रविवार, 29 अक्तूबर 2017

भाग-25 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....Shrikhand Mahadev yatra(5227mt)

भाग-25 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....
                                       " जब दिल ही टूट गया,  तो तेरे संग कैसे नाचे विकास...! "

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                                               पिछली किश्त में आप लोगों ने पढ़ा कि मैं और विशाल रतन जी श्री खंड महादेव कैलाश शिला से मात्र डेढ़ किलोमीटर पहले बर्फीले तूफ़ान में फंस जाने के कारण नाकामयाब हो कर वापस पार्वती बाग पहुँच चुके थे,  हमारा पथप्रदर्शक केवल राम हमसे आगे वापस भीमद्वारी को जा चुका था... हम दोनों अब धीरे-धीरे पार्वती बाग से वापस भीमद्वारी की ओर उतर रहे थे,  उतर क्या अपने-आप को घसीट रहे थे क्योंकि नाकामयाबी ने हमारे तन और मन को बेहद भारी कर दिया था.... तभी हम उस निश्चित स्थान पर पहुँचें,  जहाँ से हमने सुबह अंधेरे में पहाड़ के ऊपर दिख रही श्री खंड महादेव शिला के दर्शन किये थे,  मैने फिर से उस ओर देखा तो.. एक नज़र देखने के बाद मेरी फिर से हिम्मत ना हुई कि मैं दोबारा श्री खंड महादेव शिला की ओर देख भी लूँ क्योंकि मुझे ऐसी अनुभूति हुई कि श्री खंड महादेव शिला मेरी टूट चुकी अकड़ पर हंस रही हो,  जैसे मेरा मजाक उड़ा रही हो कि...  " बड़ा पर्वतारोही बन घूम रहा था तू विकास, ले तुझे भी सबक दे दिया..! "     मानों श्री खंड महादेव के आगे मुझे अपनी औकात दिखाई देने लगी।
                            मैं तब विशाल जी को बोला, " मुझे आज ज्ञान व अनुभव हुआ क्यों हमारे पूर्वजों ने क्यों इतनी कठिनाई भरी तीर्थ यात्राएँ इन तीर्थो तक पहुँचने के लिए बनाईं.... इसलिए कि मनुष्य अपने घर-समाज में अपनी "मैं"  में रचा बसा होता था या अब भी है,  कि मैं अमीर हूँ,  बलवान हूँ,  यह हूँ,  वो हूँ... परन्तु जब वह तीर्थ पर चलने के लिए पर्वत के नीचे खड़ा हो,  उसकी ऊँचाई को आ देखता है तो उसे अपने असली कद का अहसास होता है...जब वह उस पर्वत पर चढ़ता है तो उसे अपनी औकात का अहसास होता है,  जैसे-जैसे वह कठिनाई से भरी उस तीर्थ यात्रा पर बढ़ता जाता है...उसके अंदर की अकड़ ढीली पड़नी आरंभ होनी लगती है और भीतर घर कर चुकी "मैं" भी मरने लगती है... जब वह व्यक्ति तीर्थ स्थल पर पहुँचता है तो उसके भीतर नवनिर्माण हो चुका होता है,  एक " मैं रहित" मनुष्य का,  तब वह कह उठता है  " बस तू ही तू... तू ही तू.... तू ही तू....!!!
                            दोपहर के दो बज चुके थे रास्ता बेहद कीचड़युक्त हो चुका था,  जिससे हमारी चाल में और ज्यादा भारीपन आ गया था... तड़के सुबह के अंधेरे में ना दिखी पार्वती बाग की सुंदरता अब दिन के उजाले में आँखों के समक्ष नाच रही थी,  परन्तु अब वो सुंदरता किस को मोह रही थी क्योंकि "जब दिल ही टूट गया,  तो तेरे संग कैसे नाचे विकास...! "       पार्वती बाग में खिले फूल तो पहले की तरह ही मुस्कुरा रहे थे, मानों मेरे ताज़ा जख्मों पर मरहम लगा रहे हो।
                            हमारे साथ कई सारे लोग और भी वापस उतर रहे थे, पर किसी के चेहरे पर चहचहाहट नही थी,  सबके सब मुरझायें हुए थे ठीक मेरी तरह। मैने किसी से भी बात नही की क्योंकि मुझे अपना दुख सबसे भारी लग रहा था......खामोशी में अपने-आप को बस घसीटता हुआ चल रहा था विशाल जी के आगे-अागे।
