गुरुवार, 6 जून 2019

मेरी लाखामण्डल यात्रा, जहाँ मुर्दे फिर से जी उठते थे..!!

 मेरी लाखामण्डल यात्रा, जहाँ मुर्दे फिर से जी उठते थे..!! 

"राम नाम सत्य है"
             "राम नाम सत्य है"  की आवाज़ें निरंतर पास आती जा रही थी और तभी कुछ दूर मेरी आँखों में सबसे पहले उस ऊँची जगह की ओर चढ़ती चली आ रही मानव आकृतियाँ स्पष्ट हुई,  जिनके कंधों पर एक अर्थी थी।
                       उस शव यात्रा समूह के मंदिर प्रांगण में प्रवेश करते ही चबूतरे पर चढ़ा ढोली अपना ढोल एक अलग लय में ऐसे पीटने लगा, जैसे किसी को जगा रहा हो। मंदिर प्रांगण में स्थित कई सारे शिव मंदिरों को पार कर आखिर अर्थी को एक ऐसे शिव मंदिर के द्वार पर रख दिया,  जिसका मुख पश्चिम दिशा की ओर है.... जबकि प्रांगण में मौजूद बाकी सभी मंदिरों के प्रवेशद्वार सूर्यादय दिशा यानि पूर्व की ओर है, जो साधारणतय प्रत्येक मंदिर का होता ही है। पश्चिम दिशा के मुख वाले इस शिव मंदिर के द्वार पर सफेद कफ़न में लिपटी लाश की अर्थी मंदिर के बाहर खड़ी दो द्वारपालों की मूर्तियों के मध्य पड़ी है। अर्थी उठाने वाले उस मृतक के सगे-सम्बंधी और गाँव वाले इस चिलचिलाती धूप में मंदिर के समक्ष भूमि पर बैठ जाते हैं। मंदिर प्रांगण के सामने घाटी में बह रही यमुना नदी के शीतल जल को छू कर आई हवा की हल्की-हल्की फुहारे रह-रहकर कफ़न के छोरों को हिला रही थी। औरतें मर्दों से अलग कुछ दूरी पर बैठ चुकी थी, रह-रह कर उनके बीच में से सुबकियों-सिसकियों की आवाजे़े माहौल में करुणा पैदा कर रही थी..... जबकि पुरुष दल मौन बैठा था।
                          ढोल बजना अब बंद हो चुका था,  सब लोगों की नज़र मंदिर के द्वार पर गड़ी थी।  कुछ किशोरों व नवयुवकों के मुख पर जिज्ञासा का भाव स्पष्ट दिख रहा था कि क्या सच में अर्थी पर पड़ा व्यक्ति एक बार फिर से जीवित हो उठेगा। मंदिर के भीतर से एक श्वेत वस्त्रधारी पुजारी हाथ में गंगा-यमुना मिश्रित जल का पात्र ले, द्वार पर पड़ी अर्थी के सिर के पास खड़ा हो मंत्रोच्चारण करने लग जाता है।
                लाश से कफ़न हटा लिया जाता है, यह वो अभागा नौजवान था जो पेड़ से लकड़ी काटते हुए उसपर से नीचे गिर अकस्मात् मृत्यु को प्राप्त हो गया है। पुजारी बार-बार मंत्रोच्चारण कर हाथ में पकड़े गंगा-यमुना जल के पात्र में फूँक मारकर जल को अभिमंत्रित करता जा रहा था और कुछ समय बाद उस अभिमंत्रित जल के छीटें उस अभागे मृतक युवक के मुंह पर जोर से मार,  पुजारी खामोश हो उस लाश को वैसे ही एकटक देखने लगा जैसे प्रांगण में हर कोई उसे टकटकी बांध देख रहा था।
                     अब, मंदिर प्रांगण में पसरी खामोशी को झिंगरों की आवाज़ें व मंदिर के कलश पर बैठे पहाड़ी कौवे की कांव-कांव तोड़ रही थी।
                   तभी,  उस लाश में हलचल हुई और दूसरे क्षण उस युवक ने एकदम से अपनी आँखें खोली... तीसरे क्षण अर्थी पर ऐसे उठ बैठा,  जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने उसे खींच कर उठा दिया हो।  अब तक शांत बैठे उसके सगे-सम्बंधी व अन्य जन एकदम से अर्थी को घेरकर खड़े हो गए। अर्थी पर बैठे उस युवक के पीले पड़ चुके भावहीन चेहरे पर सबकी नज़रे गड़ी हुई थी। वह अपने सगे सम्बंधियों की ओर अपनी पत्थराई आँखों से देख रहा था,  जो अभी तक एक बार भी झपकी नहीं थी।
                  औरतों के झुरमुट में से एक स्त्री दहाड़े मारकर उस युवक से जा लिपटी,  वह उस कुंवारे युवक की माँ थी जो पागलों की भांति अब एक ही बात को दोहरा रही थी- "मैं तुम्हें अब दोबारा मरने नहीं दूंगी.... मैं तुम्हें अब दोबारा मरने नहीं दूंगी,  हे महादेव मेरा बेटा मुझे लौटा दो... पंडित जी मुझे मेरा बेटा वापस दे दो...!!"
                     मां के करुणात्मक रुदन से उस युवक के भावहीन चेहरे पर पहले एक हल्की सी मुस्कान और फिर गंभीरता छा गई,  उसकी पत्थराई आँखों में भावनाओं का पानी जाने कहाँ से उमड़ आया।  पुजारी के इशारे पर गाँव की औरतें उस औरत को खींचकर पीछे ले गई क्योंकि उस कर्म को पूर्ण करना था,  जिसके लिए इस लाश को केवल कुछ क्षणों के लिए ही पुन: जीवित किया गया है। पुजारी उस युवक के मुँह में तीन कोर दूध-भात (खीर) के डाल,   उसे खाने का निर्देश देता है और बाद में गंगा-यमुना जल पिलाया जाता है.....तत्पश्चात पुजारी अकस्मात् मृत्यु को प्राप्त हुए उस युवक को वह अवसर देता है जिससे उसकी आत्मा को मुक्ति मिल सके। पुजारी उस युवक से सात बार 'राम' नाम उच्चारण करवा कर फिर से अर्थी पर लेटा कर, मंत्रोच्चारण करते हुए युवक की आँखों को अपने हाथ से बंद कर उस पर कफ़न डाल देता है।
                     मंदिर के चबूतरे पर चढ़ा डोली अपने ढोल को फिर से पीटना आरंभ कर देता है और मंदिर प्रांगण में रोने-चीखने की मर्मस्पर्शी आवाज़ें गूंजने लगती हैं....और लोग अर्थी को उठाकर श्मशान भूमि की ओर बढ़ चले।
               ( "लाखामंडल परिसर में मेरी अनुभूति" )
                
