" वो चार किलो का डंडा....!!! "
इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का (
http://vikasnarda.blogspot.com/2018/02/1.html?m=1)स्पर्श करें।
कांगड़ा में रात रुक, सुबह जल्दी ही रवाना हो लिये धर्मशाला की ओर, ताकि जल्दी से जल्दी करेरी गाँव पहुँच कर झील की तरफ 10 किलोमीटर की चढ़ाई शुरू कर सकें। 31 दिसम्बर 2012 के दिन सुबह 7:30 बजे ही हम धौलाधार हिमालय के चरणों में बसे शहर धर्मशाला जा पहुँचे।
सामने दिख रहे धौलाधार पर अभी चंद रोज़ पहले हुई ताज़ी बर्फबारी ऐसे प्रतीत हो रही थी, जैसे पर्वत हमें रिझाने के लिए तैयार हुए हो। तभी उन पर्वत शिखरों पर सूर्योदय की सुनहरी किरणें आन पड़ी और ऐसा आभास हुआ कि पर्वतों के शिखरों पर सोने के पत्र मढ़ दिये हो.......यह नज़ारा मैं अपने जीवन में पहली बार देख रहा था। करेरी का रास्ता पूछते-पूछते, हम बाज़ार से निकले तो मेरी तेज नाक ने दूर से बन रहे "छोले-भटूरो" की गंध सूँघ ली....." चटोरे तो हम दोनों साँढ़ू भाई जन्मजात ही हैं.....!!!"
उस हलवाई की दुकान में दाख़िल होते हुए...तिल-भूग्गा, अलसी की पिन्नी, इमरती और जलेबियों से हमारी आँखें दो-चार होना स्वाभाविक ही था दोस्तों। खूब दबाकर नाश्ता किया और समोसे व "पलंग-तोड़"(मिल्क केक)पैक करवा कर, करेरी झील का रास्ता पूछा तो वह दुकानदार हमें घूरता हुआ बोला, " भला आज कल भी कोई करेरी झील पर जाता है.... बर्फ पड़ चुकी है, सब रास्ते बर्फ में दब गए होंगे... झील भी जम चुकी होगी, मूर्खता है इस मौसम में करेरी जाना...यदि जाना ही चाहते हो तो, 'त्रियुड़' चले जाओ... वहाँ तो लोग आते-जाते रहते हैं और सुविधाएं भी उपलब्ध हैं....!!!!"
दुकानदार की यह बातें सुन, मुझ में से हवा निकली नही....बल्कि और ज्यादा बढ़ गई कि इस मौसम में कोई नहीं जाता करेरी, तो फिर विकास नारदा अवश्य जाएगा...!!! और, विशाल जी ने भी जलती आग में घी डाल दिया "we will done it " कह कर अपनी मूँछों को ताव देने लगे।
और.....बगैर तैयारी व उपकरणों के हम फूली हुई छाती ले, मुँह उठाकर चल दिए......जमी हुई करेरी झील देखने। करेरी गाँव धर्मशाला से पठानकोट रोड पर 25किलोमीटर की दूरी पर है। मुख्य सड़क छोड़ अब छोटी सी सड़क हमारे गाड़ी के टायरों के नीचे थी। चंद किलोमीटर जाने के बाद काली सड़क, मिट्टी के रास्ते में तब्दील हो गई। हम उस इलाके की तरफ जा रहे थे, जिसके सामने धौलाधार हिमालय खड़ा होने से रास्ता आख़िरी गाँव करेरी तक जाकर बंद हो जाता है......और सामने दिख रहे धौलाधार के "भीमकसूटरी पर्वत" पर पड़ी ताज़ी बर्फ हमारे आकर्षण का केंद्र बन चुकी थी।
गज नदी के किनारे गाँव से, अभी हाल में ही करेरी गाँव के लिए सड़क का निर्माण कार्य शुरू हुआ था। अब एक कच्ची सड़क पर हमारी गाड़ी बढ़ रही थी......और कदम-कदम पर बदलते दिलकश मंज़र हमें बार-बार गाड़ी से बाहर निकाल लाते। करेरी गाँव तक पहुँचने का मार्ग गाड़ी के चलने योग्य नही था, सो उस वीरान जगह में ही अपनी गाड़ी को लावारिस छोड़ने के सिवाय हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नही था.....क्योंकि करेरी गाँव अभी भी दो किलोमीटर दूर था।
उत्साह में बहुत ताकत होती है, सो हम दोनों अब अपने बच्चों के स्कूल-बैगों में अपना जरूरी सामान भर रहे थे। पिट्ठू बैग पीठ पर डाल दो कदम चले तो मन में जाने क्या आया....अपने बैगों से हम दोनों ने ही गर्म लोईयाँ निकाल कर गाड़ी में फेंक दी, कि सिर्फ दस किलोमीटर ही तो दूर है करेरी झील... करेरी गाँव से...! और फटाफट जाकर शाम को वापस भी आ जाएंगे, इस गर्म लोई के भार को क्यों व्यर्थ में उठाना है.....!!