                             थक- हार कर एक जगह बैठ गया,  बूट कीचड़ से सने हुए थे... और विशाल जी मुझ से 20कदम ऊपर बैठे रहे.....पर हम दोनों खामोश और दूर नीचे दिख रही भीमद्वारी को देखते रहे, कुछ समय बाद एक कुत्ता मेरे पास आ बैठा,  पता नही क्यों मेरे चेहरे पर अब कुछ खुशी के भाव उत्पन्न हो गए और एकाएक वह कुत्ता उठ विशाल जी के पास जा बैठा... एक सुख का अहसास हुआ उस वक्त हम दोनों के लिए उस कुत्ते का मिलना कि कोई तो आया हमारे पास हमे पूछने,  " चाहे वो किसी भी रुप में आया हो, पर आया जरूर....!"
                             उतराई उतरते-उतरते अब हम दोनों को पार्वती झरने ने रोक लिया,  करीब सौ मीटर की ऊँचाई से अथाह जल को गिरते देखना हर किसी के लिए आकर्षण का केन्द्र है... इस मनमोहक जल प्रपात को हम सुबह अंधेरे में सिर्फ सुन पाये थे,  अब इस जल प्रपात का दृश्य ही इतना हसीन था कि कानों ने अब इस झरने के शोर को अनसुना कर दिया... इस सुंदरता ने हमारे मायूस मन को कुछ समय के लिए बहला सा दिया,  चंद चित्र पार्वती झरने के साथ खिंचवा कर, हम दोनों उतर चले भीमद्वारी की ओर.... शाम साढे चार बजे हम भीमद्वारी अपने टैंट पर पहुँच गए,  टैंट मालिक नवनीत से सामना हुआ तो उसकी नज़रो में हम बेचारों के लिए सहानुभूति थी....पथप्रदर्शक केवल राम के बारे में पूछा तो नवनीत ने कहा कि उसे तो बुखार हो गया है, वह दोपहर से ही सो रहा है......खैर हम भी जा गिरे अपने टैंट में,  गीली ज़ुराबों ने पैरों को बूढ़ा बना दिया था.... नवनीत द्वारा परोसा गया वेजीटेबल सूप पी हम लेट गए क्योंकि आज पर्वत शिखरों पर सांयकाल को पड़ने वाली सूर्य की अंतिम किरणों को निहारनें की इच्छा मर चुकी थी,  सो मन-दिमाग को निराशा की सोच से आजाद करने के लिए अपनी आँखें बंद कर ली।
                              शाम साढे सात बजे केवल हमे जगा कर बोला, " भैया रसोई में आ जाओ,  खाना तैयार है..! "
वही कल वाली रसोई,  वही कल वाला जलता हुआ चूल्हा, वही कल जैसा स्वादिष्ट भोजन... परन्तु आज उस रसोई में हमारी खामोशी पसरी हुई थी... सोने से पहले हमने तय किया कि कल सुबह जल्दी-से-जल्दी भीमद्वारी छोड़ देना है।
                               अगली सुबह 5बजे उठ.... 6बजे वापसी की डगर थाम ली, परन्तु हमारे कदमों में वो उछाल व मन में संतुष्टि नही थी,  जो किसी मंजिल को प्राप्त करने के बाद वापसी पर होती है...मेरा मन बेचैन का बेचैन सा ही चल रहा था.... बार-बार बेचैनी से पीछे मुड़ कर भीमद्वारी और पार्वती बाग की तरफ देख रहा था, जैसे मेरा वहाँ कुछ छूट गया हो.... चलते-चलते मैने भीमद्वारी में बैठी प्रकृति की सुंदरी देवी से मन ही मन वादा किया कि फिर से आऊँगा, तुम मेरी अर्जी भगवान शिव तक पहुँचा देना।
                                रास्ते में मिलते लोगों संग हमराही बन चलते रहे और उन सब लोगों में मेरी तरह ही नाकामयाब लोग ही ज्यादा थे,  हर कोई अपनी कहानी....क्या कहूँ दुखड़ा रो रहा था। सच कहूँ दोस्तों, हम सब आपस में अपना दुख बांट रहे थे और अब मुझे अपना दुख कुछ हल्का महसूस होने लग पड़ा था।
                                 सुबह 9बजे हम कुंशा के हरे-भरे घास के मैदानों में से गुज़र रहे थे,  दूर पहाड की हरियाली पर भेड़ों के झुंड ऐसे चमक रहे थे जैसे शाम के धुंधले से आसमान में तारे निकल आए हो... कुंशा के मनमोहक पुष्प अब भी मुझे देख मुस्कुरा रहे थे,  सो मैं भी अब उनकी मुस्कुराहट का जवाब मुस्कुराहट से ही दे रहा था क्योंकि नाकामयाबी का दुख अब कुछ कम हो चुका था.... कुंशा नाले के ग्लेशियर को पार कर अब हम भीमतलाई की तरफ वापस उतर रहे थे।
                               
