शनिवार, 30 मई 2020

भाग- 4 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

भाग-4  " मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

इस यात्रा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र http://vikasnarda.blogspot.com/2020/05/blog-post.html?m=  स्पर्श करें।

                          "भगवान के सेब...!" 


               पिछली किश्त में.....आप, मैं और नंदू तंगलिंग से निकल पड़े थे किन्नर कैलाश को,  कि बारिश शुरू होने लग पड़ी। नंदू अपना रेनकोट पहन चुका है....मैं और आप एक छतरी के नीचे दोनों तंगलिंग गाँव से हमें बाहर ले जाती सीमेंट की बनी पगडंडी पर बढ़े चले जा रहे हैं....समय सुबह के पौने सात बज चुके थे।
                         हल्की बूंदाबांदी में तंगलिंग से ऊपर चढ़ते ही हम उसी उफ़नते नाले के पास पहुँच जाते हैं जिसे तंगलिंग में हमने पुल से पार किया था, इस नाले के नाम के बारे में जब मैंने एक स्थानीय से पूछा था....तो उसने इसे किन्नर कैलाश का पानी बताया कि यह नाला "रंगकाओं" से निकलकर "बुगद्वार" होते हुए यहाँ तंगलिंग में आ सतलुज में समा जाता है।
                         नाले के पार एक बिजली घर भी दिखाई पड़ा, जिसकी टरबाइन चलाने के लिए सामने के पहाड़ की ऊँचाई से लोहे की पाइप लाइन उतर रही थी और टरबाइन घुमाने के बाद वह पानी शोर मचाता हुआ उफ़नते झरने का मोहक रूप ले नाले में गिर रहा था। यहाँ भी नाले पर लोहे का एक छोटा सा पुल पड़ा था जिस पर सिर्फ पैदल ही आया-जाया जा सकता है।
                         चंद क्षण यहाँ ठहर जाता हूँ, नंदू को कहता हूँ- "कभी-कभी ऐसा शोर सुनना कितना अच्छा लगता है!"
                        और, हवा का एक झोंका उस उफ़नते झरने  से पैदा हुई बूर (बहुत बारीक बूँदे) को उड़ा कर मेरे चेहरे पर दे मारता है, वह क्षण मुझे शीतलता के असीम शिखर पर ले जाता है, तन-मन झूम उठता है....पर मैं बोलता कुछ नहीं, बस उस क्षण को बांधना चाहता हूँ सदा के लिए,  परन्तु भौतिकी रूप में अनुभूति के उस क्षण को क्या कोई सदा के लिए रोक सकता है भला.....नहीं ना,
पर मानसिक रूप में अनुभूति को सदा याद तो रखा जा सकता है, जैसे मैंने अभी आपको अपनी यह अनुभूति सुना दी।
                        नंदू सुबह से ही मेरे आगे-आगे चल रहा था, तो मैंने देखा कि बूंदाबांदी से इसकी रक्सैक का सिर काफी गीला हो चुका था...तभी मुझे अपनी रक्सैक का ध्यान आया तो पाया कि छतरी से पानी फिसल कर मेरी रक्सैक के सिर पर ही पड़ता जा रहा है, मेरी रक्सैक के भीतर भी पानी जा पहुँचा था.....सो घर से साथ लेकर आए  पॉलिथीन के बड़े-बड़े लिफाफ़ों को हम दोनों अपनी रक्सैकों के सिर पर पगड़ी की तरह बांध लेते हैं।
                        आधे-पौने घंटे बाद बूंदाबांदी भी बंद हो जाती है और चढ़ाई चढ़ती हुई पगडंडी हमें "कंगरिंग" गाँव के शुरुआती घरों में ले आती है। मैं उत्साहित हो राह में मिलने वाले ग्राम वासियों के साथ अपनी फोटो खिंचवाने लग जाता हूँ, शायद यह उस खूबसूरत स्थान की यात्रा से मिली खुशी थी...जिसे मैं वहाँ के स्थानीय लोगों पर अपने ढंग से ज़ाहिर कर रहा था, उन संग फोटो खिंचवा कर...!
                        गाँव से गुज़रते हुए रास्ते में आई पूर्ण सिंह भंडारी की दुकान से टॉफियाँ खरीद, अपनी व नंदू की जेब भर कहता हूँ-  " ये टॉफियाँ भी बहुत कमाल की चीज है नंदू, पहाड़ की चढ़ाई पर बहुत काम आती है....इन्हें मुँह में रख चढ़ाई चढ़ते चलो, ऐसा करने से साँस कम चढ़ता है और प्यास भी नहीं लगती......और हां, एक अहम बात टॉफी का रैपर तुझे फेंकना नहीं है बल्कि इसे जेब में डालते रहना..क्योंकि हम पहाड़ पर गंद नहीं डालने आए है भाई।"
                        कंगरिंग गाँव के इन शुरुआती घरों से बाहर निकलते ही अब हम इतनी ऊँचाई पर पहुँच जाते हैं कि पीछे मुड़कर देखने पर हमें घाटी में बह रही सतलुज के दर्शन होने लग पड़ते हैं, नीचे तंगलिंग गाँव भी नज़र आ रहा था। जब मैं सामने खड़े उन खामोश वीरान पहाड़ों को देखता जिनकी ओर हमें चलते रहना है, तो एक अजीब सी बेचैनी की लहर तन-मन में दौड़ जाती कि आगे क्या होगा, कैसा रास्ता है, कहीं इन पहाड़ों में खो ना जाऊँ.....और, उन पहाड़ों पर तैर रहे बादल उन्हें अपने पीछे छिपा कर और भी रहस्यमय से बनाते जा रहे थे।
                      परंतु नंदू अपनी मस्ती में, मेरे आगे-आगे भागा जा रहा था जैसे कोई बच्चा अनजान रास्ते पर अपने अभिभावकों के आगे-आगे दौड़ लगाता है, शायद नंदू की भी यह ही मनोस्थिती थी कि मैं उसके साथ हूँ.....और नंदू को मैं अपनी जिम्मेवारी पर ही तो साथ लाया था, दोस्तों।
                      हमें चलते-चलते पौने दो घंटे बीत चुके थे, अब पगडंडी पर पड़ रहा प्रत्येक पग हमें पहाड़ की ऊँचाई की ओर ले जा रहा था। एक जगह हम दोनों ज़रा सा रुक कर साँस ले रहे थे कि पगडंडी पर एक युवक अपने कंधे पर कुल्हाड़ी रखें, हमारी ओर चढ़ाई चढ़ता आ रहा था......और यह कैसे हो सकता है कि मैं उस बंदे को रास्ता दे दूँ क्योंकि मुझे तो कोई-ना-कोई चाहिए होता है, जो मेरी जिज्ञासाओं को शांत कर सके...!!!
                      उस युवक के पास आते ही, मुस्कुराकर उसे "जय भोलेनाथ" कहकर रोक लेता हूँ....तो वह युवक पूछता है कि किन्नर कैलाश जा रहे हो भाई।
                       हां, कह कर हम तीनों इकट्ठा ही पगडंडी पर चलने लग पड़ते हैं। बातचीत का दौर चल पड़ता है, उस युवक का नाम "भगवान सिंह भंडारी" गाँव तंगलिंग और वह अपने मृत नाना की रस्म-क्रिया पर दिए जाने वाले भोज के लिए ऊपर जंगल में से लकड़ी काटने जा रहा है। चलते-चलते ही उसी ऊँचाई से भगवान सिंह हमें नीचे दिख रहे तंगलिंग में अपना घर व खेत भी दिखाता है।
