रविवार, 15 सितंबर 2019

भाग-6 "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से...!" (Manimahesh via kalah pass)

भाग-6 "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से....!"

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                                  "ॐ पर्वत "



                  17अगस्त 2014.....जेल-खड्ड पर बाबा सुरजीत जी द्वारा "न्यौण यात्रा" पर मणिमहेश पदयात्रियों के लिए लगाये गये एकमात्र लंगर पर बिताई वह सर्द रात हमने काट ली थी, थके होने के कारण रात कब गुज़र गई पता ही नहीं चला। उस लम्बे से तम्बू में सो कर उठ चुके अन्य पदयात्रियों के कारण हमारी आँख भी सुबह पाँच बजे खुल गई। तकरीबन सभी पदयात्री जेल-खड्ड से आगे की पदयात्रा प्रारंभ कर चुके थे।
                   हम दोनों भी चाय पीते-पीते बाबा सुरजीत जी के पास जा बैठते हैं और बातचीत का एक छोटा सा दौर चल पड़ता है।  बाबा जी हमें बताते हैं कि वह पिछले दस बरस से लगातार इसी जगह पर लंगर लगाते आ रहे हैं,  तो विशाल जी कहते हैं- "बाबा जी, मणिमहेश को जाते इस दुर्गम मार्ग पर आपका इस जगह पर होना ही,   पदयात्रियों और इस पदयात्रा के लिए वरदान है... पूरा दिन चढ़ाई चढ़-चढ़ कर थके हुए पदयात्री को यहाँ पहुँचने पर गर्मा-गर्म भोजन व रात रुकने की यदि जगह ना मिले, तो इस मार्ग से मणिमहेश पहुँचना असंभव सा जान पड़ता है... बाबा जी, आप हम थकान से टूट चुके पदयात्रियों में एक नव ऊर्जा का संचार कर उन्हें अगली सुबह नए जोश के साथ मणिमहेश की ओर भेजते हैं।"
                      बाबा जी यह बात सुन ज़रा सा मुस्कुराए और बोले- "मैं कौन हूँ करने वाला, वह करवाता है मैं करता हूँ...!"
                      मैंने अपना वो सवाल अब बाबा जी की तरफ दाग दिया जो कल से मेरे दिमाग पर हावी चल रहा था कि हड़सर वाला रास्ता क्यों इतना प्रचलित है, जबकि इस रास्ते पर इक्का-दुक्का लोग ही जाते हैं...?
                       यह सवाल सुन बाबा जी का चेहरा एकदम से कठोर हो गया और वे बोले- "यह सब भरमौर क्षेत्र के व्यापारियों और राजनीतिज्ञों के कारण है, वे उसी रास्ते को प्राथमिकता देते आ रहे हैं जबकि यह रास्ता उस रास्ते से सदियों पुराना है....परंतु राजनीति की भेंट चढ़ चुका है....!"
                        हमने बाबा जी को अपनी यथाशक्ति के अनुसार कुछ राशि भेंट की क्योंकि हम पंजाबियों में यह प्रथा है कि लंगर कभी भी मुफ़्त नहीं खाना चाहिए, वैसे तो लंगर का मतलब ही होता है "मुफ़्त भोजन"  परंतु लंगर खाने के पश्चात इस लंगर में कुछ-ना-कुछ अवश्य डाल देना चाहिए....वो इसलिए कि लंगर लगाने वाले प्रबंधक को सहायता व उत्साह मिले कि वह फिर से दोबारा लंगर लगा सके।
                       बाबा जी से विदा लेते हुए उन्होंने हमें रास्ते में खाने के लिए "छोले-भटूरे" बांध कर दे दिये और कहा कि इसको आप "सुंदरडली" जाकर खाना, आगे खूब चढ़ाई है तो भूख भी खूब लगेगी।
                      सुबह के 6बजने को थे, तम्बू से बाहर निकल बाबा जी ने हमें जेल-खड्ड के सामने दिख रहे दीवार नुमा सीधे खड़े पहाड़ की तरफ इशारा कर बताया कि बस इसके ऊपर है सुखडली.... और हमें जय शिव भोले के उद्घोष के साथ यात्रा पथ पर रवाना कर दिया।
     
