
                    दाईं तरफ़ के इंद्रकील पर्वत के कंधे से रह-रहकर चट्टानें व पत्थर टूट-टूट कर नीचे गिरतें जा रहे थे, पत्थरों पर पत्थर बजने की आवाज़ उस ख़ामोशी में भयभीत करने के लिए काफी थी.....भय इस बात का, कि कहीं पर्वतराज अपनी बाईं तरफ के कंधे पर "खुजली" ना कर बैठे,  जिस पर मैं दबे पाँव ऊपर की ओर चल रहा हूँ। 
                    कुछ और ऊपर जा कर देखता हूँ कि झरने की तरफ पगडंडी से दूर वो दोनों घर से भागे हुए बच्चे जंगली फूल तोड़, एक गुलदस्ता सा बना रहे थे। उन्हें ऊँची आवाज़ देता हूँ, तो वो प्रवासी लड़का ही जवाब देता है- "हम ऊपर माथा टेक आए, अंकल।"
                   आगे बढ़ते-बढ़ते मैं सोच में था कि ये बच्चे ढाई-तीन घंटे में जा कर वापस आ भी गए हैं, शायद इतना सा ही रास्ता हो......या फिर यह दोनों बच्चे भाग-भाग कर ऊपर जा आए हो, खुद को किये इस प्रश्न का उत्तर मैं क्या जानूँ....चला तो जा रहा हूँ देखो मुझे कितना समय लगता है किन्नर कैलाश पहुँचने में....!!
                   गुफ़ा से चले मुझ को अब तक दो-तीन जगह पर चूहों जैसे, पर उससे काफी बड़े आकार के जंतु नज़र आए...जो मुझे पास आता देख अपने बिल में घुस जाते, उनकी फोटो खींचने का अवसर हर बार मुझ से ऐन मौके पर फिसल जाता।
                 11बज चुके थे, कुछ समय पगडंडी किनारे एक समतल सी चट्टान पर बैठ कभी नीचे की तरफ़ देखता हुआ 'रिकांगपिओ-कल्पा' को निहारने लगता, तो कभी ऊपर की तरफ़ मुझे झाँक रहे पर्वत शिखरों को झाँकने लग पड़ता। चमकती धूप ने मेरी गर्म जैकेट को उतरवा दिया था, जो मेरी कमर पर बंधी थी। साँसों को सामान्य कर फिर से चल देता हूँ ऊपर की ओर।
                अब मिट्टी की बनी पगडंडी पीछे रह गई थी, सामने चट्टानें ही चट्टानें बिखरी दिखाई पड़ रही थी...जिन पर रास्ता बताने के लिए कुछ-कुछ दूरी पर पांच-सात पत्थर एक-दूसरे के ऊपर चिन कर रखे गए थे। मैं ऐसे एक चिन्ह पर पहुँच, उस जैसे दूसरे चिन्ह को ढूँढने लगता। अब मुझे समझ आ रहा था कि क्यों चंडीगढ़ वाले रमन शर्मा जी के दल को अंधेरा होने पर नीचे उतरने के लिए पगडंडी नहीं मिली, उन्होंने यहीं कहीं बैठकर रात काटी होगी। उन चट्टानों में एक ऊँची चट्टान पर खड़ा हो, मैं पांच-सात वैसे ही चिन्हों की खोज कर रास्ते की दिशा देख, उस ओर बढ़ जाता।
                  दाईं तरफ के पहाड़ पर हर पांच-सात मिनट बाद हरकत होती, धड़ाधड़ पत्थर गिरने की आवाज़.... और मैं उस तरफ़ देखने की बजाय अपनी तरफ के पहाड़ के शिखर की ओर झट से भय-मिश्रित शंकित नज़रें गड़ा देता। आख़िर इस तरफ़ की चट्टानें भी तो कभी-ना-कभी टूट कर ही तो मेरे पैरों के नीचे बिखरी पड़ी है...!
                  अभी बीच-बीच में कहीं-कहीं रास्ता बताने के लिए पत्थरों पर लाल रंग से बनाए निशान भी मुझे रास्ता सुलझाने लग पड़े।
                 सवा ग्यारह बजे, मुझे मेरी मंज़िल के प्रथम दर्शन होते हैं...वो दूर सामने चट्टानों के ढेर के सिर पर असाधारण रूप से आसमान की तरफ़ तनी एक शिला पर नज़र जा पड़ती है, हां यही "किन्नर कैलाश" है.....अब यह खुशी खुद को ही तो सुना सकता हूँ, इन चहकती हुई मेरी बातों को सुनने वाला तो....गुफ़ा मे कब का पहुँच चुका होगा। नंदू की याद आते ही मोबाइल पर सिग्नल तलाशता हूँ, जो पूरी मुस्तैदी से मेरे "गधा मोबाइल सेट" पर पहरा दे रहा था....नंदू को फोन लगाता हूँ, उसकी खैरियत जानने के लिए।
                   नंदू से बात हो जाती है, वह गुफ़ा में पहुँचकर पिछले एक घंटे से लेटा हुआ है और धीरे-धीरे उसकी तबीयत में सुधार आ रहा है। खैर इस किन्नर कैलाश ट्रैक की कई सारी खूबियों में यह भी बहुत तसल्लीदार खूबी है कि इस ट्रैक पर मोबाइल फोन का नेटवर्क आपका अदृश्य रक्षक बन, आपके अंग-संग चलता रहता है....जो किसी भी पर्वतारोही के लिए वरदान से कम नहीं है। इस नेटवर्क की बदौलत ही तो जून2019 में, तय समय से पहले किन्नर कैलाश चढ़ आया पांच दोस्तों का वो दल (जिन की कहानी मैंने आपको 6वें भाग में सुनाई थी) जिनमें से दो लड़के मर गए और तीन को पुलिस ने रेस्क्यू अभियान चलाकर बचाया था। ज्यादातर पर्वतारोहण यात्रा में मोबाइल नेटवर्क एक दग़ाबाज़ दोस्त की तरह ही हमारा साथ छोड़ देता है, परंतु किन्नर कैलाश ट्रैक पर जेब में पड़े नेटवर्क वाले मोबाइल फोन का यात्री से ऐसा रिश्ता हो जाता है जैसे "धर्म-वीर की जोड़ी!"
                 मैं अपनी पर्वतारोहण यात्राओं में कई बार घर-परिवार व समाज से लापता हो जाता हूँ....जैसे मेरी लमडल यात्रा में, मैं पहली बार चार दिनों के लिए मोबाइल नेटवर्क क्षेत्र से बाहर रहा और अभी पिछले वर्ष की हुई "बैजनाथ से मणिमहेश"  की पदयात्रा में चौथे दिन अपने परिवार को अपनी सलामती की ख़बर पहुँचा पाया। इस प्रकार के दिन काटना, मेरे अपनों के लिए बहुत कष्टदायक होते हैं....और इन दिनों में, मैं भी ना जाने कितनी बार अपने फोन पर टटोलता रहता हूँ कि कहीं से कोई हवा का झोंका आए और मेरी खैरियत मेरे अपनों तक जा पहुँचाऐ।
                 तभी ऊपर की तरफ़ से तीन नवयुवक उछलते-कूदते मेरी ओर बढ़ते चले आ रहे दूर से दिखाई पड़े। उनके हाथों में पकड़े फूलों को देख मेरी बांछें खिल गई.... वह "ब्रह्मकमल"  के फूल थे। नजदीक आने पर उन तीनों को पहचान लेता हूँ....तंगलिंग गाँव का आशीष नेगी और उसके दो मित्र आकाश (पडसेरी गाँव) व सोनू(तेलिंगी गाँव) ये तीनों हमें कल दोपहर में मलिंगखट्टा की चढ़ाई चढ़ते हुए बीच रास्ते में मिले थे। स्थानीय होने के कारण ये तीनों हिरनों सी छलांगें मारते ऊपर चढ़ते जा रहे थे। वे भी मुझे पहचान कर नंदू के विषय में पूछते हैं।
                   ब्रह्मकमलों के साथ उनके हाथों में नीले रंग के फूलों के भी गुच्छे थे, जिन्हें मैं पहली बार देख रहा था... "खसबल के फूल"  नाम बताया गया मुझ को, यह फूल जख़्म भरने के लिए औषधि के रूप में इस्तेमाल होता है। मैं उत्साहित हो, आशीष नेगी से पूछता हूँ - "तो, अब कितनी और आगे जाकर मुझे ब्रह्मकमल के फूल मिलने लगेंगे...?"
