भाग-24 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर.....
और....... फिर!!!
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पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि 23जुलाई2016 को मैं, विशाल रतन जी व पथप्रदर्शक केवल.....गई पर्वत से बसार गई पर्वत की ओर चढ़ाई कर रहे थे कि मौसम एक दम से बिगड़ गया... बारिश, बर्फबारी के साथ अब बहुत तेज गति से हवा भी चलने लगी थी, परन्तु मेरे कदम सबसे आगे थे और हमारा पथप्रदर्शक केवल अब हम दोनों के पीछे चल रहा था, जो यात्रा का नकरात्मक पहलू साबित होने वाला था..... दस मिनट में ही वहाँ का तापमान 8डिग्री से एकाएक कम हो कर 4डिग्री आ चुका था वो भी सुबह के नौ बजे.... तेज हवा ने प्रचण्ड रुप ले अपने-आप को बर्फीले तूफ़ान में बदल लिया, हम से ऊपर चल रहे लोग वापस नीचे की ओर दौड़ने लगे...या जिसे जहाँ अपने-आप को तूफ़ान से छिपाने की जगह मिल रही थी, वह वहाँ खड़े हो कर उस बर्फीले तूफ़ान को झेल रहा था।
परन्तु मेरे कदम नही रुक रहे थे, कि तभी पीछे से विशाल जी ने आवाज़ लगाई, " विकास जी, अब ऊपर मत जाओ....मौसम बहुत बिगड़ चुका है।" मैने पीछे मुड़ कर देखा तो केवल और विशाल जी रास्ते किनारे पड़ी बड़ी-बड़ी चट्टानों की आड़ में सुरक्षित खड़े हो चुके थे... और विशाल बोले, " अब ऊपर नही जाया जा सकता, चलो वापस नीचे उतर चलते हैं..!! "
मैं विशाल जी की बात सुन तैश में बोला, " हम पिछले चार दिनों से श्री खंड पहुँचने के लिए जी-तोड़ परिश्रम कर रहे हैं, मंजिल के इतने पास आने पर मैं तो खाली हाथ वापस नही जाने वाला...मैं जल्दी हार मानने वालों में से नही हूँ...! " परन्तु विशाल जी ने मेरी बात का समर्थन नही किया.... मैं विशाल जी और केवल से दस कदम ऊपर रास्ते में अब ठगा सा खड़ा था और बर्फीले तूफ़ान की मार को झेल रहा था, दस कदम नीचे उतर कर विशाल जी के पास भी नही गया....क्योंकि मुझे वापस नही बल्कि उन दोनों को ऊपर की ओर ले जाना था, परन्तु वे दोनों ही अपनी जगह और फैसले पर अडिग खड़े हो चुके थे।
तब मैने जीवन में पहली बार विशाल जी के नाम सम्बोधन में "जी" शब्द को उतार धरकिनार किया और चीख कर बोला, "विशाल चल, हम मंजिल के बहुत करीब है...सिर्फ ढेड़ किलोमीटर ही बचा है.....! " परन्तु विशाल जी कहाँ मेरे व्याकुल व प्यासे मन की वेदना और छटपटाहट सुन पा रहे थे क्योंकि उस वक्त उनका दिमाग चल रहा था, जबकि मेरा मन......!!
अपने-आप को हारता देख मैने एक दम से स्वार्थी हो दूसरा पासा फैंका और चीखा, " विशाल जी आप नीचे उतर जाओ, तू चल मेरे साथ केवल राम..! " परन्तु पथप्रदर्शक केवल की हालत तो हम दोनों से भी ज्यादा पतली हो चुकी थी, उसने गर्म कपड़ों के नाम पर सिर्फ एक "खेलकूद जोड़ा"( ट्रैक सूट) ही पहन रखा था... वह अब ठण्ड से कांप रहा था, मेरी बात सुन उसने झट से ना में अपने कांप रहे सिर को और ज्यादा कम्पा दिया।
सब कुछ हाथ से जाता देख, मेरी छटपटाहट की सीमा चरम तक जा पहुँची और अगली पेशकश की, कि चलो इस बसार गई पर्वत के शिखर तक ही चलते हैं और वहीं से ही श्री खंड शिला के दूरदर्शन कर ही अपने-आप को तृप्त कर लेते हैं.....सो ऊपर से नीचे उतरने वाले लोगों से पूछना शुरु कर दिया कि इस पर्वत शिखर से क्या हमें श्री खंड शिला के दर्शन हो जाएंगे, परन्तु मेरी किस्मत हार चुकी थी... लोगों के उत्तर विचलित कर रहे थे कि मत आगे जाओ, ऊपर तो बहुत बुरा हाल है और खूब सारी धुंध भी पड़ चुकी है, जिसके कारण रास्ता देखना भी नामुमकिन सा हो गया है।
परन्तु मुझ ढीठ अतृप्त को तृप्ति कहाँ, वहीं बारिश में खड़ा-खड़ा हर उतर रहे यात्री से बार-बार ये ही सवाल..... और हर कोई वापस नीचे उतरने वाला शायद अपने दिमाग की ही सुन रहा था, बस एक मैं ही था अपने मन को दिमाग पर हावी कर पिछले 15मिनट से बर्फीला तूफ़ान व बारिश में वहीं रास्ते पर खड़ा ऊपर की ओर जाना चाहता था.... अब अपना अंतिम फैसला विशाल जी को सुनाने वाला ही था कि मैं अकेला ही जा रहा हूँ श्री खंड महादेव...!!
