रविवार, 22 अप्रैल 2018

भाग-6 करेरी झील...." मेरे पर्वतारोही बनने की कथा "(अंतिम किश्त)


                                             " जो जीतना चाहे,  वो आशिक कहाँ का...!!! "     
               
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                             करेरी झील के रास्ते में.....31 दिसम्बर 2012 की वो सर्द रात उस गुफा में कट चुकी थी।  सुबह 7 बजे के करीब मुझे जाग आती है,  विशाल जी चूल्हे के समीप बैठे आँखें मूंदे अपना नित्य नाम जप रहे थे। मैं उन्हें सुप्रभात बोलकर झट से गुफा से बाहर निकल जाता हूँ क्योंकि मेरी आँखों को तलाश है, करेरी झील पर जाने वाले रास्ते की। मन में प्रकाश व उल्लास है उस जमी हुई झील तक पहुँचने का।  कल शाम रास्ते पर बर्फ ज्यादा आने के कारण हमें आगे बढ़ने का उचित मार्ग नहीं मिल पा रहा था,  तो हमने रात गुफा में आग जलाकर जैसे-कैसे काट ली थी।                               जल्द ही मुझे आगे बढ़ने का वैकल्पिक रास्ता भी मिल जाता है। मैं उन्हीं पैरों से भागता हुआ गुफा में वापस आ विशाल जी को खुशी से कहता हूँ कि मुझे आगे जाने का रास्ता मिल गया है..... परंतु आँखें मूंदे पाठ में मग्न विशाल जी केवल अपना सिर जरा सा ही हिला देते हैं।
                            मैं फिर बच्चों की तरह उछलता-कूदता गुफा से बाहर निकल नदी के किनारे खड़ा हो,  कभी बर्फ बन चुके नदी के जल को देख रहा हूँ तो कभी उस घाटी के पर्वत शिखरों को निहार रहा हूँ जिन पर पड़ी बर्फ सूर्य की ताज़ी किरणों से चमक रही थी...जिन्हें देखकर मेरा मन भी चहक रहा था।
                           फिर से गुफा में आ,  भड़क रहे चूल्हे की आग को सेंकने लग पड़ता हूँ और जैसे ही विशाल जी अपना पाठ समाप्त करते हैं......मैं उत्सुक हो उन्हें देख रहा हूँ, परंतु विशाल जी अब आगे बढ़ने की बात को नकार देते हैं यह कहते हुए कि विकास जी हमारे पास खाने के लिए कुछ भी नही है, चलो यहीं से वापस चलते हैं।
                           मैं उन्हें कहता हूँ, " नही हमारे पास दो बिस्कुट के पैकेट बच रहे हैं, इस से ही काम चला लेंगे..!"  परंतु विशाल जी ने फिर सिर ना में हिला दिया, "नही, विकास जी मुझे अब और ऊपर नही जाना है... मैं वापस जाना चाहता हूँ...!!! "
                           मैं फिर से उन्हें यह कहकर उत्साहित करता हूँ, "विशाल जी, मुझे लगता है करेरी झील अब ज्यादा से ज्यादा 2 किलोमीटर की दूरी पर है....और दिन अभी शुरू ही हुआ है, बस ऊपर झील पर थोड़ा समय रुक वापस चल देंगे।"
                            परंतु विशाल जी का जवाब ना में ही था मतलब उनके मन का प्रकाश कब का बुझ चुका था।  मुझे उनके इस नकरात्मक रवैय्या पर बेहद गुस्सा आ रहा था। पर उसे उन पर ज़ाहिर नही कर पा रहा था।
                            विशाल जी तर्क देते हुए बोलते हैं, "विकास जी, हमें इससे ज्यादा खतरा नही उठाना चाहिए, बेहतरी इसी में है कि यहीं से वापस चलते हैं...!!!!"       मेरे मन के प्रकाश पर विशाल जी के मन के अंधेरे बादलों ने हमला बोल दिया था।  मैं दुविधा में खड़ा आखिर अपने मन पर पत्थर डाल, विशाल जी के साथ वापस चलने को राज़ी तो हो जाता हूँ परंतु अशांत व गूंगे रोष भरे मन के साथ।
                             8बजे हम दोनों अपनी लाठियाँ उठा खामोशी से वापस चल देते हैं। आधा घंटा चलते रहने के बाद हमें पीछे से आवाज़ें आती सुनाई देती है तो मुड़ कर देखते हैं कि कल हमारे आगे गए हुए अंग्रेजों का दल चला आ रहा था।  उनके पीछे-पीछे करेरी गाँव के गाइड और वन विभाग के अधिकारी का बेटा व उसका दोस्त भी चले आ रहे थे।