                  आशीष हंसते हुए बोला- "अब तो किन्नर कैलाश के रास्ते में कहीं भी ब्रह्मकमल नहीं मिलेगा, क्योंकि यात्रा के समय में रास्ते के सारे फूल यात्रियों द्वारा तोड़ लिये गए हैं....हम भी यह सारे फूल किन्नर कैलाश से भी और आगे जाकर इकट्ठा कर लाए हैं।"
                  मैं उनके हाथों से सारे फूल अपने हाथों में ऐसे लेता हूँ जैसे किसी नए जन्मे शिशु को अपने हाथों में थाम रहा हूँ। मेरे हाथों में आते ही ब्रह्मकमल की सुगंध ने मुझे चंद क्षणों के लिए ही सही, एक अलौकिक अनुभूति करा दी। फूलों को अपने हाथों में थाम, मैं घर से भाग कर किन्नर कैलाश आए बच्चों के विषय में उनसे पूछता हूँ कि वे दोनों बच्चे उन्हें ऊपर मिले थे....तो उन्होंने उन दोनों बच्चों के बारे में अज्ञानता जताई कि हमें किन्नर कैलाश और उसके रास्ते में कहीं भी कोई बच्चे नहीं मिले।
                 "परंतु वे दोनों बच्चे तो कह रहे थे कि वे किन्नर कैलाश माथा टेक आए हैं, वे मुझे अभी नीचे वापसी करते हुए मिले हैं....मैं खुद हैरान था कि वे ढाई घंटे में किन्नर कैलाश माथा टेक भी आए!!"
                  मेरी बात सुन आशीष बोला- "फिर तो, वे बच्चे पार्वती कुण्ड पर ही किन्नर कैलाश शिला के दर्शन कर वापस हो लिये होंगे।"
                 "ऐसा ही हुआ होगा आशीष जी, उन बच्चों ने पार्वती कुण्ड को ही किन्नर कैलाश मान लिया होगा।"
                  "अच्छा, अभी ऊपर और कितने लोग हैं"  के मेरे सवाल पर वे तीनों एक साथ बोले- "कोई नहीं, हम तीनों ही आज तड़के गुफ़ा से किन्नर कैलाश के लिए चले थे।"
                   "ऊपर कोई नहीं है" सुन कर एक बार तो मेरी घिग्घी बंध गई। परंतु संकल्प में बहुत ताकत होती है, दूसरे ही क्षण संकल्प ने मेरे ढीले पड़े कंधों में फिर से अकड़ फूँक दी.....और मैं उसी जोश में उन तीनों को उनके ब्रह्मकमल वापस थमा, हर-हर-महादेव का उद्घोष कर ऊपर की तरफ़ चल देता हूँ। आशा और आशंका के सुविचारों और कुविचारों से एकदम अपने दिमाग को शून्य कर लेता हूँ और हर बार की तरह मन ही मन बुदबुदाने लगता हूँ- "अब आगे जो होगा देखा जाएगा!!!"
                   चलते-चलते अब मैं वहाँ तक पहुँच चुका हूँ, जहाँ से इंद्रकील पर्वत शिखर के नीचे एक मैदान नुमा समतल जगह नज़र आने लगी, जिसमें अब कहीं भी झरने का पानी नज़र नहीं आ रहा था....मतलब कि पानी वहाँ भूमिगत बह रहा है। इंद्रकील पर्वत शिखर से नीचे बाईं तरफ़ किन्नर कैलाश शिला अब और स्पष्ट दिखाई पड़ने लगी। शिखर को छोड़ कहीं भी बर्फ़ नहीं नज़र आ रही थी और पर्वत शिखर से फिसल कुछ नीचे पड़ी बर्फ़ भी छोटे-छोटे ग्लेशियरों के रूप में थी, जो कि कभी भी पूरे नहीं पिघले होंगे। शिखर पर पड़ी सफ़ेद बर्फ़ और शिखर को चूमने आए सफ़ेद बादलों के रंग में, मैं फ़र्क नहीं देख पा रहा था...दोनों का रंग एक सा ही था। पहली नज़र में मुझे ऐसा लगा था कि नीले आसमान से बर्फ़ पर्वत शिखर पर उतर रही हो जैसे...!!
                     तुंगमापी घड़ी पर नज़र डालता हूँ- 4315मीटर, मतलब पिछले ढाई घंटे में....मैं गुफ़ा से 425 मीटर ऊँचा चढ़ आया हूँ। अब जहाँ-तहाँ कई जगहों पर ब्रह्मकमल के बूटे(पौधे) दिखाई पड़ने लगे, परंतु उन पर से सारे के सारे ब्रह्मकमल तोड़े जा चुके थे। मन में एक टीस सी उठती है कि यदि इसी प्रकार ब्रह्मकमल और अन्य फूलों को यात्री अंधाधुंध तोड़कर अपने साथ ले जाते रहे...तो आख़िर किन्नर कैलाश ट्रैक से ये फूल विलुप्त हो जाएंगे। फूल तोड़ कर अपने साथ ले जाने का अर्थ है, कि हम उस बूटे के जीवन चक्र का कत्ल कर रहे हैं....क्योंकि फूल से ही बीज बनता है, जो इस बूटे को पुनर्जीवित कर देता है।
                  हालांकि मैं आशीष नेगी और उसके दोनों दोस्तों के द्वारा तोड़े गए फूलों का समर्थन भी नहीं करता, तब भी मैंने विरोधी स्वर में उनसे पूछा था कि इतने सारे फूलों का तुम लोग क्या करोगे...?
                  तो, आशीष बोला- "हम इन ब्रह्मकमलों को सुखाकर रख लेते हैं और सारा वर्ष होने वाली भिन्न-भिन्न पूजाओं में शंकरस के मंदिर में जाकर इन्हें चढ़ाते हैं।" आशीष की बात सुन मैं समझ गया कि चलो स्थानीय लोगों में तो इस दुर्लभ पुष्प से संबंधित कई रीति-रिवाज़ होंगे, पर मुझ जैसे उन यात्रियों का क्या जो बाहर से आकर अंधाधुंध इन फूलों का शिकार कर, उन्हें अपने बैगों में ठूँस कर भर लेते हैं और नीचे उतरते ही जब ये फूल दो-चार दिन में मुरझा जाते हैं तो इन्हें फेंक देते हैं। मैंने श्रीखंड कैलाश यात्रा पर भी पार्वती बाग पर लगे बेशुमार ब्रह्मकमलों में से लोगों को ब्रह्मकमल तोड़ उन्हें अपने बैग में छिपाते देखा है।  मैंने वहाँ इन ब्रह्मकमलों को जीवन में पहली बार देखा था और बस देखता ही रहा, ऐसे जैसे पालने में सो रहे शिशु को देखते हैं....उन फूलों को छूने की हिम्मत भी नहीं जुटा सका।                   
                   चट्टानों के मलबे में मेरी आँखें उन चिन्हों को  ढूँढ रही थी जो मेरे पथ-प्रदर्शक बने हुए थे, यह तलाश ही मुझे आगे और आगे बढ़ाती जा रही थी। वैसे पत्थर के ऊपर पत्थर चिन कर बनाए जाते इन चिन्हों को धौलाधार हिमालय में रहने वाले गद्दी लोग "हीआ" या "खूंडी" कहते हैं, पर यहाँ के किन्नर इन चिन्हों को किस नाम से पुकारते होंगे, मैं नहीं जानता।
                   पीछे रास्ते में आई एक चट्टान पर स्प्रे पेंट से "ॐ" लिखने वाले उस सज्जन ने यहाँ पहुँच कर, फिर से एक चट्टान पर लिखा था- "सब्र का फल मीठा, बोलो शंकर" पढ़कर मैं मन ही मन बोलता हूँ- "इस जगह पर तुमने बहुत सही लिखा है भाई, यह तमाम यात्रा ही सब्र वालों के लिए है....बेसब्रें इस यात्रा में फिट नहीं बैठते...!!!"
                   सवा बारह बज चुके हैं और मुझे सामने ज़रा सा नीचे की तरफ़ बिखरी पड़ी बड़ी-बड़ी चट्टानों पर रंग- बिरंगी प्रार्थना झंडियों की लड़ियाँ बंधी दिखाई पड़ने लगी, मतलब मैं "पार्वती कुण्ड" पहुँचने वाला हूँ।
                                               (क्रमश:)


