भाग-25 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....
" जब दिल ही टूट गया, तो तेरे संग कैसे नाचे विकास...! "
इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र (https://vikasnarda.blogspot.com/2017/04/1-shrikhand-mahadev-yatra5227mt.html?m=1) स्पर्श करें।
पिछली किश्त में आप लोगों ने पढ़ा कि मैं और विशाल रतन जी श्री खंड महादेव कैलाश शिला से मात्र डेढ़ किलोमीटर पहले बर्फीले तूफ़ान में फंस जाने के कारण नाकामयाब हो कर वापस पार्वती बाग पहुँच चुके थे, हमारा पथप्रदर्शक केवल राम हमसे आगे वापस भीमद्वारी को जा चुका था... हम दोनों अब धीरे-धीरे पार्वती बाग से वापस भीमद्वारी की ओर उतर रहे थे, उतर क्या अपने-आप को घसीट रहे थे क्योंकि नाकामयाबी ने हमारे तन और मन को बेहद भारी कर दिया था.... तभी हम उस निश्चित स्थान पर पहुँचें, जहाँ से हमने सुबह अंधेरे में पहाड़ के ऊपर दिख रही श्री खंड महादेव शिला के दर्शन किये थे, मैने फिर से उस ओर देखा तो.. एक नज़र देखने के बाद मेरी फिर से हिम्मत ना हुई कि मैं दोबारा श्री खंड महादेव शिला की ओर देख भी लूँ क्योंकि मुझे ऐसी अनुभूति हुई कि श्री खंड महादेव शिला मेरी टूट चुकी अकड़ पर हंस रही हो, जैसे मेरा मजाक उड़ा रही हो कि... " बड़ा पर्वतारोही बन घूम रहा था तू विकास, ले तुझे भी सबक दे दिया..! " मानों श्री खंड महादेव के आगे मुझे अपनी औकात दिखाई देने लगी।
मैं तब विशाल जी को बोला, " मुझे आज ज्ञान व अनुभव हुआ क्यों हमारे पूर्वजों ने क्यों इतनी कठिनाई भरी तीर्थ यात्राएँ इन तीर्थो तक पहुँचने के लिए बनाईं.... इसलिए कि मनुष्य अपने घर-समाज में अपनी "मैं" में रचा बसा होता था या अब भी है, कि मैं अमीर हूँ, बलवान हूँ, यह हूँ, वो हूँ... परन्तु जब वह तीर्थ पर चलने के लिए पर्वत के नीचे खड़ा हो, उसकी ऊँचाई को आ देखता है तो उसे अपने असली कद का अहसास होता है...जब वह उस पर्वत पर चढ़ता है तो उसे अपनी औकात का अहसास होता है, जैसे-जैसे वह कठिनाई से भरी उस तीर्थ यात्रा पर बढ़ता जाता है...उसके अंदर की अकड़ ढीली पड़नी आरंभ होनी लगती है और भीतर घर कर चुकी "मैं" भी मरने लगती है... जब वह व्यक्ति तीर्थ स्थल पर पहुँचता है तो उसके भीतर नवनिर्माण हो चुका होता है, एक " मैं रहित" मनुष्य का, तब वह कह उठता है " बस तू ही तू... तू ही तू.... तू ही तू....!!!
दोपहर के दो बज चुके थे रास्ता बेहद कीचड़युक्त हो चुका था, जिससे हमारी चाल में और ज्यादा भारीपन आ गया था... तड़के सुबह के अंधेरे में ना दिखी पार्वती बाग की सुंदरता अब दिन के उजाले में आँखों के समक्ष नाच रही थी, परन्तु अब वो सुंदरता किस को मोह रही थी क्योंकि "जब दिल ही टूट गया, तो तेरे संग कैसे नाचे विकास...! " पार्वती बाग में खिले फूल तो पहले की तरह ही मुस्कुरा रहे थे, मानों मेरे ताज़ा जख्मों पर मरहम लगा रहे हो।
हमारे साथ कई सारे लोग और भी वापस उतर रहे थे, पर किसी के चेहरे पर चहचहाहट नही थी, सबके सब मुरझायें हुए थे ठीक मेरी तरह। मैने किसी से भी बात नही की क्योंकि मुझे अपना दुख सबसे भारी लग रहा था......खामोशी में अपने-आप को बस घसीटता हुआ चल रहा था विशाल जी के आगे-अागे।
थक- हार कर एक जगह बैठ गया, बूट कीचड़ से सने हुए थे... और विशाल जी मुझ से 20कदम ऊपर बैठे रहे.....पर हम दोनों खामोश और दूर नीचे दिख रही भीमद्वारी को देखते रहे, कुछ समय बाद एक कुत्ता मेरे पास आ बैठा, पता नही क्यों मेरे चेहरे पर अब कुछ खुशी के भाव उत्पन्न हो गए और एकाएक वह कुत्ता उठ विशाल जी के पास जा बैठा... एक सुख का अहसास हुआ उस वक्त हम दोनों के लिए उस कुत्ते का मिलना कि कोई तो आया हमारे पास हमे पूछने, " चाहे वो किसी भी रुप में आया हो, पर आया जरूर....!"
