बुधवार, 1 अप्रैल 2020

शिमला से आगे, "कूप्पड़ में गिरी गंगा...!" (कूप्पड़ ट्रैक)


                        
               शिमला से आगे,  "कूप्पड़ में गिरी गंगा...! " 
                                  ( कूप्पड़ ट्रैक )


                 29जून 2019..... तड़के 4बजे का अलार्म लगा है फोन पर,  परंतु बज क्यों नहीं रहा...... क्या अभी चार नहीं बजे, क्या मैंने अलार्म ऑन भी किया था या अलार्म बज चुका है..... यदि बज चुका है तो, हर रोज़ की तरह मेरी पत्नी "भावना" ने अर्ध सोई हुई आवाज़ में मुझे क्यों नहीं लताड़ा- "अजी सुनते हो, अलार्म बंद करो...!"  मतलब अभी अलार्म बजने का समय नहीं आया है। 
                           ऐसा मैं खड़ा-पत्थर के "दा हिमालयन रिजॉर्ट" के कमरे में सोया हुआ सोच रहा हूँ क्योंकि मुझे तड़के मुँह अंधेरे उठकर, अकेले ही खड़ा पत्थर से 6 किलोमीटर लंबी कच्ची सड़क पर से अपनी गाड़ी द्वारा "कूप्पड़ तीर्थ" तक पहुँच कर, वहाँ से पैदल गिरी-गंगा नदी के उद्गम स्थल "कूप्पड़ शिखर" पर जाना है।  ऐसा अनुभव आपके साथ ही अक्सर होता है कि अलार्म लगाया, पर बज क्यों नहीं रहा.....हम नींद में ही सोचते रहते हैं क्योंकि  हमने जिस वजह से अलार्म लगाया होता है, बस वह वजह ही हमें इत्मीनान से सोने नहीं देती.....और मेरी वजह तो आप जान ही चुके हैं दोस्तों।
                            खैर हारकर अलार्म बजने के दस मिनट पहले ही उठ समय देख ही लेता हूँ और अलार्म ऑफ कर तैयारी पकड़ लेता हूँ। भगवान जाने मुझ आलसी में घूमने के नाम पर ना जाने कहाँ से "फूर्ति देव की हवा" आ जाती है। साथ ले जाने वाली एक छोटी सी पिट्ठू किट को तो, मैं रात में ही तैयार कर खुद सो गया.....अब मुझे तैयार होना था, वह भी खामोशी से और अंधेरे में।  जून का महीना फिर भी कमरे से बाहर निकलते ही जैकेट को कंधों पर चढ़ाना पड़ गया जबकि मैं गर्म जैकेट नहीं रख रहा था....परंतु "भावना" के आगे कहाँ मेरी चलती है, तब समझ में आता है कि गलतियों पर बंदे व बच्चे को बीवी और मां-बाप क्यों समझाते रहते हैं...!!   
                             आसमान की रंगत हल्की नीली होने लगी थी, जबकि सड़क पर गाड़ी की लाइट ही मुझे आगे ले जा रही थी। हरे पेड़ अभी दूर से मुझे रहस्यमय काले दानव से खड़े नज़र आ रहे थे, जिन पेड़ों पर गाड़ी की हैडलाइट पड़ती... तो महसूस होता कि मैं अपनों के बीच में हूँ।
                             होटल से चल खड़ा-पत्थर बाज़ार तक पहुँचते हुए आभास हो गया कि अभी सब जीव-जंतु सो रहे हैं। मुख्य सड़क पर आ कुछ दूर ही एक कच्चा रास्ता सड़क से ऊपर की ओर चढ़ रहा था, मुझे बस इसी पर चढ़ने के लिए कहा था होटल मालिक "मोहिल तेजटा जी" ने।
                         समय तड़के के 5बज चुके हैं, अब दूर के खड़े दानव पेड़ मुझे देव से दिखने लग पड़ते हैं। पेड़ों के नीचे हरी-हरी घास भी अब नज़र आने लगी है। दिन हो रहा है और मैं उस मिट्टी-पत्थर की बिछी कच्ची सड़क पर चल रहा हूँ, जो मुश्किल से मेरी गाड़ी से बस ज़रा सी ही चौड़ी  है.....मतलब कोई गाड़ी सामने से आ जाए तो मुझे ही आगे-पीछे कर उस गाड़ी को रास्ता देना पड़ेगा क्योंकि मेरे कई कटु अनुभव हैं कि पहाड़ी ड्राइवर हम मैदानी ड्राइवरों को हमेशा दबाते हैं.....!! परंतु अभी कौन सामने से आने वाला है, गाड़ी को बीच रास्ते रोक बार-बार उतरकर....फोटो खींचने की अपनी पुरानी आदत को दोहरा रहा हूँ।
                             पूर्व की ओर झुका हुआ आसमान रंग बदलने लगा, ठीक वैसा ही रंग लाली का....जो किसी महबूबा की गाल पर आ ठहरता है, झट से अपने महबूब को देखकर....!  उस लाली को अकेला मैं नहीं, बल्कि ऊपर से चांद भी देख रहा था, जबकि मैं चांद और उस लाली दोनों को देख रहा था।
                              पेड़ों पर से चिड़ियों की चहचहाहट भी अब सुनाई पड़ने लग जाती है, मतलब कि वह भी जाग रही है। गाड़ी जब जंगल में बने एक पशु डेरे के पास से गुज़रने लगती है तो बाहर चर रही एक गाय मेरी गाड़ी की आवाज़ सुन अपनी गर्दन मोड पीछे की तरफ ऐसी हैरानी से देखती है कि इतनी सुबह-सुबह कौन आदम आ धमका हमारी दुनिया में...!!!
                           गाड़ी चलाते-चलाते हुए भी अब मेरा ध्यान सामने दिख रहे कूप्पड़ शिखर की तरफ ना होकर पूर्व दिशा में हो रहे परिवर्तन पर केंद्रित हो चला है। क्षण-दर-क्षण आकाश उनके आने की ख़बर जान शर्म से लाल हुआ जा रहा था। आखिर मैं भी रुक कर उनकी राह तकने लग पड़ता हूँ।
                          अरुणोदय के यह क्षण मैं जीना चाहता हूँ, इस अनुभव को सदा के लिए अपनी आँखों से पीना चाहता हूँ।
                          देवदार के पेड़ों के ऊपरी पत्तों की बनी चूंजे (तीखे शिखर)  और उनके पीछे दूर कहीं पहाड़.....पहाड़ के पीछे से उदय होता अरुण,  पेड़ों से ओंस रूपी गिर रहा वरुण और उन पेड़ों के बीच खड़ा मेरा मन तरुण..... ऐसे देख रहा हूँ सूर्य को जैसे जहाँ कोई और ही सूर्य उग रहा है,  वह इसलिए कि मुझ घुमक्कड़ को पहाड़ों के पीछे से उपजा सूरज और जल में घुलता सूरज मोहित कर छोड़ता है।
                          पूरे दो मिनट का खेला दिखा दिया प्रभाकर देव ने.....और ऐसी प्रभा बिखेरी कि मेरी आँखें अब एक ही रंग देख रही हैं..... वह रंग है संदूरी!  चंद क्षणों के लिए मेरी आँखों को इस संदूरी रंग से मुहब्बत सी हो जाती है। सूर्यदेव तब अपनी तेज़ किरणों से मेरी आँखें चुभोने से लग पड़ते हैं......मैं झट से अपनी नज़र सूर्यदेव से चुरा लेता हूँ, क्योंकि मुझे याद आता है कि सूर्यदेव को कतई पसंद नहीं कि कोई उनकी नज़रों से अपनी नज़रें मिलाये।
                       भोर कभी "बोर" नहीं करती इस बात का इल्म मैं जान चुका था। सूर्य से निकल कर आ रही गहरी पीली किरणों ने जैसे पेड़ों के हर एक पत्ते को और भूमि के हर एक कण को श्रृंगार कर रख दिया हो,  एक मादकता सी छाने लगती है पृथ्वी पर पहुँची सूर्य की पहली-पहली कुंदन सी किरणों को निहार कर....है ना दोस्तों।