10किलोमीटर की चढ़ाई जो करेरी गाँव (1900मीटर) से शुरू होकर करेरी झील (2934मीटर) तक जाती है, हमारी नज़र में चंद घंटों का ही खेल था.... क्योंकि पहाड़ों को अब तक हमने सड़कों पर ही खड़े होकर देखा था। जबकि पहाड़ की चढ़ाई पर एक इंच भी एक मीटर जितना बड़ा लगता है दोस्तों....इस बात का इल्म कहाँ था...!!
पंजाबी में एक कहावत है, " या तां बाह पेआ जानें, या राह पेआ जानें...!!"
मतलब वास्ता पड़ने पर ही मुसीबत का ज्ञान होता है या उस रास्ते पर चलने पर ही कठिनता का आभास होता है।
गाड़ी को राम भरोसे छोड़ उस कच्ची सड़क नुमा रास्ते पर हम चल दिए, करेेरी गाँव की ओर। करीब पौने घंटे की चढ़ाई के बाद सरसों के पीले फूलों के खेत और स्लेटों से बनी छतों वाले कच्चे-पक्के मकानों ने हमें दर्शन दिये। उस ऊँचाई से पीछे मुड़ गाड़ी की तरफ देखा तो वह काली चींटी सी नज़र आ रही थी। धूप सेक रहे गाँव वाले हम अजनबी शहरी छोरों को प्रश्नवाचक नजरों से देख रहे थे।
करेरी झील पर कौन सा रास्ता जाता है का सवाल मानो उन्हें हैरान-परेशान कर गया हो।उत्तर मिला, "भाई आजकल तो वहाँ कोई नही जाता, तुम क्यों जा रहे हो...!!" मैंने चहकते हुए कहा बस हमें जमी हुई झील देखनी है। तो उन्होंने कहा, " तुम लोग झील तक नही पहुँच पाओगे, रास्ते में ही कहीं गुम ना हो जाओ....अच्छा है गाँव में एक गाइड सुरेश है, जो लोगों को झील पर घुमा कर लाता है...उसके घर जा कर उसे मिल, अपने साथ ले जाओ...!!! विशाल जी बोले, " सलाह अच्छी है " और हम दोनों उस गाइड सुरेश के घर जा पहुँचे तो पता चला कि वह तो सुबह सवेरे जल्दी ही जिला वन विभाग के मुख्य अधिकारी के बेटे और उसके मित्र को लेकर करेरी झील पर चला गया है और कोई भी व्यक्ति उस छोटे से गाँव में हमारे संग जाने के लिए तैयार नहीं हुआ।
गाँव के घरों में हमारे अलावा एक और दल भी घूम रहा था, जिसे देख बड़ी हैरत हुई कि हिमालय के इस सदूर गाँव में, जहाँ अब तक सड़क भी नहीं पहुँची है..... इसाई धर्म के प्रचारक वहाँ पहुँच गाँव में नववर्ष के तोहफे बांट रहे थे। यह परोपकार देख मेरे मन का इंसान तो बहुत खुश हुआ, परंतु दिमाग का हिंदू परेशान हो गया....!!!!