उतराई उतरते-उतरते अब हम दोनों को पार्वती झरने ने रोक लिया, करीब सौ मीटर की ऊँचाई से अथाह जल को गिरते देखना हर किसी के लिए आकर्षण का केन्द्र है... इस मनमोहक जल प्रपात को हम सुबह अंधेरे में सिर्फ सुन पाये थे, अब इस जल प्रपात का दृश्य ही इतना हसीन था कि कानों ने अब इस झरने के शोर को अनसुना कर दिया... इस सुंदरता ने हमारे मायूस मन को कुछ समय के लिए बहला सा दिया, चंद चित्र पार्वती झरने के साथ खिंचवा कर, हम दोनों उतर चले भीमद्वारी की ओर.... शाम साढे चार बजे हम भीमद्वारी अपने टैंट पर पहुँच गए, टैंट मालिक नवनीत से सामना हुआ तो उसकी नज़रो में हम बेचारों के लिए सहानुभूति थी....पथप्रदर्शक केवल राम के बारे में पूछा तो नवनीत ने कहा कि उसे तो बुखार हो गया है, वह दोपहर से ही सो रहा है......खैर हम भी जा गिरे अपने टैंट में, गीली ज़ुराबों ने पैरों को बूढ़ा बना दिया था.... नवनीत द्वारा परोसा गया वेजीटेबल सूप पी हम लेट गए क्योंकि आज पर्वत शिखरों पर सांयकाल को पड़ने वाली सूर्य की अंतिम किरणों को निहारनें की इच्छा मर चुकी थी, सो मन-दिमाग को निराशा की सोच से आजाद करने के लिए अपनी आँखें बंद कर ली।
शाम साढे सात बजे केवल हमे जगा कर बोला, " भैया रसोई में आ जाओ, खाना तैयार है..! "
वही कल वाली रसोई, वही कल वाला जलता हुआ चूल्हा, वही कल जैसा स्वादिष्ट भोजन... परन्तु आज उस रसोई में हमारी खामोशी पसरी हुई थी... सोने से पहले हमने तय किया कि कल सुबह जल्दी-से-जल्दी भीमद्वारी छोड़ देना है।
अगली सुबह 5बजे उठ.... 6बजे वापसी की डगर थाम ली, परन्तु हमारे कदमों में वो उछाल व मन में संतुष्टि नही थी, जो किसी मंजिल को प्राप्त करने के बाद वापसी पर होती है...मेरा मन बेचैन का बेचैन सा ही चल रहा था.... बार-बार बेचैनी से पीछे मुड़ कर भीमद्वारी और पार्वती बाग की तरफ देख रहा था, जैसे मेरा वहाँ कुछ छूट गया हो.... चलते-चलते मैने भीमद्वारी में बैठी प्रकृति की सुंदरी देवी से मन ही मन वादा किया कि फिर से आऊँगा, तुम मेरी अर्जी भगवान शिव तक पहुँचा देना।
रास्ते में मिलते लोगों संग हमराही बन चलते रहे और उन सब लोगों में मेरी तरह ही नाकामयाब लोग ही ज्यादा थे, हर कोई अपनी कहानी....क्या कहूँ दुखड़ा रो रहा था। सच कहूँ दोस्तों, हम सब आपस में अपना दुख बांट रहे थे और अब मुझे अपना दुख कुछ हल्का महसूस होने लग पड़ा था।
सुबह 9बजे हम कुंशा के हरे-भरे घास के मैदानों में से गुज़र रहे थे, दूर पहाड की हरियाली पर भेड़ों के झुंड ऐसे चमक रहे थे जैसे शाम के धुंधले से आसमान में तारे निकल आए हो... कुंशा के मनमोहक पुष्प अब भी मुझे देख मुस्कुरा रहे थे, सो मैं भी अब उनकी मुस्कुराहट का जवाब मुस्कुराहट से ही दे रहा था क्योंकि नाकामयाबी का दुख अब कुछ कम हो चुका था.... कुंशा नाले के ग्लेशियर को पार कर अब हम भीमतलाई की तरफ वापस उतर रहे थे।
