रविवार, 15 सितंबर 2019

भाग-6 "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से...!" (Manimahesh via kalah pass)

भाग-6 "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से....!"

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                                  "ॐ पर्वत "



                  17अगस्त 2014.....जेल-खड्ड पर बाबा सुरजीत जी द्वारा "न्यौण यात्रा" पर मणिमहेश पदयात्रियों के लिए लगाये गये एकमात्र लंगर पर बिताई वह सर्द रात हमने काट ली थी, थके होने के कारण रात कब गुज़र गई पता ही नहीं चला। उस लम्बे से तम्बू में सो कर उठ चुके अन्य पदयात्रियों के कारण हमारी आँख भी सुबह पाँच बजे खुल गई। तकरीबन सभी पदयात्री जेल-खड्ड से आगे की पदयात्रा प्रारंभ कर चुके थे।
                   हम दोनों भी चाय पीते-पीते बाबा सुरजीत जी के पास जा बैठते हैं और बातचीत का एक छोटा सा दौर चल पड़ता है।  बाबा जी हमें बताते हैं कि वह पिछले दस बरस से लगातार इसी जगह पर लंगर लगाते आ रहे हैं,  तो विशाल जी कहते हैं- "बाबा जी, मणिमहेश को जाते इस दुर्गम मार्ग पर आपका इस जगह पर होना ही,   पदयात्रियों और इस पदयात्रा के लिए वरदान है... पूरा दिन चढ़ाई चढ़-चढ़ कर थके हुए पदयात्री को यहाँ पहुँचने पर गर्मा-गर्म भोजन व रात रुकने की यदि जगह ना मिले, तो इस मार्ग से मणिमहेश पहुँचना असंभव सा जान पड़ता है... बाबा जी, आप हम थकान से टूट चुके पदयात्रियों में एक नव ऊर्जा का संचार कर उन्हें अगली सुबह नए जोश के साथ मणिमहेश की ओर भेजते हैं।"
                      बाबा जी यह बात सुन ज़रा सा मुस्कुराए और बोले- "मैं कौन हूँ करने वाला, वह करवाता है मैं करता हूँ...!"
                      मैंने अपना वो सवाल अब बाबा जी की तरफ दाग दिया जो कल से मेरे दिमाग पर हावी चल रहा था कि हड़सर वाला रास्ता क्यों इतना प्रचलित है, जबकि इस रास्ते पर इक्का-दुक्का लोग ही जाते हैं...?
                       यह सवाल सुन बाबा जी का चेहरा एकदम से कठोर हो गया और वे बोले- "यह सब भरमौर क्षेत्र के व्यापारियों और राजनीतिज्ञों के कारण है, वे उसी रास्ते को प्राथमिकता देते आ रहे हैं जबकि यह रास्ता उस रास्ते से सदियों पुराना है....परंतु राजनीति की भेंट चढ़ चुका है....!"
                        हमने बाबा जी को अपनी यथाशक्ति के अनुसार कुछ राशि भेंट की क्योंकि हम पंजाबियों में यह प्रथा है कि लंगर कभी भी मुफ़्त नहीं खाना चाहिए, वैसे तो लंगर का मतलब ही होता है "मुफ़्त भोजन"  परंतु लंगर खाने के पश्चात इस लंगर में कुछ-ना-कुछ अवश्य डाल देना चाहिए....वो इसलिए कि लंगर लगाने वाले प्रबंधक को सहायता व उत्साह मिले कि वह फिर से दोबारा लंगर लगा सके।
                       बाबा जी से विदा लेते हुए उन्होंने हमें रास्ते में खाने के लिए "छोले-भटूरे" बांध कर दे दिये और कहा कि इसको आप "सुंदरडली" जाकर खाना, आगे खूब चढ़ाई है तो भूख भी खूब लगेगी।
                      सुबह के 6बजने को थे, तम्बू से बाहर निकल बाबा जी ने हमें जेल-खड्ड के सामने दिख रहे दीवार नुमा सीधे खड़े पहाड़ की तरफ इशारा कर बताया कि बस इसके ऊपर है सुखडली.... और हमें जय शिव भोले के उद्घोष के साथ यात्रा पथ पर रवाना कर दिया।
     
