शनिवार, 8 अप्रैल 2017

भाग-22 पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास.....Lamdal yatra via Gaj pass (4470mt)

भाग-22 पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास(4470मीटर)
                     
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                            सफेद मक्की की रोटी और लिंगडू की सब्जी के स्वादिष्ट भोजन के असीम आनंद के साथ हम दोनों भाई अपने-अपने दो दिनों के अनुभवों का भी एक-दूसरे को स्वाद चखा रहे थे........ मैने ऋषभ से पूछा कि हमारे जाने के बाद उसने क्या-क्या किया, तो ऋषभ बोला दोपहर तक मैं आराम ही करता रहा, फिर चरण सिंह जी के पशु लेकर उनके परिवार संग उन्हें चरा कर वापस लेकर भी आया और चरण सिंह जी की जो चोटिल भैंस जंगल में ही रह गई थी, उसे ढूँढ कर हम वापस डेरे पर लेकर भी आए....... और इन दो दिनों में मैने इन सब के घरों में खूब दावतें उड़ाई, इन सब भद्र जनों ने मेरी बहुत सेवा की........ मैने ऋषभ से कहा कि देखा मोबाइल, इंटरनेट आदि से दूर ये चार दिन हमारी जिंदगी के बहुत हसीन व कभी ना भूलाऐं जाने वाले दिन साबित हो रहे हैं.....
                             चरण सिंह की भतीजी जो टान वतगार डेरे वाले राणा ब्रजराज जी की बेटी है...... जो हमे हमारी पदयात्रा के पहले दिन (जब हम संध्या के वक्त जंगल में खो गए थे) चरण सिंह के साथ मिली थी....ने आ कर कहा "चाचू...विकास चाचू को भी अभी हमारे घर चाय पीने के लिए ले कर आना" .............ऋषभ चरण सिंह के रिश्तेदार सुंरिदर  राणा जी के साथ बग्गा घूमने के लिए चला गया और मुझे साथ ले चरण सिंह पास ही ब्रजराज जी के डेरे पर चाय पीने के बुलावे पर पहुंच गए..... चरण सिंह गज पर्वत शिखर से जो भी सब्जी लाये थे, वह सब अपने परिवार में बाँटें जा रहे थे,  सो इस घर के लिए भी वह सब्जी साथ लाये.... चाय के नाम पर ब्रजराज जी की पत्नी ने हमे भैंस के ताज़े दूध का एक-एक गिलास दिया,  दूध इतना ख़ालिस था कि मुझ से पिया भी नही जा रहा था.....मैने हंसते हुए उन लोगों से कहा, कि यदि यह सिर्फ आधा किलो शुद्ध दूध कोई शहरी आदमी पी ले, तो उसका अस्पताल पहुंचना तय है जी, इसे पचाना कोई "ख़ाला जी का बाड़ा" नही है ............और उनके घर से रूक्सत होते समय उन्होंने मुझे "गनड़ोली "(कद्दू जातीय)  व रोंग फली नामक सब्जियां उपहार स्वरूप दी और मैने भी उनकी बेटी को शगुन दे अपने कर्त्तव्य का निर्वाह किया..........
                              सूर्यास्त का समय.... बहुत खूब लग रहा था, गज गिरिराज शिखर उस धीमी हो रही रौशनी में.......और अंधेरा छा गया,  मैने चरण सिंह से पूछा कि क्या मैं आपके यहां बाँसुरी बजा सकता हूँ,  आपके घरवाले मेरे बाँसुरी बजाने को बुरा तो नही मानेंगे........ चरण सिंह ने मुझे बाँसुरीवादन की स्वीकृति दे दी और मेरे पास बैठ कर ही अपना हुक्का गुड़गुड़ानें लगे.......... शाम को हमने भोजन देर से किया था, तो रात को भोजन ना कर ऐसे ही चाय आदि पीने के बाद, जब चरण सिंह जूठे बर्तन झोपड़ी से बाहर धोने के लिए गए और उसी क्षण बर्तन गिरने की आवाज़ आई........तथा चरण सिंह भागते हुए वापस झोपड़ी में चढ़ आये,   मैने पूछा क्या हुआ.... राणा जी, चरण सिंह हंसते हुए बोले कि "बाहर मुझ पर मेरे भाई ब्रजराज के सांड ने हमला कर दिया, तो मैं बचने के लिए अंदर आ घुसा हूँ...... ना जाने इस सांड की मेरे साथ क्या दुश्मनी है,  कि जब भी मुझे अकेला देखता है, मुझे मारने को दौड़ता है.... हालांकि मैं इसे इस चक्कर में कई बार पीट भी चुका हूँ, पर यह पूरा ढीठ है...... हर बार मेरे सामने अकड़ जाता है,  यह देखो अब रात का समय है और यह यहीं बाहर खड़ा रहेगा कि कब मैं बाहर निकलूं और यह मुझ पर धावा बोल दे, ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है"....... मैने देखा, सच में वह सांड झोपड़ी के बाहर खड़ा अपने नथूनों से जोर-जोर से हवा मार रहा था...जैसे कह रहा हो कि "आ जा बच्चू , आ तेरी खैर नही "......