                       मैं भगवान सिंह से किन्नर कैलाश संबंधी जानकारियाँ लेता हुआ चलता जा रहा हूँ....तो भगवान सिंह ने कहा कि आपको किन्नर कैलाश पहुँचने के लिए दो दिन लग जाएंगे और उसने एक अहम जानकारी यह दी कि इस ट्रैक पर सिर्फ तीन जगहों पर ही पानी मिलेगा, पहला इस रास्ते के आखिरी गाँव कंगरिंग में बहते नाले से....फिर मलिंगखट्टा यानि गणेश पार्क और गुफा के बीच रास्ते में....और फिर किन्नर कैलाश से पहले पार्वती कुंड में,  इसलिए कंगरिंग से ही आपको ज्यादा से ज्यादा पानी भरकर अपने साथ ढ़ोना पड़ेगा.....क्योंकि किन्नर कैलाश तक सारी की सारी चढ़ाई ही मिलेगी आपको, तो आप खुद समझ सकते हैं कि पानी का कितना महत्व है इस कठिन यात्रा में।
                    "इसी लिए तो मैं अपनी रक्सैक में खाली बोतल भी रखता हूँ कि अनजान पहाड़ पर पानी का कोई भरोसा नहीं, जहाँ मिले...भर लो!"  मैं बीच में बोलता हूँ।      
                     भगवान सिंह ने अपनी बात ज़ारी रखते हुए कहा कि मलिंगखट्टा में अभी तो ढाबे वाले होंगे ही, वहाँ आपको खाना-रहना मिल जाएगा....रात वहाँ रुक, कल तड़के जितनी जल्दी निकल सको तो निकल जाना किन्नर कैलाश के लिए।
                        सुबह से ही पेड़ों पर लटकते लाल-लाल सेबों को देख नंदू का मन मचल रहा था कि वह रास्ते में आते जा रहे किसी पेड़ से कुछ सेब तोड़ ले, परंतु मैं उसे निरंतर रोकता जा रहा था कि घर वाले अपने सेबों पर पूरी नज़र रखते हैं। पर अभी सामने आए एक घर के बागीचे में पेड़ पर लगे सेब देख, नंदू फिर आतुर हो उठा तो भगवान सिंह ने झट उस बागीचे में घुसकर चार-पांच सेब तोड़ कर हमें दिए ही थे कि घर के भीतर से एक महिला बड़बड़ाती हुई बाहर आई और भगवान सिंह से लड़ने लगी......तो भगवान सिंह बोला- "फिर क्या हो गया, किन्नर कैलाश जाने वाले यात्रियों को ही तो दिए मैंने तेरे यह सेब....कुछ पुण्य तू भी कमा ले...!!!"  और वह महिला एकदम से शांत हो गई।
                        चलते-चलते हम कंगरिंग गाँव में भगवान सिंह के मामा "राधा कृष्ण" की चाय-पानी की दुकान पर आ पहुँचतें हैं। नंदू को भूख सताने लगती थी, जबकि पहाड़ की ऊँचाई पर पहुँच मेरी भूख मरने लगती है। भगवान सिंह के अनुसार कंगरिंग के बाद हमें मलिंगखट्टा तक कहीं भी कुछ भी नहीं मिलेगा खाने के लिए।
                         तब हमने राधा किशन जी से आलू के परॉठों की मांग की, तो उन्होंने परॉठे बनाने में असमर्थता जताई कि उनके पिता की मृत्यु होने के कारण कई दिनों से उनकी दुकान बंद है, आज ही खोली है...अभी तो मैं सिर्फ आपके लिए "मैगी" ही बना सकता हूँ।
                        मैं हंसता हुआ कहता हूँ- " तभी तो मैं इस मैगी को अब कथित पहाड़ी व्यंजन कहने लगा हूँ....कि इसकी मौजूदगी पहाड़ के हर कोने क्या, शिखरों तक भी पहुँच चुकी है...!!!"    और राधा किशन जी को दो मैगी नहीं बल्कि तीन मैगी बनाने का ऑर्डर देता हुआ बोलता हूँ- "चाहे यह दुकान भगवान सिंह तुम्हारे मामा की है, पर दोस्त मैगी तुम्हें हम ही खिलाएंगे....इस आधे घंटे के साथ से ही तुमने हमारा दिल जीत लिया यार, इन रसीले सेबों का भी तो हमें आभार जताना है तुम्हारे साथ मैगी खाकर।"
                      मेरे कहे अनुसार ही राधा कृष्ण जी ने हमारे लिए सूप वाली मैगी तैयार की, पर मैं अपनी मैगी में से आधी मैगी नंदू की कटोरी में उड़ेल देता हूँ यह कहते हुए- "तगड़ा होकर खा ले मैगी नंदू....सुना है कि आगे बहुत चढ़ाईयां चढ़नी है यारा...!!
                     भगवान सिंह अब अपने मामा की दुकान पर ठहर जाता है, और हम दोनों उससे विदा लेकर चल पड़ते हैं यात्रा पथ पर। 9बजने को हो लिये थे, अब हमें पगडंडी रास्ते के आखिरी गाँव कंगरिंग के अंतिम घरों में से गुज़रा रही थी....गाँव का मंदिर गुज़रा, घरों की छतों पर पेड़ों से खुद गिरे सेबों को काटकर धूप में सूखाने डाला गया था.....जगह-जगह लाल-लाल सेबों से भरे पेड़ गाँव की सजावट बन खड़े थे। गाँव के बिल्कुल अंत में एक बोर्ड गड़ा नज़र आया,  जिस पर लिखा था "कैलाश आखिरी ढाबा"    खाने-पीने के साथ उन्होंने वहाँ पर कई सारे टैंट भी गाड़ रखे थे, यानि रात रुकने का पूरा बंदोबस्त है वहाँ। यह देख नंदू मुझे कहता है कि यदि पता होता तो कल तंगलिंग से चल, यहाँ भी रुक सकते थे...!
                    "हां, यदि हम कल तंगलिंग शाम की बजाय दोपहर में पहुँच गए होते, क्योंकि तंगलिंग से यहाँ तक चल कर आने में हमें ढाई-तीन घंटे लग गए।" मेरा जवाब।
                    गाँव के बाहर निकल पगडंडी अब खड्ड की ओर उतर रही थी जिसमें तंगलिंग जाने वाला नाला ही बह रहा है, उसके पार सीढ़ियाँ चढ़ती नज़र आती हैं....जो कुछ ऊपर जा पहाड़ में कहीं गुम होती दिखाई पड़ रही थी। खड्ड की तरफ उतरते-उतरते देखा कि नाले के पार जाने के लिए पेड़ के दो तनों को जोड़कर एक पुल बनाया गया है, जिस पर आठ-दस बड़े-बड़े पत्थर रखकर उसे ढका हुआ था कि पार करने वाला उन पत्थरों पर पैर रख, आसानी से पार हो जाए।
                       मैं नंदू को वहीं खड़ा कर उसे अपना मोबाइल थमा, नीचे उतर जाता हूँ कि मैं उस पुल पर जाकर खड़ा होता हूँ....तू मेरी फोटो खींच!
                      मैं पुल पर पहुँच कर बारी-बारी पत्थरों पर पैर रख अपना संतुलन बनाता हुआ चलने लगा....पर यह क्या, पांचवें पत्थर पर पैर रखते ही वह पत्थर असंतुलित हो हिलने लगा, इस परिस्थिति के लिए मैं कतई तैयार नहीं था....एक बार तो दिल कांप गया, दूसरे क्षण मैने अपने-आप को संभाल कर, उस पत्थर को उलट-पलट कर उसे दोबारा से उन लकड़ियों के बीच में ऐसे फंसाया कि वो डोलना बंद करें। अब प्रसन्नचित हो अपनी कुछ फोटो खिंचवाता  हूँ,नंदू को ज़ोर-ज़ोर से बोल कर।
                      अब नंदू को बोलता हूँ कि ला तेरी फोटो भी खींचूँ, नंदू अपनी रक्सैक उतार पुल पर भावशून्य सा खड़ा हो जाता है....जैसे हम बचपन में अपने स्कूल की ग्रुप फोटो में खड़े होते थे। 
