भाग-11 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....
घुमक्कड़ी का फल " विस्तार "
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श्री खंड महादेव कैलाश की प्रथम अग्नि परीक्षा "डाँडा धार " की चढ़ाई... मैं और विशाल रतन जी पिछले साढे चार घंटे से चढ़ते जा रहे थे.... दोस्तों इस चढ़ाई में कहीं भी ऐसी समतल जगह नही आई कि, कम से कम लगातार बीस कदम तो आराम से सीधे हो चल सके, बस आगे की ओर झुक कर अपनी ट्रैकिंग स्टिकों के बल पर ऊपर की ओर धीरे-धीरे ही सही, पर निरंतर चढ़ते जा रहे थे....
आधे घंटे बाद करीब सुबह के साढे नौ बजे हम "थाटी भील टोप"(3060मीटर) नामक जगह पर पहुंच गए.... ये स्थान पहाडों के शिखर के समीप कुछ समतल सी जगह है, यहाँ पर कुछ अस्थाई दुकानों के तम्बू गड़े हुए थे... और इस ऊंचाई से चैल घाटी का क्या हसीन चेहरा नज़र आ रहा था, चंद लोग धूप में बैठे बतिया रहे थे और हम थाटी भील में सबसे पहले लगे तम्बू नुमा दुकान में जा बैठे.... अंग्रेजी में कहे तो, दुकानदार को आधुनिक पर्वतीय व्यंजन "मैगी" बनाने का "आदेश" दिया, या फिर अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी में कहें तो... उन्हें मैगी बनाने का "आग्रह" किया, साथ में कहा कि भाई तरी(सूप) वाली मैगी ही बनाना......... और आदतन साथ बैठे दुकानदार के भाई से आगे के रास्ते के बारे में जानकारी हासिल करनी आरंभ कर दी, तो उन्होंने कहा कि अभी सारा दिन पड़ा है.. आप लोग आराम से डाँडा धार के शिखर "काली टोप" को पार कर "भीम तलाई" नामक स्थान पर अंधेरा होने से पहले पहुंच सकते हैं और वहाँ मेरे टैंट पर रुक जाना, मैं भी वहीं से वापस आ रहा हूँ और नीचे जा रहा हूँ राशन लेने के लिए .....
और, मेरी बाँसुरी देख वे मुझसे बाँसुरी सुनाने के लिए कहने लगे, मैं भी तो अपनी थकान उतराना चाहता था.. सो झट से बाँसुरी उठा, अपने होंठों से जोड़ दी....... और तान छेड़ दी...
"पंख होते तो उड़ आती रे, रसिया ओ जालमा " ......बाँसुरी की आवाज़ सुन बाहर रास्ते पर चल रहे एक सज्जन मेरे सामने आ बैठे, और ध्यान लगा मुझे सुनते रहे...... और बोले, " आप राग भोपाली पर आधारित फिल्मी धुन बजा रहे थे जनाब...!! " उनके मुख से राग का नाम सुन कर मेरा सारा ध्यान उनकी तरफ केन्द्रित हो गया, कि शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता तेरे सामने आन बैठे हैं विकास नारदा...!! मैने उनके के विषय में पूछा, तो वे बोले, " नही मैं गाता या बजाता नही हूँ, बस शास्त्रीय संगीत सुनने का बेहद शौेंक रखता हूँ.. गुजराती हूँ नाम है गोविंद पटेल, और न्यूजीलेड में रहता हूँ... हर वर्ष न्यूजीलेड से गर्मियों के दिनों में गुजरात आता हूँ, अपने शहर के एक शास्त्रीय गायन महोत्सव को देखने और फिर निकल पड़ता हूँ ऐसे ही पहाडों की ओर.. इस बार श्री खंड महादेव के दर्शन कर आया हूँ...पिछले साल आदि कैलाश यात्रा पर गया था...!"