                       हम पगडंडी किनारे पर सफेद रंग में रंगे पत्थरों की ओर बढ़ने लगते हैं, सारा रास्ता चट्टानी हो चुका था।  सामने दिख रहे पर्वत शिखर से, जिस पर हमें चढ़ना था..... अलग-अलग जगह से चार झरने फूट रहे थे। दिखने में ज़रा सी दूरी पर लगते झरने के पास पहुँचने  तक हमारा एक घंटा बीत गया।  प्रत्येक कदम हमें ऊँचाई दिलाता जा रहा था।  चढ़ते-चढ़ते हम अगले झरने के पार हुए तो वहीं रास्ते किनारे पड़े छोटे से बर्फ के टुकड़े को छूकर हम दोनों बहुत खुश हुए कि,  लो हमने बर्फ को भी छू लिया।
                       अब पगडंडी हमें पत्थरों से निकालकर पर्वत के उस हिस्से पर ले गई,  जहाँ बस हर तरफ रंग- बिरंगे फूल ही फूल थे.....यह अद्भुत दृश्य जीवन में पहली बार देखा था कि दूर से पत्थर दिखने वाले पर्वतराज भी फूल पालतें हैं....!
                       दूसरा घंटा भी बीता जा रहा था, सब स्थानीय लोग हमसे कब के आगे निकल चुके थे। हम दोनों नये पनपे पर्वतारोहियों को यह चढ़ाई हर कदम पर तोड़ रही थी। कुछ कदम चल कर हम अपनी फूली हुई सांस को काबू में लाते....दो-चार घूँट पानी के पीते और रास्ते किनारे पत्थरों पर बैठ जाते।  उस जगह बैठ हम दम ही ले रहे थे कि पीछे से एक साधु चढ़ते हुए चुपचाप से हमारे पास से गुज़र गए, मैने जब उनके नंगे पैर देख हैरान हो उन्हें पीछे से आवाज़ दी..."बाबा जी, कमाल है आप इस पथरीले रास्ते पर नंगे पैर क्यों जा रहे हो.....?"   परंतु उन बाबा जी ने पलट कर भी नहीं देखा, बस अपनी धुन में मस्त ऊपर की ओर बढ़ गये। तब विशाल जी बोले- "देखा विकास जी, इसे कहते हैं लगन लगी तेरे संग लगन लगी...!"
                       अब रास्ता खतरनाक रुप अख्तियार कर चुका था,  उस ऊँचाई से नीचे देखने पर चक्कर आने लगे तो हम दोनों ने चलते हुए नीचे देखना ही छोड़ दिया... बस पगडंडी पर पहाड़ की तरफ चिपक कर अपने कदम आगे बढ़ाते जा रहे थे।  रास्ते में झरने के पास एक जगह आई  जहाँ पर मंजे (पलंग) और बिस्तरों के लघु रूप काफी मात्रा में यहाँ-वहाँ पड़े थे,  मैंने विशाल जी से कहा- "लगता है यह सब स्थानीय मणिमहेश यात्रियों द्वारा चढ़ाए गये हैं... जरूर इस प्रथा के पीछे कोई राज़ होगा।" परंतु उस राज़ को बताने वाला वहाँ कोई नहीं था, सोचा यदि कोई स्थानीय अभी रास्ते में मिलेगा तो उससे पूछेंगें। परन्तु चंद क्षणों बाद ही मैं वो बात भूल गया, समुद्र तट से बढ़ रही ऊँचाई मेरी स्मरणशक्ति को क्षीण कर रही थी।
                      कलाह पर्वत पर चढ़ते-चढ़ते तीसरा घंटा भी बीत गया था,  चौथे घंटे को भी शायद उस पथरीली पगडंडी से मुहब्बत हो गई थी। आखिर सवा दस बजे हम जब उस आखिरी चट्टान पर जा खड़े हुए,  जिसे हम सुबह से कलाह पर्वत की चोटी मान चल रहे थे.... तो आगे देख हमारी टांगें थरथरा उठी कि आगे फिर से एक पहाड़ है और पहाड़ भी ऐसा जैसे किसी दुर्ग की बहुत ऊँची दीवार हो। सच बोलूँ तो उस वक्त एक जबरदस्त झटका लगा हम दोनों को यह देख कर...!!
                       खैर, कुछ क्षणों बाद आँखों ने इधर-उधर झांका तो पाया कि एक बहुत खुली समतल सी जगह जिस के दांई ओर बर्फ के ग्लेशियरों को थामे पर्वत खड़े थे, ये सब कुज्जा वज़ीर पर्वत के साथ ही थे। उस जगह पहुँचकर हमें कुज्जा वज़ीर पर्वत शिखर का टेढ़ा रूप बिल्कुल स्पष्ट नजर आ रहा था। हम मंत्रमुग्ध से अब समतल हो चुकी पगडंडी पर चले जा रहे थे।
                        हाँ, यह ही "सुखडली" लगता है.... हम दोनों साढूँओं ने अपनी राय पक्की कर ली थी। हमारे पैरों के नीचे आ रहा घास का मैदान गद्देदार हो चुका था, जिस पर चलते हुए हमें आभास हो चला था कि इस घास के नीचे भी पानी है। धूप अब अच्छी लगने लगी थी, सामने दिख रहे कुज्जा पर्वत व अन्य पर्वतों की गोद में पड़े बर्फ के ग्लेशियर ऐसे जान पड़ते थे कि जैसे किसी माँ की गोद में उसका शिशु सो रहा हो।
                        तभी, मेरा ध्यान कुज्जा पर्वत के साथ वाली चोटी पर ऐसा क्या गया कि मैं जड़ सा हो गया, मुझे प्रकृति देवी की इस कलाकारी पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने विशाल जी का ध्यान भी उस तरफ दिलाया तो उनकी भी  हालत मेरे जैसी हो गई। एक क्षण के लिए मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि  "भगवान है"  पर दूसरे क्षण को फिर से नास्तिकता ने काबू कर लिया।  सामने दिख रहे उस पहाड़ पर बर्फ से  "ॐ"  की आकृति बनी हुई थी। कई सवाल इस  दिमाग ने पैदा कर लिये, परंतु वहाँ उनके उत्तर देने वाला कोई नहीं था।
