रविवार, 16 अप्रैल 2017

भाग-6 चलो, चलते हैं.....सर्दियों में खीरगंगा Winter trekking to Kheerganga(2960mt)

भाग-6  चलो, चलते है....... सर्दियों में खीरगंगा(2960मीटर) 1जनवरी 2016

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                मैं और विशाल रतन जी पिछले साढे़ पांच घंटे से निरंतर बरषैनी गाँव से खीरगंगा के लिए पैदल चलते जा रहे थे।  जनवरी महीने में शाम के चार बजे, घना जंगल और ऊपर से सूर्य की रोशनी भी काफी कम हो चुकी थी। पहाड की ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ अब रास्ते में बर्फ भी ज्यादा आने लगी,  एक जगह ऐसी आई जहाँ लकड़ी के बड़े-बड़े गट्ठर रख कर पहाड की सीधी ढलान पर रास्ता बनाया हुआ था और वो रास्ता भी मुश्किल से दो फुट ही चौड़ा होगा। उस रास्ते के दूसरी तरफ़ बहुत गहरी खाई और उस गहरी खाई में पार्वती नदी का तेज वेग। गर्मी के मौसम में यह मंज़र, चाहे बहुत सुहावना नज़र आता होगा....परन्तु सर्दी के इस मौसम में यह स्थिति बहुत डरावनी नज़र आ रही थी,  कि कहीं हमारी हल्की सी चूक... और दुनिया से अलविदा ना साबित हो जाये....!
                     सच मानना दोस्तों,  वहाँ कुछ ही मीटर का रास्ता मानो खत्म ही नही हो रहा था, हमारी हिम्मत भी नही हो रही थी...कि नीचे घाटी की तरफ़ देख भी ले। बस पहाड की तरफ़ के उस छोटे से रास्ता में पत्थरों-घासफूस को पकड़-पकड़ कर  "कनखूजुरें" की तरह सरक रहे थे। मैं हौसला बढ़ाने के लिए 'हर-हर महादेव' का उद्घोष लगता जा रहा था,  उस वियावान जंगल में हम रोमांच व डर के मिश्रण को संग ले कर चले जा रहे थे,  कि विशाल जी ने एकाएक चिल्ला कर कहा-"भालू........!!!"     "विकास जी,  वो देखो सामने रास्ते में पेड़ के पीछे भालू है....!"
                      एक अनजान जंगल में भालू या शेर का नाम ही काफी है किसी को भी कपकपानें के लिये, हैं ना दोस्तों। हमारा भी कुछ ऐसा ही हाल हुआ, शाम के पांच बजे दिन की रोशनी भी लगभग खत्म सी हो रही थी....मैने ध्यान लगा उस ओर हो रही हलचल को देखा, तो विशाल जी व खुद को तसल्ली दे कर बोला,  "नही... वहाँ भालू नही बल्कि बंदरों का एक झुण्ड है".........और जोर-जोर से आवाज़ें निकाल उन्हें अपने आने की दस्तक देने लगा। हमारे पास जाने से पहले ही सब के सब बंदर पहाड के ऊपर की ओर चढ़ गये और अब ऐसा माहौल बन चुका था कि मैं हर दो मिनट बाद भगवान शिव का जयकारा लगाता और विशाल जी उसका जवाब देते,  ताँकि जंगल में हर किसी को हमारी मौजूदगी का पता चल सके।
                      अब काफी हद तक अंधेरा हो चुका था,  कि मेरे पीछे एक आहट हुई और मैने एक दम से पीछे मुड़ कर देखा....तो एक युवक मेरी तरफ़ चला आ रहा था....और उसने हमारे पास आ कर कहा, "क्या आपने मेरे साथियों को देखा है जिनके साथ एक गाइड भी था।"    
                       हम झट से समझ गये कि यह युवक किस दल का साथी है। मैने कहा कि वे सब लोग तो बहुत पीछे ही रुधिरनाग से कुछ आगे आ, फिर से वापस बरषैनी की ओर चले गये.....पर तुम यहाँ तक इतनी दूर कैसे पहुँच गये...?  
                       वह युवक बोला,  "मैं उन सब से आगे चल रहा था और रास्ता भटक गया, बड़ी मुश्किल से इस मुख्य रास्ते पर वापस आया हूँ.....! "    
                       उस की बात सुन मैं उत्साही स्वर में बोला, "बम-बोल, तुम पर तो भाई भगवान शिव की कृपा हुई है...जो तुम अकेले ही यहाँ तक पहुँच गए, उसने तुम्हें ही न्यौता भेजा है....जबकि तुम्हारे बाकी सारे साथियों को खाली हाथ ही वापस भेज दिया,  तुम हमारे साथ ही खीरगंगा के लिए चलो और खीरगंगा भी पास में ही कहीं है.......! "                           परन्तु वह युवक बोला, "भईया, हम सब दिल्ली से यहाँ आये हैं....जैसे मैं यहाँ परेशान हूँ,  वैसे वे सब भी मुझे लेकर परेशान होंगे...मुझे ढूँढ रहे होंगे,   और यहाँ तो मोबाइल भी नही चल रहा.... बेहतरी इसी में है कि मैं भी वापस ही चला जाता हूँ।"       हम दोनों को उसकी बात वज़नदार लगी और कहा कि ठीक है भाई,  जल्दबाज़ी मत करना....धीरे-धीरे ही वापस उतरना,  क्योंकि तुम्हारे पास टार्च भी नही है, अपने मोबाइल की रोशनी से धीरे-धीरे चलते रहना।