दोस्तों, एक बात अब बताता हूँ आपको.... मैने जब इस चित्रकथा को लिखने के बारे में सोचना शुरू किया तो सर्वप्रथम यह सोच मन में आई कि क्या मैं इस "अधूरी यात्रा" को लिखूँ या नही..... अगर लिखूँ तो इस यात्रा की चित्रकथा को क्या शीर्षक दूँ... यात्रा अधूरी होने के कारण मैने इस धारावाहिक चित्रकथा को नाम दिया, " श्री खंड महादेव कैलाश की ओर..." चाहे यह यात्रा अधूरी है...मंजिल नही हासिल हो पाई, पर रास्ता और रास्ते के खट्टे-मीठें अनुभवों व अनुभूतियाँ बेहद यादगार व हसीन रहे दोस्तों।
...............................(क्रमश:)
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" जब दिल ही टूट गया, तो तेरे संग कैसे नाचे विकास...! "
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पिछली किश्त में आप लोगों ने पढ़ा कि मैं और विशाल रतन जी श्री खंड महादेव कैलाश शिला से मात्र डेढ़ किलोमीटर पहले बर्फीले तूफ़ान में फंस जाने के कारण नाकामयाब हो कर वापस पार्वती बाग पहुँच चुके थे, हमारा पथप्रदर्शक केवल राम हमसे आगे वापस भीमद्वारी को जा चुका था... हम दोनों अब धीरे-धीरे पार्वती बाग से वापस भीमद्वारी की ओर उतर रहे थे, उतर क्या अपने-आप को घसीट रहे थे क्योंकि नाकामयाबी ने हमारे तन और मन को बेहद भारी कर दिया था.... तभी हम उस निश्चित स्थान पर पहुँचें, जहाँ से हमने सुबह अंधेरे में पहाड़ के ऊपर दिख रही श्री खंड महादेव शिला के दर्शन किये थे, मैने फिर से उस ओर देखा तो.. एक नज़र देखने के बाद मेरी फिर से हिम्मत ना हुई कि मैं दोबारा श्री खंड महादेव शिला की ओर देख भी लूँ क्योंकि मुझे ऐसी अनुभूति हुई कि श्री खंड महादेव शिला मेरी टूट चुकी अकड़ पर हंस रही हो, जैसे मेरा मजाक उड़ा रही हो कि... " बड़ा पर्वतारोही बन घूम रहा था तू विकास, ले तुझे भी सबक दे दिया..! " मानों श्री खंड महादेव के आगे मुझे अपनी औकात दिखाई देने लगी।
मैं तब विशाल जी को बोला, " मुझे आज ज्ञान व अनुभव हुआ क्यों हमारे पूर्वजों ने क्यों इतनी कठिनाई भरी तीर्थ यात्राएँ इन तीर्थो तक पहुँचने के लिए बनाईं.... इसलिए कि मनुष्य अपने घर-समाज में अपनी "मैं" में रचा बसा होता था या अब भी है, कि मैं अमीर हूँ, बलवान हूँ, यह हूँ, वो हूँ... परन्तु जब वह तीर्थ पर चलने के लिए पर्वत के नीचे खड़ा हो, उसकी ऊँचाई को आ देखता है तो उसे अपने असली कद का अहसास होता है...जब वह उस पर्वत पर चढ़ता है तो उसे अपनी औकात का अहसास होता है, जैसे-जैसे वह कठिनाई से भरी उस तीर्थ यात्रा पर बढ़ता जाता है...उसके अंदर की अकड़ ढीली पड़नी आरंभ होनी लगती है और भीतर घर कर चुकी "मैं" भी मरने लगती है... जब वह व्यक्ति तीर्थ स्थल पर पहुँचता है तो उसके भीतर नवनिर्माण हो चुका होता है, एक " मैं रहित" मनुष्य का, तब वह कह उठता है " बस तू ही तू... तू ही तू.... तू ही तू....!!!