                  अब हर तरफ कांति फैल चुकी थी, दूर-दूर तक सौंदर्य स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है। अभी रास्ता घने देवदारों के बीचो-बीच मुझे गुज़ार रहा है,  जिनमें सूर्य का प्रकाश दूसरे पहर ही पहुँच पाता होगा.....जब सूर्यदेव इन देवदारों के सिरों के ऊपर से गुज़रते होंगे। इसी झुरमुट के पार कुछ समतल जगह पर नए मॉडल का एक टेैंट गढ़ा था, साथ ही में उन शौकीनों की गाड़ी भी खड़ी थी जो उस टैंट में अभी बेसुध पड़े होंगे। बेसुध इसलिए कह रहा हूँ कि मैंने अपनी गाड़ी उनके पास रोकी और बाहर निकल दरवाज़ा ज़ोर से बंद करने का शोर किया। कुछ दूर जाकर फोटो खींची, पर उस टैंट की कोई भी ज़िप नहीं खुली......जंगल में उनकी बेसुधी का राज़ वो कांच की बोतल का लाल पानी हो शायद...!!!
                       कुछ आगे बढ़ने पर मुझे मेरी दायीं तरफ के पेड़ों के पार कुछ गहराई में बह रही गिरी-गंगा नदी की पहली झलक दिखाई पड़ती है और उसके किनारे पर भी चंद टेैंट गड़े नज़र आते हैं। मतलब यहाँ कैंपिंग के रसिया भी आ, अपना रस ले सकते हैं। आगे की तरफ देखता हूँ तो घाटी के बीच गिरी-गंगा के किनारे प्राचीन मंदिरों के साथ नए लाल रंगी छतों के ढांचे दिखाई पड़ते हैं। हां, यह ही "कूप्पड़ तीर्थ" है.... क्योंकि रास्ता यहीं आ रुक जाता है।
                      अपनी गाड़ी को उन गाड़ियों के साथ जोड़ कर खड़ा कर देता हूँ, हो-ना-हो ये गाड़ियाँ उनको ही लाई हैं....जो कुछ दूर गिरी-गंगा के किनारे पर कैंप गाड़, उसी में गुम है।  परंतु मुझे तो खुद ही तलाश करना है वो रास्ता जो मुझे गिरी-गंगा के उद्गम स्थल "कूप्पड़ शिखर" तक ले जाए।
                 घड़ी पर नज़र, सुबह के 6बजने को है और कूप्पड़ तीर्थ की समुद्र तल से ऊँचाई 2780 मीटर।
                         चंद कदम आगे बढ़ा कर गिरी-गंगा की धारा को देखता हूँ तो नदी यहाँ अल्प मात्रा में जल ले बह रही है, फिर सोचता हैं यहीं से तो शुरुआत है गिरी-गंगा उपत्यका या घाटी की....जिसमें नन्ही सी धारा निकल कर, शिमला-सोलन-सिरमौर क्षेत्र से जल एकत्र कर "रेणुका झील" को भर, लगभग 90किलोमीटर का सफ़र तय कर, खुद को मां यमुना को सौंप देती है।
                    कूप्पड़ तीर्थ मंदिर परिसर में जा देखता हूँ कि सारे मंदिर बंद हैं, मुख्य मंदिर एक जलकुंड के बीचो- बीच बना है। उस जलकुंड में गोमुख मूर्ति से निरंतर जल गिर रहा है। ये मंदिर 15वीं शताब्दी निर्मित बताए जाते हैंं। फिर आसपास नज़र दौड़ाता हूँ, तो पाता हूँ कि यहाँ बहुत ही मनोरम स्थान पर इन मंदिरों का निर्माण किया गया है। घाटी के मध्य वृक्ष विहीन भूमि में, सात-आठ महीनों की नन्ही बालिका जैसी अपने घुटनों पर रुड़ रही गिरी-गंगा के किनारे निर्मित प्राचीन मंदिर और चारों ओर ऊँचे-ऊँचे घने देवदार वृक्ष। मैं यहाँ भी अकेला ही खड़ा हूँ, अपने प्रश्नों को खुद ही उत्तर दे रहा हूँ।
                   मंदिर परिसर से आगे जिस ओर से धारा बह आ रही है, मुझे कई सारी प्राचीन सीढ़ियाँ चढ़ती हुई दिखाई पड़ी और ऊपर कुछ लाल रंग के झंडे....मतलब वहाँ भी मंदिर है, पहुँच जाता हूँ सीढ़ियाँ चढ़ वहाँ पर। देखता हूँ कि प्राचीन मंदिर के द्वार पर पेड़ से कई सारी चुनरियाँ बंधी है, मतलब यह मां का मंदिर है....पर मंदिर बंद था।
                     मंदिर से उतर फिर गिरी-गंगा की नन्हीं सी धारा के पास आ पहुँचता हूँ क्योंकि मुझे तो तुम्हारा उद्गम स्थल देखना है गिरी-गंगा। वहीं किनारे पर एक बड़े से पत्थर के नीचे भी एक मंदिर है, जिसके नीचे एक जलधारा पत्थरों से गिर रही थी, उस जलधारा में विशेष यह था कि निरंतर गिर रही धारा बीच-बीच में एकदम से आवाज़ करती हुई तेज़ हो जाती। वहाँ बस एक ही पगडंडी थी, जो गिरी-गंगा के बहाव के उलट जा रही है.....मैं उस पर ही चल देता हूँ। गिरी-गंगा का पानी बहुत ही शांति व संयम से आ रहा था, जैसे कि बहाव में पड़ी चट्टानों से ही रिस रहा हो। नहीं, ऐसा नहीं है पानी तो ऊपर कहीं से रिसता आ रहा है....जो मुझे देखना है बस, सोच कर चला जा रहा हूँ....!
                     पांच मिनट धारा के उलट चलते रहने पर नदी के रास्ते में एक बांध बना नज़र आया, परंतु उसके पीछे अब तो कीचड़-गाद ही बची थी। पिघली हुई बर्फ के समय या बरसात में जरूर भर जाता होगा, गिरी-गंगा उस बांध के पीछे कीचड़ पर एक छोटी सी लकीर बना आड़ी- तिरछी चलती हुई बह रही थी।
                          कुछ कदम और बढ़ा तो एक जगह कुछ पानी इकट्ठा था, पहले मन हुआ कि नहा लूँ.....फिर सोचा वापसी पर मंदिर के कुंड में ही नहाऊगा। हो सकता है कि मुझ नास्तिक के खाते में जाने-अनजाने में एक-आध पुण्य जुड़ जाए...!
                          आगे एक मोड़ आता है, नदी भी मुड़  रही है। मुड़ा तो सामने का दृश्य,  दृश्य ना होकर नज़ारा लिखूँ....तो दृश्य से न्याय कर पाऊँगा। कुछ चौड़ी सी घाटी, केवल घास और फूलों से भरी, बीचो-बीच नन्हीं बालिका सी गिरी-गंगा और ज़रा से ऊँचे घाटी के दोनों छोरों पर देवदार जाति के घने पेड़, जिनकी चूंजों के साथ धूप खेल रही है...... कुछ तो सारे के सारे धूप स्नान कर रहे हैं और कुछ स्नान की प्रतीक्षा में हैं। मैं कुछ समय ठहर इस नज़ारे को निहारना चाहता हूँ।
                         चल पड़ता हूँ फिर तुम्हें देखते हुए, मेरे स्वागत में खड़े देवदारों...!!
                         आगे कुछ चढ़ाई दिखाई देने लगती है, घाटी के दोनों छोर आपस में मिल जो रहे हैं। सामने पेड़ों का घना जंगल नज़र आ रहा है, जिसमें से निकल गिरी-गंगा आ रही थी। कुछ दूर दो गाय चरती तो नज़र आई, पर सुबह से किसी भी बंदे के दर्शन अब तक नहीं हो सके थे। वहीं रास्ते के एक तरफ से मुझे एक मददगार लेटा हुआ मिल जाता है, कुछ भारी है पर उठा लेता हूँ....डंडा नुमा लकड़ी है, जो बहुत काम आने वाली है क्योंकि आगे चढ़ाई ही चढ़ाई जो नज़र आ रही है।
                       घाटी के अंत तक पहुँच, पैर-घिस पगडंडी भी ना जाने कहाँ खो गई, रास्ता पत्थरों का हो लिया। खड़ा सोच रहा हूँ कि अब क्या करूँ, क्योंकि कोई भी रास्ता आगे नज़र नहीं आ रहा....जो गिरी-गंगा के साथ-साथ ऊपर को जाता हो, पर मुझे क्या लेना किसी रास्ते से......मुझे तो अभी बस वहाँ तक पहुँचना है जहाँ से यह धारा फूट रही है, और बताने वाले ने बताया था कि धारा कूप्पड़ शिखर से आ रही है तो बंदा बगैर रास्ते के ही चल पड़ा गिरी गंगा के उद्गम को देखने।
