मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

भाग-10 पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास.....Lamdal yatra via Gaj pass(4470mt)

भाग-10  पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास (4470मीटर)
                     
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                             राणा चरण सिंह के गद्दी डेरे पर सुबह तड़के एक आवाज़ से मेरी नींद टूटी, वो आवाज़ थी चरण सिंह के हाथों द्वारा चलाई जा रही दूध को रिड़कने वाली मधानी की...... और तभी मैने अपने सिर में हो रहे भयंकर दर्द को महसूस किया और झट से समझ गया कि, यह भयंकर सिर दर्द क्यों हो रहा है......... मैं ऊँचाई रोग (  High altitude sickness)  नामक बीमारी का शिकार हो गया था....... यह बीमारी हम मैदानी लोगों को पहाड़ की ऊंचाई पर जाते हुए अक्सर हो जाती है....... क्योंकि जब एक मैदानी व्यक्ति एक दिन में समुद्र तट से 1500मीटर-2500मीटर की ऊंचाई तक चला जाएे, तो वातावरण में आक्सीजन के घटते स्तर से उस के शरीर के खून और तंतुओं में भी आक्सीजन की कमी होनी शुरू हो जाती है...जब कि मैं तो 3000मीटर के करीब पहुंच चुका था..... इस बीमारी का मुख्य लक्षण सिर में भयंकर दर्द और भूख का एक दम से बंद हो जाना......और यह बीमारी हर किसी को नही दबोचती, अपने-अपने स्वास्थ्य स्तर की बात है,  क्योंकि ऋषभ इस बीमारी से बच गया......... खैर ऐसे ही सुबह तक मैं लेटा रहा और चरण सिंह ने उठाया कि, भाई चाय तैयार है उठकर पी लो....
                               उठ कर सबसे पहले मैे झोपड़ी से बाहर का नज़ारा देखने के लिए लपका......... क्या हसीन दिलकश नज़ारा था, हम धौलाधार हिमालय की गोद में थे..... सामने गज पहाड़ सीना ताने खड़ा था और सूर्योदय का प्रकाश  गज पर्वत के पीछे से आ रहा था, पंछियों की चहचहाहट, गज नदी का बज रहा जल-तरंग और वादी की सुन्दरता एक अलौकिक अनुभूति करा रही थी......... परन्तु सिर में हो रहा वो भयंकर सिर दर्द सब पर भारी पड़ रहा था........... हम सुबह के कार्यक्रम से निवृत होने में लग गए, तो इतने में चरण सिंह ने भी जल्दी से खाना बनाकर हमारे आगे परोस दिया......... परन्तु मुझे भूख कहां, सिर्फ दो कोर खाना लिया कि कुछ दवाई खा सकूं और खाना बीच में छोड़, दवा खा कर मैं फिर से लेट गया और मुझे नींद भी आ गई.......
                                 नींद खुली, दवा काम कर गई... अब मैं बिल्कुल ठीक था और समय देखा तो 9बज चुके थे...... एक झटके से उठ कर बाहर आया तो देखा कि, चरण सिंह धूप में बैठे हुक्का पी रहे थे और ऋषभ उनके पास बैठ अपने पैर पर लगी चोट पर हुई सूजन पर मालिश कर रहा था........ मैने उनके पास जा बड़ी गर्मजोशी से कहा, "राणा जी, अब क्या प्रोग्राम है ".........परन्तु चरण सिंह ने कोई खास प्रतिक्रिया नही दिखाई..... सिर हिला कर हुक्के के दो-चार कश खींच लिये, मैने फिर से पूछा, तो चरण सिंह उखड़े से बोले, "भाई जी, तुम खुद ही निकल लो लमडल को, यह रास्ता जाता है "........इनकी यह बात सुन मेरा माथा ठनका, कि कहीं कुछ गड़बड़ हो गई है हमसे..... कि जो आदमी कल से अपनो की तरह हमारी सेवा में जुटा हुआ है, वह अब एक दम से पराया सा क्यों हो गया...... चरण सिंह फिर बोले, "मुझे बहुत काम है 'लिंगडू' (एक पहाड़ी जंगली सब्जी) का मौसम है और मैने लिंगडू इक्ट्ठा कर धर्मशाला शहर में जा कर बेचना है और मेरी एक भैंस कल रात जंगल से वापस नही आई, उसके पाँव में जख़्म है उसको भी ढूढंने जाना है..... वगैरा-वगैरा......... "