पगडंडी किनारे एक चट्टान पर "ॐ" लिखा देख ठहर जाता हूँ, नास्तिक होने के बावजूद भी मुझ में श्रद्धा के कुछ भाव जीवित हैं।

दाईं तरफ़ के इंद्रकील पर्वत के कंधे से रह-रहकर चट्टानें व पत्थर टूट-टूट कर नीचे गिरतें जा रहे थे, पत्थरों पर पत्थर बजने की आवाज़ उस ख़ामोशी में भयभीत करने के लिए काफी थी।

पीछे रह गया रास्ता।

भय इस बात का, कि कहीं पर्वतराज अपनी बाईं तरफ के कंधे पर "खुजली" ना कर बैठे,  जिस पर मैं दबे पाँव ऊपर की ओर चल रहा हूँ। 

11बज चुके थे, कुछ समय पगडंडी किनारे एक समतल सी चट्टान पर बैठ जाता हूँ।

उस चट्टान पर बैठ कभी नीचे की तरफ़ देखता हुआ 'रिकांगपिओ-कल्पा' को निहारने लगता।

 तो, कभी ऊपर की तरफ़ मुझे झाँक रहे पर्वत शिखरों को झाँकने लग पड़ता।

वहीं सामने नीचे की तरफ़ दिख रहा "शाखर" जिसे लाँघ कर हम सुबह गुफ़ा तक पहुँचें थे।

अब मिट्टी की बनी पगडंडी पीछे रह गई थी, सामने चट्टानें ही चट्टानें बिखरी दिखाई पड़ रही थी।

जिन पर रास्ता बताने के लिए कुछ-कुछ दूरी पर पांच-सात पत्थर एक-दूसरे के ऊपर चिन कर रखे गए थे। मैं ऐसे एक चिन्ह पर पहुँच, उस जैसे दूसरे चिन्ह को ढूँढने लगता। 

ऊपर-नीचे के दृश्यों संग स्वयंचित्र...!

इंद्रकील पर्वत शिखर।

सवा ग्यारह बजे, मुझे मेरी मंज़िल के प्रथम दर्शन होते हैं...वो दूर सामने चट्टानों के ढेर के सिर पर असाधारण रूप से आसमान की तरफ़ तनी एक शिला पर नज़र जा पड़ती है, हां यही "किन्नर कैलाश" है।

मोबाइल से ही जूम कर खिंचा गया किन्नर कैलाश शिला का एक निकट चित्र।

तभी ऊपर की तरफ़ से तीन नवयुवक उछलते-कूदते मेरी ओर बढ़ते चले आ रहे दूर से दिखाई पड़े। उनके हाथों में पकड़े फूलों को देख मेरी बांछें खिल गई.... वह "ब्रह्मकमल"  के फूल थे। नजदीक आने पर उन तीनों को पहचान लेता हूँ....तंगलिंग गाँव का आशीष नेगी और उसके दो मित्र आकाश (पडसेरी गाँव) व सोनू(तेलिंगी गाँव) ये तीनों हमें कल दोपहर में मलिंगखट्टा की चढ़ाई चढ़ते हुए बीच रास्ते में मिले थे।

ले यार, इसी कोण पर मेरी भी एक फोटो खींच दो।

मैं उनके हाथों से सारे फूल अपने हाथों में ऐसे लेता हूँ जैसे किसी नए जन्मे शिशु को अपने हाथों में थाम रहा हूँ....मेरे हाथों में आते ही ब्रह्मकमल की सुगंध ने मुझे चंद क्षणों के लिए ही सही, एक अलौकिक अनुभूति करा दी। 

