भाग-18 पैदलयात्रा लमडल झील वाय गज पास(4470मीटर)
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पिछली किश्त में मैने आपको यहां तक बताया था कि मैं और राणा चरण सिंह रात के अंधेरे में लमडल झील पर बने भगवान शिव के छोटे से मंदिर के समक्ष बैठ भगवान शिव की आराधना में लीन थे....... कि चरण सिंह ने एकाएक कहा कि, "पंडित जी... आप भी इस पवित्र स्थल पर अपनी मनोकामना मांग ले, वह मनोकामना शंकर भगवान अवश्य पूर्ण करते हैं".....मैने मुस्कुराते हुए कहा, कि नही..राणा जी मुझे कुछ नही चाहिए....... और फिर मैने ऊंची आवाज में भोलेनाथ को सम्बोधन कर कहा, "हे शंकर मेरे... मुझे इस पावन यात्रा का पुण्य भी नही चाहिए, कृपया मेरी इस यात्रा का समस्त पुण्य चरण सिंह को ही दे दीजिए, क्योंकि मेरी इस यात्रा के सूत्रधार भी चरण सिंह ही हैं, वह ही मुझे यहां तक ले कर आए हैं...... मैं तो यहां पहुंच कर आपके दर्शन मात्र से ही कृतज्ञ हो गया....
फिर मुझे चरण सिंह ने मंदिर के बाहर रखी हुई नंदी की कुछ पत्थरनुमा मूर्तियाँ दिखाई..... और बोले कि जब मैं आठ वर्ष का था, तो यह वाली मूर्ति मेरी पीठ पर बांध कर मेरे घर वाले मुझे लमडल माथा टिकाने घर से साथ लाये थे, उन्होंने ऐसी मन्नत मांग रखी थी मेरे लिए...जो कि पूर्ण हुई थी...........मैने अनुमान लगाया कि वह मूर्ति कम से कम बीस किलो की तो होगी और एक आठ साल का बच्चा इतनी कठिन परिस्थितियों में यहां तक इस ठोस वजन को अपनी पीठ पर बांध कर कैसा लाया होगा, जो कि बहुत आश्चर्यजनक व साहसिक जान पड़ता है...... मेरे दिमाग में तभी चरण सिंह की उस दिन की सभी कारगुज़ारियाँ घूमने लगी, कि कैसे यह आदमी पहाड पर कितनी आसानी से चढ़ जाता है, कैसे यह पिछले कई घण्टों से नंगे पाँव इस ग्लेशियर में खड़ा है.... और अब यह नंदी की मूर्ति की बचपन वाली बात..........मैने चरण सिंह की इस शारीरिक कठोरता पर वाह-वाह करते हुए कहा कि, "भाई चरण सिंह राणा जी, आप तो बहुत पक्के आदमी हो"..........मेरी बात सुन कर चरण सिंह ने हंसते हुए कहा, "भाई जी....मेरा घर का नाम भी "पक्का" रखा हुआ है मेरे पिता जी द्वारा "......क्योंकि जब मैं छोटा था तो कहीं गिर कर चोट लग जाती तो, मैं कभी भी रोता नही था, तो मेरे पिता जी कहा करते थे कि मेरा यह बच्चा बहुत पक्का है, इसलिए मुझे "पक्का" नाम दे दिया मेरे पिता जी ने......................... मुझे यहां सब स्थानीय लोग "चरण सिंह"नाम से नही बल्कि "पक्का" या "पक्केराम" नाम से संबोधन करते हैं....... पर मैने कहा कि मैं तो आपको राणा चरण सिंह के नाम से जानता हूँ और तमाम उमर इसी नाम से सम्बोधन करूंगा, जी.........
मैने चरण सिंह से पूछा कि अब रात को लमडल झील पर कहां रूकना है...... तो चरण सिंह बोले कि यहां पर कोई भी ऐसी जगह नही है, जहां हम रात काट सके.... मैने कहा किसी बड़े पत्थर की ओट में बैठ कर रात काट लेते हैं, क्योंकि मुझे दिन के उजालें में लमडल झील को देखना है.... परन्तु चरण सिंह ने कहा कि यहां रात को तापमान बहुत नीचे गिर जायेगा, जो हमारे लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है, इसलिए अब यहां से चलकर किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचने में ही हमारी भलाई है....... तो मैने पूछा कि, क्या हम अब वापस गज पास पर चढ़ कर शाम के समय मिले आपके छोटे भाई सुभाष के डेरे पर जायेंगे, तो चरण सिंह बोले, "नही पंडित जी.... रात के इस अंधेरे में वहां वापस पहुंचना भी खतरे से खाली नही है....... अब हम यहां से छठी झील, जिसका नाम "टान झील" है, के सामने मेरे बड़े भाई ब्रजराज राणा के गुफा डेरे पर चलते हैं और वहां पर ही हम रात गुजारेंगे........ आखिर हम दोनों बैटरियों की रोशनी के सहारे टान झील की ओर नीचे की तरफ उतरने लगे.........
