भाग-26 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....
" वो बर्फीला तूफ़ान नही, बल्कि शिव का बड़ा बेटा कार्तिक आया था..! "
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श्री खंड महादेव कैलाश की अधूरी यात्रा कर, मैं और विशाल रतन जी वापसी पर कुंशा के बाद भीमतलाई से होते हुए काली घाटी की चढ़ाई पर चढ़ रहे थे... रास्ते में मिले एक स्थानीय बुजुर्ग ने मुझे बताया था कि यह यात्रा प्राचीन काल में केवल साधु-संत या स्थानीय ही किया करते थे, पूरे राह में रात बिताने के लिए दो प्राकृतिक गुफाएँ आती है... जिनमें उस समय वे लोग आश्रय ले रात बिताते थे, एक गुफा काली घाटी में है "डकद्वार गुफा"....और दूसरी गुफा भीमद्वारी से कुछ पहले कुरपन नदी की तरफ आती है जिसका नाम है "गोकुल गुफा"
गोकुल गुफा तो मैं कब का पीछे छोड़ आया था और भीमतलाई से ही काली घाटी शुरू होती है सो वहाँ पहुँच दुकानदारों से डकद्वार गुफा के बारे में पूछताछ करने लगा...इतने में विशाल जी मुझ से काफी आगे निकल गये, एक दुकानदार ने बताया कि थोड़ा आगे जा कर रास्ते से हट कर वह गुफा है, परन्तु अब वहाँ कोई नही रुकता..शायद आपको वहाँ तक पहुँचने के लिए रास्ता भी ना मिले।
मैं अभी उस ओर चला ही था कि ऊपर काली घाटी से श्री खंड की ओर जाते हुए दो लड़के चले आ रहे थे, एक लड़के के हाथ में मेरी मनपसंद वस्तु " बाँसुरी " और दूसरे ने अपने कंधे पर गिटार लटका रखी थी... बाँसुरी दिखे और मैं चुप रह जाऊँ, कभी हो सकता है दोस्तों.... झट से उन्हें रोक कर बाँसुरी वाले लड़के (जिसका नाम नितेश था) से बाँसुरी सुनाने की फ़रमाइश कर डाली, गिटार वाला लड़का आदित्य हक्का-बक्का सा मुझे देखने लगा.... नितेश खुशी से रास्ते के किनारे बैठ बाँसुरी बजाने लगा, परन्तु वह अभी बाँसुरी वादन के शुरूआती दौर का शिक्षार्थी था....तो मैने नितेश से बाँसुरी पकड़ी और होंठों से जोड़, फूँक मार अपनी अंगुलियाँ उस पर नचा दी.... खैर ज्यादा लम्बा नही बजा पाया क्योंकि 3600मीटर की उस ऊँचाई पर लगातार बाँसुरी फूँकनें में दिक्कत हो रही थी, बाँसुरी की धुन सुन कर एक सहयात्री सतीश जी(अम्बाला) और आ खड़े हो गए थे हमारे पास। मैने दो मिनट की इस मुलाकात में नितेश जैसे अनजान को झट से बाँसुरी को उच्च सप्तक में बजाने का सरल तरीका बता दिया, जो मैने वर्षो के अभ्यास से खुद जाना था... नितेश व आदित्य आभार व्यक्त करते हुए श्री खंड की ओर चल दिये और मैं व सतीश जी अब काली घाटी की चढ़ाई चढ़ रहे थे, जब डकद्वार गुफा की तरफ जाने का रास्ता आया तो सतीश जी मेरे संग गुफा देखने के लिए चल दिये।
डकद्वार गुफा मुख्य रास्ते से ज्यादा दूर नही थी... एक बड़ी सी शिला पर्वत की ढलान पर नज़र आ रही थी परन्तु वहाँ तक पहुँचने का कोई रास्ता ही नही था, सो अपनी ट्रैकिंग स्टिक के प्रहार से बूटिओं को रौंद कर उस शिला के पास पहुँचने का रास्ता बनाया.... तो देखा कि वह एक बड़ा सी छत नुमा चट्टान थी, जिसके नीचे आठ-दस व्यक्ति बैठ सकते हैं। वक्त बदलने के साथ अब सुविधाएं भी बदल चुकी है, वरना उस पुराने वक्त में डकद्वार व गोकुल गुफाओं की सुविधा ही अहम स्थान रखती होगी श्री खंड महादेव कैलाश यात्रा में..... मैं और सतीश जी पुन: काली घाटी की चढ़ाई पर थे, विशाल जी काफी आगे निकल चुके थे सो सतीश जी से विदा ले मैं जल्दी-जल्दी काली घाटी की चढ़ाई चढ़ता हुआ विशाल जी से जा मिला।