चलते-चलते अब मैं वहाँ तक पहुँच चुका हूँ, जहाँ से इंद्रकील पर्वत शिखर के नीचे एक मैदान नुमा समतल जगह नज़र आने लगी, जिसमें अब कहीं भी झरने का पानी नज़र नहीं आ रहा था....मतलब कि पानी वहाँ भूमिगत बह रहा है।

इंद्रकील पर्वत शिखर से नीचे बाईं तरफ़ किन्नर कैलाश शिला अब और स्पष्ट दिखाई पड़ने लगी। 

अब जहाँ-तहाँ कई जगहों पर ब्रह्मकमल के बूटे(पौधे) दिखाई पड़ने लगे, परंतु उन पर से सारे के सारे ब्रह्मकमल तोड़े जा चुके थे। मन में एक टीस सी उठती है कि यदि इसी प्रकार ब्रह्मकमल और अन्य फूलों को यात्री अंधाधुंध तोड़कर अपने साथ ले जाते रहे...तो आख़िर किन्नर कैलाश ट्रैक से ये फूल विलुप्त हो जाएंगे।

किन्नर कैलाश शिला का निकट चित्र।

शिखर पर पड़ी सफ़ेद बर्फ़ और शिखर को चूमने आए सफ़ेद बादलों के रंग में, मैं फ़र्क नहीं देख पा रहा था...दोनों का रंग एक सा ही था।

पहली नज़र में मुझे ऐसा लगा था कि नीले आसमान से बर्फ़ पर्वत शिखर पर उतर रही हो जैसे...!!

तुंगमापी घड़ी पर नज़र डालता हूँ- 4315मीटर, मतलब पिछले ढाई घंटे में....मैं गुफ़ा से 425 मीटर ऊँचा चढ़ आया हूँ।

ज़रा सा दम ले लेता हूँ।

चट्टानों के मलबे में मेरी आँखें इन चिन्हों को ढूँढ रही थी जो मेरे पथ-प्रदर्शक बने हुए थे, यह तलाश ही मुझे आगे और आगे बढ़ाती जा रही थी।

पीछे मुड़कर देखता हूँ....इन चट्टानों को पार कर आया हूँ।

पीछे रास्ते में आई एक चट्टान पर स्प्रे पेंट से "ॐ" लिखने वाले उस सज्जन ने यहाँ पहुँच कर, फिर से एक चट्टान पर लिखा था- "सब्र का फल मीठा, बोलो शंकर" पढ़कर मैं मन ही मन बोलता हूँ- "इस जगह पर तुमने बहुत सही लिखा है भाई, यह तमाम यात्रा ही सब्र वालों के लिए है....बेसब्रें इस यात्रा में फिट नहीं बैठते...!!!"

सवा बारह बज चुके हैं और मुझे सामने ज़रा सा नीचे की तरफ़ बिखरी पड़ी बड़ी-बड़ी चट्टानों पर रंग-बिरंगी प्रार्थना झंडियों की लड़ियाँ बंधी दिखाई पड़ने लगी।

मतलब मैं "पार्वती कुण्ड" पहुँचने वाला हूँ।







रविवार, 2 अगस्त 2020

भाग-9 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा" (Kinner Kailash Yatra)

भाग-9 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

इस यात्रा को आरंभ से पढ़ने का यंत्रhttp://vikasnarda.blogspot.com/2020/05/blog-post.html?m=1 स्पर्श करें।

                       "विकल्प और संकल्प"