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              मित्रों, अब यह वर्णन है मेरी लाखामंडल यात्रा का.... जब मैं सपरिवार 30सितंबर 2017 के दिन यमुनोत्री जाते समय बीच रास्ते में आते लाखामंडल गाँव को भी देखने चल पड़ता हूँ। लाखामंडल से मेरी पहचान बहुत साल पहले समाचार पत्र में छपी एक लेख से हुई थी। तब के उत्तर प्रदेश या अब के उत्तराखंड में देहरादून-यमुनोत्री मार्ग पर यमुनोत्री से करीब 70किलोमीटर पहले वह स्थान आता है, जहाँ महाभारत सम्बंधित कौरवों ने षड्यंत्रकारी सोच से अपने चचेरे भाई पांडवों को जीवित जलाने हेतु लाक्षागृह नामक अत्यंत ज्वलनशील पदार्थ 'लाख' से एक इमारत बनवाई गई थी।
                  सुबह मुँह अंधेरे से अपने शहर 'गढ़शंकर' (पंजाब) से चली मेरी गाड़ी भागम-भाग कर मुख्य सड़क छोड़ शाम के चार बजे लाखामंडल के स्वागती द्वार के आगे खड़ी मुस्कुरा रही थी। कुछ आगे बढ़े तो सुंदर पर्वतों से घिरी चौड़ी घाटी में बह रही यमुना देख हमारी आँखें भी मुस्कुरा उठी।  घाटी में यमुना किनारे के समतल खेत और उन में उगी अलग-अलग रंगों की उपजों ने मेरे दिमाग में एक बेहद हसीन दृश्य को याद रखने की उपज बो दी थी।
                     चंद मिनटों के सफर के उपरांत हम लाखामंडल मंदिर को जाते रास्ते पर एक सुंदर से काठ- द्वार के समक्ष खड़े थे। छोटे से गाँव लाखामंडल के चंद घरों के पीछे कुछ ऊँचाई पर बने लाखामंडल मंदिर का शिखर और ध्वज नज़र आ रहा था।  मंदिर की तरफ ले जा रही गली भी हमें अपनी खूबसूरती दिखाकर इतरा रही थी। स्लेटों से बनी छतों के मकानों को पार करवा गली हमें लाखामंडल मंदिर परिसर को चढ़ती 19सीढ़ियों तक ले आई।
                          मुझे चित्र खींचता देख, मेरी तरह के ही एक 'मूँछधारी सज्जन'  ने उन घरों से निकलकर हमें  अभिनंदन कर अपना परिचय दें कहा कि मैं यहाँ के तैंतीस कोटी देवताओं का वज़ीर हूँ, जो लोग बाहर से आते हैं... उन्हें मैं मंदिर व यहाँ इतिहास से रूहबरूह करवाता हूँ।
             और..... मैं ठहरा जानकारियाँ पाने का भयंकर भुख्खड़,  सो झट से उन्हें लपक लिया और प्रश्न किया- "आपका नाम..?"
                 तो, वे सज्जन खुद ही अपने नाम के आगे 'श्री' लगा कर बोले- "मेरा नाम... श्री पंडित महिमानंद है।" तभी मंदिर की सीढ़ियों से स्थानीय वेशभूषा में एक युवती दोनों हाथों में पानी से भरी बाल्टियाँ ले नीचे उतर रही थी तो पंडित महिमानंद जी ने उस युवती के कंधे पर हाथ रख खुशी से कहा- "लो हमारी इस बेटी के साथ आप एक चित्र खींच लो। "   मैं पहाड़ी लोगों के इसी भोलेपन का हमेशा कायल रहा हूँ।  अब मेरी बेटी "अनन्या"  भी उस युवती के के साथ पानी  की एक बाल्टी हाथ में पकड़ अपनी फोटो खिंचवा रही थी।  जैसे ही हम ऊपर की ओर चढ़े तो पंडित महिमानंद जी ने कहा- " यह आपके लिए अति शुभ संकेत है कि आप को मंदिर में दाखिल होने से पहले जल से भरे पात्र मिले और यह प्रथा है कि जब किसी को ऐसा शुभ संकेत मिलता है तो वह जल के पात्र में उपहार स्वरूप सिक्का डाल देता है। "  तो मैंने झट से पीछे मुड़कर देखा तो वह युवती वहाँ से जा चुकी थी और मेरी पत्नी "भावना" ने अफसोस से कहा- "तो आप यह बात हमें तभी बता देते पंडित जी..!"
                   पंडित जी कुछ मुस्कुराए और बोले- "चलो कोई बात नहीं"  और हमें ले मुख्य मंदिर की ओर बढ़ गए जो संपूर्ण मंदिर प्रांगण में कई सारे मंदिरों के अवशेषों में संपूर्णता लिए खड़ा था।
                          नागर शैली में बने प्रभु रूद्र के अवतार भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर की दशा बता रही थी यह मंदिर बाकी के मंदिरों की तुलना में नवीन है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा किए सर्वेक्षण द्वारा इस लाखामंडल मंदिर समूह में निर्मित संरचना के आधार पर लाखामंडल निर्माण की प्राचीनतम तिथि पांचवी सदी अनुमानित की गई है और मंदिर परिसर से ही प्राप्त एक प्राचीन अभिलेख में उल्लेख है कि सिंहपुर की राजकुमारी "ईश्वरा" ने अपने पति चंद्रगुप्त (जो जालंधर के राजा का पुत्र था) की हाथी से गिरने की वजह से हुई अकस्मात् मृत्यु पर उसकी सद्गति के लिए इस शिव मंदिर का निर्माण करवाया था। पूर्व मुख के शिव मंदिर के बिल्कुल साथ ही एक छतविहीन बड़े शिव मंदिर के अवशेष भी दिखाई पड़े,  जिसका मुख पश्चिम दिशा की ओर है।  जन धारणा के अनुसार इस मंदिर में स्थापित बड़े से शिवलिंग की स्थापना पांडव राज युधिष्ठिर ने की थी।
                         पंडित महिमानंद जी सबसे पहले हमें ले मुख्य मंदिर के पास पहुँचे,  तो मंदिर के बाहर स्थापित नंदी की दोनों खंडित मूर्तियाँ देख मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने हथौड़े से इन पर वार किये है..... और मेरा अनुमान एकदम सही निकला जब पूछने पर पंडित महिमानंद जी ने कहा- "हां, औरंगजेब की क्रूरता इन मंदिरों ने भी झेली है।"   मंदिर के अंदर शिवलिंग के साथ- साथ कई सारी सुंदर-सुंदर मूर्तियाँ भी स्थापित थी और माँ पार्वती की चरण छाप भी।  परंतु मंदिर के अंदर पंडित जी ने मेरे परम मित्र (कैमरे को) जरा भी बोलने नहीं दिया, खैर हर स्थान के अपने नियम-कानून होते हैं उन्हें सहन ही करना पड़ता है दोस्तों।
                             पंडित महिमानंद जी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा कि लाखामंडल में सवा लाख  शिवलिंग की स्थापना हुई है तो मैंने लाखामंडल नाम की संधि को अलग-अलग कर बोला- "अच्छा तो तभी इस ग्राम को "लाख-मंडल" कहा जाता है।"