                             यहाँ घाटी तंग होती जा रही है मुश्किल से 25-30 फुट चौड़ी, जगह-जगह मृत वृक्ष गिरे हुए हैं। घने पेड़ों की छाया ने फिर से अंधेरा सा कर दिया है। झिुंगरों का शोर भी बढ़ चुका है.....सूखे पत्तों और लकड़ियों पर से चलने की आवाज़, अब मुझे ही भयभीत करने लगी है। मैं चौकन्ना सा अपनी आँखें फाड़े, छोटी होती जा रही गिरी- गंगा की धारा के साथ-साथ ऊपर को चढ़ा जा रहा हूँ।  ऐसा दृश्य सजीव हो उठा कि जैसे किसी डरावनी फिल्म में अदाकार धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है और पृष्ठभूमि में रहस्यमय संगीत बज रहा हो। पौधे भी सांप की शक्ल से नज़र आने आरंभ हो जाते हैं, वे "सर्प की मक्की" (स्नेक लिली) के फूल हैं। उन्हें देख हंसता हूँ और ज़रा सा रुक अपनी मनोस्थिति को सामान्य करता हूँ। अपने पसंदीदा पहाड़ी भजन "शिव कैलाशों के वासी"  ऊँची आवाज़ में गाता हुआ चढ़ाई चढ़ता जा रहा था।
                             इस घने जंगल में घुसे मुझे आधा घंटा होने वाला है, गिरी-गंगा धारा अब नाममात्र की ही रह गई है और चंद कदम ऊपर मुझे पहाड़ पर पानी बहने का कोई भी चिन्ह नही दिखाई पड़ता।  क्या इसी जगह को गिरी-गंगा का उद्गम स्थल मान लूँ..... या फिर और ऊपर देखूँ!  परंतु ऊपर तो बहते पानी के कोई भी निशानात दिखाई नहीं पड़ रहे। उस स्थान की बनावट देख निश्चित कर देता हूँ......हां, यहीं ही भूमि से निकल इस विशाल नदी का प्रथम कदम पड़ता है।
                               ऊपर पहाड़ दिख रहा है जिस पर उगे पेड़ों पर तेज़ धूप दिखाई पड़ रही है। अभी वो हरी-हरी घास के बुग्याल मुझे कहीं दिखाई नहीं पड़े, जिसके कारण मैं यहाँ आया हूँ, सर्दियों में पड़ने वाली बर्फ का पानी पहाड़ में रच कर यहाँ से सिम रहा है......मुझे इस पर्वत के शिखर तक पहुँचना था, सो आगे दिखाई देती खड़ी चढ़ाई चढ़ने लगता पड़ता हूँ।  यहाँ बगैर पेड़ों के कुछ खाली जगह है,  चलने से पहले वहाँ जंगली बूटियों को मरोड़ कर वापसी के रास्ते की निशानी लगाता जाता हूँ,  क्योंकि इतने बड़े पहाड़ पर मैं बगैर रास्ते से चढ़ा तो जा रहा हूँ.....यदि इस रास्ते को भूल गया तो सौ प्रतिशत निश्चित है कि मैं इसी जंगल में खो जाऊँगा.....अब यह डर मुझे दहलाने लगा था...!!
                                 उस खड़ी चढ़ाई को चढ़कर ऊपर पहुँच,  पाता हूँ कि पर्वत तो अभी और ऊँचा है, हां यहाँ पेड़ों के झुरमुट कम है।  हर पांच-दस कदम ऊपर चढ़, पीछे मुड़-मुड़ कर दिख रहे दृश्य को आँखों व स्मृति में कैद करने की कोशिश कर रहा था, कि वापसी पर इन दृश्यों को मैं पहचान सकूँ। बीच-बीच में उस दृश्य की फोटो भी खींच लेता कि कैमरे का रिव्यू देख कर भी वापस उतर सकता हूँ।
                             सुबह के 7बज चुके थे, कुछ मीटर और ऊपर चढ़ मुझे एक खुली जगह पर शराब की खाली बोतल और डिस्पोजेबल गिलास बिखरे पड़े नज़र आते हैं। मतलब कि यहीं आस-पास कोई रास्ता है जो नीचे से ऊपर आता है और वही रास्ता मुझे कूप्पर शिखर तक भी ले जाएगा क्योंकि ऊपर बने बुग्गालों में पशुपालक अपने पशुओं को चराने भी तो आते-जाते होंगे। आस-पास रास्ता या पगडंडी को तलाश करता हूँ, परंतु ज्यादा दूर नहीं जा पाता कि कहीं मैं नए रास्ते को ढूँढने के चक्कर में घनचक्कर बन अपने देखे हुए रास्ते को भी ना खो दूँ। सो सामने दिख रहे पर्वत शिखर की ओर नाक की सीध में चढ़ा जा रहा हूँ। कुछ-कुछ दूरी पर बूटियों के सिर मरोड़ व छोटे-छोटे पत्थरों की ढेरियाँ बनाता चढ़ता जा रहा हूँ,  आगे फिर खड़ी चढ़ाई आन खड़ी है। जैसे-तैसे उसे पार कर ऊपर पहुँच देखता हूँ कि यह पहाड़ का शिखर नहीं है, पर शिखर कहाँ है.....वहाँ से वो भी दिखाई नहीं पड़ रहा था।
                           यह वृक्ष विहीन जगह है जहाँ मैं पहुँच चुका हूँ, नीचे वह घना जंगल नज़र आ रहा था जिसे पार कर मैं ऊपर पहुँचा हूँ।  इस रास्ते को वापस जाने की प्रथम निशानी, टूट कर दोबारा तीन शाखाओं में जन्मे देवदार के पेड़ को मान ऊपर चल देता हूँ।
                            धूप में पहुँचते ही शरीर को आराम मिलने लगता है, एकाएक मेरा ध्यान अपनी ही परछाई पर चला जाता है....जिसे हम अमूमन अनदेखा कर जाते हैं, इस वीराने में मुझे वह मेरी ही हिम्मत बंधाती सी लगी, कहती कि तू अकेला कहाँ...मैं तेरे साथ ही हूँ। अब आगे दिख रहा मंज़र, जो जीवन में पहली बार देखा कि पहाड़ के ऊपर इतनी ऊँचाई पर जंगली गुलाबों की बहुत सारी झाड़ियाँ.....ऐसे जैसे प्रकृति देवी ने खुद इस बागीचे को लगाया हो, दूर तक मुझे गुलाब ही गुलाब खिले नज़र आ रहे थे।
                       फूलों को देख कौन नहीं प्रसन्न होता.... मुझ में भी तब खूब प्रसन्नता के भाव उमड़े,  मैं हवा के मंद-मंद संगीत पर नाच रहे गुलाबी गुलाबों की फोटो पर फोटो खींचे जा रहा था और उन गुलाबों संग अपनी फोटो भी खींच रहा था।
                           कुछ देर वहीं धूप में बैठ जाता हूँ, पौने आठ बज रहे हैं और समुंदर तट से इस जगह की ऊंचाई 3110 मीटर। बैठा सोच रहा हूँ कि अब किस दिशा की ओर जाऊँ कि वह बुग्याल और पर्वत शिखर मिल जाए, क्योंकि शिखर पर पक्का कोई ना कोई मंदिर जरूर होगा। तभी दूर नीचे झाड़ियों में चली आती एक मानव आकृति दिखाई पड़ती है, उसके इतने पास आने का इंतजार करता हूँ कि उससे रास्ता पूछ सकूँ। अब वह मुझे स्पष्ट दिखाई देने लग पड़ा है, एक पशुपालक मुस्लिम गुज्जर है.....ज़ोर से आवाज़ लगा उससे रास्ता पूछता हूँ, वह व्यक्ति इशारे से मुझे उस दिशा का ज्ञान करवा देता है और मैं झट से उस तरफ चल देता हूँ। यह वो ही दिशा है जिस पर मैं पहले कुछ कदम बढ़ा कर फिर पीछे मोड़ आया था। किस्मत और उस आदमी को खामोश आभार व्यक्त करता हुआ चला जा रहा हूँ। दो-तीन मिनट पूर्व दिशा की ओर चलते हुए "चलिंगडू" बूटी के जंगल में मुझे पगडंडी मिल जाती है, जो मुझे घने पेड़ों से बाहर उस जगह पर ला छोड़ती है... जहाँ सामने दूर-दूर तक मुझे कूप्पड़ पर्वत के हरे-हरे बुग्याल और शिखर नज़र आने लगता है।
                             अब मैं इतना खुश हूँ जितना पढ़ाई से छूटा बच्चा खेल के मैदान को देख खुश हो उठा है। आठ-दस कदम खुशी में दौड़ भी लगा देता हूँ।
