जी हां, मणिमहेश एक दुर्गम रास्ते से.... मैं जानबूझ कर नहीं गया, बस हालात ने मुझे उस रास्ते पर चढ़ा दिया। ' भरमौर ' से आगे हडसर वाले प्रचलित रास्ते से मणिमहेश झील पर ना जा कर, क्यों और कैसे मुझे वो सदियों पुराना दुर्गम व लम्बा रास्ता चुनना पड़ा... जिस पर केवल साधु व स्थानीय लोग ही चल कर मणिमहेश पहुँचते हैं। बस इन्ही शब्दों भरी यादों का ताना-बाना आप के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ- " मणिमहेश.... एक दुर्गम रास्ते से!"
31दिसम्बर
2012 को की हुई ' करेरी झील ' की असफल यात्रा, जो मेरे व मेरे साढूँ भाई "विशाल रतन " की पहली पर्वतारोहण यात्रा थी...जिससे हम दोनों साढूँ भाइयों में पर्वतारोहण का एक नया शौक जाग उठा और इसी सांझेदारी में हम दोनों ने अगले वर्ष की समाप्ति में यानि 31दिसम्बर
2013 को जमी हुई ' कमरुनाग झील ' की सफल यात्रा की।
पर्वतारोहण का कीड़ा अब मेरे दिमाग पर कब्ज़ा कर चुका था... सो ग्रीष्मकालीन ट्रैकिंग के मंसूबे, मैं अब मन ही मन बनाने लगा और नौकरी पेशा विशाल रतन जी ने कहा कि इस बार की 15अगस्त
2014 शुक्रवार की है, तो वीकेंड की छुट्टियाँ भी साथ जुड़ जाएंगी। दोस्तों, आखिर साढूँ भाइयों ने सफ़र करना निश्चित किया "मणिमहेश" का।
फोन पर हर दूसरे-तीसरे दिन कानाफूसी करते-करते आखिर 14अगस्त
2014 की शाम अपने दफ्तर के बाद बाबू विशाल रतन जी दिल्ली से बस चढ़ गए, मेरे पास गढ़शंकर(पंजाब) आने के लिए... और मैं जुगत लगाने लगा अपनी 'ओमनी वैन' की पिछली सीटें निकालने की, ताँकि हम दोनों जुगाड़ू साढूँ भाइयों को किसी होटल के मंजे (बिस्तर) तोड़ने के पैसे ना देने पड़े। तभी फोन पर सूचना मिली कि 15अगस्त की छुट्टियों में चण्डीगढ़ से मेरी बहन और बहनोई भी गढ़शंकर आ रहे हैं, जब मैंने उन्हें बताया कि हम मणिमहेश की यात्रा को जा रहे हैं... तो मेरे बहनोई "दिनेश शर्मा जी" भी हम दोनों साढूओं के साथ मणिमहेश चलने को तैयार हो गए।
कार्यक्रम तय हुआ कि दिल्ली से चले हुए विशाल जी तड़के मुँह-अंधेरे चण्डीगढ़ पहुँचेंगे, वे उन्हें अपने साथ लेकर गढ़शंकर आ जाएंगे और फिर हम तीनों दिनेश जी की ही 'आई10' कार में सवार हो मणिमहेश की तरफ कूच कर जाएंगे। हुआ भी ऐसा ही, गाड़ी हम तीनों को लेकर गढ़शंकर से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर पठानकोट में चक्की दरिया के पुल को सुबह साढे आठ बजे पार कर चुकी थी। यात्रा की खुशी व रोजमर्रा की दिनचर्या से छुटकारे का उल्लास, हम तीनों के मुखमंडल पर हावी हो चुका था। पठानकोट से गुज़रते-गुज़रते शायद हमारी तरह ही प्रसन्न घुमक्कड़ बने इंद्रदेव ने अपनी प्रसन्नता ज़ाहिर कर दी, झट से खूब बरस पड़े।