                       हम पगडंडी किनारे पर सफेद रंग में रंगे पत्थरों की ओर बढ़ने लगते हैं, सारा रास्ता चट्टानी हो चुका था।  सामने दिख रहे पर्वत शिखर से, जिस पर हमें चढ़ना था..... अलग-अलग जगह से चार झरने फूट रहे थे। दिखने में ज़रा सी दूरी पर लगते झरने के पास पहुँचने  तक हमारा एक घंटा बीत गया।  प्रत्येक कदम हमें ऊँचाई दिलाता जा रहा था।  चढ़ते-चढ़ते हम अगले झरने के पार हुए तो वहीं रास्ते किनारे पड़े छोटे से बर्फ के टुकड़े को छूकर हम दोनों बहुत खुश हुए कि,  लो हमने बर्फ को भी छू लिया।
                       अब पगडंडी हमें पत्थरों से निकालकर पर्वत के उस हिस्से पर ले गई,  जहाँ बस हर तरफ रंग- बिरंगे फूल ही फूल थे.....यह अद्भुत दृश्य जीवन में पहली बार देखा था कि दूर से पत्थर दिखने वाले पर्वतराज भी फूल पालतें हैं....!
                       दूसरा घंटा भी बीता जा रहा था, सब स्थानीय लोग हमसे कब के आगे निकल चुके थे। हम दोनों नये पनपे पर्वतारोहियों को यह चढ़ाई हर कदम पर तोड़ रही थी। कुछ कदम चल कर हम अपनी फूली हुई सांस को काबू में लाते....दो-चार घूँट पानी के पीते और रास्ते किनारे पत्थरों पर बैठ जाते।  उस जगह बैठ हम दम ही ले रहे थे कि पीछे से एक साधु चढ़ते हुए चुपचाप से हमारे पास से गुज़र गए, मैने जब उनके नंगे पैर देख हैरान हो उन्हें पीछे से आवाज़ दी..."बाबा जी, कमाल है आप इस पथरीले रास्ते पर नंगे पैर क्यों जा रहे हो.....?"   परंतु उन बाबा जी ने पलट कर भी नहीं देखा, बस अपनी धुन में मस्त ऊपर की ओर बढ़ गये। तब विशाल जी बोले- "देखा विकास जी, इसे कहते हैं लगन लगी तेरे संग लगन लगी...!"
                       अब रास्ता खतरनाक रुप अख्तियार कर चुका था,  उस ऊँचाई से नीचे देखने पर चक्कर आने लगे तो हम दोनों ने चलते हुए नीचे देखना ही छोड़ दिया... बस पगडंडी पर पहाड़ की तरफ चिपक कर अपने कदम आगे बढ़ाते जा रहे थे।  रास्ते में झरने के पास एक जगह आई  जहाँ पर मंजे (पलंग) और बिस्तरों के लघु रूप काफी मात्रा में यहाँ-वहाँ पड़े थे,  मैंने विशाल जी से कहा- "लगता है यह सब स्थानीय मणिमहेश यात्रियों द्वारा चढ़ाए गये हैं... जरूर इस प्रथा के पीछे कोई राज़ होगा।" परंतु उस राज़ को बताने वाला वहाँ कोई नहीं था, सोचा यदि कोई स्थानीय अभी रास्ते में मिलेगा तो उससे पूछेंगें। परन्तु चंद क्षणों बाद ही मैं वो बात भूल गया, समुद्र तट से बढ़ रही ऊँचाई मेरी स्मरणशक्ति को क्षीण कर रही थी।
                      कलाह पर्वत पर चढ़ते-चढ़ते तीसरा घंटा भी बीत गया था,  चौथे घंटे को भी शायद उस पथरीली पगडंडी से मुहब्बत हो गई थी। आखिर सवा दस बजे हम जब उस आखिरी चट्टान पर जा खड़े हुए,  जिसे हम सुबह से कलाह पर्वत की चोटी मान चल रहे थे.... तो आगे देख हमारी टांगें थरथरा उठी कि आगे फिर से एक पहाड़ है और पहाड़ भी ऐसा जैसे किसी दुर्ग की बहुत ऊँची दीवार हो। सच बोलूँ तो उस वक्त एक जबरदस्त झटका लगा हम दोनों को यह देख कर...!!
                       खैर, कुछ क्षणों बाद आँखों ने इधर-उधर झांका तो पाया कि एक बहुत खुली समतल सी जगह जिस के दांई ओर बर्फ के ग्लेशियरों को थामे पर्वत खड़े थे, ये सब कुज्जा वज़ीर पर्वत के साथ ही थे। उस जगह पहुँचकर हमें कुज्जा वज़ीर पर्वत शिखर का टेढ़ा रूप बिल्कुल स्पष्ट नजर आ रहा था। हम मंत्रमुग्ध से अब समतल हो चुकी पगडंडी पर चले जा रहे थे।
                        हाँ, यह ही "सुखडली" लगता है.... हम दोनों साढूँओं ने अपनी राय पक्की कर ली थी। हमारे पैरों के नीचे आ रहा घास का मैदान गद्देदार हो चुका था, जिस पर चलते हुए हमें आभास हो चला था कि इस घास के नीचे भी पानी है। धूप अब अच्छी लगने लगी थी, सामने दिख रहे कुज्जा पर्वत व अन्य पर्वतों की गोद में पड़े बर्फ के ग्लेशियर ऐसे जान पड़ते थे कि जैसे किसी माँ की गोद में उसका शिशु सो रहा हो।
                        तभी, मेरा ध्यान कुज्जा पर्वत के साथ वाली चोटी पर ऐसा क्या गया कि मैं जड़ सा हो गया, मुझे प्रकृति देवी की इस कलाकारी पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने विशाल जी का ध्यान भी उस तरफ दिलाया तो उनकी भी  हालत मेरे जैसी हो गई। एक क्षण के लिए मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि  "भगवान है"  पर दूसरे क्षण को फिर से नास्तिकता ने काबू कर लिया।  सामने दिख रहे उस पहाड़ पर बर्फ से  "ॐ"  की आकृति बनी हुई थी। कई सवाल इस  दिमाग ने पैदा कर लिये, परंतु वहाँ उनके उत्तर देने वाला कोई नहीं था।