                     मैं नंदू को बोलता हूँ- "यार कोई खुशी वाला स्टाइल तो बना!"   उल्टा नंदू आप मुझसे पूछ रहा है कि कौन सा स्टाइल बनाऊँ..?
                    "अरे शाहरुख खान बन जा, अपनी बांहें फैला कर...!!"
                     और, नंदू ने ऐसे अपनी बांहें फैलाई जैसे जादूगर सम्राट शंकर कोई जादू करने जा रहा हो..!!!
                    "यदि शाहरुख खान तेरी यह फोटो देख ले तो तुझे अपना उस्ताद मान ले नंदू...!"  कहकर मैं ठहाका लगाकर हंसने लग पड़ता हूँ।
                     अब हम वहीं खड्ड में गिर रहे एक छोटे से जल स्रोत से पानी भरते हैं.....मैं अपनी रक्सैक में पड़ी दो लीटर की खाली बोतल को पानी के रिजर्व कोटे के रूप में भरकर रख लेता हूँ.....और रक्सैक की बाहरी जेब में पड़ी पोने लीटर की बोतल को भी भरकर गटागट पानी पीता हूँ और नंदू को भी हिदायत देता हूँ कि वह ज्यादा-से-ज्यादा जितना पानी पी सकता है, यहाँ पी ले.....क्योंकि आगे अब डंडे सी खड़ी चढ़ाई ही दिखाई पड़ रही है।
                        पुल पार कर 25-30सीढ़ियों के बाद कच्ची पगडंडी चल पड़ी और अब असल परीक्षा की घड़ी की टिक-टिक आरंभ हो चली थी। मेरी पीठ पर भार भी अब ज्यादा बढ़ गया था, मैने अपनी दूसरी ट्रैकिंग स्टिक को भी खोल लिया। अब दोनों हाथों में ट्रेकिंग स्टिक पकड़, अपनी बाजुओं के ज़ोर से अपने शरीर को ऊपर धकेल रहा था। नंदू के पास मेरे मुकाबले आधा वजन होने के कारण, वह आराम-आराम से सीधा चलता हुआ मुझसे आगे-आगे लगभग भाग रहा था....जबकि मेरी स्थिति एक "कूवड़े ऊँट" सी बनी हुई थी, परंतु मुझे इसी में ही आनंद मिलता है कि पहाड़ मुझे तोड़े.....और, उसकी हठ के सामने मैं अपनी हठ दिखाऊँ।
                         मेरी रक्सैक पर बंधी घंटी की खनक और मेरे हर कदम की आवाज़, मेरी चढ़ी हुई साँसों के साथ तालमेल बना रही थी। मैं हर पांच-सात मिनट बाद शिव भोले का जयकारा लगाकर उस वीराने में अपनी उपस्थिति  जता देता।
                        नंदू के फोन की घंटी बजी, नंदू के बोलने के अंदाज से ही मैं समझ गया कि नंदू की दुकान खुल गई है....ग्राहक आने चालू है, सूटों के रेट भाभी जी द्वारा नंदू से पूछे जा रहे हैं...!
                        वैसे यह राहत की बात थी कि पहाड़ की इतनी ऊँचाई पर भी आकर हमारे मोबाइलों की धड़कनें चल रही थी,  "राहत"   इसलिए लिख रहा हूँ कि मोबाइल फोन पर सिग्नल होने के कारण मुझसे ज्यादा राहत मेरे घर वालों को रहती है.....कई बार ऐसी ही पहाड़ी यात्राओं पर मैं तीन-चार दिन के लिए अपने घर के संपर्क से टूट जाता हूँ और वह तीन-चार दिन मेरी चिंता में मेरे घरवाले कैसे काटते हैं, आप बखूबी समझ सकते हैं दोस्तों...!
                    चलते-चलते मैं भी अपना दूसरा सादा फोन (जिसे मैं  "गधा सेट"  कहता हूँ....और अक्सर ट्रैकिंग के  दौरान इसे साथ लेकर जाता हूँ क्योंकि इसकी बैटरी 15 दिन से भी ज्यादा चलने का दम रखती है) को जेब से निकालकर श्रीमती जी को मिला कर हाँफते हुए अपनी सलामती का पैगाम देता हूँ और उन्हें आश्वासन भी देता हूँ कि चिंता मत करना, मुझे जहाँ भी नेटवर्क मिलता रहेगा....मैं आपको अपनी आवाज़ सुनाता रहूँगा...!
                    घने देवदारों से ऊपर उठते ही, हमें अब दूर का नज़ारा साफ-साफ दिखने लग पड़ता है....सामने के पहाड़ पर सजा हुआ शहर रिकांगपिओ देखते हुए हम दोनों उसी जगह पर दम लेने रुक जाते हैं। जंगल घना होने के कारण अब मैं अपनी रक्सैक की बाहरी तनी से लटकते ब्लूटूथ स्पीकर को ऑन करता हूँ जो अभी कुछ दिन पहले आए "रक्षाबंधन" के त्यौहार पर मेरी दोनों छोटी बहनों ने मुझे उपहार स्वरूप देते हुए कहा था कि भाजी तू पहाड़ों के वीरान जंगलों में घूमता रहता है, यह स्पीकर तेरे बहुत काम आएगा। सो अब उस वीरान जंगल में अपनी मौजूदगी बताने के लिए, मैं उस ब्लूटूथ स्पीकर को अपने "गधा सेट" फोन के साथ कनेक्ट कर लेता हूँ कि ऊँची आवाज़ में मेरे पसंदीदा हिंदी गाने बजते रहें और जंगली जानवर जंगल में हमारी मौजूदगी देख अपना रास्ता बदल ले!
                       चंद सूखे मेवे खा, पानी पीकर हम दोनों फिर से चढ़ाई चढ़ना आरंभ कर देते हैं.....चढ़ाई भी ऐसी कि साँसों की माला को सामान्य गति में पिरोने के लिए कुछ-कुछ दूरी पर ही थमना पड़ जाता।
                        समय साढ़े दस बज चुके थे, तंगलिंग से चले हमें चार घंटे बीत चुके थे.....जैसे-जैसे हम ऊँचाई पर पहुँचते जा रहे थे, सामने सतलुज के पार वाले पहाड़ पर बसा रिकांगपिओ शहर हमें घने देवदारों की तनी लंबी-लंबी टहनियों के पार लुक्का-छुप्पी खेलता नज़र आता।
                         15मिनट जाते रहने के बाद हमें पहाड़ की ऊँचाई से एक अकेला नौजवान उतरता दिखाई पड़ा।यह इस पदयात्रा पर मिलने वाला सबसे पहला यात्री है, जो किन्नर कैलाश से वापस आ रहा है....ऐसी दुर्गम यात्राओं से वापस लौट रहे पदयात्रियों को रोक, उनसे इस यात्रा संबंधी अनुभवों को सुनना मुझे बहुत भाता है क्योंकि वापस आ रहे ज्यादातर यात्री खुशी व आत्मविश्वास से भरे होते हैं... उनकी खुशी में शामिल होना मुझे अच्छा लगता है।
                        उस नौजवान के पास आते ही देखता हूँ वह एक "क्यूट" सा नवयुवक है और मैं उसे ज़ोर से "जय भोलेनाथ" का सम्बोधन कर पूछता हूँ दर्शन हो गए,  वह नौजवान भी जय भोलेनाथ में मुझे उत्तर दे मुस्कुराता हुआ हां में सिर हिलाता मेरे पास आ रुकता है।
               मेरा सबसे पहला सवाल- "कहाँ से...?"  
                           "नागालैंड"
"क्या....नागालैंड!!"   मेरी प्रतिक्रिया एकदम भौंचक्कों जैसी हो गई कि यह बंदा नागालैंड से किन्नर कैलाश आया है।
                     दूसरा सवाल- "नाम...?"
                       "अतिकुर रहमान"
              यह नाम सुनकर तो मेरे होश एकदम से उड़ गए की एक मुसलमान भाई किन्नर कैलाश यात्रा पर, कैसे...!!!
                                          (क्रमश:)