पठानकोट से डलहौजी-चम्बा वाले रास्ते पर आगे बढ़ते ही, रास्ते की खूबसूरती भी बढ़ने लगी। रास्ते में आई 'डलहौजी पब्लिक स्कूल' गाँव बधानी की इमारत भी क्या गज़ब की हसीन नज़र आ रही थी, क्योंकि उसकी पृष्टभूमि में आसमान जो काली घटाओं से घिरा हुआ था दोस्तों।
बरसात के मौसम से हर तरफ फैली हरियाली की जवानी व उसके बीचों-बीच बह रही गीली सड़क और उस सड़क पर बह सी रही हमारी गाड़ी।
गाड़ी में हम तीनों लगभग झूम रहे थे, गाना बज रहा था- "तेरा होने लगा हूँ, जब से मिला हूँ "
दूर कहीं मेरी इन आँखों ने पहाड़ों को देख इस गाने का भाव उनसे मन ही मन जोड़ लिया। हम तीनों ही गाड़ी के स्टीरियो पर बज रहे हिंदी गानों के साथ-साथ गा रहे थे, बीच-बीच में मैं अपनी बाँसुरी उठा कर उन गानों के साथ बजाने लगता।
गाड़ी दिनेश जी के काबू में थी, विशाल जी उनकी बगल वाली सीट पर और मैं गाड़ी की पिछली सीट पर फैला हुआ बैठा, कभी बायें तो कभी दायें तरफ वाली खिड़की से प्रकृति देवी के चलचित्र को निहार रहा था। 'भातवा गाँव' से गुज़र जाने के बाद नीम पहाड़ी से इलाके पर सड़क के दोनों ओर दूर-दूर तक दिखाई दे रही हरियाली देखने के लिए हमारी गाड़ी आखिर रुक ही गई। मौसम में हल्की सी ठंडक और मैं अंगड़ाई लेते हुए गाड़ी से बाहर निकला तो सामने दिख रहे दृश्य को देखते ही हम सब उस जगह ऐसे जड़ गए जैसे किसी तांत्रिक में हमें वहाँ 'कील' दिया हो...!!
अपनी आँखों से देखे उस दृश्य की खूबसूरती आपके समक्ष उभार रहा हूँ दोस्तों कि बादलों से घिरी शिवालिक पहाड़ियों की उस ऊँची जगह से नीचे की ओर दिखाई दे रही बहुत बड़ी समतल जगह, जिसमें जंगलों व धान के खेतों की हरी आभा और उनके पार नजर आ रही 'रणजीत सागर झील' (थीम डैम).....बारिश थमने के उपरांत चल रही मंद-मंद मुस्कुराती सी कुछ ठंडी सी हवा हमारी नंगी बाँहों के रोये खड़े कर रही थी और वो हवा भी जंगली फूलों से सुगंधित थी। एक पक्षी पास के ही पेड़ पर बैठा चहक रहा था, मानों पूछ रहा हो हम से- " कैसा लगा मेरा देश..!"
उस नज़ारे की तस्वीरों को कैद करते हुए मैंने दिनेश जी व विशाल जी के चेहरे पर आये एक भाव को महसूस किया.... और वह भाव "रिहाई" के थे,
"रिहाई"....जी हां रिहाई!
