भाग-5 "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से....!"
इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र
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"रब्ब दी पींग"
16अगस्त 2014.....सेबों के बगीचों से भरे "कलाह गाँव" से पगडंडी हमें चढ़ाई चढ़ा रही थी। गाँव से ज़रा सा ही ऊपर हुए तो पगडंडी के बीच एक पेड़ से गिरे हुए पके फल बिखरे पड़े थे। देखने में वह फल बहुत खूबसूरत जान पड़ते थे। मैंने डरते-डरते जमीन से दो फल उठाये और विशाल जी की तरफ पेश करता हुआ बोला- "लगता है यह फल खाने योग्य है।" विशाल जी ने भी चलते हुए एक फल उठा चखा और दूसरा फल मैंने खा लिया।
वह फल "खुरमानी" था..... और यह था खुरमानी से हमारा पहला साक्षात्कार, दोस्तों।
अब जब भी गर्मियों की छुट्टियों में, मैं सपरिवार हिमाचल का रुख करता हूँ तो शिमला के आगे किन्नौर क्षेत्र में सड़क किनारे लगे ढेरों खुरमानी के पेड़ों पर पत्ते कम तो खुरमानियाँ ज्यादा लगी होती हैं, फिर क्या मैं खूब सारी मुफ्त की खुरमानियाँ इकट्ठी कर शौक से खाता हूँ और परिवार वालों को भी खिलाता हूँ। वैसे वहाँ के स्थानीय लोग इन खुरमानियों को इकट्ठा कर इसे धूप में सुखाकर इसके बीजों का तेल निकालते हैं, जिसे खाने में प्रयोग किया जाता है।
कलाह गाँव से करीब-करीब एक घंटा हो चला था हमें चले हुए, रास्ता तो बस चढ़ता ही जा रहा था। नए पनपे मुझ पर्वतारोही के मन में यह ख्याल बार-बार आ रहा था कि 'क्यों और क्या पंगा' ले लिया तूने विकास, क्यों खामखा ज़िद कर बैठा... ले अब भुगत, चढ़ चढ़ाईयां अब, चढ़ चढ़ाईयां...!!!
पर मैंने अपनी परिस्थिति विशाल जी के समक्ष उजागर नहीं होने दी और विशाल जी ने भी अपने शारीरिक व्यथा मेरे सामने प्रकट नहीं होने दी, भाई हम दोनों नए पनपे पर्वतारोही जो ठहरे... कौन किसी से कम कैसे..!!!!
रास्ते किनारे अब एक गुफा आई, जिसमें जाने के लिए एक लोहे की सीढ़ि भी लगी हुई थी। उस गुफा में "पौणाहारी बाबा बालक नाथ" का स्थान बनाया गया है, परंतु हम उस गुफा को बाहर से ही देख आगे बढ़ते हुए.... पत्थर पर पत्थर टिका कर बनाई हुई सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे कि पीछे से तीन नवयुवक धड़ाधड़ उन सीधी खड़ी सीढ़ियों को चढ़ते हुए हमारे पास से गुज़रने लगे। देखने और उनके चलने की रफ्तार से पता चल चुका था कि वे स्थानीय हैं, पूछने पर उन सब ने अपना गाँव होली के आसपास के किसी गाँव को बताया। शिव भोले के जयकारे के साथ वे हम से आगे निकल गए और हम दोनों का ऐसा हाल था जैसे चींटी चली पहाड़ चढ़ने...!
त्यारी से पदयात्रा शुरू करने के बाद हमने किसी से भी रास्ता नहीं पूछा था क्योंकि रास्ता पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ रही थी। रास्ता खुद हमें रास्ता दिखा रहा था, मतलब कुछ-कुछ दूरी पर रास्ते-किनारे के पत्थरों को चूने से रंग कर सफेद किया हुआ था। यह सफेदी हर साल जेल-खड्ड में लंगर लगाने वाले बाबा जी लगाते हैं और रास्ते की देखभाल जंगलात विभाग के ज़िम्मे है।
मैं बार-बार पीछे मुड़कर नीचे रह गए कलाह गाँव को अपने से दूर जाते देख लेता। गहरी हो चुकी घाटी में जेल-खड्ड नाले के बहने की आवाज़ ही अब केवल सुनाई देने लगी थी। हां, सामने के पहाड़ पर एक जलप्रपात बहुत ऊँचाई से नीचे कहाँ गिर रहा था, यह देखने के लिए तो घाटी में उतरना पड़ेगा....परंतु यहाँ तो यह चढ़ाई ही खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी।
एक मोड़ मुड़े तो आगे का दृश्य देख हमारी आँखें चंद क्षणों के लिए झपकना ही भूल गई।
" क्यों, क्या देख लिया इन आँखों ने....?"
इन आँखों ने वो नज़ारा जीवन में पहली बार और अब तक भी आखिरी बार ही देखा है कि घाटी के बिल्कुल बीच एक पर्वत से दूसरे पर्वत तक "इंद्रधनुष" का सेतु बना हुआ है। मेरे मुख से अकस्मात निकला- "वाह री क़ुदरत, हम मनुष्यों की बस्तियों से दूर तू इन पहाड़ों में खेल रही है..... मुझे भी अपने संग खेला ले ना...!!"
विशाल जी बोले- "हां विकास जी, मैं भी खेलना चाहता हूँ इस क़ुदरत में, क़ुदरत के साथ...!!!"