                        पगडंडी बता रहे सफेद रंग से पुते पत्थरों ने हमें दूर से ही वो दिशा दिखा दी थी, जिस ओर हमें आगे चढ़ना था।
                        और,  वह चढ़ाई देख एक बार तो हम दोनों के पसीने छूटने लगे कि कलाह पर्वत एक सीधी दीवार सा तन कर हम नौसिखियों पर जैसे हंस रहा हो। उस दीवार नुमा पर्वत शिखर की ऊँचाई ऐसी कि मानो आप "हैट" पहने हुए नीचे खड़े हो, शिखर की ओर देखतें हैं...तो हैट आपके सिर से खुद-ब-खुद उतरकर आपकी पीठ पीछे गिर जाए। डेढ़-दो सौ मंजिले ऊँची इमारत जितना ऊँचा कलाह जोत देख,  आप खुद ही हमारी मनोदशा समझ ले कि कैसे इतनी ऊँची बहुमंजिला इमारत पर लिफ्ट की बजाय सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचना हो। 
                       खैर, हम दोनों साढूँ सुखडली की घासणी(बुग्याल) में एक जगह घास पर बैठ जाते हैं, कभी सुखडली ग्लेशियर, तो कभी पर्वत पर बने ॐ, तो कभी कुज्जा वज़ीर पर्वत पर हमारी आँखों की पुतलियाँ नाचती.... पर जैसे ही कलाह जोत की दीवार पर नाचती हुई सी जाती, तो नाचना भूल जाती....!!!
                        तभी विशाल जी ने याद दिलाया कि हमारे पास सुरजीत बाबा जी द्वारा दिये गए छोले-भटूरे भी हैं, मुझे सुबह से ही भूख नहीं महसूस हुई। मुझे खुद नहीं समझ आ रहा था कि इतनी मेहनत-मशक्कत करने के बाद मुझे भूख क्यों नहीं लग रही थी (यह बात बाद में समझ आई कि समुद्र तट से बढ़ चुकी बेतहाशा ऊँचाई ने मेरी भूख मार दी थी) मेरा सिर भी कुछ-कुछ भारी सा होने लगा था, ठीक यह ही हालात विशाल जी के भी हो रहे थे।   
                         छोले-भटूरे तो हम दोनों ने अपने मध्य सजा लिये थे, पर मैं छोले-भटूरे का सदैव भुख्कड़ भटूरे गिन कर नहीं, थाली में चिन कर खाता हूँ। परन्तु तब बड़ी मुश्किल से एक भटूरा भी पूरा ना खा पाया... जबकि बाबा जी हमें आठ-दस भटूरे रास्ते में खाने के लिये दिये थे। खाते-खाते मतली सी हो रही थी,  सो भूटरों के साथ दिये गए गल-गल के अचार की फाड़ी मुँह में रख चूसने लगा और विशाल जी भी कुछ ज्यादा ना खा पाये।
                        11बजने को हुए, एक साधु अकेले ही जेल-खड्ड की तरफ से चलते हुए हमारे पास से गुज़रे तो हम दोनों भी कलाह पर्वत की आखिरी चढ़ाई चढ़ने के उनके पीछे-पीछे उस ग्लेशियर पर चलने लगे जिसके पार सफेदी से रंगा रास्ता नज़र आ रहा था।
                        मेरे कैमरे की बैटरी भी चल-चल कर अब मरणासन्न हो चली थी, तो उस डिजिटल कैमरे को 36फोटो वाली रील का कैमरा मान कमर-पेटी पर बंधे कैमरा-दान में डाल लेता हूँ और अपने-आप समझाता हूँ कि जहाँ बहुत ही जरूरी होगा तब ही फोटो खींचूगाँ अब।
                       दोस्तों, वो 36फोटो वाली रील के कैमरों का भी क्या जमाना था।  पहले तो युवावस्था में हमारी जेबें खाली, मन में असंख्य अरमान व दिमाग में ढेरों सपने लेकर एक-आध कैमरा रील खरीदनी भी बड़ी मुश्किल सी लगती थी। उस रील को भी कैमरे में ऐसे लोड करता कि 36फोटो की बजाय 39फोटो खिंच जाएँ। एक-एक कर अपनी ही कोई जरूरी फोटो खींचते हुए रील को आगे ऐसे बढ़ाना, जैसे कोई कीमती चीज़ हाथों से जा रही हो। पूरी रील खींचने के बाद उसे कैमरे में वापस लपेटना और सबसे मुश्किल होता था उस रील को धुलवाना। मुश्किल ऐसे, रील खरीदने की कीमत से चार गुणा पैसे रील को धुलवाने में लगते थे और सबसे मजेदार क्षण वही साबित होता था....जब फोटूओं व नेगेटिव से भरा QSS लैब का लिफ़ाफा हाथों में आता था। इतनी उत्तेजना भरी उत्सुकता के साथ हमने कभी अपने जन्मदिन के तोहफ़े ना खुले होंगे, जितने उत्साह से हम लैब से धुल कर आई फोटूओं के लिफाफे खोलते थे। दोस्तों,  2004 में मैंने अपनी आठ दिवसीय मनाली यात्रा के दौरान दो रीलें यानि 72फोटो खींची थी, जब आज अपने डिजिटल कैमरे से यात्रा के दौरान हर रोज दो-तीन सौ फोटो खींच डालता हूँ।
                      हां, एक और बात याद आई.....उस समय जब किसी अंग्रेज सैलानी को फूलों, तितलियों या पहाड़ों की फोटो खींचते देखना, तो हंसते हुए आपस में बात करना- "अजीब पागल बंदा है, खुद की फोटो छोड़ ऐसे फालतू में अपनी फोटो खराब किये जा रहा है...!!"
और, अब हम सब भी पागल हो गए हैं, खुद की फोटो खींचने की बजाय प्रकृति की फोटो ज्यादा खींचने लगे हैं, है ना दोस्तों...!!!
                                       (क्रमश:)