दोस्तों, फिर क्या था... आस-पास की सब दुनिया और माहौल को भूल हम दोनों सेमी-क्लासिक फिल्मी संगीत की बातों में एक दम से डूब गये.... गोविंद पटेल जी के मोबाइल फोन में ही शास्त्रीय रागों पर आधारित सैकडौं फिल्मी गीतों का संग्रह था और उन्हें भी संगीत के विषय में काफी ज्ञान था.....
अनजान जगह में ऐसे कैसे दो अनजान व्यक्ति एक दम से जाने-पहचानों जैसी बातें करने लग जाते हैं... मित्रों, यही तो यात्राएँ करती हैं... हमे पलों के लिए मिले लोग तमाम उमर के लिए हमारे दिमाग में अपनी छवि छोड़ जाते हैं.....
सुबह का नाश्ता मैगी और चाय पीने के बाद एकाएक विशाल जी बोले, " विकास जी, मैं तो अपनी रक्सक अब यहीं छोड़, आगे की चढ़ाई चढूगाँ...! " और अपनी रक्सक से कुछ जरुरी सामान एक लिफाफे में भरने लगे... उनका ये फैसला सुन, मैने कहा, " जैसी आप की मरजी... परन्तु मैं तो अपनी रक्सक इस डाँडा-धार के शिखर पर पहुंचा कर ही दम लूगाँ, आज रात जहाँ भी हम रुकेंगे....अपनी रक्सक वहीं छोड़, कल इसके बगैर आगे की यात्रा करुगाँ..!! "
क्या करूँ दोस्तों, मैं कुछ अड़ियल सा हूँ... मेरा शरीर दिमाग की कम माँसपेशियों की ज्यादा सुनता है, सो इसे मन ही मन चुनौती मान ठान लिया कि इस भार को आज सारा दिन पीठ पर ही ढ़ो कर ले जाना है, बस अपनी रक्सक से केवल स्लीपिंग बैग निकाल कर वहीं छोड़ जाने वाली विशाल जी की रक्सक में रख, और उस की जगह पर विशाल जी के सामान का लिफाफा डाल रक्सक को अपनी पीठ पर लाद, तम्बू से बाहर निकल आया.... और सोच रहा था कि, सुबह से चल हमारे पास से सैकड़ों पदयात्री गुजरें.... कुछ ने हमें देखा और कुछ को हमने, एक-दूसरे को क्षणिक बुलाया भी...ठीक इसी प्रकार गोविंद पटेल जी के साथ भी हुआ होगा, परन्तु जब उन्हें उनके स्वभाव व रूचि का एक संकेत मिला.... वे मेरे पास आ कर रुक गए और अपने मन की सब मेरे समक्ष खोल गए.....
बस यही घुमक्कड़ी का मीठा फल है, जो घर बैठे नही मिल सकता दोस्तों.. घुमक्कड़ी नामक यात्राओं में आप विस्तार की चरम सीमा को प्राप्त कर सकते हैं, जैसे अनुभव व अनुभूतियों का विस्तार, सम्मान व आत्मविश्वास का विस्तार, सामाजिक व भावनात्मक रिश्तों का विस्तार......
थाटी भील में करीब एक घंटे के विश्राम के उपरांत हम दोनों पुन: यात्रा पथ पर अग्रसर हो चले... थाटी भील से निकलते ही मुझे रास्ते के किनारे कटोरा नुमा चट्टान नजर आई, जिसमें कुछ मात्रा में बारिश का पानी जमा था.. इस चट्टान को देख कर मैं विशाल जी से बोला कि,"पहाड की इतनी ऊंचाई पर इस चट्टान पर इकठ्ठा पानी भी जीवन रक्षक साबित हो जाता है... परन्तु इस यात्रा पर इस का महत्व कम ही है क्योंकि हर जगह पर खाने-पीने की सुविधा है, यदि वे ना हो तो.. इतनी ऊंचाई पर इस जल का ऐसा मिलना पर्वतारोही के लिए वरदान ही साबित होता है, क्योंकि बहता हुआ जल तो हमेशा पर्वतों के चरणों में ही होता है... जितना हम पर्वत की ऊंचाई की ओर चढ़ते रहते हैं विशाल जी, जल मिलने की संभावनाएं भी कम होती रहती हैं....यदि उस पर्वत के शिखर पर बर्फ ना हो या पिघल चुकी हो तो, जल का मिलना असम्भव है.....!"