विशाल जी के पिट्ठू बैग की एक तनी उखड़ गई थी, सो उसे भी ठीक करवाना था। दर्जी का घर ढूँढ बैग को सिलवाया और वही पड़ी हिमाचली टोपी पहन विशाल जी खूब इतराये। इस चक्कर में दोपहर के 12बज चुके थे, यानी हम आधा दिन खो चुके थे।
गाँव वालों से आखिर हमने करेरी झील का रास्ता पूछकर और गाइड का मोह त्याग, चलना शुरू कर दिया। करेरी से कुठारना गाँव तक का सड़क मार्ग निर्माण कार्य चल रहा था, बस उसी सड़क पर कोई तीन किलोमीटर चलने के बाद हमें "लियोंड खड्ड" पर बने नए पक्के पुल से पहले लियोंड खड्ड के साथ-साथ ऊपर को चढ़ना था। करेरी गाँव के घरों से निकल हम अब उस निर्माणाधीन सड़क पर चल पड़े।
कुछ आगे आने पर सड़क किनारे कंक्रीट की रोक लगाने वाले लोहे के सांचे पड़े थे और उसमें से मुझे एक सीधी लकड़ी मिल गई जो इन सांचों को फिट करने के बाद सीधा खड़ा रखने के लिए सहारे का काम देती होगी। वह डंडा नुमा लकड़ी मैंने विशाल जी को थमा दी..... और बीस कदम बाद फिर से मुझे निर्माणाधीन सड़क के किनारे पड़ी एक दूसरी डंडा नुमा लकड़ी भी मिल गई, परंतु वह लकड़ी ज़रा भारी थी... डंडा कम शहतीर ज्यादा लग रही थी। उस चार किलो के लठ को उठा, मैंने अपनी पीठ पर लाद लिया यह सोचते हुए कि लाठी की लाठी और जरूरत पड़ने पर जलाने के लिए ईंधन।
दोपहर एक बजे हम लियोंड खड्ड पुल पर जा पहुँचे, जहाँ से करेरी झील को रास्ता मुड़ रहा था। पक्के पुल पर पहुँच खुशी उल्लास उत्साह उमंग हमारे कदमों को नचाने लगी... और हम दोनों साँढ़ू भाई भांगड़ा डालने लग पड़ते हैं...!! सड़क निर्माण में लगे मजदूर हमारे साथ-साथ अपनी उन लकड़ियों को भी घूर रहे थे, जो हमने उनके सामान से चुरा ली थी। लकड़ियों के प्रश्न पर हमने उनसे निवेदन किया कि आप और लकड़ी काट लेना भाई, ये हमें चाहिए...क्योंकि हम करेरी झील पर जा रहे हैं। तो वे मजदूर बोले, " इस समय करेरी तो बहुत देर से जा रहे हैं.....आज तो नहीं पहुँच पाओगे, रास्ते में आपको गद्दियों के वीरान डेरे मिल जाएंगे... उसमें रात गुज़ार कर सुबह करेरी झील चल देना...!"
उस गाइड और दो लड़कों के बारे में पूछा तो जवाब मिला वह लोग सुबह गए थे और उन तीनों से पहले दो अंग्रेज जोड़े भी करेरी झील की ओर चढ़े हैं। यह सुन हमें कुछ तसल्ली हुई कि हमारे आगे कुछ और लोग भी गए है......और हमें वह वापसी करते हुए मिल भी सकते हैं।
हम दोनों उस समय हर चीज को अपने मुताबिक ही सोच रहे थे, परंतु पहाड़ कभी भी आपके मुताबिक नही सोचता। "पहाड़ का तो अर्थ ही होता है, मुश्किल" हर कदम मुश्किलें आपका रास्ता रोक कर कहती हैं, " एे बंदे, मैं पहाड़ हूँ पहाड़.... तुझे तेरी औकात मुझ पर चार कदम चल कर ही पता लग गई होगी...!!" इस सत्य का प्रकाश हमारे अनुभवहीन दिमाग़ में जल्दी ही हो गया। सीधा-सादा रास्ता अब टेढ़ी-मेढ़ी पत्थर की सीढ़ियों और कदम-दर-कदम घुमावदार पगडंडी ने ले लिया। पर अभी यह सब मुसीबतें बेहद मीठी लग रही थी, चढ़ाई चढ़ने में खासा आनंद भी प्राप्त हो रहा था। लियोंड खड्ड की जलधारा को उसी में पड़े बड़े-बड़े पत्थरों पर उछल-उछल कर फाँदना ऐसे लग रहा था, जैसे हम बचपन में पहुँच " स्टापू" खेल रहे हो....!
