शनिवार, 21 मार्च 2020

शिमला से आगे......"खड़ा-पत्थर"


शिमला से आगे......"खड़ा-पत्थर"

                          मेरी यात्राएँ सुनियोजित व पूर्वनिर्धारित कम ही रहती हैं, 27जून 2019 को सपरिवार अपने शहर "गढ़शंकर" (पंजाब) से एक सनकी सोच मन में धारण कर रवाना हुआ कि मुझे हिमाचल प्रदेश की पब्बर घाटी में आखिरी गाँव "जांगलिक" तक पहुँचना है बस...!
                     जांगलिक गाँव की जानकारी मुझे अपने पसंदीदा ऐप "गूगल सेटेलाइट मैप" पर देखकर हुई क्योंकि गर्मियों में हर कोई बर्फ का दीदार पाना चाहता है, यदि उसका स्पर्श मिल जाए तो बात ही कुछ और होती है। सो इसलिए नक्शे देखते रहने का आदी मैं, सेटेलाइट मैप पर हमेशा देखता रहता हूँ कि बर्फ से भरे पहाड़ों के पास कौन-कौन से गाँव हैं, जहाँ सड़क मार्ग द्वारा पहुँचा जा सकता है और इस बार "जांगलिक" को ढूँढ लिया।
                     शिमला से इस बार भी मुँह फेर कर निकलना चाहता था, परंतु अब की बार मेरे माता-पिता जी दोनों ही एक सुर में बोल क्या बिफ़र उठे कि तू हर बार ऐसे ही शिमला के बाहर-बाहर से हमें आगे ले जाता है, अबकी बार हमें शिमला भी देखना है, क्योंकि हमने शिमले को 40साल पहले देखा था....अब फिर से देखना चाहते हैं कि तब और अब में क्या फर्क आया है।  मैं भीड़-भाड़ वाले स्थलों में घूमने से परहेज ही करता हूँ....परंतु इस बार मेरी नहीं चल सकी और शिमला के माल रोड, रिज और जाखू मंदिर को 19साल बाद फिर से देखा।
                     घूमते-घूमाते शाम हो गई, पर किसी भी होटल वाले के झांसे में नहीं आया और शिमला से 28 किलोमीटर आगे "ठियोग" पहुँचकर शिमले में मिलने वाले एक कमरे की आधी कीमत से भी कम में दो कमरे किराए पर ले, रात गुज़ार कर....अगली सुबह घूमते-घूमाते रोहड़ू वाली सड़क पर 30किलोमीटर आगे आ "कोट-खाई" के राजा  "राणा त्रिभुवन राज सिंह शाण्डिलय जी"  के 800वर्ष पुराने किले "दरबार" में बिना जान-पहचान के जब़रदस्ती मेहमान बन जा घुसे।
                    खैर यह बहुत ही दिलचस्प किस्सा है, इसके बारे में विस्तारपूर्वक राजा त्रिभुवन राज सिंह जी की आज्ञा लेकर ही लिखूँगा......और, इस यात्रा वृतांत को अपनी  "कूप्पड़ गिरिराज" की पदयात्रा पर ही केंद्रित करना चाहता हूँ। कूप्पड़ नाम का ज्ञान भी मुझे राजा जी के किले के बाहर मिले एक बुजुर्ग से हुआ कि यहाँ से 20किलोमीटर आगे "खड़ा- पत्थर"  नामक जगह पर "कूप्पड़ तीर्थ" है, जहाँ पर "गिरी-गंगा" नदी का उद्गम स्थल है।
                    यह सुन मुझ घुमक्कड़ को रोशनी सी हो गई क्योंकि मैं नदियों के उद्गम स्थलों को देखने के लिए हमेशा लालायित रहता हूँ।  राजा जी द्वारा हमें भेंट स्वरूप दिए गए उनके बाग-बागीचों के अति स्वादिष्ट आलू बुखारों और आडूओं को खाते व राजा जी तथा उनके परिवार द्वारा हम अजनबियों की हुई मेहमान नवाज़ी की बातें करते-करते हम दोपहर 3बजे खड़ा-पत्थर आ पहुँचे।
                     बीस-तीस दुकानों के अड्डे "खड़ा-पत्थर" पर पहुँच मेरी निगाह जा टिकी सामने दिख रहे एक पर्वत शिखर पर,  जिस पर हरी घास के सुंदर बुग्याल (मैदान) देख मन मोहित हो गया।  चारों ओर नज़र दौड़ाई तो सारा खड़ा-पत्थर क्षेत्र ही मनमोहना सा लगा, ठीक उतना ही सुंदर जितना नारकंडा क्षेत्र है।  पूछने पर ज्ञात हुआ कि यह पर्वत ही " कूप्पड़ गिरिराज" है, जहाँ से "गिरी-गंगा" नदी का जन्म होता है, यह गिरी-गंगा नदी ही "रेणुका झील" का प्रमुख स्रोत है, जो बाद में यमुना नदी में मिल जाती है।
                     जंगल में बने कूप्पन तीर्थ चौदहवीं सदी में निर्मित प्राचीन मंदिर है। खड़ा-पत्थर से 6किलोमीटर कच्चा रास्ता कूप्पड़ तीर्थ तक जाता है, जिस पर अब गाड़ी से भी जाया जा सकता है।  परन्तु कू्प्पड़ शिखर पर पहुँचने के लिए मंदिर से पैदल डेढ़-दो घंटे की चढ़ाई है। यह सुनते ही मेरे अंदर का चंचल पर्वतारोही सुलगने लगा, जुगतें लगाने लगा खामोशी से कि अब कैसे इस गिरिराज को सिर किया जाए।