दोपहर साढे बारह बजे हम काली घाटी शिखर पर तारा चंद की दुकान पर जा पहुँचें, भूख भी लगनी वाजिब थी सो ज़ीरा-प्याज का तड़का लगवा कर खाने में आनंद आ गया... वैसे भी दोस्तों, केवल चावल खाना मेरे शरीर की पाचन क्रिया के लिए लाज़मी हो चुका था, क्योंकि बीच रास्ते में मुझे विशाल जी ने रेडीमेड कोल्ड कॉफी के दो पैकेट दिये, वो दोनों पैकेट इकट्ठे ही मैने अपनी पानी की बोतल में उँडेल कर ज्यादा चुस्ती पाने के चक्कर में गटक गया... परिणामस्वरूप मेरा पेट खराब हो गया कुंशा से काली घाटी शिखर तक तीन जगह बैठक लगनी पड़ी, सेहत बिगड़ने की वजह काली घाटी की तीखी चढ़ाई चढ़ने में भी मुश्किल हो रही थी, सो वहीं छोड़ी हुई अपनी रक्सक से दस्त बंद करने की दवा निगल ली और रक्सक में ही रख छोड़ी अपनी बाँसुरी को भी निकाल बजाने लगा। खुद-व-खुद बाँसुरी पर गाना भी वैसा ही याद आया, " संसार है इक नदिया, सुख-दुख दो किनारे हैं... ना जाने कहाँ जाए, हम बहते धारे हैं...!" टैंटनुमा दुकान के बाहर बाँसुरी की धुन सुन तीन-चार यात्री रुक चुके थे और धुन रुकते ही वे बोले, " भाई आपने तो हमारी थकान ही उतार दी...!! " मैने हंसते हुए उन का आभार व्यक्त किया और कहा, " भाइयों, मैं तो इसे फूँक कर खुद को ताकत दे रहा हूँ, जी.....!!! "
करीब एक घंटा काली घाटी शिखर पर लगी दुकान में विश्राम कर सेहत कुछ स्थिर होने के बाद डेढ़ बजे पुन: उठ खड़े हुए वापसी की डगर पर...... और चलने से पहले मैने अपने बूट उतार कर रक्सक में रख, सैंडल पहन लिये..... क्योंकि जब हम उतराई पर उतरते हैं, तो पैर आगे की ओर फैलता है... यदि बूट पहन रखे हो तो, पैरों की अंगुलियाँ-अंगूठें आगे से दबने लग पड़ती हैं.... यह स्थिति कष्टदायक साबित होने लग पड़ती है और इसका असर अगले पांच-छे महीनों तक पैरों के अंगूठों और अंगुलियों का सुन्न होना, होता है.... इसलिए मैं हमेशा अपने साथ चप्पल या सैंडल अवश्य रखता हूँ, ताकि उतराई पर उन्हें पहन सकूँ.... अभी पिछले मास ही " सप्तऋषि ट्रैक" कर के आया हूँ, बगैर तैयारी व सामान के गया था... सो ट्रैकिंग बूटों में ही सारी पदयात्रा सम्पन्न की, अब एक महीने बाद भी मेरे पैरों के दोनों अँगूठे सुन्न हैं।
काली घाटी शिखर पर प्रकृति देवी ने बड़ी-बड़ी चट्टानों को बेहद सलीके से सजा रखा था तो उन पर मेरा पहुँचना भी लाज़मी था चित्रबंधन के लिए। डंडा-धार की तीखी उतराई पर एक घंटा उतरने के बाद फिर से बूँदाबादी आरंभ हो गई, खैर कुछ समय बाद ही इंद्र देव शांत हो गए.... विशाल जी के मुकाबले मेरी टांगें ज्यादा लम्बी है तो उतराई पर हमेशा मेरे कदम लम्बे-लम्बे ही पड़ते हैं, परिणामस्वरूप मैं विशाल जी से आगे निकल जाता हूँ... यदि साथ-साथ चलता हूँ तो उतराई पर अपने शरीर के भार को रुकने में ही घुटने दर्द होने लग पड़ते हैं...सो विशाल जी से बोला, " मैं आगे जा-जा कर, रुक आप का इंतजार करता हूँ आप अपनी चाल से चलते रहे। "
काली घाटी और थाचडू के बीच रास्ते में मुझे मेरे शहर वासी लड़के भी मिले वो भी नीचे जा रहे थे, मैने उनसे पूछा कि आपमें से कौन लड़का बर्फीला तूफ़ान आने पर ऊपर श्री खंड के रास्ते पर था....... तो एक जनाब बोले, " भाजी, वो मैं था...ये सबके सब तो नयन सरोवर से ऊपर आए ही नही थे..! " मैने उत्सुकता से पूछा, " तो क्या तुम पहुँच गए श्री खंड। "..........वह बोला, " हां जी, जब बर्फीला तूफ़ान आया मैं बसार गई पर्वत के शिखर तक पहुँच चुका था... एक सुलफे की सिगरेट वहाँ बैठ पी, और चल दिया श्री खंड शिला की तरफ, और दूसरी सुलफा भरी सिगरेट वहाँ पहुँच पी... पता ही नही चला कैसे गया और कैसे वापस आया..!!! " कह कर वह लड़का हंसने लगा।
मैं मन ही मन बुदबुदाया, " वाह रे शिव जी, मैं से तो अच्छे तेरे ये नशेड़ी है... जिन्हें तूने अपने पास बुला तो लिया...!!!!!"