दोपहर के दो बज चुके थे रास्ता बेहद कीचड़युक्त हो चुका था, जिससे हमारी चाल में और ज्यादा भारीपन आ गया था... तड़के सुबह के अंधेरे में ना दिखी पार्वती बाग की सुंदरता अब दिन के उजाले में आँखों के समक्ष नाच रही थी, परन्तु अब वो सुंदरता किस को मोह रही थी क्योंकि "जब दिल ही टूट गया, तो तेरे संग कैसे नाचे विकास...! " पार्वती बाग में खिले फूल तो पहले की तरह ही मुस्कुरा रहे थे, मानों मेरे ताज़ा जख्मों पर मरहम लगा रहे हो।
हमारे साथ कई सारे लोग और भी वापस उतर रहे थे, पर किसी के चेहरे पर चहचहाहट नही थी, सबके सब मुरझायें हुए थे ठीक मेरी तरह। मैने किसी से भी बात नही की क्योंकि मुझे अपना दुख सबसे भारी लग रहा था......खामोशी में अपने-आप को बस घसीटता हुआ चल रहा था विशाल जी के आगे-अागे।
थक- हार कर एक जगह बैठ गया, बूट कीचड़ से सने हुए थे... और विशाल जी मुझ से 20कदम ऊपर बैठे रहे.....पर हम दोनों खामोश और दूर नीचे दिख रही भीमद्वारी को देखते रहे, कुछ समय बाद एक कुत्ता मेरे पास आ बैठा, पता नही क्यों मेरे चेहरे पर अब कुछ खुशी के भाव उत्पन्न हो गए और एकाएक वह कुत्ता उठ विशाल जी के पास जा बैठा... एक सुख का अहसास हुआ उस वक्त हम दोनों के लिए उस कुत्ते का मिलना कि कोई तो आया हमारे पास हमे पूछने, " चाहे वो किसी भी रुप में आया हो, पर आया जरूर....!"
उतराई उतरते-उतरते अब हम दोनों को पार्वती झरने ने रोक लिया, करीब सौ मीटर की ऊँचाई से अथाह जल को गिरते देखना हर किसी के लिए आकर्षण का केन्द्र है... इस मनमोहक जल प्रपात को हम सुबह अंधेरे में सिर्फ सुन पाये थे, अब इस जल प्रपात का दृश्य ही इतना हसीन था कि कानों ने अब इस झरने के शोर को अनसुना कर दिया... इस सुंदरता ने हमारे मायूस मन को कुछ समय के लिए बहला सा दिया, चंद चित्र पार्वती झरने के साथ खिंचवा कर, हम दोनों उतर चले भीमद्वारी की ओर.... शाम साढे चार बजे हम भीमद्वारी अपने टैंट पर पहुँच गए, टैंट मालिक नवनीत से सामना हुआ तो उसकी नज़रो में हम बेचारों के लिए सहानुभूति थी....पथप्रदर्शक केवल राम के बारे में पूछा तो नवनीत ने कहा कि उसे तो बुखार हो गया है, वह दोपहर से ही सो रहा है......खैर हम भी जा गिरे अपने टैंट में, गीली ज़ुराबों ने पैरों को बूढ़ा बना दिया था.... नवनीत द्वारा परोसा गया वेजीटेबल सूप पी हम लेट गए क्योंकि आज पर्वत शिखरों पर सांयकाल को पड़ने वाली सूर्य की अंतिम किरणों को निहारनें की इच्छा मर चुकी थी, सो मन-दिमाग को निराशा की सोच से आजाद करने के लिए अपनी आँखें बंद कर ली।
शाम साढे सात बजे केवल हमे जगा कर बोला, " भैया रसोई में आ जाओ, खाना तैयार है..! "
वही कल वाली रसोई, वही कल वाला जलता हुआ चूल्हा, वही कल जैसा स्वादिष्ट भोजन... परन्तु आज उस रसोई में हमारी खामोशी पसरी हुई थी... सोने से पहले हमने तय किया कि कल सुबह जल्दी-से-जल्दी भीमद्वारी छोड़ देना है।
अगली सुबह 5बजे उठ.... 6बजे वापसी की डगर थाम ली, परन्तु हमारे कदमों में वो उछाल व मन में संतुष्टि नही थी, जो किसी मंजिल को प्राप्त करने के बाद वापसी पर होती है...मेरा मन बेचैन का बेचैन सा ही चल रहा था.... बार-बार बेचैनी से पीछे मुड़ कर भीमद्वारी और पार्वती बाग की तरफ देख रहा था, जैसे मेरा वहाँ कुछ छूट गया हो.... चलते-चलते मैने भीमद्वारी में बैठी प्रकृति की सुंदरी देवी से मन ही मन वादा किया कि फिर से आऊँगा, तुम मेरी अर्जी भगवान शिव तक पहुँचा देना।