अब हम दोनों अट्टहास लगा हंस रहे हैं और फिर मैं विशाल जी को अपनी बचपन की याद सुनाता हूँ कि जब भी बरसात के महीने में बारिश होने के बाद शाम को धूप निकल आती, तो मैं भाग कर अपने कोठे (छत) पर चढ़ जाता, "रब्ब दी पींग" (इंद्रधनुष) देखने के लिए।
कलाह गाँव से चलते हुए हमें एक घंटा हो चुका था। हम से आगे निकल कर गए वो तीन युवक रास्ते किनारे आई वर्षा-शालिका में बैठे आराम कर रहे थे कि हम भी वहाँ जा पहुँचे। चंद मिनट वहीं बैठ अब हम सब इकट्ठे चल पड़े पगडंडी पर। वो तीनों डोगरी भाषा में शिव-भोले के भजन-भेटें गाते हुए चढ़ रहे थे और हम दोनों साढूँओं की रक्सैकों पर बंधी घंटियाँ हिल-हिल कर उनके भजनों के साथ संगीत दे रही थी। परंतु हम दोनों उन तीनों का ज्यादा दूर तक पीछा नहीं कर पाए, धीरे-धीरे हमारा और उनके बीच का फासला चौड़ा होता जा रहा था। फिर से हम दोनों ही उस वीरान पगडंडी पर अपनी घंटियां बजाते हुए बढ़ते जा रहे थे।
हम अब उस ऊँचाई पर जा पहुँचे थे, जहाँ से सामने "कुज्जा पर्वत" पूर्णतः दिखाई पड़ने लगा था। सामने दिख रही नंगे पर्वतों की दीवार पर पड़ी कुछ बर्फ को देख मन मचल रहा था कि क्या हम इस बर्फ को छूँ पाएंगे।
शाम के पाँच बज रहे थे, रास्ते में एक स्थानीय व्यक्ति मिला जिसने अपनी पीठ पर सूखी लकड़ियों से भरी एक बोरी बांध रखी थी। वह व्यक्ति हमारी खुशी देख हैरान हो रहा था....अरे भाई उस वीरान पगडंडी पर उन जनाब का मिलना हमारे लिए खुशी की ही तो बात हो सकती थी, है कि नहीं।
दो-चार बातें और रास्ते के बारे में पूछ कर हम आगे बढ़ लिये। उस व्यक्ति के बताये अनुसार कोई बीस मिनट चलने के बाद एक ऊँचे से सीधे खड़े दीवार नुमा पहाड़ के नीचे से पगडंडी हमें आगे ले जा रही थी। उस व्यक्ति ने उस जगह को "बखोली कुड" नाम से सम्बोधित किया था। इस दीवार नुमा पर्वत के नीचे बहुत बड़ा कुड यानि प्राकृतिक वर्षा-शालिका बनी हुई थी, जिसके नीचे भेड़-बकरी वाले रात में अपना डेरा जमाते होगें। उस राहगीर ने हमें यह भी कहा था कि जेल-खड्ड से पहले "धरम्बड गोठ" नामक भी जगह आयेगी, वहाँ जंगलात कर्मचारियों द्वारा भी मणिमहेश यात्रियों के लिए छोटा सा लंगर लगाया गया है।
चलते-चढ़ते एक घंटा और बीत गया, कभी पगडंडी इतने घने जंगल से हमें ले जाती कि जैसे लगता एक दम से अंधेरा हो गया हो...परन्तु फिर उस जंगल से बाहर निकाल हमें सुख की साँस दे जाती कि अभी तो सूर्यास्त भी नहीं हुआ है।
हमने फिर उन तीनों युवकों को जा घेरा, जो हमसे बहुत आगे जा निकले थे। अब हमें उनकी तेज़ रफ्तार का राज मालूम हो चुका था.... वो तीनों ही "भांग की बूटी" को अपने हाथों से मलते हुए 'बम-बोल' के जयकारे लगा रहे थे। उन्हें यह कृत्य करते देख मन एकदम से परेशान हो उठा कि नशा हमारी युवा पीढ़ी को गर्क में ले जा रहा है। अब हम उनके पास ठहरते नहीं है, आगे बढ़ जाते हैं।
दस मिनट चलते रहने के बाद घाटी ने एक खुला सा रूप ले लिया, जिसमें बहुत बड़ी "घासणी" (बुग्याल) थी। उस घासणी में पगडंडी के किनारे एक पक्की शैड़ देख हमने अंदाजा लगा लिया कि "घरम्बड गोठ" आ गया है। पीछे मुड़कर देखा तो दूर कलाह गाँव अब भी नज़र आ रहा था।
हम दोनों ही बुरी तरह से थक चुके थे। जैसे ही जंगलात विभाग द्वारा बनाई गई पक्की शैड के पास पहुँचे तो हम दोनों एकदम से उस शैड के अंदर जाकर लेट गए। परंतु मुझे लेटते ही भयंकर खांसी-हूत्थूँ छिड़ गया, जिससे साँस लेना भी दूभर हो गया। खांस-खांस कर मेरी आँखों से भी पानी निकल आया। दोस्तों, इस घटना के बाद मैं ट्रैकिंग के दौरान फिर कभी भी नहीं लेटा, यहाँ तक कि बैठता भी नहीं हूँ.....बस खड़े-खड़े या ट्रैकिंग स्टिक के सहारे थोड़ा झुक कर तेज़ चल रही ह्रदयगति और चढ़े हुये सांस को धीरे-धीरे संभालता हूँ।
अब हम दोनों साढूँओं ने अपना दुख एक-दूसरे से छिपाना बंद कर दिया था, क्योंकि हम दोनों ही अब एक समान दुखी जो थे....जेल-खड्ड अभी भी दूर है। सात घंटे से हम नए पनपे पर्वतारोही लगातार चढ़ाई चढ़ते आ रहे थे, सो जंगलात विभाग में गार्ड के पद पर तैनात "राजकुमार जी" (जो वहाँ धरम्बड गोठ में हर साल न्यौण यात्रा के समय मणिमहेश पदयात्रियों के लिए छोटा सा लंगर लगाते हैं) से कहते हैं कि हम आज रात आपके पास ही रुक जाते हैं। तब राजकुमार जी ने विनम्रता के साथ हमें जवाब दिया- "नहीं, हम लोगों के पास आप लोगों को रात रुकवाने का इंतजाम नहीं है...जेल-खड्ड पहुँचने में अब आपको ज्यादा से ज्यादा दो घंटे और लग सकते हैं, वहाँ लंगर आयोजक 'बाबा सुरजीत' जिनका आश्रम होली में है, ने सब इंतजाम कर रखे हैं।"
खैर हमें राजकुमार जी और उनके एक और सहयोगी ने चाय के साथ ब्रेड परोसी। मेरे प्रश्न कभी भी थम नहीं सकते, सो राजकुमार जी से पूछ बैठा कि वह सामने टेढ़ा पर्वत शिखर जो सुबह से हमारे आकर्षण का केंद्र बना हुआ है, इसका क्या नाम है...?
"कुज्जा वज़ीर महाराज" यह भगवान शिव का भांजा है....!
"क्या कहा आपने, भगवान शिव का भांजा वह कैसे.....?"