             पंडित जी ने कहा- "जी हां, यह भी कहा जा सकता है परंतु इस स्थान का संबंध महाभारत से भी है, क्योंकि पांडवों की मौत को दुर्घटना बनाने के लिए कौरवों ने लाख जैसे अति ज्वलनशील पदार्थ से लाक्षागृह नामक भवन को यहीं बनवाया था।  इन सभी शिव लिंगों में मुख्यतः चार शिवलिंग चारों युग के हैं, जैसे अभी आप मंदिर के गर्भ में जिस शिवलिंग के दर्शन कर बाहर आए हैं... वह सतयुग का है और इसकी खोज भी बड़ी दिलचस्प है।  सतयुग में यमुना पार से एक गडरिया अपने पशु प्रतिदिन यहाँ चराने आने लगा, तो उसकी एक गाय हर रोज एक निश्चित जगह पर खड़ी हो जाती। उसके थानों से दूध की धारा उस जगह पर खुद-ब-खुद गिरने लगती और वह गाय उस विशेष स्थान की परिक्रमा कर वहाँ ऐसे बैठ जाती,  जैसे भक्त अपने आराध्या के समक्ष बैठता है।  खोज खबर हुई तो इस स्थान पर कुछ मिट्टी हटाने पर यह शिवलिंग प्रकट हुआ। उस गाय माता को इस शिवलिंग की खोजी माना जाता है,  तभी तो जब  12वीं सदी में राजकुमारी ईश्वरा ने जब अपने स्वर्गीय पति चंद्रगुप्त की सद्गति व आध्यात्मिक उन्नति के लिए इस शिव लिंग के ऊपर नवीन मंदिर बनवाया, तो मंदिर में लगे पत्थरों पर गाय के खुर के निशान सी मीनाकारी भी करवाई। मंदिर के अर्धमण्डव में स्थापित हरे रंग के शिवलिंग को पंडित जी द्वारा भगवान कृष्ण समयकालीन द्वापर युग का बताया गया और अर्धमण्डल के पास बाहर की ओर पड़े मंदिर शिखर के पत्थर कलश के अवशेष में खड़े लाल रंग के एक शिवलिंग को पंडित जी ने प्रभु श्री राम समसामिक त्रेता युग का बता कर कहा कि कलयुग के शिवलिंग के दर्शन आपको अंत में करवाऊँगा। जिस की विशेषता यह है कि जब आप उस लिंग का जलाभिषेक करेंगे तब आपको शिवलिंग में अपना प्रतिबिंब नजर आएगा।
                    मंदिर की परिक्रमा करते-करते मंदिर की दक्षिणी दीवार में जड़ी हुई चमकदार काले पत्थर से निर्मित महिषासुर मर्दनी माँ की मूर्ति पर नमन कर पंडित जी हमें ले पश्चिम मुखी मंदिर अवशेषों की ओर बढ़ गए।
                    "अरे पंडित जी,  यह तो दो आदम कद मूर्तियाँ किनकी हैं, हावभाव से तो यह मंदिर के द्वारपाल लगते हैं।"
                        "जी हां,  ये दो अादमकद मूर्तियाँ 'द्वार' और 'पाल' की हैं। "
      "क्या कहा पंडित जी,  यह दो अलग-अलग व्यक्तियों के नाम है द्वार और पाल,  जबकि मैं तो द्वारपाल का मतलब दरवान या गेटकीपर ही समझता हूँ....! "
                 पंडित जी बोले- "तो आप,  इन दोनों के जन्म के संबंध में भी कुछ नहीं जानते होंगे..!!"  मैंने अपना सर ना की भाषा में ही हिलाया..... तो पंडित महिमानंद जी बोले- "द्वार-पाल का असली नाम वीर-भद्र है और इन के जन्मदाता स्वयं महादेव शिव है,  जब सती अपने पिता राजा दक्ष द्वारा आयोजित हवन में अपने पति से ना बुलाये जाने पर तिरस्कारपूर्ण हवन कुंड में कूद जल मरी.... तत्पश्चात क्रोधित हुए महादेव ने हवन कुंड की गर्म भस्म को अपने शरीर पर मल, उसी भस्म को उतार भूमि पर फेंक वीर और भद्र को पैदा किया तांकि राजा दक्ष को उसकी करनी की सजा दी जा सके।"
               पंडित जी की बात सुन मैं मन ही मन बदबुदाया-" स्वाह से भी क्या बंदे पैदा होते हैं..!!!!"
                      क्योंकि दोस्तों मैं सोच से तो नास्तिक ही हूँ परंतु समझ से आस्तिक बन जाता हूँ,  इसलिए कि चाहे कुछ भी हो मुझे अपने हिंदू धर्म के गौरवशाली इतिहास की किस्से-कहानियाँ सुनना अच्छा लगता है। सो, खामोशी भरी दिलचस्पी से पंडित जी की बातें सुनता रहा।
                      पंडित जी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा कि शिव के गण वीर और भद्र को त्रेता युग में 'जय' और 'विजय',  द्वापर युग में 'द्वार' और 'पाल' और अब कलयुग में इन दोनों को 'देव' और 'दानव' कहा जाता है.... गौर से देखिए इन दोनों मूर्तियों को,  जिनके सिर पर लगे मुकुट में हीरे-मोती हैं वह देव है, और दूसरी मूर्ति के सिर पर लगे मुकुट में मसान का चिन्ह है, वह दानव है।"
                                मैंने मन ही मन पंडित जी की कही बात का निष्कर्ष निकाला कि मूर्तिकार ने इन दोनों मूर्तियों के सिर पर गढ़े मुकुटों की बनावट से शिव के गणों के स्वभाव का चित्रण किया है। हीरे-मोती व फूल-पत्ते वाले मुकुट उस गण के नरम स्वभाव को दर्शाते हैं और मसान के चिन्ह वाले मुकुट उस गण की कठोर स्वभाव को। परंतु अब इस सवाल का जवाब कौन दे कि शिव के इन दोनों सहयोगी गणों में क्या भद्र ही अपने नाम स्वरुप भद्र व्यवहार का होगा।
                      दोस्तों,  हमारे हजारों साल पुराने इतिहास की लिखतों को समय-समय पर विरोधियों ने कत्ल किया शिलालेखों को तोड़ कर, प्राचीन ग्रंथों को जलाकर। जैसे 11वीं सदी के अंत में एक सिरफ़िरे बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय में संरक्षित लाखों की तादात में पुरातन ग्रंथों व पांडुलिपियों को आग के हवाले कर दिया,  यह कहते हुए कि मेरे धार्मिक ग्रंथ को छोड़ कर बाकी सब पुस्तकें रद्दी हैं...!!!
                  और, जो भी इतिहास आज हम सुनते हैं.... वह इतिहास ज्यादातर मौखिक रूप से ही चला आ रहा है जिसकी सच्चाई पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी मनगंढता जुड़ती गई।  एक छोटे से बच्चे के सवालों के तसल्लीदार जवाब भी हम लोग नहीं दे पाते, आखिर यह कहते हुए बात खत्म कर देते हैं कि वे भगवान थे सब कुछ कर सकते थे...!!!
                   हमारे हिंदू धर्म के इतिहास की मनगंढता में रहती-सहती कसर फिल्मों और टेलीविजन चैनलों ने निकाल दी, कहानियों में रोचकता लाने के लिए कैमरा ट्रिक द्वारा चमत्कार दिखा-दिखा कर।  कितना अच्छा होता दोस्तों यदि हमारे इन सब महापुरुष पूर्वजों को जिन्हें हमने भगवान माना,  की कथाएँ बिना लाग-लपेट के हमारे जनमानस में प्रचलित होती, तो क्या बात होती। जैसे करीब पांच हज़ार साल पहले एक वनवासी प्रभु श्री राम ने तब के सर्वशक्तिशाली व अमीर राजा लंकापति रावण के सम्पूर्ण साम्राज्य को निरस्त कर दिया था।