रास्ता तो कोई ना था, बस पत्थरों व चट्टानों पर हम आगे बढ़ रहे थे, हर तरफ अंधेरे में बस पानी गिरने का शोर ही सुनाई दे रहा था, चौथी झील को पार करने के पश्चात चरण सिंह ने अपने जूते पहने और कोई एक घंटा चलने के बाद दूर से कुत्तों के भोकनें की आवाजों से हमारा स्वागत होना शुरू हो गया... और जैसे-जैसे डेरा पास आता गया, तो कुत्तों ने हमे घेर लिया एक पहरेदार की भांति...... और एक छोटी सी गुफा के अंदर बनाये गद्दी डेरे में हम दोनों दाखिल हुए,तो हमारा अभिनंदन चरण सिंह के बड़े भाई ब्रजराज राणा जी व उनके साथी चम्बा निवासी तिलक राज जी ने किया और मेरा तारूफ़ चरण सिंह ने उन दोनों से बखूबी करवाया... हमारी ख़िदमत में पहले बगैर दूध की चाय पेश की गई...... सारे दिन की इस दौड़-धूप के बाद वह चाय का एक प्याला मुझे उस समय किसी अमृत से कम नही ला रहा था.... और फिर हल्दी वाले चावल, परन्तु मैं उस ऊंचाई की वजह से मर चुकी अपनी भूख के चलते बहुत ही थोड़ी मात्रा में खा पाया......
फिर गुफ्तगू का दौर चलने लगा, तो मैने महसूस किया कि राणा ब्रजराज भी धार्मिक विषयों के अच्छे ज्ञानी व प्रवक्ता है, उन्होंने गुफा में कई सारी धार्मिक पुस्तकें रखी हुई थी, जिसे वह निरंतर पढ़ते है....... और हां, गुफा में एक बंदूक भी पड़ी थी, जो कि जंगली जानवरों व भेड़-डाकूओं से सुरक्षा हेतू रखी गई हुई थी.......फिर बातचीत का विषय बदला, जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं एक थोक दवा विक्रेता हूँ, तो वे सब अपनी व अपने कुटुम्ब सम्बन्धी बीमारियों पर चर्चा मेरे साथ सांझी करते रहे...............फिर मैने एक अहम चर्चा आरंभ की, कि आप गद्दी लोग सामाजिकता सभ्यता से इतनी दूर इन कठिन परिस्थितियों में यहां पहाडो के ऊपर रहते हो, यहां भेड़-बकरी के भरणपोषण के पर्याप्त घास तो है, परन्तु यहां ना तो जलने के लिए लकड़ी है, और ना ही खाने के लिए अन्न, बस हर तरफ पत्थर ही पत्थर...... आपको सब कुछ निचले इलाकों से यहां लाना पड़ता है, जैसे मुझे चरण सिंह ने बताया कि आपके चूल्हे में जल रही यह लकड़ी भी आप लोग यहां से पांच किलोमीटर नीचे उतर कर जंगल से इक्ट्ठा कर लाते हो..... "तो भाई लोगों....मैं असमन्जस में हूँ, कि आप इतनी मेहनत कर इस भेड़-बकरी के व्यवसाय में साल भर कितना कमा लेते हो"
जवाब मिला कि हमे एक भेड़ से पूरे वर्ष में औसतन तीन सौ रुपये की कच्ची ऊन प्राप्त होती है.... मैने हिसाब लगाना शुरू कर दिया, कि जिस गद्दी के पास सौ भेड़ो का झुंड है, वो साल भर में सिर्फ तीस हजार रुपये ही कमा पाता है..... मैं सोच में पड़ गया कि बड़े शहरों में शहरी बच्चे व बड़े एक साल में तीस हजार रुपये से ऊपर के तो "पिज्जा-बर्गर" ही खा जाते हैं....... मैने उन तीनों से कहा कि इतना परिश्रम के बाद यह आमदानी तो बहुत कम है, तो ब्रजराज राणा जी बोले, हां... यदि हम कटने हेतू नर भेडू बेच लेते है, तो सालाना आय में कुछ इज़ाफ़ा हो जाता है, क्योंकि एक भेडू तीन हजार तक बिक जाता है.......मैने फिर से एक नया सवाल पेश कर दिया कि, आप गद्दी लोग इतने बड़े-बड़े मैदानों में अपनी भेड़-बकरी चराते हैं, जो कि निश्चित तौर पर सरकारी जमीन होगी, चाहे वो पहाड पर ही क्यों ना हो..... तो सरकार आप गद्दी लोगों से इस एवज में क्या वसूल करती है......जवाब प्राप्त हुआ कि हम गद्दी लोग पचास पैसे प्रति भेड़ के हिसाब से सरकार को शुल्क देकर अपना परमिट बनवातें हैं..... जो साल दर साल हर बार नया करवाना पड़ता है...... मैने कहा कि, चलो खैर इस प्रकार ही सही, सरकार आप लोगों की कुछ मदद तो कर रही है...