उससे पहले ही विशाल जी बोल पड़े, " मन की मत सुन विकास, यह हमे जीते-जी मरवा देगा... क्यों भूल रहे हो इस यात्रा पर पिछले एक सप्ताह में ही तीन लोगों की मौत हो चुकी है, हमें चौथी व पांचवी लाश बन इस पहाड से नही उतरना है... ज़िंदा रहे तो फिर से वापस आ सकते हैं, जानबूझ कर आत्महत्या को प्राप्त होना बहादुरी नही हो सकती, मैं ना तो खुद आगे जाऊँगा और ना ही तुम्हें आगे जाने दूँगा....!!! "
विशाल जी के ये बोल सुन मेरे मन और दिमाग में अब द्वंद्वयुद्ध आरंभ हो चुका था, सो विशाल जी से कुछ समय की मोहलत मांग....खामोशी से सोचने लगा, तब मुझे महसूस हुआ कि सर्द हवा से मेरे हाथ अकड़ चुके हैं, घड़ी पर तापमान देखा तो चार डिग्री और मैं 4545मीटर की ऊँचाई पर खड़ा था.... देख कर फिर मन की चंचलता पुन: जागृत हो उठी, कि विकास तू अपने दो वर्षीय पर्वतारोहण अनुभव में अब तक ज्यादा से ज्यादा 4620मीटर (धौलाधार हिमालय के कलाह पास) पर चढ़ा है... सो कुछ कदम तो और चल कि तू अपने व्यक्तिगत कीर्तिमान को तो तोड़ ले, परन्तु दोस्तों उस समय मेरे अंदर का "कथित पर्वतारोही" कुछ क्षण पहले ही मर चुका था... जो अब मैं बचा था वो सिर्फ एक हारा हुआ लाचार इंसान, उस लाचारी में मैं खुद से ही बोला, " नही तोड़ना मुझे अपना अब पुराना व्यक्तिगत कीर्तिमान...!!!
और, हाथों में पकड़ी स्टिक्स् को रास्ते पर फेंक दोनों हाथ जोर खड़ा हो गया, मेरे मन ने अब हार स्वीकार कर ली थी......और फिर घुटनों के बल बैठ कर वहीं रास्ते पर भगवान शिव को नतमस्तिक हुआ..... जब मुड़ा तो देखा कि मुझे वापस मुड़ते देख पथप्रदर्शक केवल के मुख कर खुशी थी और विशाल जी के मुखमंडल पर संतोष की विजयी मुस्कान।
अब हम तीनों खामोशी से बसार गई पर्वत से नीचे उतर रहे थे, उतरते-उतरते दस मिनट बाद एक छोटी सी गुफा रास्ते के किनारे आई..... मेरी मौन मनोदशा देख विशाल जी बोले, " चलो विकास जी, इस बर्फीले तूफ़ान के गुज़र जाने तक हम इस गुफा में बैठ कर इंतजार करते है, यदि शिव की इच्छा हुई और मौसम सामान्य हो गया... तो हम पुन: चल देंगे श्री खंड...! " परन्तु उस संकरी सी गुफा में घुटनों के बल घुसते हुए मेरा पोंचूँ फंसने से मेरा गला घुट गया.... मुझे सांस लेने में तकलीफ होने लगी, गुफा में मेरा दम घुटने लगा...सो पुन: बाहर खुले की ओर भागा, तो जान में जान आई....मतलब कि भगवान शिव ने अपनी अनिच्छा ज़ाहिर कर दी थी....!!!
