" जो जीतना चाहे, वो आशिक कहाँ का...!!! "
इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र ( http://vikasnarda.blogspot.com/2018/02/1.html?m=1 )स्पर्श करें।
करेरी झील के रास्ते में.....31 दिसम्बर 2012 की वो सर्द रात उस गुफा में कट चुकी थी। सुबह 7 बजे के करीब मुझे जाग आती है, विशाल जी चूल्हे के समीप बैठे आँखें मूंदे अपना नित्य नाम जप रहे थे। मैं उन्हें सुप्रभात बोलकर झट से गुफा से बाहर निकल जाता हूँ क्योंकि मेरी आँखों को तलाश है, करेरी झील पर जाने वाले रास्ते की। मन में प्रकाश व उल्लास है उस जमी हुई झील तक पहुँचने का। कल शाम रास्ते पर बर्फ ज्यादा आने के कारण हमें आगे बढ़ने का उचित मार्ग नहीं मिल पा रहा था, तो हमने रात गुफा में आग जलाकर जैसे-कैसे काट ली थी। जल्द ही मुझे आगे बढ़ने का वैकल्पिक रास्ता भी मिल जाता है। मैं उन्हीं पैरों से भागता हुआ गुफा में वापस आ विशाल जी को खुशी से कहता हूँ कि मुझे आगे जाने का रास्ता मिल गया है..... परंतु आँखें मूंदे पाठ में मग्न विशाल जी केवल अपना सिर जरा सा ही हिला देते हैं।
मैं फिर बच्चों की तरह उछलता-कूदता गुफा से बाहर निकल नदी के किनारे खड़ा हो, कभी बर्फ बन चुके नदी के जल को देख रहा हूँ तो कभी उस घाटी के पर्वत शिखरों को निहार रहा हूँ जिन पर पड़ी बर्फ सूर्य की ताज़ी किरणों से चमक रही थी...जिन्हें देखकर मेरा मन भी चहक रहा था।
फिर से गुफा में आ, भड़क रहे चूल्हे की आग को सेंकने लग पड़ता हूँ और जैसे ही विशाल जी अपना पाठ समाप्त करते हैं......मैं उत्सुक हो उन्हें देख रहा हूँ, परंतु विशाल जी अब आगे बढ़ने की बात को नकार देते हैं यह कहते हुए कि विकास जी हमारे पास खाने के लिए कुछ भी नही है, चलो यहीं से वापस चलते हैं।
मैं उन्हें कहता हूँ, " नही हमारे पास दो बिस्कुट के पैकेट बच रहे हैं, इस से ही काम चला लेंगे..!" परंतु विशाल जी ने फिर सिर ना में हिला दिया, "नही, विकास जी मुझे अब और ऊपर नही जाना है... मैं वापस जाना चाहता हूँ...!!! "
मैं फिर से उन्हें यह कहकर उत्साहित करता हूँ, "विशाल जी, मुझे लगता है करेरी झील अब ज्यादा से ज्यादा 2 किलोमीटर की दूरी पर है....और दिन अभी शुरू ही हुआ है, बस ऊपर झील पर थोड़ा समय रुक वापस चल देंगे।"
परंतु विशाल जी का जवाब ना में ही था मतलब उनके मन का प्रकाश कब का बुझ चुका था। मुझे उनके इस नकरात्मक रवैय्या पर बेहद गुस्सा आ रहा था। पर उसे उन पर ज़ाहिर नही कर पा रहा था।
विशाल जी तर्क देते हुए बोलते हैं, "विकास जी, हमें इससे ज्यादा खतरा नही उठाना चाहिए, बेहतरी इसी में है कि यहीं से वापस चलते हैं...!!!!" मेरे मन के प्रकाश पर विशाल जी के मन के अंधेरे बादलों ने हमला बोल दिया था। मैं दुविधा में खड़ा आखिर अपने मन पर पत्थर डाल, विशाल जी के साथ वापस चलने को राज़ी तो हो जाता हूँ परंतु अशांत व गूंगे रोष भरे मन के साथ।
8बजे हम दोनों अपनी लाठियाँ उठा खामोशी से वापस चल देते हैं। आधा घंटा चलते रहने के बाद हमें पीछे से आवाज़ें आती सुनाई देती है तो मुड़ कर देखते हैं कि कल हमारे आगे गए हुए अंग्रेजों का दल चला आ रहा था। उनके पीछे-पीछे करेरी गाँव के गाइड और वन विभाग के अधिकारी का बेटा व उसका दोस्त भी चले आ रहे थे।