                            अब हम सब एक-दूसरे की आप-बीतियाँं सुन-सुना रहे थे।  गाइड के साथ गए लड़कों ने सिर्फ हल्की सी गर्म शर्ट ही पहन रखी थी..... उसे देख मैंने पूछा, "क्यों भाई कैसी कटी रात...!"  तो वे बोले, "भैया मत पूछो हम तो ऐसे ही चल दिए थे करेरी झील कि शाम तक वापस आ जाएंगे, परंतु बर्फ बहुत ज्यादा आने के कारण ऊपर पहुँचते-पहुँचते ही अंधेरा हो गया, अच्छा हुआ आप लोग ऊपर नही आए....एक तो वहाँ जलाने के लिए लकड़ी भी नहीं थी और दूसरा झील के किनारे बने मंदिर की धर्मशाला में इतनी भयंकर ठंड थी कि हमारे शरीर कांप रहे थे तो ये गाइड साहिब हमें और अंग्रेजों को लेकर झील से दूर बने एक और डेरे पर ले गए... जहाँ हमें जलाने के लिए लकड़ी भी मिल गई और खाना हमें अंग्रेजों ने थोड़ा बहुत दे दिया, बस सारी रात बैठकर ही काटी...!!!!!"
                           उनकी बात सुन हमने बचे हुए दोनों बिस्कुट के पैकेट खोल उन सब में बाँट दिये।  मैं उन सबके बूट देख रहा था जिसकी बर्फ पर पड़ी छाप,  कल से हमारी पथ प्रदर्शक बनी हुई थी। उस छाप को पहचान कर मैं उस अंग्रेज के से जब यह कहता हूँ कि आप का जूता कल से हमारा गाइड बना हुआ है तो वह खूब हंसा और मुझे गले से लगा लिया।
                          अब हम नौ लोग इकट्ठा नीचे उतर रहे थे।  मैं गाइड से चिपक चुका था क्योंकि मुझे जिज्ञासाओं को भी तो शांत करना था।    "हम जिस जगह पर रात, उस गुफा में रुके थे...उस जगह को आप लोग क्या कहते हैं...?"
                          मेरा सबसे पहला सवाल गाइड "सुरेश" से......  "उटवाला है उस जगह का नाम...!" सुरेश का जवाब।  "हम करेेेरी झील से कितना पीछे रह गए" तो सुरेश बोला, "ज्यादा नही केवल 2 किलोमीटर के करीब...!!  मेरे मन में इक ठीस सी उठी जो ठंडी आह बन मेरे मुँह से निकली और मेरा मन व्याकुल सा हो चला।
                           बच्चों सा जिज्ञासु हो सुरेश से प्रश्न पर प्रश्न पूछता रहा कि ऊपर झील कैसी है, वहाँ क्या-क्या है आदि-आदि।   गाइड सुरेश मेरे हर सवाल का जवाब भी बूढ़े दादा की तरह ही देता रहा कि करेरी देवी के नाम पर ही इस झील और गाँव का नाम करेरी पड़ा। करेरी देवी माँ का मंदिर करेरी झील के किनारे पर है....बेहद ही खूबसूरत स्थान है करेरी झील और करेरी से भी ऊपर 6झीलें और भी हैं,  आप मेरे पास गर्मियों में आना...मैं आपको करेरी झील से भी आगे उन सब झीलों को दिखाता हुआ धौलाधार हिमालय की सबसे गहरी व लंबी झील "लमडल" दिखाने ले चलूँगा।
                           सुरेश की बातें सुन मेरा ध्यान रास्ते पर कम आकाश की तरफ ज्यादा हो रहा था जिसके नीले रंग में धौलाधार हिमालय के श्वेत शिखर चमक रहे थे और मैं ख्यालों की लहरों में तैर रहा था कि जाने कैसी दिखती होंगी वे सात झीलें इन शिखरों के नीचे।  लमडल झील का नाम मेरी स्मृति में सुरेश ने चिपका दिया था...जिसकी यात्रा मैने अगले साल एक स्थानीय गद्दी राणा चरण सिंह की मदद से संपन्न की। (लमडल यात्रा की धारावाहिक चित्रकथा आप मेरे ब्लॉग की पिछली किश्तों में पढ़ सकते हैं, यह पदयात्रा मेरे जीवन की सर्वोत्तम रोमांचक यात्रा है,  दोस्तों लमडल यात्रा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें  )
                     