                                                          दोस्तों,  एक बात अब बताता हूँ आपको.... मैने जब इस चित्रकथा को लिखने के बारे में सोचना शुरू किया तो सर्वप्रथम यह सोच मन में आई कि क्या मैं इस "अधूरी यात्रा" को लिखूँ या नही..... अगर लिखूँ तो इस यात्रा की चित्रकथा को क्या शीर्षक दूँ... यात्रा अधूरी होने के कारण मैने इस धारावाहिक चित्रकथा को नाम दिया, " श्री खंड महादेव कैलाश की ओर..."         चाहे यह यात्रा अधूरी है...मंजिल नही हासिल हो पाई,  पर रास्ता और रास्ते के खट्टे-मीठें अनुभवों व अनुभूतियाँ बेहद यादगार व हसीन रहे दोस्तों।

                                                            ...............................(क्रमश:)
"बड़ा पर्वतारोही बन घूम रहा था तू विकास, ले तुझे भी सबक दे दिया...! "
पार्वती बाग से दिख रही श्री खंड महादेव कैलाश शिला। 

पार्वती बाग से भीमद्वारी की ओर उतरना क्या... मैं तो अपने आप को बस घसीट रहा था,  थक-हार कर एक जगह बैठ गया... बूट कीचड़ से सने हुए थे। 
                                     
                                                                               
वहीं बैठे हम दोनों नीचे दिख रही भीमद्वारी को देख रहे थे। 
    
इस कुत्ते का मेरे पास आना,  बेहद सुखद अनुभव था... कुछ क्षण मेरे पास ठहर यह जनाब विशाल जी की ओर बढ़ गए। 

और,  विशाल जी के पास काफी समय तक बैठे रहे ये महाशय... कोई तो आया हमारे पास, हमारा हाल जानने... चाहे किसी भी रुप में आया,  पर आया तो...!! 


हमारी तरह ही हर किसी के चेहरे पर चहचहाहट गुम थी। 


परन्तु पार्वती बाग के पुष्प मुस्कुरा करे थे,  मानों हमारे ताज़े जख्मों पर मरहम लगा रहे हो। 


पार्वती बाग की ढलान पर चर रही भेड़े.... 


और नीचे उतरे तो,  पार्वती झरने के दर्शन होने लगे। 
                                                                                 
                                                                                 

और,  इस खूबसूरती ने हमे कुछ समय के लिए बहला दिया.. सो चित्रों में खुद को कैद कर लिया। 

पार्वती जल प्रपात और विश्राम कर रहे कुछ लोग। 

पार्वती बाग में चर रही भेड़े का दृश्य। 

करीब सौ मीटर की ऊँचाई से गिर रहा जल प्रपात ..... पार्वती झरना। 

सुबह अंधेरे में पार्वती झरने के गिरने का शोर ही सुनाई दे रहा था,  परन्तु अब इस हसीन झरने का दृश्य आँखों पर भारी था.. क्योंकि कानों ने अब शोर को अनसुना कर दिया था। 

पार्वती झरने से बह रहा जल... और उस पुल से दिख रहा भीमद्वारी। 

टैंट पर पहुँच पीछे मुड़ कर देखा यह हसीन दृश्य....! 

गीली ज़ुराबों ने मेरे पैरों को बूढ़ा बना दिया।

वही कल वाली रसोई,  वही कल वाला चूल्हा और वही कल जैसा स्वादिष्ट भोजन... परन्तु आज खामोशी पसरी हुई थी वहाँ। 

अगली सुबह 5बजे भीमद्वारी का दृश्य। 

सुबह 6बजे भीमद्वारी से रुख्स्त होते वक्त...! 

मैं बार-बार पीछे मुड़ कर ऐसे देख रहा था, जैसे मेरा कुछ भीमद्वारी में छूट गया था...अंतिम झलक। 

बादलों का झुरमुट... 

रास्ते में मिल रहे सहयात्री... सब अपनी नाकामयाबी का दुख एक-दूसरे संग बांट रहे थे। 

कुंशा के टैंट... 

कुंशा की हरियाली पर भेड़ों के झुंड ऐसे चमक रहे थे, जैसे सांयकाल में धुंधले हो चुके आसमान पर तारे निकल आये हो। 

कुंशा में खिले पुष्प की मुस्कुराहट...!

वापसी पर विशाल जी और हमराही। 

कुंशा नाले से कुछ पहले.... 