                           "वाह, क्या सीन था"  सामने दिख रहे कूप्पड़ पहाड़ के सिर पर वृक्ष विहीन मैदान को देख मेरा मन गुलशन- गुलशन हो रहा था। पर्वत के शिखर पर इतने विशाल बुग्याल, घासणी या थाच के बीच पहुँच उसे देखना जीवन का एक अनुपम आनंद था। यदि मैं "फुटबॉलर" होता तो खूब दौड़ाता फुटबॉल को इस बुग्याल में और यदि "गोल्फर"  होता तो, गोल्फ खेलने के लिए ऐसा प्राकृतिक मैदान देख पागल ही हो जाता.....पर मैं तो ठहरा "पर्वतारोही"  सो शिखर की ओर बढ़ा चला जा रहा हूँ।
                          मुझे कुछ ऊपर बुग्याल में सैल पत्थरों से बना एक ढांचा सा दिखाई पड़ता है, पास पहुँच उसे भूमिगत पानी की एक बावड़ी पाता हूँ। जिसके आसपास पहाड़ पर "पिकनिक" मनाने आए लोगों का कचरा बिखरा मिलता है। यह देख हमेशा की तरह मन परेशान हो उठता है कि आखिर कब हम पहाड़ को अपने घर सा मानना आरंभ करेंगे,  कि आखिर कब हम पहाड़ को मंदिर सा दर्जा देंगे...!
                         हे पाठकों, मेरी आपसे एक इल्तिज़ा है कि हमारी कोई औकात नहीं पर्वतों के सौंदर्य को और ज्यादा निखारने की......तो हमें इसे बिगाड़ने का भी कोई हक नहीं है, हमारे द्वारा पहाड़ पर फेंका गया कचरा उन बीजों को जन्म लेने से रोक देता है....जो पहाड़ का श्रृंगार है और जिन्हें देखने के लिए हम पहाड़ पर चढ़ते हैं।
                           तो, प्रण ले लो कि हम अपना कचरा पहाड़ पर छोड़कर नहीं आएंगे, उसे अपने साथ ही नीचे उतारकर निश्चित जगह प्रदान करेंगे।
                           बावड़ी के साथ ही ऊपर को जाता रास्ता मुझे मिल जाता है सो उस पर चढ़ जाता हूँ। जैसे-जैसे ऊँचा उठता जाता हूँ बुग्यालों के किनारे खड़े देवदारों के जंगलों के पार का दृश्य मनमोहक होता जा रहा था। दूर-दूर तक पहाड़, घाटियाँ और उन में बसे गाँव दिखाई पड़ने लगे थे। रास्ता मुझे पर्वत शिखर की ओर ही ले जा रहा था, शिखर घने पेड़ों से सुसज्जित है। शिखर से नीचे बुग्याल में एक मकान भी नजर आता है, पास जा कर देखता हूँ..... तो बगैर दरवाजों के एक बड़ा सा कमरा है जो वीरानगी की मार झेल रहा है, शायद यह सराय हो सकती है।
                         बुग्याल में लहरा रहे जंगली पुष्प मुस्कुरा कर बार-बार मेरा रास्ता रोक लेते हैं। अब आखिरी चढ़ाई चल रहा हूँ जो सीधी चढ़ाई है। हर पांच-दस कदम बाद मुड़कर नीचे बुग्यालों को देखता हूँ......अरे, यह तो उत्तराखंड में चोपता से पैदल  "ब्रह्मांड के सबसे ऊंचे शिव मंदिर तुंगनाथ"  के रास्ते में आने वाले बुग्यालों जैसे ही दिख रहे हैं, पर यह बुग्याल चोपता के उन खूबसूरत बुग्यालों से भी ज्यादा खूबसूरत हैं, यही खूबसूरती तो मुझे यहाँ तक खींच लाई दोस्तों। 
                           सामने शिखर पर पेड़ों से घिरा एक चबूतरा नज़र आता है, जो सैल पत्थरों से निर्मित है। यहाँ भी हर तरफ जंगली गुलाब की झाड़ियाँ है। उन झाड़ियों में से जैसे-तैसे निकल कर उस बड़े से चबूतरे के कुछ नीचे तक पहुँचता हूँ। आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं, क्योंकि मैं शिखर की तरफ भी बगैर पगडंडी के ही चढ़ आया था। परिक्रमा की तरह चलता हुआ घूमघाम कर चबूतरे के आगे आ पहुँचता हूँ,  जहाँ सीढ़ियाँ चबूतरे को जा रही थी। सीढ़ियों से पहले एक बड़ा सा पत्थर भूमि में गड़ा दिखता है, परंतु इसे शिवलिंग मानूँ या किसी स्थानीय देव का प्रतीक....तय नहीं कर पाता।
                         आठ-दस सीढ़ियाँ चढ़ चबूतरे पर आता हूँ, तो देखता हूँ कि यह चबूतरा बगैर छत का मंदिर है.... जिसके मध्य छोटे से मंच पर एक पत्थर गड़ा है, जिस पर कुरेद कर एक मानवीय चेहरा उभारने की कोशिश की गई है। उस मंच को भी गीली मिट्टी से पोता गया है और मंच में एक दानपात्र भी लगाया गया है। चबूतरे पर तीन और पत्थर भी कुछ छोटे-छोटे मंचों पर गड़े है, इन पत्थरों के आगे त्रिशूल भी खड़े हैं। तेज़ चल रही हवा की सां-सां और लाल झंडों की फड़-फड़ ही मुझे अब सुनाई  दे रही है। हाथ जोड़कर तो खड़ा हूँ, पर समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैं किस देव के समक्ष अपनी हाज़िरी लगवा रहा हूँ। तभी मेरा ध्यान मूर्ति नुमा पत्थर के आगे गिरे पड़े मिश्रित धातु के एक छोटे से पतरे पर पड़ता है। हवा से गिरे उस पतरे को सीधा कर देखता हूँ तो, उस पर मां काली का चित्र खूदा है। मतलब यह मां काली का मंदिर है और झट से दिमाग में आता है कि पर्वत शिखरों पर ज्यादातर माता के ही तो स्थान होते हैं।
                          समय साढ़े आठ बज चुके थे और कूप्पड़ शिखर की समुद्र तल से ऊँचाई 3270 मीटर।
                         आठ-दस मिनट रुका हूँगा वहाँ पर, वापसी के लिए चबूतरे से उतर नीचे आया तो उस ऊँचाई से सामने क्या हसीन विहंगम दृश्य नज़र आ रहा था, कूप्पड़ घाटी का और नीले आसमान में महान हिमालय की श्वेत चोटियाँ भी कुछ-कुछ धुंधली सी नज़र आ रही थी। सीढ़ियों के पास उतारी अपनी किट, डंडा और सैंडल पहन दो कदम ही चला था कि मैं एकदम से ठिठक कर खड़ा हो जाता हूँ,  क्यों....!!
                           क्योंकि मुझे जमीन पर पड़ी एक "पंजी" (पांच पैसे का सिक्का) नज़र आती है। उठा कर देखता हूँ, 1965 के तांबे वाले पांच पैसे।
                           खुशी की सीमा नहीं रहती, भावनाएँ उमड़ आती हैं.....मुड़कर चबूतरे की तरफ देख सिर निभाते हुए मां के इस आशीर्वाद का आभार व्यक्त करता हूँ और सोच रहा हूँ कि सन्1965  का सिक्का, ना जाने कब से इस मिट्टी में पड़ा है....अनगिनत लोग इसके ऊपर से गुज़रे होंगे, मुझे ही क्यों यह दिखाई दिया। सिक्के को माथे से लगा, उसे जेब में रख लेता हूँ।
                           अब उस रास्ते से उतर रहा हूँ जो सही रास्ता है। नीचे बुग्याल में बने उस मकान के पास एक सफेद रंग का घोड़ा घास चरने आ जाता है, जाते हुए तो नहीं नजर आया था....गद्दी-गुज्जर का होगा। अब मैं बगैर कहीं रुके धारा प्रवाह सा नीचे उतरता हुआ उस दिशा की ओर जा रहा हूँ जहाँ से मैं ऊपर चढ़ा था।