अब हम सब एक-दूसरे की आप-बीतियाँं सुन-सुना रहे थे। गाइड के साथ गए लड़कों ने सिर्फ हल्की सी गर्म शर्ट ही पहन रखी थी..... उसे देख मैंने पूछा, "क्यों भाई कैसी कटी रात...!" तो वे बोले, "भैया मत पूछो हम तो ऐसे ही चल दिए थे करेरी झील कि शाम तक वापस आ जाएंगे, परंतु बर्फ बहुत ज्यादा आने के कारण ऊपर पहुँचते-पहुँचते ही अंधेरा हो गया, अच्छा हुआ आप लोग ऊपर नही आए....एक तो वहाँ जलाने के लिए लकड़ी भी नहीं थी और दूसरा झील के किनारे बने मंदिर की धर्मशाला में इतनी भयंकर ठंड थी कि हमारे शरीर कांप रहे थे तो ये गाइड साहिब हमें और अंग्रेजों को लेकर झील से दूर बने एक और डेरे पर ले गए... जहाँ हमें जलाने के लिए लकड़ी भी मिल गई और खाना हमें अंग्रेजों ने थोड़ा बहुत दे दिया, बस सारी रात बैठकर ही काटी...!!!!!"
उनकी बात सुन हमने बचे हुए दोनों बिस्कुट के पैकेट खोल उन सब में बाँट दिये। मैं उन सबके बूट देख रहा था जिसकी बर्फ पर पड़ी छाप, कल से हमारी पथ प्रदर्शक बनी हुई थी। उस छाप को पहचान कर मैं उस अंग्रेज के से जब यह कहता हूँ कि आप का जूता कल से हमारा गाइड बना हुआ है तो वह खूब हंसा और मुझे गले से लगा लिया।
अब हम नौ लोग इकट्ठा नीचे उतर रहे थे। मैं गाइड से चिपक चुका था क्योंकि मुझे जिज्ञासाओं को भी तो शांत करना था। "हम जिस जगह पर रात, उस गुफा में रुके थे...उस जगह को आप लोग क्या कहते हैं...?"
मेरा सबसे पहला सवाल गाइड "सुरेश" से...... "उटवाला है उस जगह का नाम...!" सुरेश का जवाब। "हम करेेेरी झील से कितना पीछे रह गए" तो सुरेश बोला, "ज्यादा नही केवल 2 किलोमीटर के करीब...!! मेरे मन में इक ठीस सी उठी जो ठंडी आह बन मेरे मुँह से निकली और मेरा मन व्याकुल सा हो चला।
बच्चों सा जिज्ञासु हो सुरेश से प्रश्न पर प्रश्न पूछता रहा कि ऊपर झील कैसी है, वहाँ क्या-क्या है आदि-आदि। गाइड सुरेश मेरे हर सवाल का जवाब भी बूढ़े दादा की तरह ही देता रहा कि करेरी देवी के नाम पर ही इस झील और गाँव का नाम करेरी पड़ा। करेरी देवी माँ का मंदिर करेरी झील के किनारे पर है....बेहद ही खूबसूरत स्थान है करेरी झील और करेरी से भी ऊपर 6झीलें और भी हैं, आप मेरे पास गर्मियों में आना...मैं आपको करेरी झील से भी आगे उन सब झीलों को दिखाता हुआ धौलाधार हिमालय की सबसे गहरी व लंबी झील "लमडल" दिखाने ले चलूँगा।
सुरेश की बातें सुन मेरा ध्यान रास्ते पर कम आकाश की तरफ ज्यादा हो रहा था जिसके नीले रंग में धौलाधार हिमालय के श्वेत शिखर चमक रहे थे और मैं ख्यालों की लहरों में तैर रहा था कि जाने कैसी दिखती होंगी वे सात झीलें इन शिखरों के नीचे। लमडल झील का नाम मेरी स्मृति में सुरेश ने चिपका दिया था...जिसकी यात्रा मैने अगले साल एक स्थानीय गद्दी राणा चरण सिंह की मदद से संपन्न की। (लमडल यात्रा की धारावाहिक चित्रकथा आप मेरे ब्लॉग की पिछली किश्तों में पढ़ सकते हैं, यह पदयात्रा मेरे जीवन की सर्वोत्तम रोमांचक यात्रा है, दोस्तों लमडल यात्रा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )
रास्ते में बर्फ पर पड़े निशान देख, मैं सुरेश को उस बारे में पूछता हूँ तो वह कहते हैं, "भालू के पैरों के निशान" यह जवाब सुन मैं और विशाल जी एक दूसरे के मुँह को फटी आँखों से देख रहे थे क्योंकि सुबह गुफा से चलते समय मुझे विशाल जी ने गुफा के से करीब 20 फुट की दूरी पर बर्फ पर बने ऐसे निशान दिखाए थे.... जो उन्होंने सुबह लकड़ी इक्ट्ठा करते हुए देखे थे। हम तब इतना तो समझ चुके थे कि यह किसी जानवर के पैरों के निशान तो हैं...परंतु जब सुरेश के मुँह से भालू का नाम सुना तो पल भर में बीती हुई सारी रात घूम गई कि रात के अंधेरे में हमारी गुफा के बाहर भालू घूम रहा था। एक सिहरन सी ऐसी घूमी तन-मन में जो चंद क्षणों के लिए ही हमें भयभीत कर गई...!!!!