जेल-खड्ड के इस तम्बू में हमनें वो सर्द रात काट ली थी।

जेल-खड्ड पर लगा बाबा सुरजीत जी का लंगर।

सुबह तरोताज़ा से विशाल जी।

लंगर आयोजक "बाबा सुरजीत जी" के साथ।

सुबह 6बजे हमने जेल-खड्ड से आगे की ओर प्रस्थान किया।



पदयात्रा के पहले पंद्रह मिनट में ही, मैं दम लेने बैठ जाता हूँ। 

जेल-खड्ड से खड़ी चढ़ाई....और नीचे दिख रहा जेल-खड्ड लंगर।





कलाह पर्वत शिखर से झरने फूट रहे थे।

आखिर, किस सोच में मगन पथिक...!!!

दिखने में ज़रा सी दूरी पर लगते झरने के पास पहुँचने तक हमारा एक घंटा बीत गया।

रास्ते में आया पहला झरना।

बर्फ के ग्लेशियर अब ज्यादा दूर नहीं से हमसे।

राह में मिली बर्फ को प्रथम स्पर्श।

लो, मैं भी आनंदित हो लूँ ज़रा।

  अब पगडंडी हमें पत्थरों से निकालकर पर्वत के उस हिस्से पर ले गई,  जहाँ बस हर तरफ रंग- बिरंगे फूल ही फूल थे.....यह अद्भुत दृश्य जीवन में पहली बार देखा था कि दूर से पत्थर दिखने वाले पर्वतराज भी फूल पालतें हैं....!

 उस जगह बैठ हम दम ही ले रहे थे कि पीछे से एक साधु चढ़ते हुए चुपचाप से हमारे पास से गुज़र गए, मैने जब उनके नंगे पैर देख हैरान हो उन्हें पीछे से आवाज़ दी..."बाबा जी, कमाल है आप इस पथरीले रास्ते पर नंगे पैर क्यों जा रहे हो.....?"   परंतु उन बाबा जी ने पलट कर भी नहीं देखा, बस अपनी धुन में मस्त ऊपर की ओर बढ़ गये।

तब विशाल जी बोले- "देखा विकास जी, इसे कहते हैं लगन लगी तेरे संग लगन लगी...!"

रास्ते में झरने के पास एक जगह आई  जहाँ पर मंजे (पलंग) और बिस्तरों के लघु रूप काफी मात्रा में यहाँ-वहाँ पड़े थे,  मैंने विशाल जी से कहा- "लगता है यह सब स्थानीय मणिमहेश यात्रियों द्वारा चढ़ाए गये हैं... जरूर इस प्रथा के पीछे कोई राज़ होगा।" 

शिखर की ओर।


आखिर सवा दस बजे हम जब उस आखिरी चट्टान पर जा खड़े हुए,  जिसे हम सुबह से कलाह पर्वत की चोटी मान चल रहे थे.... तो आगे देख हमारी टांगें थरथरा उठी कि आगे फिर से एक पहाड़ है। सच बोलूँ तो उस वक्त एक जबरदस्त झटका लगा हम दोनों को यह देख कर...!!

आँखों ने इधर-उधर झांका तो पाया कि एक बहुत खुली समतल सी जगह जिस के दांई ओर बर्फ के ग्लेशियरों को थामे पर्वत खड़े थे, ये सब कुज्जा वज़ीर पर्वत के साथ ही थे। उस जगह पहुँचकर हमें कुज्जा वज़ीर पर्वत शिखर का टेढ़ा रूप बिल्कुल स्पष्ट नजर आ रहा था।

 तभी, मेरा ध्यान कुज्जा पर्वत के साथ वाली चोटी पर ऐसा क्या गया कि मैं जड़ सा हो गया, मुझे प्रकृति देवी की इस कलाकारी पर विश्वास नहीं हुआ। एक क्षण के लिए मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि  "भगवान है"  पर दूसरे क्षण को फिर से नास्तिकता ने काबू कर लिया।  सामने दिख रहे उस पहाड़ पर बर्फ से  "ॐ"  की आकृति बनी हुई थी।

   हाँ, यह ही "सुखडली" लगता है.... हम दोनों साढूँओं ने अपनी राय पक्की कर ली थी। हमारे पैरों के नीचे आ रहा घास का मैदान गद्देदार हो चुका था, जिस पर चलते हुए हमें आभास हो चला था कि इस घास के नीचे भी पानी है। 

बेहद खूबसूरत स्थान " सुखडली"

 सुखडली से मेरी यादगारी।

सामने दिख रहे कुज्जा पर्वत व अन्य पर्वतों की गोद में पड़े बर्फ के ग्लेशियर ऐसे जान पड़ते थे कि जैसे किसी माँ की गोद में उसका शिशु सो रहा हो। 

छोले-भटूरे तो हम दोनों ने अपने मध्य सजा लिये थे, पर मैं छोले-भटूरे का सदैव भुख्कड़ भटूरे गिन कर नहीं, थाली में चिन कर खाता हूँ। परन्तु तब बड़ी मुश्किल से एक भटूरा भी पूरा ना खा पाया... जबकि बाबा जी हमें आठ-दस भटूरे रास्ते में खाने के लिये दिये थे।

