मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

भाग-12 पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास.....Lamdal yatra via Gaj pass(4470mt)

भाग-12  पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास (4470मीटर)
               
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                              पिछली किश्त में आप लोगों ने पढ़ा कि, कैसे पैर की चोट की वजह से मेरा छोटा भाई ऋषभ नारदा..वहीं राणा चरण सिंह के डेरे पर रह गया और मैं 25अगस्त2015 के दिन चरण सिंह को साथ ले कर लमडल की तरफ रवाना हो गया.......
                              गज नदी के किनारे पहाड की तलहटी में बसी बिखरी सी गद्दियों की एक छोटी सी बस्ती "बग्गा" की सुन्दरता के सूक्ष्म दर्शन अपनी आंखों व कैमरे में कैद कर अब हम दोनों आगे, गज पर्वत की तरफ बढ़ रहे थे......फिर  एक स्थान पर पत्थरों के ऊपर से गज नदी को पार कर..... कुछ चढाई चढ़ कर हम सांस लेने के कुछ देर बैठ गए और मैने अपनी रक्सक(पीठू बैग) उतार कर रख दी और आसपास की तस्वीरें खींचने में मश़रूफ हो गया......... तभी चरण सिंह ने कहा, "भाई जी....चलो चलते हैं"   मैने मुड़ कर देखा कि मेरी रक्सक चरण सिंह पीठ पर डाल कर आगे चलने के लिए तैयार खड़े है और मैने इस बात पर अपना ऐतराज़ ज़ाहिर किया, कि यह मेरा भार है...इसे मैं ही उठाऊंगा, तो चरण सिंह बोले, रास्ता लम्बा व कठिन है.... हम दोनों बारी-बारी इस बोझ को उठा कर चलते है, अब कुछ देर मैं उठाता हूँ...... फिर आप उठा लेना, मैने कहा..चलो ऐसा ही सही........और आगे की तरफ चढ़ने लगे
                      कुछ आगे चढ़ने के बाद मुझे गज नदी एक झरने के रूप में पहाड से गिरती हुई दिखाई दी, तो मैने चरण सिंह से इस बारे में पूछा......तो वे बोले, हां वह गज नदी की धारा ही है और हमे इस के साथ से ही ऊपर चढ़ना है, जो कि सीधी चढ़ाई है........मैने हंसते हुए चरण सिंह से पूछा कि राणा जी, चढ़ाई मुश्किल है या आसान..... राणा जी बोले "आसान ही होगी"       और इन के इस जवाब पर हम दोनों खिलखलाकर हंसने लगे...... मैं बोला, "चलेगें..... तो आसान"....... कह कर चरण सिंह की तरफ देखने लगा, कि वह मेरे वाक्य को पूरा करे.... "नही चलेगें, तो मुश्किल.. भाई जी " कह कर चरण सिंह ने मेरा अधूरा वाक्य पूरा किया............ दोस्तों, पहाडों पर अकेले शारीरिक बल से ही नही चढ़ा जाता......अपितु  बल के साथ-साथ दृढ़व्रत निश्चय और उस गिरि के प्रति सम्मान भी हर समय मन में होना चाहिए......
                             चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते मेरी सांस फूलने लगी, तो मैने जेबे टटोल कर अपने माथे पर हाथ मारते हुए कहा.... "ओह हो, चरण सिंह जल्दबाजी में मैं तो डेरे से टोफियां उठाना ही भूल गया...... यदि टोफियां मेरे पास होती, तो इस पहाड पर चढ़ते समय मुंह मे रखता, ताकि मुझे सांस कम चढ़े और मेरा मुंह भी ना सूखे"...... चरण सिंह ने मेरी बात सुनी और उसी समय उसी स्थान पर नीचे झुक कर जमीन से कुछ पत्ते तोड़ कर मुझे थमा दिये, और बोले..." यह लो पंडित जी.....इसे 'अमलू' कहते हैं, यह आप को टोफियों की कमी नही महसूस होने देंगे, इन्हें मुंह में रख चूसते रहे".....मैने हैरानी से देखा और झट से एक पत्ता मुंह में डाल लिया, और "अमलू" के स्वाद के आगे उस मशहूर कम्पनी की खट्टी-मीठी कैंडी की क्या औकात........
                             मुझे चरण सिंह ने एक पौधा दिखाकर हिदायत दी कि, यह "छरमरा" नामक एक ज़हरीली बूटी है... इसके सम्पर्क में आने से सिर में दर्द और चक्कर आने शुरू हो जाते है, इन पहाडों में बेशुमार जीवनदायी बूटीओं के साथ-साथ... बहुत विषैली जीवनहरनी बूटीयां भी हैं...... इसलिए किसी भी बूटी, फल या फूल के प्रति अपने आकर्षण पर काबू रखे, यह आकर्षण घातक भी सिद्ध हो सकता है......... चरण सिंह की बात सुनते-सुनते ही मेरा हाथ एकाएक रास्ते पर जगह-जगह उगी बिच्छू बूटी से छू गया, तो फिर से वही भयानक लहर तन-बदन में दौड़ने लगी, परन्तु तभी राणा चरण सिंह ने वहीं से एक बूटी तोड़ मेरे हाथ पर मल दी और कहा कि यह बिच्छू बूटी के विष को काटने वाली "ओवल" नामक बूटी है..... सच में ओवल के मलने के बाद दर्द की लहर एक दम से शांत हो गई.......
                     जैसे-जैसे मैं गज पर्वत के ओर बढ़ रहा था, तो उस प्राकृतिक सुषमा को देख मुझे ऐसी अनुभूति हो रही थी, कि इस सांसारिक मोह नगरी को छोड़ मैं जीवित ही स्वर्ग की सीढ़ियाँ चढ़ रहा हूँ......... और अब हम दोनों गज गिरिराज के चरणों में पहुंच चुके थे........ "बकरोट" नाम बताया मुझे चरण सिंह ने इस "स्वर्ग के द्वार" का, जिस पर बर्फ के ग्लेशियरों ने सफेद रंगी स्वागती गलीचा बिछा रखा था...... और गज पर्वत में से प्रपात रुपी गज नदी उस बर्फ के ग्लेशियर को भेद कर भूमिगत रूप में हमारे सामने आ निकल रही थी...... और एक बात,  गर्मियों के मौसम में जमी हुई बर्फ के पास पहुंचने का अपना एक अलग ही आंनद होता है, दोस्तों.......
                                गज नदी के इतिहास को मुख्यतः बाकी और इतिहासों की तरह ही महाभारत काल से पाण्डवों के साथ जुड़ा बताया मुझे चरण सिंह ने...... पाण्डवों के वनवास के समय जब पाण्डव हिमालय भ्रमण के दौरान इस स्थान पर पहुंचे तो........ माता कुंती को प्यास लगी, परन्तु पानी यहां कहीं भी उपलब्ध नही था, तो महाबली भीम ने अपनी गजा (गदा) से  इस विशाल पर्वत के मध्य प्रहार किया और वहां से एक जल की धारा फूट पड़ी, जो कि इस पर्वत के शिखर पर स्थित लमडल झील के जल की है.........इसी वजह से इस पर्वत का नाम गज पर्वत पड़ा......और जिस स्थान पर हम दोनों खड़े हमारे पैरों के नीचे 30 फुट के करीब ग्लेशियर की पक्की बर्फ थी, गज नदी की धारा के अलावा सामने दूसरी तरफ एक और दुधिया रंगी जलधारा भी काफी ऊंचाई से नीचे गिर रही थी,जिसे चरण सिंह ने "माता कुंती की बतरी धारा" नाम से सम्बोधन किया..... मतलब कि, माता कुंती के दूध की धारा...... मैने मन ही मन कहा कि, किस्से-कहानियाँ तो आदिकाल से ही राजाओं और अमीरों की बनती रही है, गरीब को कौन पूछता था... और आज भी यह दस्तूर ज़ारी है......
                               अब चरण सिंह ग्लेशियर के ऊपर से चल कर ऊपर की ओर चढ़ने लगे..... और मैं उनके पीछे-पीेछे.... और मेरी नज़र किसी एक जगह टिक नही पा रही थी, हर तरफ की सुन्दरता मुझे पूछ रही थी..... "तू बता विकास,  कि मैं झरना सुंदर, या वो गज पर्वत, या वो बह रही गज नदी, या वो गगन को छूने की दौड़ में लगे पेड़, या वो पत्थरों के ढेर पर फैली हरियाली और उसमें उछलकूद कर रहे रंगबिरंगे पुष्प....."  परन्तु मैं मौन हो सब सुनता रहा, प्रकृति के इस मुश्किल प्रश्न को .... क्योंकि मैं निश्चय ही नही कर पा रहा था, कि कौन ज्यादा सुन्दर है...... बस उन सब नज़ारों को उमर भर के लिए अपनी आंखों में कैद कर रहा था............
                   