तब राजकुमार जी ने हमें इस टेढ़े पर्वत शिखर की दंतकथा सुनानी आरंभ की और हमारे पीछे दिख रही धौलाधार हिमालय की पर्वत श्रृंखला की ओर इशारा कर बोले कि वो सामने पहाड़ पर एक झील है, जिसे "क्यू डल" या "नाग डल" कहा जाता है... हमारे बुजुर्ग हमें बताते हैं कि भोलेनाथ शिव हर रोज मुँह-अंधेरे उस डल पर स्नान करने आते थे, तब जब आसपास के गाँवों के सब लोग सो रहे हो। परंतु उस बार आधी रात के समय.... रास्ते के एक गाँव में एक बुढ़िया को नींद नहीं आ रही थी, सो वह अपनी झोपड़ी से बाहर बैठ दीया जलाकर चरखा कातने लगी।
शिव जी के कानों में चरखा चलने से होने वाली "धूँ-धूँ" की आवाज़ जैसे ही पड़ी, शिव चौंकने हो गए कि क्या मैं आज देरी से आया हूँ नहाने, जो लोग जाग गए....ऐसे तो लोग मुझे देख लेंगे, मुझे परेशान करेंगे, मेरा ठिकाना जानकर मेरी तपस्या में विघ्न डालेंगे... मुझे अपना ठिकाना बदल लेना चाहिए।
वे अपने वज़ीर जो उनका भांजा भी है "कुज्जा वज़ीर" को आदेश देते हैं कि जाओ मेरे लिए कोई ऐसी नई जगह खोजो, जहाँ कोई भी मुझे आसानी से प्राप्त ना कर पाए... मेरी शांति और तपस्या भंग ना कर पाए। कुज्जा वज़ीर ढूँढते-ढूँढते इसी कलाह घाटी में आ पहुँचे और उन्होंने पाया कि इस जगह पर कोई भी आदमी नहीं है व इस ऊँचे पर्वत से अच्छी जगह तो कोई और हो ही नहीं सकती। सो इस पर्वत को अपने मामा के लिए तैयार करने लगे। परंतु इस पर्वत क्षेत्र की सुंदरता देख कुज्जा वज़ीर का मन बेईमान हो गया और इस पर्वत पर उसने अपना निवास स्थान बना लिया। उधर भोलेनाथ अपने भांजे का इंतजार करने के बाद, आखिर उसे ढूँढते-ढूँढते यहाँ पहुँचे और सब सच्चाई देख उन्होंने गुस्से से पर्वत को लात मार टेढ़ा कर दिया। फिर यहीं से आगे निकल मणिमहेश कैलाश पर अपना डेरा जा जमाया। देखने में यह कुज्जा वज़ीर पर्वत मणिमहेश कैलाश पर्वत से ऊँचा जान पड़ता है, परंतु हमारे बुजुर्ग कहते हैं कि नाप में यह मणिमहेश कैलाश से दस रत्ती बराबर छोटा है।
विशाल जी अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति के इंसान हैं, उनके चेहरे पर यह कहानी सुनते हुए आये श्रद्धा के भाव को मैं पढ़ रहा था। जबकि मैं सिरे का नास्तिक हूँ, परंतु यह कथा सुन आनंद मुझे भी बहुत आया। मेरा दिमाग चाहे अंदर ही अंदर कितने ही तर्क-विचार देता रहे, परंतु मेरा मन इन पुरातन कथाओं को सुन हर्षित हो उठता है दोस्तों।
शाम के 7बजने को थे और फिर उन तीनों स्थानीय युवकों के साथ हम धरम्बड गोठ से आगे चल पड़े। थोड़े समय के बाद ही सूर्यदेव हमें छोड़कर धौलाधार पर्वत माला के पीछे जा छिपे और वे तीनों स्थानीय युवक सूटे के सरूर में हम से दुगनी चौड़ी "लांगे पट" (चौड़े-चौड़े कदम ले) पगडंडी से ओझल हो गए।
ऊपर से हो रहा अंधेरा, वीराने में गुज़र रही पगडंडी, झींगरों का शोर, जेल-खड्ड नाले की गर्जना और हम दोनों नौसिखिये।
एक अजीब सा वहम, जेल-खड्ड तक पहुँचने का दबाव, बैटरी की रोशनी की परिधि से बाहर खड़ी काली हो चुकी झाड़ियाँ और सबसे बड़ा डर "भालू" का...... हमारा शरीर यह देख कर आपातकालीन प्रणाली में आ, अपने-आप को थका होने के बावजूद भी चौकन्ना कर लेता है...शरीर में एक रहस्यमय सी ऊर्जा जाग उठी। हम दोनों साढूँ रह-रहकर जोर-जोर से शिव- भोले के जयकारे लगाते जा रहे थे।
साढे आठ बज चुके थे, परंतु दूर-दूर तक फैला स्याह अंधेरा जता रहा था कि अभी भी जेल-खड्ड दूर है। रास्ता अब पत्थरों-चट्टानों का यार हो चला था। पसीने से तरबतर हम दोनों बगैर कहीं भी रुके पगडंडी पर चलते जा रहे थे। अब एक-एक मिनट और वह रास्ता ऐसे लगने लगा था जैसे कट ही ना रहा हो।
तभी सामने से पगडंडी पर एक प्रकाश गोला हमारी ओर आता क्या दिखाई दिया, हम दोनों की बांछें खिल गई। चंद क्षणों में उस प्रकाश गोले का पीछा कर रहे दो युवकों ने हमारे पास आते ही शिव-भोले का जयकारा लगा पूछा- "क्या आप ही दिल्ली वाले हो...?"
जी हां का जवाब सुनते ही वे बोले-"आपसे पहले पहुँचे उन तीनों स्थानीय युवकों से बाबा सुरजीत जी ने पूछा कि पीछे और कितने बंदे आ रहे हैं, तब उन्होंने आपके बारे में बताया तो बाबा जी ने उन्हें बहुत फटकार लगाई कि रात का समय हो गया है और तुम लोग उन दोनों अनजान बाहरी व्यक्तियों को ऐसे ही जंगल में क्यों छोड़ आए, तुम लोगों को उन्हें अपने साथ ही लाना चाहिए था....तब बाबाजी ने हम दोनों को आप लोगों को लेने के लिए भेजा है।"
यह बात सुन हमारा खून आधा सेर और बढ़ गया, हमारी गर्दन व छाती शाम से तन गई कि हमें भी कोई लेने आया है। आखिर आधा घंटा चलने के बाद हमें एक सीधे खड़े पहाड़ के नीचे जलती आग की कुछ रोशनी दिखाई दी और वहाँ पहुँचते ही देखा कि तरपालों से बनाये हुए तीन-चार तम्बू और उनके बाहर खड़े आठ-दस आदमी हमारी राह देख रहे थे। उनके पास पहुँचते ही बाबा सुरजीत जी ने हमें ले जाकर तम्बू के अंदर बिठाकर पानी पिलाया।
त्यारी गाँव में हम से लिफ्ट लेने वाले फार्मासिस्ट व उनका चपरासी भी उसी तम्बू में पहले से बैठे थे। हमें देख रहे वे फार्मासिस्ट बोले- "अच्छा तो आप लोग पहुँच ही गए, मैंने तो सोचा था कि आप लोग त्यारी से ही वापस हो गए होंगे।"
मैंने हंसते हुए उनसे कहा-"सच बोलूँ तो आप को ही देख कर मैंने ज़िद पकड़ ली थी कि मुझे मणिमहेश जाना है बस।"
बातें करते-करते ही हमारे आगे लंगर परोस दिया गया, काबुली छोले-आलू की सब्जी, चावल व रोटी..... आनंद आ गया, तब मैने खाना खाते वक्त विशाल जी से पंजाबी की एक मशहूर कहावत बोली- "टिडे पाईआं रोटिआं, सबणा गल्लां खोटिआं...!" और हम दोनों साढूँ भाई मंद-मंद मुस्कान हंसने लगते हैं।
समय रात के दस बजने को हो रहे थे, बाबा सुरजीत जी बाहर से तम्बू में आ कर बोले- "अच्छा तो, आप दोनों मेरी जगह पर ही सो जाना....क्योंकि आपसे पहले आए लोग सारे कम्बल नीचे बिछा कर उस पर सो चुके हैं, जिनमें कुछ महिलाएँ भी है...अब उन सब को कैसे जगा कर उनके नीचे से कम्बल निकालूँ, सो आप दोनों मेरे बिस्तर पर सो जाओ।"
जब मैंने बाबा जी से पूछा- "तो आप कहाँ सोओगें बाबा जी....?"