                      रास्ते में बर्फ पर पड़े निशान देख, मैं सुरेश को उस बारे में पूछता हूँ तो वह कहते हैं, "भालू के पैरों के निशान"   यह जवाब सुन मैं और विशाल जी एक दूसरे के मुँह को फटी आँखों से देख रहे थे क्योंकि सुबह गुफा से चलते समय मुझे विशाल जी ने गुफा के से करीब 20 फुट की दूरी पर बर्फ पर बने ऐसे निशान दिखाए थे.... जो उन्होंने सुबह लकड़ी इक्ट्ठा करते हुए देखे थे।  हम तब इतना तो समझ चुके थे कि यह किसी जानवर के पैरों के निशान तो हैं...परंतु जब सुरेश के मुँह से भालू का नाम सुना तो पल भर में बीती हुई सारी रात घूम गई कि रात के अंधेरे में हमारी गुफा के बाहर भालू घूम रहा था।   एक सिहरन सी ऐसी घूमी तन-मन में जो चंद क्षणों के लिए ही हमें भयभीत कर गई...!!!!
                            ट्रैकिंग स्टिक की तरह पकड़ा वह 4 किलो का डंडा,  अंग्रेज महिला पर्वतारोहियों की नज़र में मुझे हास्य का पात्र बना रहा था..... परंतु मुझे उनकी परवाह कहाँ थी क्योंकि मैं मन-ही-मन ठान चुका था कि इन दोनों डंडों को वापस वही पहुँचाना है,  जहाँ से हमने इन्हें चोरी किया था।
                           चाहे उस वक्त मैं उन पहाड़ों की ऊँचाई से नीचे उतर रहा था परंतु मेरे भीतर एक नई इच्छा चढ़ती जा रही थी। इच्छा उन पहाड़ों में फिर से आने की, उन उँचाईयों को साक्षात देखने की जिन्हें केवल अपना शरीर तोड़ कर ही देखा जा सकता है।
                            यदि यह मेरी पहली पर्वतारोहण यात्रा सफल हो जाती तो शायद मैं फिर से तुम्हें फाँदने ना आता, हे  हिमालय...!!  मंजिलें मिल जाने पर इंसान संतुष्ट हो जाता है परंतु तूने मुझे संतुष्ट नही होने दिया क्योंकि तुझे सच्चे आशिक की पहचान है और वो आशिक ही क्या,  जो संतुष्ट हो जाए....!!!
                            "हे हिमालय, मेरे भीतर तेरी आशिकी का बीज अंकुरित हो चुका था.... जिसे अब तेरी मोहब्बत ही पाल-पोसकर वृक्ष का रूप दे सकती है। मुझे कोई तमन्ना नही कि मैं तेरी सबसे ऊंची चोटी को सिर करूँ क्योंकि मुझे तुझे जीतना नही है,  सच्चा आशिक कभी जीतता नही और जो जीतना चाहे वो आशिक कहाँ का...!!!!"
                            दोपहर का समय हो चला था हम दोनों की रफ्तार सबसे कम होने के कारण सब के सब हमें छोड़ आगे बढ़ चुके थे। लियोंड खड्ड का पक्का पुल आ चुका था। हमारे असली हमसफ़र उन चोरी के डंडों को हम एक मूक आभार सहित उस निर्माणाधीन सड़क के सामान में रख,  करेरी गांव की ओर बढ़ जाते हैं।
                            करेरी गांव में पहुँच हम सब फिर से इकट्ठा हो जाते हैं वन विभाग के विश्राम घर में और जीवन में पहली बार बगैर दूध की चाय को चखा, जो अंग्रेजों ने बनाई थी और सुरेश ने हमें परोसी थी। बातचीत के दौरान वह गद्दी भी वहाँ आ पहुँचा जिस के डेरे पर हम रात रूके थे वह कुछ परेशान सा था,  परंतु हमने उसे यह कहकर निश्चिंत किया कि हमने तुम्हारे डेरे में से कोई भी लकड़ी तोड़कर जलाई नही है....बल्कि तुम्हारा बहुत शुक्राना तुमने वहाँ चिमटा और बोरी की चटाई छोड़ रखी थी जो हमारे बहुत काम आई.... यह बात सुन सब खूब हंसे।
                            हमारे कदम अब करेरी गाँव को पीछे छोड़, दूर नीचे घाटी में दिख रही काली चींटी सी हमारी गाड़ी की ओर बढ़ रहे थे।