  11बजने को हुए, एक साधु अकेले ही जेल-खड्ड की तरफ से चलते हुए हमारे पास से गुज़रे तो हम दोनों भी कलाह पर्वत की आखिरी चढ़ाई चढ़ने के उनके पीछे-पीछे उस ग्लेशियर पर चलने लगे जिसके पार सफेदी से रंगा रास्ता नज़र आ रहा था।
               (अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें)
     

मेरी साहसिक यात्राओं की धारावाहिक चित्रकथाएँ
(१) " श्री खंड महादेव की ओर " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने की यहाँ स्पर्श करें।
(२) " पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(३) " चलो, चलते हैं सर्दियों में खीरगंगा" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(४) करेरी झील "मेरे पर्वतारोही बनने की कथा " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

भाग-5 "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से....!" (Manimahesh via kalah pass)

भाग-5 "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से....!"

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                              "रब्ब दी पींग" 

           16अगस्त 2014.....सेबों के बगीचों से भरे "कलाह गाँव" से पगडंडी हमें चढ़ाई चढ़ा रही थी। गाँव से ज़रा सा ही ऊपर हुए तो पगडंडी के बीच एक पेड़ से गिरे हुए पके फल बिखरे पड़े थे। देखने में वह फल बहुत खूबसूरत जान पड़ते थे। मैंने डरते-डरते जमीन से दो फल उठाये और विशाल जी की तरफ पेश करता हुआ बोला- "लगता है यह फल खाने योग्य है।"  विशाल जी ने भी चलते हुए एक फल उठा चखा और दूसरा फल मैंने खा लिया।
                      वह फल "खुरमानी" था..... और यह था खुरमानी से हमारा पहला साक्षात्कार, दोस्तों।
                     अब जब भी गर्मियों की छुट्टियों में, मैं सपरिवार हिमाचल का रुख करता हूँ तो शिमला के आगे किन्नौर क्षेत्र में सड़क किनारे लगे ढेरों खुरमानी के पेड़ों पर पत्ते कम तो खुरमानियाँ ज्यादा लगी होती हैं,  फिर क्या मैं खूब सारी मुफ्त की खुरमानियाँ इकट्ठी कर शौक से खाता हूँ और परिवार वालों को भी खिलाता हूँ। वैसे वहाँ के स्थानीय लोग इन खुरमानियों को इकट्ठा कर इसे धूप में सुखाकर इसके बीजों का तेल निकालते हैं, जिसे खाने में प्रयोग किया जाता है।
                     कलाह गाँव से करीब-करीब एक घंटा हो चला था हमें चले हुए,  रास्ता तो बस चढ़ता ही जा रहा था। नए पनपे मुझ पर्वतारोही के मन में यह ख्याल बार-बार आ रहा था कि 'क्यों और क्या पंगा' ले लिया तूने विकास, क्यों खामखा ज़िद कर बैठा... ले अब भुगत, चढ़ चढ़ाईयां अब, चढ़ चढ़ाईयां...!!!
                     पर मैंने अपनी परिस्थिति विशाल जी के समक्ष उजागर नहीं होने दी और विशाल जी ने भी अपने शारीरिक व्यथा मेरे सामने प्रकट नहीं होने दी,  भाई हम दोनों नए पनपे पर्वतारोही जो ठहरे... कौन किसी से कम कैसे..!!!!
                    रास्ते किनारे अब एक गुफा आई, जिसमें जाने के लिए एक लोहे की सीढ़ि भी लगी हुई थी। उस गुफा में "पौणाहारी बाबा बालक नाथ"  का स्थान बनाया गया है,  परंतु हम उस गुफा को बाहर से ही देख आगे बढ़ते हुए.... पत्थर पर पत्थर टिका कर बनाई हुई सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे कि पीछे से तीन नवयुवक धड़ाधड़ उन सीधी खड़ी सीढ़ियों को चढ़ते हुए हमारे पास से गुज़रने लगे। देखने और उनके चलने की रफ्तार से पता चल चुका था कि वे स्थानीय हैं, पूछने पर उन सब ने अपना गाँव होली के आसपास के किसी गाँव को बताया। शिव भोले के जयकारे के साथ वे हम से आगे निकल गए और हम दोनों का ऐसा हाल था जैसे चींटी चली पहाड़ चढ़ने...! 
                       त्यारी से पदयात्रा शुरू करने के बाद हमने किसी से भी रास्ता नहीं पूछा था क्योंकि रास्ता पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ रही थी। रास्ता खुद हमें रास्ता दिखा रहा था, मतलब कुछ-कुछ दूरी पर रास्ते-किनारे के पत्थरों को चूने से रंग कर सफेद किया हुआ था। यह सफेदी हर साल जेल-खड्ड में लंगर लगाने वाले बाबा जी लगाते हैं और रास्ते की देखभाल जंगलात विभाग के ज़िम्मे है।
                      मैं बार-बार पीछे मुड़कर नीचे रह गए कलाह गाँव को अपने से दूर जाते देख लेता।  गहरी हो चुकी घाटी में जेल-खड्ड नाले के बहने की आवाज़ ही अब केवल सुनाई देने लगी थी। हां, सामने के पहाड़ पर एक जलप्रपात बहुत ऊँचाई से नीचे कहाँ गिर रहा था, यह देखने के लिए तो घाटी में उतरना पड़ेगा....परंतु यहाँ तो यह चढ़ाई ही खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी।
                     एक मोड़ मुड़े तो आगे का दृश्य देख हमारी आँखें चंद क्षणों के लिए झपकना ही भूल गई।