                      ऐसी ही एक बात मुझे याद आ रही है जब मैं अपने पर्वतारोही संगी व सांढू विशाल रतन जी के साथ करसोग(हिमाचल प्रदेश) में प्राचीन मंदिर "श्री ममलेश्वर महादेव" गया,  तो उस मंदिर में परंपरागत शिव मंदिरों में स्थापित शिवलिंग की जगह पर शिव-पार्वती की बहुत सुंदर मूर्ति स्थापित है.......तो वहीं मंदिर में एक बुजुर्ग सज्जन ने बताया कि इस मूर्ति को 'रावण' ने लंका से एक तीर पर रख अपने कमान से उस तीर को छोड़ यहाँ स्थापित किया था और यह कथन सुन मेरी तर्कविद्या उत्तेजित हो उठी तो विशाल जी ने बीच-बचाव कर मामला रफा-दफा किया, जबकि मेरा मत था कि यह बात तो सही है कि रावण परम शिव भक्त था और एक धनवान राजा भी.... उसने ही इस मूर्ति की स्थापना की होगी,  परन्तु तीर पर रख इस मूर्ति को यहाँ भेजना मुझ से हज़म नहीं हो रहा।
                    खैर दोस्तों,  फिर से यात्रा-वृत्तांत की तरफ आपको मोड़ लाता हूँ कि पंडित महिमानंद जी ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि यहाँ हम खड़े हैं, ठीक इसी जगह इन दोनों मूर्तियों के मध्य... पुरातन समय में जब भी आसपास के 24गाँवों की पट्टी,  जिसे हम "वौणडूर पट्टी" कहते हैं, में कोई व्यक्ति 'राम का नाम' लिये बिना मर जाता तो उसकी लाश लाकर रखी जाती और मंदिर का पुजारी मंत्रोच्चारण द्वारा किए अभिमंत्रित गंगा-यमुना मिश्रित जल का छींटा मार कर चंद क्षणों के लिए उस लाश को पुन: जीवित कर लेता। राम नाम का उच्चारण व दूध-भात ग्रहण कर वह व्यक्ति पुन: लाश में तब्दील हो जाता।  यह जानकारी हमारे लिए किसी अचंभे से कम नहीं थी और मैंने पंडित जी की तरफ अपना प्रश्न-बाण उछाला कि आप के दादा-परदादा ने अपने जीवन में कभी ऐसी विचित्र घटना को अपनी आँखों से साक्षात देखा है..... तो पंडित जी बोले- "नहीं, यह बातें तो सदियों पहले हुआ करती थी यहाँ,  हम तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस इतिहास को सुनते आ रहे हैं और हमारे पूर्वज तब यहाँ आये जब राजकुमारी ईश्वरा ने उनको इस मंदिर का पुजारी नियुक्त किया....आज हमारे वंश के यहाँ 32घर हो चुके हैं।"
                           मेरी तर्कबुद्धि ने झट से दूसरा सवाल पंडित जी के समक्ष कर दिया कि क्या यह मरकर फिर से जीवित होने वाली सुविधा हर व्यक्ति को मिलती थी या सिर्फ राजाओं और अमीरों....
                      मेरी बात बीच में काटते हुए पंडित जी बोले- "अमीर हो या गरीब सब के लिए...!!!"
           "पंडित जी, यदि वह शुद्र हो तो...!!!!"
"हां जी, चाहे वो शुद्र हो चाहे ब्राह्मण.... भगवान के इस दरबार में सब एक समान थे।"
                 मेरे मुख से बरबस निकला "वाह" परंतु मन के एक कोने में आवाज़ उठी कि सच में ऐसी ही समानताएँ हो तब समाज में....!!!
               पंडित जी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा कि इस गाँव का असली नाम लाखामंडल ना होकर "मोड़ा" है।  मोड़ा शब्द का अर्थ मुड़ कर आना, जैसे मरा हुआ व्यक्ति यहाँ आ एक बार के लिए मुड़ कर फिर जीवित हो जाता था।
                    द्वारपालों की मूर्तियों के पार मंदिर के रंगमण्डल वाली खुली व चौरस जगह  (जिस पर पत्थरों की बेतरतीब स्लेटे बिछी हुई थी और उस जगह के बीचो-बीच एक हवन कुंड भी बना है)  की ओर इशारा कर पंडित जी बोले- "यह ठीक वहीं जगह है, यहाँ पर कौरवों ने पांडवों को षड्यंत्र पूर्व मारने के लिए लाक्षागृह का निर्माण किया था, इन स्लेटों के नीचे खुदाई करने पर राख और कोयले मिलते हैं... उस हवन कुंड के नीचे वही जीवन रक्षक सुरंग है, जिसमें से हो कर धू-धू कर जल रहे लाक्षागृह से पांडव बच निकले थे...इस सुरंग का मुहाना आपको रास्ते में करीब एक किलोमीटर पहले दिखा होगा।"
             "जी हां, हमने सड़क किनारे एक गुफ़ा देखी थी... जिस पर लिखा था "प्राचीन पांडव गुफ़ा" परंतु हम वहाँ रुके नहीं,  सोचा वापसी पर आकर दर्शन करेंगे" मैंने उत्तर दिया।
                "पांडवों की प्राचीन गुफ़ा का नाम  'धुंध-गुफ़ा ' है और हमारे बुजुर्ग कहते हैं कि इस धुंध-गुफ़ा से केदारनाथ और बद्रीनाथ जाने के लिए भूमिगत सुरंग भी हैं..!"
                 मैंने तभी पंडित जी से पूछ लिया कि क्या मैं अभी इस लाक्षागृह की सुरंग में जा सकता हूँ तो पंडित जी ने कहा- "यह सुरंग तो सरकार ने बंद कर रखी है।"
                 "तो क्या आप कभी इस सुरंग से हो कर धुंध-गुफ़ा में जा निकले हैं पंडित जी..?"
                 तब पंडित जी बोले- "नहीं, जब मैंने होश संभाला तब यह रास्ता बंद हो गया था... हां हमारे दादा के वक्त यह रास्ता खुला होता था और ठीक उसी लाक्षागृह वाले स्थान पर पांडवों ने बाद में इस शिव मंदिर का निर्माण करवाया जबकि इस मंदिर में स्थापित इस विशाल शिवलिंग की स्थापना स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर ने अज्ञातवास के दौरान ही की थी और इस शिवलिंग का नामकरण  'मरड़ेश्वर महादेव' किया, यानि कि मरा हुआ व्यक्ति इस शिवलिंग की कृपा से पुन:जीवित हो सके।"
                 एक बड़े से चौरस चबूतरे पर स्थापित मरड़ेश्वर महादेव शिवलिंग के चारों कोनों पर चार छोटे चबूतरे बने देख, जब मैंने पंडित जी से कहा- "लगता है, यह चारों छोटे चबूतरे मंदिर के गिर चुके स्तंभों के अवशेष हैं।"   तब पंडित जी ने कहा-"नहीं, यह स्तंभ नहीं बल्कि वो चार मठ हैं जिनपर धर्मराज युधिष्ठिर के चारों भाइयों ने भी अलग-अलग शिवलिंग स्थापित किए थे और अब यह चारों शिवलिंग मंदिर प्रांगण में बने हुए पुरातत्व विभाग के स्टोर में पड़े हैं।"  मरड़ेश्वर महादेव शिवलिंग पर पड़े चोट के निशान और दरार को दिखा पंडित जी बोले- "यह देखिए हथौड़े के प्रहारों के निशान, जो औरंगजेब के सिपाहियों द्वारा इस शिवलिंग पर चलाया गया था..!!!"