और, वह सब लड़के आगे बढ़ गये...मैं वहीं रुक विशाल जी के आने का इंतजार करने लगा, कुछ समय बाद मेरा एक और शहरवासी पम्मा, एक बूढ़े को साथ लेकर धीरे-धीरे उतरता नज़र आया... पास आने पर मैने पम्मे से पूछा, " यह बाबा कौन है तुम्हारे साथ पम्मे " तो पम्मे ने कहा, " ये बाबा जी कलकत्ता से है, मुझे आज रास्ते में मिले...वापसी के लिए जाते हुए लोगों से बोल रहे थे कि मेरी गठरी उठा लो और मुझे अपने साथ नीचे सड़क तक ले चलो...गठरी को गीले कम्बल व कपड़ों ने बेहद भारी बना डाला है, पहले तो मैने इनसे कहा कि फैंक दो अब इस गीले कम्बल को, मैं भी अपना गीला हो चुका कम्बल नयन सरोवर पर फैंक आया था.. परन्तु ये बाबा जी बोले, " नही मैं इसे नही फैंक सकता, क्योंकि नया कम्बल लेने की मुझ में अभी समर्था नही है... सो मुझ में दयाभाव उत्पन्न हो गया तो मैं इनकी गठरी उठा चल पड़ा।
पम्मे की यह बात सुन मुझे बेहद गौरव महसूस हुआ और उसकी तारीफ़ में बोला कि पम्मे इस कठिन यात्रा पर तो फालतू का एक रत्ती भार भी कंधे पर सेर के बराबर जान पड़ता है, तूने तो कमाल कर दिया यारा...!!
बातचीत के दौरान पम्मे ने बताया कि यह बंगाली बाबा जी श्री खंड दर्शन कर वापस आ रहे हैं, जब कल तूफ़ान आया तब ये ऊपर ही थे और देखो इस त्रिशूल को याद के रूप में बाबा जी ऊपर से ही ला रहे हैं जिसमें मैने यह गठरी टाँग रखी है।
मैने खूब प्रंशसनीय नज़रों से बाबा जी को निहारा और जम कर तारीफ़ की कि आप इस उम्र में भी श्री खंड यात्रा पूर्ण कर आये, जबकि नौजवानों को खाली हाथ वापस मुड़ना पड़ रहा है...... तो वे हंसमुख से चेहरे वाले बाबा बोले, " बेटा सब भगवान शिव की ही कृपा है, बाकी कल जो तूफ़ान आया था... वो तूफ़ान नही बल्कि शिव का बड़ा बेटा कार्तिक था, जो शिव से रुठा हुआ है... इसलिए शिव के श्रद्घालुओं के राह में वाधाऐं उत्पन्न करता है...!! "
यह बात मेरे लिए बिल्कुल नई किस्म की थी, खैर इसे ही सत्य मान संतोष कर चुप रहा.... बातचीत में मैने बाबा जी को सलाह दी कि आप माँ काली के नगर "कलकत्ता" से हो तो, हिमाचल के प्रसिद्ध "भीमाकाली मंदिर" भी अवश्य जाए, जो सराहन में है.... सराहन रामपुर बुशहर से ज्यादा दूर नही है, यह शहर आपकी वापसी के राह में ही है।
पम्मा बाबा जी को ले आगे बढ़ चुका था..... मैं और विशाल जी लगातार चलते रहे, सवा तीन बजे हम श्री खंड यात्रा के दूसरे पड़ाव "थाचडू" को पार कर डंडा-धार की उतराई उतरते जा रहे थे, एक घंटे के बाद हम "थाची भील टॉप" पर उस दुकान पर जा पहुँचें यहाँ जाते वक्त विशाल जी अपनी रक्सक छोड़ गए थे.... टाँगों को आराम देते ही पेट अक्सर सक्रिय हो ही जाता है, तो उस सक्रियता को मैगी-चाय ने शांति दी।
चलते-चलते शाम होने लगी थी, समय साढे छे बज चुके थे...हम बराहटी नाले के ऊपर वाले जंगल में से गुज़र रहे थे कि सामने रास्ते में पम्मे के साथी बाबा जी के पैर पर लगी ताज़ी चोट पर, वही मोटे-मोटे शीशों की ऐनक लगाने वाले बहादुर गढ़ वाले जनाब मरहमपट्टी कर रहे थे, मित्रों ये वही जनाब है जिन्होंने मुझे श्री खंड जाते समय कहा था कि कहाँ ठोकरें खा रहे हो बादशाहों..... उन जनाब के पास पूरी मैडिकल किट थी जैसे वो किसी स्वास्थ्य व्यवसाय से जुड़े हुए हो...... बातचीत का दौर फिर गर्म हो गया तो मैने उनसे पूछा कि क्या आप भी हमारी तरह पहली बार श्री खंड आये हो... तो वह जनाब बोले, " नही, तीसरी बार...पहली बार आया तो श्री खंड यात्रा के पहले पड़ाव सिंहगाड से वापस हो लिया क्योंकि मुझे उल्टियाँ-दस्त लग गए... फिर दूसरी बार आया अपने एक मित्र के साथ, तीन दिन में श्री खंड के आखिरी पड़ाव से भी ऊपर पार्वती बाग पहुँच रात रुके, तो रात 2बजे मेरे मित्र को साँस लेने में तकलीफ होने लगी... उसे मैने खुद ही जीवन-रक्षक इंजेक्शन आदि लगाए और उसे लेकर रातों-रात नीचे उतरने लगा... और अब तीसरी बार इस बर्फीले तूफ़ान ने फिर नही जाने दिया.....!!!! "