                        पगडंडी बता रहे सफेद रंग से पुते पत्थरों ने हमें दूर से ही वो दिशा दिखा दी थी, जिस ओर हमें आगे चढ़ना था।
                        और,  वह चढ़ाई देख एक बार तो हम दोनों के पसीने छूटने लगे कि कलाह पर्वत एक सीधी दीवार सा तन कर हम नौसिखियों पर जैसे हंस रहा हो। उस दीवार नुमा पर्वत शिखर की ऊँचाई ऐसी कि मानो आप "हैट" पहने हुए नीचे खड़े हो, शिखर की ओर देखतें हैं...तो हैट आपके सिर से खुद-ब-खुद उतरकर आपकी पीठ पीछे गिर जाए। डेढ़-दो सौ मंजिले ऊँची इमारत जितना ऊँचा कलाह जोत देख,  आप खुद ही हमारी मनोदशा समझ ले कि कैसे इतनी ऊँची बहुमंजिला इमारत पर लिफ्ट की बजाय सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचना हो। 
                       खैर, हम दोनों साढूँ सुखडली की घासणी(बुग्याल) में एक जगह घास पर बैठ जाते हैं, कभी सुखडली ग्लेशियर, तो कभी पर्वत पर बने ॐ, तो कभी कुज्जा वज़ीर पर्वत पर हमारी आँखों की पुतलियाँ नाचती.... पर जैसे ही कलाह जोत की दीवार पर नाचती हुई सी जाती, तो नाचना भूल जाती....!!!
                        तभी विशाल जी ने याद दिलाया कि हमारे पास सुरजीत बाबा जी द्वारा दिये गए छोले-भटूरे भी हैं, मुझे सुबह से ही भूख नहीं महसूस हुई। मुझे खुद नहीं समझ आ रहा था कि इतनी मेहनत-मशक्कत करने के बाद मुझे भूख क्यों नहीं लग रही थी (यह बात बाद में समझ आई कि समुद्र तट से बढ़ चुकी बेतहाशा ऊँचाई ने मेरी भूख मार दी थी) मेरा सिर भी कुछ-कुछ भारी सा होने लगा था, ठीक यह ही हालात विशाल जी के भी हो रहे थे।   
                         छोले-भटूरे तो हम दोनों ने अपने मध्य सजा लिये थे, पर मैं छोले-भटूरे का सदैव भुख्कड़ भटूरे गिन कर नहीं, थाली में चिन कर खाता हूँ। परन्तु तब बड़ी मुश्किल से एक भटूरा भी पूरा ना खा पाया... जबकि बाबा जी हमें आठ-दस भटूरे रास्ते में खाने के लिये दिये थे। खाते-खाते मतली सी हो रही थी,  सो भूटरों के साथ दिये गए गल-गल के अचार की फाड़ी मुँह में रख चूसने लगा और विशाल जी भी कुछ ज्यादा ना खा पाये।
                        11बजने को हुए, एक साधु अकेले ही जेल-खड्ड की तरफ से चलते हुए हमारे पास से गुज़रे तो हम दोनों भी कलाह पर्वत की आखिरी चढ़ाई चढ़ने के उनके पीछे-पीछे उस ग्लेशियर पर चलने लगे जिसके पार सफेदी से रंगा रास्ता नज़र आ रहा था।
                        मेरे कैमरे की बैटरी भी चल-चल कर अब मरणासन्न हो चली थी, तो उस डिजिटल कैमरे को 36फोटो वाली रील का कैमरा मान कमर-पेटी पर बंधे कैमरा-दान में डाल लेता हूँ और अपने-आप समझाता हूँ कि जहाँ बहुत ही जरूरी होगा तब ही फोटो खींचूगाँ अब।
                       दोस्तों, वो 36फोटो वाली रील के कैमरों का भी क्या जमाना था।  पहले तो युवावस्था में हमारी जेबें खाली, मन में असंख्य अरमान व दिमाग में ढेरों सपने लेकर एक-आध कैमरा रील खरीदनी भी बड़ी मुश्किल सी लगती थी। उस रील को भी कैमरे में ऐसे लोड करता कि 36फोटो की बजाय 39फोटो खिंच जाएँ। एक-एक कर अपनी ही कोई जरूरी फोटो खींचते हुए रील को आगे ऐसे बढ़ाना, जैसे कोई कीमती चीज़ हाथों से जा रही हो। पूरी रील खींचने के बाद उसे कैमरे में वापस लपेटना और सबसे मुश्किल होता था उस रील को धुलवाना। मुश्किल ऐसे, रील खरीदने की कीमत से चार गुणा पैसे रील को धुलवाने में लगते थे और सबसे मजेदार क्षण वही साबित होता था....जब फोटूओं व नेगेटिव से भरा QSS लैब का लिफ़ाफा हाथों में आता था। इतनी उत्तेजना भरी उत्सुकता के साथ हमने कभी अपने जन्मदिन के तोहफ़े ना खुले होंगे, जितने उत्साह से हम लैब से धुल कर आई फोटूओं के लिफाफे खोलते थे। दोस्तों,  2004 में मैंने अपनी आठ दिवसीय मनाली यात्रा के दौरान दो रीलें यानि 72फोटो खींची थी, जब आज अपने डिजिटल कैमरे से यात्रा के दौरान हर रोज दो-तीन सौ फोटो खींच डालता हूँ।
                      हां, एक और बात याद आई.....उस समय जब किसी अंग्रेज सैलानी को फूलों, तितलियों या पहाड़ों की फोटो खींचते देखना, तो हंसते हुए आपस में बात करना- "अजीब पागल बंदा है, खुद की फोटो छोड़ ऐसे फालतू में अपनी फोटो खराब किये जा रहा है...!!"
और, अब हम सब भी पागल हो गए हैं, खुद की फोटो खींचने की बजाय प्रकृति की फोटो ज्यादा खींचने लगे हैं, है ना दोस्तों...!!!
                                       (क्रमश:)