तो विशाल जी एकाएक बोले, " हां बिल्कुल सही कह रहे हो विकास जी, बराहटी नाले से पिछले सात घंटे से हम इस यात्रा पथ पर है, परन्तु हमें रास्तें में एक भी प्राकृतिक जल-स्रोत नही मिला.. बस सरकार की ओर से बिछाई हुई जल-आपूर्ति की पाइपलाइन से ही जल मिल रहा है "
जी, हां विशाल जी... और मैं पूरे दावे से यह बात कहता हूँ कि इस डाँडा धार पर्वत शिखर तक कोई भी प्राकृतिक जल धारा नही होगी... सुविधाओं के होते हुए भी यह चढ़ाई अत्यंत कठिन है, सोचो कि यदि इस राह पर कोई मदद व सुविधा ना हो तो ये डगर कितनी चुनौतीपूर्ण होगी.....!!
तभी सामने से दो लड़के बेहद चुनौतीपूर्ण अवस्था में धडाधड हमारी तरफ नीचे की ओर आ रहे थे.... मित्रों उन दोनों लड़कों की पीठ पर जितना भार लदा था.. उसे देख अच्छा-भला पहलवान व्यक्ति भी सोचने के लिए मजबूर हो जाए....दो-दो गैस के सिलेंडर, किसी यात्री की रक्सक और पानी के लिए प्लास्टिक के बड़े-बड़े कैन इत्यादि, इतना फैलावटी व वजनी सामान पीठ पर लदे होने के बावजूद उन दोनों की रफ्तार इतनी तेज थी कि मानो दो रंग-बिरंगी गेंदें रुड़कती हुई नीचे जा रही हो... इस बात का अंदाजा आप लगा सकते हैं कि मैने उन दोनों के सामने आते ही अपना कैमरा अभी ऊपर ही किया था, वे दोनों मेरे पास से झट से निकल गए... और मैं उनकी पीठ की ही फोटो खींच सका...
विशाल जी बोले, " ये तो कुशल कुली जान पड़ते है, विकास जी..! " मैने भी हामी में सिर हिला कर केवल इतना ही कहा " निपुण भारवाहक...!!" और, तभी पीछे से एक व्यक्ति हमारे पास से ऊपर की ओर चढ़ा, जिसने एक लोहे का पाईप उठा रखा था... पाईप देख मेरी उत्सुकता जाग उठी, तो उस सम्बन्ध में पूछा....
तो, वह व्यक्ति जल्दबाजी में बोला, "ऊपर पास ही जंगल में 'लाश' पड़ी है.. उसे उठाने जा रहे हैं...!!!"
...............................(क्रमश:)
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घुमक्कड़ी का फल " विस्तार "
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श्री खंड महादेव कैलाश की प्रथम अग्नि परीक्षा "डाँडा धार " की चढ़ाई... मैं और विशाल रतन जी पिछले साढे चार घंटे से चढ़ते जा रहे थे.... दोस्तों इस चढ़ाई में कहीं भी ऐसी समतल जगह नही आई कि, कम से कम लगातार बीस कदम तो आराम से सीधे हो चल सके, बस आगे की ओर झुक कर अपनी ट्रैकिंग स्टिकों के बल पर ऊपर की ओर धीरे-धीरे ही सही, पर निरंतर चढ़ते जा रहे थे....