               " क्यों, क्या देख लिया इन आँखों ने....?"
 इन आँखों ने वो नज़ारा जीवन में पहली बार और अब तक भी आखिरी बार ही देखा है कि घाटी के बिल्कुल बीच एक पर्वत से दूसरे पर्वत तक "इंद्रधनुष" का सेतु बना हुआ है।  मेरे मुख से अकस्मात निकला- "वाह री क़ुदरत,  हम मनुष्यों की बस्तियों से दूर तू इन पहाड़ों में खेल रही है..... मुझे भी अपने संग खेला ले ना...!!"
                   विशाल जी बोले- "हां विकास जी, मैं भी खेलना चाहता हूँ इस क़ुदरत में, क़ुदरत के साथ...!!!"
 अब हम दोनों अट्टहास लगा हंस रहे हैं और फिर मैं विशाल जी को अपनी बचपन की याद सुनाता हूँ कि जब भी बरसात के महीने में बारिश होने के बाद शाम को धूप निकल आती, तो मैं भाग कर अपने कोठे (छत) पर चढ़ जाता,  "रब्ब दी पींग"  (इंद्रधनुष) देखने के लिए।
                     कलाह गाँव से चलते हुए हमें एक घंटा हो चुका था। हम से आगे निकल कर गए वो तीन युवक रास्ते किनारे आई वर्षा-शालिका में बैठे आराम कर रहे थे कि हम भी वहाँ जा पहुँचे। चंद मिनट वहीं बैठ अब हम सब इकट्ठे चल पड़े पगडंडी पर। वो तीनों डोगरी भाषा में शिव-भोले के भजन-भेटें गाते हुए चढ़ रहे थे और हम दोनों साढूँओं की रक्सैकों पर बंधी घंटियाँ हिल-हिल कर उनके भजनों के साथ संगीत दे रही थी।  परंतु हम दोनों उन तीनों का ज्यादा दूर तक पीछा नहीं कर पाए, धीरे-धीरे हमारा और उनके बीच का फासला चौड़ा होता जा रहा था। फिर से हम दोनों ही उस वीरान पगडंडी पर अपनी घंटियां बजाते हुए बढ़ते जा रहे थे।
                     हम अब उस ऊँचाई पर जा पहुँचे थे, जहाँ से सामने "कुज्जा पर्वत" पूर्णतः दिखाई पड़ने लगा था। सामने दिख रही नंगे पर्वतों की दीवार पर पड़ी कुछ बर्फ को देख मन मचल रहा था कि क्या हम इस बर्फ को छूँ पाएंगे।
                     शाम के पाँच बज रहे थे, रास्ते में एक स्थानीय व्यक्ति मिला जिसने अपनी पीठ पर सूखी लकड़ियों से भरी एक बोरी बांध रखी थी। वह व्यक्ति हमारी खुशी देख हैरान हो रहा था....अरे भाई उस वीरान पगडंडी पर उन जनाब का मिलना हमारे लिए खुशी की ही तो बात हो सकती थी, है कि नहीं।
                      दो-चार बातें और रास्ते के बारे में पूछ कर हम आगे बढ़ लिये। उस व्यक्ति के बताये अनुसार कोई बीस मिनट चलने के बाद एक ऊँचे से सीधे खड़े दीवार नुमा पहाड़ के नीचे से पगडंडी हमें आगे ले जा रही थी। उस व्यक्ति ने उस जगह को "बखोली कुड" नाम से सम्बोधित किया था। इस दीवार नुमा पर्वत के नीचे बहुत बड़ा कुड यानि प्राकृतिक वर्षा-शालिका बनी हुई थी, जिसके नीचे भेड़-बकरी वाले रात में अपना डेरा जमाते होगें। उस राहगीर ने हमें यह भी कहा था कि जेल-खड्ड से पहले "धरम्बड गोठ"  नामक भी जगह आयेगी, वहाँ जंगलात कर्मचारियों द्वारा भी मणिमहेश यात्रियों के लिए छोटा सा लंगर लगाया गया है।
                       चलते-चढ़ते एक घंटा और बीत गया, कभी पगडंडी इतने घने जंगल से हमें ले जाती कि जैसे लगता एक दम से अंधेरा हो गया हो...परन्तु फिर उस जंगल से बाहर निकाल हमें सुख की साँस दे जाती कि अभी तो सूर्यास्त भी नहीं हुआ है।
                       हमने फिर उन तीनों युवकों को जा घेरा, जो हमसे बहुत आगे जा निकले थे। अब हमें उनकी तेज़ रफ्तार का राज मालूम हो चुका था.... वो तीनों ही "भांग की बूटी"  को अपने हाथों से मलते हुए 'बम-बोल' के जयकारे लगा रहे थे। उन्हें यह कृत्य करते देख मन एकदम से परेशान हो उठा कि नशा हमारी युवा पीढ़ी को गर्क में ले जा रहा है। अब हम उनके पास ठहरते नहीं है, आगे बढ़ जाते हैं।
                       दस मिनट चलते रहने के बाद घाटी ने एक खुला सा रूप ले लिया, जिसमें बहुत बड़ी "घासणी" (बुग्याल) थी। उस घासणी में पगडंडी के किनारे एक पक्की शैड़ देख हमने अंदाजा लगा लिया कि "घरम्बड गोठ"  आ गया है। पीछे मुड़कर देखा तो दूर कलाह गाँव अब भी नज़र आ रहा था।