ट्रैकिंग स्टिक की तरह पकड़ा वह 4 किलो का डंडा, अंग्रेज महिला पर्वतारोहियों की नज़र में मुझे हास्य का पात्र बना रहा था..... परंतु मुझे उनकी परवाह कहाँ थी क्योंकि मैं मन-ही-मन ठान चुका था कि इन दोनों डंडों को वापस वही पहुँचाना है, जहाँ से हमने इन्हें चोरी किया था।
चाहे उस वक्त मैं उन पहाड़ों की ऊँचाई से नीचे उतर रहा था परंतु मेरे भीतर एक नई इच्छा चढ़ती जा रही थी। इच्छा उन पहाड़ों में फिर से आने की, उन उँचाईयों को साक्षात देखने की जिन्हें केवल अपना शरीर तोड़ कर ही देखा जा सकता है।
यदि यह मेरी पहली पर्वतारोहण यात्रा सफल हो जाती तो शायद मैं फिर से तुम्हें फाँदने ना आता, हे हिमालय...!! मंजिलें मिल जाने पर इंसान संतुष्ट हो जाता है परंतु तूने मुझे संतुष्ट नही होने दिया क्योंकि तुझे सच्चे आशिक की पहचान है और वो आशिक ही क्या, जो संतुष्ट हो जाए....!!!
"हे हिमालय, मेरे भीतर तेरी आशिकी का बीज अंकुरित हो चुका था.... जिसे अब तेरी मोहब्बत ही पाल-पोसकर वृक्ष का रूप दे सकती है। मुझे कोई तमन्ना नही कि मैं तेरी सबसे ऊंची चोटी को सिर करूँ क्योंकि मुझे तुझे जीतना नही है, सच्चा आशिक कभी जीतता नही और जो जीतना चाहे वो आशिक कहाँ का...!!!!"
दोपहर का समय हो चला था हम दोनों की रफ्तार सबसे कम होने के कारण सब के सब हमें छोड़ आगे बढ़ चुके थे। लियोंड खड्ड का पक्का पुल आ चुका था। हमारे असली हमसफ़र उन चोरी के डंडों को हम एक मूक आभार सहित उस निर्माणाधीन सड़क के सामान में रख, करेरी गांव की ओर बढ़ जाते हैं।
करेरी गांव में पहुँच हम सब फिर से इकट्ठा हो जाते हैं वन विभाग के विश्राम घर में और जीवन में पहली बार बगैर दूध की चाय को चखा, जो अंग्रेजों ने बनाई थी और सुरेश ने हमें परोसी थी। बातचीत के दौरान वह गद्दी भी वहाँ आ पहुँचा जिस के डेरे पर हम रात रूके थे वह कुछ परेशान सा था, परंतु हमने उसे यह कहकर निश्चिंत किया कि हमने तुम्हारे डेरे में से कोई भी लकड़ी तोड़कर जलाई नही है....बल्कि तुम्हारा बहुत शुक्राना तुमने वहाँ चिमटा और बोरी की चटाई छोड़ रखी थी जो हमारे बहुत काम आई.... यह बात सुन सब खूब हंसे।
हमारे कदम अब करेरी गाँव को पीछे छोड़, दूर नीचे घाटी में दिख रही काली चींटी सी हमारी गाड़ी की ओर बढ़ रहे थे।
......................................(समाप्त)
(1) "श्री खंड महादेव कैलाश की ओर"......यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(2) "पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास"....यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(3) "चलो, चलते हैं सर्दियों में खीरगंगा ".....यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