                                                    ......................................(समाप्त)
गुफा डेरे से बाहर सामने की तरफ दिखता था यह नज़ारा, सारी रात मैं अंधेरे में चमक रही इस सफ़ेदी को देखता रहा। 

सुबह उठते ही मैं गुफा से निकल बाहर की तरफ भागा,  करेरी झील जाने के लिए कोई वैकल्पिक रास्ता खोजने। 

करेरी झील से बह कर आ रही लियोंड नदी का जल भी जमा हुआ था। 

और....वैकल्पिक रास्ता खोजने के उपरांत, मैं गुफा में वापस पहुँच भड़क रहे चूल्हे के सामने आ बैठता हूँ। 

बस इतनी सी ही थी,  वो गुफा दोस्तों.... और गुफा की दीवार पर रखी वो डिज़ीटल दीवार घड़ी,
 जिसे विशाल जी अपने घर से उतार लाये थे...समय देखने के लिए नही बल्कि तापमान देखने के लिए दोस्तों...!!!  

गुफा डेरे के बाहर खड़ा मैं। 

अब,  गुफा के आगे खड़े हो फोटो खिंचावने की बारी विशाल जी की थी। 

गुफा के बाहर थोड़ी दूरी पर ही यह पलंग नुमा शिला पड़ी थी। 

लो,  मैं भी लेट कर देखता हूँ...!! 

गुफा से वापसी के समय खींचा हुआ चित्र। 

वापसी का सफर। 
  (1) "श्री खंड महादेव कैलाश की ओर"......यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(2) "पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास"....यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(3) "चलो, चलते हैं सर्दियों में खीरगंगा ".....यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।

रविवार, 1 अप्रैल 2018

भाग-5 करेरी झील..... " मेरे पर्वतारोही बनने की कथा "



                                                                           आग और हम....!!