" मेरा क्या है, मैं तो फक्कड़ आदमी हूँ कहीं भी सो जाऊँगा।"
मैने और विशाल जी ने एक सुर में बोला- "आप हमारे लिए इतना कष्ट मत उठाये, हम बगैर कम्बल के ही रात काट लेंगे" कि तभी वो जो दो युवक बाबा जी ने हमें लेने के लिए भेजे थे ना, वे तब से ही हमारी सेवा में मगन थे, उन्होंने ही हमारे हाथ-मुँह धुलवा कर हमें खाना परोसा ..... ने हमारी बात बीच में काट बाबा जी से कहा कि हम इन को अपने साथ ही लिटा लेंगे, आप चिंता ना करें। उनमें से एक युवक तो होली गाँव में हार्डवेयर व पेंट की दुकान चला रहा था तो दूसरा स्वास्थ्य विभाग में फार्मासिस्ट था।
वे दोनों हमें संग लेकर तम्बू में बची हुई अपनी जगह पर ले आए और उस फार्मासिस्ट युवक ने अपने स्लीपिंग बैग की ज़िप खोल उसे हम संग बांट लिया और बाकी कम्बलों को आड़ा कर हम चारों में अपने ऊपर ले लिये। मेरे पैर तम्बू से बाहर निकल रहे थे, सो बूट डाले ही लेट जाता हूँ... वैसे भी आड़े कर ओढ़े हुए खुले स्लीपिंग बैग व कम्बल हमारे घुटनों तक ही पहुँच पा रहे थे।
लेटे-लेटे हमें उस फार्मासिस्ट युवक ने कहा- "आप मेरे गाँव आना, मेरे गाँव से ऊपर भी भगवान शिव का एक और डल (झील) है 'लमडल' जो धौलाधार हिमालय की सबसे की बड़ी लंबी झील है, मैं आपको वहाँ लेकर जाऊँगा।"
हमारे लिए "लमडल" नाम भी बिल्कुल नया था, उन्होंने ही मुझे लमडल झील नाम से वाकिफ़ करवाया था....सो अगले साल मैं चल दिया लमडल देखने। यह पदयात्रा मेरे जीवन की सबसे ज्यादा रोमांचकारी यात्रा साबित हुई दोस्तों।
खैर, अब हम सभी नींद के आगोश की ओर बढ़ रहे थे, मैं आज सारे दिन घटे घटनाक्रम के बारे में सोचने लग जाता हूँ। दिनेश जी के त्याग की बदौलत हम इस पदयात्रा पर रवाना हुए और विशाल जी के संग के साथ ही मैं इस जगह जेल-खड्ड तक पहुँच पाया हूँ। यदि कहीं अकेला ही इस कठिन व दुर्गम राह पर चल देता तो क्या मैं अकेला ही आज यहाँ तक पहुँच पाता और मन ही मन सो चुके विशाल जी को एक मौन आभार व्यक्त करता हूँ।
(क्रमश:)
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"रब्ब दी पींग"
16अगस्त 2014.....सेबों के बगीचों से भरे "कलाह गाँव" से पगडंडी हमें चढ़ाई चढ़ा रही थी। गाँव से ज़रा सा ही ऊपर हुए तो पगडंडी के बीच एक पेड़ से गिरे हुए पके फल बिखरे पड़े थे। देखने में वह फल बहुत खूबसूरत जान पड़ते थे। मैंने डरते-डरते जमीन से दो फल उठाये और विशाल जी की तरफ पेश करता हुआ बोला- "लगता है यह फल खाने योग्य है।" विशाल जी ने भी चलते हुए एक फल उठा चखा और दूसरा फल मैंने खा लिया।
वह फल "खुरमानी" था..... और यह था खुरमानी से हमारा पहला साक्षात्कार, दोस्तों।
अब जब भी गर्मियों की छुट्टियों में, मैं सपरिवार हिमाचल का रुख करता हूँ तो शिमला के आगे किन्नौर क्षेत्र में सड़क किनारे लगे ढेरों खुरमानी के पेड़ों पर पत्ते कम तो खुरमानियाँ ज्यादा लगी होती हैं, फिर क्या मैं खूब सारी मुफ्त की खुरमानियाँ इकट्ठी कर शौक से खाता हूँ और परिवार वालों को भी खिलाता हूँ। वैसे वहाँ के स्थानीय लोग इन खुरमानियों को इकट्ठा कर इसे धूप में सुखाकर इसके बीजों का तेल निकालते हैं, जिसे खाने में प्रयोग किया जाता है।
कलाह गाँव से करीब-करीब एक घंटा हो चला था हमें चले हुए, रास्ता तो बस चढ़ता ही जा रहा था। नए पनपे मुझ पर्वतारोही के मन में यह ख्याल बार-बार आ रहा था कि 'क्यों और क्या पंगा' ले लिया तूने विकास, क्यों खामखा ज़िद कर बैठा... ले अब भुगत, चढ़ चढ़ाईयां अब, चढ़ चढ़ाईयां...!!!
पर मैंने अपनी परिस्थिति विशाल जी के समक्ष उजागर नहीं होने दी और विशाल जी ने भी अपने शारीरिक व्यथा मेरे सामने प्रकट नहीं होने दी, भाई हम दोनों नए पनपे पर्वतारोही जो ठहरे... कौन किसी से कम कैसे..!!!!
रास्ते किनारे अब एक गुफा आई, जिसमें जाने के लिए एक लोहे की सीढ़ि भी लगी हुई थी। उस गुफा में "पौणाहारी बाबा बालक नाथ" का स्थान बनाया गया है, परंतु हम उस गुफा को बाहर से ही देख आगे बढ़ते हुए.... पत्थर पर पत्थर टिका कर बनाई हुई सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे कि पीछे से तीन नवयुवक धड़ाधड़ उन सीधी खड़ी सीढ़ियों को चढ़ते हुए हमारे पास से गुज़रने लगे। देखने और उनके चलने की रफ्तार से पता चल चुका था कि वे स्थानीय हैं, पूछने पर उन सब ने अपना गाँव होली के आसपास के किसी गाँव को बताया। शिव भोले के जयकारे के साथ वे हम से आगे निकल गए और हम दोनों का ऐसा हाल था जैसे चींटी चली पहाड़ चढ़ने...!