  तंगलिंग गाँव से ऊपर चढ़ते ही नाले के पार एक बिजली घर भी दिखाई पड़ा, जिसकी टरबाइन चलाने के लिए सामने के पहाड़ की ऊँचाई से लोहे की पाइप लाइन उतर रही थी और टरबाइन घुमाने के बाद वह पानी शोर मचाता हुआ उफ़नते झरने का मोहक रूप ले नाले में गिर रहा था।

 वहाँ भी नाले पर लोहे का एक छोटा सा पुल पड़ा था जिस पर सिर्फ पैदल ही आया-जाया जा सकता है।

  चंद क्षण यहाँ ठहर जाता हूँ, नंदू को कहता हूँ- "कभी-कभी ऐसा शोर सुनना कितना अच्छा लगता है!"

यात्रा पथ पर हम दोनों राही, नहीं-नहीं हमराही।

तंगलिंग से ऊपर "कंगरिंग" गाँव से पहले की चढ़ाई।

रास्ते में मिलने वाले स्थानीयों को मैं अपने साथ खिंचवानें के लिए रोक लेता।

एक फोटो आपके साथ खिंचवा लूँ माँ......शायद यह उस खूबसूरत स्थान की यात्रा से मिली खुशी थी...जिसे मैं वहाँ के स्थानीय लोगों पर अपने ढंग से ज़ाहिर कर रहा था, उन संग फोटो खिंचवा कर...!

कंगरिंग में दुकान पर टॉफियाँ खरीदते हुए।

कंगरिंग गाँव के एक मंदिर के सामने खड़ा नंदू।

कंगरिंग गाँव के इन शुरुआती घरों से बाहर निकलते ही अब हम इतनी ऊँचाई पर पहुँच जाते हैं कि पीछे मुड़कर देखने पर हमें घाटी में बह रही सतलुज के दर्शन होने लग पड़ते हैं, नीचे तंगलिंग गाँव भी नज़र आ रहा था।

कंगरिंग गाँव से गुज़रती पगडंडी।

 एक जगह हम दोनों ज़रा सा रुक कर साँस ले रहे थे कि पगडंडी पर एक युवक अपने कंधे पर कुल्हाड़ी रखें, हमारी ओर चढ़ाई चढ़ता आ रहा था...."भगवान सिंह भंडारी"

चलते-चलते ही उसी ऊँचाई से भगवान सिंह हमें नीचे दिख रहे तंगलिंग में अपना घर व खेत भी दिखाता है। 

ये जनाब जी, पगडंडी के बीचो-बीच बैठे आराम फ़रमा रहे थे।

कंगरिंग गाँव के घर।

उस ऊँचाई से नीचे दिख रही सतलुज घाटी।

सामने आए एक घर के बागीचे में पेड़ पर लगे सेब देख, नंदू फिर आतुर हो उठा...!

भगवान सिंह ने झट उस बागीचे में घुसकर चार-पांच सेब तोड़ कर हमें दिए ही थे कि घर के भीतर से एक महिला बड़बड़ाती हुई बाहर आई और भगवान सिंह से लड़ने लगी......!

कंगरिंग गाँव में भगवान सिंह के मामा की दुकान।

भगवान सिंह के मामा "राधा कृष्ण" हमारे लिए कथित पहाड़ी व्यंजन "मैगी" तैयार करते हुए।

लीजिए, चखिए हमारी मैगी।

मैगी वार्ता, भगवान सिंह के साथ।

कंगलिंग गाँव में बिखरी सुंदरता, लाल-लाल किन्नौरी सेब।

क्या हसीन रास्ता, कंगरिंग गाँव में सेबों के बाग़ीचों के बीच से निकलता हुआ।

कंगरिंग गाँव के आखिरी घरों में मंदिर।

कंगरिंग गाँव में घरों की छतों पर पेड़ों से खुद गिरे सेबों को काटकर धूप में सूखाने डाला गया था।

चारों ओर सेब ही सेब।

गाँव के बिल्कुल अंत में एक बोर्ड गड़ा नज़र आया,  जिस पर लिखा था "कैलाश आखिरी ढाबा" 

आखिरी ढाबा से आगे.....एक वीराना, जिसे पार कर हमें आज मलिंगखट्टा पहुँचना है।

"कैलाश आखिरी ढाबा"    खाने-पीने के साथ उन्होंने वहाँ पर कई सारे टैंट भी गाड़ रखे थे, यानि रात रुकने का पूरा बंदोबस्त है वहाँ।

कंगरिंग गाँव को पार कर खड्ड की तरफ बढ़ते हुए दिखता पहला दृश्य।

गाँव के बाहर निकल पगडंडी अब खड्ड की ओर उतर रही थी जिसमें तंगलिंग जाने वाला नाला ही बह रहा है, उसके पार सीढ़ियाँ चढ़ती नज़र आती हैं....जो कुछ ऊपर जा पहाड़ में कहीं गुम होती दिखाई पड़ रही थी।



मैं नंदू को वहीं खड़ा कर उसे अपना मोबाइल थमा, नीचे उतर जाता हूँ कि मैं उस पुल पर जाकर खड़ा होता हूँ....तू मेरी फोटो खींच!