कुंशा नाले के ग्लेशियर पर खड़ा मैं... 


किसी दुकान का सामान उठा नीचे ले जा रहे भारवाहक। 

अब हम भीमतलाई की ओर उतर रहे थे।

            ( अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )



             

     
               

       


               


रविवार, 22 अक्तूबर 2017

भाग-24 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर.... Shrikhand Mahadev yatra(5227mt)

भाग-24 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर.....
                                                           और....... फिर!!!

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                                          पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि 23जुलाई2016 को मैं, विशाल रतन जी व पथप्रदर्शक केवल.....गई पर्वत से बसार गई पर्वत की ओर चढ़ाई कर रहे थे कि मौसम एक दम से बिगड़ गया... बारिश, बर्फबारी के साथ अब बहुत तेज गति से हवा भी चलने लगी थी,  परन्तु मेरे कदम सबसे आगे थे और हमारा पथप्रदर्शक केवल अब हम दोनों के पीछे चल रहा था, जो यात्रा का नकरात्मक पहलू साबित होने वाला था..... दस मिनट में ही वहाँ का तापमान 8डिग्री से एकाएक कम हो कर 4डिग्री आ चुका था वो भी सुबह के नौ बजे.... तेज हवा ने प्रचण्ड रुप ले अपने-आप को बर्फीले तूफ़ान में बदल लिया,  हम से ऊपर चल रहे लोग वापस नीचे की ओर दौड़ने लगे...या जिसे जहाँ अपने-आप को तूफ़ान से छिपाने की जगह मिल रही थी, वह वहाँ खड़े हो कर उस बर्फीले तूफ़ान को झेल रहा था।
                       परन्तु मेरे कदम नही रुक रहे थे,  कि तभी पीछे से विशाल जी ने आवाज़ लगाई, " विकास जी, अब ऊपर मत जाओ....मौसम बहुत बिगड़ चुका है।" मैने पीछे मुड़ कर देखा तो केवल और विशाल जी रास्ते किनारे पड़ी बड़ी-बड़ी चट्टानों की आड़ में सुरक्षित खड़े हो चुके थे... और विशाल बोले, " अब ऊपर नही जाया जा सकता,  चलो वापस नीचे उतर चलते हैं..!! "
                        मैं विशाल जी की बात सुन तैश में बोला, " हम पिछले चार दिनों से श्री खंड पहुँचने के लिए जी-तोड़ परिश्रम कर रहे हैं,  मंजिल के इतने पास आने पर मैं तो खाली हाथ वापस नही जाने वाला...मैं जल्दी हार मानने वालों में से नही हूँ...! " परन्तु विशाल जी ने मेरी बात का समर्थन नही किया.... मैं विशाल जी और केवल से दस कदम ऊपर रास्ते में अब ठगा सा खड़ा था और बर्फीले तूफ़ान की मार को झेल रहा था,  दस कदम नीचे उतर कर विशाल जी के पास भी नही गया....क्योंकि मुझे वापस नही बल्कि उन दोनों को ऊपर की ओर ले जाना था,  परन्तु वे दोनों ही अपनी जगह और फैसले पर अडिग खड़े हो चुके थे।
                        तब मैने जीवन में पहली बार विशाल जी के नाम सम्बोधन में "जी" शब्द को उतार धरकिनार किया और चीख कर बोला, "विशाल चल,  हम मंजिल के बहुत करीब है...सिर्फ ढेड़ किलोमीटर ही बचा है.....! "    परन्तु विशाल जी कहाँ मेरे व्याकुल व प्यासे मन की वेदना और छटपटाहट सुन पा रहे थे क्योंकि उस वक्त उनका दिमाग चल रहा था,  जबकि मेरा मन......!!
                         अपने-आप को हारता देख मैने एक दम से स्वार्थी हो दूसरा पासा फैंका और चीखा, " विशाल जी आप नीचे उतर जाओ,  तू चल मेरे साथ केवल राम..! "   परन्तु पथप्रदर्शक केवल की हालत तो हम दोनों से भी ज्यादा पतली हो चुकी थी,  उसने गर्म कपड़ों के नाम पर सिर्फ एक "खेलकूद जोड़ा"( ट्रैक सूट) ही पहन रखा था... वह अब ठण्ड से कांप रहा था,  मेरी बात सुन उसने झट से ना में अपने कांप रहे सिर को और ज्यादा कम्पा दिया।