उनकी बात सुन मैं और विशाल जी एक-दूसरे का मुँह ताक रहे थे कि हम पहली बार असफल होने के कारण परेशान है और इनको देखो जो अब तीसरी बार भी श्री खंड नही पहुँच पाये....मैं तब विशाल जी के कान में धीरे से बोला, " अब मुझे समझ आ रहा है कि इन्होंनें हमें "कहाँ ठोकरें खा रहे हो बादशाहों " कहने के पीछे इनकी क्या मनोदशा थी। मैने फिर उनसे सवाल किया कि अब चौथी बार कब आओंगे.....................तो वे कुछ क्षण खामोश रहने के बाद बोले, " नही, अब तो सात-आठ साल बाद ही देखूगा...!!! "
उनकी आवाज़ में वो वेदना थी, जो मेरे दिलो-दिमाग को चीर गई।
........................(क्रमश:)
लो भाई, मेरी भी फूँका-फ़ाकी सुन लो जी।
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" वो बर्फीला तूफ़ान नही, बल्कि शिव का बड़ा बेटा कार्तिक आया था..! "
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श्री खंड महादेव कैलाश की अधूरी यात्रा कर, मैं और विशाल रतन जी वापसी पर कुंशा के बाद भीमतलाई से होते हुए काली घाटी की चढ़ाई पर चढ़ रहे थे... रास्ते में मिले एक स्थानीय बुजुर्ग ने मुझे बताया था कि यह यात्रा प्राचीन काल में केवल साधु-संत या स्थानीय ही किया करते थे, पूरे राह में रात बिताने के लिए दो प्राकृतिक गुफाएँ आती है... जिनमें उस समय वे लोग आश्रय ले रात बिताते थे, एक गुफा काली घाटी में है "डकद्वार गुफा"....और दूसरी गुफा भीमद्वारी से कुछ पहले कुरपन नदी की तरफ आती है जिसका नाम है "गोकुल गुफा"
गोकुल गुफा तो मैं कब का पीछे छोड़ आया था और भीमतलाई से ही काली घाटी शुरू होती है सो वहाँ पहुँच दुकानदारों से डकद्वार गुफा के बारे में पूछताछ करने लगा...इतने में विशाल जी मुझ से काफी आगे निकल गये, एक दुकानदार ने बताया कि थोड़ा आगे जा कर रास्ते से हट कर वह गुफा है, परन्तु अब वहाँ कोई नही रुकता..शायद आपको वहाँ तक पहुँचने के लिए रास्ता भी ना मिले।
मैं अभी उस ओर चला ही था कि ऊपर काली घाटी से श्री खंड की ओर जाते हुए दो लड़के चले आ रहे थे, एक लड़के के हाथ में मेरी मनपसंद वस्तु " बाँसुरी " और दूसरे ने अपने कंधे पर गिटार लटका रखी थी... बाँसुरी दिखे और मैं चुप रह जाऊँ, कभी हो सकता है दोस्तों.... झट से उन्हें रोक कर बाँसुरी वाले लड़के (जिसका नाम नितेश था) से बाँसुरी सुनाने की फ़रमाइश कर डाली, गिटार वाला लड़का आदित्य हक्का-बक्का सा मुझे देखने लगा.... नितेश खुशी से रास्ते के किनारे बैठ बाँसुरी बजाने लगा, परन्तु वह अभी बाँसुरी वादन के शुरूआती दौर का शिक्षार्थी था....तो मैने नितेश से बाँसुरी पकड़ी और होंठों से जोड़, फूँक मार अपनी अंगुलियाँ उस पर नचा दी.... खैर ज्यादा लम्बा नही बजा पाया क्योंकि 3600मीटर की उस ऊँचाई पर लगातार बाँसुरी फूँकनें में दिक्कत हो रही थी, बाँसुरी की धुन सुन कर एक सहयात्री सतीश जी(अम्बाला) और आ खड़े हो गए थे हमारे पास। मैने दो मिनट की इस मुलाकात में नितेश जैसे अनजान को झट से बाँसुरी को उच्च सप्तक में बजाने का सरल तरीका बता दिया, जो मैने वर्षो के अभ्यास से खुद जाना था... नितेश व आदित्य आभार व्यक्त करते हुए श्री खंड की ओर चल दिये और मैं व सतीश जी अब काली घाटी की चढ़ाई चढ़ रहे थे, जब डकद्वार गुफा की तरफ जाने का रास्ता आया तो सतीश जी मेरे संग गुफा देखने के लिए चल दिये।
डकद्वार गुफा मुख्य रास्ते से ज्यादा दूर नही थी... एक बड़ी सी शिला पर्वत की ढलान पर नज़र आ रही थी परन्तु वहाँ तक पहुँचने का कोई रास्ता ही नही था, सो अपनी ट्रैकिंग स्टिक के प्रहार से बूटिओं को रौंद कर उस शिला के पास पहुँचने का रास्ता बनाया.... तो देखा कि वह एक बड़ा सी छत नुमा चट्टान थी, जिसके नीचे आठ-दस व्यक्ति बैठ सकते हैं। वक्त बदलने के साथ अब सुविधाएं भी बदल चुकी है, वरना उस पुराने वक्त में डकद्वार व गोकुल गुफाओं की सुविधा ही अहम स्थान रखती होगी श्री खंड महादेव कैलाश यात्रा में..... मैं और सतीश जी पुन: काली घाटी की चढ़ाई पर थे, विशाल जी काफी आगे निकल चुके थे सो सतीश जी से विदा ले मैं जल्दी-जल्दी काली घाटी की चढ़ाई चढ़ता हुआ विशाल जी से जा मिला।