                            तभी मुझे बुग्याल के एक कोने की गहराई में से उठता धुआँ दिखाई देता है......उत्सुकता से उस ओर बढ़ा चला जाता हूँ, तो अब मुझे कुछ आवाज़ें भी सुनाई पड़ने लगी।  पास पहुँच नीचे देखता हूँ कि पत्ते,टहनियों व लकड़ियों के एक घेरे में बैठी एक भैंस के इर्द-गिर्द पांच मुस्लिम गुज्जर जमा हैं।  मुझे आता देख सबसे पहले एक बुजुर्ग गुज्जर मेरी तरफ देखते हैं, पर जैसे ही मैं अपना कैमरा ऊपर उठाता हूँ...... वे झट से पीठ कर लेते हैं, इस्लाम में फोटो खिंचवाना मना है,शायद इसलिए...!
                              पास पहुँच, उनमें से एक नौजवान गुज्जर उस घेरे से बाहर निकल मुझसे बातचीत करता है कि ऊपर से फिसलने के कारण इस भैंस की एक टांग टूट गई है, अब इसे कहीं उठाकर भी तो नहीं ले जाया जा सकता.... इसलिए इसके इर्द-गिर्द बाड़ कर रहे हैं कि कोई जंगली जानवर या इसकी साथी भैंसें, इसे किसी प्रकार का नुकसान ना पहुँचायें और इसी जगह इसकी देखभाल व इलाज करेंगे।
                               उस गुज्जर भाई से अब गिरी-गंगा मंदिर को जाने के लिए वापसी का रास्ता समझता हूँ और उसका फोन नंबर भी ले लेता हूँ, क्योंकि वहाँ फोन के सिग्नल पूरे आ रहे थे कि यदि गुम हुआ तो आपसे फोन पर सही रास्ता पूछ तो लूँगा। जब मैंने अपने फोन पर उसका नंबर डायल किया, तो ट्रूकॉलर पर आया उसका नाम "गिरी गुज्जर"  पढ़ सुनाया.....तो वह खासा हैरान था कि आप मेरा नाम कैसे जान गए, अब उसे इस बारे में भी समझाता हूँ। मजे़ की बात और बता दूँ कि इस यात्रा के चार दिन बाद मुझे इसी गिरी गुज्जर का फोन आता है..... जनाब मुझे एक नंबर की तफ्तीश करने के लिए कहते हैं कि इस नंबर वाले ने मुझे फोन पर बहुत गालियाँ निकाली है, आप इसका नाम मुझे बताओ।
                         खैर, अब मैं गिरी गुज्जर के सुझाये सही रास्ते से नीचे उतरता जा रहा हूँ, अच्छी खासी पगडंडी नीचे उतर रही है। गुज्जरों के डेरे रास्ते में आ रहे हैं, यह रास्ता वहीं आ मिलता है..... जहाँ से मैं रास्ते को अलोप मानकर बगैर रास्ते के ही गिरी-गंगा की धारा के साथ-साथ ऊपर चढ़ दिया था।
                              एक घंटे बाद करीब 10बजे मैं गिरी-गंगा मंदिर कूप्पड़ तीर्थ वापस पहुँच जाता हूँ। मंदिर परिसर से पहले अलग बना मंदिर जिसके आगे पेड़ पर कई सारी चुनरियाँ बंधी है, अभी भी बंद है......तो नीचे उतर कर गिरी-गंगा मंदिर परिसर की ओर चल देता हूँ। अपने हमसफ़र डंडे को पगडंडी पर ही खड़ा कर देता हूँ कि किसी और मुसाफ़िर का सहारा बन सके। मंदिर खुल चुके हैं और इक्का-दुक्का लोग आ-जा रहे हैं। मंदिर परिसर में पहुँचते ही सबसे पहले, मैं सरोवर में स्नान करने उतर जाता हूँ। खुले पानी में नहाना कितना मज़ेदार होता है..... है ना दोस्तों।
                               स्नान उपरांत मुख्य मंदिर में माथा टेकने जाता हूँ,  पुजारी "पंडित कमल शर्मा जी" से मंदिर में स्थापित मूर्तियों के विषय में पूछता हूँ......पंडित जी बोले- "यह मंदिर गंगा मईया का है।"
                             मैं कुछ हरानी से पूछता हूँ- "पर यहाँ गंगा मईया का मंदिर कैसे, पंडित जी....?"
                             पंडित जी हल्का सा मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखते हैं और गंगा मां की मूर्ति के साथ स्थापित दूसरी मूर्ति की तरफ मेरा ध्यान दिलाते हुए कहते हैं- "इन महापुरुष 'स्वामी योगीराज जी' की बदौलत"
                             मैं अपना कैमरा आँख पर लगाते हुए औपचारिक रूप से पंडित कमल शर्मा जी से पूछता हूँ- "फोटो ले सकता हूँ"           परंतु मेरी आशा के विपरीत पंडित जी मुझे फोटो लेने से मना कर देते हैं कि मंदिर के बाहर की फोटो ले सकते हैं, अंदर की नहीं...!
खैर, कैमरा बंद कर देता हूँ और बातचीत याद रखने के लिए मोबाइल की रिकॉर्डिंग भी ऑन करना चाहता हूँ, परंतु पंडित जी इस पर भी मना कर देते हैं, पर मुझे तो जानकारियाँ चाहिए थी क्योंकि मेरी जिज्ञासा रुपी भूख पंडित जी के उत्तरों से ही शांत हो सकती थी।
                          सो मोबाइल बंद कर पंडित जी से सवाल करता हूँ- "आपने कहा कि इन महापुरुष स्वामी योगीराज जी की बदौलत, वो कैसे...?"
                         स्वामी योगीराज जी 14-15 वीं शताब्दी में कूप्पड़ पर्वत पर ना जाने कहाँ से आकर तपस्या करने लगे, उनके कमंडल में गंगा जल था....जितना उसमें जल निकालते, उतना फिर उसे साधारण जल से भर लेते...वो साधारण जल भी तो गंगा जल के संपर्क में आने से गंगाजल बन जाता। गंगा जल से भरे उस कमंडल को स्वामी जी हमेशा अपने साथ, बड़े एहतियात से रखते। रोगियों को उसी कमंडल से गंगा जल निकाल अभिमंत्रित कर औषधि के रूप में दे देते। आखिर एक दिन बेख़्याली में स्वामी जी का हाथ कमंडल पर गलत पड़ा और वह कमंडल भूमि पर गिर गया.....तब स्वामीजी चिल्लाये- "गिरी,गिरी, गिरी, गंगा गिरी...!!"  वह कमंडल कूप्पड़ शिखर के पास गिरा था, जिस पर एक बावड़ी बनी हुई है।
                       " हां पंडित जी, मैं अभी ही कूप्पड़ शिखर से ही तो आ रहा हूँ.... अच्छा तो वह बावड़ी वही जगह है, जहां स्वामी योगीराज जी के कमंडल से गंगा गिरी।"
                         " जी हां, वह स्थान गिरी गंगा का उद्गम स्थल है और इसी बावड़ी से गंगा जल भूमिगत हो काफी दूर जा निकलता है और गिरी-गंगा कहलाता है।"
                         "पंडित जी, वो उद्गम स्थल जहाँ पानी आ निकला है... देखने ही तो मैं बगैर रास्ते के ही ऊपर चढ़ गया......परंतु गिरी-गंगा उद्गम स्थल के मंदिर यहाँ नीचे बने हुए हैं, कैसे....?"
                           पंडित जी बोले- "तब चौपाल क्षेत्र भी जुब्बल रियासत के अधीन होता था, चौपाल से कूप्पड़ पर्वत चढ़कर राजा जुब्बल 'करम चंद' के लिए डाक जुब्बल पहुँचती थी.....डाकिया या संदेश वाहक द्वारा ही स्वामी योगीराज जी की प्रसिद्धि भी राजा जुब्बल के कानों तक पहुँचती रहती थी,  सो राजा करम चंद कूप्पड़ आए और उन्होंने 15वीं शताब्दी में यहाँ मंदिर बनवाने की शुरुआत की.....सरोवर में निरंतर गंगा जल गिराने वाली गोमुख मूर्ति पर निर्माण का सन् 1553 खूदा हुआ है। देश आजाद होने से पहले तक इस मंदिर की देखभाल जुब्बल रियासत ही कर रही थी और हमारे पूर्वज भी राजा जुब्बल द्वारा ही यहाँ पुजारी नियुक्त किए गए थे,  और हां....इस स्थान के बनने के पीछे एक मुख्य कारण यह भी था कि उस समय अस्थि विसर्जन के लिए हरिद्वार जाना, हर किसी के बस में ना था....तो यहां गंगा प्रकट होने पर यहीं अस्थि विसर्जन घाट भी बनाया गया, जहाँ आपकी गाड़ी खड़ी है वही नीचे खड्ड में नदी किनारे एक छोटा सा मंदिर है यमराज का, वहीं अस्थि विसर्जन होता है।"