                          सब कुछ हाथ से जाता देख,  मेरी छटपटाहट की सीमा चरम तक जा पहुँची और अगली पेशकश की,  कि चलो इस बसार गई पर्वत के शिखर तक ही चलते हैं और वहीं से ही श्री खंड शिला के दूरदर्शन कर ही अपने-आप को तृप्त कर लेते हैं.....सो ऊपर से नीचे उतरने वाले लोगों से पूछना शुरु कर दिया कि इस पर्वत शिखर से क्या हमें श्री खंड शिला के दर्शन हो जाएंगे,  परन्तु मेरी किस्मत हार चुकी थी... लोगों के उत्तर विचलित कर रहे थे कि मत आगे जाओ,  ऊपर तो बहुत बुरा हाल है और खूब सारी धुंध भी पड़ चुकी है, जिसके कारण रास्ता देखना भी नामुमकिन सा हो गया है।
                          परन्तु मुझ ढीठ अतृप्त को तृप्ति कहाँ,  वहीं बारिश में खड़ा-खड़ा हर उतर रहे यात्री से बार-बार ये ही सवाल..... और हर कोई वापस नीचे उतरने वाला शायद अपने दिमाग की ही सुन रहा था,  बस एक मैं ही था अपने मन को दिमाग पर हावी कर पिछले 15मिनट से बर्फीला तूफ़ान व बारिश में वहीं रास्ते पर खड़ा ऊपर की ओर जाना चाहता था.... अब अपना अंतिम फैसला विशाल जी को सुनाने वाला ही था कि मैं अकेला ही जा रहा हूँ श्री खंड महादेव...!!
                          उससे पहले ही विशाल जी बोल पड़े, " मन की मत सुन विकास,  यह हमे जीते-जी मरवा देगा... क्यों भूल रहे हो इस यात्रा पर पिछले एक सप्ताह में ही तीन लोगों की मौत हो चुकी है, हमें चौथी व पांचवी लाश बन इस पहाड से नही उतरना है... ज़िंदा रहे तो फिर से वापस आ सकते हैं, जानबूझ कर आत्महत्या को प्राप्त होना बहादुरी नही हो सकती,  मैं ना तो खुद आगे जाऊँगा और ना ही तुम्हें आगे जाने दूँगा....!!! "
                           विशाल जी के ये बोल सुन मेरे मन और दिमाग में अब द्वंद्वयुद्ध आरंभ हो चुका था,  सो विशाल जी से कुछ समय की मोहलत मांग....खामोशी से सोचने लगा,  तब मुझे महसूस हुआ कि सर्द हवा से मेरे हाथ अकड़ चुके हैं,  घड़ी पर तापमान देखा तो चार डिग्री और मैं 4545मीटर की ऊँचाई पर खड़ा था.... देख कर फिर मन की चंचलता पुन: जागृत हो उठी, कि विकास तू अपने दो वर्षीय पर्वतारोहण अनुभव में अब तक ज्यादा से ज्यादा 4620मीटर (धौलाधार हिमालय के कलाह पास) पर चढ़ा है... सो कुछ कदम तो और चल कि तू अपने व्यक्तिगत कीर्तिमान को तो तोड़ ले,  परन्तु दोस्तों उस समय मेरे अंदर का "कथित पर्वतारोही"  कुछ क्षण पहले ही मर चुका था... जो अब मैं बचा था वो सिर्फ एक हारा हुआ लाचार इंसान,  उस लाचारी में मैं खुद से ही बोला, " नही तोड़ना मुझे अपना अब पुराना व्यक्तिगत कीर्तिमान...!!!
                            और,  हाथों में पकड़ी स्टिक्स् को रास्ते पर फेंक दोनों हाथ जोर खड़ा हो गया,  मेरे मन ने अब हार स्वीकार कर ली थी......और फिर घुटनों के बल बैठ कर वहीं रास्ते पर भगवान शिव को नतमस्तिक हुआ.....  जब मुड़ा तो देखा कि मुझे वापस मुड़ते देख पथप्रदर्शक केवल के मुख कर खुशी थी और विशाल जी के मुखमंडल पर संतोष की विजयी मुस्कान।
                             अब हम तीनों खामोशी से बसार गई पर्वत से नीचे उतर रहे थे,  उतरते-उतरते दस मिनट बाद एक छोटी सी गुफा रास्ते के किनारे आई..... मेरी मौन मनोदशा देख विशाल जी बोले, " चलो विकास जी,  इस बर्फीले तूफ़ान के गुज़र जाने तक हम इस गुफा में बैठ कर इंतजार करते है,  यदि शिव की इच्छा हुई और मौसम सामान्य हो गया... तो हम पुन: चल देंगे श्री खंड...! "         परन्तु उस संकरी सी गुफा में घुटनों के बल घुसते हुए मेरा पोंचूँ फंसने से मेरा गला घुट गया.... मुझे सांस लेने में तकलीफ होने लगी,  गुफा में मेरा दम घुटने लगा...सो पुन: बाहर खुले की ओर भागा, तो जान में जान आई....मतलब कि भगवान शिव ने अपनी अनिच्छा ज़ाहिर कर दी थी....!!!