दोपहर साढे बारह बजे हम काली घाटी शिखर पर तारा चंद की दुकान पर जा पहुँचें, भूख भी लगनी वाजिब थी सो ज़ीरा-प्याज का तड़का लगवा कर खाने में आनंद आ गया... वैसे भी दोस्तों, केवल चावल खाना मेरे शरीर की पाचन क्रिया के लिए लाज़मी हो चुका था, क्योंकि बीच रास्ते में मुझे विशाल जी ने रेडीमेड कोल्ड कॉफी के दो पैकेट दिये, वो दोनों पैकेट इकट्ठे ही मैने अपनी पानी की बोतल में उँडेल कर ज्यादा चुस्ती पाने के चक्कर में गटक गया... परिणामस्वरूप मेरा पेट खराब हो गया कुंशा से काली घाटी शिखर तक तीन जगह बैठक लगनी पड़ी, सेहत बिगड़ने की वजह काली घाटी की तीखी चढ़ाई चढ़ने में भी मुश्किल हो रही थी, सो वहीं छोड़ी हुई अपनी रक्सक से दस्त बंद करने की दवा निगल ली और रक्सक में ही रख छोड़ी अपनी बाँसुरी को भी निकाल बजाने लगा। खुद-व-खुद बाँसुरी पर गाना भी वैसा ही याद आया, " संसार है इक नदिया, सुख-दुख दो किनारे हैं... ना जाने कहाँ जाए, हम बहते धारे हैं...!" टैंटनुमा दुकान के बाहर बाँसुरी की धुन सुन तीन-चार यात्री रुक चुके थे और धुन रुकते ही वे बोले, " भाई आपने तो हमारी थकान ही उतार दी...!! " मैने हंसते हुए उन का आभार व्यक्त किया और कहा, " भाइयों, मैं तो इसे फूँक कर खुद को ताकत दे रहा हूँ, जी.....!!! "
करीब एक घंटा काली घाटी शिखर पर लगी दुकान में विश्राम कर सेहत कुछ स्थिर होने के बाद डेढ़ बजे पुन: उठ खड़े हुए वापसी की डगर पर...... और चलने से पहले मैने अपने बूट उतार कर रक्सक में रख, सैंडल पहन लिये..... क्योंकि जब हम उतराई पर उतरते हैं, तो पैर आगे की ओर फैलता है... यदि बूट पहन रखे हो तो, पैरों की अंगुलियाँ-अंगूठें आगे से दबने लग पड़ती हैं.... यह स्थिति कष्टदायक साबित होने लग पड़ती है और इसका असर अगले पांच-छे महीनों तक पैरों के अंगूठों और अंगुलियों का सुन्न होना, होता है.... इसलिए मैं हमेशा अपने साथ चप्पल या सैंडल अवश्य रखता हूँ, ताकि उतराई पर उन्हें पहन सकूँ.... अभी पिछले मास ही " सप्तऋषि ट्रैक" कर के आया हूँ, बगैर तैयारी व सामान के गया था... सो ट्रैकिंग बूटों में ही सारी पदयात्रा सम्पन्न की, अब एक महीने बाद भी मेरे पैरों के दोनों अँगूठे सुन्न हैं।
काली घाटी शिखर पर प्रकृति देवी ने बड़ी-बड़ी चट्टानों को बेहद सलीके से सजा रखा था तो उन पर मेरा पहुँचना भी लाज़मी था चित्रबंधन के लिए। डंडा-धार की तीखी उतराई पर एक घंटा उतरने के बाद फिर से बूँदाबादी आरंभ हो गई, खैर कुछ समय बाद ही इंद्र देव शांत हो गए.... विशाल जी के मुकाबले मेरी टांगें ज्यादा लम्बी है तो उतराई पर हमेशा मेरे कदम लम्बे-लम्बे ही पड़ते हैं, परिणामस्वरूप मैं विशाल जी से आगे निकल जाता हूँ... यदि साथ-साथ चलता हूँ तो उतराई पर अपने शरीर के भार को रुकने में ही घुटने दर्द होने लग पड़ते हैं...सो विशाल जी से बोला, " मैं आगे जा-जा कर, रुक आप का इंतजार करता हूँ आप अपनी चाल से चलते रहे। "
काली घाटी और थाचडू के बीच रास्ते में मुझे मेरे शहर वासी लड़के भी मिले वो भी नीचे जा रहे थे, मैने उनसे पूछा कि आपमें से कौन लड़का बर्फीला तूफ़ान आने पर ऊपर श्री खंड के रास्ते पर था....... तो एक जनाब बोले, " भाजी, वो मैं था...ये सबके सब तो नयन सरोवर से ऊपर आए ही नही थे..! " मैने उत्सुकता से पूछा, " तो क्या तुम पहुँच गए श्री खंड। "..........वह बोला, " हां जी, जब बर्फीला तूफ़ान आया मैं बसार गई पर्वत के शिखर तक पहुँच चुका था... एक सुलफे की सिगरेट वहाँ बैठ पी, और चल दिया श्री खंड शिला की तरफ, और दूसरी सुलफा भरी सिगरेट वहाँ पहुँच पी... पता ही नही चला कैसे गया और कैसे वापस आया..!!! " कह कर वह लड़का हंसने लगा।
मैं मन ही मन बुदबुदाया, " वाह रे शिव जी, मैं से तो अच्छे तेरे ये नशेड़ी है... जिन्हें तूने अपने पास बुला तो लिया...!!!!!"