     "अरे शाहरुख खान बन जा, अपनी बांहें फैला कर...!!"

हम वहीं खड्ड में गिर रहे एक छोटे से जल स्रोत से पानी भरते हैं।

खड्ड पार करने बाद, चढ़ाई चढ़ पीछे दिख रहा कंगरिंग गाँव।

उसी ऊँचाई से नीचे दिख घाटी में बह रही सतलुज।

घने देवदारों से ऊपर उठते ही, हमें अब दूर का नज़ारा साफ-साफ दिखने लग पड़ता है।

लो, ज़रा नजदीक दिखा देता हूँ....रिकांगपिओ।

सामने के पहाड़ पर सजा हुआ शहर रिकांगपिओ देखते हुए हम दोनों उसी जगह पर दम लेने रुक जाते हैं। 

नंदू के पास मेरे मुकाबले आधा वजन होने के कारण, वह आराम-आराम से सीधा चलता हुआ मुझसे आगे-आगे लगभग भाग रहा था।


जबकि मेरी स्थिति एक "कूवड़े ऊँट" सी बनी हुई थी, परंतु मुझे इसी में ही आनंद मिलता है कि पहाड़ मुझे तोड़े.....और, उसकी हठ के सामने मैं अपनी हठ दिखाऊँ।

मेरे हमराही, तू भी मेरी पीठ पर लटक-लटक थक गया होगा....चल तू कुछ आराम कर ले।

जैसे-जैसे हम ऊँचाई पर पहुँचते जा रहे थे, सामने सतलुज के पार वाले पहाड़ पर बसा रिकांगपिओ शहर हमें घने देवदारों की तनी लंबी-लंबी टहनियों के पार लुक्का-छुप्पी खेलता नज़र आता।

            ( अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )


मेरे यात्रा वृतांत -
(1) " श्री कालिनाथ कालेश्वर महादेव"......"मेरी मनपसंद जगह"  स्पर्श करेें।
(2) दो सौ साल की मेहनत व सादे औजारों से पहाड को तराश कर निकला एक अद्भुत अजूबा..... कैलाशनाथ गुफा मंदिर, एलोरा(महाराष्ट्र)  स्पर्श करें।













मंगलवार, 19 मई 2020

भाग-3 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

भाग-3 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

इस यात्रा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र
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             " किन्नर कैलाश की प्रथम सीढ़ि - तंगलिंग"


         पिछली किश्त में....आप 20अगस्त 2017 की शाम मेरे साथ किन्नौर के स्वागती द्वार "तरण्डा ढांक"  की सैर कर रिकांगपिओ से कुछ पहले शोंगटोंग गाँव से तंगलिंग गाँव के लिए बनी कच्ची सड़क पर चले आए थे। आज की रात तंगलिंग गाँव में काट कर, आपको मेरे संग सुबह-सुबह "किन्नर कैलाश" के लिए जाना है मेरे पाठक दोस्तों।
                        तंगलिंग पहुँचते-पहुँचते शाम के 6बजने को हो लिये....गाँव की शुरुआत में ही सतलुज नदी की तरफ कुछ बड़े-बड़े शैड नज़र आए, वह "पटेल प्रोजेक्ट" का अस्थाई पड़ाव था। तंगलिंग के पास ही उनका कोई हाइड्रो प्रोजेक्ट चल रहा था। पटेल प्रोजेक्ट के बाद एक नाले के इर्द-गिर्द बसा तंगलिंग गाँव शुरू हो गया। छोटा सा गाँव, दो-चार खाने-पीने की छोटी-छोटी दुकानें, वो भी पटेल प्रोजेक्ट के यहाँ आने के बाद स्थानीय लोगों ने खोल ली होगी।
                       मेरी और नंदू हम दोनों की इस छोटे से गाँव में पहुँच, ऐसी स्थिति थी जैसे हर अजनबी की होती है अजनबी जगहों पर जाकर। तंगलिंक की उस छोटी सी सड़क पर हमें कहीं भी अपनी गाड़ी खड़ी करने के लिए कोई भी जगह नहीं मिली, जो जगह थी भी...उस पर पहले से ही स्थानीय नंबरों की गाड़ियों ने कब्ज़ा जमा रखा था। सो, मैं नंदू को कहता हूँ कि चल पहले गाड़ी लेकर पूरा गाँव घूम कर देखते हैं और रात रुकने के लिए किसी होटल का भी पता करते हैं। परंतु गाड़ी का तीसरा गेयर डालते ही गाँव खत्म भी हो गया और हम उस जगह पहुँचे, जहाँ से किन्नर कैलाश जाने के लिए प्रथम सीढ़ियाँ थी। सामने सतलुज के ऊपर वही झूला नुमा ट्राली थी, जिसके बीच में बैठकर मुख्य मार्ग पर स्थित पोवारी कस्बे से तंगलिंग आना-जाना होता है। झूले वाली जगह पर सतलुज की चौड़ाई और तीव्र बहाव को देख, मैं रोमांचित हो नंदू को कहता हूँ- "यार, इस झूले में बैठ तंगलिंक आना था...क्या जबरदस्त अनुभव होना था, जब तार पर लटकता झूला सतलुज के बीच में आता और तेज़ हवा से हिलने लगता, वाह क्या गज़ब का रोमांच आता नंदू...!!!"
                       पर नंदू की बुझी-बुझी सी हंसी से मैं समझ गया कि नंदू शुक्र मना रहा है कि वह मुझ सनकी के हत्थे नहीं चढ़ा...!!!!"
                         तभी, हमारे पास से एक सज्जन हमें देखते हुए गुज़रने लगे, उनके हाथ में एक लिफाफा सा था शायद गाँव की किसी दुकान से कोई राशन आदि लेकर आ रहे थे। मैं उन्हें आवाज़ देता हूँ- "नमस्कार भाई साहब, यहाँ रात रुकने के लिए होटल कहाँ है?"
                           वे सज्जन मुस्कुराते हुए बोले- "यहाँ तो कोई होटल नहीं, आप कहाँ से आए हो?"
           "पंजाब से, किन्नर कैलाश जाना है कल सुबह।"           
"ओह, जय भोलेनाथ भाई...होटल तो कोई नहीं, आप मेरे घर रात रुक जाओ...कल सुबह चले जाना किन्नर कैलाश।" मैं हंसता हुआ उनका नाम पूछता हूँ।
           "हुकुम सेन....यहीं ऊपर तंगलिंग में मेरा घर है।"
 मैं हुकुम सेन से उनके घर रात रुकने के पैसे पूछता हूँ, तो हुकुम सेन बोले- "पैसे-पूसे कुछ नहीं...आप लोग हमारे मेहमान हैं, किन्नर कैलाश जा रहे हैं जो रूखी-सूखी हम खाएंगे...आप भी वही खा लेना, बिस्तर आपको दे दूँगा आराम कर सुबह यात्रा पर चल देना।"
                          मैंने नंदू की तरफ चोर आँख से देखा तो उसने भी चोर आँख से ही मुझे समझा दिया कि वह इस प्रस्ताव के हक में नहीं है। हालांकि मैं हुकुम सेन के निमंत्रण को सुन, भीतर से बहुत प्रसन्न था कि हमें आज रात पहाड़ पर बसे इस छोटे से गाँव में स्थानीय लोगों के बीच रहने का सुअवसर मिल रहा है, स्थानीय भोजन और रीति-रिवाज़ों से साक्षात्कार होगा.....परंतु नंदू की मनाही पर मैंने मौके पर बात बदल दी कि हुकुम सेन को बुरा ना लगे- "नहीं नहीं, हुकुम सेन जी.....हम आपको व्यर्थ का कष्ट नहीं देना चाहते, यदि गाँव में कोई होटल नहीं है...तो हम रिकांगपिओ चले जाते हैं, रात वहाँ होटल में रुक सुबह वापस यहीं आकर चढ़ाई शुरू कर देंगे।"
                         हुकुम सेन के जाते ही नंदू मुझे बोला- "अच्छा किया तूने विक्की, यह बंदा मुझे सही नहीं लग रहा... कैसे कोई अंजान हम अंजानों को अपने घर ले जाएगा, इसमें इस बंदे की कोई चाल या लालच है!!!"
                        मैं एक ठंडी साँस छोड़, पहले अपने आपको सामान्य कर बोलता हूँ- "नहीं, वह बंदा एकदम सही था....दोष उसमें नहीं, हम में है क्योंकि हम शहरों की शातिर सोच रखने वाले हैं और वह भोलेभाले गाँव की सी....नंदू मैं पहाड़ी लोगों के बीच में बहुत विचर चुका हूँ, ये बहुत ईमानदार व मददगार लोग होते हैं....तू शायद भूल रहा है कि 'लमडल झील' के रास्ते में, जब मैं जंगल में खो गया था तो मुझ अजनबी को एक स्थानीय पहाड़ी गद्दी  'राणा चरण सिंह'  ने ही बचाया था और तीन दिन मैं उनके साथ ही जंगल में रहा, वह ही मुझे धौलाधार हिमालय की सबसे लंबी व गहरी झील 'लमडल' के दर्शन करवा कर लाये....देखो हम दोनों भी एक-दूसरे के लिए अजनबी ही तो थे, अच्छा होता यदि हम हुकुम सेन का निमंत्रण स्वीकार कर लेते...परंतु तेरा रुख जान मैं पीछे हट गया...!!!!"
                          मेरी बात सुन नंदू कुछ तेज़ी से बोला- "यदि मेरी जगह तेरे बीवी-बच्चे होते, तो क्या तू हुकुम सेन के घर उन्हें लेकर चल देता...?"
                          मुझे नंदू के इस आक्रमक प्रश्न का उत्तर देने में कुछ क्षणों की देरी हो जाती है- "यदि मेरे पास कोई भी विकल्प शेष नहीं रह जाता, तो निश्चित ही अपने परिवार को लेकर हुकुम सेन के घर चल देता...पर परिवार के साथ रहते शायद मैं भी, तेरी तरह ही सोचता नंदू और यदि मैं अकेला होता तो झट से हुकुम सेन के साथ चल देता...!!"
                         बाकी आप बताओ मेरे पाठक मित्रों, आप भी तो हमारे साथ ही खड़े हैं....कि आपकी क्या राय है कि हमें हुकुम सेन के घर चले जाना चाहिए या नहीं..?"
                       