                             बसार गई पर्वत से उतर कर गई पर्वत पर आ कर फिर से तापमान देखा तो होश उड़ गए कि तापमान 1डिग्री के करीब हो चुका था,  इसका मतलब ऊपर तो तापमान शुन्य से भी कई डिग्री नीचे हो चुका होगा और अब ऊपर की ओर सब कुछ धुंधला सा नज़र आ रहा था........ रास्ता भी कीचड़ से फिसलदार रुप ले चुका था,  केवल के कपड़े पूरी तरह से भीग चुके थे वह बुरी तरह से कांप रहा था,  खैर जैसे-तैसे एक-दूसरे को पकड़-पकड़ नीचे उतरना जारी रखा.... मैं बार-बार पीछे मुड़-मुड़ कर देख रहा था कि यह विपदा एक दम से टल जाए और हम वापस श्री खंड की ओर चल दें।
                             तभी सोच में व्यस्त मेरे दिमाग में भगवान शिव के बोल गूँजे, " विकास,  तू अपने-आप को बहुत बड़ा ट्रेकर समझता है... तू यहाँ मेरा नाम करने नही बल्कि अपना नाम कमाने आया है...जा,  भाग जा यहाँ से वापस और अगली बार एक तीर्थ यात्री बन कर आना,  तब तू मेरे दर्शन पा सकेगा.....!!!! "
                              उतराई उतरते हुए मेरा सम्पूर्ण शरीर तो गतिमान, परन्तु दिमाग एक जगह ही ठहरा हुआ था... फिर दिमाग में घटनाक्रम बदला तो कल शाम भीमद्वारी के लंगर के लाउडस्पीकर पर बज रहे पहाड़ी गायक करनैल राणा के भजन के बोल पुन: सुनाई देने लगे,  " शिव, पापीआं नूँ... नही ओ मिलदे... .!! "   क्योंकि नाकामयाबी ने मेरी नास्तिकता पर बेहद कड़ा प्रहार किया था।
                              मेरा ध्यान टूटा जब केवल ने कहा कि मेरी हालत खराब हे रही है,  आप लोग मुझे आगे जाने दे... मैं आपका नीचे पार्वती बाग में इंतजार करता हूँ।  फिर से एक बार मेरे मन ने जोर पकड़ा और मैं केवल से बोला कि हमारा पार्वती बाग में ही रुकने का इंतजाम करो,  ताकि हम कल सुबह फिर से श्री खंड जा सके....... परन्तु विशाल जी हमेशा अपने साथ दिल्ली से ही "समय सीमा" का नामुराद घण्टा बांध कर चलते हैं,  सो उन्होंने साफ मना कर दिया... और केवल राम छलांगें लगता हुआ एक दम से आँखों से जैसे ओझल हो गया।
                               हम दोनों खामोशी से धीरे-धीरे गई पर्वत से नयन सरोवर की ओर उतर रहे थे कि पीछे से शिमला वाले कानूनगो साहिब त्रिभुवन शर्मा जी (जो हमे जाते समय भीमतलाई के बाद रास्ते में मिले थे, जिनकी माता के देहान्त का भार उनके मन पर हावी था... वे इस भार को हल्का करने के लिए ही श्री खंड महादेव जा रहे थे)  बहुत तेज़ी से नीचे उतरते आ रहे थे,  हमे देखते ही दोनों बांहें ऊपर उठा नाचते हुए तेजी से गुजरते हुए बोले, " मैं दर्शन कर आया, मैं दर्शन कर आया...! "                उनकी तेज़ चाल से ही पता चल रहा था कि वह अपने मन पर पड़े भार को श्री खंड उतार आये हैं.... जबकि हमारी चाल नाकामयाबी की वजह से बेहद सुस्त व भारी हो चली थी,  करीब तीन घंटे गई पर्वत से नयनसरोवर तक लगा दिये हमने,   दोपहर का एक बज चुका था.... बर्फीला तूफ़ान तो कब का थम चुका था परन्तु मेरे मन में मचा तूफ़ान कहाँ थम रहा था,  जो बार-बार मेरी आँखों से अश्रु बन निकल रहा था क्योंकि मैं हर चीज को गम्भीरता से लेना शुरू कर देता हूँ।