बातों-बातों में काफी समय गुजर गया, पता ही नही चला और फिर हम सोने की तैयारी में जुट गए...... मैने अपना कैमरा व तिलक राज जी का फोन अपने पावर बैंक पर लगाया और अपना स्लीपिंग बैग खोल उसमें घुस गया........और जल्द ही नींद का रथ मुझे अपने साथ ले उड़ा, स्वप्न नगरी की ओर.......
.......................(क्रमश:)
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पिछली किश्त में मैने आपको यहां तक बताया था कि मैं और राणा चरण सिंह रात के अंधेरे में लमडल झील पर बने भगवान शिव के छोटे से मंदिर के समक्ष बैठ भगवान शिव की आराधना में लीन थे....... कि चरण सिंह ने एकाएक कहा कि, "पंडित जी... आप भी इस पवित्र स्थल पर अपनी मनोकामना मांग ले, वह मनोकामना शंकर भगवान अवश्य पूर्ण करते हैं".....मैने मुस्कुराते हुए कहा, कि नही..राणा जी मुझे कुछ नही चाहिए....... और फिर मैने ऊंची आवाज में भोलेनाथ को सम्बोधन कर कहा, "हे शंकर मेरे... मुझे इस पावन यात्रा का पुण्य भी नही चाहिए, कृपया मेरी इस यात्रा का समस्त पुण्य चरण सिंह को ही दे दीजिए, क्योंकि मेरी इस यात्रा के सूत्रधार भी चरण सिंह ही हैं, वह ही मुझे यहां तक ले कर आए हैं...... मैं तो यहां पहुंच कर आपके दर्शन मात्र से ही कृतज्ञ हो गया....
फिर मुझे चरण सिंह ने मंदिर के बाहर रखी हुई नंदी की कुछ पत्थरनुमा मूर्तियाँ दिखाई..... और बोले कि जब मैं आठ वर्ष का था, तो यह वाली मूर्ति मेरी पीठ पर बांध कर मेरे घर वाले मुझे लमडल माथा टिकाने घर से साथ लाये थे, उन्होंने ऐसी मन्नत मांग रखी थी मेरे लिए...जो कि पूर्ण हुई थी...........मैने अनुमान लगाया कि वह मूर्ति कम से कम बीस किलो की तो होगी और एक आठ साल का बच्चा इतनी कठिन परिस्थितियों में यहां तक इस ठोस वजन को अपनी पीठ पर बांध कर कैसा लाया होगा, जो कि बहुत आश्चर्यजनक व साहसिक जान पड़ता है...... मेरे दिमाग में तभी चरण सिंह की उस दिन की सभी कारगुज़ारियाँ घूमने लगी, कि कैसे यह आदमी पहाड पर कितनी आसानी से चढ़ जाता है, कैसे यह पिछले कई घण्टों से नंगे पाँव इस ग्लेशियर में खड़ा है.... और अब यह नंदी की मूर्ति की बचपन वाली बात..........मैने चरण सिंह की इस शारीरिक कठोरता पर वाह-वाह करते हुए कहा कि, "भाई चरण सिंह राणा जी, आप तो बहुत पक्के आदमी हो"..........मेरी बात सुन कर चरण सिंह ने हंसते हुए कहा, "भाई जी....मेरा घर का नाम भी "पक्का" रखा हुआ है मेरे पिता जी द्वारा "......क्योंकि जब मैं छोटा था तो कहीं गिर कर चोट लग जाती तो, मैं कभी भी रोता नही था, तो मेरे पिता जी कहा करते थे कि मेरा यह बच्चा बहुत पक्का है, इसलिए मुझे "पक्का" नाम दे दिया मेरे पिता जी ने......................... मुझे यहां सब स्थानीय लोग "चरण सिंह"नाम से नही बल्कि "पक्का" या "पक्केराम" नाम से संबोधन करते हैं....... पर मैने कहा कि मैं तो आपको राणा चरण सिंह के नाम से जानता हूँ और तमाम उमर इसी नाम से सम्बोधन करूंगा, जी.........