                      सो गाड़ी सड़क किनारे रोक, खड़ा-पत्थर के छोटे से बाज़ार पर एक दुकान के कोठे मतलब दूसरी मंजिल पर बने एक ढाबे में, अपने परिवार को ले जा पहुँचा। बच्चों ने मोमोज्....माता-पिता जी ने भोजन की थाली और हम दोनों मियां-बीवी ने समोसे-छोले का हुक्म लगा दिया ढाबे वाले को....!
                       सारे ही व्यंजन स्वादिष्ट थे, भोजन थाली में परोसी गई दाल और कढ़ी से भी कहीं ज्यादा स्वाद थी तीसरी सब्जी "सोयाबीन बड़ियाँ"
                        उस ढाबे के बनाये समोसों का अंदाज़ व स्वाद मुझे उत्तर प्रदेश यात्रा के दौरान खाए हुए ज्यादातर समोसों जैसा लगा, क्योंकि उत्तर प्रदेश में बनाए जाते समोसों का ऊपरी आवरण मोटा व खस्ता मट्ठी सा होता है। जबकि पंजाब,हिमाचल व हरियाणा में समोसे का ऊपरी आवरण पतला रखा जाता है। मन में उठा सवाल और गहरा हो गया जब मैंने उनके ढाबे पर "मीठी गुझिया" भी बनी देखी, तो ढाबा मालिक  "मुंगेरी"  से पूछ ही बैठा कि आप लोग स्थानीय नहीं है।
                     मुंगेरी जी हैरानी से बोले- "जी हां, हम सहारनपुर से हैं.....अब तो कई साल हो गए यहाँ ढाबा चलाते हुए।"
                    "मैने तो आपके समोसों को चख कर ही पहचान लिया था भाई कि आप उत्तर प्रदेश के हो।"
                     अब मुंगेरी जी से कूप्पड़ ट्रैक की जानकारी लेनी आरंभ की, तो उन्होंने कहा कि यदि आप अब भी कूप्पड़ मंदिर से पैदल ऊपर जाएँ तो अंधेरा होने से पहले वापस आ सकते हैं। मेरी पत्नी और दस वर्षीय बेटा दोनों तैयार हो गए मेरे साथ पैदल ऊपर जाने के लिए,  परंतु मैं जानता था कि इन दोनों को साथ लेकर मैं कभी भी इतने कम समय में इस ट्रैक को अंधेरा होने से पहले पूर्ण नहीं कर पाऊँगा।  तो उन्हें समझाता हूँ कि यदि वह मेरे साथ ना जाएँ, तो ही मैं अंधेरा होने से पहले-पहले वापस आ सकता हूँ।
                     सो मुंगेरी जी से खड़ा-पत्थर में ही रात रुकने के लिए किसी होटल का पता पूछा तो उनके जवाब में हमें नई विपदा में डाल दिया कि यहाँ हिमाचल लोक निर्माण विभाग का रेस्ट हाउस और हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम का "गिरी-गंगा रिसॉर्ट" के अलावा कोई भी होटल नहीं है....और इनमें अग्रिम बुकिंग करवानी पड़ती है। यह बात सुन एकाएक मुझे कूप्पड़ शिखर मुझसे दूर जाता हुआ प्रतीत होने लगा, परंतु दूसरे ही क्षण मुंगेरी जी के बोल ने फिर से कूप्पड़ शिखर को मेरे पास ला खड़ा कर दिया।
                   "आप लोग ऐसा करें यहीं कुछ दूर एक सड़क नीचे की तरफ जा रही है "शीलघाट रोड"  कोई एक किलोमीटर जाकर, आप के बायी तरफ सड़क किनारे ही एक बड़ी सी इमारत आएगी....वह "मोतीराम तेजटा जी" का घर है, वह वहाँ पिछले चार-पांच सालों से होटल बना रहे हैं....सुना है कि उनके कुछ कमरे पूरी तरह से तैयार हो चुके हैं, आप वहाँ पता कीजिए मुझे पूरी उम्मीद है कि वहाँ आपको कमरे मिल जाएंगे।"
                     पांच मिनट बाद मेरी गाड़ी मोतीराम तेजटा जी के घर.....और उनके बेटे "मोहिल तेजटा" ने हमें अपने  तीन मंजिला होटल की सबसे ऊपर वाली मंजिल में तैयार हो चुके कमरे दिखाने के लिए ऊपरी मंजिल का मुख्य दरवाज़ा जैसे ही खोला...... तो अंदर दीवारों और छत पर हुई लकड़ी की मीनाकारी देख हम अवाक् से रह गए। मोहिल जी ने हमें बहुत जायज़ दाम पर दो कमरे रात्रि विश्राम हेतु दे दिये। हमारे कमरों का मुख भी कूप्पड़ पर्वत की तरफ ही था, सो उसको देख कर मैं मोहिल जी को कहता हूँ कि मैं अकेला अभी कूप्पड़ शिखर पर चढ़ने के लिए जा रहा हूँ,  तो मोहिल जी बोले- "नहीं सर, अभी तो कूप्पड़ जाने के लिए पर्याप्त समय नहीं बचा है....शाम भी हो चली है, कल सुबह जाना.....यदि आप इस वक्त घूमना चाहते हैं, तो गाड़ी लेकर खड़ा-पत्थर से ऊपर की तरफ 12किलोमीटर जाकर  'चून्जर'  गाँव चले जाऐं, क्या खूबसूरत जगह है पहाड़ की ऊँचाई पर और वहाँ से 5 किलोमीटर आगे  'देवरीघाट'  गाँव जाकर कुदरत की कलाकारी भी जरूर देखें।"