फिर से गुफा में आ, भड़क रहे चूल्हे की आग को सेंकने लग पड़ता हूँ और जैसे ही विशाल जी अपना पाठ समाप्त करते हैं......मैं उत्सुक हो उन्हें देख रहा हूँ, परंतु विशाल जी अब आगे बढ़ने की बात को नकार देते हैं यह कहते हुए कि विकास जी हमारे पास खाने के लिए कुछ भी नही है, चलो यहीं से वापस चलते हैं।
मैं उन्हें कहता हूँ, " नही हमारे पास दो बिस्कुट के पैकेट बच रहे हैं, इस से ही काम चला लेंगे..!" परंतु विशाल जी ने फिर सिर ना में हिला दिया, "नही, विकास जी मुझे अब और ऊपर नही जाना है... मैं वापस जाना चाहता हूँ...!!! "
मैं फिर से उन्हें यह कहकर उत्साहित करता हूँ, "विशाल जी, मुझे लगता है करेरी झील अब ज्यादा से ज्यादा 2 किलोमीटर की दूरी पर है....और दिन अभी शुरू ही हुआ है, बस ऊपर झील पर थोड़ा समय रुक वापस चल देंगे।"
परंतु विशाल जी का जवाब ना में ही था मतलब उनके मन का प्रकाश कब का बुझ चुका था। मुझे उनके इस नकरात्मक रवैय्या पर बेहद गुस्सा आ रहा था। पर उसे उन पर ज़ाहिर नही कर पा रहा था।
विशाल जी तर्क देते हुए बोलते हैं, "विकास जी, हमें इससे ज्यादा खतरा नही उठाना चाहिए, बेहतरी इसी में है कि यहीं से वापस चलते हैं...!!!!" मेरे मन के प्रकाश पर विशाल जी के मन के अंधेरे बादलों ने हमला बोल दिया था। मैं दुविधा में खड़ा आखिर अपने मन पर पत्थर डाल, विशाल जी के साथ वापस चलने को राज़ी तो हो जाता हूँ परंतु अशांत व गूंगे रोष भरे मन के साथ।
8बजे हम दोनों अपनी लाठियाँ उठा खामोशी से वापस चल देते हैं। आधा घंटा चलते रहने के बाद हमें पीछे से आवाज़ें आती सुनाई देती है तो मुड़ कर देखते हैं कि कल हमारे आगे गए हुए अंग्रेजों का दल चला आ रहा था। उनके पीछे-पीछे करेरी गाँव के गाइड और वन विभाग के अधिकारी का बेटा व उसका दोस्त भी चले आ रहे थे।
अब हम सब एक-दूसरे की आप-बीतियाँं सुन-सुना रहे थे। गाइड के साथ गए लड़कों ने सिर्फ हल्की सी गर्म शर्ट ही पहन रखी थी..... उसे देख मैंने पूछा, "क्यों भाई कैसी कटी रात...!" तो वे बोले, "भैया मत पूछो हम तो ऐसे ही चल दिए थे करेरी झील कि शाम तक वापस आ जाएंगे, परंतु बर्फ बहुत ज्यादा आने के कारण ऊपर पहुँचते-पहुँचते ही अंधेरा हो गया, अच्छा हुआ आप लोग ऊपर नही आए....एक तो वहाँ जलाने के लिए लकड़ी भी नहीं थी और दूसरा झील के किनारे बने मंदिर की धर्मशाला में इतनी भयंकर ठंड थी कि हमारे शरीर कांप रहे थे तो ये गाइड साहिब हमें और अंग्रेजों को लेकर झील से दूर बने एक और डेरे पर ले गए... जहाँ हमें जलाने के लिए लकड़ी भी मिल गई और खाना हमें अंग्रेजों ने थोड़ा बहुत दे दिया, बस सारी रात बैठकर ही काटी...!!!!!"