और, वह सब लड़के आगे बढ़ गये...मैं वहीं रुक विशाल जी के आने का इंतजार करने लगा, कुछ समय बाद मेरा एक और शहरवासी पम्मा, एक बूढ़े को साथ लेकर धीरे-धीरे उतरता नज़र आया... पास आने पर मैने पम्मे से पूछा, " यह बाबा कौन है तुम्हारे साथ पम्मे " तो पम्मे ने कहा, " ये बाबा जी कलकत्ता से है, मुझे आज रास्ते में मिले...वापसी के लिए जाते हुए लोगों से बोल रहे थे कि मेरी गठरी उठा लो और मुझे अपने साथ नीचे सड़क तक ले चलो...गठरी को गीले कम्बल व कपड़ों ने बेहद भारी बना डाला है, पहले तो मैने इनसे कहा कि फैंक दो अब इस गीले कम्बल को, मैं भी अपना गीला हो चुका कम्बल नयन सरोवर पर फैंक आया था.. परन्तु ये बाबा जी बोले, " नही मैं इसे नही फैंक सकता, क्योंकि नया कम्बल लेने की मुझ में अभी समर्था नही है... सो मुझ में दयाभाव उत्पन्न हो गया तो मैं इनकी गठरी उठा चल पड़ा।
पम्मे की यह बात सुन मुझे बेहद गौरव महसूस हुआ और उसकी तारीफ़ में बोला कि पम्मे इस कठिन यात्रा पर तो फालतू का एक रत्ती भार भी कंधे पर सेर के बराबर जान पड़ता है, तूने तो कमाल कर दिया यारा...!!
बातचीत के दौरान पम्मे ने बताया कि यह बंगाली बाबा जी श्री खंड दर्शन कर वापस आ रहे हैं, जब कल तूफ़ान आया तब ये ऊपर ही थे और देखो इस त्रिशूल को याद के रूप में बाबा जी ऊपर से ही ला रहे हैं जिसमें मैने यह गठरी टाँग रखी है।
मैने खूब प्रंशसनीय नज़रों से बाबा जी को निहारा और जम कर तारीफ़ की कि आप इस उम्र में भी श्री खंड यात्रा पूर्ण कर आये, जबकि नौजवानों को खाली हाथ वापस मुड़ना पड़ रहा है...... तो वे हंसमुख से चेहरे वाले बाबा बोले, " बेटा सब भगवान शिव की ही कृपा है, बाकी कल जो तूफ़ान आया था... वो तूफ़ान नही बल्कि शिव का बड़ा बेटा कार्तिक था, जो शिव से रुठा हुआ है... इसलिए शिव के श्रद्घालुओं के राह में वाधाऐं उत्पन्न करता है...!! "
यह बात मेरे लिए बिल्कुल नई किस्म की थी, खैर इसे ही सत्य मान संतोष कर चुप रहा.... बातचीत में मैने बाबा जी को सलाह दी कि आप माँ काली के नगर "कलकत्ता" से हो तो, हिमाचल के प्रसिद्ध "भीमाकाली मंदिर" भी अवश्य जाए, जो सराहन में है.... सराहन रामपुर बुशहर से ज्यादा दूर नही है, यह शहर आपकी वापसी के राह में ही है।
पम्मा बाबा जी को ले आगे बढ़ चुका था..... मैं और विशाल जी लगातार चलते रहे, सवा तीन बजे हम श्री खंड यात्रा के दूसरे पड़ाव "थाचडू" को पार कर डंडा-धार की उतराई उतरते जा रहे थे, एक घंटे के बाद हम "थाची भील टॉप" पर उस दुकान पर जा पहुँचें यहाँ जाते वक्त विशाल जी अपनी रक्सक छोड़ गए थे.... टाँगों को आराम देते ही पेट अक्सर सक्रिय हो ही जाता है, तो उस सक्रियता को मैगी-चाय ने शांति दी।
चलते-चलते शाम होने लगी थी, समय साढे छे बज चुके थे...हम बराहटी नाले के ऊपर वाले जंगल में से गुज़र रहे थे कि सामने रास्ते में पम्मे के साथी बाबा जी के पैर पर लगी ताज़ी चोट पर, वही मोटे-मोटे शीशों की ऐनक लगाने वाले बहादुर गढ़ वाले जनाब मरहमपट्टी कर रहे थे, मित्रों ये वही जनाब है जिन्होंने मुझे श्री खंड जाते समय कहा था कि कहाँ ठोकरें खा रहे हो बादशाहों..... उन जनाब के पास पूरी मैडिकल किट थी जैसे वो किसी स्वास्थ्य व्यवसाय से जुड़े हुए हो...... बातचीत का दौर फिर गर्म हो गया तो मैने उनसे पूछा कि क्या आप भी हमारी तरह पहली बार श्री खंड आये हो... तो वह जनाब बोले, " नही, तीसरी बार...