                 " कुदरत की कलाकारी, वो कैसे मोहिल जी?"
"वो ऐसे कि वहाँ पर्वतों पर कुदरती तौर पर बने 'थाच' यानि घास के खूबसूरत मैदान देखने योग्य हैं...!"
                  " परंतु हिमाचल में तो पहाड़ पर बने घास के मैदानों को 'घासणी' कहते हैं, जिन्हें उत्तराखंड में 'बुग्याल' नाम से पुकारा जाता है, यह 'थाच' नाम मैं आप के मुख से पहली बार सुन रहा हूँ,  मोहिल जी...!!"
                  "और....सर जी, चून्जर व देवरीघाट के मध्य 'टाऊ वैली' आती है, जिसकी सुंदरता वहाँ पूरे पहाड़ पर उगा देवदार के वृक्षों का घना जंगल है, ठीक वैसा ही जैसा शिमला से कुफरी की तरफ जाते हुए रास्ते में आता है, जहाँ खूब सारे पर्यटक अपनी फोटो खिंचवाने के लिए रुकते हैं.....उस जगह का नाम भी उस जगह सा ही खूबसूरत है "हसन वैली"
                    "वाह"  मैं बोल उठा- "वैसे कई बार वहाँ से गुज़रा हूँ, फोटो भी खींची व खिंचवाई है.....पर उस जगह का नाम भी आपसे ही पहली बार पता चला, मोहिल जी...!"
                     "बस उस 'हसन वैली' सी ही हसीन है हमारे यहाँ की 'टाऊ वैली' सर जी, देखते ही रह जाओगे आप...!!"
                     बालकनी में खड़े-खड़े हो रही हमारी वार्ता में,  जब मैं पीछे मुड़कर कमरे के अंदर देखता हूँ....तो सब के सब नरम बिस्तरों में धंस चुके थे। अंदर जाकर "हां जी" कहता ही हूँ......मां-बच्चे लेटे-लेटे ही हाथ ऊपर कर जाने से मना कर देते हैं, मम्मी-डैडी के कमरे में जाता हूँ तो वहाँ भी थकावट के बादल छाये हुए थे। परंतु मुझ सनकी घुमक्कड़ को कभी थकावट हो सकती है भला.....और वह भी पहाड़ों में पहुँचकर...!  समुद्र या झील में मुझे घुमा रही नाव पर मैं बैठा-बैठा थक तो सकता हूँ, परंतु पहाड़ों पर चढ़ता-उतरता मैं कभी नहीं थक सकता.....क्योंकि यह तो  मेरा मनपसंद काम है दोस्तों।
                       सो झट से अकेला ही अपनी गाड़ी का कान मरोड़ चल देता हूँ, नई नवेली हसरतों को देखने।
                       "तुमवरू" पर्वत पर बसे खड़ा-पत्थर गाँव से सड़क पर मेरी गाड़ी भी चढ़ने लगी क्योंकि चून्जर गाँव इस पर्वत के शिखर पर बसा है।
                         एक चिड़िया को अपनी चोंच में तिनके को ले उड़ते देख और उस घर की मुंडेर पर पहाड़ी कौवे को घर के आंगन की तरफ कांव-कांव करते देख, निश्चिंत हो जाता हूँ कि अभी आग का गोला और जलता रहेगा......घड़ी पर नज़र दौड़ाता हूँ शाम के साढ़े पांच मतलब मेरे पास दो घंटे के प्रकाश वाला आकाश है।
                        खड़ा-पत्थर से कुछ ऊपर की ओर चढ़ते ही मंजर बदलने लगे और मैं गाड़ी खड़ी कर बाहर निकल देखने लगता हूँ,  खासकर सामने देख रहे कूप्पड़ शिखर को.....जिस पर बड़ा सा खूबसूरत बुग्याल या घासणी या थाच जो मुझे खड़ा-पत्थर पहुँचने पर हरदम आकर्षित कर रहा है और नीचे दिख रही एक खुली सी हरी-भरी घाटी।
                        एक-दो मोड़ और मुड़ा तो मेरी गाड़ी को वीरान सड़क पर पैदल जा रहे एक मुस्लिम गुर्जर गद्दी दंपति ने हाथ दिया। उनकी गोद में एक नन्ही सी बिटिया थी, जो हाथों में बाज़ार से लौटे बच्चों की तरह ही चिप्स का पैकेट और कोल्ड ड्रिंक की बोतल थामे थी। वैसे मैं अपने मैदानी इलाकों में मुझे दिए गए हाथ अक्सर अनदेखा कर देता हूँ, पर यहाँ मैं ऐसा चाह कर भी नहीं करना चाहूँगा। सो गाड़ी रोक उन्हें बिठा लेता हूँ।