                       दोस्तों,  मैं बार-बार कहता रहता हूँ, "पहाड ऊपर से तो बहुत हसीन होते हैं, पर ह्रदयवहीन होते हैं...कठोरता इनकी रग-रग में होती है, इसलिए कभी भी इन्हें हल्के में ना ले....इन पर चढ़ते समय आत्मविश्वास के साथ-साथ,  मन में उस पर्वत के प्रति सम्मान व डर अवश्य रखे...!"
                       अब एक दम से अंधेरा हो चुका था, चढ़ाई भी कठिन होती जा रही थी और पत्थर से बनी सीढ़ियों पर बर्फ की मोटी फिसलनदार परत अब लगातार मिलनी शुरू हो गई....जो कि अब हमारे लिए विकट परिस्थिति बन चुकी थी। पांच-छह कदम प्रति मिनट की रफ्तार हो चुकी थी हमारी। चलने की रफ़्तार कम हो जाने से अब हमारे गर्म शरीर ठण्डें हो रहे थे,  परिणामस्वरूप यह श्रम हमे थका रहा था और ऊपर से यह ज्ञात ना था कि मंजिल अभी कितनी दूर है।
                       विशाल जी आखिर कह ही उठे, "छोड़ो विकास जी,  यहीं कहीं टैंट लगा लेते हैं.....अंधेरा हो चुका है, रास्ता बहुत ही कठिन व खतरनाक रुप ले चुका है,  कहीं अंधेरे में चोट ना खा बैठे और अभी खीरगंगा का कोई नामोनिशान भी नही नज़र आ रहा है,  यहाँ सूखी लकड़ी भी हमे आसानी ले मिल जायेगी....आग जला लेते हैं,  कल सुबह आगे के सफ़र पर चलेगें......! "
                       मैं कुछ अड़ियल स्वभाव का हूँ,  मैने विशाल जी का प्रस्ताव यह कह कर टाल दिया कि चलते रहें, हमे हर हाल में आज खीरगंगा जाकर ही कैम्प लगाना है, रास्ते में नही........और विशाल जी को आश्वासन दे कर बोला,  "24साल पहले की खीरगंगा यात्रा में खीरगंगा के प्रथम दर्शन की हल्की सी याद को मौजूदा रास्ते से मिलान कर देखता हूँ, तो मुझे लगता है विशाल जी...हम खीरगंगा से ज्यादा दूर नही है, मुझे याद है कि इस चढ़ाई के एक दम खत्म होते ही, एक बहुत खुला सा मैदान आयेगा.....वहीं खीरगंगा है, हमे हिम्मत नही हारनी है, चाहे ठण्ड भी बहुत ज्यादा बढ़ गई है पर हमे चलते रहना है......!"
                        और...... आखिर शाम के 6बजे हम उस मोड़ पर पहुँच गये, जिसकी स्मृति मेरी यादाश्त में हल्की सी थी....मैं खुशी से उछल कर बोला, "लो विशाल जी, वही खीरगंगा का खुला सा मैदान आ गया,  इसी मैदान में ऊपर की ओर कहीं खीरगंगा का गर्म पानी का कुण्ड है।"     परन्तु अंधेरा होने के कारण हमारी टार्चों की रौशनी की परिधि में ही चंद गज की दूरी तक ही हम देख पा रहे थे।
                       थोड़ा ऊपर चढ़ने पर हमें एक झोपड़ी नज़र आई,  जिसमें आग जल रही थी और हम उस झोपड़ी में शिव के जयकारे संग दाखिल हुए तो देखा, कि एक साधु और एक अंग्रेज युवक व युवती आग सेक रहे थे......तथा एक अन्य युवक खाना बनाने में व्यस्त था। 
                      हमे झोपड़ी के अंदर दाखिल होते देख, वे साधु ऊँची व कड़क आवाज़ में बोले, "खीरगंगा आगे है आगे,  सीधे जाओ सीधे... वहीं रहने के लिए सराय बनी हुई हैं......!!" 
                      उन साधु के यह "उच्च" वचन सुन कर मैं प्रेम संग बोला कि, " महात्मा जी, रहने की तो कोई चिंता नहीं....हमे तो कैम्प लगाना है, जी।"        मेरे मुख से कैम्प लगाने की बात सुन कर वह साधु पागलों की तरह अट्टहास लगा-लगा कर हंसने लगा और बोला, "तू यहाँ हीरो बनने आया है, इस ठण्ड में तू कैम्प लगायेगा...जा चला जा यहाँ से, तुझे सुबह देखूगाँ कि तेरी कैम्प वाली हीरोगीरी चली के नही,  चल भाग जा,   बहुत आते हैं तेरे जैसे यहाँ हीरो बनने.....!!!!!!! "
                       उसके मुख से अपना अपमान होता सुन मेरा पारा भी सातवें आसमान पर पहुँचना स्वाभाविक था, पंजाबी जो ठहरा और अड़ गया उस कथित "भंगी बाबे " के सामने......परन्तु विशाल जी ने अपना संयम बनाये रखा और मुझे खींच कर झोपड़ी से बाहर ले आये और बोले, "होश से काम लो विकास......हम इस वक्त इंसानी सभ्यता से दूर जंगलों की वीरानी में अनजान लोगों के बीच हैं....! "