                                नयन सरोवर के पास एक चट्टान पर,  मोटे से शीशों वाली नज़र की ऐनक पहने वही बहादुरगढ़ वाले जनाब बैठे थे,  जो हमे भीमद्वारी पहुँचने से पहले मेरे शहर वासियों के साथ मिले थे और उनका उस समय कहा व्यंग्य बाण "कहाँ ठोकरें खा रहे हो बादशाहों...!".... सच में दोस्तों उन्हें देख कर "ठोकरें" शब्द पुन: कानों में गूँज गया कि बड़ी जबरदस्त ठोकर मार तुझे वापस भेज दिया भोलेनाथ ने...!!              
                                 खैर वह जनाब भी बीच रास्ते से ही वापस मुड़ रहे थे और उन्होंने बताया कि आपके शहर गढ़शंकर का एक लड़का मेरे साथ ही ऊपर जा रहा था,  मौसम बिगड़ने पर मैं तो वापस हो लिया परन्तु वह वापस नही आया.... बाकी सब गढ़शंकर वाले लड़के नयन सरोवर से ही वापस हो लिये।
                                   हम दोनों अब नयन सरोवर से पार्वती बाग की तरफ चल रहे थे कि पीछे से एक सरदार जी आये,  उन्होंने अपनी गीली ज़ुराबों को अपने डंडे में डाल रखा था.... मैने उन्हें रोक कर पूछा तो वे बोले, " भाजी, नया जीवन मिला है...मैने ऊपर अपनी मौत को साक्षात देखा है,  माथा टेक वापस आ रहा था कि मौसम बिगड़ गया और सब कुछ देखना ही बंद हो गया, ऐसे प्रतीत हो रहा था कि मैं अंधेरे में चल रहा हूँ....वो तो मेरी किस्मत ही अच्छी थी कि किसी खाई में नही गिरा,  अच्छा हुआ आप लोग ऊपर नही आये..!!!!"
                                  दोपहर डेढ़ बजे हम पार्वती बाग पहुँच गए,  अब ऐसी खिली हुई धूप थी कि जैसे चंद घंटे पहले कुछ भी ना घटा हो....केवल राम वहाँ पहले से ही दुकान में मौजूद था,  उसने हमे नवनीत द्वारा बनाये परोठें परोसे....परन्तु मेरी नाकामयाबी मेरी भूख को खा चुकी थी,  फिर भी विशाल जी के कहने पर दो-चार कोर चाय के साथ जबरदस्ती अंदर किये। केवल ने फिर पूछा, " तो आप लोगों की बात करूँ दुकानदार से कि यहीं रात रुक कर कल सुबह फिर चल देना श्री खंड "             मैने बेहद "आशाभरी नजरों " से विशाल जी की तरफ देखा,  परन्तु विशाल जी को मुझ लाचार पर ज़रा भी दया नही आई... और दो टूक जवाब में सारी बात समाप्त कर दी, " मेरे पास छुट्टी नही है विकास जी...! "          
                                  मैं उस समय विशाल जी से विद्रोह भी कर सकता था,  परन्तु हम दोनों के रिश्ते में " जी " शब्द का बहुत महत्व है.... सो उस मर्यादा को मैने कायम रखा,  मेरा व विशाल जी में पर्वतारोहण का संबंध "दीवार पर टंगी तस्वीर और कील का संबंध है,  जो एक-दूसरे के पूरक है दोस्तों....! "
                                  और,  हम दोनों की खामोशी को केवल ने यह कह तोड़ा कि मुझे बुखार आ गया है...मैं भीमद्वारी चलता हूँ,  आप लोग धीरे-धीरे आ जाना.... और केवल चला गया,  हम दोनों भी चल दिये वापस भीमद्वारी के रास्ते पर....
                                    दोस्तों,  मेरी यह व्यथा पढ़ कर आप लोग भी निश्चित ही विचलित होगें,  सोच रहे होगें कि यह कैसा अजीब व्यक्ति है जो इतने महीनों से हमें अपनी शब्द- यात्रा से श्री खंड महादेव कैलाश, इस धारावाहिक के द्वारा ले जा रहा था.... वह खुद ही नही पहुँच पाया श्री खंड। आप तो इस दुख पढ़ने के तुरन्त बाद या दस मिनट, एक घंटा या एक दिन में भूला दोगें...... परन्तु दोस्तों में इस दुख को पिछले दो वर्ष से निरंतर झेल रहा हूँ,  एक टीस सी मन में बार-बार उठ खड़ी हो ही जाती है....... और  दोस्तों,  यह अंत नही है मेरी इस चित्रकथा का,  क्योंकि वापसी पड़ी है जिसमें बहुत से घटनाक्रम होने शेष है,  सो पढ़ते रहना मुझे हर सप्ताह।