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                                      31 दिसम्बर 2012 साल के आखिरी उजाले को अंधेरे ने मार दिया था।  शुगल-मेले में शुरू की हुई हमारी करेरी झील की ट्रैकिंग अब हमारे संग ही शुगल-मेले कर रही थी। हम करेरी झील के रास्ते में ज्यादा बर्फ आने के कारण फंस चुके थे।
                          और,  अब उस गुफा नुमा गद्दी डेरे में हम लकड़ियां इकट्ठे कर लाये हैं और उन्हें गुफा में बने चूल्हे पर जलाने का कार्यक्रम प्रगति पर है..... विशाल जी कांपते हाथों से अपने पिट्ठू बैग में से अखबार का एक टुकड़ा और माचिस निकालते हैं।  मैं छोटी-छोटी सूखी लकड़ियों और घास-फूस को चूल्हे में चिन रहा हूँ,  ताकि उस भयंकर ठंड से हमारी जीवन रक्षक आग जल्द से जल्द जल जाए।
                          आग के जलते ही मानो उस वीरान गुफा में जैसे उत्सव सा माहौल छा गया,  गुफा की दीवारें आग की रोशनी से चमक उठी थी और हमें उस निर्जन जगह में आग से मिलना....ऐसे लग रहा था जैसे मेले में गुम बालक को उसका पिता मिल गया हो...!!    यह गुफा और उस में जल रही आग अब हमारी ढाल बन चुकी थी क्योंकि पहने हुए कपड़ों के अलावा हमारे पास कोई भी गर्म कपड़ा नही था,   जो गर्म लोईयाँ भी हमारे पास थी...उन्हें हम व्यर्थ का भार जान गाड़ी में ही फेंक आए थे।
                          हमारे मोबाइल फोन इतनी ऊँचाई पर आकर नाकारा हो चुके थे,  क्योंकि उनकी टावर रेंज नुमा धड़कन  तो सुबह धर्मशाला शहर से चंद किलोमीटर आगे आने पर ही बंद हो चुकी थी।  हम दीन-दुनिया से कट चुके थे... गुफा और उस में जल रही आग ने ही,  हमें उस दुनिया में वापस जाने का सहारा दे दिया था।
                          विशाल जी आग के बिल्कुल समीप चौकड़ी मारकर बैठ,  बार-बार औसम्-औसम् बोलते हुए चहक रहे थे। जबकि मैं आग से कुछ दूर बैठा था, क्योंकि मुझे अपनी स्वर्गीय दादी जी के बोल याद आ गए जो मैं बचपन में उनके मुख से सुनता था...जब मैं रसोई घर में जल रहे चूल्हे के सामने जा बैठता तो वह अक्सर कहती कि आग ज्यादा सेंकने के बाद उतनी ही ज्यादा ठंड लगती है।  सो मैं आग से एक निश्चित दूरी बना बैठा रहता हूँ।
                          गीले हो चुके हमारे बूट अब चूल्हे के किनारे पड़े आग की तपिश में सूख रहे हैं, जबकि जुराबों को हमारे शरीर की तपिश सुखा चुकी है।  हालात अनुकूल होते ही पेट के ढोल बजने लगते हैं... तो विशाल जी अब गुफा की अलमारी में मिले चिमटे से कल सुबह के नाश्ते से बची हुई कुछ कचौरियों को पकड़कर आग पर गर्म कर रहे थे और मैं भी सुबह धर्मशाला से खरीदे समोसों में लकड़ी घुसेड़,  उन्हें आग पर पनीर टिक्का की तरह भून रहा हूँ।
                        अब आप लोग उस आनंद को महसूस करें, जो हम दोनों सांढू़ भाइयों को उस वक्त मिल रहा था कि हम सर्दियों के मौसम में बर्फ से भरे हिमालय में एक गुफा के अंदर आग जला....जली हई कचौरियाँ, भुने हुए समोसे और गरमा-गरम पलंगतोड़ (मिल्क केक) की दावत उड़ा रहे हैं।  ऐसी दावत का असली रस आप लोग शिमला के किसी पांच सितारा होटल में भी बैठ नही प्राप्त कर सकते दोस्तों।
                         थकान और पेट का भरना मतलब नींद पर सवारी।  सो गुफा की उस छोटी सी अलमारी में मिली बोरी को हम गुफा ठंडे-ठार फर्श पर बिछा चुके हैं... जो भी मेरे पास था सब कुछ धारण कर लेता हूँ जैसे बंदर टोपी, दस्ताने आदि। तभी विशाल जी अपने बैग में से एक डिजिटल दीवार घड़ी निकाल गुफा के एक कोने में सजा देते है। मैं हैरानी से उस घड़ी को देख रहा हूँ कि इतनी बड़ी दीवार घड़ी को विशाल जी क्यों लेकर आए हैं,  क्या सिर्फ समय देखने के लिए...!!!    विशाल जी खुद ही बोल पड़ते है, " विकास जी,  इस डिजिटल घड़ी में समय तारीख के साथ तापमान भी आता है,  सो घड़ी को अपने डैडी जी के कमरे की दीवार से उतार साथ ले आया कि पहाड़ में जाकर तापमान भी देखते रहेंगे...!"  और उस समय दीवार घड़ी रात के 8बजा कर तापमान 6डिग्री दिखा रही थी।
                       विशाल जी को जैसे जलते चूल्हे से मुहब्बत हो चुकी हो....!!!  वे उस के पास ही लेट जाते हैं और मैं उनकी बगल में गुफा के मुहाने की तरफ।   बस इतनी सी ही जगह थी उस गुफा में कि दो व्यक्ति लेट सकें.... उस 4 किलो के डंडे को भी मैं अपने साथ ही लिटा लेता हूँ।
                       रह-रहकर सर्द हवा के झोंके मुझसे आकर टकरा रहे थे.... मेरे लिए वह जलती आग अब बीरबल की खिचड़ी साबित हो चुकी थी।  जलते चूल्हे की गर्मी और मेरी ओट में लेटे विशाल जी झट से ही गहरी नींद में जा पहुँचें और छेड़ दी तानें व अलाप निद्रा-राग की.....  लो मैं फिर फंस गया,  उड़ गई सारी नींद...!!!!