मानों दोनों ही आज अपनी प्राइवेट नौकरी की कैद भरी दीवारों से रिहा हो, लम्बी-लम्बी साँसे ले रहे हो... जबकि दोस्तों, मैं अपने कारोबार का खुद मालिक व सेवक हूँ।
कुद़रत के इस सम्मोहन का प्रभाव कुछ कम होते ही हमारी गाड़ी फिर से उस भीगी हुई सड़क पर भागने लगी और बीस मिनट बाद ही जा रुकी सड़क किनारे लगे हुए अमरनाथ यात्रा लंगर पर, जिसे "श्री हर- हर महादेव सेवा समिति, सुजानपुर" ने लगाया था। सुबह का नाश्ता यही निपट गया।
अगले बीस मिनट के सफ़र के बाद हमारी गाड़ी पंजाब की सीमा समाप्ति और हिमाचल आगमन की सीमा पर गड़े "हार्दिक अभिनंदन द्वार" के समक्ष जा ठहरी। द्वार की एक तरफ फोटो में ही सही, हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री "राजा वीरभद्र सिंह जी" हाथ उठाकर हमारा अभिनंदन कर रहे थे।
दीवार से बीस फुट आगे सड़क किनारे एक खोखा (कच्ची दुकान) जिस पर लिखा था "हिमाचल का पहला ठेका" परंतु उस समय वह बंद था, यदि खुला भी होता तो हमारे किस काम का।
एक मोड मुड़े तो सामने पहाड़ पर बसे "डलहौजी" के दर्शन होने लगे। बादलों से घिरी डलहौजी ऐसे लग रही थी जैसे घुंघट में से किसी ' मृगनयनी ' के बस नयन ही नज़र आते हो। बनीखेत से हमारी गाड़ी चम्बा के की ओर बढ़ तो रही थी, पर ज़रा सा भागने के बाद ही धीमे हो जाती क्योंकि रास्ते की इन हसीन वादियों के दिलकश दृश्यों को तो कोई "पत्थर-दिल इंसान" ही अनदेखा कर आगे बढ़ सकता है। पहाड़ों से गिर रहे बरसाती झरनों के पानी को देखने के लिए उनके जन्मदाता बादल भी नीचे उतर आए थे और उस माँ जितने प्रसन्न थे, जिसने अपने शिशु को प्रथम बार अपने नन्हें पैरों पर चलते देखा हो।
सुंदरता से लबालब पहाड़ी रास्तों पर हमारी गाड़ी फिर आ जमी...घाटी में बसे एक नन्हें से गाँव और उसके सीढ़िदार खेतों पर, जिन में धान की फसल की हरियाली उसे बेशकीमती गलीचे जैसी आभा आ रही थी।
आधे घंटे के सफ़र के बाद गाड़ी फिर से रोकनी पड़ी क्योंकि आँखों में अब 'रावी नदी' पर बने "चमेरा डैम" की मनभावन आकृति जो उभर आई थी। ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों के मध्य बांध बनाकर रोके गए रावी नदी के जल का फैलाव देख हमारा मन मंत्रमुग्ध हो गया, वैसे भी दोस्तों इन नदियों, नालों, झरनों व झीलों में एक कशिश सी होती है जो मनुष्य मन को बेहद आकर्षित करती है। हम तीनों ने झील के साथ बैठ कर अपना यादगारी चित्र खिंचवाया।
तभी मैं उठा.... और सड़क किनारे बनी दीवार पर खड़ा हो नीचे घाटी की गहराई को देखने लगा और एकाएक बच्चों की तरह चंचलता से बोला कि मेरा मन करता है कि मैं यहीं से इस घाटी में उड़ जाऊँ...!!
मेरी बात सुन विशाल जी मज़ाक-मज़ाक में मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींचने लगे कि होश में आओ जनाब, आप परिंदे नहीं इंसान हैं...!!! हमारी इस मीठी नोक-झोंक पर आस-पास खड़े अन्य लोग भी हंसने लगे।
गाड़ी अब विशाल जी के इशारों पर भाग रही थी, परंतु मैं पीछे बैठा बार-बार से एकदम गाड़ी को रुकवाता और झट से बाहर निकल उस रुकावट की फोटो खींचने लग जाता। कभी कोई झरना, तो कभी कोई पर्वत शिखर, तो कभी कोई पत्थरों का ढेर, तो कभी पहाड़ की रीढ़ पर बसा पांच-सात घरों का ग्राम, तो कभी अपने नाप से बड़े कपड़े पहने स्थानीय बच्चे.... मेरी इस बात से मेरे हमसफ़र अक्सर खीज़ जाते हैं, पर शुक्र है अभी तक दिनेश जी व विशाल जी शांत है।