                                                                                   ..........................(क्रमश:)
गई पर्वत से बसार गई पर्वत पर चढ़ाई.... और मौसम में हलचल, परन्तु मेरे कदम सबसे आगे थे। 

बसार गई पर्वत पर चढ़ रहे यात्री, अब वापस नीचे उतरने लगे थे। 



जबकि मैं अपने कदमों को नही रोक रहा था, आगे ही आगे बढ़ता जा रहा था... कि पीछे से विशाल जी ने मुझे रोका। 

और,  मुझ से दस कदम नीचे रास्ते के किनारे बड़ी-बड़ी चट्टानों का आश्रय ले विशाल जी और केवल खड़े हो चुके थे..और विशाल जी ने कहा कि अब मौसम बेहद बिगड़ चुका है, ऊपर जाना खतरनाक साबित हो रहा है... चलो वापस नीचे चलते हैं..!  

बारिश,  बर्फबारी व तूफ़ान की वजह से ऊपर दिखाई देना भी बंद हो चुका था.....पर मेरा व्याकुल मन को चैन कहाँ,  मैं हर कीमत पर ऊपर जाना चाहता था... क्योंकि मंजिल यानि श्री खंड महादेव शिला मात्र डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर थी,  और मैं मंजिल के इतने करीब से खाली हाथ वापस नही आना चाहता था... सो मैं वहीं रास्ते में खड़ा बर्फीले तूफ़ान को झेल रहा था और विशाल जी को मना रहा था कि वे मेरे साथ श्री खंड चले। परन्तु..........!!! 

मैं हर तरह से पासे फेंक चुका था,  परन्तु विशाल जी और केवल अपने स्थान व फैसले पर अडिग खड़े थे...सो मन की चंचलता फिर जागी कि तू विकास अभी 4545मीटर तक तो पहुँच चुका है... चंद कदम कुछ और चढ़ ले तो अपने पुराने व्यक्तिगत कीर्तिमान 4620मीटर को पार कर सकता है, परन्तु नाकामयाबी की निराशा मेरे अंदर के कथित पर्वतारोही को मार चुकी थी। 


                                                                                 
और..... अाखिर मैने अपने हथियार डाल दिये। 

और, वहीं भगवान शिव को हाथ जोड़ खड़ा हो गया.... 
  

अपनी हार मान,  वहीं रास्ते पर भगवान शिव को नतमस्तिक हुआ.... 

उठ कर जब मुड़ा.... तो देखा कि केवल के चेहरे पर खुशी थी और विशाल जी के मुखमंडल पर संतोष की विजयी मुस्कान। 
और,  नीचे उतरना शुरु कर दिया.... 



गुफा में घुटनों के बल रेंगते हुये, मेरा पोंचूँ फंसने से मेरा गला घुट गया..... और गुफा में मुझे साँस लेने में तकलीफ होने लगी,  सो बाहर खुले में भागा।

गुफा से भाग कर खुले में पहुँच कर, देखा तो तापमान 1डिग्री के करीब हो चला था....और ऊपर का तापमान तो शुन्य से भी नीचे हो गया होगा। 

बर्फीले तूफ़ान और किस्मत के मारे हम बेचारे...!!

तभी, ऊपर मुड़ कर देखा तो बसार गई पर्वत शिखर पर खूब बर्फ गिर रही थी। 

दोस्तों, ठंड से मेरे हाथ अकड़ चुके थे.... कैमरे का बटन दबाने में भी मुश्किल हो रही थी। 

गई पर्वत से वापस उतरते हुए... 


सारी पर्वत चोटियाँ सफेद हो रही थी। 

नीचे भीमद्वारी..... का दृश्य। 


ओ, भाजी....ऊपर तो बहुत बुरा हाल है,  मैं अपनी मौत को धोखा देकर नीचे उतरा हूँ...!
 अमृतसर वाले सरदार जी ने कहा जिन्होंने अपनी गीली ज़ुराबों को डंडे के सिर में फंसा रखा था। 

पार्वती बाग का प्राकृतिक बगीचा... 

वहीं से दिख रहा भीमद्वारी, अब मौसम इतना साफ हो चुका था कि मानों कुछ घटा ही ना हो। 

नवनीत द्वारा आधी रात ढाई बजे बनाये हुए परोंठे...केवल ने हमें पार्वती बाग में परोसे, परन्तु नाकामयाबी ने मेरी भूख को ही खा लिया था। 

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