                      दोस्तों ऐसी एक घटना का मैं यहाँ वर्णन करना चाहता हूँ कि बात तीन-चार साल पुरानी है। अपने पंजाब के एक गाँव में, जैसे ही मैंने अपनी गाड़ी स्टार्ट की... एक अंजान बंदा मेरे पास भागता हुआ आया और गाड़ी का दरवाज़ा खोल कर बोला- "मुझे ज़रा अगले गाँव उतार देना..!"
                     मैंने गंभीर सा मुँह बनाकर कहा- "हो सकता है तुम्हारे पास चाकू हो और तुम मुझे लूट लो या यह भी हो सकता है कि मेरे पास चाकू हो.....और, मैं तुम्हें कुछ आगे ले जाकर लूट लूँ...!!!!
                    मेरी यह बात सुन वह व्यक्ति सुन्न सा हो गया, उसने दूसरे क्षण अपना कदम पीछे कर गाड़ी का दरवाज़ा बंद कर दिया और मैंने अपनी गाड़ी को रफ़्तार दे दी। परंतु अब की बार मेरी गाड़ी की पिछली सीट पर बैठे इस गुर्जर दंपति से बितियाने में, मैं मसरूफ़ हो चुका था। चून्जर गाँव से पहले जंगल में उनका डेरा था, चंद मिनट के हमसफ़र बने दपत्ति को उतार....मैं फिर से बल खाती सड़क पर चल पड़ा। एक मोड़ पर आठ-दस छोटे-छोटे बच्चें पहाड़ पर खेल रहे थे, लग रहा था कि किसी स्कूल के बच्चे पिकनिक मनाने आए हुए हैं। चढ़ते-चढ़ते सड़क मुझे तुमवरू पर्वत शिखर पर ले आई, सबसे पहली नज़र उस लाल छत वाले मकान पर पड़ी जो उस हरियाली में खिले एकमात्र सुर्ख लाल गुलाब सा जान पड़ता था।
                     नज़र घूमी तो सामने सड़क की दोनों ओर कुछ कच्चे मकान, सीढ़िदार खेत और रावण, कुंभकरण, मेघनाथ से खड़े मोबाइल टावर नज़रों में आ धसें। ज़रा सा आगे हुआ तो सड़क किनारे एक छोटे से टीले पर "चूंज" जैसी स्लेटों की छत वाला एक वीरान छोटा सा मंदिर दिखाई पड़ा। उस मंदिर की छत की ऐसी बनावट देख मन में एक विचार आया कि इस वजह से तो इस जगह का नाम चून्जर तो नहीं पड़ा। परंतु आस-पास कोई भी नज़र नहीं आया, जो मेरे इस विचार को सही ठहराता।
                    सब कुछ शांत था वहाँ, ठहरा हुआ.....ऐसे जैसे मैं किसी हसीन मंजर की फोटो देख रहा हूँ बस।
                    आदतन अपनी यांत्रिक घड़ी पर सरसरी नज़र फेर कर देखता हूँ तो चून्जर की ऊँचाई समुद्र तट से 2800 मीटर। सड़क से दूर खेतों में हलचल नज़र आई, परंतु अपने कैमरे को जूम कर उन्हें बस अपने पास चित्र के रूप में ही बुला सका। खेतों में ज्यादातर मुझे गोभी की फसल ही बोई दिखाई दे रही थी।
                    चुन्जर से सड़क दो हिस्सों में फट, एक हिस्सा "कलगाँव" और दूसरा हिस्सा "देवरी घाट" को जा रहा था। घुमक्कड़ को तो देवरी घाट जाना है,  छह भी बज चुके थे.......चून्जर के पीछे छूटते ही अब एक नया सजीव दृश्यलेख मेरी आँखों के समक्ष प्रकट हो जाता है " टाऊ वैली"   जिसका जिक्र मोहिल जी ने "हसन वैली" का वास्ता देकर किया था। राई, देवदार, कैल के वृक्षों की खामोश घाटी, ठीक वैसे ही शांत जैसे कोई अति संपन्न व्यक्ति शांत नज़र आता है।
                     कोई हलचल नहीं, हवा बंद, शाम की सुनहरी धूप, पेड़ों की हरियाली और मेरी दो प्यासी आँखें....!
                     चंद लम्हे रुक अपने ही भीतर के शंखनाद को सुनते हुए इस खूबसूरती को अपनी खूबसूरत आँखों में भर कर और ज्यादा खूबसूरत करने की कोशिश करता हूँ।
                      आगे चल सोई हुई सुनसान सड़क बांई ओर करवट ले "कोटखाई" की तरफ उतर रही थी, पर मैं सीधा चला रहा देवरी घाट की ओर। रास्ते में आए स्लेटों की छत वाले झोपड़ी नुमा मकान के दरवाज़े पर खड़े उन किशोरों की तरफ जब मैंने अपने "जिगरी यार कैमरे" का मुँह किया, तो एक किशोर ने खुश होते हुए 'जय हिंद' की मुद्रा में अपना चित्र खिंचवा कर जता दिया कि तू भोले-भाले निष्कपट लोगों के बीच विचर रहा है विकास...!
               