दोपहर का एक बज चुका था हम चम्बा से ज्यादा दूर नहीं थे। सड़क अब रावी नदी के बिल्कुल पास आ चुकी थी, सो हम फिर से गाड़ी से निकल रावी दरिया के सम्मान में रुक गए और चंद फोटो तो मुझे खींचनी थी ना, तो यह बहाना भी अच्छा था।
चंद मिनट बाद गाड़ी चली कि सामने चम्बा शहर नज़र आने लगा और कुछ समय के सफ़र के बाद हम रावी नदी पर बने पुल से चम्बा की ओर मुड़े। मैं पहले भी चम्बा-भरमौर व हडसर (जहाँ से मणिमहेश को पैदल यात्रा प्रारंभ होती है) तक सपरिवार जून
2010 में आ चुका था, इस बार भी बहुत मन करता था कि चम्बा के "लक्ष्मीनाथ मंदिर" में स्थापित भगवान विष्णु की भव्य मूर्ति के दोबारा दर्शन करूँ। दोस्तों जब मैंने पहली बार इस मूर्ति को देखा था तो बस देखता ही रहा था, मूर्तिकार ने भगवान विष्णु की मूर्ति की आँखे इतनी संजीव गढ़ी है कि उन से नज़र ही नहीं मिलती और ऊँचाई पर बने माता चामुंडा के प्राचीन मंदिर पर भी दोबारा जाना चाहता था, जहाँ से चम्बा शहर का बेहद खूबसूरत विहंगम दृश्य दिखता है। परन्तु मेरी यह इच्छा कहाँ पूर्ण हो सकती थी क्योंकि विशाल जी व दिनेश जी दोनों ने ही वापसी का समय निर्धारित कर दिया था कि 18अगस्त दिन सोमवार को हम दोनों ने अपनी नौकरियों पर हाज़िर होना है। सो भागमभाग चल रही थी, कि आज भरमौर पहुँच कर कल सुबह दिनेश जी हेलीकॉप्टर से मणिमहेश... और मैं व विशाल जी हडसर से पैदल मणिमहेश जाएंगे, 17अगस्त रविवार को मणिमहेश से वापस उतरकर रातों-रात दिनेश जी चंडीगढ़ और विशाल जी दिल्ली पहुँचेंगे। परंतु दोस्तों पहाड़ कभी भी आपके कार्यक्रम अनुसार नहीं चलते बल्कि आपको पहाड़ के मिज़ाज़ अनुसार चलना पड़ता है।
चम्बा शहर से निकलते हुए मैं शहर को गुज़रते हुए देख रहा था कि एकाएक सामने मोड़ पर से आ रही लोकल मिनी बस में मेरी नजर पड़ी कि बस की अंतिम खिड़कियों पर स्थानीय वेशभूषा में सजी दो महिलाएँ बैठी खिड़की से बाहर की ओर देख रही हैं। जैसे ही बस हमारी गाड़ी के पास आई, मैं अपने-आप को रोक ना पाया.... और चलती गाड़ी से मैने छिप कर उनकी फोटो खींच डाली, दूसरे क्षण बस निकल चुकी थी। दोस्तों, जब भी मेरी श्रीमतीजी वह फोटो देखती है....... तो आप समझ ही गए होंगे कि मेरी क्लास लग जाती है...!!!!!
हाँलाकि मैं एक बात यहाँ स्पष्ट करना चाहता हूँ कि उन महिलाओं के स्थानीय पहरावे की वजह ने मुझे इनका फोटो खींचने के लिए उकसाया था.....और यह ही स्पष्टीकरण मैं हर बार अपनी श्रीमतीजी को भी देता हूँ।
गाड़ी अब चम्बा से 60किलोमीटर दूर भरमौर के रास्ते पर भागने लगी। एक घंटे के सफ़र के बाद सड़क किनारे गिर रहे झरने पर, मैं और विशाल जी जमकर नहा तरोताज़ा हो लिये। कहावत है कि स्नान के बाद ब्राह्मण की भूख जागृत हो जाती है, तो हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ। सड़क पर चलते-चलते ढाबे की तलाश में हमें मणिमहेश यात्रियों के लिए लगाया गया लंगर (जो "शिव परिवार सेवा मण्डल, बठिंडा" वालों ने 11वीं बार लगाया था) मिल गया। बहुत स्वादिष्ट भोजन, "कढ़ी, दाल-चावल, व संग आचार मतलब सोने पर सुहागा।"