त्यारी से पदयात्रा शुरू करने के बाद हमने किसी से भी रास्ता नहीं पूछा था क्योंकि रास्ता पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ रही थी। रास्ता खुद हमें रास्ता दिखा रहा था, मतलब कुछ-कुछ दूरी पर रास्ते-किनारे के पत्थरों को चूने से रंग कर सफेद किया हुआ था। यह सफेदी हर साल जेल-खड्ड में लंगर लगाने वाले बाबा जी लगाते हैं और रास्ते की देखभाल जंगलात विभाग के ज़िम्मे है।
मैं बार-बार पीछे मुड़कर नीचे रह गए कलाह गाँव को अपने से दूर जाते देख लेता। गहरी हो चुकी घाटी में जेल-खड्ड नाले के बहने की आवाज़ ही अब केवल सुनाई देने लगी थी। हां, सामने के पहाड़ पर एक जलप्रपात बहुत ऊँचाई से नीचे कहाँ गिर रहा था, यह देखने के लिए तो घाटी में उतरना पड़ेगा....परंतु यहाँ तो यह चढ़ाई ही खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी।
एक मोड़ मुड़े तो आगे का दृश्य देख हमारी आँखें चंद क्षणों के लिए झपकना ही भूल गई।
" क्यों, क्या देख लिया इन आँखों ने....?"
इन आँखों ने वो नज़ारा जीवन में पहली बार और अब तक भी आखिरी बार ही देखा है कि घाटी के बिल्कुल बीच एक पर्वत से दूसरे पर्वत तक "इंद्रधनुष" का सेतु बना हुआ है। मेरे मुख से अकस्मात निकला- "वाह री क़ुदरत, हम मनुष्यों की बस्तियों से दूर तू इन पहाड़ों में खेल रही है..... मुझे भी अपने संग खेला ले ना...!!"
विशाल जी बोले- "हां विकास जी, मैं भी खेलना चाहता हूँ इस क़ुदरत में, क़ुदरत के साथ...!!!"
अब हम दोनों अट्टहास लगा हंस रहे हैं और फिर मैं विशाल जी को अपनी बचपन की याद सुनाता हूँ कि जब भी बरसात के महीने में बारिश होने के बाद शाम को धूप निकल आती, तो मैं भाग कर अपने कोठे (छत) पर चढ़ जाता, "रब्ब दी पींग" (इंद्रधनुष) देखने के लिए।
कलाह गाँव से चलते हुए हमें एक घंटा हो चुका था। हम से आगे निकल कर गए वो तीन युवक रास्ते किनारे आई वर्षा-शालिका में बैठे आराम कर रहे थे कि हम भी वहाँ जा पहुँचे। चंद मिनट वहीं बैठ अब हम सब इकट्ठे चल पड़े पगडंडी पर। वो तीनों डोगरी भाषा में शिव-भोले के भजन-भेटें गाते हुए चढ़ रहे थे और हम दोनों साढूँओं की रक्सैकों पर बंधी घंटियाँ हिल-हिल कर उनके भजनों के साथ संगीत दे रही थी। परंतु हम दोनों उन तीनों का ज्यादा दूर तक पीछा नहीं कर पाए, धीरे-धीरे हमारा और उनके बीच का फासला चौड़ा होता जा रहा था। फिर से हम दोनों ही उस वीरान पगडंडी पर अपनी घंटियां बजाते हुए बढ़ते जा रहे थे।
हम अब उस ऊँचाई पर जा पहुँचे थे, जहाँ से सामने "कुज्जा पर्वत" पूर्णतः दिखाई पड़ने लगा था। सामने दिख रही नंगे पर्वतों की दीवार पर पड़ी कुछ बर्फ को देख मन मचल रहा था कि क्या हम इस बर्फ को छूँ पाएंगे।
शाम के पाँच बज रहे थे, रास्ते में एक स्थानीय व्यक्ति मिला जिसने अपनी पीठ पर सूखी लकड़ियों से भरी एक बोरी बांध रखी थी। वह व्यक्ति हमारी खुशी देख हैरान हो रहा था....अरे भाई उस वीरान पगडंडी पर उन जनाब का मिलना हमारे लिए खुशी की ही तो बात हो सकती थी, है कि नहीं।
दो-चार बातें और रास्ते के बारे में पूछ कर हम आगे बढ़ लिये। उस व्यक्ति के बताये अनुसार कोई बीस मिनट चलने के बाद एक ऊँचे से सीधे खड़े दीवार नुमा पहाड़ के नीचे से पगडंडी हमें आगे ले जा रही थी। उस व्यक्ति ने उस जगह को "बखोली कुड" नाम से सम्बोधित किया था। इस दीवार नुमा पर्वत के नीचे बहुत बड़ा कुड यानि प्राकृतिक वर्षा-शालिका बनी हुई थी, जिसके नीचे भेड़-बकरी वाले रात में अपना डेरा जमाते होगें। उस राहगीर ने हमें यह भी कहा था कि जेल-खड्ड से पहले "धरम्बड गोठ" नामक भी जगह आयेगी, वहाँ जंगलात कर्मचारियों द्वारा भी मणिमहेश यात्रियों के लिए छोटा सा लंगर लगाया गया है।
चलते-चढ़ते एक घंटा और बीत गया, कभी पगडंडी इतने घने जंगल से हमें ले जाती कि जैसे लगता एक दम से अंधेरा हो गया हो...परन्तु फिर उस जंगल से बाहर निकाल हमें सुख की साँस दे जाती कि अभी तो सूर्यास्त भी नहीं हुआ है।
हमने फिर उन तीनों युवकों को जा घेरा, जो हमसे बहुत आगे जा निकले थे। अब हमें उनकी तेज़ रफ्तार का राज मालूम हो चुका था.... वो तीनों ही "भांग की बूटी" को अपने हाथों से मलते हुए 'बम-बोल' के जयकारे लगा रहे थे। उन्हें यह कृत्य करते देख मन एकदम से परेशान हो उठा कि नशा हमारी युवा पीढ़ी को गर्क में ले जा रहा है। अब हम उनके पास ठहरते नहीं है, आगे बढ़ जाते हैं।
दस मिनट चलते रहने के बाद घाटी ने एक खुला सा रूप ले लिया, जिसमें बहुत बड़ी "घासणी" (बुग्याल) थी। उस घासणी में पगडंडी के किनारे एक पक्की शैड़ देख हमने अंदाजा लगा लिया कि "घरम्बड गोठ" आ गया है। पीछे मुड़कर देखा तो दूर कलाह गाँव अब भी नज़र आ रहा था।
हम दोनों ही बुरी तरह से थक चुके थे। जैसे ही जंगलात विभाग द्वारा बनाई गई पक्की शैड के पास पहुँचे तो हम दोनों एकदम से उस शैड के अंदर जाकर लेट गए। परंतु मुझे लेटते ही भयंकर खांसी-हूत्थूँ छिड़ गया, जिससे साँस लेना भी दूभर हो गया। खांस-खांस कर मेरी आँखों से भी पानी निकल आया। दोस्तों, इस घटना के बाद मैं ट्रैकिंग के दौरान फिर कभी भी नहीं लेटा, यहाँ तक कि बैठता भी नहीं हूँ.....बस खड़े-खड़े या ट्रैकिंग स्टिक के सहारे थोड़ा झुक कर तेज़ चल रही ह्रदयगति और चढ़े हुये सांस को धीरे-धीरे संभालता हूँ।