आधे घंटे बाद करीब सुबह के साढे नौ बजे हम "थाटी भील टोप"(3060मीटर) नामक जगह पर पहुंच गए.... ये स्थान पहाडों के शिखर के समीप कुछ समतल सी जगह है, यहाँ पर कुछ अस्थाई दुकानों के तम्बू गड़े हुए थे... और इस ऊंचाई से चैल घाटी का क्या हसीन चेहरा नज़र आ रहा था, चंद लोग धूप में बैठे बतिया रहे थे और हम थाटी भील में सबसे पहले लगे तम्बू नुमा दुकान में जा बैठे.... अंग्रेजी में कहे तो, दुकानदार को आधुनिक पर्वतीय व्यंजन "मैगी" बनाने का "आदेश" दिया, या फिर अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी में कहें तो... उन्हें मैगी बनाने का "आग्रह" किया, साथ में कहा कि भाई तरी(सूप) वाली मैगी ही बनाना......... और आदतन साथ बैठे दुकानदार के भाई से आगे के रास्ते के बारे में जानकारी हासिल करनी आरंभ कर दी, तो उन्होंने कहा कि अभी सारा दिन पड़ा है.. आप लोग आराम से डाँडा धार के शिखर "काली टोप" को पार कर "भीम तलाई" नामक स्थान पर अंधेरा होने से पहले पहुंच सकते हैं और वहाँ मेरे टैंट पर रुक जाना, मैं भी वहीं से वापस आ रहा हूँ और नीचे जा रहा हूँ राशन लेने के लिए .....
और, मेरी बाँसुरी देख वे मुझसे बाँसुरी सुनाने के लिए कहने लगे, मैं भी तो अपनी थकान उतराना चाहता था.. सो झट से बाँसुरी उठा, अपने होंठों से जोड़ दी....... और तान छेड़ दी...
"पंख होते तो उड़ आती रे, रसिया ओ जालमा " ......बाँसुरी की आवाज़ सुन बाहर रास्ते पर चल रहे एक सज्जन मेरे सामने आ बैठे, और ध्यान लगा मुझे सुनते रहे...... और बोले, " आप राग भोपाली पर आधारित फिल्मी धुन बजा रहे थे जनाब...!! " उनके मुख से राग का नाम सुन कर मेरा सारा ध्यान उनकी तरफ केन्द्रित हो गया, कि शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता तेरे सामने आन बैठे हैं विकास नारदा...!! मैने उनके के विषय में पूछा, तो वे बोले, " नही मैं गाता या बजाता नही हूँ, बस शास्त्रीय संगीत सुनने का बेहद शौेंक रखता हूँ.. गुजराती हूँ नाम है गोविंद पटेल, और न्यूजीलेड में रहता हूँ... हर वर्ष न्यूजीलेड से गर्मियों के दिनों में गुजरात आता हूँ, अपने शहर के एक शास्त्रीय गायन महोत्सव को देखने और फिर निकल पड़ता हूँ ऐसे ही पहाडों की ओर.. इस बार श्री खंड महादेव के दर्शन कर आया हूँ...पिछले साल आदि कैलाश यात्रा पर गया था...!"
दोस्तों, फिर क्या था... आस-पास की सब दुनिया और माहौल को भूल हम दोनों सेमी-क्लासिक फिल्मी संगीत की बातों में एक दम से डूब गये.... गोविंद पटेल जी के मोबाइल फोन में ही शास्त्रीय रागों पर आधारित सैकडौं फिल्मी गीतों का संग्रह था और उन्हें भी संगीत के विषय में काफी ज्ञान था.....
अनजान जगह में ऐसे कैसे दो अनजान व्यक्ति एक दम से जाने-पहचानों जैसी बातें करने लग जाते हैं... मित्रों, यही तो यात्राएँ करती हैं... हमे पलों के लिए मिले लोग तमाम उमर के लिए हमारे दिमाग में अपनी छवि छोड़ जाते हैं.....