                            चून्जर से केवल पांच किलोमीटर की दूरी पर देवरी घाट आने से पहले ही पहाड़ पर प्रकृति देवी द्वारा बनाए सीढ़िदार थाच (बुग्याल) दिखाई देने लग पड़े। देवरी घाट गाँव नज़र आने से पहले एक बहुत खुली सी घाटी दिखाई पड़ने लगी, जिसमें दूर-दूर तक जाल से ढके हुए सेबों के बागीचे और कई सारे गाँव नज़र आ रहे थे। मैं मंत्रमुग्ध सा अपनी गाड़ी धीरे-धीरे चलाता हुआ गाँव तक पहुँच जाता हूँ। गाँव के थाचों में घोड़े व गाय चर रही थी, कुछ बुजुर्ग घास पर घेरा बनाए बैठे चाय पर वार्ता कर रहे थे। घड़ी देखी तो समय शाम का 6:40 और देवरी घाट की समुद्र तल से ऊँचाई 2640 मीटर।
                         गाड़ी को मोड़ कर सड़क किनारे खड़ी एक हिमाचल परिवहन की बस के आगे पार्क कर उस छोटे से गाँव में पैदल घूमने लगता हूँ और मुझे तलाश होती है उस बंदे की जो मेरी झोली जानकारियों से भर सके।
                         बंदा जल्द ही मिल गया, उसी हिमाचल परिवहन बस का चालक है....जो अक्सर सारी रात आराम कर अगली सुबह अपने गंतव्य को रवाना होती है। बस चालक ने मुझे नीचे घाटी में दिख रहे गाँवों व कस्बों का नाम बताया,  जिनमें से दो नामों में मैंने बहुत रुचि दिखाई। पहला "टिक्कर" गाँव जिसका नाम मैं बचपन से ही अपनी बुआ जी के मुख से कई बार सुन चुका था कि वह वहाँ कुछ समय के लिए रह चुकी थी.....और दूसरा "स्यओ" गाँव जो अभिनेत्री 'प्रिटी जिंटा' का गाँव है। इन सब के पार "रोहडू" शहर व "चाशल" पहाड़ और सबसे ऊपर महान हिमालय के गगनभेदी शिखर।
                        दस मिनट वहाँ रुक, वापसी का गेयर डाल गाड़ी चल पड़ती है चून्जर की ओर खड़ा-पत्थर पहुँचाने के लिए। परंतु देवरी घाट में, मैं अनजाने में एक भूल कर आया....इसका ज्ञान मुझे बाद में मोहिल जी से हुई बातचीत के दौरान हुआ कि मैं उन खूबसूरत थाचों को नहीं देख पाया, जिनके लिए मोहिल जी ने मुझे देवरी घाट भेजा था.....क्योंकि वह बड़े-बड़े खूबसूरत थाच देवरी घाट गाँव के कुछ आगे थे और मैं केवल गाँव में घूमघाम कर तृप्त हो लिया था।
                        साढ़े सात बज चुके थे वापस अपने ठिकाने पर पहुँचने में। रात्रि भोजन के लिए हमने खड़ा- पत्थर के बाज़ार में स्थित मशहूर "नेगी ढाबा एंड स्वीट शॉप" का रुख किया। दुकान पर ग्राहकों से घिरे मेज़ जता रहे थे कि कुछ खास है यहाँ पर...!
                       दुकान संचालक "ज्ञान सिंह नेगी" के आग्रह पर ना चाहते हुए भी हमने मोमोज़् का आर्डर दिया, क्योंकि नेगी जी से जब हमने कहा कि दोपहर में मुंगेरी के ढाबे पर हमने मोमोज़् खाए थे, तो नेगी जी ने कहा फिर तो आप जरूर हमारे यहाँ के मोमोज़् चखे....क्योंकि हमारे कुक नेपाली हैं। यह सुन मन में बात आ गई जैसे सहारनपुरी मुंगेरी के हाथों के बने समोसे हिमाचल में उत्तर प्रदेशी समोसों का आनंद दे गए,  तो नेपाली मोमोज़् भी जरूर अलग स्वाद में होंगे......हुआ भी ऐसे ही नेगी जी ने सही कहा था, क्या गजब का स्वाद था उन मोमोज़् का।
                       असल में मोमोज़् नेपाल का ही व्यंजन है, इसे स्वादिष्ट बनाने में नेपाली ही निपुण माने जाते हैं। यहाँ एक बात मैं आप संग बांटना चाहता हूँ कि फेसबुक पर हम घुमक्कड़ों का एक ग्रुप है  "घुमक्कड़ी, दिल से"  अभी चंद रोज़ पहले ग्रुप में हमारी एक घुमक्कड़ ग्रुप सदस्या ने अपनी उज्जैन यात्रा के दौरान चखे बेस्वाद मोमोज़् का चित्र डाल कहा था कि उज्जैन आकर यहाँ के मोमोज़् ना खाएँ....!
                      और तो और उस मोमोज़् के साथ दुकानदार ने दही परोसा। अब मोमोज़् और दही.....सोचो क्या दही में डुबोकर मोमोज़् आप अपने हलक से नीचे उतार पाएंगे! 