       सुबह के सवा सात बज चुके थे, सतलुज घाटी को नहला चुकी धूप से अभी भी हम वंचित चले जा रहे थे क्योंकि हम उस पहाड़ की छाया में थे....जिसके शूल शिखरों पर अभी धूप आई ही थी, पर सामने सतलुज घाटी का नज़ारा खिली हुई धूप से और ज्यादा खिलता जा रहा था। सामने पगडंडी पर कुछ गाय चरती देख मुझसे आगे चल रहा नंदू पगडंडी छोड़, थोड़ा ऊपर चढ़ गायों से दूरी बनाकर उनके पार उतरता है....मैं भी ऐसा ही करता हूँ और नंदू से हंसता हुआ कहता हूँ- "भाई, जानवर का क्या उसे हम अजनबियों की शक्ल पसंद ना आए तो, और...!!" नीचे खाई की तरफ देखता हूँ तो उसमें एक चरागाह नज़र आती है जिसमें कुछ और गायें चर रही थी, इस जगह को स्थानीय लोग "पालंग" नाम से पुकारते हैं। गाय देख मैं नंदू को कहता हूँ- "यहाँ आस-पास फूआलों(गड़रियों) के डेरे होंगे।"
                     दस-पद्रंह मिनट चलते रहने के बाद हमें पानी गिरने की आवाज़ सुनाई देने लगती है, मतलब कि वह एकमात्र झरना अब आने वाला ही है....और कुछ कदमों बाद उस विशाल पथरीले पहाड़ की छाती पर पसीने की लकीर सा बहता झरना भी दिखाई पड़ने लगा।
                     बहुत बार सोचता हूँ कि इन निष्ठुर पर्वतों में बहते मिलते ऐसे छोटे-छोटे झरने सच्चे दोस्त साबित होते हैं, वरना पानी के बिना कौन जीवित बच कर वापस जा सकता है...हे गिरिराज, तेरे मौत के जबड़ों से..!
                     पाठक दोस्तों, ये झरने-नाले बहुत मददगार साबित होते हैं, यदि कोई पहाड़ों में भटक जाए तो वह इन झरने-नालों के बहाव के साथ-साथ चलना शुरू कर दें, तो निश्चित ही वह किसी मानवीय बस्ती तक पहुँच जाएगा।
                     झरने के पास पहुँच, ऊपर की ओर देखता हूँ तो चट्टानी पहाड़ को घिस-घिस कर बर्फ़ीले पानी ने सतलुज से मिलने के लिए अपना रास्ता खुद ही निकाला हुआ है, झरने में पड़ी छोटी-बड़ी चट्टानें उसका रास्ता रोकने में असमर्थ जान पड़ती हैं....पानी एक कुशल खिलाड़ी की तरह उनके ऊपर से छलांगें लगा रहा था। फिर भागे जाते पानी की भागने की दिशा यानि नीचे की तरफ़ देखता हूँ तो रिकांगपिओ शहर के दर्शन फिर से शुरू हो जाते हैं। तड़के की अपने कंधों पर टंगी रक्सैक अब मैं उतारता हूँ....अपनी व नंदू की बोतलें ले झरने के एक कोने में बैठ, उन बोतलों को भर लेता हूँ। बर्फ़ का पानी एकदम से तो पिया भी नहीं जाता, धीरे-धीरे कर कुछ घूँट गटक लेता हूँ और नंदू को भी कहता हूँ- "अब हम काफ़ी ऊँचाई पर आ गए हैं, यहाँ ऑक्सीजन की कमी की भरपाई के लिए हमें ज़्यादा से ज़्यादा पानी पीना है।"  परन्तु इतना ठंडा पानी नंदू से भी नहीं पिया जा रहा था।
                     पौने आठ बजे धूप ने शिखरों से नीचे घाटी की तरफ़ उतरना शुरू तो कर दिया, परंतु हम अभी भी धूप से वंचित ही थे। पगडंडी पर चलते-चलते सूर्य की दिशा की तरफ़ देखता हूँ, तो आकाश पर एक खास चमक बता रही थी कि इसी पहाड़ के पीछे ही सूर्यदेव हैं और तभी इंद्रकील पर्वत के शूल शिखरों के प्रथम दर्शन भी होते हैं। आगे की तरफ चली जा रही पगडंडी की दिशा से अनुमान लगाता हूँ कि ऊपर जो एक बहुत बड़ी चट्टान नज़र आ रही है, निश्चित है उसके नीचे ही गुफ़ा हो...!
                    आगे जा रहा नंदू तभी ऊँची आवाज़ में मुझे बता देता है- "विक्की, गुफ़ा वो देख सामने!" और मैं धीरे-धीरे अपनी चाल में चला हुआ जब उस बड़ी चट्टान के पास पहुँच, देखता हूँ कि उसके आगे बैंगनी रंग के हजारों जंगली फूल खिले हुए थे, ऐसे जैसे कि सजावट की हो..!!
                      ऊपर पहुँच देखता हूँ, नंदू उस चट्टान के नीचे बनी प्राकृतिक गुफ़ा के मुहाने पर हवा रोकने के लिए चिनी हुई पत्थरों की दीवार से टेक लगाकर अर्ध लेटा सा, मुझे देख खुशी से अपनी बाहें ऊपर कर लहरा रहा था। वहाँ पहुँच सबसे पहले गुफ़ा के अंदर झाँकता हूँ, दस-बारह बंदे तो आराम से लेट सकते हैं और गुफ़ा के फ़र्श पर लैटलोन शीट बिछे हुए थे, कुछ कम्बल भी एक तरफ़ पड़े थे। अपनी रक्सैक उतार नंदू की बगल में बैठ जाता हूँ जो गुफ़ा के बाहर पहले से ही बिछी हुई लैटलोन शीट पर बैठा है। बैठते ही अपनी तुंगमापी घड़ी पर नज़र दौड़ाता हूँ- गुफ़ा की समुद्र तल से ऊँचाई 3890मीटर और समय सवा आठ बज चुके थे, मतलब मलिंगखट्टा से यहाँ तक पहुँचने में हमें साढे तीन-चार घंटे लग गए।
                    धूप कब घाटी में भी उतर आई है, अपनी रक्सैक को पत्थरों की चिनी दीवार के साथ सट्टा कर जब उस पर ढांस लगता हूँ, तो थके शरीर को बहुत आराम मिलता है। अर्ध लेटा सा कभी गुफ़ा की छत और कभी सामने नज़र आ रहे पहाड़ को देखता जा रहा था जिस पर अब धूप बढ़ती जा रही थी।
                     पांच-सात मिनट बाद "घर से भागे हुए बच्चे" भी गुफ़ा के सामने आ पहुँचते हैं, परंतु वे अब दो नज़र आ रहे थे। मैं ज़रा सा उठकर उनके पीछे तीसरे को भी ढूँढता हूँ....पर वह दिखाई नहीं दिया। उन दोनों के हमारे पास पहुँचते ही, मैं पूछता हूँ- "तुम्हारा तीसरा साथी 'अभिषेक' कहाँ है...?"
                    "वह आया नहीं, थक गया है....फ़ॉरेस्ट शेड में ही रह गया!"  उन तीनों का लीडर, वो साँवला सा प्रवासी लड़का बोला।
                  "ओह, चलो खैर तुम तीनों ने बहुत अच्छा किया जो कल रात वापस हो, मलिंगखट्टा आकर फॉरेस्ट शेड में रुक गए, मुझे तुम लोगों की बहुत चिंता हो रही थी...!" मैं बोलता हूँ।
                  "खाक़ अच्छा किया अंकल, हम तो झरने तक पहुँच चुके थे....वे तीन अंकल कल हमें जबरदस्ती पकड़कर गणेश पार्क वापस ले गए!" लीडर लड़का बोला।
                   "चलो बेटा, फिर भी उन लोगों ने बहुत अच्छा किया कि तुम लोगों को सुरक्षित वापस गणेश पार्क ले आए...अंधेरी रात में कुछ भी अनहोनी हो सकती थी।"
                    मेरे ऐसे बोलते ही वह लीडर बालक गर्जा- "अंकल, उन लोगों के पास टॉर्च नहीं थी, उन्होंने हमारी टॉर्च छीन ली ताकि वह खुद गणेश पार्क पहुँच सकें...और हमें जबरदस्ती अपने साथ घसीट लिया..!!!"
                    यह सुन मेरी नाक फूल गई, साँसे भी तेज़ हो गई....कि जब ये बच्चे कल रात अंधेरे में चलते हुए अपनी मंज़िल के इतने करीब पहुँच चुके थे, तो वो तीनों स्वार्थी मित्र इन बच्चों को अपने स्वार्थ में वापस मोड़ कर ले गए जबकि झरने से गुफ़ा तक का रास्ता आधे घंटे का ही है। कल रात मैं उन तीन मित्रों को आशीषें दे रहा था, अब मन ही मन उनको कोस रहा था।
                     तभी वो लीडर लड़का फिर से बोला- "अंकल, पता नहीं लोग हमें क्या समझ रहे हैं, अभी ऊपर चढ़ते हुए भी हमें रास्ते में दो आंटियाँ मिली थी....वह हमें नीचे की ओर भगाने लगी, यह कहते हुए कि तुम लोग किन्नर कैलाश पैसे उठाने जा रहे हो.....क्या हम चोर हैं, अंकल....हम भी तो आप सब की तरह ही माथा टेकने आए हैं, उन्होंने हमें नीचे की तरफ भगा दिया....पर हम घूमघाम कर फिर से ऊपर चढ़ आए....!!!"
                    मैं समझ गया कि यह दोनों वहीं स्थानीय महिलाएँ हैं, जो हमें शाखर से उतरने के बाद चंडीगढ़ वाले रमन शर्मा जी के साथ मिली थी। नेपाली लड़के के हाथ में पकड़े लिफ़ाफे में मुझे एक लाल रंग की चुनरी और नारियल दिखाई पड़ रहा था, जो यह प्रमाणित करने के लिए काफ़ी था कि ये बच्चे चोर नहीं हो सकते। अब मैं उन दोनों बच्चों के कपड़ों पर ध्यान देता हूँ तो प्रवासी लड़के ने अपने स्कूल की ही वर्दी पहन रखी थी और नेपाली लड़के ने इतनी ठंड में भी मात्र एक घिसी हुई टी-शर्ट जो छाती से फटी भी हुई थी, पहनी हुई थी परंतु किसी के कपड़े देख उसे चोर घोषित कर देना कहाँ तक उचित है...?
                    मैं उन बच्चों से कहता हूँ- "तुम बहुत हिम्मत वाले हो बेटा, परंतु तुम्हें घर से भागकर इस तरह यहाँ नहीं आना चाहिए था...तुम्हारे घर वाले भी परेशान होंगे..!!"
                   घर से भागने वाली बात फिर से शुरू होने पर उस प्रवासी लड़के ने नेपाली लड़के की बाँह पकड़ कर खिसकते हुए यह कहा- "अच्छा, अंकल चलते हैं..!!"  और दो पलों में ही वो दोनों गुफ़ा से ऊपर की ओर चढ़ती पगडंडी पर चढ़, हमारी आँखों से ओझल हो गए।