उनकी बात सुन हमने बचे हुए दोनों बिस्कुट के पैकेट खोल उन सब में बाँट दिये। मैं उन सबके बूट देख रहा था जिसकी बर्फ पर पड़ी छाप, कल से हमारी पथ प्रदर्शक बनी हुई थी। उस छाप को पहचान कर मैं उस अंग्रेज के से जब यह कहता हूँ कि आप का जूता कल से हमारा गाइड बना हुआ है तो वह खूब हंसा और मुझे गले से लगा लिया।
अब हम नौ लोग इकट्ठा नीचे उतर रहे थे। मैं गाइड से चिपक चुका था क्योंकि मुझे जिज्ञासाओं को भी तो शांत करना था। "हम जिस जगह पर रात, उस गुफा में रुके थे...उस जगह को आप लोग क्या कहते हैं...?"
मेरा सबसे पहला सवाल गाइड "सुरेश" से...... "उटवाला है उस जगह का नाम...!" सुरेश का जवाब। "हम करेेेरी झील से कितना पीछे रह गए" तो सुरेश बोला, "ज्यादा नही केवल 2 किलोमीटर के करीब...!! मेरे मन में इक ठीस सी उठी जो ठंडी आह बन मेरे मुँह से निकली और मेरा मन व्याकुल सा हो चला।
बच्चों सा जिज्ञासु हो सुरेश से प्रश्न पर प्रश्न पूछता रहा कि ऊपर झील कैसी है, वहाँ क्या-क्या है आदि-आदि। गाइड सुरेश मेरे हर सवाल का जवाब भी बूढ़े दादा की तरह ही देता रहा कि करेरी देवी के नाम पर ही इस झील और गाँव का नाम करेरी पड़ा। करेरी देवी माँ का मंदिर करेरी झील के किनारे पर है....बेहद ही खूबसूरत स्थान है करेरी झील और करेरी से भी ऊपर 6झीलें और भी हैं, आप मेरे पास गर्मियों में आना...मैं आपको करेरी झील से भी आगे उन सब झीलों को दिखाता हुआ धौलाधार हिमालय की सबसे गहरी व लंबी झील "लमडल" दिखाने ले चलूँगा।
सुरेश की बातें सुन मेरा ध्यान रास्ते पर कम आकाश की तरफ ज्यादा हो रहा था जिसके नीले रंग में धौलाधार हिमालय के श्वेत शिखर चमक रहे थे और मैं ख्यालों की लहरों में तैर रहा था कि जाने कैसी दिखती होंगी वे सात झीलें इन शिखरों के नीचे। लमडल झील का नाम मेरी स्मृति में सुरेश ने चिपका दिया था...जिसकी यात्रा मैने अगले साल एक स्थानीय गद्दी राणा चरण सिंह की मदद से संपन्न की। (लमडल यात्रा की धारावाहिक चित्रकथा आप मेरे ब्लॉग की पिछली किश्तों में पढ़ सकते हैं, यह पदयात्रा मेरे जीवन की सर्वोत्तम रोमांचक यात्रा है, दोस्तों लमडल यात्रा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )
रास्ते में बर्फ पर पड़े निशान देख, मैं सुरेश को उस बारे में पूछता हूँ तो वह कहते हैं, "भालू के पैरों के निशान" यह जवाब सुन मैं और विशाल जी एक दूसरे के मुँह को फटी आँखों से देख रहे थे क्योंकि सुबह गुफा से चलते समय मुझे विशाल जी ने गुफा के से करीब 20 फुट की दूरी पर बर्फ पर बने ऐसे निशान दिखाए थे.... जो उन्होंने सुबह लकड़ी इक्ट्ठा करते हुए देखे थे। हम तब इतना तो समझ चुके थे कि यह किसी जानवर के पैरों के निशान तो हैं...परंतु जब सुरेश के मुँह से भालू का नाम सुना तो पल भर में बीती हुई सारी रात घूम गई कि रात के अंधेरे में हमारी गुफा के बाहर भालू घूम रहा था। एक सिहरन सी ऐसी घूमी तन-मन में जो चंद क्षणों के लिए ही हमें भयभीत कर गई...!!!!