मैने चरण सिंह से पूछा कि अब रात को लमडल झील पर कहां रूकना है...... तो चरण सिंह बोले कि यहां पर कोई भी ऐसी जगह नही है, जहां हम रात काट सके.... मैने कहा किसी बड़े पत्थर की ओट में बैठ कर रात काट लेते हैं, क्योंकि मुझे दिन के उजालें में लमडल झील को देखना है.... परन्तु चरण सिंह ने कहा कि यहां रात को तापमान बहुत नीचे गिर जायेगा, जो हमारे लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है, इसलिए अब यहां से चलकर किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचने में ही हमारी भलाई है....... तो मैने पूछा कि, क्या हम अब वापस गज पास पर चढ़ कर शाम के समय मिले आपके छोटे भाई सुभाष के डेरे पर जायेंगे, तो चरण सिंह बोले, "नही पंडित जी.... रात के इस अंधेरे में वहां वापस पहुंचना भी खतरे से खाली नही है....... अब हम यहां से छठी झील, जिसका नाम "टान झील" है, के सामने मेरे बड़े भाई ब्रजराज राणा के गुफा डेरे पर चलते हैं और वहां पर ही हम रात गुजारेंगे........ आखिर हम दोनों बैटरियों की रोशनी के सहारे टान झील की ओर नीचे की तरफ उतरने लगे.........
रास्ता तो कोई ना था, बस पत्थरों व चट्टानों पर हम आगे बढ़ रहे थे, हर तरफ अंधेरे में बस पानी गिरने का शोर ही सुनाई दे रहा था, चौथी झील को पार करने के पश्चात चरण सिंह ने अपने जूते पहने और कोई एक घंटा चलने के बाद दूर से कुत्तों के भोकनें की आवाजों से हमारा स्वागत होना शुरू हो गया... और जैसे-जैसे डेरा पास आता गया, तो कुत्तों ने हमे घेर लिया एक पहरेदार की भांति...... और एक छोटी सी गुफा के अंदर बनाये गद्दी डेरे में हम दोनों दाखिल हुए,तो हमारा अभिनंदन चरण सिंह के बड़े भाई ब्रजराज राणा जी व उनके साथी चम्बा निवासी तिलक राज जी ने किया और मेरा तारूफ़ चरण सिंह ने उन दोनों से बखूबी करवाया... हमारी ख़िदमत में पहले बगैर दूध की चाय पेश की गई...... सारे दिन की इस दौड़-धूप के बाद वह चाय का एक प्याला मुझे उस समय किसी अमृत से कम नही ला रहा था.... और फिर हल्दी वाले चावल, परन्तु मैं उस ऊंचाई की वजह से मर चुकी अपनी भूख के चलते बहुत ही थोड़ी मात्रा में खा पाया......
फिर गुफ्तगू का दौर चलने लगा, तो मैने महसूस किया कि राणा ब्रजराज भी धार्मिक विषयों के अच्छे ज्ञानी व प्रवक्ता है, उन्होंने गुफा में कई सारी धार्मिक पुस्तकें रखी हुई थी, जिसे वह निरंतर पढ़ते है....... और हां, गुफा में एक बंदूक भी पड़ी थी, जो कि जंगली जानवरों व भेड़-डाकूओं से सुरक्षा हेतू रखी गई हुई थी.......फिर बातचीत का विषय बदला, जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं एक थोक दवा विक्रेता हूँ, तो वे सब अपनी व अपने कुटुम्ब सम्बन्धी बीमारियों पर चर्चा मेरे साथ सांझी करते रहे...............फिर मैने एक अहम चर्चा आरंभ की, कि आप गद्दी लोग सामाजिकता सभ्यता से इतनी दूर इन कठिन परिस्थितियों में यहां पहाडो के ऊपर रहते हो, यहां भेड़-बकरी के भरणपोषण के पर्याप्त घास तो है, परन्तु यहां ना तो जलने के लिए लकड़ी है, और ना ही खाने के लिए अन्न, बस हर तरफ पत्थर ही पत्थर...... आपको सब कुछ निचले इलाकों से यहां लाना पड़ता है, जैसे मुझे चरण सिंह ने बताया कि आपके चूल्हे में जल रही यह लकड़ी भी आप लोग यहां से पांच किलोमीटर नीचे उतर कर जंगल से इक्ट्ठा कर लाते हो..... "तो भाई लोगों....मैं असमन्जस में हूँ, कि आप इतनी मेहनत कर इस भेड़-बकरी के व्यवसाय में साल भर कितना कमा लेते हो"