                       ऊपर से सर्द हवा थोड़ी-थोड़ी देर बाद आ मुझे थप्पड़ लगा जाती और नीचे गुफा का फर्श इतना ठंडा था कि जैसे मैं बर्फ पर लेटा हूँ।  लेटते ही मेरा मन स्थिर हो जाता है और दिमाग दौड़ने लगता है कि विशाल जी ने बड़ी समझदारी से निर्णय लिया जो इस गुफा में रुक गए....यदि हम ऊपर जाते हुए अंधेरे में फंस जाते, तो...!!!!!!
                        मेरा विचार-मगन दिमाग स्वयं से ही प्रश्न पूछ रहा है कि क्यों हम दोनों पहाड़ों में नववर्ष मनाने के लिए इस वीरान जगह पर आ गए....जबकि हम भी उन अधिकांश लोगों की तरह शिमला-डलहौजी-मंसूरी जैसे पर्वतीय स्थलों पर जा बर्फबारी का आनंद ले, बड़े मजे से इस नव वर्ष को मना सकते थे।  आखिर क्यों मेरे दिमाग में इस ट्रैकिंग का कीड़ा आ घुसा।
                       हुआ कुछ इस तरह कि इस ट्रैकिंग पर आने से 4 दिन पहले विशाल जी मेरे पास गढ़शंकर आए थे, सो मैं उन्हें लेकर 10 किलोमीटर दूर डल्लेवाल गाँव में अपने फार्म हाउस (जोकि शिवालिक की पहाड़ियों में है ) पर घुमाने ले जाता हूँ। फिर वहीं से कुछ किलोमीटर और आगे जा झुग्गियां नामक गाँव में उन्हें अपने मनपसंद पकौड़े खिलाता हूँ.....क्योंकि जो भी मेहमान मेरे खेतों पर जाता है,  मैं उसे झुग्गियां जरूर ले जाता हूँ, बिंदु चाट वाले के पकौड़े खिलाने और या यह कह लो खुद खाने..... अरे भाई आप सब जानते ही हो कि पकौड़े मेरी दुखती रग है..!!
                       वहीं बैठे-बैठे मैं विशाल जी को कहता हूँ कि चलो आपको 1000 साल पुराना मंदिर भी दिखा लाता हूँ.... विशाल जी बेहद हैरानी से पूछते हैं कि क्या सच में,  मैं तो सोच भी नही सकता कि गढ़शंकर क्षेत्र में इतना पुरातन मंदिर भी होगा।   मैं अपने तर्क देता हूँ, " जी हां जी जनाब,  इस मंदिर को पुरातत्व विभाग ने अपने अधिकार में ले रखा है जी।"
                      कुछ देर बाद हम भवानीपुर गाँव में टीले पर बने हरि देवी मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रहे थे।  टीले पर बने इस मंदिर की भव्यता का अनुमान बस वहाँ पड़े चंद अवशेषों से ही ज्ञात होती है।  कुछ पुरानी मूर्तियों को फिर से चूने से बनी दीवारों में चिन,  शायद सौ साल पहले एक सादा मंदिर फिर से खड़ा किया गया है।
                     हरि देवी मंदिर प्रांगण में खड़ा हो,  मैं विशाल जी को दूर दिखाई देती एक बहुमंजिला इमारत दिखा कर कहता हूँ, " यह गुरु रविदास जी की चरण छू भूमि पर बना गाँव खुराली का गुरुद्वारा है...मैं यहाँ बहुत बार पैदल जा चुका हूँ।  पैदल जाने की बात सुन विशाल जी बोले, " क्यों वहाँ सड़क नही जाती क्या...!"
                     मैंने हंसते हुए कहा, "जाती है जनाब, यदि इस जगह से आप सड़क मार्ग से वाहन द्वारा खुराली गाँव जाएं तो मैं पैदल ही चल, आपसे पहले वहाँ पहुँच आपके स्वागत में खड़ा मिलूंगा... क्योंकि सड़क मार्ग से इस जगह पहुँचने में 15 किलोमीटर है और सामने दिख रही कुछ गहरी खड्ड को पार कर व्यक्ति केवल 2 किलोमीटर पैदल चल वहाँ पहुँच सकता है, चलो अब लगे हाथ इसी रास्ते से गुरुद्वारा साहिब जा माथा टेक आते हैं विशाल जी...!"
                     अब हम दोनों पहाड़ी से उतर खड्ड को पार करते हुए दूसरी तरफ की पहाड़ी पर चढ़ रहे थे जिस पर छोटा सा गाँव खुराली बसा है।
                      मान्यता है कि 15वीं सदी में इस गाँव में गुरु रविदास जी 4 वर्ष 2 महीने 11 दिन रूके थे क्योंकि तब इस रियासत का राजा वैन बहुत अहंकारी स्वभाव का था और राजा वैन मीराबाई का मौसा था।
                      मीराबाई के गुरु संत रविदास जी थे, सो मीराबाई के आग्रह पर संत रविदास जी मीराबाई के साथ ही सन्1515 में खुराली गाँव आए और अहंकार में डूबे राजा वैन ने भजन बंदगी में लीन गुरु रविदास जी की प्रजा में बढ़ती लोकप्रियता से ईर्ष्या कर उन्हें कारागृह में डाल दिया और बैलों से चलाई जाने वाली खरास यानि आटा पीसने वाली चक्की को बैल की जगह खुद जुतकर चक्की चलाने की सज़ा दे डाली...!!
                                   गुरुजी ने निर्विरोध सजा स्वीकार की और अंतर्ध्यान हो एक जगह बैठ गए।
                                                               कहते हैं चमत्कार हुआ....!!!
                     और......चक्की बगैर बैलों के ही चल पड़ी, आटा पिसता रहा।   यह चमत्कार देख अत्यंत प्रभावित राजा वैन ने गुरु रविदास जी से माफी मांगी।
                                                                           :-)~~(-:        
                                 