पहली बार आया तो श्री खंड यात्रा के पहले पड़ाव सिंहगाड से वापस हो लिया क्योंकि मुझे उल्टियाँ-दस्त लग गए... फिर दूसरी बार आया अपने एक मित्र के साथ, तीन दिन में श्री खंड के आखिरी पड़ाव से भी ऊपर पार्वती बाग पहुँच रात रुके, तो रात 2बजे मेरे मित्र को साँस लेने में तकलीफ होने लगी... उसे मैने खुद ही जीवन-रक्षक इंजेक्शन आदि लगाए और उसे लेकर रातों-रात नीचे उतरने लगा... और अब तीसरी बार इस बर्फीले तूफ़ान ने फिर नही जाने दिया.....!!!! "
उनकी बात सुन मैं और विशाल जी एक-दूसरे का मुँह ताक रहे थे कि हम पहली बार असफल होने के कारण परेशान है और इनको देखो जो अब तीसरी बार भी श्री खंड नही पहुँच पाये....मैं तब विशाल जी के कान में धीरे से बोला, " अब मुझे समझ आ रहा है कि इन्होंनें हमें "कहाँ ठोकरें खा रहे हो बादशाहों " कहने के पीछे इनकी क्या मनोदशा थी। मैने फिर उनसे सवाल किया कि अब चौथी बार कब आओंगे.....................तो वे कुछ क्षण खामोश रहने के बाद बोले, " नही, अब तो सात-आठ साल बाद ही देखूगा...!!! "
उनकी आवाज़ में वो वेदना थी, जो मेरे दिलो-दिमाग को चीर गई।
........................(क्रमश:)
मैं भीमतलाई में रुक दुकानदारों से "डकद्वार गुफा" के बारे में पूछताछ करने लगा.... और विशाल जी मुझ से काफी आगे निकल गए। |
मेरे अनुरोध पर नितेश राह पर बैठ, बाँसुरी बजाने लगा। |
मैं, नितेश, अादित्य और सतीश जी। |
मैं डकद्वार गुफा ढूँढ़ने लगा, तो सतीश जी भी साथ हो लिये...वो सामने डकद्वार गुफा दिख रही है। |
परन्तु वहाँ तक पहुँचने के लिए कोई रास्ता नही था, सो अपनी ट्रैकिंग स्टिक के प्रहार से बूटियों को रौंद वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बनाया। |
डकद्वार गुफा.... एक बड़ी सी छतनुमा चट्टान। |
डकद्वार गुफा के नीचे खड़े सतीश जी। |
काली घाटी शिखर पर पहुँच, दोपहर का भोजन। |
संसार है इक नदिया, सुख-दुख दो किनारे है...ना जाने कहाँ जाए, हम बहते धारे हैं। |
काली घाटी शिखर पर काली योगणी का स्थान.... |
काली घाटी शिखर पर बड़ी-बड़ी चट्टानें। |
यह आई ना एक हसीन सी फोटो, दोस्तों। |
डंडा-धार की उतराई उतरते हुए बारिश ने फिर दस्तक दी, परन्तु इंद्र देव ने जल्द ही अपना मन बदल लिया। |
डंडा-धार से उतरते हुए ऊपर दिख रहा डंडा-धार पर्वत शिखर काली टॉप। |
कुछ हसीन नन्हीमुन्नी छतरियाँ। |
पम्मा और कलकत्ता वाले बाबा जी, जिनकी गठरी पम्मे ने उठा रखी थी। |
पर्वत के सिर पर उगी घास-फूँस.... |
रास्ते में कलकत्ता वाले बाबा के पैर पर लगी ताज़ी चोट पर बहादुर गढ़ वाले जनाब ने मरहमपट्टी की, अरे वही मोटे-मोटे शीशों वाली ऐनक वाले जनाब, जिन्होंने मुझे कहा था "कहाँ ठोकरें खा रहे हो बादशाहों...! |
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यात्रा विवरण बहुत ही बढ़िया है विकास जी वेसे नशे में बन्दा कोई भी हो मतलब एक ऐसी मात्रा जो स्वास्थ्य के लिए भी हानि कारक न हो उसे जो भी सेवन करता है तो उसको उसी की धुन होती है जो काम वो करना चाहता है इसी कारण कई अपना कार्य सिद्ध भी कर लेते है ज्यादा नशा ऊंचाई पर हानि ही करता है
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद लोकेन्द्र जी, सही ही कह रहे है आप.... परन्तु मुझे तो भोजन खाने के बाद ही नशा छा जाता है जी।