बसार गई पर्वत से उतर कर गई पर्वत पर आ कर फिर से तापमान देखा तो होश उड़ गए कि तापमान 1डिग्री के करीब हो चुका था, इसका मतलब ऊपर तो तापमान शुन्य से भी कई डिग्री नीचे हो चुका होगा और अब ऊपर की ओर सब कुछ धुंधला सा नज़र आ रहा था........ रास्ता भी कीचड़ से फिसलदार रुप ले चुका था, केवल के कपड़े पूरी तरह से भीग चुके थे वह बुरी तरह से कांप रहा था, खैर जैसे-तैसे एक-दूसरे को पकड़-पकड़ नीचे उतरना जारी रखा.... मैं बार-बार पीछे मुड़-मुड़ कर देख रहा था कि यह विपदा एक दम से टल जाए और हम वापस श्री खंड की ओर चल दें।
तभी सोच में व्यस्त मेरे दिमाग में भगवान शिव के बोल गूँजे, " विकास, तू अपने-आप को बहुत बड़ा ट्रेकर समझता है... तू यहाँ मेरा नाम करने नही बल्कि अपना नाम कमाने आया है...जा, भाग जा यहाँ से वापस और अगली बार एक तीर्थ यात्री बन कर आना, तब तू मेरे दर्शन पा सकेगा.....!!!! "
उतराई उतरते हुए मेरा सम्पूर्ण शरीर तो गतिमान, परन्तु दिमाग एक जगह ही ठहरा हुआ था... फिर दिमाग में घटनाक्रम बदला तो कल शाम भीमद्वारी के लंगर के लाउडस्पीकर पर बज रहे पहाड़ी गायक करनैल राणा के भजन के बोल पुन: सुनाई देने लगे, " शिव, पापीआं नूँ... नही ओ मिलदे... .!! " क्योंकि नाकामयाबी ने मेरी नास्तिकता पर बेहद कड़ा प्रहार किया था।
मेरा ध्यान टूटा जब केवल ने कहा कि मेरी हालत खराब हे रही है, आप लोग मुझे आगे जाने दे... मैं आपका नीचे पार्वती बाग में इंतजार करता हूँ। फिर से एक बार मेरे मन ने जोर पकड़ा और मैं केवल से बोला कि हमारा पार्वती बाग में ही रुकने का इंतजाम करो, ताकि हम कल सुबह फिर से श्री खंड जा सके....... परन्तु विशाल जी हमेशा अपने साथ दिल्ली से ही "समय सीमा" का नामुराद घण्टा बांध कर चलते हैं, सो उन्होंने साफ मना कर दिया... और केवल राम छलांगें लगता हुआ एक दम से आँखों से जैसे ओझल हो गया।
हम दोनों खामोशी से धीरे-धीरे गई पर्वत से नयन सरोवर की ओर उतर रहे थे कि पीछे से शिमला वाले कानूनगो साहिब त्रिभुवन शर्मा जी (जो हमे जाते समय भीमतलाई के बाद रास्ते में मिले थे, जिनकी माता के देहान्त का भार उनके मन पर हावी था... वे इस भार को हल्का करने के लिए ही श्री खंड महादेव जा रहे थे) बहुत तेज़ी से नीचे उतरते आ रहे थे, हमे देखते ही दोनों बांहें ऊपर उठा नाचते हुए तेजी से गुजरते हुए बोले, " मैं दर्शन कर आया, मैं दर्शन कर आया...! " उनकी तेज़ चाल से ही पता चल रहा था कि वह अपने मन पर पड़े भार को श्री खंड उतार आये हैं.... जबकि हमारी चाल नाकामयाबी की वजह से बेहद सुस्त व भारी हो चली थी, करीब तीन घंटे गई पर्वत से नयनसरोवर तक लगा दिये हमने, दोपहर का एक बज चुका था.... बर्फीला तूफ़ान तो कब का थम चुका था परन्तु मेरे मन में मचा तूफ़ान कहाँ थम रहा था, जो बार-बार मेरी आँखों से अश्रु बन निकल रहा था क्योंकि मैं हर चीज को गम्भीरता से लेना शुरू कर देता हूँ।
नयन सरोवर के पास एक चट्टान पर, मोटे से शीशों वाली नज़र की ऐनक पहने वही बहादुरगढ़ वाले जनाब बैठे थे, जो हमे भीमद्वारी पहुँचने से पहले मेरे शहर वासियों के साथ मिले थे और उनका उस समय कहा व्यंग्य बाण "कहाँ ठोकरें खा रहे हो बादशाहों...!".... सच में दोस्तों उन्हें देख कर "ठोकरें" शब्द पुन: कानों में गूँज गया कि बड़ी जबरदस्त ठोकर मार तुझे वापस भेज दिया भोलेनाथ ने...!!