                     बस यही छोटी सी पदयात्रा हमारे ट्रैकिंग जीवन की नींव बन गई दोस्तों। वैसे आज गाँव खुराली का नाम "श्री खुरालगढ़ साहिब" हो चुका है.... दलित समाज से जुड़े होने के कारण पंजाब में आई हर सरकार इस पावन तीर्थ स्थल को रौशन करने के लिए तत्पर है। एक बहुत बड़े म्यूज़ियम "मीनारें बेगमपुरा" भी निर्माणाधीन है... चलो अच्छा है कि मेरा गढ़शंकर क्षेत्र भी भविष्य में पर्यटन की ऊँचाइयों को छुएगा।

                     तभी एक तेज़ हवा का झोंका मेरी सोच को विराम देता है....चूल्हे में आग कम हो चुकी है सो उठकर लकड़ियां डाल,  फिर से लेट जाता हूँ। दिमाग शून्य होने से झट से ही मुझे नींद आ जाती है। मेरी आँखें चाहे अंधकार में जा चुकी थी,  परंतु मन में प्रकाश चल रहा था "कल सुबह उठकर करेरी झील जाने का प्रकाश...!!"
                     करीब 2 घंटे बाद मुझे विशाल जी की ठंड से कांपती आवाज़ नींद से जगाती है क्योंकि अब आग केवल सुलग रही थी और मेरी दादी जी के कथन को भी तो सही होना था कि जो ज्यादा आग सेंकता है,  उसे बाद में ज्यादा ठंड लगती है।  सो अर्ध सोई अवस्था में लेटे-लेटे ही, मैं विशाल जी की दोनों टांगों को अपनी टांगों के बीच दबा लेता हूँ ताकि एक दूसरे को कुछ गर्मी मिल सके।  शायद हम दोनों की थकान की वजह से नींद की नीम-बेहोशी में पड़े थे,  तो किसी ने भी उठ लकड़ी आग में नही डाली।
                      गुफा में रखी दीवार घड़ी के घंटे बढ़ते जा रहे थे और तापमान घटता जा रहा था। बाहर बह रही लियोंड नदी में पानी गिरने की आवाज़ भी कम होती जा रही थी।  आधी रात के वक्त विशाल जी लेटे-लेटे बोलते हैं, "विकास जी, हैप्पी न्यू ईयर...!!!!"
                      हां दोस्तों,  नव वर्ष 2013 चढ़ चुका था और हम दोनों सांडू़ ठंड से कांपती अपनी आवाजों से एक-दूसरे को नववर्ष की बधाई दे रहे थे। रात का डेढ़ बज चुका था और तापमान 2डिग्री। चूल्हा अब हमारे द्वारा एकत्रित की हुई सारी लकड़ी को खा चुका था।  गुफा के रड़े फर्श पर लेटे मेरी कमर ठंड से अकड़ चुकी थी।  शरीर अब नींद को भी नकार चुका था। उस स्याह रात में मैं लेटा हुआ बार-बार बाहर दिख रहे पहाड़ पर पड़ी बर्फ को एकटक सा देखता जाता हूँ और कभी-कभी मेरी आँखें खुद-ब-खुद बंद हो जाती थी।
                      अब पिछले कुछ घंटों से हम दोनों में कोई भी संवाद नही हुआ था.... क्योंकि हम दोनों ही एक-दूसरे की नींद खराब नहीं करना चाहते थे। एक आवाज़ जो पिछले कई घंटों से मैं सुनता रहा था,  वह कम होते-होते अब बंद हो चुकी थी मतलब बाहर बह रही नदी का पानी भी जम चुका था।  मैं उत्सुकतावश धीरे-धीरे उठ दीवार घड़ी की तरफ देखता हूँ तो रात के 3बज चुके हैं और गुफा के अंदर का तापमान 1 डिग्री हो चुका था यानि बाहर का तापमान शून्य से भी नीचे हो चुका होगा।