रास्ते में मिलते लोगों संग हमराही बन चलते रहे और उन सब लोगों में मेरी तरह ही नाकामयाब लोग ही ज्यादा थे, हर कोई अपनी कहानी....क्या कहूँ दुखड़ा रो रहा था। सच कहूँ दोस्तों, हम सब आपस में अपना दुख बांट रहे थे और अब मुझे अपना दुख कुछ हल्का महसूस होने लग पड़ा था।
सुबह 9बजे हम कुंशा के हरे-भरे घास के मैदानों में से गुज़र रहे थे, दूर पहाड की हरियाली पर भेड़ों के झुंड ऐसे चमक रहे थे जैसे शाम के धुंधले से आसमान में तारे निकल आए हो... कुंशा के मनमोहक पुष्प अब भी मुझे देख मुस्कुरा रहे थे, सो मैं भी अब उनकी मुस्कुराहट का जवाब मुस्कुराहट से ही दे रहा था क्योंकि नाकामयाबी का दुख अब कुछ कम हो चुका था.... कुंशा नाले के ग्लेशियर को पार कर अब हम भीमतलाई की तरफ वापस उतर रहे थे।
दोस्तों, एक बात अब बताता हूँ आपको.... मैने जब इस चित्रकथा को लिखने के बारे में सोचना शुरू किया तो सर्वप्रथम यह सोच मन में आई कि क्या मैं इस "अधूरी यात्रा" को लिखूँ या नही..... अगर लिखूँ तो इस यात्रा की चित्रकथा को क्या शीर्षक दूँ... यात्रा अधूरी होने के कारण मैने इस धारावाहिक चित्रकथा को नाम दिया, " श्री खंड महादेव कैलाश की ओर..." चाहे यह यात्रा अधूरी है...मंजिल नही हासिल हो पाई, पर रास्ता और रास्ते के खट्टे-मीठें अनुभवों व अनुभूतियाँ बेहद यादगार व हसीन रहे दोस्तों।
...............................(क्रमश:)
"बड़ा पर्वतारोही बन घूम रहा था तू विकास, ले तुझे भी सबक दे दिया...! " पार्वती बाग से दिख रही श्री खंड महादेव कैलाश शिला। |
पार्वती बाग से भीमद्वारी की ओर उतरना क्या... मैं तो अपने आप को बस घसीट रहा था, थक-हार कर एक जगह बैठ गया... बूट कीचड़ से सने हुए थे। |
वहीं बैठे हम दोनों नीचे दिख रही भीमद्वारी को देख रहे थे। |
इस कुत्ते का मेरे पास आना, बेहद सुखद अनुभव था... कुछ क्षण मेरे पास ठहर यह जनाब विशाल जी की ओर बढ़ गए। |
और, विशाल जी के पास काफी समय तक बैठे रहे ये महाशय... कोई तो आया हमारे पास, हमारा हाल जानने... चाहे किसी भी रुप में आया, पर आया तो...!! |
हमारी तरह ही हर किसी के चेहरे पर चहचहाहट गुम थी। |
परन्तु पार्वती बाग के पुष्प मुस्कुरा करे थे, मानों हमारे ताज़े जख्मों पर मरहम लगा रहे हो। |
पार्वती बाग की ढलान पर चर रही भेड़े.... |
और नीचे उतरे तो, पार्वती झरने के दर्शन होने लगे। |
और, इस खूबसूरती ने हमे कुछ समय के लिए बहला दिया.. सो चित्रों में खुद को कैद कर लिया। |
पार्वती जल प्रपात और विश्राम कर रहे कुछ लोग। |
पार्वती बाग में चर रही भेड़े का दृश्य। |
करीब सौ मीटर की ऊँचाई से गिर रहा जल प्रपात ..... पार्वती झरना। |
सुबह अंधेरे में पार्वती झरने के गिरने का शोर ही सुनाई दे रहा था, परन्तु अब इस हसीन झरने का दृश्य आँखों पर भारी था.. क्योंकि कानों ने अब शोर को अनसुना कर दिया था। |
पार्वती झरने से बह रहा जल... और उस पुल से दिख रहा भीमद्वारी। |