                          गाड़ी मोड़ कर हम वापस गाँव की ओर चल देते हैं कि कहीं कोई ऐसी जगह मिले जहाँ हम अपनी गाड़ी खड़ी कर टैंट लगा सकें। पुल के पास की दुकानों से कुछ पीछे ही हम उस छोटी सी ढाबा नुमा दुकान पर पहुँच जाते हैं....जिसके बारे में अभी एक स्थानीय से पूछताछ भी की थी कि यहाँ अच्छा खाना कहाँ मिलेगा, तो उसने इसी दुकान के बारे में बताया....जिसे एक नेपाली दम्पति चला रहा है और पटेल प्रोजेक्ट के कर्मचारी ज्यादातर इसी ढाबे पर खाना खाते हैं।
                         ढाबे के अंदर जा पूछता हूँ कि आज रात के खाने में क्या खिला रहे हो.......तो वह नेपाली बोला- "मुर्गे के साथ रोटी, शाब जी।"
                        "ओ नहीं, मुझे मुर्गे के साथ नहीं अपने इस मित्र नंदू के साथ रोटी खानी है भाई....और कोई कंद-मूल, शाक-सब्जी, दाल-भात की बात करो...क्योंकि मैं शाकाहारी हूँ...!!!" मैं गंभीर सा मुँह बना कर बोला।
                       "नहीं शाब जी, यहाँ शब लोग मीट ही खाता है..!"
                        मैं नंदू की तरफ देख कर कहता हूँ- "ले यार, यह तो बस तेरे मतलब का ढाबा निकला...!!"
 परंतु नंदू बोला- "नहीं विक्की, मैं भी मीट नहीं खाऊँगा क्योंकि हम धार्मिक यात्रा कर रहे हैं।"
"आप हम दोनों के लिए कुछ और बना दो" नंदू उस नेपाली दुकानदार से बोला।
                        "अच्छा तो आप दोनों के लिए हम पनीर की सब्जी बना देगा, अभी रिकांगपिओ से पनीर भी मंगवा लेता हूँ।"
                        मैं बोला- "चलो यह ठीक है, हम आठ बजे पहुँच जाएंगे, आपके पास खाना खाने....पर एक बात बताओ कि हम अपनी गाड़ी कहाँ खड़ी करें, जहाँ टैंट भी लगा सकें और हमारे किन्नर कैलाश जाने के बाद गाड़ी वहाँ सुरक्षित खड़ी रहे।"
                       "तो, पुल पार कर पटेल प्रोजेक्ट का बजरी का डम्प है, वहाँ खुली जगह है और गार्ड भी हर वक्त रहता है।" ढाबे वाले ने सलाह दी।
                       लो, हम अपनी गाड़ी ले पटेल प्रोजेक्ट के बजरी डम्प पर पहुँच जाते हैं। वहाँ एक तरफ पहले से ही बाहर की नम्बरों वाली दो गाड़ियाँ खड़ी थी.....निश्चित ही वे गाड़ियों वाले भी हमारी तरह ही किन्नर कैलाश गए होंगें। मुझे भी वहाँ गाड़ी लगाते देख, वहाँ मौजूद गार्डों ने पहले तो हमें वहाँ गाड़ी खड़ी करने से मना कर दिया कि हमारे ट्रक आते-जाते रहते हैं....उन्हें मोड-मुड़ाई में दिक्कत होगी,  पर फिर बाद में वे मान गए....यह कहते हुए कि हम आपकी गाड़ी की रखवाली नहीं करेंगें, हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है। हम आठ-दस मिनट उन गार्डों से बातचीत करते रहे, नतीजा यह हुआ कि वे हमसे घुल-मिल गए। रात का खाना उसी नेपाली दम्पति के ढाबे पर खाने की सलाह भी जब उन्होंने हमें दी, तो मैंने कहा- "वह बंदा हमारे लिए रिकांगपिओ से स्पेशल पनीर मंगवा कर उसकी सब्जी बना रहा है, बस अंधेरा होते ही हम वहाँ खाना खाने पहुँच जाएंगे.....अभी दिन की इस जाती हुई रोशनी में, हम जल्दी से अपनी गाड़ी के पास यदि टैंट लगा ले तो आपको कोई एतराज़ तो नहीं है भाई...?"
                       तो वो गार्ड बोले- "नहीं, आप को टैंट लगाने की कोई जरूरत नहीं....हम दोनों की आज नाइट ड्यूटी है, आप हमारे कमरे में जाकर हमारे बिस्तरों पर आराम से सो जाईये।"  इस बार मुझे नंदू की तरफ चोर आंख से देखने का मौका भी नहीं मिला क्योंकि उनके इस प्रस्ताव को सुन मुझसे पहले नंदू की वाह-वाह की आवाज़ ने फैसला सुना दिया था। अब वे गार्ड हमें व हमारे सामान को अपने कमरे तक छोड़ गए। दस-बीस मिनट अपनी कमर सीधी कर हम पहुँच जाते हैं, उसी नेपाली दम्पति के ढाबे पर।
                         ढाबे के दोनों मेज़ पूरी तरह से भरे हैं, प्रोजेक्ट के मजदूरों को खाना खिलाया जा रहा है और कुछ थकान उतारने वाली कथित दवा को भी रोटी के साथ पानी में मिलाकर पिये जा रहे थे। कुछ इंतजार के बाद हमें जगह मिल जाती है और हमारी थालियाँ भी आ जाती हैं।
                         तरी वाला पनीर देख, मैं ढाबे वाले को मज़ाक में कहता हूँ- "देखना यार, कहीं ऐसा तो नहीं कि तूने मुर्गे की तरी में पनीर तैरवा दिया हो और मेरा ब्राह्मण धर्म भ्रष्ट हो जाए...!!"
                         "नहीं शाब जी, आपके लिए अलग से सब्जी बनाया है....कसम से!!!"   खैर उस बंदे ने हमें ऐसे रोटी खिलाई जैसे हम उसके ग्राहक ना हो कर, उसकी बहन के ससुराल से आए मेहमान हों।
                          वापस कमरे में आ, सोने से पहले मैं और नंदू दिन भर के घटनाक्रम पर बातें करते रहते हैं। नंदू बोला- "यार विक्की, यहाँ लोग कितने अच्छे व मददगार हैं...ढाबे वाले ने क्या बढ़िया खाना खिलाया और इन गार्डों ने हमें अपना कमरा तक दे दिया।"
                          "हां नंदू वो 'हुकुम सेन' भी इन सब भले मनुष्यों में से एक भला मानुष ही था...!!"
                            नंदू बोला- "हां, इन सब लोगों को मिलने के बाद मुझे भी ऐसा ही लगने लगा है कि तू सही था....वह हुकुम सेन भी हमारा एक मददगार ही था, परंतु यदि हम उसके साथ चल देते....तो इन लोगों से कैसे मिलना होता, जो होता है अच्छा ही होता है।"