हटाएंदृश्य जीवंत हो उठा है जी, क्या है कि औघड़ को अपने लोग ज्यादा प्यारे है उनकी पहले सुनते है। बसार गई पर आपको भी अपने नशे "बांसुरी" का प्रयोग करना था।😃
जवाब देंहटाएंपम्मे को हमारी भी हार्दिक शुभकामनाएँ 💐
सैंडल वाला मंत्र याद रखेंगे। पता नहीं क्यों यात्रा में मुझे भुख ही नहीं लगती, खैर आपने दस्त के बावजुद यात्रा जारी रखी, बहादुरी ही है। डिहाइड्रेशन का खतरा हो सकता था।
रोचक प्रस्तुति आपको भी शुभकामनाएँ 💐💐
अनुराग जी ... अनेकों अनेक धन्यवाद.... सही कहा जी आपने, औघड़ को औघड़ ही प्यारे.....बाँसुरी क्या सुनता, उसे भार जान रास्ते में ही छोड़ गया था और सेहत बिगड़ने पर रुक नही सकता था क्योंकि विशाल जी की "समय सीमा का घंटा" हमारे साथ बंधा हुआ था, जी।
हटाएंदर्द हां दर्द बहुत ही ज्यादा दर्द दिखा आपकी इस पोस्ट में यात्रा में मंजिल तक नहीं पहुंचने के बाद ये आपकी तीसरी पोस्ट है पर सबसे ज्यादा उदासी आपके इस पोस्ट में ही दिख रही। ये भी एक शोध का विषय का है जहां बुजुर्ग से बुजुर्ग व्यक्ति भी भोले के दर पर पहुंच जाते हैं और हिम्मत वाले हारते हुए दिखते हैं। आपने ही एक पोस्ट में लिखा था एक बुजुर्ग औरत जो बिना कुछ खाये-पीये भी दर्शन करके वापस आई थी। वैसे आपके सैंडल वाली मंत्र विद्या को मैं पालन करता हूं, मैं बिना जूते के ही यात्रा करता हूं, जूते में परेशानी महसूस करता हूं। मैं तो बिना खाये-पीये दो-तीन तक रह लेता हूं, आपने दस्त होने के बाद भी यात्रा जारी रखी, ऐसे हिम्मत वाले का सलाम दिल से। हर हर महादेव अगले प्रयास में आप जरूर सफल होंगे। पर उससे पहले मुझे एक बार बांसुरी सुनना है आपसे,
जवाब देंहटाएंअभयानंद जी... हर हर महादेव, आपके कथन में दम है कि बुजुर्ग लोग भोले के दर पर पहुँच जाते है..हिम्मत, आस्था और मौका उन्हें इस कठिन कार्य को सिद्ध करने की शक्ति देता है.... बाकी अभयानंद जी ट्रैक की स्थिति के अनुसार ही जूतों या नंगे पैरों की परख होती है, यदि वैष्णो देवी जैसा बना हुआ पक्का ट्रैक हो तो नंगे पैर चलना अच्छा है, पर यदि ट्रैक पत्थरिला हो तो पैर जख्मी हो सकते हैं...और बढ़िया गुणवत्ता के जूते या सैंडल आपके पैरों को थकने नही देंगे यह मेरी अनुभव है..........बाकी मैने अभी ही इस पोस्ट को अपडेट किया है जिसमें मैने बाँसुरी के वीडियो को दोबारा लोड किया है, जी.... कृपया इसे पुन: देखे जी।
हटाएंदादी-नानी के क़िस्सों की तरह ही आपकी इस यात्रा को कन लगाए, नहीं आँख गड़ाए पढ़ रहे हैं. बेहतरीन विवरण रहा/
जवाब देंहटाएंHaha Haha..... बेहद धन्यवाद जय श्री जी।
हटाएंबांसुरी बजाना हमें भी सिखाना भाई
जवाब देंहटाएंजरूर, संदीप जी... मैं हाज़िर हूँ जी।
हटाएंUTRAI MAIN BOOT NAHI PAHANNE KA SABAK YAAD RAHEGA AGLI YATRA MAIN. AAPKI YATRA VRITANT BAHUT HI ROCHAK AUR GYANVARDHAK HAI
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद, दत्ता जी।
हटाएंशानदार दृश्य ओर आपकी कलम का क्या कहना।
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद जी।
हटाएंबांसुरी बाजन में आपकी सांसे भरी ओर फूली हुई हैं।चढाई का असर है
जवाब देंहटाएंजी हां, सही पहचाना आपने।
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