सुबह का नाश्ता मैगी और चाय पीने के बाद एकाएक विशाल जी बोले, " विकास जी, मैं तो अपनी रक्सक अब यहीं छोड़, आगे की चढ़ाई चढूगाँ...! " और अपनी रक्सक से कुछ जरुरी सामान एक लिफाफे में भरने लगे... उनका ये फैसला सुन, मैने कहा, " जैसी आप की मरजी... परन्तु मैं तो अपनी रक्सक इस डाँडा-धार के शिखर पर पहुंचा कर ही दम लूगाँ, आज रात जहाँ भी हम रुकेंगे....अपनी रक्सक वहीं छोड़, कल इसके बगैर आगे की यात्रा करुगाँ..!! "
क्या करूँ दोस्तों, मैं कुछ अड़ियल सा हूँ... मेरा शरीर दिमाग की कम माँसपेशियों की ज्यादा सुनता है, सो इसे मन ही मन चुनौती मान ठान लिया कि इस भार को आज सारा दिन पीठ पर ही ढ़ो कर ले जाना है, बस अपनी रक्सक से केवल स्लीपिंग बैग निकाल कर वहीं छोड़ जाने वाली विशाल जी की रक्सक में रख, और उस की जगह पर विशाल जी के सामान का लिफाफा डाल रक्सक को अपनी पीठ पर लाद, तम्बू से बाहर निकल आया.... और सोच रहा था कि, सुबह से चल हमारे पास से सैकड़ों पदयात्री गुजरें.... कुछ ने हमें देखा और कुछ को हमने, एक-दूसरे को क्षणिक बुलाया भी...ठीक इसी प्रकार गोविंद पटेल जी के साथ भी हुआ होगा, परन्तु जब उन्हें उनके स्वभाव व रूचि का एक संकेत मिला.... वे मेरे पास आ कर रुक गए और अपने मन की सब मेरे समक्ष खोल गए.....
बस यही घुमक्कड़ी का मीठा फल है, जो घर बैठे नही मिल सकता दोस्तों.. घुमक्कड़ी नामक यात्राओं में आप विस्तार की चरम सीमा को प्राप्त कर सकते हैं, जैसे अनुभव व अनुभूतियों का विस्तार, सम्मान व आत्मविश्वास का विस्तार, सामाजिक व भावनात्मक रिश्तों का विस्तार......
थाटी भील में करीब एक घंटे के विश्राम के उपरांत हम दोनों पुन: यात्रा पथ पर अग्रसर हो चले... थाटी भील से निकलते ही मुझे रास्ते के किनारे कटोरा नुमा चट्टान नजर आई, जिसमें कुछ मात्रा में बारिश का पानी जमा था.. इस चट्टान को देख कर मैं विशाल जी से बोला कि,"पहाड की इतनी ऊंचाई पर इस चट्टान पर इकठ्ठा पानी भी जीवन रक्षक साबित हो जाता है... परन्तु इस यात्रा पर इस का महत्व कम ही है क्योंकि हर जगह पर खाने-पीने की सुविधा है, यदि वे ना हो तो.. इतनी ऊंचाई पर इस जल का ऐसा मिलना पर्वतारोही के लिए वरदान ही साबित होता है, क्योंकि बहता हुआ जल तो हमेशा पर्वतों के चरणों में ही होता है... जितना हम पर्वत की ऊंचाई की ओर चढ़ते रहते हैं विशाल जी, जल मिलने की संभावनाएं भी कम होती रहती हैं....यदि उस पर्वत के शिखर पर बर्फ ना हो या पिघल चुकी हो तो, जल का मिलना असम्भव है.....!"