                        " क्या आज भी होता है, पंडित जी...?"
" जी हां, आज भी होता है।"
                        " तो वह सारे कर्मकांड भी आप ही करवाते हो....!" मैंने शंकित हो पूछा।
                        " नहीं, हम सारस्वत भारद्वाज ब्राह्मण हैं.....यह कर्मकांड चारज़ ब्राह्मण करते हैं, अस्थि विसर्जन करने आये लोग उन्हें अपने साथ ही लाते हैं......हम तो उस घाट की तरफ जाते भी नहीं हैं...!"
                         मैं अगला प्रश्न करता हूँ कि कूप्पड़ शिखर पर बने चबूतरा नुमा मंदिर तो मां काली का मंदिर है, बाकी वहाँ कौन सी मूर्तियाँ हैं...?"
                        "पहली बात कि वह मूर्तियाँ नहीं, भगवान का निशान मानकर पत्थर गड़े हुए हैं.....जुब्बल क्षेत्र और चौपाल क्षेत्र वालों ने अलग-अलग से मां काली के प्रतीक पत्थरों को वहाँ स्थापित किया है और बाकी पत्थर नरसिंह देवता के प्रतीक हैं।"
                        मंदिर में एक बोर्ड भी पड़ा था, जिस पर लूडो का सांप-सीढ़ि खेल बना देख उत्सुक हो पास जा उसे पढ़ने लग पड़ता हूँ......परंतु यह सामान्य सांप-सीढ़ि लूडो नहीं है, इसके प्रत्येक घर को एक नाम दिया गया है जैसे क्रोध लोक, दुख लोक, पाताल लोक, सत लोक, अनजान लोक, श्रेष्ठ लोक, विवेक लोक आदि-आदि। लूडो की तरह ही लोक रूपी घरों या खानों में सीढ़ियाँ चढ़ रही हैं और सांप डंस रहे हैं। जैसे.....ज्ञान लोक से चढ़ी सीढ़ी क्षमा लोक, दान लोक से चढ़ी सीढ़ी सूर्या लोक ले जाती है..... वही सांप डंसने से अहंकार लोक से माया लोक, तमो गुण लोक से प्रार्थना लोक...!
                         पंडित जी से इस विषय में पूछता हूँ तो वह कहते हैं कि यह "कालचक्र" है, मेरे दादा स्वर्गीय पंडित कृपाराम जी द्वारा बनाया गया है।
                         अब पंडित कमल शर्मा जी से विनती कर रहा हूँ कि कम से कम इस "कालचक्र"  का तो फोटो खींच लेने दीजिये, तो पंडित जी सहर्ष मेरी विनती स्वीकार कर लेते हैं।
                         मेरा अगला प्रश्न- "पंडित जी, वो सामने ऊँचाई पर जो मंदिर है वह किस भगवान का है.....सुबह जब कूप्पड़ गया था, तब भी बंद था और अब भी बंद ही है।"
                        "वो मंदिर राजा जुब्बल का निजी मंदिर व उनकी कुलदेवी मां काली का है, यह मंदिर जनसाधारण के लिए नवरात्रों व सोमवती अमावस्या के दिन ही खुलता है... और ये सब मंदिर भी अभी तक राजा जुब्बल के द्वारा बनाई कमेटी के पास ही हैं...!"
                      "अच्छा तो ये मंदिर सरकार के अधीन नहीं हुए....?"
                      " सरकार को तो मंदिरों से कमाई चाहिए होती है, जबकि यहाँ तो मुझे अपना गुज़र-बसर करना मुश्किल हो जाता है। देश आज़ाद होने के बाद रियासतें खत्म हो गई, मेरे दादा के समक्ष राजा जुब्बल ने इन मंदिरों को चलाने में असमर्थता जताई कि यदि आप इसे चला  सकते हैं तो चलाइए वरना आप भी छोड़ सकते हैं....परंतु मेरे दादा के पास और कोई विकल्प ना था, सो लगे रहे.... आज भी मुझे उनके समय की मुकर्रर की हुई तनख्वाह (10)राजा जुब्बल की तरफ से कला और संस्कृति विभाग द्वारा तहसील से मिलती है।"
                     "कितने....?"
                     "200रुपये महीना...!!!"
अब मैं पंडित जी द्वारा कहे पहले वाक्य का दर्द समझ रहा था।
                     "पंडित जी,  हर साल लगने वाला मेला कब होता है...?"
                     "बैसाखी पर...!"
" पंडित जी, रात ठहरने के लिए कोई इंतजाम है यहाँ..?"
                      "मंदिर परिसर से बाहर सरकार के द्वारा पिछले 10साल से पर्यटन विभाग एक टूरिस्ट हट बना रहा है जो अब भी अधूरा है और तीन कमरों की एक सराय, जिसका एक कमरा तैयार है...जहाँ यात्री रुक सकता है, परंतु बिस्तर उसे अपने साथ ही लाना पड़ेगा। भोजन के नाम पर मंदिर के बाहर साल में दो-तीन महीनों के लिए एक चाय-पानी की दुकान खुलती है बस.....आने वाले चंद सालों में शायद सरकार इस मंदिर को अपने अधिकार में ले सकती है...!"
                        "पंडित जी, एक आखिरी सवाल... मैंने यहाँ आस-पास मुस्लिम गुज्जरों के कई डेरे देखें हैं...क्या वे भी मंदिर आते हैं, कुछ दूध आदि चढ़ाते हैं जैसे अक्सर होता है कि नए दूध हुए पशु का दूध धार्मिक स्थलों पर पहले चढ़ाया जाता है...?"
                       "नहीं, वे मंदिर में प्रवेश नहीं करते यदि उन्हें मुझसे कोई काम है तो मंदिर की सीमा के बाहर से ही मुझे आवाज़ लगा पास बुला लेते हैं और लेने-देने की बात तो दूर रही, वैसे भी मंदिर में भैंस का दूध नहीं चढ़ता और गुज्जर गाय नहीं रखते।"
                       मंदिर से बाहर आ पंडित जी से अपनी व उनकी फोटो मैं खींचता हूँ.....और फिर से आखिरी सवाल बोलकर असली आखिरी सवाल पूछता हूँ कि क्या कभी इस जंगल के जंगली जानवर मंदिर के पास नज़र आए आपको...?"
                       "अभी पिछले महीने की एक शाम को जब मैं मंदिर बंद कर रहा था, तो मंदिर परिसर के पीछे मुझे बाघ के दो शावक दौड़ते हुए नज़र आए....मैं झटपट मंदिर बंद कर अपने कमरे में आ गया क्योंकि उनकी माता भी उनके पीछे कहीं चली आ रही होगी....!!"  कहकर पंडित जी हंस दिये।
                         अब चलने की बारी मेरी थी 11बज चले थे, पंडित कमल शर्मा जी से विदा लेता हूँ और जल्दी से बाकी तीन बचे मंदिरों....शिवदवालिया, ठाकुरद्वारा और नरसिंह देव मंदिर में माथा टेक, गाड़ी की तरफ बढ़ जाता हूँ। पार्किंग में पहुँच देखता हूँ तो किसी स्कूल के बच्चों को ले कई सारी गाड़ियाँ चली आ रही है, पिकनिक मनाने....!
                        खड़ा-पत्थर की तरफ वापसी पर गाड़ी चलाते हुए खिड़की से लगातार दिख रहे कूप्पड़ शिखर को देख बोलता हूँ- "हे कूप्पड़ गिरिराज, कभी सर्दियों में फिर से आऊँगा तुम्हें जगाने......जब तुम बर्फ की सफेद रजाई ओढ़ कर सो रहे होगे...!!!!"