                     नहीं ना....... हां जलेबी के साथ दही मैंने इलाहाबाद से चित्रकूट जाते हुए रास्ते में एक कस्बे पर रुकी बस से उतर कर खाया था, जबकि हम पंजाबी रबड़ी- जलेबी खाना ज्यादा पसंद करते हैं, फिर भी दही-जलेबी का तालमेल मुझे स्वादिष्ट लगा, परन्तु मोमोज़्-दही....!!!!
                    कहने का अर्थ है व्यंजन का असली रस वो ही चखा सकता है, जो उस व्यंजन के जन्म स्थान से संबंध रखता हो.....जैसे मुझे अहमदाबाद में एक गुजराती भाई ने कहा कि सरसों का साग हमने भी बनाया, पर हमें तो कोई ज्यादा स्वाद नहीं लगा। तब मैंने उन्हें कहा कि मेरे सोहने पंजाब में आइये,  हम आपको साग बनाकर खिलायेगें.... तब कहना जी।
                      खैर, नेगी ढाबे पर बेटे ने फ्राइड राइस, बेटी ने स्थानीय राजमाँह के साथ तंदूरी लच्छा पराँठा, श्रीमती जी ने कढ़ी-चावल और मेरा व मम्मी-डैडी का खाना आलू-मटर, राजमाँह के साथ तंदूरी रोटी.....मतलब हर कोई स्वाद के समुद्र में गोते लगा रहा है। अंत में खाया बेहद स्वाद व शुद्ध "कलाकंद"
                       आप सोच रहे होंगे कि यह बंदा क्या खाने-पीने की चीज़ों के बारे में लिख रहा है कि क्या-क्या खाया। वह इसलिए कि हम हर रोज घंटे-दर-घंटे कुछ ना कुछ खा रहे होते हैं....परसों क्या खाया था आज याद नहीं...!  परंतु घुमक्कड़ी के दौरान खाया स्वादिष्ट व अस्वादिष्ट खाना तमाम उम्र उस जगह की विशेषता की तरह याद रहता है जहाँ हम घूम चुके होते हैं। मेरा मानना है कि यदि हम घूमने की स्मृतियों में वहाँ चखे व्यंजनों का स्वाद भी जोड़ लेंगे, तो दिमाग व जीभ पर दोनों ही स्मृतियों का स्वाद ताज़ा बना रहेगा दोस्तों...!!
                        काऊँटर पर नेगी जी को बिल अदा कर सुबह कूप्पड़ शिखर जाने संबंधी मालूमात लेनी चाही, पहले तो नेगी जी ने हैरान हो हम सब को देख, कहा- "क्या आप सारे ही कूप्पड़ जा रहे हैं...?"
                      "नहीं...नहीं, मैं अकेला ही...!"
"तो ठीक है, वहाँ तो बहुत चढ़ाई है...!!"
                      गिरी-गंगा मंदिर और कूप्पड़ ट्रैक के बारे में जानकारी देते हुए नेगी जी ने मुझे सामने के टेबल पर बैठे पांच लोगों के एक दल से मिलवाया, इनमें दो महिलाएं भी थी और सभी के सभी सीनियर सिटीज़न श्रेणी के आस- पास के ही थे। हिमाचल पर्यटन विकास निगम के "गिरी- गंगा रिसॉर्ट" में ठहरे हुए थे और कल सुबह खड़ा-पत्थर से ही 6किलोमीटर पैदल गिरी-गंगा मंदिर तक ट्रैक करना चाहते थे। जबकि मैं इन 6किलोमीटर के कच्चे रास्ते को अपनी गाड़ी द्वारा पार कर मंदिर से कूप्पड़ शिखर का ट्रैक करना चाहता था।
                        वापस होटल पहुँचने पर मैं, मोहिल जी और लुधियाने से अकेले अपनी बुलेट ले 'चाशल पास' घूम कर आए सरदार जी गूफ्तगू में मगन हो गए। पेशे से अध्यापक सरदार जी गर्मियों की छुट्टियों का फायदा लेते हुए हिमाचल में घूम रहे थे और हमारी तरह ही मोहिल जी ने उन्हें भी रात रुकने के लिए कमरा दे दिया था।
                      "नेगी ढाबे पर खाना खाते हुए मेरे पिताजी ने बताया कि आपके पिताजी से शाम को हुई बातचीत में उन्होंने बताया कि वह इस होटल पर एक करोड़ रुपए लगा चुके हैं, मोहिल जी...!"
                     "हां सर जी।"
मैंने हैरानी से मोहिल जी से बेबाक प्रश्न पूछ डाला- "पर यह एक करोड़ रुपया आया कहाँ से जनाब...!!" (क्योंकि पहाड़ पर उस छोटे से गाँव में सादी जीवन शैली जी रहे इन लोगों के मुख से करोड़ शब्द सुनना मुझे हैरान कर गया)
                     "सर जी, हमने बैंक से लोन लिया है और हमारे सेब के बागीचें की कमाई है।"
                    "अच्छा तो, सेब के बगीचें में आपको क्या आमदन है जी...?"