चम्बा के करीब बीस किलोमीटर आगे रावी नदी के ऊपर "बकाण गाँव" में बने लकड़ी के झूला पुल को देख हम रुक गए। यह पुल गाँव को सड़क से जोड़ता है। हम तीनों उत्साहित हो, गाड़ी छोड़ पुल पर जा चढ़े तो पाया कि गाँव वालों की पैदल आवाज़ायी से ही पुल डोल रहा था।
सड़क रावी नदी के किनारे-किनारे ही हमें अपनी मंजिल की ओर ले जा रही थी। शाम के पांच बजने को थे, सड़क किनारे एक ऊँचा सा बोर्ड गड़ा हुआ आया जिस पर लिखा था "प्रथम कैलाश दर्शन" यानी यहाँ से 'मणिमहेश कैलाश पर्वत' नज़र आता है, परंतु पिछली बार की तरह हमें अब भी इस स्थान से कैलाश दर्शन नहीं हो सके क्योंकि उस दिशा में बादलों की आवारगी ठहरी हुई थी। भरमौर की तरफ बढ़ते ही सेबों के बगीचे भी आने प्रारंभ हो गए। शाम के 6बजे, भरमौर से कोई सात किलोमीटर पहले ही लगे जाम को देख कुछ हैरत सी हुई, गाड़ी को हमने भी उस लाइन में जोड़ दिया। परंतु कोई भी गाड़ी तस से मस ना होती देख मन परेशान होने लगा, गाड़ी छोड़ बाहर निकल कर देखा कि कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं घट गई है रास्ते पर। लोग अपनी गाड़ियाँ छोड़ रास्ते पर झुरमुट बना बतिया रहे थे कि मणिमहेश यात्रा के लिए इतने ज्यादा लोग पहुँच रहे हैं कि भरमौर के तंग बाज़ार में गाड़ियाँ आपस में ही फंसी हुई है, बहुत धीमी रफ्तार से गाड़ियाँ भरमौर के पार हडसर से आ...यां जा पा रही है और भरमौर की तरफ से कोई-कोई गाड़ी ही उस जाम से निकल कर आ रही थी मतलब कई किलोमीटर लंबी लाइन हम जैसों की ही थी, जो मणिमहेश जाने के लिए भरमौर या हडसर पहुँचना चाहते थे।
एक घंटा बीत चुका था और हमारी गाड़ी केवल दो किलोमीटर ही आगे बढ़ी थी। सूर्यास्त हो रहा था और सामने नज़र आ रही हर ऊँची चोटी को मैं कैलाश पर्वत ही समझ रहा था। आज सारे दिन की सुखद यात्रा का उल्लास हमारे मन से निकल चुका था। रेंगते-रेंगते एक मोड़ मुड़े, तो कुछ दूर भरमौर नज़र तो आने लगा पर हमारी गाड़ी चींटी की चाल ही चल पा रही थी। 8बज चुके थे, हम पिछले दो घंटे से जाम में फंसे हुए भरमौर तक पहुँचने की कोशिश कर रहे थे।
चारों तरफ अंधेरा फैल चुका था, गाड़ियाँ फिर से एक जगह पिछले आधे घंटे से फंसी हुई थी। मन में अब यह ख्याल घर कर चुका था कि कहीं गाड़ी में बैठे ही रात ना गुज़ारनी पड़े।
( क्रमश:)
शानदार वर्णन।
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद उदय जी।
हटाएं2 घंटे का ट्रैफिक जाम भरमौर में बाप रे....में भी जब घूमने जाता हूं तो मुझे भी रिहाई जैसा ही महसूस होता है
हटाएंरिहाई, रिहाई.....हमेशा मिलती रहे रिहाई!!!
हटाएंरोचक विवरण। यात्रा सीजन में जाम लगना अब तो आम बात हो गई है। अगली कड़ी का इंतजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद विकास जी,सत्य वचन जी।
हटाएंबहुत खूबसूरत सफ़र बकाण गांव के पुल पर हम भी रुके थे। अगली स्टोरी का इंतजार
जवाब देंहटाएंवाह जी वाह ....सच में बकाण गाँव के पुल पर से पैदल गुज़रना रोमांच पैदा कर देता है।
हटाएंखूबसूरत झरने वाला गांव�� आपकी कठिन यात्रा में हम भी साथ चल रहे है विकास��
जवाब देंहटाएंसुस्वागतम् जी।
हटाएंHello
जवाब देंहटाएंलेख और फोटोज सभी शानदार
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूब वर्णन।
जवाब देंहटाएंअगले ट्रेक वर्णन के इंतेज़ार में.
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