                       कुछ समय बाद हमारे कमरे में अब सतलुज के बहने और झिंगुरों की मिश्रित आवाज़ ही रह जाती है, क्योंकि हम दोनों निंद्रा देवी का आह्वान कर चुके थे। मैं यहाँ यह भी लिख सकता हूँ कि आधी रात को नंदू के नींद में बड़बड़ाने की आवाज़ ने मुझे जगा दिया, "जनाब सपने में भी अपनी बीवी को सूटों के दाम बता रहे थे..!"
                      परंतु यह झूठ है और मैं कभी भी अपने यात्रा- वृतांतों में झूठ का नमक-मिर्च-मसाला नहीं डालता, जो मेरे साथ घटा है और जो अनुभव मैंने उस यात्रा पर कमाया है....उसे ही आप संग बांटता हूँ और हर घटना के सबूत के रूप में अपने द्वारा खींचे हुए चित्र भी संग पेश करता हूँ। मेरी कोई भी बात मनगढ़ंत नहीं होती और ना ही मैं कोई कहानीकार हूँ, मैं तो बस आप सब में से ही एक साधारण बंदा हूँ।
                     तड़के पौने पांच बजे, मेरे मोबाइल के पालतू  मुर्गे ने बांग दे-देकर हमें जगा दिया और हम दोनों ने नव जोश के साथ किन्नर कैलाश जाने की तैयारी पकड़ ली।
                      सुबह 6बजे हम अपनी कमर कस चुके थे, अपनी रक्सैकों से। मौसम कुछ-कुछ बारिश वाला हो रहा था। कल जिस दिशा में हमें किन्नर कैलाश बताया गया था उस ओर के पहाड़ों के शिखर मेघों के हत्थे चढ़े हुए थे। सूर्य देव के प्रकाश बाण भी अभी इन मेघों के कवच को भेद कर धरती पर नहीं पहुँच पा रहे थे। एक खुशनुमा सी हवा की हल्की-हल्की फुहारे मेरे चेहरे से टकरा रही थी, सतलुज नदी का शोर अब चिड़ियों की चहचहाहट से संधि कर कर्णप्रिय संगीत में तब्दील हो चुका था।
                       गार्ड हमें शुभ यात्रा की आशीष देकर विदा करते हैं और मैं पूरे जोश से शिव भोले का जयकारा लगाता हूँ....तो जवाब में नंदू व दोनों गार्ड हर-हर-महादेव का उद्घोष करते हैं।
                        हम दोनों पुल पार कर गाँव से गुज़र उस ओर चले जा रहे थे, जहाँ से किन्नर कैलाश के लिए प्रथम सीढ़ियाँ चढ़ती हैं। प्रशासनिक तौर पर तो यात्रा 15अगस्त को ही समाप्त कर दी गई थी, इसलिए हम दोनों अब अकेले ही नज़र आ रहे थे यात्रा पथ पर।
                       दस मिनट चलते रहने के बाद हम उस जगह पहुँच जाते हैं, जहाँ सतलुज को पार करने के लिए झूला लगा है और उसके सामने ही किन्नर कैलाश को जाने के लिए ट्रैक शुरू होता है। मैं सम्मान वश झुक कर प्रथम सीढ़ि को छूकर उसकी मिट्टी अपने माथे पर लगाता हूँ और "जय किन्नर कैलाश"  बोलकर प्रथम सीढ़ि चढ़ जाता हूँ। सीढ़ियाँ चढ़ते ही कई सारे बैनर रास्ते में लगे नज़र आने लगते हैं, जिनसे पता चलता है कि किन्नर कैलाश मार्ग के मध्य में पड़ते "मलिंगखट्टा" में उन सब बैनर वालों ने अपने-अपने टैंट व ढाबों की व्यवस्था कर रखी है.....इसीलिए तो मैं अपना टैंट गाड़ी में छोड़ आया था, नहीं तो मेरी रक्सैक का वज़न पोने चार किलो और ज्यादा बढ़ जाना था, दोस्तों। परंतु हम यात्रा समाप्ति के एक सप्ताह बाद जा रहे थे, तो इन सब ढाबों का वहाँ मौजूद होना मुझे संदेहप्रद सा लग रहा था....क्योंकि यात्रा समाप्त होते ही ढाबे-टैंट वालों ने भी वापसी करनी शुरू कर दी होगी, फिर सोचता हूँ कि यदि हमें मलिंगखट्टा जिसे गणेश पार्क भी कहते हैं, में कोई आश्रय नहीं मिला तो मेरी पीठ पर खाने-पीने का सामान तो लदा ही है और सुना है की मलिंगखट्टा में वन विभाग की एक छोटी सी इमारत भी है.....नहीं तो, यदि दिन हुआ मलिंगखट्टा से आगे वह प्राकृतिक गुफा भी है जिस में अक्सर किन्नर कैलाश यात्री सदियों से रुकते आ रहे हैं........ऐसा मैं मन ही मन सोचता जाता हूँ।
                         नंदू से इस बारे में कोई बात नहीं करता क्योंकि नंदू तो मस्त है पगडंडी के किनारे अभी-अभी आए एक पेड़ को देखने में, जिस पर अखरोट लगे हुए थे।
                         अब तंगलिंग गाँव के घर आने शुरू हो गए, जिन को सेब के पेड़ों ने और ज्यादा खूबसूरत बना दिया था। लाल-लाल सेब इन पेड़ों पर लटकते हुए अपनी जवानी की शेखी बिखेर रहे थे।
                        तंगलिंग गाँव से गुज़रते-गुज़रते ही बूंदाबांदी शुरू हो जाती है, हम दोनों एक-दूसरे की तरफ ऐसे देखते हैं जैसे कोई बना-बनाया खेल बिगड़ गया हो! हम दोनों अब एक घने पेड़ के नीचे अवाक् से खड़े हैं, चिंता की लकीरों से हम दोनों के माथों पर बल पड़ चुके हैं। पांच मिनट बाद उस घने पेड़ से भी पानी टपकने लगता है तो मैं नंदू को कहता हूँ कि पहाड़ों में मौसम का मिजाज़ उस नन्हे बालक सा होता है जो पल-भर-पल हंसता है, रोता है...या तो उसे सब कुछ चाहिए या कुछ भी नहीं...! चल नंदू चलते हैं, रुके रहने से हम आज के पड़ाव से दूर होते जाएंगे....तू अपना रेन कोट पहन, मैं छाता निकालता हूँ.....चल यार जो होगा देखा जाएगा!!!
                         खैर, बारिश वाले ने भी हम बेशर्मों को देख थोड़ी सी शर्म खा ही ली .....उसने अपने वेग को कुछ कम कर लिया।
                                     (क्रमश:)
                   