मैंने उन मजदूरों से करेरी झील की दिशा के बारे में पूरी जानकारी ले ली थी कि सामने दिख रहे इस पहाड़ की पिछली तरफ पहुँच, इसी नदी पर बने लोहे के पुल को पार कर... बाएं हाथ मुड अगले पहाड़ पर करेरी झील है। सो एक मात्र पगडंडी पर अपने पग बढ़ाए जा रहे थे.....चढ़ाई और उखड़ी सांसो की जुगलबंदी ने हमें झट से ही थका डाला, कहाँ नाच रहे हमारे कदमों पर अब जूतों का भी भार महसूस होने लग पड़ा और ऊपर से मेरे हाथ में वह चार किलो का मोटा डंडा जिसे मैंने अपनी ट्रैकिंग स्टिक बना रखा था। चढ़ाई के इस पहले स्तर में ही हम दोनों थक कर रास्ते पर ही धूप में लम-लेट हो गए। पलकें खुद-ब-खुद भारी हो बंद हो गई, थकान झपकी का सहारा ले बैठी।
कुछ समय बाद मुझे उस घने जंगल में एक आहट अपने पास आते हुए महसूस हुई और झट से आँखें खोल उस ओर देखा..... तो, एक बहुत बड़ा बंदर दबे पांव हमारे पास.... पीछे पड़े बैग उठाने के लिए बढ़ता आ रहा था और उसकी सेना पीछे खामोश खड़ी अपने मुखिया को देख रही थी। मैंने फुर्ती से अपना चार किलो का लठ उठाकर उस बंदर की तरफ दे मारा ....और पहाड़ की उस खामोशी में बंदरों व हमारे विरोध की चीखें गूँज उठी। चंद क्षणों में फिर से सन्नाटा छा गया, बंदर हमारी नजरों से ओझल हो चुके थे। तब ध्यान आया कि पहाड़ों में जंगल भी होते हैं और उन जंगलों में खतरनाक जंगली जानवरों का ही राज होता है.... खासकर भालू।
खैर अब डर की क्या बात जलावन के लिए उठाया वह चार किलो का डंडा, ट्रैकिंग स्टिक के साथ अब मेरा हथियार भी बन चुका था।
.................................(क्रमश:)
|
करेरी झील पर जाने के लिए, सुबह साढ़े सात बजे ही हम धर्मशाला पहुँच गए। |
|
धौलाधार हिमालय पर पड़ी ताज़ी बर्फ, ऐसे प्रतीत हो रही थी कि पर्वत हमे रिझानें के लिए तैयार हुये हो। |
|
तभी सूर्योदय की किरणें पर्वत शिखरों से अठखेलियाँ करने लगी। |
|
सूर्योदय की स्वर्णिम किरणें ऐसा आभास दे रही थी कि जैसी पर्वत शिखरों पर सोने के पत्र मढ़ दिये गए हो,
यह नज़ारा मैं अपनी जिंदगी में पहली दफा देख रहा था दोस्तों। |
|
इतनी खूबसूरत मिठाई.... तो कैसे ना आँखें दो-चार हो। |
|
खूब दबा कर खाए, " छोले-भूटरे " |
|
और, मीठे में तिल-भूग्गा और इमरती। |
|
फिर, धर्मशाला से चल दिये हम करेरी गाँव की ओर। |
|
रास्ते में दिख रही धौलाधार हिमालय की पर्वतश्रेणी। |
|
रास्ते में सड़क निर्माण का कार्य करते मजदूर। |
|
करेरी के रास्ते में लगा एक छोटा सा विद्युतउत्पादन केन्द्र। |
|