                      तभी मैंने पंडित जी से कहा कि आज रास्ते में आते-आते, इन पहाड़ों से मैदानों की ओर अपने पशुओं को ले जाते मुसलमान गद्दियों को देख ताज्ज़ुब हुआ कि इतनी दूर-दराज हिमालय में भी ये लोग कैसे मुसलमान बन गए क्योंकि आज भी इन पहाड़ों पर पहुँचना मुश्किल है, तब के समय में यह कैसे संभव हुआ कि ये वन-गद्दी भी मुसलमान बन गए।
                       पंडित जी ने उत्तर दिया-"नहीं, वह गद्दी लोग यहाँ के स्थानीय बाशिंदे नहीं,  बल्कि उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड के मैदानी इलाकों से मार्च के महीने में अपनी भैसें ले, इन पहाड़ों पर बनाये अपने डेरे पर चढ़ आते हैं और अक्तूबर महीने के आरंभ या दशहरे के आस-पास भैसें ले अपने स्थाई मैदानी गाँव की ओर उतर जाते हैं, क्योंकि तब इन पहाड़ों पर बर्फ़ पड़नी आरंभ जो हो जाती है।"
               तभी हम दोनों की बातचीत एकदम से थम गई, जब मैंने अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को आपस में खुसर-पुसर करते हुए हंसते देख पूछा,  तो मेरा बेटा "प्रथमेश" अपनी माँ व बहन को बता रहा था कि देखो पापा और यह अंकल दोनों ही बार-बार अपनी मूँछों को मरोड़ी ही जा रहे हैं।  अब पंडित जी भी खूब हंसे हम संग और मैंने व पंडित जी ने अपनी-अपनी मूँछों को ताव देते हुए उस लम्हे को याद रखने के लिए एक चित्र भी खिंचवाया। 
                दोस्तों, बड़ी व घुमावदार मूँछ पालना भी टेढ़ी खीर है...क्योंकि मूँछ-पालक को हर दम यही चिंता सताती रहती है कि उसकी मूँछ के दोनों सिरे ऊपर को खड़े रहें,  यदि एक सिरा नीचे हो गया तो वह ही रोबदार मूँछ जग-हंसाई का सबब बन जाती है।
                          लाखामंडल मंदिर परिसर की पूर्व दिशा में यानि बिल्कुल सामने एक बहुत सुंदर व विशाल पर्वत दिखाई दे रहा था, जो मेरा मन बार-बार भटका रहा था क्योंकि भाई,  पर्वतारोही जो ठहरा मैं.....पहाड़ देख कर मेरा हाल उस पियकड़ सा हो जाता है, जो भरी हुई बोतल को जल्द से जल्द खाली कर देना चाहता हो और मेरा मन करता है कि सब काम-धाम छोड़कर उस पर्वत के सिर पर चढ़ जाऊँ। 
तो, पंडित महिमानंद जी से उस पर्वत का नाम जाना। "कोआ का डांडा" है इस पर्वत का नाम।
              "क्या आप कभी इस पर चढ़े हो...?"
"अक्सर, क्योंकि वहाँ 'लूदेश्वर देवता' का मेला लगता है इसलिए।"
              "क्या यह लूदेश्वर देवता यहाँ का स्थानीय ग्राम देवता है...?"
"नहीं जी, लूदेश्वर देवता तो जिला उत्तरकाशी का देवता है और इस पर्वत की चोटी तक हम लोग अपनी गाय-भैसें चराने ले जाते हैं।"
                       मैंने चारों ओर नज़र घुमाकर कहा- "पंडित जी, आपका लाखामंडल बहुत खूबसूरत जगह पर बसा है।"  तो पंडित जी हंसते हुए बोले- "होगा कैसे नहीं खूबसूरत,  इसको तीन तरफ से नदियों ने घेर रखा है यानि 'तिनबीड घाट' पर बना लाखामंडल और चारों तरफ बड़े- बड़े पहाड़....और इन सब के बीचो-बीच लाखामंडल ऐसा जान पड़ता है कि जैसे कोई कमल का फूल खिला हो।"
               "सत्य है, सत्य है... कहकर मैंने भी पंडित जी के प्रशंसा-सुर से अपने सुर जोड़ लिये।
               पंडित जी ने मरड़ेश्वर महादेव मंदिर में हमारी परिवारिक फोटो खींच कहा- "चलिए अब आप सपरिवार मरड़ेश्वर महादेव शिवलिंग की परिक्रमा करें, क्योंकि इस शिवलिंग की मात्र एक परिक्रमा लेने से मनुष्य के पिछले आठ जन्मों के पाप खंडित हो जाते हैं।"  परिक्रमा लेते हुए मेरी नज़र लाखामंडल मंदिर परिसर की परिधि पर लगे अखरोट के पेड़ पर पड़ी तो झट से मैंने अपनी बैरोमीटर-अल्टीमीटर घड़ी पर वहाँ की समुद्र तल से ऊँचाई मापी, "1155 मीटर"
                          परिक्रमा पूर्ण कर मंदिर की सीढ़ियाँ उतरते हुए मैंने पंडित जी को अखरोट का पेड़ दिखाते हुए पूछा- "और यहाँ पर क्या-क्या उगता है..?"
                "यहाँ पर हर फसल होती है बस एक 'सेब' नहीं होता।"
                 मैंने हंसते हुए कहा- "सेब हो जाए, फिर तो वारे-न्यारे, फिर तो पैसा ही पैसा, एक सेब कम से कम दस रुपये में बिकता है जी, ऊँचाई कम है ना यहाँ इसलिए यहाँ सेब नहीं होता।"
                     पंडित महिमानंद जी अब हमें ले मंदिर परिसर के बहुत सारे छोटे-छोटे शिव मंदिरों को दिखाते हुए मंदिर परिसर की उत्तर दिशा की तरफ बढ़ने लगे। इतने सारे छोटे-छोटे मंदिर पंक्तियों में निर्मित देख मैंने मन ही मन निष्कर्ष निकाला कि पुरातन समय में भक्त अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर अपनी हैसियत के मुताबिक यहाँ लाखामंडल मंदिर परिसर में शिव मंदिर का निर्माण करवाते होंगें। चलते-चलते मेरी निगाह एक छोटे से शिव मंदिर के अंदर स्थापित शिवलिंग पर गई, जिस की विशेषता थी कि पत्थर से निर्मित शिवलिंग पर प्राकृतिक रूप में सफ़ेद "त्रिपुंड" बना हुआ था।  लाखामंडल मंदिर परिसर की उत्तरी दीवार पार कर हम एक मैदान की तरफ बढ़ने लगे, जिसमें बच्चे खेल रहे थे। उस छोटी सी मैदान नुमा समतल जगह में मुझे पहली नज़र में तीन छोटे-छोटे से मंदिर नजर आये और दूसरी नज़र जा ठहरी निर्माण कार्य हेतु गिराई बालू (रेत) के ढेर में दो छोटे-छोटे बालक अपने खिलौने जेसीबी से खेल रहे थे।
                   पंडित जी हमें ले जा रुके लाखामंडल मंदिर परिसर की दीवार के साथ-साथ चलते रास्ते पर बने एक चबूतरा नुमा पूजनीय स्थल पर,  जिस की बनावट परंपरागत मंदिर की तरह ना हो कर कुछ अलग प्रकार की थी। चार फुट ऊँचा चबूतरा एक सिंहासन सा दिखाई दे रहा था, जिस पर मूर्ति के स्थान पर एक छोटा सा झंडा स्थापित था जिस पर कई सारे रंगीन कपड़े बंधे थे।