                  हम दोनों खामोशी से आठ-दस मिनट वहीं गुफ़ा के बाहर लेटे रहते हैं, फिर एकाएक मैं नंदू से कहता हूँ- "नंदू, आज हम अब और ऊपर नहीं जाएंगे, यहीं रुक जाते हैं...कल सुबह किन्नर कैलाश चलेंगे।"
                 मेरी बात सुनते ही नंदू उठ कर बैठ जाता है और तेज़ी से अपना सिर ना में हिलाता हुआ कहता है- "नहीं विक्की,  हम आज ही किन्नर कैलाश जाकर वापस गुफ़ा में आ जाएंगे, रात यहीं रुक कल नीचे उतर जाएंगे... क्योंकि मुझे परसों हर हाल में वापस गढ़शंकर पहुँचना है!!"     और नंदू ने अपने व्यापार संबंधी कई सारे काम गिनवा डालें।
                  मैं नंदू को समझाता हूँ- "देख नंदू, जल्दबाज़ी मत कर....एक दिन ही तो और लगेगा, यदि हम आज सारा दिन और रात यहीं गुफा में रुक जाते हैं तो हमारा शरीर ऊँचाई के अनुकूल हो जाएगा और हमारे पास खाने-पीने के सामान की कोई कमी नहीं है, उस के बल पर हम यहाँ एक दिन क्या दो दिन भी रुक सकते हैं।"
                 परंतु नंदू के सिर पर "जल्दबाज़ी का भूत" चढ़ गया था, वो एक दिन भी फालतू नहीं रुकना चाहता था।  
                 "अच्छा, जैसे तेरी मर्जी" कह कर मैं उठकर अपनी रक्सैक से राशन का लिफ़ाफा निकाल, उसमें से भगवान सिंह द्वारा चोरी तोड़ कर दिए गए उपहारस्वरूप  सेब ढूँढ कर अपने शिकारी चाकू से टुकड़ों में काटते हुए सोच रहा था कि नंदू चाहे जिस्म से मेरे साथ आया तो है, पर रुह इसकी दुकान पर ही छूट गई लगती है...कल-परसों करने वाले कामों की चिंता इसे आज का लुत्फ़ भी नहीं उठाने दे रही है...!
                   खैर, एक लम्बी साँस छोड़, खामोशी से कटे हुए सेब, मेरी फोटो खींच चुके नंदू को पकड़ा देता हूँ। सेब खाने के बाद अपनी रक्सैक से मेरी सासुमाँ द्वारा बनाए पंजीरी के लड्डू निकालता हूँ....हम दोनों एक-एक लड्डू खाकर पानी पी लेते है, लो जी हो गया हमारा नाश्ता!
                  अब हमें आगे जाने की तैयारी करनी थी, सो रक्सैक से एक छोटा पिठ्ठू झोला निकाल उसमें रेन सूट, पांच ग्राम का आपातलीन कम्बल (खास किस्म की प्लास्टिक की शीट) बिस्कुट, माथा-बैटरी और कुछ सूखे मेवे भरता हूँ। नंदू अपनी बजाजी की दुकान के नाम से छपवाये लिफ़ाफे में अपनी ज़रूरत का सामान भर लेता है, नंदू का लिफ़ाफा देख मैं मन ही मन मुस्कुरा देता हूँ कि तू यहाँ भी अपनी दुकान के मशहूरी कर ले,भाई...!
                    अपनी रक्सैकों को हम गुफ़ा के एक कोने में रख कर, उस जगह पर अधिकार जमा देते हैं...जहाँ रात में लेटे हुए बाहर की ठंडी हवा ना लगे।
                    लो, नौ बज कर दस मिनट पर फिर से चल दिए यात्री किन्नर कैलाश। नंदू फिर से छलांगें लगा मेरे आगे-आगे हो लिया। मौसम बिल्कुल साफ़ था,  नीले आसमान पर सूरज चमक रहा था...उसकी चमकार में सतलुज घाटी के पार वाले पर्वतों के सिर पर मौजूद बादलों की सफ़ेदी और ज़्यादा बढ़ गई थी। मैं उस मंजर की फोटो खींचते हुए मन ही मन बुदबुदाता हूँ- "बड़े जंच रहे हो गिरिराज, इन बादलों की सफ़ेद पगड़ी में...!!"
                    थोड़ा-सा ऊपर चढ़ने के बाद हमें गुफ़ा से थोड़ी ही दूर फूआलों(गडरियों) का डेरा भी नज़र आ जाता है। जय भोलेनाथ बोलते-बोलते हम दोनों पगडंडी पर अपने पग धर कर ऊपर की ओर चढ़ते चले जा रहे थे। परंतु कुछ ही मिनटों में मुझसे आगे भागे जा रहे नंदू की रफ़्तार एकाएक धीमी होने लगी, मैं अपनी रफ़्तार से चलता हुआ नंदू के बराबर पहुँच जाता हूँ तो नंदू मुझे आगे बढ़ने का इशारा कर पगडंडी से एक तरफ़ हो गया। ऐसा होता देख, एक बार तो मेरा माथा ठनका....फिर यह सोच कर आगे बढ़ गया कि इस खड़ी चढ़ाई पर नंदू ज़्यादा तेज़ नहीं चल पा रहा होगा।
                    कुछ कदम चलकर मैं सोचता हूँ कि अभी तो हमें गुफ़ा से चले हुए आधा घंटा ही तो हुआ है, इतनी जल्दी नंदू थक तो नहीं सकता....यह सोचते हुए पीछे मुड़कर नंदू की तरफ़ देखता हूँ,  पर यह क्या....नंदू पगडंडी पर लगभग गिरा हुआ सा बैठा है...!!!
                    मैं वहीं से ऊँची आवाज़ में पूछता हूँ- "क्या हुआ नंदू..?"
                   "मुझे एक दम से चक्कर आने लगे हैं, मेरी टाँगे भी काँप रही है विक्की!" नंदू बोला।
                    मेरा मन एकदम से चिंता में डूब गया कि जिस बात का मुझे डर था अब वही हो रहा है....नंदू की जल्दबाज़ी हमें ले डूबेगी। दूसरे पल ही मैं समझ गया कि नंदू पर 'हाई एल्टीट्यूड सिकनेस' ने आक्रमण कर दिया है, परंतु एक दम से कैसे...!
                    तभी मैं अपनी तुंगमापी घड़ी पर उस जगह की ऊँचाई देखता हूँ....4040 मीटर! मतलब गुफ़ा से मात्र 150मीटर ऊपर आते ही अच्छे-भले नंदू को ऊँचाई की बीमारी ने आ घेरा। मेरे मन की व्याकुलता ने दौड़ लगानी शुरू कर दी कि अब क्या होगा! इसी चिंता में, मैं दौड़ते कदमों से नंदू के पास पहुँचता हूँ।
                  "विक्की, यार मुझे लगता है कि मेरा ब्लड प्रेशर डाउन हो गया है....मुझे नहीं लगता कि मैं अब ऊपर जा पाऊँगा, मेरी सेहत बिगड़ रही है....तू चला जा, मैं धीरे-धीरे बैठ-बैठ कर गुफ़ा तक वापस पहुँच जाऊँगा..!"
                   मैं नंदू को बताता नहीं कि उसे हाई एल्टीट्यूड सिकनेस का अटैक हो गया है, वह इसी भ्रम में रहे कि उसका ब्लड प्रेशर डाउन हो गया है....कहीं इसका मनोबल ना टूट जाए। मैं नंदू को ढांढस बंधाता हुआ कहता हूँ- "कोई बात नहीं नंदू, हम कुछ समय यहीं बैठ लेते हैं...जब तू अपने-आप को बेहतर महसूस करेगा, हम ऊपर की ओर चल देंगे....अभी तो सारा दिन पड़ा है, हम धीरे-धीरे कर किन्नर कैलाश पहुँच जाएंगे...यार तू चिंता ना कर...!!!"
                    हालांकि मैंने नंदू को यह बात तो बोल दी थी, पर मैं जानता था कि इस हालत में नंदू को और ऊपर ले जाना उसकी जान के साथ खिलवाड़ करना भी साबित हो सकता है। मैं पगडंडी पर धराशायी हो चुके नंदू में मनोबल फूँकना चाह रहा था, परंतु नंदू ने ढीली-सी आवाज़ में फिर कहा- "तू चला जा विक्की, मेरे बस का नहीं रहा अब.... यदि मैं तेरे साथ ऊपर चल भी दूँ तो मैं तेरी यात्रा भी खराब कर दूँगा, तू अपनी यात्रा पूरी कर....तू पिछले साल भी श्रीखंड कैलाश से खाली हाथ लौट आया था, कहीं ऐसा ना हो कि मेरी सेहत ऊपर जाकर और ज्यादा ख़राब हो जाए और तुझे मुझे उठाकर नीचे लाना पड़े....यार तुम मेरी चिंता छोड़, मैं जितना भी आ गया उस से ही संतुष्ट हूँ, हमें कल हर हाल में वापस उतरना है....तू ऊपर चला जा क्योंकि तेरे पास तो तुज़र्बा भी है, ऐसी यात्राओं का...!!"
                    नंदू ने विकल्प चुन लिया था जबकि मुझे अब संकल्प लेना है अकेले आगे जाने का, मैंने वह संकल्प उठाने में एक क्षण की भी देरी नहीं की....अकेले आगे जाने की बात पर भी मैं एक बार भी नहीं घबराया, रोमांच से मेरे रोम-रोम खड़े हो गए कि अब मैं अकेला ही किन्नर कैलाश जाऊँगा।
                   नंदू अपने लिफ़ाफे से मुझे किशमिश और बिस्कुट का एक पैकेट निकालकर थमा देता है और हंसते हुए कहता है- "जय भोलेनाथ'  विक्की इस बार तू कामयाब होगा।"
                   और, पगडंडी के किनारे खड़े पत्थरों को पकड़-पकड़ कर नंदू नीचे गुफ़ा की तरफ़ चल देता है। मैं वहीं खड़ा उसको एकटक देख रहा हूँ........और नंदू के त्याग को महसूस कर रहा हूँ।
                  "त्याग"  जी हां, त्याग.... मेरे पाठक दोस्तों! नंदू ने खुद अपने-आप को यात्रा से अलग कर लिया कि मेरी यात्रा में विघ्न ना पड़े, चाहता तो वह मुझे भी वापस गुफ़ा में ले आता और मुझे आना भी पड़ता है या मैं खुद उसे गुफ़ा में वापस लाता......परंतु नंदू ने ऐसा कोई मौका आने ही नहीं दिया, वह मुझे आज़ाद छोड़कर पगडंडी पर बैठ-बैठ कर नीचे की ओर उतर रहा था!!!
                                        (क्रमश:)
                   