                                                                                                           ......................(क्रमश:)
"स्वर्ग की सीढ़ियाँ "











बकरोट में शुरू हुआ ग्लेशियर..... और चरण सिंह 
स्वर्ग के द्वार पर खड़े चरण सिंह मेरी प्रतीक्षा करते हुए....

गज गिरिराज के चरणों में खड़ा... मैं

माता कुंती की दुधिया रंगी बतरी जल धारा.... 

अमलू के खट्टे पत्ते... 

गज नदी के प्रपात को निहारते अपनी चिरपरिचित मुद्रा में चरण सिंह... 

"कभी आगे देंखूँ ....तो कभी पीछे"........पीछे छूट चुके बग्गा का दृश्य 

छरमरा का विषैला पौधा,  जो कांग्रेस घास की भांति ही नज़र आता है... 

गज नदी के उद्गम स्थल पर हम दोनों.... और मेरे हाथ में अमलू के पत्ते..

( अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )

(1) " श्री खंड महादेव कैलाश की ओर " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(2) " चलो चलते हैं, सर्दियों में खीरगंगा" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(3) करेरी झील, " मेरे पर्वतारोही बनने की कथा " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें

9 टिप्‍पणियां:

  1. अमलु और तरह तरह की बूटी की जानकारी अच्छी लगी...चढ़ाई आसान ही है क्योंकि हौसलो की चढ़ाई है

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  2. घास भी कॉंग्रेसी होती है क्या

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    1. जी हां गिरि जी, हुआ कुछ ऐसा कि 1960के दशक में हमारे देश में अकाल पड़ा था तो उस समय कांग्रेस सरकार को विदेश से गेहूँ मँगवाना पड़ा था . . सो उस गेहूँ में एक बूटी का बीज भी हमारे देश व खेतों में आ गया। इस बूटी की शक्ल गाजर के बूटे से बेहद मिलती जुलती है और इस बूटी के सम्पर्क में आने से व्यक्ति को खुजली और साँस की तकलीफ होने लगती है। इस लिए इस बूटी का नामकरण कांग्रेस बूटी ही हो गया ।

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