खैर वह जनाब भी बीच रास्ते से ही वापस मुड़ रहे थे और उन्होंने बताया कि आपके शहर गढ़शंकर का एक लड़का मेरे साथ ही ऊपर जा रहा था, मौसम बिगड़ने पर मैं तो वापस हो लिया परन्तु वह वापस नही आया.... बाकी सब गढ़शंकर वाले लड़के नयन सरोवर से ही वापस हो लिये।
हम दोनों अब नयन सरोवर से पार्वती बाग की तरफ चल रहे थे कि पीछे से एक सरदार जी आये, उन्होंने अपनी गीली ज़ुराबों को अपने डंडे में डाल रखा था.... मैने उन्हें रोक कर पूछा तो वे बोले, " भाजी, नया जीवन मिला है...मैने ऊपर अपनी मौत को साक्षात देखा है, माथा टेक वापस आ रहा था कि मौसम बिगड़ गया और सब कुछ देखना ही बंद हो गया, ऐसे प्रतीत हो रहा था कि मैं अंधेरे में चल रहा हूँ....वो तो मेरी किस्मत ही अच्छी थी कि किसी खाई में नही गिरा, अच्छा हुआ आप लोग ऊपर नही आये..!!!!"
दोपहर डेढ़ बजे हम पार्वती बाग पहुँच गए, अब ऐसी खिली हुई धूप थी कि जैसे चंद घंटे पहले कुछ भी ना घटा हो....केवल राम वहाँ पहले से ही दुकान में मौजूद था, उसने हमे नवनीत द्वारा बनाये परोठें परोसे....परन्तु मेरी नाकामयाबी मेरी भूख को खा चुकी थी, फिर भी विशाल जी के कहने पर दो-चार कोर चाय के साथ जबरदस्ती अंदर किये। केवल ने फिर पूछा, " तो आप लोगों की बात करूँ दुकानदार से कि यहीं रात रुक कर कल सुबह फिर चल देना श्री खंड " मैने बेहद "आशाभरी नजरों " से विशाल जी की तरफ देखा, परन्तु विशाल जी को मुझ लाचार पर ज़रा भी दया नही आई... और दो टूक जवाब में सारी बात समाप्त कर दी, " मेरे पास छुट्टी नही है विकास जी...! "
मैं उस समय विशाल जी से विद्रोह भी कर सकता था, परन्तु हम दोनों के रिश्ते में " जी " शब्द का बहुत महत्व है.... सो उस मर्यादा को मैने कायम रखा, मेरा व विशाल जी में पर्वतारोहण का संबंध "दीवार पर टंगी तस्वीर और कील का संबंध है, जो एक-दूसरे के पूरक है दोस्तों....! "
और, हम दोनों की खामोशी को केवल ने यह कह तोड़ा कि मुझे बुखार आ गया है...मैं भीमद्वारी चलता हूँ, आप लोग धीरे-धीरे आ जाना.... और केवल चला गया, हम दोनों भी चल दिये वापस भीमद्वारी के रास्ते पर....