                                            ..............................................(क्रमश:)
               

गाँव भवानी पुर में टीले पर बना करीब एक हजार वर्ष पुराना "हरि देवी मंदिर " 

हरि देवी मंदिर की सीढ़ियां। 

हरि देवी मंदिर। 

कुछ पुरातन मूर्तियों को फिर से मंदिर की दीवारों में चिना हुआ है। 

मंदिर की दीवार में पुरातन मूर्तियाँ। 

पुरातन हरि देवी मंदिर की एक मूर्ति। 

पुरातन हरि देवी मंदिर के अवशेष। 

अवशेष ही बताते है कि मंदिर कितना भव्य रहा होगा। 

हरि देवी मंदिर प्रांगण से दिखता खुराली गाँव का गुरुद्वारा खुरालगढ़ साहिब। 

हरि देवी मंदिर के भीतरी कक्ष में एक गणिका की मूर्ति। 

हरि देवी मंदिर गाँव भवानीपुर। 
                                           
                                                                                 
गुरु रविदास जी का तप स्थान.... खुरालगढ़ साहिब। 

गुरुद्वारा में स्थापित गुरु रविदास जी की मूर्ति। 

गुरुद्वारा में सुशोभित.... खरास (चक्की)  जो अपने आप चल पड़ी थी। 

बहुमंजिला गुरुद्वारे की छत से दिख रहा खुराली गाँव। 
गुरुद्वारे में लगी मीराबाई भी तस्वीर। 
गुफा में जल रहे चूल्हे की आग, अब तेरा ही सहारा है...!

छत से दिख रहे खुराली गाँव के खेत। 
खुराली गाँव..... का नाम अब श्री खुराल गढ़ साहिब हो चुका है।



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