                                 तब मैने अपना मनपसंद हथियार निकाल कर चरण सिंह को देना मुनासिब समझा..... जो मैं ट्रैकिंग के दौरान हर वक़्त अपनी जेब में रखता हूँ,  अपनी आत्मरक्षा के लिए...... वह हथियार है, " पैपर स्प्रे " यानि काली मिर्च का स्प्रे जो बहुत कारगर है अपनी जान जंगली जानवरों से बचने के लिए...... और चरण सिंह को उस स्प्रे को इस्तेमाल करना का ढंग भी सिखाया.... कि दिन के उजाले में इस सांड के नाक के पास थोड़ी सी मात्रा में यह स्प्रे चला कर, उल्टे पांव ही भाग लेना....  यह सांड फिर कभी हिम्मत नही करेगा, आपके सामने आने की, जनाब जी....... परन्तु चरण सिंह तो अभी ही तैयार थे, रात के इस अंधेरे में उस अड़ियल सांड को सबक सिखाने के लिए,  परन्तु मैने उन्हें जोर दे कर रोक लिया...... और चरण सिंह उस सांड की वजह से झोपड़ी में नीचे सोने की बजाय हमारे साथ ही ऊंची जगह पर सोये............
                                 अति सुन्दर भोर हुई और उस ठंड में भी इच्छा हई कि हम डेरे के साथ ही बह रही नदी के ठंडे-ठार बर्फीले पानी में नहाया जाए...चरण सिंह ने बहुत कहा कि ठंडे पानी से मत नहाईये,   मैं नहाने का पानी गर्म कर देता हूँ.....परन्तु मेरा मत था कि यहां इस समय और इस नदी के ठंडे जल सेे नहाना एक बेहतरीन अनुभव है और हम दोनों भाइयों को इस अनुभव को ग्रहण करने दे राणा जी.... चाहे पानी बहुत ठंडा था परन्तु दो दिनों के बाद नहाने की ताज़गी व स्फूर्ति बहुत मायने रख रही है....तभी चरण सिंह के  पारिवारिक सदस्य सुंरिदर राणा जी नदी के पुल से गुज़रे, वे हमारे वापसी के रास्ते में बन रही गज विद्युत परियोजना पर काम करते हैं...... उन्होंने हमे न्यौता दिया कि घेरा वापस जाते हुए, रास्ते में ही आती गज परियोजना के हमारे दफ्तर पर जरूर आना,  जी.............. चरण सिंह के परिवार का हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से हमे मान-सम्मान बक्श रहा था......
                              नहा-धो कर जब वापस डेरे में पहुंचे, तो चरण सिंह भोजन बनाने में व्यस्त थे..... उन्होंने एक और पहाड़ी जंगली सब्जी "निक" (पहाड़ी जंगली लहसुन की पत्तियाँ) की भूरजी बनाई और "हलवा"........तथा कहने लगे कि हलवा हम लोग सिर्फ खास अवसरों पर ही बनाते हैं.....आज आप वापिस जा रहे हो, इसलिए यह हलवा मैने एक विदाई व्यंजन के रूप में बनाया है, यह हमारा रिवाज़ व परंपरा है...... मैं उनकी यह बात सुन अत्यंत गौरवमय महसूस करने लगा,   और मैने कहा कि आप एक कुशल रसोईये भी हो, राणा जी......चलो, आज मैं भी अपनी पाक-कला के ज़ौहर आपको दिखाता हूँ जी......हम दोनों भाई आपको भी कुछ बना कर खिलाते हैं,  और हम निखटू क्या बना सकते थे..... सो अपने रक्सक से कप न्यूडेल के पैकेट निकाल व गर्मपानी डाल .....उनके बनाए सुंदर व्यंजनों को नज़र लगने से बचाने हेतू अपने द्वारा बनाये हुए कप न्यूडेल "नज़र वट्टू" की तरह उन व्यंजनों के साथ रख दिये........... पर चरण सिंह के द्वारा बनाई गई निक की भूरजी व हलवे के आगे इन अंग्रेज़ी सेमियों की क्या औकात.....
                             मैने चरण सिंह से कहा कि, भाई राणा जी कमाल है आप यहीं अपने आस-पास से ही खाने हेतू जंगली खाद्य सामग्री ढूँढ लेते हो...... तो चरण सिंह ने बताया कि भगवान शिव का हम गद्दी लोगों को वरदान है कि इन घने जंगलों व इन ऊंचाईयों पर लिंगडू, टपरू,  रण साग, निक, धनिया, बिच्छू बूटी आदि जंगली बूटियों को हमारे खाने योग्य बनाया...........
                                                         ........................( क्रमश:)
जंगल से ढूँढ कर लाई अपनी चोटिल भैंस के साथ चरण सिंह.... 

संध्या के समय गज पास पर पड़ रही सूर्यास्त की धीमी लौ.... 

मैं...अपनी थकान बाँसुरी बजा कर उतारने लगा और चरण सिंह हुक्का पी कर.... 

क्या खूब..... सुबह आई 

डेरे के साथ बह रही नन्ही सी नदी के पुल पर बैठ मुस्कुराहट बिखरे रहा... मैं 

भाई,  दो दिनों से नहाये नही... तो नदी के बर्फीले पानी ने सारे रोम खोल दिये,
ऋषभ की एक प्रसन्नचित मुद्रा... 

राणा सुंरिदर का हमे अपने दफ्तर आने का न्यौता देना... 

निक (जंगली पहाड़ी लहसुन की पत्तियाँ) की भूरजी... इसका रंग देखो मित्रों,
मुंह में पानी आ रहा है क्या,  जनाब जी... 



हम दोनों भाइयों ने मिलजुलकर बनाया "नज़र वट्टू"...अंग्रेजों का कप न्यूडेल 

एक परम्परागत विदाई व्यंजन.... हलवा

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