जवाब मिला कि हमे एक भेड़ से पूरे वर्ष में औसतन तीन सौ रुपये की कच्ची ऊन प्राप्त होती है.... मैने हिसाब लगाना शुरू कर दिया, कि जिस गद्दी के पास सौ भेड़ो का झुंड है, वो साल भर में सिर्फ तीस हजार रुपये ही कमा पाता है..... मैं सोच में पड़ गया कि बड़े शहरों में शहरी बच्चे व बड़े एक साल में तीस हजार रुपये से ऊपर के तो "पिज्जा-बर्गर" ही खा जाते हैं....... मैने उन तीनों से कहा कि इतना परिश्रम के बाद यह आमदानी तो बहुत कम है, तो ब्रजराज राणा जी बोले, हां... यदि हम कटने हेतू नर भेडू बेच लेते है, तो सालाना आय में कुछ इज़ाफ़ा हो जाता है, क्योंकि एक भेडू तीन हजार तक बिक जाता है.......मैने फिर से एक नया सवाल पेश कर दिया कि, आप गद्दी लोग इतने बड़े-बड़े मैदानों में अपनी भेड़-बकरी चराते हैं, जो कि निश्चित तौर पर सरकारी जमीन होगी, चाहे वो पहाड पर ही क्यों ना हो..... तो सरकार आप गद्दी लोगों से इस एवज में क्या वसूल करती है......जवाब प्राप्त हुआ कि हम गद्दी लोग पचास पैसे प्रति भेड़ के हिसाब से सरकार को शुल्क देकर अपना परमिट बनवातें हैं..... जो साल दर साल हर बार नया करवाना पड़ता है...... मैने कहा कि, चलो खैर इस प्रकार ही सही, सरकार आप लोगों की कुछ मदद तो कर रही है...
बातों-बातों में काफी समय गुजर गया, पता ही नही चला और फिर हम सोने की तैयारी में जुट गए...... मैने अपना कैमरा व तिलक राज जी का फोन अपने पावर बैंक पर लगाया और अपना स्लीपिंग बैग खोल उसमें घुस गया........और जल्द ही नींद का रथ मुझे अपने साथ ले उड़ा, स्वप्न नगरी की ओर.......
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लमडल शिव मंदिर के बाहर नंदी की मूर्तियाँ, जिन में से एक मूर्ति राणा चरण सिंह मात्र अाठ वर्ष की आयु में अपनी पीठ पर बांध कर मन्नत पूरी होने पर परिवार सहित यहां लाये थे.... |
मित्रों, मैं दिन के उजालें में इस सुंदर व पवित्र झील को देख ना सका... परन्तु आपके लिए यह कुछ चित्र पेश कर रहा हूँ, जो हमारे सांझे मित्र "गूगल कुमार जी" ने मुझे दिये.... |
लमडल शिव मंदिर के बाहर चढ़ायें गए त्रिशूल व ध्वज.... |
धौलाधार हिमालय की सबसे लम्बी व गहरी झील लमडल के कुछ मनमोहक दृश्य... सौजन्य गूगल भाई साहिब |
गुफा में बैठे.... बायें से राणा चरण सिंह, राणा ब्रजराज और तिलक राज... |
गुफा में बैठ चाय का आनंद लेता हुआ...... मैं |
सारे दिन की ट्रैकिंग के बाद मिली यह बगैर दूध की चाय भी किसी अमृत से कम नही लग रही थी.... दोस्तों |
बस इतने से ही चावल खाने मुझे पहाड जैसे लग रहे थे, क्योंकि ऊंचाई की वजह से मेरी भूख मर चुकी थी... ( अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें ) |
इसे कहते है अपनत्व
जवाब देंहटाएंजी हां, लोकेन्द्र जी बिल्कुल सही कहा जी आपने।
हटाएंवाह क्या भाव है कि आपने ऊनी इस यात्रा का सारा का सारा पुण्य पक्केराम को दे दिया जी...धन्य है आप भाई...
जवाब देंहटाएंक्योंकि बगैर चरण सिंह के लमडल पहुँचना मेरे लिए असंभव कार्य था प्रतीक जी। चरण सिंह मुझे निस्वार्थ लमडल लेकर गए, यह ही बहुत बड़ी बात है जी
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