तो विशाल जी एकाएक बोले, " हां बिल्कुल सही कह रहे हो विकास जी, बराहटी नाले से पिछले सात घंटे से हम इस यात्रा पथ पर है, परन्तु हमें रास्तें में एक भी प्राकृतिक जल-स्रोत नही मिला.. बस सरकार की ओर से बिछाई हुई जल-आपूर्ति की पाइपलाइन से ही जल मिल रहा है "
जी, हां विशाल जी... और मैं पूरे दावे से यह बात कहता हूँ कि इस डाँडा धार पर्वत शिखर तक कोई भी प्राकृतिक जल धारा नही होगी... सुविधाओं के होते हुए भी यह चढ़ाई अत्यंत कठिन है, सोचो कि यदि इस राह पर कोई मदद व सुविधा ना हो तो ये डगर कितनी चुनौतीपूर्ण होगी.....!!
तभी सामने से दो लड़के बेहद चुनौतीपूर्ण अवस्था में धडाधड हमारी तरफ नीचे की ओर आ रहे थे.... मित्रों उन दोनों लड़कों की पीठ पर जितना भार लदा था.. उसे देख अच्छा-भला पहलवान व्यक्ति भी सोचने के लिए मजबूर हो जाए....दो-दो गैस के सिलेंडर, किसी यात्री की रक्सक और पानी के लिए प्लास्टिक के बड़े-बड़े कैन इत्यादि, इतना फैलावटी व वजनी सामान पीठ पर लदे होने के बावजूद उन दोनों की रफ्तार इतनी तेज थी कि मानो दो रंग-बिरंगी गेंदें रुड़कती हुई नीचे जा रही हो... इस बात का अंदाजा आप लगा सकते हैं कि मैने उन दोनों के सामने आते ही अपना कैमरा अभी ऊपर ही किया था, वे दोनों मेरे पास से झट से निकल गए... और मैं उनकी पीठ की ही फोटो खींच सका...
विशाल जी बोले, " ये तो कुशल कुली जान पड़ते है, विकास जी..! " मैने भी हामी में सिर हिला कर केवल इतना ही कहा " निपुण भारवाहक...!!" और, तभी पीछे से एक व्यक्ति हमारे पास से ऊपर की ओर चढ़ा, जिसने एक लोहे का पाईप उठा रखा था... पाईप देख मेरी उत्सुकता जाग उठी, तो उस सम्बन्ध में पूछा....
तो, वह व्यक्ति जल्दबाजी में बोला, "ऊपर पास ही जंगल में 'लाश' पड़ी है.. उसे उठाने जा रहे हैं...!!!"
...............................(क्रमश:)
डाँडा धार की चढ़ाई.... |
उस ऊंचाई से नीचे दिखता दृश्य..... |
डाँडा धार से उतर रहे...श्री खंड महादेव से वापस आते यात्री... |
मेरी कलात्मक सोच..... |
डाँडा धार की इतनी ऊंचाई तक हम पहुंच चुके थे... कि सामने दूसरे पर्वतों के शिखर दिखाई देने लगे |
थाटी भील की ऊंचाई से नीचे दिखता सुंदर नज़ारा... |
थाटी भील टोप पर......कुछ लोग धूप में बैठे बतिया रहे थे... |
हमारा " विनम्र आदेश" मैगी...वो भी तरी वाली |
लो, भाई हम तो मौका ढूँढतें है.... बाँसुरी बजाने के लिए |
न्यूजीलेड से आए गोविंद पटेल जी...... जो चंद ही मिनटों में अपने मन की सब बातें मेरे समक्ष खोल गए |
थाटी भील से कुछ आगे....पहाड की ऊंचाई पर चट्टान में एकत्र जीवनरक्षी जल |
विशाल जी कभी-कभार ही अपना कैमरा चालू करते है.... जबकि मेरा कैमरा कभी बंद ही नही होता, दोस्तों |
" निपुण भारवाहक....!! " |
ऊपर जंगल में एक "लाश" पड़ी है, उसे उठाने जा रहे हैं ये पाईप लेकर....!!!!! |
उफ्फ्फ! यात्रा खतरनाक हो रही हैं। आगे शायद आपको उस गरीब की लाश के दर्शन भी हो जाये। आप सुरक्षित यात्रा करे।
जवाब देंहटाएंजी हां, जी।
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