टैंट पर पहुँच पीछे मुड़ कर देखा यह हसीन दृश्य....! |
गीली ज़ुराबों ने मेरे पैरों को बूढ़ा बना दिया। |
वही कल वाली रसोई, वही कल वाला चूल्हा और वही कल जैसा स्वादिष्ट भोजन... परन्तु आज खामोशी पसरी हुई थी वहाँ। |
अगली सुबह 5बजे भीमद्वारी का दृश्य। |
सुबह 6बजे भीमद्वारी से रुख्स्त होते वक्त...! |
मैं बार-बार पीछे मुड़ कर ऐसे देख रहा था, जैसे मेरा कुछ भीमद्वारी में छूट गया था...अंतिम झलक। |
बादलों का झुरमुट... |
रास्ते में मिल रहे सहयात्री... सब अपनी नाकामयाबी का दुख एक-दूसरे संग बांट रहे थे। |
कुंशा के टैंट... |
कुंशा की हरियाली पर भेड़ों के झुंड ऐसे चमक रहे थे, जैसे सांयकाल में धुंधले हो चुके आसमान पर तारे निकल आये हो। |
कुंशा में खिले पुष्प की मुस्कुराहट...! |
वापसी पर विशाल जी और हमराही। |
कुंशा नाले से कुछ पहले.... |
कुंशा नाले के ग्लेशियर पर खड़ा मैं... |
किसी दुकान का सामान उठा नीचे ले जा रहे भारवाहक। |
अब हम भीमतलाई की ओर उतर रहे थे। |
( अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )
मंजिलो से भी ज्यादा आनंद कभी कभी सफर के रास्ते दे जाते है जी,
जवाब देंहटाएंकुशां के भेड़ो की बहुत सुदंर उपमा दी आपने जैसे गहरे काले उदासी के बादलों से उल्लास की सुर्य किरणें रह रह के मुस्करा उठती हो।😊😊
समापन की ओर भी वैसे ही बढ रहे है आप, रोचकता के साथ। 💐💐💐🙏🙏
वाह बहुत खूब कहा आपने अनुराग जी, कुंशा की भेड़ों पर लिखी आपकी यह बात...मेरी उपमा से बेहद ज्यादा खूबसूरत व घटना पर सटीक बैठती है, जी।
हटाएंक्या कहु आपके दुख में दुखी होकर में इस पोस्ट के बारे में कुछ नही कहना चाहता बस यही दुआ है कि आप फिर श्रीखंड महादेव के दर्शन कर पाए
जवाब देंहटाएंजी प्रतीक जी... आप की शुभकामनाएँ सदैव अंग-संग रहे मेरे.... जी।
हटाएं2014 में मुझे तो सिंहगाड़ से ही लौटना पड़ा था लेकिन खुद को फिर से तैयार करके मैंने दो बार दर्शन कर लिए है श्रीखंड के । आशा करता हूँ प्रकृति आपको फिर से अपने पास बुलाएगी ।
जवाब देंहटाएंरोहित जी, बेहद आभारी हूँ और आपकी शुभकामनाएं सदैव मेरे साथ रहे जी... इस असफलता के बाद मैने कई सफल व सम्पूर्ण ट्रैक किये.... यह यात्रा हार-जीत नही बल्कि सीख साबित हुई मेरे लिए.... पुन: फिर जाता चाहता हूँ परन्तु अलग रास्ते "फानचा गाँव" की तरफ से.....जिसमें किसी प्रकार कोई भी सुविधा नही है, शायद यह मेरी शिव को समर्पित अग्निपरीक्षा ही हो.....!
हटाएंचलो इस बार मे भी इसी रास्ते से करना cahta हूँ श्रीः खंड महादेव जी के दर्शन
हटाएंनमन है सर आपको
जवाब देंहटाएंजो दुखी दिल से भी जीवंत लेखन कर दिया आपने
बेहद धन्यवाद महेश जी।
हटाएंबहुत दुखद बात है कि आपकी यात्राा अधूरी रह गई, पर कोई बात नहीं जी अगली बार महादेव आपको दर्शन जरूर देंगे।
जवाब देंहटाएंअभयानंद जी, आपकी शुभकामनाएं सदैव मेरे साथ रहेगी जी।
हटाएंपहाड़ों में कभी भी समय के बंधन में बंध कर न जाये। कुछ दिन रिजर्व रखा करे।
जवाब देंहटाएंउम्मीद है अब अवश्य रखोगे...
दुःखद
जवाब देंहटाएंभोले नाथ ने अपने दूत भैरो को आपके पास भेज कर आपको अपना आशीर्वाद दे दिया। दर्शन तो हो ही गए चाहे दूर से ही सही । बाक़ी जैसी भोले की
जवाब देंहटाएंमर्जी