             "नमन कीजिए, यह 'रास्ते की काली माँ ' है।" "पंडित जी, काली माता तो समझता हूँ... परंतु यह रास्ते की काली माता कैसे...?"
              "जी हां, यह रास्तों की माता है.... देखिए यहाँ इस चौबट्टा (चौंक) पर चार रास्ते मिलते हैं, इसी पर यह मंदिर बना हुआ है... यह काली माता हमारे रास्तों की और  इन रास्तों पर चलने वाले हम लोगों की रक्षा करती है।"
                 यह उत्तर सुन पल भर में मेरे दिमाग ने यह बात घूम गई कि पुराने समय में इन पहाड़ों पर रास्ते बनाना व उन्हें प्राकृतिक विपदाओं से बचाना और उन वीरान रास्तों पर जंगली जानवरों से खुद को बचाना बहुत बड़ी बात थी,  सो चंचल मनुष्य मन ने यह सहारा खोज लिया।  रास्ते की काली माँ को नमन करवा पंडित जी हमें ले,  उस छोटे से मैदान के कोने में खुले आसमान के नीचे स्थापित शिवलिंग की ओर इशारा करते हुए बोले-"चलिए, अब आपको मैं कलयुग के शिवलिंग के दर्शन करवाता हूँ जैसे आपको पहले सतयुग द्वापर त्रेता युग के शिवलिंग के दर्शन करवा चुका हूँ।"
                   सामान्यतः गोल मूर्तितल में खड़े शिवलिंग के विपरीत गहरे काले रंग का यह शिवलिंग चौरस तल में खड़ा है और शिवलिंग का आधार भी गोल होने के स्थान पर आठ कोने वाला है दोस्तों।
                हमारे शिवलिंग के पास पहुँचने से पहले ही खेल रहे उन बच्चों के झुरमुट से दो बालक भाग कर शिवलिंग के समीप जा खड़े हुए और हमारे वहाँ पहुँचते ही उन दोनों बालकों ने हाथों में पूजा की थाली और घंटी लेकर ऊँची आवाज़ में 'महामृत्युंजय मंत्र' का उच्चारण करते हुए हमसे जलाभिषेक करवाया।  पंडित महिमानंद जी ने भी बताया कि यह "चिंताहरण महादेव अष्टदल शिवलिंग" है,  जैसे मैंने आपको शुरू में बताया था कि जब आप इस शिवलिंग पर जल चढ़ाएंगे, तब आपको इस शिवलिंग में अपनी प्रतिछाया दिखाई देगी।"
              मैंने ध्यान दिया सच में हम चारों की छवि, भीग चुके शिवलिंग में दिखाई दे रही थी। हमें हैरान होते देख पंडित जी बोले-"तभी तो हम इसे 'अद्भुत शिवलिंग' भी कहते हैं और इस चिंताहरण महादेव भगवान के दर्शन करने से भक्तों के आठ जन्मों के पितरों का उद्धार होता है।"
                  तभी पंडित जी ने शिवलिंग के चौरस आधार तल पर दो लोटा जल डाल कहा- "यह देखिए, यह अाधार मां पार्वती की हस्त रेखाओं का प्रतीक है।"  काले पत्थर के बने आधार दल के गीले होने पर पत्थर में सफ़ेद धारियाँ ऐसी आभा देने लगी कि जैसे हाथ पर बनी लकीरे हो।
           मेरे प्रश्न कहाँ खत्म हो सकते हैं दोस्तों, गाइड मेरे चले जाने के बाद जरूर मेरी पीठ पीछे मुझे माथा टेकते होंगें...!!!!!
             "पंडित जी, आप इस शिवलिंग को कलयुग का शिवलिंग क्यों कह रहे हैं..?"
             "क्योंकि यह शिवलिंग कोई पचास साल पहले भूमि में दबा हुआ प्राप्त हुआ था तब मैं 10वर्षीय बालक था,  हमारे गाँव के ही एक बढ़ई हरि को स्वपन में इन चिंताहरण महादेव भगवान का आदेश हुआ....कि चार बहुत लंबी-लंबी जट्टाओं वाले बूढ़ों के रूप में कहा कि मैं फला-फला जगह पर भूमि में दबा हूँ,  लोग मेरे ऊपर चलते हैं मुझे बाहर निकालो...!
              और, वह बढ़ई हरि अगले ही दिन अपने पाँच भाइयों साथ यहाँ खुदाई में जुट गया। तब भूमि में से अद्भुत शिवलिंग प्राप्त हुआ और इसके पीछे बनी दीवार भी भूमि में दबी हुई निकली थी। हम ग्रामवासियों ने जब भी कभी अपने घर की नींव खोदी है या खेतों की मिट्टी में कुछ फेरबदल की हैं, तब कोई ना कोई पत्थर जो शिवलिंग की आकृति का है, मिलना सामान्य बात है। पंडित जी की यह बात सुन मैंने अपना मत उनके आगे रख कहा- "इससे यह साबित भी होता है कि प्राचीन समय में यह स्थान शिवलिंग मूर्तिकारों का निर्माण केंद्र भी रहा होगा, जहाँ से शिवलिंग तैयार हो बाहर जाते होगें।" मेरा तर्क सुन पंडित जी बोले- "जी हां, आपकी बात में भी दम है।"
                    चिंताहरण महादेव के बिल्कुल समीप एक छोटा सा प्राचीन मटीनुमा मंदिर है, यो सफ़ेद रंग से पुता हुआ था.... के समीप हमें ले जाकर, पंडित जी ने बताया- "यह हैजा-काली माँ का मंदिर है।"  मंदिर के छोटे से मुख के अंदर लोहे के औज़ार दिखाकर, पंडित जी ने कहा-"यह औज़ार भी हैजा काली माँ के हैं, भयंकर हैजा रोग जो कभी पूरे गाँव के गाँव को अपनी चपेट में ले लेता था, उल्टी-दस्त से प्रभावित हो लोग एकाएक मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे, इन हैजा-काली मां की पूजा करने से हैजा रोग खंडित हो जाता है।"
               दोस्तों, आज से केवल एक सदी पहले तक हैजा जैसी कई सारी जानलेवा महामारियों की मार से इंसानी बस्तियाँ उजाड़ हो जाती थी। सन्1912 में जब मेरे दादा केवल आठ वर्ष के थे, तो गाँव में फैली "प्लेग" से उनके माता-पिता व चाचा काल का ग्रास बन गए....पूरे परिवार में केवल मेरे दादा व उनकी बूढ़ी दादी ही बची, जिसने मेरे दादा को पाला परंतु बदकिस्मती ने कुछ साल बाद उनकी दादी को भी छीन लिया। 15साल की उम्र में मेरे दादा पूरी तरह से यतीम हो गए, घर पर भी पड़ोसी ने कब्ज़ा कर लिया। बेघर  "साधु"  रिश्तेदारों के घरों में मारा- मारा भटकता रहा, आखिर खुद के दम पर हकीमी सीख "हकीम साधु राम नारद" बन गाँव 'डगाम' वापस आ,  पास के कस्बे 'गढ़शंकर'(पंजाब) में सन् 1935 में अपनी हिकमत आरंभ की। इन महामारियों के पीडितों की सैकड़ों अनकही दुखित कहानियाँ होंगी, जिनपर अब समय ने अपना मरहम लगा दिया है। बदलते समय में अब चेचक- माता, हैजा-माता आदि आज के डॉक्टरों में बसती है, जो अपने "एंटीबायोटिक्स" नामक हथियारों से इन महामारियों पर वार करते हैं।