शाखर के नीचे उतर, रास्ते में आई एक छोटी सी गुफ़ा।  
सामने पगडंडी पर कुछ गाय चरती देख मुझसे आगे चल रहा नंदू पगडंडी छोड़, थोड़ा ऊपर चढ़ गायों से दूरी बनाकर उनके पार उतरता है....मैं भी ऐसा ही करता हूँ और नंदू से हंसता हुआ कहता हूँ- "भाई, जानवर का क्या उसे हम अजनबियों की शक्ल पसंद ना आए तो, और...!!"



नीचे खाई की तरफ देखता हूँ तो उसमें एक चरागाह नज़र आती है जिसमें कुछ और गायें चर रही थी, इस जगह को स्थानीय लोग "पालंग" नाम से पुकारते हैं।

रास्ते में आई बाधा को पार करता हूँ नंदू।

कुछ दम ले लेते हैं, यार।

  दस-पद्रंह मिनट चलते रहने के बाद हमें पानी गिरने की आवाज़ सुनाई देने लगती है, मतलब कि वह एकमात्र झरना अब आने वाला ही है....और कुछ कदमों बाद उस विशाल पथरीले पहाड़ की छाती पर पसीने की लकीर सा बहता झरना भी दिखाई पड़ने लगा।

झरने को पार करता हुआ नंदू।

झरने के पास पहुँच, ऊपर की ओर देखता हूँ तो चट्टानी पहाड़ को घिस-घिस कर बर्फ़ीले पानी ने सतलुज से मिलने के लिए अपना रास्ता खुद ही निकाला हुआ है।

   फिर भागे जाते पानी की भागने की दिशा यानि नीचे की तरफ़ देखता हूँ तो रिकांगपिओ शहर के दर्शन फिर से शुरू हो जाते हैं।

झरने में पड़ी छोटी-बड़ी चट्टानें उसका रास्ता रोकने में असमर्थ जान पड़ती हैं....पानी एक कुशल खिलाड़ी की तरह उनके ऊपर से छलांगें लगा रहा था।