विशाल जी, मुझे यहाँ उतार दो....और गाड़ी वहाँ जाकर रोकना, मैं उस झरने के साथ गाड़ी की फोटो खिंचूगाँ। |
|
रास्ते की सुंदरता... हमें बारम्बार गाड़ी से उतार बाहर खींच लाती। |
|
देखा ना क्या खूबसूरत चित्र, धौलाधार में कच्ची सड़क पर हिमाचल परिवहन की बस और हमारी गाड़ी। |
|
धौलाधार हिमालय का भीमकसूटरी पास। |
|
भीमकसूटरी पर्वत पर पड़ी ताज़ी बर्फ। |
|
हिमालय तू गोरा भी सुंदर और काला भी सुंदर....!! |
|
घेरा गाँव आ गया दोस्तों। |
|
और, हर जगह से दिखता भीमकसटूरी पर्वत हमारे आकर्षण का केन्द्र बन चुका था। |
|
घेरा गाँव में गज नदी पर लगी विद्युत परियोजना। |
|
वाह, कितना मनमोहक गाँव। |
|
घेरा गाँव से करेरी गाँव के लिए सड़क निर्माण कार्य चल रहा था। |
|
धौलाधार के चरणों में मानव निर्मित सुंदरता। |
|
धौलाधार से बह कर आ रही नदियों में नाममात्र ही जल था। |
|
रास्ता अब हमारी गाड़ी को परेशान करने लगा था। |
|
और, करेरी गाँव से दो किलोमीटर पहले कच्ची सड़क पर गाड़ी आगे बढ़ना मुश्किल सा हो गया, तो इस वीरान जगह पर ही गाड़ी को लावारिस छोड़ देना हमारी मजबूरी बन गई, और अपने पिट्ठू बैग डाल हम सामने देख रहे पहाड़ पर चढ़ दिये.... |
|
करेरी गाँव की ओर। |
|
पहाड़ चढ़ने पर सबसे पहले हमे सरसों के खेत व स्लेटों की छतों वाले मकानों ने दर्शन दिये। |
|
उस ऊँचाई पर पहुँच, नीचे देखा तो गाड़ी काली चींटी सी नज़र आ रही थी। |
|
गाँव वाले हम अजनबी शहरी छोरों को प्रश्नवाचक नजरों से देख रहे थे। |
|
औसम्..... विशाल जी का तकिया-कलाम। |
|
गाँव वालों से भेट-वार्तालाप। |
|
गाँव के दर्जी से विशाल जी के बैग की उखड़ी तनी ठीक करवाई,
वहाँ पड़ी हिमाचली टोपी पहन विशाल जी खूब इतराये। |
|
दर्जी के घर के बाहर। |
|
और, हम करेरी गाँव से झील का रास्ता पता कर चल दिये और जा पहुँचें करेरी झील से बह कर आ रही लियोंड नदी पर बने पुल पर,
जहाँ से हमें नदी के साथ-साथ ऊपर चढ़ना था। |
|
लियोंड खड्ड पर बने नये पुल पर पहुँच, हमारे कदम खुशी उल्लास उत्साह उमंग से नाचने लग पड़ते हैं... |
|
और, हम दोनों साँढ़ू भांगड़ा डालने लग पड़ते हैं...!!! |
|
लियोंड खड्ड पर पर पुराना पुल। |
|
पुल पर काम कर रहे मजदूर हमारे साथ अपने उन डंडों को भी घूर रहे थे, जो हमने चुरा लिये थे। |
|
उन मजदूरों से करेरी झील के विषय में जानकारियाँ ले उस एकमात्र पगडंडी पर चढ़ दिये। |
|
लियोंड खड्ड को पार करते हुये, उसमें पड़े पत्थरों को फाँदना ऐसा लग रहा था जैसे हम बचपन में पहुँच स्टापू खेल रहे हो। |