   

      (इससे आगे की कहानी........"जांगलिक" गाँव जहाँ रास्ता खत्म हो जाता है, अपने परिवार को ले जाना मेरे जीवन के मूर्खतापूर्ण कार्यों में से एक है.....अपनी सनक के लिए मैंने अपने परिवार को अपने साथ खतरों में झोंक दिया.......को अपनी पुुस्तक में लिखूँगा। )

                     
खड़ा-पत्थर रोहडू मुख्य मार्ग से "कूप्पड़ तीर्थ" को जाता रास्ता। 

पूर्व की ओर झुका हुआ आसमान रंग बदलने लगा,  इस लाली को अकेला मैं नहीं, बल्कि ऊपर से चांद भी देख रहा था, जबकि मैं चांद और इस लाली दोनों को देख रहा था।

  समय तड़के के 5बज चुके हैं, अब दूर के खड़े दानव पेड़ मुझे देव से दिखने लग पड़ते हैं। पेड़ों के नीचे हरी-हरी घास भी अब नज़र आने लगी है।

 दिन हो रहा है और मैं उस मिट्टी-पत्थर की बिछी कच्ची सड़क पर चल रहा हूँ, जो मुश्किल से मेरी गाड़ी से बस ज़रा सी ही चौड़ी है।

मतलब कोई गाड़ी सामने से आ जाए तो मुझे ही आगे-पीछे कर उस गाड़ी को रास्ता देना पड़ेगा क्योंकि मेरे कई कटु अनुभव हैं कि पहाड़ी ड्राइवर हम मैदानी ड्राइवरों को हमेशा दबाते हैं.....!! परंतु अभी कौन सामने से आने वाला है, गाड़ी को बीच रास्ते रोक बार-बार उतरकर....फोटो खींचने की अपनी पुरानी आदत को दोहरा रहा हूँ।

एक गाय मेरी गाड़ी की आवाज़ सुन अपनी गर्दन मोड पीछे की तरफ ऐसी हैरानी से देखती है कि इतनी सुबह-सुबह कौन आदम आ धमका हमारी दुनिया में...!!!

क्षण-दर-क्षण आकाश उनके आने की ख़बर जान शर्म से लाल हुआ जा रहा था। आखिर मैं भी रुक कर उनकी राह तकने लग पड़ता हूँ। 

अरुणोदय के वो स्वर्णिम क्षण।

वो रंग संदूरी...!
जिस से मेरी आँखों को मुहब्बत सी हो जाती है।

 सूर्यदेव तब अपनी तेज़ किरणों से मेरी आँखें चुभोने से लग पड़ते हैं।

सूर्य से निकल कर आ रही गहरी पीली किरणों ने पेड़ों के हर एक पत्ते को और भूमि के हर एक कण को श्रृंगार कर रख दिया।

 अब रास्ता घने देवदारों के बीचो-बीच मुझे गुज़ार रहा है,  जिनमें सूर्य का प्रकाश दूसरे पहर ही पहुँच पाता होगा.....जब सूर्यदेव इन देवदारों के सिरों के ऊपर से गुज़रते होंगे।


परन्तु उन घने पेड़ों के झुरमुट से बाहर का दृश्य।

 इसी झुरमुट के पार कुछ समतल जगह पर नए मॉडल का एक टेैंट गढ़ा था, साथ ही में उन शौकीनों की गाड़ी भी खड़ी थी जो उस टैंट में अभी बेसुध पड़े थे।

कुछ आगे बढ़ने पर मुझे मेरी दायीं तरफ के पेड़ों के पार कुछ गहराई में बह रही गिरी-गंगा नदी की पहली झलक दिखाई पड़ती है और उसके किनारे पर भी चंद टेैंट गड़े नज़र आते हैं। मतलब यहाँ कैंपिंग के रसिया भी आ, अपना रस ले सकते हैं। 

आगे की तरफ देखता हूँ तो घाटी के बीच गिरी-गंगा के किनारे प्राचीन मंदिरों के साथ नए लाल रंगी छतों के ढांचे दिखाई पड़ते हैं। हां, यह ही "कूप्पड़ तीर्थ" है.... क्योंकि रास्ता यहीं आ रुक जाता है।

गिरी-गंगा मंदिर।

गिरी-गंगा मंदिर परिसर।

सरोवर के मध्य बना माँ गिरी-गंगा का मंदिर।

गिरी-गंगा नदी का जल निरंतर इस गोमुख से सरोवर में गिरता रहता है।

  मंदिर परिसर से आगे जिस ओर से धारा बह आ रही है, मुझे कई सारी प्राचीन सीढ़ियाँ चढ़ती हुई दिखाई पड़ी और ऊपर कुछ लाल रंग के झंडे....मलतब वहाँ भी मंदिर है, चल देता है इस ओर।

उस तरफ जाते हुए पीछे मुड़कर गिरी-गंगा मंदिर परिसर को देखता हूँ।

मंदिर की प्राचीन सीढ़ियाँ चढ़ रहा हूँ।

सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पीछे मुड़कर बार-बार गिरी-गंगा मंदिर को देख रहा था।

ऊपर पहुँच देखता हूँ कि प्राचीन मंदिर के द्वार पर पेड़ से कई सारी चुनरियाँ बंधी है, मतलब यह मां का मंदिर है....पर यह मंदिर भी बंद था।

मंदिर से उतर नीचे आ, गिरी-गंगा के किनारे आ खड़ा हो जाता हूँ।

 गिरी-गंगा के किनारे एक बड़े से पत्थर के नीचे भी एक मंदिर है, जिसके नीचे एक जलधारा पत्थरों से गिर रही थी।इस जलधारा में विशेष यह था कि निरंतर गिर रही धारा बीच-बीच में एकदम से आवाज़ करती हुई तेज़ हो जाती। 

 बस एक ही पगडंडी थी, जो गिरी-गंगा के बहाव के उलट जा रही है.....मैं उस पर ही चल देता हूँ।

गिरी-गंगा का पानी बहुत ही शांति व संयम से बहता आ रहा था।

  पांच मिनट धारा के उलट चलते रहने पर नदी के रास्ते में एक बांध बना नज़र आया, परंतु उसके पीछे अब तो कीचड़-गाद ही बची थी।

  कुछ कदम और बढ़ा तो एक जगह कुछ पानी इकट्ठा था, पहले मन हुआ कि नहा लूँ.....फिर सोचा वापसी पर मंदिर के कुंड में ही नहाऊगा।

  आगे एक मोड़ आता है, नदी भी मुड़ रही है। 

कुछ चौड़ी सी घाटी, केवल घास और फूलों से भरी, बीचो-बीच नन्हीं बालिका सी गिरी-गंगा और ज़रा से ऊँचे घाटी के दोनों छोरों पर देवदार जाति के घने पेड़, जिनकी चूंजों के साथ धूप खेल रही है...... कुछ तो सारे के सारे धूप स्नान कर रहे हैं और कुछ स्नान की प्रतीक्षा में हैं।