                        हम दोनों ही बुरी तरह से थक चुके थे। जैसे ही जंगलात विभाग द्वारा बनाई गई पक्की शैड के पास पहुँचे तो हम दोनों एकदम से उस शैड के अंदर जाकर लेट गए। परंतु मुझे लेटते ही भयंकर खांसी-हूत्थूँ छिड़ गया, जिससे साँस लेना भी दूभर हो गया। खांस-खांस कर मेरी आँखों से भी पानी निकल आया। दोस्तों, इस घटना के बाद मैं ट्रैकिंग के दौरान फिर कभी भी नहीं लेटा, यहाँ तक कि बैठता भी नहीं हूँ.....बस खड़े-खड़े या ट्रैकिंग स्टिक के सहारे थोड़ा झुक कर तेज़ चल रही ह्रदयगति और चढ़े हुये सांस को धीरे-धीरे संभालता हूँ।
                        अब हम दोनों साढूँओं ने अपना दुख एक-दूसरे से छिपाना बंद कर दिया था, क्योंकि हम दोनों ही अब एक समान दुखी जो थे....जेल-खड्ड अभी भी दूर है।  सात घंटे से हम नए पनपे पर्वतारोही लगातार चढ़ाई चढ़ते आ रहे थे, सो जंगलात विभाग में गार्ड के पद पर तैनात "राजकुमार जी" (जो वहाँ धरम्बड गोठ में हर साल न्यौण यात्रा के समय मणिमहेश पदयात्रियों के लिए छोटा सा लंगर लगाते हैं) से कहते हैं कि हम आज रात आपके पास ही रुक जाते हैं।  तब राजकुमार जी ने विनम्रता के साथ हमें जवाब दिया- "नहीं, हम लोगों के पास आप लोगों को रात रुकवाने का इंतजाम नहीं है...जेल-खड्ड पहुँचने में अब आपको ज्यादा से ज्यादा दो घंटे और लग सकते हैं, वहाँ लंगर आयोजक 'बाबा सुरजीत' जिनका आश्रम होली में है,  ने सब इंतजाम कर रखे हैं।"
                         खैर हमें राजकुमार जी और उनके एक और सहयोगी ने चाय के साथ ब्रेड परोसी। मेरे प्रश्न कभी भी थम नहीं सकते,  सो राजकुमार जी से पूछ बैठा कि वह सामने टेढ़ा पर्वत शिखर जो सुबह से हमारे आकर्षण का केंद्र बना हुआ है, इसका क्या नाम है...?
                     "कुज्जा वज़ीर महाराज"  यह भगवान शिव का भांजा है....!
                     "क्या कहा आपने, भगवान शिव का भांजा वह कैसे.....?"
                      तब राजकुमार जी ने हमें इस टेढ़े पर्वत शिखर की दंतकथा सुनानी आरंभ की और हमारे पीछे दिख रही धौलाधार हिमालय की पर्वत श्रृंखला की ओर इशारा कर बोले कि वो सामने पहाड़ पर एक झील है, जिसे "क्यू डल" या "नाग डल" कहा जाता है... हमारे बुजुर्ग हमें बताते हैं कि भोलेनाथ शिव हर रोज मुँह-अंधेरे उस डल पर स्नान करने आते थे, तब जब आसपास के गाँवों के सब लोग सो रहे हो। परंतु उस बार आधी रात के समय.... रास्ते के एक गाँव में एक बुढ़िया को नींद नहीं आ रही थी, सो वह अपनी झोपड़ी से बाहर बैठ दीया जलाकर चरखा कातने लगी।
                         शिव जी के कानों में चरखा चलने से होने वाली "धूँ-धूँ" की आवाज़ जैसे ही पड़ी,  शिव चौंकने हो गए कि क्या मैं आज देरी से आया हूँ नहाने, जो लोग जाग गए....ऐसे तो लोग मुझे देख लेंगे, मुझे परेशान करेंगे, मेरा ठिकाना जानकर मेरी तपस्या में विघ्न डालेंगे... मुझे अपना ठिकाना बदल लेना चाहिए।
                       वे अपने वज़ीर जो उनका भांजा भी है "कुज्जा वज़ीर"  को आदेश देते हैं कि जाओ मेरे लिए कोई ऐसी नई जगह खोजो,  जहाँ कोई भी मुझे आसानी से प्राप्त ना कर पाए... मेरी शांति और तपस्या भंग ना कर पाए। कुज्जा वज़ीर ढूँढते-ढूँढते इसी कलाह घाटी में आ पहुँचे और उन्होंने पाया कि इस जगह पर कोई भी आदमी नहीं है व इस ऊँचे पर्वत से अच्छी जगह तो कोई और हो ही नहीं सकती। सो इस पर्वत को अपने मामा के लिए तैयार करने लगे। परंतु इस पर्वत क्षेत्र की सुंदरता देख कुज्जा वज़ीर का मन बेईमान हो गया और इस पर्वत पर उसने अपना निवास स्थान बना लिया। उधर भोलेनाथ अपने भांजे का इंतजार करने के बाद, आखिर उसे ढूँढते-ढूँढते यहाँ पहुँचे और सब सच्चाई देख उन्होंने गुस्से से पर्वत को लात मार टेढ़ा कर दिया। फिर यहीं से आगे निकल मणिमहेश कैलाश पर अपना डेरा जा जमाया। देखने में यह कुज्जा वज़ीर पर्वत मणिमहेश कैलाश पर्वत से ऊँचा जान पड़ता है, परंतु हमारे बुजुर्ग कहते हैं कि नाप में यह मणिमहेश कैलाश से दस रत्ती बराबर छोटा है।