जेल-खड्ड के इस तम्बू में हमनें वो सर्द रात काट ली थी।

जेल-खड्ड पर लगा बाबा सुरजीत जी का लंगर।

सुबह तरोताज़ा से विशाल जी।

लंगर आयोजक "बाबा सुरजीत जी" के साथ।

सुबह 6बजे हमने जेल-खड्ड से आगे की ओर प्रस्थान किया।



पदयात्रा के पहले पंद्रह मिनट में ही, मैं दम लेने बैठ जाता हूँ। 

जेल-खड्ड से खड़ी चढ़ाई....और नीचे दिख रहा जेल-खड्ड लंगर।





कलाह पर्वत शिखर से झरने फूट रहे थे।

आखिर, किस सोच में मगन पथिक...!!!

दिखने में ज़रा सी दूरी पर लगते झरने के पास पहुँचने तक हमारा एक घंटा बीत गया।

रास्ते में आया पहला झरना।

बर्फ के ग्लेशियर अब ज्यादा दूर नहीं से हमसे।

राह में मिली बर्फ को प्रथम स्पर्श।

लो, मैं भी आनंदित हो लूँ ज़रा।

  अब पगडंडी हमें पत्थरों से निकालकर पर्वत के उस हिस्से पर ले गई,  जहाँ बस हर तरफ रंग- बिरंगे फूल ही फूल थे.....यह अद्भुत दृश्य जीवन में पहली बार देखा था कि दूर से पत्थर दिखने वाले पर्वतराज भी फूल पालतें हैं....!

 उस जगह बैठ हम दम ही ले रहे थे कि पीछे से एक साधु चढ़ते हुए चुपचाप से हमारे पास से गुज़र गए, मैने जब उनके नंगे पैर देख हैरान हो उन्हें पीछे से आवाज़ दी..."बाबा जी, कमाल है आप इस पथरीले रास्ते पर नंगे पैर क्यों जा रहे हो.....?"   परंतु उन बाबा जी ने पलट कर भी नहीं देखा, बस अपनी धुन में मस्त ऊपर की ओर बढ़ गये।

तब विशाल जी बोले- "देखा विकास जी, इसे कहते हैं लगन लगी तेरे संग लगन लगी...!"