तड़के की अपने कंधों पर टंगी रक्सैक अब मैं उतारता हूँ....अपनी व नंदू की बोतलें ले झरने के एक कोने में बैठ, उन बोतलों को भर लेता हूँ।

झरने से आगे गुफ़ा की ओर बढ़ते हुए....पलट कर फिर झरने की फोटो खींचता हूँ।

पौने आठ बजे धूप ने शिखरों से नीचे घाटी की तरफ़ उतरना शुरू तो कर दिया, परंतु हम अभी भी धूप से वंचित ही थे।

नीचे, सतलुज घाटी में दिखाई दे रहा रिकांगपिओ।

पगडंडी पर चलते-चलते सूर्य की दिशा की तरफ़ देखता हूँ, तो आकाश पर एक खास चमक बता रही थी कि इसी पहाड़ के पीछे ही सूर्यदेव हैं और तभी इंद्रकील पर्वत के शूल शिखरों के प्रथम दर्शन भी होते हैं। 

आगे की तरफ चली जा रही पगडंडी की दिशा से अनुमान लगाता हूँ कि ऊपर जो एक बहुत बड़ी चट्टान नज़र आ रही है, निश्चित है उसके नीचे ही गुफ़ा हो...! 

आगे जा रहा नंदू तभी ऊँची आवाज़ में मुझे बता देता है- "विक्की, गुफ़ा वो देख सामने!" 

और मैं धीरे-धीरे अपनी चाल में चला हुआ जब उस बड़ी चट्टान के पास पहुँच, देखता हूँ कि उसके आगे बैंगनी रंग के हजारों जंगली फूल खिले हुए थे, ऐसे जैसे कि सजावट की हो..!!

ऊपर पहुँच देखता हूँ, नंदू उस चट्टान के नीचे बनी प्राकृतिक गुफ़ा के मुहाने पर हवा रोकने के लिए चिनी हुई पत्थरों की दीवार से टेक लगाकर अर्ध लेटा सा, मुझे देख खुशी से अपनी बाहें ऊपर कर लहरा रहा था।


वहाँ पहुँच सबसे पहले गुफ़ा के अंदर झाँकता हूँ, दस-बारह बंदे तो आराम से लेट सकते हैं और गुफ़ा के फ़र्श पर लैटलोन शीट बिछे हुए थे, कुछ कम्बल भी एक तरफ़ पड़े थे।

 नंदू, देख इधर।

मैं नंदू की बगल में बैठ जाता हूँ जो गुफ़ा के बाहर पहले से ही बिछी हुई लैटलोन शीट पर बैठा है।
                                       
बैठते ही अपनी तुंगमापी घड़ी पर नज़र दौड़ाता हूँ- गुफ़ा की समुद्र तल से ऊँचाई 3890मीटर और समय सवा आठ बज चुके थे, मतलब मलिंगखट्टा से यहाँ तक पहुँचने में हमें साढे तीन-चार घंटे लग गए। 

धूप कब घाटी में भी उतर आई है, अपनी रक्सैक को पत्थरों की चिनी दीवार के साथ सट्टा कर जब उस पर ढांस लगता हूँ, तो थके शरीर को बहुत आराम मिलता है। अर्ध लेटा सा कभी गुफ़ा की छत और कभी सामने नज़र आ रहे पहाड़ को देखता जा रहा था जिस पर अब धूप बढ़ती जा रही थी।
                             
पांच-सात मिनट बाद "घर से भागे हुए बच्चे" भी गुफ़ा के सामने आ पहुँचते हैं, परंतु वे अब दो नज़र आ रहे थे। मैं ज़रा सा उठकर उनके पीछे तीसरे को भी ढूँढता हूँ....पर वह दिखाई नहीं दिया। उन दोनों के हमारे पास पहुँचते ही, मैं पूछता हूँ- "तुम्हारा तीसरा साथी 'अभिषेक' कहाँ है...?"

  "अच्छा, जैसे तेरी मर्जी" कह कर मैं उठकर अपनी रक्सैक से राशन का लिफ़ाफा निकाल, उसमें से भगवान सिंह द्वारा चोरी तोड़ कर दिए गए उपहारस्वरूप  सेब ढूँढ कर अपने शिकारी चाकू से टुकड़ों में काटते हुए सोच रहा था कि नंदू चाहे जिस्म से मेरे साथ आया तो है, पर रुह इसकी दुकान पर ही छूट गई लगती है...कल-परसों करने वाले कामों की चिंता इसे आज का लुत्फ़ भी नहीं उठाने दे रही है...!

खैर, एक लम्बी साँस छोड़, खामोशी से कटे हुए सेब, मेरी फोटो खींच चुके नंदू को पकड़ा देता हूँ। सेब खाने के बाद अपनी रक्सैक से मेरी सासुमाँ द्वारा बनाए पंजीरी के लड्डू निकालता हूँ....हम दोनों एक-एक लड्डू खाकर पानी पी लेते है, लो जी हो गया हमारा नाश्ता! 

लो, नौ बज कर दस मिनट पर फिर से चल दिए यात्री किन्नर कैलाश। 
      
मौसम बिल्कुल साफ़ था,  नीले आसमान पर सूरज चमक रहा था...उसकी चमकार में सतलुज घाटी के पार वाले पर्वतों के सिर पर मौजूद बादलों की सफ़ेदी और ज़्यादा बढ़ गई थी। मैं उस मंजर की फोटो खींचते हुए मन ही मन बुदबुदाता हूँ- "बड़े जंच रहे हो गिरिराज, इन बादलों की सफ़ेद पगड़ी में...!!"

थोड़ा-सा ऊपर चढ़ने के बाद हमें गुफ़ा से थोड़ी ही दूर फूआलों(गडरियों) का डेरा भी नज़र आ जाता है।

इसी धार को पार कर हम गुफ़ा तक पहुँचे थे।

पगडंडी से ऊपर की ओर दिखता दृश्य, इंद्रकील पर्वत शिखर।

नंदू को पगडंडी पर गिरा देख, मैं समझ गया कि नंदू पर 'हाई एल्टीट्यूड सिकनेस' ने आक्रमण कर दिया है, परंतु एक दम से कैसे...!
                    तभी मैं अपनी तुंगमापी घड़ी पर उस जगह की ऊँचाई देखता हूँ....4040 मीटर! मतलब गुफ़ा से मात्र 150मीटर ऊपर आते ही अच्छे-भले नंदू को ऊँचाई की बीमारी ने आ घेरा।

और, पगडंडी के किनारे खड़े पत्थरों को पकड़-पकड़ कर नंदू नीचे गुफ़ा की तरफ़ वापस चल देता है। मैं वहीं खड़ा उसको एकटक देख रहा हूँ........और नंदू के त्याग को महसूस कर रहा हूँ।