अब हम दोनों साढूँओं ने अपना दुख एक-दूसरे से छिपाना बंद कर दिया था, क्योंकि हम दोनों ही अब एक समान दुखी जो थे....जेल-खड्ड अभी भी दूर है। सात घंटे से हम नए पनपे पर्वतारोही लगातार चढ़ाई चढ़ते आ रहे थे, सो जंगलात विभाग में गार्ड के पद पर तैनात "राजकुमार जी" (जो वहाँ धरम्बड गोठ में हर साल न्यौण यात्रा के समय मणिमहेश पदयात्रियों के लिए छोटा सा लंगर लगाते हैं) से कहते हैं कि हम आज रात आपके पास ही रुक जाते हैं। तब राजकुमार जी ने विनम्रता के साथ हमें जवाब दिया- "नहीं, हम लोगों के पास आप लोगों को रात रुकवाने का इंतजाम नहीं है...जेल-खड्ड पहुँचने में अब आपको ज्यादा से ज्यादा दो घंटे और लग सकते हैं, वहाँ लंगर आयोजक 'बाबा सुरजीत' जिनका आश्रम होली में है, ने सब इंतजाम कर रखे हैं।"
खैर हमें राजकुमार जी और उनके एक और सहयोगी ने चाय के साथ ब्रेड परोसी। मेरे प्रश्न कभी भी थम नहीं सकते, सो राजकुमार जी से पूछ बैठा कि वह सामने टेढ़ा पर्वत शिखर जो सुबह से हमारे आकर्षण का केंद्र बना हुआ है, इसका क्या नाम है...?
"कुज्जा वज़ीर महाराज" यह भगवान शिव का भांजा है....!
"क्या कहा आपने, भगवान शिव का भांजा वह कैसे.....?"
तब राजकुमार जी ने हमें इस टेढ़े पर्वत शिखर की दंतकथा सुनानी आरंभ की और हमारे पीछे दिख रही धौलाधार हिमालय की पर्वत श्रृंखला की ओर इशारा कर बोले कि वो सामने पहाड़ पर एक झील है, जिसे "क्यू डल" या "नाग डल" कहा जाता है... हमारे बुजुर्ग हमें बताते हैं कि भोलेनाथ शिव हर रोज मुँह-अंधेरे उस डल पर स्नान करने आते थे, तब जब आसपास के गाँवों के सब लोग सो रहे हो। परंतु उस बार आधी रात के समय.... रास्ते के एक गाँव में एक बुढ़िया को नींद नहीं आ रही थी, सो वह अपनी झोपड़ी से बाहर बैठ दीया जलाकर चरखा कातने लगी।
शिव जी के कानों में चरखा चलने से होने वाली "धूँ-धूँ" की आवाज़ जैसे ही पड़ी, शिव चौंकने हो गए कि क्या मैं आज देरी से आया हूँ नहाने, जो लोग जाग गए....ऐसे तो लोग मुझे देख लेंगे, मुझे परेशान करेंगे, मेरा ठिकाना जानकर मेरी तपस्या में विघ्न डालेंगे... मुझे अपना ठिकाना बदल लेना चाहिए।
वे अपने वज़ीर जो उनका भांजा भी है "कुज्जा वज़ीर" को आदेश देते हैं कि जाओ मेरे लिए कोई ऐसी नई जगह खोजो, जहाँ कोई भी मुझे आसानी से प्राप्त ना कर पाए... मेरी शांति और तपस्या भंग ना कर पाए। कुज्जा वज़ीर ढूँढते-ढूँढते इसी कलाह घाटी में आ पहुँचे और उन्होंने पाया कि इस जगह पर कोई भी आदमी नहीं है व इस ऊँचे पर्वत से अच्छी जगह तो कोई और हो ही नहीं सकती। सो इस पर्वत को अपने मामा के लिए तैयार करने लगे। परंतु इस पर्वत क्षेत्र की सुंदरता देख कुज्जा वज़ीर का मन बेईमान हो गया और इस पर्वत पर उसने अपना निवास स्थान बना लिया। उधर भोलेनाथ अपने भांजे का इंतजार करने के बाद, आखिर उसे ढूँढते-ढूँढते यहाँ पहुँचे और सब सच्चाई देख उन्होंने गुस्से से पर्वत को लात मार टेढ़ा कर दिया। फिर यहीं से आगे निकल मणिमहेश कैलाश पर अपना डेरा जा जमाया। देखने में यह कुज्जा वज़ीर पर्वत मणिमहेश कैलाश पर्वत से ऊँचा जान पड़ता है, परंतु हमारे बुजुर्ग कहते हैं कि नाप में यह मणिमहेश कैलाश से दस रत्ती बराबर छोटा है।
विशाल जी अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति के इंसान हैं, उनके चेहरे पर यह कहानी सुनते हुए आये श्रद्धा के भाव को मैं पढ़ रहा था। जबकि मैं सिरे का नास्तिक हूँ, परंतु यह कथा सुन आनंद मुझे भी बहुत आया। मेरा दिमाग चाहे अंदर ही अंदर कितने ही तर्क-विचार देता रहे, परंतु मेरा मन इन पुरातन कथाओं को सुन हर्षित हो उठता है दोस्तों।
शाम के 7बजने को थे और फिर उन तीनों स्थानीय युवकों के साथ हम धरम्बड गोठ से आगे चल पड़े। थोड़े समय के बाद ही सूर्यदेव हमें छोड़कर धौलाधार पर्वत माला के पीछे जा छिपे और वे तीनों स्थानीय युवक सूटे के सरूर में हम से दुगनी चौड़ी "लांगे पट" (चौड़े-चौड़े कदम ले) पगडंडी से ओझल हो गए।
ऊपर से हो रहा अंधेरा, वीराने में गुज़र रही पगडंडी, झींगरों का शोर, जेल-खड्ड नाले की गर्जना और हम दोनों नौसिखिये।
एक अजीब सा वहम, जेल-खड्ड तक पहुँचने का दबाव, बैटरी की रोशनी की परिधि से बाहर खड़ी काली हो चुकी झाड़ियाँ और सबसे बड़ा डर "भालू" का...... हमारा शरीर यह देख कर आपातकालीन प्रणाली में आ, अपने-आप को थका होने के बावजूद भी चौकन्ना कर लेता है...शरीर में एक रहस्यमय सी ऊर्जा जाग उठी। हम दोनों साढूँ रह-रहकर जोर-जोर से शिव- भोले के जयकारे लगाते जा रहे थे।
साढे आठ बज चुके थे, परंतु दूर-दूर तक फैला स्याह अंधेरा जता रहा था कि अभी भी जेल-खड्ड दूर है। रास्ता अब पत्थरों-चट्टानों का यार हो चला था। पसीने से तरबतर हम दोनों बगैर कहीं भी रुके पगडंडी पर चलते जा रहे थे। अब एक-एक मिनट और वह रास्ता ऐसे लगने लगा था जैसे कट ही ना रहा हो।
तभी सामने से पगडंडी पर एक प्रकाश गोला हमारी ओर आता क्या दिखाई दिया, हम दोनों की बांछें खिल गई। चंद क्षणों में उस प्रकाश गोले का पीछा कर रहे दो युवकों ने हमारे पास आते ही शिव-भोले का जयकारा लगा पूछा- "क्या आप ही दिल्ली वाले हो...?"