                     "दस लाख से पंद्रह लाख रुपए सालाना की!"  "तो, मतलब आप अपनी उम्र की जमापूंजी से यह होटल बना रहे हैं और बहुत ही सुंदर व कलात्मक कारीगरी करवाई है, आपने अपने होटल के अंदर...मोहिल जी, इतनी सारी देवदार की लकड़ी का इंतजाम कैसे होता है...?"
                   "सर, कुछ हमारे अपने पेड़ थे जिन्हें जंगलात से अनुज्ञा ले काटा और फिर अपने-अपने राशन कार्ड पर हम सब घर वालों ने 'टी डी फोर्म' महकमे में आवेदन देकर उनसे पेड़ खरीदें।"
                    " वाह, यह जानकारी भी आपकी तरफ से मेरे लिए नई है, मोहिल जी....परंतु अभी तक आपने मुझे अपने 'सपनों के महल' इस होटल का नाम तो बताया ही नहीं और ना ही कोई बोर्ड आदि बाहर लगा रखा है...!"
                     मोहिल जी मुस्कुराते हुए बोले- "होटल का नाम होगा   'दा हिमालयन रिजॉर्ट, खड़ा पत्थर'   और अगले वर्ष मतलब 1अप्रैल 2020 को शुरू होने वाले वित्त वर्ष से हम इस होटल को आरंभ कर देंगे.....और हां, हम होटल में अपने घर का बना खाना भी मेहमानों को मुहैया करवाएंगे, जैसे आज इन सरदार जी ने हमारे घर का बना खाना ही खाया.....यह कहते हुए कि मैं कई दिनों से बाहर का खाना खा-खा कर ऊँब चुका हूँ,  देखिए हमारा होटल हमारे घर के साथ है....यदि मेहमान चाहेगा तो हम उसे घर का बना खाना, खास कर स्थानीय खाना जो उसने कभी ना खाया होगा, खिलाएंगे...!"
                   "स्थानीय खाना, कैसे....कौन-कौन से व्यंजन मोहिल जी...?"
                          "जैसे सिड्डू, मंदरा, लिंगडू की सब्जी, कोदा-चलाई की रोटी.....कोदा की तो यहाँ स्थानीय शराब बनाई जाती है और बंग-ज़ीरी।"
                          "बंग- ज़ीरी कहीं वो 'जखिया' मसाला तो नहीं जो उत्तराखंड में ज़ीरे की तरह व्यंजनों में छौंक लगाने के लिए इस्तेमाल होता है।"
                         "नहीं सर जी, बंग- ज़ीरी कोई मसाला नहीं, अन्न है.....अफीम-दाना (खस-खस) की तरह के दाने होते हैं, जिन्हें पहले भूना जाता है फिर पीसकर आटा बनाया जाता है.....जिससे नमकीन व मीठे व्यंजन बनाए जाते हैं और इस आटे से रोटी भी बनाई जाती है।"
                       "वाह मोहिल जी, मैं उम्मीद करता हूँ कि वह रोटी बहुत स्वादिष्ट होती होगी.....मेरी पुरज़ोर कोशिश रहती है कि घुमक्कड़ी के दौरान वहाँ के स्थानीय व्यंजनों को ढूँढ-ढूँढ कर चखूँ, काश कि आप से इस विषय पर बातचीत यदि शाम को ही हो जाती तो आज रात का खाना, आपके घर का खाना ही होता।"
                       "अच्छा मोहिल जी, मेरा अगला सवाल एक और है जो चून्जर से वापस आते हुए मेरे दिमाग में कोंदा था कि इस जगह का नाम " खड़ा-पत्थर" क्यों पड़ा, यद्यपि मुझे अभी तक यहाँ कोई भी पत्थर खड़ा हुआ नहीं मिला...!" मैने हंसते हुए कहा।
                       " है ना, ऊपरी बाज़ार में एक प्राचीन मंदिर है, उसमें है " खड़ा-पत्थर" उस खड़े पत्थर को हम सब माँ काली का स्वरूप मान पूजतें हैं और इसी खड़े पत्थर के कारण यहाँ का नाम 'खड़ा-पत्थर' पड़ गया।"
                        गूफ़्तगू चलते-चलते काफी लम्बी चल गई,  जब उठ कर अपने कमरे में गया तो सब लगभग सो ही चुके थे। मैं तड़के 4बजे का अलार्म फोन पर लगा कर, बिस्तर पर लेट तो जाता हूँ.....परन्तु नींद आँखों के भीतर नहीं आ पा रही थी, क्योंकि उसके घर पर आज दिन भर की स्मृतियों ने कब्ज़ा जो जमा रखा था...!!!!
                       ( अगली किश्त- मैं अकेला ही वीरान कूप्पड़ शिखर की ओर बगैर किसी रास्ते के चढ़ता जा रहा हूँ....दस कदम चढ़ कर बार-बार पीछे मुड़कर देख लेता हूँ कि कहीं मैं इस वीराने में खो गया, तो कम से कम वापसी के राह को तो पहचान सकूँ...! )