दोस्तों, मेरी यह व्यथा पढ़ कर आप लोग भी निश्चित ही विचलित होगें, सोच रहे होगें कि यह कैसा अजीब व्यक्ति है जो इतने महीनों से हमें अपनी शब्द- यात्रा से श्री खंड महादेव कैलाश, इस धारावाहिक के द्वारा ले जा रहा था.... वह खुद ही नही पहुँच पाया श्री खंड। आप तो इस दुख पढ़ने के तुरन्त बाद या दस मिनट, एक घंटा या एक दिन में भूला दोगें...... परन्तु दोस्तों में इस दुख को पिछले दो वर्ष से निरंतर झेल रहा हूँ, एक टीस सी मन में बार-बार उठ खड़ी हो ही जाती है....... और दोस्तों, यह अंत नही है मेरी इस चित्रकथा का, क्योंकि वापसी पड़ी है जिसमें बहुत से घटनाक्रम होने शेष है, सो पढ़ते रहना मुझे हर सप्ताह।
..........................(क्रमश:)
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गई पर्वत से बसार गई पर्वत पर चढ़ाई.... और मौसम में हलचल, परन्तु मेरे कदम सबसे आगे थे। |
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बसार गई पर्वत पर चढ़ रहे यात्री, अब वापस नीचे उतरने लगे थे। |
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जबकि मैं अपने कदमों को नही रोक रहा था, आगे ही आगे बढ़ता जा रहा था... कि पीछे से विशाल जी ने मुझे रोका। |
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और, मुझ से दस कदम नीचे रास्ते के किनारे बड़ी-बड़ी चट्टानों का आश्रय ले विशाल जी और केवल खड़े हो चुके थे..और विशाल जी ने कहा कि अब मौसम बेहद बिगड़ चुका है, ऊपर जाना खतरनाक साबित हो रहा है... चलो वापस नीचे चलते हैं..! |
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बारिश, बर्फबारी व तूफ़ान की वजह से ऊपर दिखाई देना भी बंद हो चुका था.....पर मेरा व्याकुल मन को चैन कहाँ, मैं हर कीमत पर ऊपर जाना चाहता था... क्योंकि मंजिल यानि श्री खंड महादेव शिला मात्र डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर थी, और मैं मंजिल के इतने करीब से खाली हाथ वापस नही आना चाहता था... सो मैं वहीं रास्ते में खड़ा बर्फीले तूफ़ान को झेल रहा था और विशाल जी को मना रहा था कि वे मेरे साथ श्री खंड चले। परन्तु..........!!! |
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मैं हर तरह से पासे फेंक चुका था, परन्तु विशाल जी और केवल अपने स्थान व फैसले पर अडिग खड़े थे...सो मन की चंचलता फिर जागी कि तू विकास अभी 4545मीटर तक तो पहुँच चुका है... चंद कदम कुछ और चढ़ ले तो अपने पुराने व्यक्तिगत कीर्तिमान 4620मीटर को पार कर सकता है, परन्तु नाकामयाबी की निराशा मेरे अंदर के कथित पर्वतारोही को मार चुकी थी। |
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और..... अाखिर मैने अपने हथियार डाल दिये। |
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और, वहीं भगवान शिव को हाथ जोड़ खड़ा हो गया.... |
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अपनी हार मान, वहीं रास्ते पर भगवान शिव को नतमस्तिक हुआ.... |
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उठ कर जब मुड़ा.... तो देखा कि केवल के चेहरे पर खुशी थी और विशाल जी के मुखमंडल पर संतोष की विजयी मुस्कान। |
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और, नीचे उतरना शुरु कर दिया.... |
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गुफा में घुटनों के बल रेंगते हुये, मेरा पोंचूँ फंसने से मेरा गला घुट गया..... और गुफा में मुझे साँस लेने में तकलीफ होने लगी, सो बाहर खुले में भागा। |
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गुफा से भाग कर खुले में पहुँच कर, देखा तो तापमान 1डिग्री के करीब हो चला था....और ऊपर का तापमान तो शुन्य से भी नीचे हो गया होगा। |
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बर्फीले तूफ़ान और किस्मत के मारे हम बेचारे...!! |
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तभी, ऊपर मुड़ कर देखा तो बसार गई पर्वत शिखर पर खूब बर्फ गिर रही थी। |
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दोस्तों, ठंड से मेरे हाथ अकड़ चुके थे.... कैमरे का बटन दबाने में भी मुश्किल हो रही थी। |
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गई पर्वत से वापस उतरते हुए... |
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सारी पर्वत चोटियाँ सफेद हो रही थी। |
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नीचे भीमद्वारी..... का दृश्य। |
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ओ, भाजी....ऊपर तो बहुत बुरा हाल है, मैं अपनी मौत को धोखा देकर नीचे उतरा हूँ...!
अमृतसर वाले सरदार जी ने कहा जिन्होंने अपनी गीली ज़ुराबों को डंडे के सिर में फंसा रखा था। |
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पार्वती बाग का प्राकृतिक बगीचा... |
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वहीं से दिख रहा भीमद्वारी, अब मौसम इतना साफ हो चुका था कि मानों कुछ घटा ही ना हो। |
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नवनीत द्वारा आधी रात ढाई बजे बनाये हुए परोंठे...केवल ने हमें पार्वती बाग में परोसे, परन्तु नाकामयाबी ने मेरी भूख को ही खा लिया था। |
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