जी हां का जवाब सुनते ही वे बोले-"आपसे पहले पहुँचे उन तीनों स्थानीय युवकों से बाबा सुरजीत जी ने पूछा कि पीछे और कितने बंदे आ रहे हैं, तब उन्होंने आपके बारे में बताया तो बाबा जी ने उन्हें बहुत फटकार लगाई कि रात का समय हो गया है और तुम लोग उन दोनों अनजान बाहरी व्यक्तियों को ऐसे ही जंगल में क्यों छोड़ आए, तुम लोगों को उन्हें अपने साथ ही लाना चाहिए था....तब बाबाजी ने हम दोनों को आप लोगों को लेने के लिए भेजा है।"
यह बात सुन हमारा खून आधा सेर और बढ़ गया, हमारी गर्दन व छाती शाम से तन गई कि हमें भी कोई लेने आया है। आखिर आधा घंटा चलने के बाद हमें एक सीधे खड़े पहाड़ के नीचे जलती आग की कुछ रोशनी दिखाई दी और वहाँ पहुँचते ही देखा कि तरपालों से बनाये हुए तीन-चार तम्बू और उनके बाहर खड़े आठ-दस आदमी हमारी राह देख रहे थे। उनके पास पहुँचते ही बाबा सुरजीत जी ने हमें ले जाकर तम्बू के अंदर बिठाकर पानी पिलाया।
त्यारी गाँव में हम से लिफ्ट लेने वाले फार्मासिस्ट व उनका चपरासी भी उसी तम्बू में पहले से बैठे थे। हमें देख रहे वे फार्मासिस्ट बोले- "अच्छा तो आप लोग पहुँच ही गए, मैंने तो सोचा था कि आप लोग त्यारी से ही वापस हो गए होंगे।"
मैंने हंसते हुए उनसे कहा-"सच बोलूँ तो आप को ही देख कर मैंने ज़िद पकड़ ली थी कि मुझे मणिमहेश जाना है बस।"
बातें करते-करते ही हमारे आगे लंगर परोस दिया गया, काबुली छोले-आलू की सब्जी, चावल व रोटी..... आनंद आ गया, तब मैने खाना खाते वक्त विशाल जी से पंजाबी की एक मशहूर कहावत बोली- "टिडे पाईआं रोटिआं, सबणा गल्लां खोटिआं...!" और हम दोनों साढूँ भाई मंद-मंद मुस्कान हंसने लगते हैं।
समय रात के दस बजने को हो रहे थे, बाबा सुरजीत जी बाहर से तम्बू में आ कर बोले- "अच्छा तो, आप दोनों मेरी जगह पर ही सो जाना....क्योंकि आपसे पहले आए लोग सारे कम्बल नीचे बिछा कर उस पर सो चुके हैं, जिनमें कुछ महिलाएँ भी है...अब उन सब को कैसे जगा कर उनके नीचे से कम्बल निकालूँ, सो आप दोनों मेरे बिस्तर पर सो जाओ।"
जब मैंने बाबा जी से पूछा- "तो आप कहाँ सोओगें बाबा जी....?"
" मेरा क्या है, मैं तो फक्कड़ आदमी हूँ कहीं भी सो जाऊँगा।"
मैने और विशाल जी ने एक सुर में बोला- "आप हमारे लिए इतना कष्ट मत उठाये, हम बगैर कम्बल के ही रात काट लेंगे" कि तभी वो जो दो युवक बाबा जी ने हमें लेने के लिए भेजे थे ना, वे तब से ही हमारी सेवा में मगन थे, उन्होंने ही हमारे हाथ-मुँह धुलवा कर हमें खाना परोसा ..... ने हमारी बात बीच में काट बाबा जी से कहा कि हम इन को अपने साथ ही लिटा लेंगे, आप चिंता ना करें। उनमें से एक युवक तो होली गाँव में हार्डवेयर व पेंट की दुकान चला रहा था तो दूसरा स्वास्थ्य विभाग में फार्मासिस्ट था।
वे दोनों हमें संग लेकर तम्बू में बची हुई अपनी जगह पर ले आए और उस फार्मासिस्ट युवक ने अपने स्लीपिंग बैग की ज़िप खोल उसे हम संग बांट लिया और बाकी कम्बलों को आड़ा कर हम चारों में अपने ऊपर ले लिये। मेरे पैर तम्बू से बाहर निकल रहे थे, सो बूट डाले ही लेट जाता हूँ... वैसे भी आड़े कर ओढ़े हुए खुले स्लीपिंग बैग व कम्बल हमारे घुटनों तक ही पहुँच पा रहे थे।
लेटे-लेटे हमें उस फार्मासिस्ट युवक ने कहा- "आप मेरे गाँव आना, मेरे गाँव से ऊपर भी भगवान शिव का एक और डल (झील) है 'लमडल' जो धौलाधार हिमालय की सबसे की बड़ी लंबी झील है, मैं आपको वहाँ लेकर जाऊँगा।"
हमारे लिए "लमडल" नाम भी बिल्कुल नया था, उन्होंने ही मुझे लमडल झील नाम से वाकिफ़ करवाया था....सो अगले साल मैं चल दिया लमडल देखने। यह पदयात्रा मेरे जीवन की सबसे ज्यादा रोमांचकारी यात्रा साबित हुई दोस्तों।
खैर, अब हम सभी नींद के आगोश की ओर बढ़ रहे थे, मैं आज सारे दिन घटे घटनाक्रम के बारे में सोचने लग जाता हूँ। दिनेश जी के त्याग की बदौलत हम इस पदयात्रा पर रवाना हुए और विशाल जी के संग के साथ ही मैं इस जगह जेल-खड्ड तक पहुँच पाया हूँ। यदि कहीं अकेला ही इस कठिन व दुर्गम राह पर चल देता तो क्या मैं अकेला ही आज यहाँ तक पहुँच पाता और मन ही मन सो चुके विशाल जी को एक मौन आभार व्यक्त करता हूँ।
(क्रमश:)
सेबों के बगीचों से घिरा "कलाह गाँव" |
कलाह गाँव से कुछ ऊपर। |
कलाह गाँव से आगे रास्ते में आई इस गुफा में "पौणाहारी बाबा बालक नाथ" का स्थान है। |