ट्रैकिंग स्टिक की तरह पकड़ा वह 4 किलो का डंडा, अंग्रेज महिला पर्वतारोहियों की नज़र में मुझे हास्य का पात्र बना रहा था..... परंतु मुझे उनकी परवाह कहाँ थी क्योंकि मैं मन-ही-मन ठान चुका था कि इन दोनों डंडों को वापस वही पहुँचाना है, जहाँ से हमने इन्हें चोरी किया था।
चाहे उस वक्त मैं उन पहाड़ों की ऊँचाई से नीचे उतर रहा था परंतु मेरे भीतर एक नई इच्छा चढ़ती जा रही थी। इच्छा उन पहाड़ों में फिर से आने की, उन उँचाईयों को साक्षात देखने की जिन्हें केवल अपना शरीर तोड़ कर ही देखा जा सकता है।
यदि यह मेरी पहली पर्वतारोहण यात्रा सफल हो जाती तो शायद मैं फिर से तुम्हें फाँदने ना आता, हे हिमालय...!! मंजिलें मिल जाने पर इंसान संतुष्ट हो जाता है परंतु तूने मुझे संतुष्ट नही होने दिया क्योंकि तुझे सच्चे आशिक की पहचान है और वो आशिक ही क्या, जो संतुष्ट हो जाए....!!!
"हे हिमालय, मेरे भीतर तेरी आशिकी का बीज अंकुरित हो चुका था.... जिसे अब तेरी मोहब्बत ही पाल-पोसकर वृक्ष का रूप दे सकती है। मुझे कोई तमन्ना नही कि मैं तेरी सबसे ऊंची चोटी को सिर करूँ क्योंकि मुझे तुझे जीतना नही है, सच्चा आशिक कभी जीतता नही और जो जीतना चाहे वो आशिक कहाँ का...!!!!"
दोपहर का समय हो चला था हम दोनों की रफ्तार सबसे कम होने के कारण सब के सब हमें छोड़ आगे बढ़ चुके थे। लियोंड खड्ड का पक्का पुल आ चुका था। हमारे असली हमसफ़र उन चोरी के डंडों को हम एक मूक आभार सहित उस निर्माणाधीन सड़क के सामान में रख, करेरी गांव की ओर बढ़ जाते हैं।
करेरी गांव में पहुँच हम सब फिर से इकट्ठा हो जाते हैं वन विभाग के विश्राम घर में और जीवन में पहली बार बगैर दूध की चाय को चखा, जो अंग्रेजों ने बनाई थी और सुरेश ने हमें परोसी थी। बातचीत के दौरान वह गद्दी भी वहाँ आ पहुँचा जिस के डेरे पर हम रात रूके थे वह कुछ परेशान सा था, परंतु हमने उसे यह कहकर निश्चिंत किया कि हमने तुम्हारे डेरे में से कोई भी लकड़ी तोड़कर जलाई नही है....बल्कि तुम्हारा बहुत शुक्राना तुमने वहाँ चिमटा और बोरी की चटाई छोड़ रखी थी जो हमारे बहुत काम आई.... यह बात सुन सब खूब हंसे।
हमारे कदम अब करेरी गाँव को पीछे छोड़, दूर नीचे घाटी में दिख रही काली चींटी सी हमारी गाड़ी की ओर बढ़ रहे थे।
......................................(समाप्त)
गुफा डेरे से बाहर सामने की तरफ दिखता था यह नज़ारा, सारी रात मैं अंधेरे में चमक रही इस सफ़ेदी को देखता रहा। |
सुबह उठते ही मैं गुफा से निकल बाहर की तरफ भागा, करेरी झील जाने के लिए कोई वैकल्पिक रास्ता खोजने। |
करेरी झील से बह कर आ रही लियोंड नदी का जल भी जमा हुआ था। |
और....वैकल्पिक रास्ता खोजने के उपरांत, मैं गुफा में वापस पहुँच भड़क रहे चूल्हे के सामने आ बैठता हूँ। |
बस इतनी सी ही थी, वो गुफा दोस्तों.... और गुफा की दीवार पर रखी वो डिज़ीटल दीवार घड़ी, जिसे विशाल जी अपने घर से उतार लाये थे...समय देखने के लिए नही बल्कि तापमान देखने के लिए दोस्तों...!!! |
गुफा डेरे के बाहर खड़ा मैं। |
अब, गुफा के आगे खड़े हो फोटो खिंचावने की बारी विशाल जी की थी। |
गुफा के बाहर थोड़ी दूरी पर ही यह पलंग नुमा शिला पड़ी थी। |
लो, मैं भी लेट कर देखता हूँ...!! |
गुफा से वापसी के समय खींचा हुआ चित्र। |
वापसी का सफर। |
(2) "पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास"....यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(3) "चलो, चलते हैं सर्दियों में खीरगंगा ".....यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।