                               मैने स्थिति को अपनी "तुच्छ सोच" अनुसार समझते हुए चरण सिंह से कहा, कोई बात नही राणा जी....माना कि लिंगडू बेच कर आप पैसा ही कमायेगें, परन्तु मैं आपकी हानि नही होने दूगां, मैं आपको मुझे लमडल ले जाने के लिए एक "आर्कषक परिश्रम " दे देता हूँ...... परन्तु मेरी सोच के उलट चरण सिंह ने मेरी इस बात पर जरा ध्यान नही दिया और मेरी पेशकश को सिरे से नकार दिया........ और मेरी पैसागिरी अकड़ उसी समय धराशायी हो गई..........
                               मैं एकाएक ठगा जा महसूस करता हुआ, कभी ऋषभ की तरफ देखूं तो कभी चरण सिंह की तरफ..... परन्तु चरण सिंह मुझसे आंख तक भी नही मिला रहे थे, बस एक तरफ मुंह करके हुक्का पीये जा रहे थे.....अब हालात ऐसे बन गए थे, कि ऋषभ के चोटिल होने की वजह से वह आगे या फिर वापस जाने में भी असमर्थ हो चुका था और मैं किसी भी हालत में अपनी मंजिल के आधे रास्ते से खाली हाथ वापस नही जाना चाहता था, मेरे पास अपनी मंजिल को पाने की एकमात्र उम्मीद थे "राणा चरण सिंह जी "....क्योंकि मुझे अब आभास हो चुका था कि बगैर किसी स्थानीय की मदद के मैं गज पर्वत पर चढ़ कर लमडल तक नही पहुंच सकता, यदि ज़िद या हठ में अकेला ही उस ओर चल दिया......तो यह बात मेरे लिए "आत्महत्या " भी सिद्ध हो सकती है........
                               आदिकाल से क्षत्रिय(राजपूत) से कैसे राज्य का कार्य आदि चलवाना है, यह ऋषि(ब्राह्मण) भालिभांति जानते हैं....... सो मैने स्वार्थी हो, इसी तर्ज पर राणा चरण सिंह को हालात अनुसार फिर ठंडे दिमाग से कुरेदना शुरू कर किया...... और आखिर में चरण सिंह पहाड़ी भाषा में  बोले, "तूसां नू मुंजो बनाई रोटी पंसद ना आवे"..........(मतलब कि, मैने सुबह आप लोगों के लिए इतने प्यार से खाना बनाया..... और वह आपने नापंसद कर, बीच में ही छोड़ दिया).......
चरण सिंह की मासुमियत भरी बात सुन मैं और ऋषभ जोर से हंसने लगे और झट से चरण सिंह की हमारे प्रति मनोस्थिति समझ गया और मैने चरण सिंह को अब अपनी सफाई में समझाना शुरू कर दिया........... कि "मैने खाना इस लिए कम खाया, क्योंकि जब भी मैं एक दिन में पहाड़ की एक निश्चित ऊँचाई से ऊपर चला जाता हूँ, तो मेरी भूख मर जाती है और अक्सर सिर में दर्द शुरू हो जाता है.......चरण सिंह जी, यह एक ऊँचाई की बीमारी है.... जिसे हम मैदानी इलाकों में रहने वाले जब कभी पहाड़ की ऊँचाई पर पैदल जाते हैं, तो पहले-पहल इस बीमारी से अक्सर रुहबरुह होना पड़ता है,जी....बाकी आपके बनाये खाने और अतिथि सेवा में कोई कमी-पेशी नही है......कमी तो मुझ में है.........!"
                   

                                                                              ..............................(क्रमश:)
सुबह दूध रिड़क रहे.... राणा चरण सिंह 

धौलाधार हिमालय के पीछे से आ रहा सूर्योदय का प्रकाश.... 

रैयल धार पर्वत पर राणा चरण सिंह का गद्दी डेरा... 

यह जनाब हमें बार-बार देख रहे थे,  कि ये कौन मेरे घर में घुस आए हैं..... 

रैयल धार पर्वत पर नदी के किनारे राणा चरण सिंह के पारिवारिक गद्दी डेरे..... 

डेरे के पास ही नदी पर बना लकड़ी का पुल... 

बस यह भोजन ना खाना.... महंगा पड़ गया,  दोस्तों

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4 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. सही है लोकेन्द्र जी, पाँच सितारा में हम सुविधाएं तो आलीशान प्राप्त सकते हैं.... परन्तु भावनाएँ कहाँ से लायेंगें, मजेबानी का भाव या मेहमानगिरी का भाव।

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  2. पहाड़ी इंसान पैसे के लिये कभी वो नही करेंगे जो वो नही चाहते है पहाड़ी हमेशा प्रेम में भावनाओ में एहसास में कुछ भी कसर सकते है...

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