कुछ दूर दो गाय चरती तो नज़र आई, पर सुबह से किसी भी बंदे के दर्शन अब तक नहीं हो सके थे।

 खड़ा सोच रहा हूँ कि अब क्या करूँ, क्योंकि कोई भी रास्ता आगे नज़र नहीं आ रहा.....सो गिरी-गंगा की धारा के साथ-साथ ऊपर को चढ़ देता हूँ।

पौधे भी सांप की शक्ल से नज़र आने आरंभ हो जाते हैं, वे "सर्प की मक्की" (स्नेक लिली) के फूल हैं।

घने पेड़ों की छाया ने फिर से अंधेरा सा कर दिया है।

घाटी तंग होती जा रही थी, जगह-जगह मृत वृक्ष गिरे पड़े थे।

 अपने पसंदीदा पहाड़ी भजन "शिव कैलाशों के वासी"  ऊँची आवाज़ में गाता हुआ चढ़ाई चढ़ता जा रहा था।

इस घने जंगल में घुसे मुझे आधा घंटा होने वाला है, गिरी-गंगा धारा अब नाममात्र की ही रह गई है।

और चंद कदम ऊपर मुझे पहाड़ पर पानी बहने का कोई भी चिन्ह नही दिखाई पड़ता।  क्या इसी जगह को गिरी-गंगा का उद्गम स्थल मान लूँ..... या फिर और ऊपर देखूँ!  परंतु ऊपर तो बहते पानी के कोई भी निशानात दिखाई नहीं पड़ रहे।


चलने से पहले वहाँ जंगली बूटियों को मरोड़ कर वापसी के रास्ते की निशानी लगाता जाता हूँ।

इस खड़ी चढ़ाई को चढ़कर ऊपर पहुँच,  पाता हूँ कि पर्वत तो अभी और ऊँचा है, हां यहाँ पेड़ों के झुरमुट कम है।

 इस रास्ते को वापस आने की प्रथम निशानी, टूट कर दोबारा तीन शाखाओं में जन्मे इस देवदार के पेड़ को मान ऊपर चल देता हूँ। 

एकाएक मेरा ध्यान अपनी ही परछाई पर चला जाता है....जिसे हम अमूमन अनदेखा कर जाते हैं, इस वीराने में मुझे वह मेरी ही हिम्मत बंधाती सी लगी, कहती कि तू अकेला कहाँ...मैं तेरे साथ ही हूँ।

पहाड़ के ऊपर इतनी ऊँचाई पर जंगली गुलाबों की बहुत सारी झाड़ियाँ।

जंगली गुलाब।

जंगली गुलाबों संग मैं...!

  कुछ देर वहीं धूप में बैठ जाता हूँ, पौने आठ बज रहे हैं और समुंदर तट से इस जगह की ऊंचाई 3110 मीटर।

और, उस गुज्जर के बताये अनुसार मुझे शिखर की तरफ जाने वाली पगडंडी मिल जाती है।

"वाह, क्या सीन था"  सामने दिख रहे कूप्पड़ पहाड़ के सिर पर वृक्ष विहीन मैदान को देख मेरा मन गुलशन- गुलशन हो रहा था। 

कूप्पड़ पर्वत शिखर।
मुझे कुछ ऊपर बुग्याल में सैल पत्थरों से बना एक ढांचा सा दिखाई पड़ता है, पास पहुँच उसे भूमिगत पानी की एक बावड़ी पाता हूँ। जिसके आसपास पहाड़ पर "पिकनिक" मनाने आए लोगों का कचरा बिखरा मिलता है।
कूप्पड़ शिखर के पास इस जगह पर ही स्वामी योगीराज जी का कमंडल गिरा था।



शिखर के पास ही बना एक मकान, शायद यह सराय हो सकती है।

और, मैं कूप्पड़ शिखर की ओर चला जा रहा हूँ।

बुग्यालों में खिले जंगली पुष्प मुस्कराहट बिखेर मेरी राह रोक लेते।
                         
अब आखिरी चढ़ाई चल रहा हूँ जो सीधी चढ़ाई है। हर पांच-दस कदम बाद मुड़कर नीचे बुग्यालों को देखता हूँ
                   

अरे, यह बुग्याल तो उत्तराखंड में चोपता से पैदल  "ब्रह्मांड के सबसे ऊंचे शिव मंदिर तुंगनाथ"  के रास्ते में आने वाले बुग्यालों जैसे ही दिख रहे हैं।

पर यह बुग्याल चोपता के उन खूबसूरत बुग्यालों से भी ज्यादा खूबसूरत हैं, यही खूबसूरती तो मुझे यहाँ तक खींच लाई दोस्तों।  

  सामने शिखर पर पेड़ों से घिरा एक चबूतरा नज़र आता है, जो सैल पत्थरों से निर्मित है।
 आठ-दस सीढ़ियाँ चढ़ चबूतरे पर आता हूँ, तो देखता हूँ कि यह चबूतरा बगैर छत का मंदिर है.... जिसके मध्य छोटे से मंच पर एक पत्थर गड़ा है, जिस पर कुरेद कर एक मानवीय चेहरा उभारने की कोशिश की गई है।
  

तभी मेरा ध्यान मूर्ति नुमा पत्थर के आगे गिरे पड़े मिश्रित धातु के एक छोटे से पतरे पर पड़ता है। हवा से गिरे उस पतरे को सीधा कर देखता हूँ तो, उस पर मां काली का चित्र खूदा है।

 उस ऊँचाई से क्या हसीन विहंगम दृश्य नज़र आ रहा था, कूप्पड़ घाटी का।

सन् 1965 के तांबे वाले पांच पैसे। 

अब उस रास्ते से उतर रहा हूँ जो सही रास्ता है। नीचे बुग्याल में बने उस मकान के पास एक सफेद रंग का घोड़ा घास चरने आ जाता है।

                                   
 मुझे आता देख सबसे पहले एक बुजुर्ग गुज्जर मेरी तरफ देखते हैं, पर जैसे ही मैं अपना कैमरा ऊपर उठाता हूँ...... वे झट से पीठ कर लेते हैं, इस्लाम में फोटो खिंचवाना मना है,शायद इसलिए...!
                                     
   पास पहुँच, उनमें से एक नौजवान गुज्जर उस घेरे से बाहर निकल मुझसे बातचीत करता है कि ऊपर से फिसलने के कारण इस भैंस की एक टांग टूट गई है, अब इसे कहीं उठाकर भी तो नहीं ले जाया जा सकता....!

वो नौजवान " गिरी गुज्जर " और मैं।

अब मैं गिरी गुज्जर के सुझाये सही रास्ते से नीचे उतरता जा रहा हूँ, गुज्जरों के पशु डेरे रास्ते में आ रहे हैं।

अच्छी खासी पगडंडी नीचे उतर रही थी।

करीब 10बजे मैं गिरी-गंगा मंदिर कूप्पड़ तीर्थ वापस पहुँच जाता हूँ।

"काल चक्र"
                                     
गिरी-गंगा मंदिर परिसर में सरोवर किनारे स्थापित स्वामी योगीराज जी की मूर्ति।
       

पंडित कमल शर्मा जी, पुजारी कूप्पड़ तीर्थ।

लो, मेरी भी एक फोटो खींच दीजिए पंडित जी।
                                       
गिरी-गंगा के किनारे अस्थि विसर्जन स्थल।

वापस जाते हुए फिर मुड़ कर देखता हूँ।

 खड़ा-पत्थर की तरफ वापसी पर गाड़ी चलाते हुए खिड़की से लगातार दिख रहे कूप्पड़ शिखर को देख बोलता हूँ- "हे कूप्पड़ गिरिराज, कभी सर्दियों में फिर से आऊँगा तुम्हें जगाने......जब तुम बर्फ की सफेद रजाई ओढ़ कर सो रहे होगे...!!!!"
                                   
                                       
                                         

             मेरी साहसिक यात्राओं की चित्रकथाएँ

 (1) "श्री खंड महादेव कैलाश की ओर" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के यहाँ स्पर्श करें।
(2) " पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(3) "चलो, चलते हैं सर्दियों में खीरगंगा" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(4) " मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से...!" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(5) करेरी झील " मेरे पर्वतारोही बनने की कथा" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।