तंगलिंक गाँव वासी "हुकुम सेन" जिन्होंने हमें अपने घर रात रुकने की पेशकश की थी, परन्तु.....!!

"पटेल प्रोजेक्ट" के वो दोनों गार्ड....जिन्होंने ने हमें अपना कमरा दे दिया, रात रुकने के लिए।    मैं अपने इन दोनों मददगारों के नाम भूल चुका हूँ, याद आते ही अपडेट कर दूँगा।
तरी वाला पनीर देख, मैं ढाबे वाले को मज़ाक में कहता हूँ- "देखना यार, कहीं ऐसा तो नहीं कि तूने मुर्गे की तरी में पनीर तैरवा दिया हो और मेरा ब्राह्मण धर्म भ्रष्ट हो जाए...!!"
"नहीं शाब जी, आपके लिए अलग से सब्जी बनाया है, कसम से...!!!"

अगली सुबह.....जिस दिशा में हमें किन्नर कैलाश बताया गया था उस ओर के पहाड़ों के शिखर मेघों के हत्थे चढ़े हुए थे।

तंगलिंग गाँव।

पटेल प्रोजेक्ट के बजरी डम्प पर खड़ी मेरी गाड़ी।

चल नंदू......खिच तैयारी यारा।

ले हुन, आपां भी तेरे नाल....जय किन्नर कैलाश बाबे दी।

तंगलिंग गाँव के पुल पर।

तंगलिंग गाँव के बीच में गुज़रता यह खूबसूरत नाला, जो सतलुज में समा जाता है।

सतलुज किनारे पटेल प्रोजेक्ट का बजरी डम्प।

नाले के इर्द-गिर्द बसा तंगलिंग गाँव।

सतलुज के ऊपर पड़ा झूला.....जिसमें बैठ कर दरिया पार कर तंगलिंग पहुँचा जाता है।

झूले के सामने ही किन्नर कैलाश को जाती प्रथम सीढ़ियाँ।

 मैं सम्मान वश झुक कर प्रथम सीढ़ि को छूकर उसकी मिट्टी अपने माथे पर लगाता हूँ और "जय किन्नर कैलाश"  बोलकर प्रथम सीढ़ि चढ़ जाता हूँ।

सीढ़ियाँ चढ़ते ही कई सारे बैनर रास्ते में लगे नज़र आने लगते हैं, जिनसे पता चलता है कि किन्नर कैलाश मार्ग के मध्य में पड़ते "मलिंगखट्टा" में उन सब बैनर वालों ने अपने-अपने टैैंट व ढाबों की व्यवस्था कर रखी है।
नंदू मस्त है पगडंडी के किनारे अभी-अभी आए एक पेड़ को देखने में.....



जिस पर अखरोट लगे हुए थे। 

अब तंगलिंग गाँव के घर आने शुरू हो गए, जिन को सेब के पेड़ों ने और ज्यादा खूबसूरत बना दिया था। लाल-लाल सेब इन पेड़ों पर लटकते हुए अपनी जवानी की शेखी बिखेर रहे थे। 

 चल नंदू चलते हैं, रुके रहने से हम आज के पड़ाव से दूर होते जाएंगे....तू अपना रेन कोट पहन, मैं छाता निकालता हूँ.....चल यार जो होगा देखा जाएगा!!!



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मेरे यात्रा वृतांत -
(१) " शिमला से आगे, कूप्पड़ में गिरी गंगा...!" (कूप्पड़ ट्रैक)
(२) "एक गाँव ऐसा, जहाँ घरों की दूसरी मंजिल बनाना वर्जित है..!" (जंयती देवी)
(३) ताजमहल देखने जब आगरा जाऐ, तो बादशाह अकबर का मक़बरा " सिकन्दरा" जरूर देखें।