                                                        ..........(क्रमश:)
खीरगंगा के रास्ते पर जमी हुई फिसलनदार शीशा रुपी बर्फ...!

"पर्वतों ने क्या खूब किया हुआ है....अपना श्रृंगार, इस बर्फ से...!!"
यही बात मैने विशाल जी से यह चित्र खींचतें वक्त कही थी। 

अब तो खीरगंगा की राह पर बहुत ज्यादा बर्फ आनी प्रांरभ हो चुकी थी.. 

खीरगंगा के रास्ते का वह भाग,  जहाँ पहाड की ढलान पर लकड़ी के गट्ठर रख रास्ता बनाया गया था... यह कुछ मीटर का खतरनाक रास्ता,  तो मानों खत्म ही नही हो रहा था... और इस रास्ते के नीचे की ओर पार्वती नदी की प्रचण्ड धारा प्रवाहित हो रही थी।
खीरगंगा के रास्ते में इस शीशे सी कठोर बर्फ ने हमारे मनोबल को तोड़ने की बहुत कोशिश की...परन्तु हम टूटने वाले कहाँ थे।


खीरगंगा के इस जानलेवा रास्ते पर,  हमारी चलने की रफ्तार अब सिर्फ पांच कदम प्रति मिनट की रह गई।

लो भाई,  आखिर गिरते-पड़ते ये दो सिरफिरे.......... खीरगंगा के उस मोड़ पर पहुंच ही गए.....!!

( अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )

(1) " श्री खंड महादेव कैलाश की ओर " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(2) "पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(3) करेरी झील " मेरे पर्वतारोही बनने की कथा " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।

8 टिप्‍पणियां:

  1. बाबा की बात सुन आपके अड़ियल पन का नतीजा देखना है क्या आप टेंट में सोये ?

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  2. आपका लेख मुझे बारमबार खीर गंगा की ट्रैकिंग के लिये लालायित करने लगा है। आपने बहुत ही अच्छी तरह से लिखा है। बहुत अचछा। बहुत दिनों बाद एसा वर्णन पढ़ने को मिला है।
    स्वराज यादव।

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  3. सही कहा पहाड़ ह्र्दयविहीन होते हैं और कठोर भी।
    वहाँ हिम्मत, दूरदर्शिता, और अनुभव ही आपके सहायक होते हैं। लिखते रहें। यह कार्य ज्यादा कठिन और बोरियत वाला है परंतु बहुतों का मार्गदर्शन करता है।

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  4. बेहद धन्यवाद कुलवंत जी, आपने सही कहा जी कि लिखना कठिन, संयमता व बोरियत भरा कार्य होता है परन्तु इसमें आनंद तब आता है...जब मैं अपने दिमाग में दबी हुई यात्राओं की स्मृतियों को शब्दों में ढाल कर उसकी एक भव्य इमारत बना डालता हूँ जी।

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  5. बहुत सुन्दर यात्रा वर्णन!!!!

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