                 दोस्तों... शाम के साढे पाँच बज रहे थे, मैदान में अब कई सारे बच्चे जमा हो चुके थे,  ऐसा लग रहा था कि वे किसी उत्सव की तैयारी कर रहे थे।
             "आपका हार्दिक स्वागत है"  उन बच्चों ने रेत से ज़मीन पर बहुत खूबसूरती से बड़ा-बड़ा कर लिखा था और उसके इर्द-गिर्द फूल-बूटे आदि बनाकर उसे सजाया गया था। दो छोटे-छोटे डंडे ज़मीन में गाड़ कर, उस पर माता की लाल चुनरिया बांधी थी और उन डंडों के मध्य एक चौरस स्लेटनुमा पत्थर पर रेत से बहुत खूबसूरती से 'स्वास्तिक' का चिन्ह बनाया गया था। बच्चों की ये तैयारियाँ देख हमारा मन भी उत्सुकता से भर गया, तभी तीन-चार बच्चे डंडे पर घास-फूस और अख़बार से बने पुतले को कंधों पर उठाकर, जैसे ही गाँव की तरफ से मैदान में दाखिल हुए.... सभी बच्चे खुशी से जैसे नाचने लगे हो।  उस पुतले के सात सिर थे.....जी हां दोस्तों,  वह रावण का पुतला था,  और वो दिन "दशहरे" का था।
                मैं दावे के साथ कह रहा हूँ दोस्तों, आप ने भी अपने बचपन में ऐसे ही खुद रावण बना, दशहरा मनाया होगा।  मैं खुद बचपन में अपनी गली के बच्चों के साथ एक फटी पुरानी कमीज़ में तूड़ी(भूसा) व अख़बार भर पाँच-सात रुपए के 'बिजली बम' डाल रावण का पुतला बनाता था और रावण के पुतले में लगी एक-दो मिनट की आग और दस-पाँच धमाके हम बच्चों के चेहरों को खुशी से लाल कर जाते। परंतु लाखामंडल में हम उन ग्रामीण बच्चों का रावण-दहण नहीं देख पाये,  क्योंकि हमें आज के आज यमुनोत्री के लिए जानकीचट्टी तक पहुँचना था।
(दोस्तों, यदि आप मेरी लाखामंडल के बाद की यमुनोत्री यात्रा पढ़ना चाहते हैं... तो वह यात्रा-वृतांत "घुमक्कड़ी जिंदाबाद"  नामक पुस्तक में प्रकाशित हो चुका है, यह पुस्तक आप ऐमेज़ॉन से प्राप्त कर सकते हैं। यह पुस्तक देश के 18 लेखकों के यात्रा- वृतांतों का समूह है,  इस पुस्तक में मेरा लेख "साढ़े तीन पराँठे" है जो यमुनोत्री से भी ऊपर यमुना नदी के उद्गम स्थल 'सप्तऋषि कुंड' की साहसिक ट्रैकिंग की रोमांचक कहानी है, जी)
              अब हम पंडित जी के साथ वापस मंदिर- परिसर में चले आ रहे हैं कि परिसर में यहाँ-वहाँ मस्ती से घूम रहे मोटे-ताज़े दाढ़ी वाले कई सारे बकरे देख,  उनके विषय में भी जानना चाहा.... तो पंडित जी ने उत्तर दिया कि जिस स्त्री को पुत्र-प्राप्ति की इच्छा हो, तो वह महाशिवरात्रि को पूरी रात मंदिर के द्वार पर बैठ भीतर जल रहे दीपक की ज्योति को एक नज़र से देखती हुई शिव-मंत्र का जाप करे तो अगली महाशिवरात्रि पर वह अपने पुत्र के संग यहाँ अपनी मनोकामना पूरी करती है, बकरा चढ़ाकर।
               जैसे ही हम वापसी के लिए सीढ़ियों की ओर बढ़े, तो मेरी नज़र फिर से मुख्य मंदिर की ओर पड़ी तो मंदिर के बाहर लगी हुई ढेर सारी लोहे की जंज़ीरों को देख,  फिर से पंडित जी की तरफ मुताफ़िक हो गया क्योंकि यह कोई साधारण लोहे की जंज़ीरें नहीं बल्कि वे  जंज़ीरें थी जिसे देवता की मस्ती में खेल रहा व्यक्ति खुद ही उन जंज़ीरों से अपने-आप को मारने लग पड़ता है। लोहे की जंज़ीरों की तरफ इशारा कर मैंने पंडित जी से पूछा- "तो महाशिवरात्रि पर लोगों को 'खेल' आती होगी, तभी ये जंज़ीरें क्या...?
                  "जी हां, परंतु महाशिवरात्रि से भी बड़ा मेला हर वर्ष 15अप्रैल को लगता है, जिसे 'तीन गति बैसाखी मेला' कहते हैं..इस मेले के बाद ही चार धामों के कपाट खुलते हैं।"
                   हम बातें करते-करते मंदिर परिसर की सीढ़ियों तक पहुँच चुके थे, सो पंडित जी से विदाई लेते हुए उन्हें यथासंभव दक्षिणा देते हुए मैंने बहुत धीरे-से उनके कान के पास हो अपना अंतिम प्रश्न पूछा- "पंडित जी, क्या अब भी यहाँ बहु-पति प्रथा है..?"  तो पंडित जी ने मेरी तरफ न देखते हुए कहा- "यह तो गए ज़माने की बातें हैं जी।"
                पंडित जी ने हमें सहर्ष विदा किया और हम अपने गाड़ी ले, वापसी की राह पर एक-डेढ़ किलोमीटर नीचे आ पांडवों की धुंध-गुफ़ा देखने के लिए जा रुके। सड़क के किनारे ही स्थित धुंध-गुफ़ा में उतरे तो खुद को बहुत खुले भूमिगत कक्ष में पाया,  जिसमें से एक रास्ता हमें एक लम्बी व संकरी सुरंग में ले गया...जहाँ अंत में एक प्राकृतिक शिवलिंग पर गुफ़ा की छत से जल की बूँदें टपक रही थी। इसी सुरंग में कुछ और सुरंगे भी आ मिल रही थी, जिनकी चौड़ाई इतनी नहीं थी कि उनमें जाया जा सके।
                इन सुरंगों को देख मैंने निष्कर्ष निकाला कि इन प्राकृतिक सुरंगों का निर्माता पानी है,  जो कभी हज़ारों साल पहले इन पहाड़ों की चोटियों पर जमा बर्फ़ के पिघलने पर भूमिगत रूप में वहाँ निकलता होगा। कालांतर में भूमंडलीय तापन (ग्लोबल-वॉर्मिंग) बढ़ते रहने से 'बर्फ़ की रेखा' ऊपरी पहाड़ों पर चढ़ती गई और पानी के रास्ते सूखी गुफ़ाओं में तबदील हो गए। इन्ही प्राकृतिक भूमिगत रास्तों में से ही पांडव जल रहे लाक्षागृह की प्रचंड अग्नि से बच निकले होंगे दोस्तों..!!
                   जब हम दोनों गुफ़ा से वापस बाहर अपनी गाड़ी के पास आए तो शाम हो चुकी थी और सूर्यदेव आकाश से लापता हो गए थे। मैंने ठान रखा था कि मैं आज के आज अपनी गाड़ी को जानकीकुंड लगाकर सुबह यमुनोत्री की चढ़ाई शुरू कर देनी है।
                  सो, चल गए यमुनोत्री की ओर...... गाड़ी चलाते हुए मैं खामोशी से अपने-आप में ही विचारमगन था कि यदि आज भी मुर्दे को एक बार फिर से जीवित करने वाली लाखामंडलीय तकनीक होती,  तो मैं सौ प्रतिशत दावे के साथ कहता हूँ कि मरे हुए उस व्यक्ति को चंद क्षणों लिए जीवित कर "राम नाम" कहलाने वाला कोई विरला ही होगा,  बाकी तो उसकी जमीन-जायदाद,  वसीयतनामे व बैंक चेकों पर हस्ताक्षर लेने हेतु खड़े होंगे...!!!!