रास्ते में झरने के पास एक जगह आई  जहाँ पर मंजे (पलंग) और बिस्तरों के लघु रूप काफी मात्रा में यहाँ-वहाँ पड़े थे,  मैंने विशाल जी से कहा- "लगता है यह सब स्थानीय मणिमहेश यात्रियों द्वारा चढ़ाए गये हैं... जरूर इस प्रथा के पीछे कोई राज़ होगा।" 

शिखर की ओर।


आखिर सवा दस बजे हम जब उस आखिरी चट्टान पर जा खड़े हुए,  जिसे हम सुबह से कलाह पर्वत की चोटी मान चल रहे थे.... तो आगे देख हमारी टांगें थरथरा उठी कि आगे फिर से एक पहाड़ है। सच बोलूँ तो उस वक्त एक जबरदस्त झटका लगा हम दोनों को यह देख कर...!!

आँखों ने इधर-उधर झांका तो पाया कि एक बहुत खुली समतल सी जगह जिस के दांई ओर बर्फ के ग्लेशियरों को थामे पर्वत खड़े थे, ये सब कुज्जा वज़ीर पर्वत के साथ ही थे। उस जगह पहुँचकर हमें कुज्जा वज़ीर पर्वत शिखर का टेढ़ा रूप बिल्कुल स्पष्ट नजर आ रहा था।

 तभी, मेरा ध्यान कुज्जा पर्वत के साथ वाली चोटी पर ऐसा क्या गया कि मैं जड़ सा हो गया, मुझे प्रकृति देवी की इस कलाकारी पर विश्वास नहीं हुआ। एक क्षण के लिए मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि  "भगवान है"  पर दूसरे क्षण को फिर से नास्तिकता ने काबू कर लिया।  सामने दिख रहे उस पहाड़ पर बर्फ से  "ॐ"  की आकृति बनी हुई थी।

   हाँ, यह ही "सुखडली" लगता है.... हम दोनों साढूँओं ने अपनी राय पक्की कर ली थी। हमारे पैरों के नीचे आ रहा घास का मैदान गद्देदार हो चुका था, जिस पर चलते हुए हमें आभास हो चला था कि इस घास के नीचे भी पानी है। 

बेहद खूबसूरत स्थान " सुखडली"

 सुखडली से मेरी यादगारी।

सामने दिख रहे कुज्जा पर्वत व अन्य पर्वतों की गोद में पड़े बर्फ के ग्लेशियर ऐसे जान पड़ते थे कि जैसे किसी माँ की गोद में उसका शिशु सो रहा हो। 

छोले-भटूरे तो हम दोनों ने अपने मध्य सजा लिये थे, पर मैं छोले-भटूरे का सदैव भुख्कड़ भटूरे गिन कर नहीं, थाली में चिन कर खाता हूँ। परन्तु तब बड़ी मुश्किल से एक भटूरा भी पूरा ना खा पाया... जबकि बाबा जी हमें आठ-दस भटूरे रास्ते में खाने के लिये दिये थे।

  11बजने को हुए, एक साधु अकेले ही जेल-खड्ड की तरफ से चलते हुए हमारे पास से गुज़रे तो हम दोनों भी कलाह पर्वत की आखिरी चढ़ाई चढ़ने के उनके पीछे-पीछे उस ग्लेशियर पर चलने लगे जिसके पार सफेदी से रंगा रास्ता नज़र आ रहा था।
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मेरी साहसिक यात्राओं की धारावाहिक चित्रकथाएँ
(१) " श्री खंड महादेव की ओर " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने की यहाँ स्पर्श करें।
(२) " पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(३) " चलो, चलते हैं सर्दियों में खीरगंगा" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(४) करेरी झील "मेरे पर्वतारोही बनने की कथा " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।

6 टिप्‍पणियां:

  1. मैं भी लँगर में हमेशा दान देती हूं।ओर आप इतने बड़े पहाडों को लांग केसे रहे हैं

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    1. हमें खुद भी नहीं पता था कि हम इतने ऊँचे पहाड़ों को लांघ रहे हैं....!!!

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  2. लाजवाब और शानदार वर्णन भाई।
    अगले भाग का बेसब्री से इंतजार है।🙏

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  3. में कौन हूं करने वाला वो करवाता है में करता हु...अद्भुत अलौकिक...

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