                                     
शिमला का "जंगल"
                                           
"कोट-खाई" का 800वर्ष पुराना किला "दरबार"

खड़ा-पत्थर पहुँचते ही, सामने दिख रहे इस गिरिराज शिखर के बुग्यालों ने मुझे आकर्षित कर लिया.....यह  "कूप्पड़ पहाड़" है दोस्तों।

मुंगेरी के ढाबे पर चखे व्यंजन।

मेरी गाड़ी नहीं, उस खूबसूरती को देखो...जिसमें गाड़ी खड़ी है,
 मोहिल तेजटा जी के होटल की पार्किंग। 

होटल के सामने नज़र आता कूप्पड़ गिरिराज।

निर्माणाधीन होटल की तीसरी मंजिल की खूबसूरत लोबी।

और, मैं होटल से अकेला ही चून्जर की तरफ चल दिया।

परन्तु बार-बार मेरा ध्यान कूप्पड़ पर्वत शिखर पर ही केन्द्रित हो रहा था।


चून्जर गाँव की तरफ चढ़ते हुए नीचे दिख रहे घाटी।

इस खूबसूरती में एक कच्चा घर।

चून्जर के रास्ते में मिला गुर्जर गद्दी परिवार।

और, मेरी गाड़ी में बैठ कर आया यह दम्पति इन घने पेड़ों में कहीं बने अपने गद्दी डेरे की तरफ चल दिया।

जंगल में पहाड़ के साथ खेल रहे पिकनिक मनाने आए छोटे-छोटे बच्चे।

पहाड़ के शिखर पर बसे चून्जर गाँव का नज़र आया वो पहला घर, मानों प्रकृति के बागीचे में जैसे कोई सुर्ख लाल गुलाब खिला हो।

नज़र घूमी तो सामने सड़क की दोनों ओर कुछ कच्चे मकान, सीढ़िदार खेत और रावण, कुंभकरण, मेघनाथ से खड़े मोबाइल टावर नज़रों में आ धसें।

नन्हा सा गाँव चून्जर।

खेतों में गोभी की फसल ही दिखाई दे रही थी, बस।

सड़क से दूर खेतों में हलचल नज़र आई, परंतु अपने कैमरे को जूम कर उन्हें बस अपने पास चित्र के रूप में ही बुला सका।

मुझे यह चित्र बहुत ही पंसद है.......चून्जर गाँव का वो वीरान मंदिर और मेरी गाड़ी।

चून्जर की समुद्र तट से ऊँचाई- 2800मीटर

सब कुछ शांत था वहाँ, ठहरा हुआ.....ऐसे जैसे मैं किसी हसीन मंजर की फोटो देख रहा हूँ बस।

कोई हलचल नहीं, हवा बंद, शाम की सुनहरी धूप, पेड़ों की हरियाली और मेरी दो प्यासी आँखें....! (टाऊ वैली के प्रथम दर्शन) 
रास्ते में आए स्लेटों की छत वाले झोपड़ी नुमा मकान के दरवाज़े पर खड़े उन किशोरों की तरफ जब मैंने अपने "जिगरी यार कैमरे" का मुँह किया, तो एक किशोर ने खुश होते हुए 'जय हिंद' की मुद्रा में अपना चित्र खिंचवा कर जता दिया कि तू भोले-भाले निष्कपट लोगों के बीच विचर रहा है विकास...!

देवरी घाट गाँव के प्राकृतिक थाच।

देवरी घाट गाँव नज़र आने से पहले एक बहुत खुली थी घाटी दिखाई पड़ने लगी, जिसमें दूर-दूर तक जाल से ढके हुए सेबों के बागीचे और कई सारे गाँव नज़र आ रहे थे। 

देवरी घाट के थाचों में चर रही एक घोड़ी।

गाँव के थाचों में घोड़े व गाय चर रही थी, कुछ बुजुर्ग घास पर घेरा बनाए बैठे चाय पर वार्ता कर रहे थे।

गाड़ी को मोड़ कर सड़क किनारे खड़ी एक हिमाचल परिवहन की बस के आगे पार्क कर उस छोटे से गाँव में पैदल घूमने लगता हूँ।

देवरी घाट से नीचे घाटी में नज़र आ रहा "टिक्कर"

और, सामने सबसे ऊपर नज़र आ रही महान हिमालय के गगनभेदी शिखर।

वापसी पर मैं फिर से ठहर जाता हूँ "टाऊ वैली" को निहारने।

ऊँचाई से दिख रहा हमारा ठिकाना....."दा हिमालयन रिजॉर्ट, खड़ा-पत्थर"

पापा, मेरी फोटो खींचो...!!

नेगी ढाबे पर चखे अति स्वादिष्ट मोमो

"फ्राइड राइस"

"कढ़ी-चावल"

स्थानीय राजमाँह, आलू मटर और लच्छा परॉठा।

नेगी ढाबे पर रात्रि भोजन के अंत में खाया "कलाकंद"


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