बाबा बालक नाथ की गुफा के बाहर ये तीनों स्थानीय युवक धड़ाधड़ इन सीढ़ियों को चढ़ गए, जबकि हमारा ऐसा हाल था जैसे "चींटी चली पहाड़ चढ़ने...!" |
इन आँखों ने यह नज़ारा जीवन में पहली और अब तक भी आखिरी बार ही देखा है कि घाटी के बिल्कुल बीच एक पर्वत से दूसरे पर्वत तक "इंद्रधनुष" का सेतू बना हुआ था। |
इंद्रधनुष को हम पंजाबी "रब्ब दी पींग" कहते हैं दोस्तों, मतलब भगवान का झूला। |
पीछे मुड़कर देखता हूँ....तो यह नज़ारा फिर आगे नहीं देखने देता, "धौलाधार हिमालय का तलांग पास" |
कलाह गाँव से चले हुए एक घंटा बीत चुका था, हमसे आगे निकल गए वो तीनों स्थानीय युवक रास्ते किनारे आई वर्षा-शालिका में बैठे आराम कर रहे थे कि हम भी वहाँ जा पहुँचे। |
विशाल जी, ज़रा रुकना....एक फोटू तो खींच लूँ आपकी और विशाल जी अपना साँस अंदर खींच कर पोज़ देने लगे...!!!! |
हम अब उस ऊँचाई पर जा पहुँचे थे, जहाँ से सामने "कुज्जा पर्वत" पूर्णतः दिखाई पड़ने लगा था। |
कलाह घाटी का मुख्य आकर्षण "कुज्जा पर्वत" सामने दिख रही नंगे पर्वतों की दीवार पर पड़ी कुछ बर्फ को देख मन मचल रहा था कि क्या हम इस बर्फ को छूँ पाएंगे। |
रास्ते में एक स्थानीय व्यक्ति मिला जिसने अपनी पीठ पर सूखी लकड़ियों से भरी एक बोरी बांध रखी थी। वह व्यक्ति हमारी खुशी देख हैरान हो रहा था। |
"बखोली कुड" इस दीवार नुमा पर्वत के नीचे बहुत बड़ा कुड यानि प्राकृतिक वर्षा-शालिका बनी हुई थी, जिसके नीचे भेड़-बकरी वाले रात में अपना डेरा जमाते होगें। |
"बखोली कुड" के पास से गुज़रती पगडंडी पर बढ़े जा रहे विशाल जी। |
लो भाई, "दरम्बड गोठ" आ गया है। |
पीछे मुड़कर देखा तो दूर कलाह गाँव अब भी नज़र आ रहा था। |
हम दोनों ही बुरी तरह से थक चुके थे। जैसे ही जंगलात विभाग द्वारा बनाई गई पक्की शैड के पास पहुँचे तो हम दोनों एकदम से उस शैड के अंदर जाकर लेट गए। |
कुछ समय आराम करने के बाद हम उठ कर शैड से बाहर आ गए। |
जंगलात विभाग में गार्ड के पद पर तैनात "राजकुमार जी" और उनके सहयोगी वहाँ धरम्बड गोठ में हर साल न्यौण यात्रा के समय मणिमहेश पदयात्रियों के लिए छोटा सा लंगर लगाते हैं। |
लंगर में बनी " मूँग-मसूर की दाल" |
राजकुमार जी के सहयोगी हमारे लिए चाय बनाते हुए। |
वो तीनों स्थानीय युवक भी धरम्बड गोठ पहुँच जाते है। |
हमें चाय के साथ ब्रेड परोसी जाती है। |
भूख में तो चने भी बादाम लगते हैं, दोस्तों....यह सूखी ब्रेड तब मुझे ऐसी ही लग रही थी। |
घरम्बड़ गोठ पर ही इनसे भी भेट हुई थी। |
रात नौ बजे जेल-खड्ड पहुँच कर खाया यह लंगर। |
अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
आपकी पहले की तरह ही, यह भी यात्रा वृतांत अति सुन्दर भाई।
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद उदय जी, जो आप मुझे निरंतर पढ़ते है जी।
हटाएं👍
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद जी।
हटाएंपहली यात्रा ही इतनी जोखिमभरी की ,आपकी यायावरी को सलाम
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद जी।
हटाएंरविवार की सुबह उठते ही सुबह की चाय के साथ यह वृतांत पड़ना अच्छा लगा...नए पनपे पर्वतारोही रात में अंधेरे में 9 बजे तक ट्रेक करते रहे...कही रास्ता भटक जाते तो....lamdal झील वाली कहानी तो पढ़ ली है हमने... रोमांचक यात्रा वृतांत....
जवाब देंहटाएंवाह, मैं कामयाब रहा प्रतीक जी....रविवार, सुबह की चाय और मेरी चित्रकथा।
हटाएंआपको हरेक पोस्ट को पढ़ कर कुछ सीखना कुछ सीखना जीवन में बहुत आंनद प्रदान करता है। बहुत़ ही बेहतरीन लेखन प्रस्तुति ।जय़ बाबा भोलेनाथ प्रभु जी ।🙏 🙏 🌹 🌹
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद मित्तल साहिब, जय जयकार हो भोले बाबा की।
हटाएंअद्भुत लेखन कला पढ़कर मन प्रसन्न हो गया
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद शर्मा जी।
हटाएंवाह सर बहुत उम्दा लिखते हो
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद जी।
हटाएंवैसे सब यात्रा तो सरल और रोचक रही ही,पर एक बात ने मन को गुदगुदा दिया जब आपके अनुसार विकाश जी फोटो खिचवाते वक्त सांस अन्दर खीच रहे थे😁😁😁
जवाब देंहटाएंHaha Haha....बेहद धन्यवाद श्याम जी।
हटाएंYeh yatara be ek suspense hai aapki, bahut khub
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