                               
यमुनोत्री मुख्य मार्ग से कटता रास्ता " लाखामण्डल " जाने के लिए।  

लाखामण्डल की तरफ बढ़ते ही क्या खूबसूरत नज़ारा,  पर्वतों की गोद में खेलती सी यमुना नदी...जिसे देख हमारी आँखें मुस्कुरा उठी। 

  घाटी में यमुना किनारे के समतल खेत और उन में उगी अलग-अलग रंगों की उपजों ने मेरे दिमाग में एक बेहद हसीन दृश्य को याद रखने की उपज बो दी थी।

लाखामण्डल गाँव की शुरुआत। 

गाँव में लाखामण्डल मंदिर का स्वागती द्वार।

लाखामण्डल मंदिर को जाती गली।

उस खूबसूरत सी गली में खड़ा मैं। 

समय बदल गया है,  अब शिशुओं के हाथों में छुनछुने की जगह मोबाइल ने ले ली है.... गली में अपनी ही खेल में व्यस्त बालक।

लाखामण्डल गाँव में परंपरागत पहाड़ी शैली में बना एक मकान।

लो दोस्तों,  हम आ पहुँचे लाखामण्डल मंदिर की ओर चढ़ती हुई सीढ़ियों तक।

पंडित महिमानंद....और मंदिर से पानी भर कर आती स्थानीय युवती। 

सीढ़ियाँ चढ़ते ही पहली झलक लाखामण्डल मंदिर की। 

लाखामण्डल मंदिर परिसर का मुख्य मंदिर। 

मंदिर के द्वार पर बैठा नंदी। 

पंडित महिमानंद मंदिर के विषय में जानकारियाँ देते हुए। 

लाल रंग का यह शिवलिंग त्रेता युग का और इसके पीछे हरे रंग का शिवलिंग द्वापर युग का है, दोस्तों। 

लो, पंडित जी हमारी भी एक फोटो खींच दीजिए जी। 

लाखामण्डल मंदिर की दीवारों पर हुई मीनाकारियाँ।

लाखामण्डल मंदिर की उत्तरी दीवार में स्थापित महिषासुर मर्दनी माँ की मूर्ति। 

ज़रा मुस्कुराइए,  आप कैमरे की नज़र में हैं। 

मुख्य मंदिर दिखाने के बाद पंडित महिमानंद जी हमें उस मंदिर की तरफ़ ले आए,  जिसका मुख पूर्व दिशा की तरफ ना हो कर पश्चिम दिशा की ओर है। 

पंडित जी बोले- यह "मरड़ेश्वर महादेव " मंदिर के प्रवेश द्वार पर खड़े 'द्वार ' और 'पाल' की मूर्तियाँ हैं। 

द्वार व पाल की मूर्तियाँ में जिसके सिर पर लगे मुकुट में हीरे-मोती है, वह देव है। 

और,  जिसके मुकुट में 'मसान ' का चिन्ह है,  वह दानव है। 

अब,  लाखामण्डल का मरड़ेश्वर महादेव मंदिर छतविहीन है। 

पंडित जी बोल रहे थे कि ठीक इन्ही स्लेटों वाली जगह पर लाक्षाग्रह बनाया गया था और जो बीच में हवनकुंड बना है,  उसके नीचे वो ही सुरंग है जिस में से पांडव जला दिये गए लाक्षाग्रह से बच निकलने में कामयाब हुए थे। 

जब मैने पंडित जी से पूछा कि क्या मैं अभी इस सुरंग में जा सकता हूँ,  तो पंडित जी ने कहा- " इस सुरंग को तो सरकार ने बहुत पहले से ही बंद कर दिया है।"

मरड़ेश्वर महादेव मंदिर का प्रवेश द्वार। 

 धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा स्थापित मरड़ेश्वर महादेव शिवलिंग और इसके चारों कोने पर भी बाकी चार पांडव भाई के द्वारा स्थापित चार शिवलिंग थे, जो अब पुरातत्व विभाग के स्टोर में पड़े हैं। 

पंडित जी मरड़ेश्वर महादेव शिवलिंग में पड़ी दरार और हथौड़े के प्रहार के निशान दिखाते हुए, जो कभी औरंगजे़ब के सैनिकों ने इस शिवलिंग पर चलाये थे। 

यह है मेरी व पंडित महिमानंद जी यादगारी " मूँछ मरोड़ फोटो "

लाखामण्डल मंदिर परिसर के सामने दिखाई दे रहा "कोआ का डांडा" पर्वत। 

"जय मरड़ेश्वर महादेव "


और,  हमें संग ले पंडित जी मंदिर परिसर की उत्तर दिशा में बढ़ने लगे। 

लाखामण्डल मंदिर परिसर में कई सारे शिव मंदिर अवशेष। 

शिवलिंग पर प्राकृतिक रुप में बना "त्रिपुंड"

इसी छोटे से मंदिर में स्थापित है यह शिवलिंग। 

"रास्ते की काली माँ" 

"चिंताहरण महादेव" अष्ट दल शिवलिंग पर सपरिवार जलाभिषेक करते हुए हम। 

चिंताहरण महादेव शिवलिंग की विशेषता - जलाभिषेक के बाद शिवलिंग में खुद को देखते हुए हम। 

यह देखिए.... माता पार्वती की हस्त रेखाएँ।

 चिंताहरण महादेव की जय। 

हैजा-काली माँ का स्थान। 

"आपका हार्दिक स्वागत है " ....जमीन पर रेत से क्या खूबसूरत लिखा था बच्चों नें। 

क्योंकि बच्चे एक उत्सव की तैयारी में मस्त थे। 

और,  वह उत्सव "दशहरा" था दोस्तों। 

परन्तु हम समय की कमी के कारण रावणदहण नही देख पाये और फिर से वापस लाखामण्डल मंदिर परिसर में आ गए। 

मंदिर परिसर में यहाँ-वहाँ घूम रहे मोटे-ताज़े बकरे।

लाखामण्डल मंदिर और मरड़ेश्वर महादेव मंदिर। 

लाखामण्डल मंदिर परिसर में ढोली। 

अभी भी,  पंडित जी से सवाल-जवाब ज़ारी थे। 

मंदिर परिसर से देखता लाखामण्डल गाँव। 

वापसी पर आखिरी नज़र लाखामण्डल मंदिर पर। 

और,  मंदिर के द्वार पर टंगी जंज़ीरे दिखी..जिससे खेल आई व्यक्ति खुद को ही मारने लग पड़ता है।  

लाखामण्डल से वापसी पर हम पांडवों की धुंध-गुफ़ा देखने रुक गए। 

धुंध-गुफ़ा का मुहाना। 

गुफा के अंदर प्राकृतिक रुप में बनी सुरंग। 

मेरी कोशिश थी कि मैं भी किसी सुरंग में घुस कर देखूँ। 

" अच्छा चलता हूँ...दुआओं में याद रखना"
कैसी लगी मेरी लाखामण्डल यात्रा दोस्तों।
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मेरी साहसिक यात्राओं की चित्रकथाएँ... 
 (१) "श्री खंड महादेव कैलाश की ओर " यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(२) "पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास " यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(३) "चलो, चलते हैं सर्दियों में खीरगंगा"...यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(४) करेरी झील " मेरे पर्वतारोही बनने की कथा ".....यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(੫) "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से...!" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।