                        विशाल जी अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति के इंसान हैं, उनके चेहरे पर यह कहानी सुनते हुए आये श्रद्धा के भाव को मैं पढ़ रहा था। जबकि मैं सिरे का नास्तिक हूँ, परंतु यह कथा सुन आनंद मुझे भी बहुत आया। मेरा दिमाग चाहे अंदर ही अंदर कितने ही तर्क-विचार देता रहे, परंतु मेरा मन इन पुरातन कथाओं को सुन हर्षित हो उठता है दोस्तों।
                      शाम के 7बजने को थे और फिर उन तीनों स्थानीय युवकों के साथ हम धरम्बड गोठ से आगे चल पड़े। थोड़े समय के बाद ही सूर्यदेव हमें छोड़कर धौलाधार पर्वत माला के पीछे जा छिपे और वे तीनों स्थानीय युवक सूटे के सरूर में हम से दुगनी चौड़ी "लांगे पट" (चौड़े-चौड़े कदम ले) पगडंडी से ओझल हो गए।
                        ऊपर से हो रहा अंधेरा, वीराने में गुज़र रही पगडंडी,  झींगरों का शोर, जेल-खड्ड नाले की गर्जना और हम दोनों नौसिखिये।
                        एक अजीब सा वहम, जेल-खड्ड तक पहुँचने का दबाव, बैटरी की रोशनी की परिधि से बाहर खड़ी काली हो चुकी झाड़ियाँ और सबसे बड़ा डर "भालू" का...... हमारा शरीर यह देख कर आपातकालीन प्रणाली में आ, अपने-आप को थका होने के बावजूद भी चौकन्ना कर लेता है...शरीर में एक रहस्यमय सी ऊर्जा जाग उठी। हम दोनों साढूँ रह-रहकर जोर-जोर से शिव- भोले के जयकारे लगाते जा रहे थे।
                         साढे आठ बज चुके थे, परंतु दूर-दूर तक फैला स्याह अंधेरा जता रहा था कि अभी भी जेल-खड्ड दूर है। रास्ता अब पत्थरों-चट्टानों का यार हो चला था।  पसीने से तरबतर हम दोनों बगैर कहीं भी रुके पगडंडी पर चलते जा रहे थे। अब एक-एक मिनट और वह रास्ता ऐसे लगने लगा था जैसे कट ही ना रहा हो।
 तभी सामने से पगडंडी पर एक प्रकाश गोला हमारी ओर आता क्या दिखाई दिया,  हम दोनों की बांछें खिल गई। चंद क्षणों में उस प्रकाश गोले का पीछा कर रहे दो युवकों ने हमारे पास आते ही शिव-भोले का जयकारा लगा पूछा- "क्या आप ही दिल्ली वाले हो...?"
                        जी हां का जवाब सुनते ही वे बोले-"आपसे पहले पहुँचे उन तीनों स्थानीय युवकों से बाबा सुरजीत जी ने पूछा कि पीछे और कितने बंदे आ रहे हैं, तब उन्होंने आपके बारे में बताया तो बाबा जी ने उन्हें बहुत फटकार लगाई कि रात का समय हो गया है और तुम लोग उन दोनों अनजान बाहरी व्यक्तियों को ऐसे ही जंगल में क्यों छोड़ आए, तुम लोगों को उन्हें अपने साथ ही लाना चाहिए था....तब बाबाजी ने हम दोनों को आप लोगों को लेने के लिए भेजा है।"
                         यह बात सुन हमारा खून आधा सेर और बढ़ गया, हमारी गर्दन व छाती शाम से तन गई कि हमें भी कोई लेने आया है।  आखिर आधा घंटा चलने के बाद हमें एक सीधे खड़े पहाड़ के नीचे जलती आग की कुछ रोशनी दिखाई दी और वहाँ पहुँचते ही देखा कि तरपालों से बनाये हुए तीन-चार तम्बू और उनके बाहर खड़े आठ-दस आदमी हमारी राह देख रहे थे। उनके पास पहुँचते ही बाबा सुरजीत जी ने हमें ले जाकर तम्बू के अंदर बिठाकर पानी पिलाया।
                          त्यारी गाँव में हम से लिफ्ट लेने वाले फार्मासिस्ट व उनका चपरासी भी उसी तम्बू में पहले से बैठे थे। हमें देख रहे वे फार्मासिस्ट बोले- "अच्छा तो आप लोग पहुँच ही गए,  मैंने तो सोचा था कि आप लोग त्यारी से ही वापस हो गए होंगे।"
                         मैंने हंसते हुए उनसे कहा-"सच बोलूँ तो आप को ही देख कर मैंने ज़िद पकड़ ली थी कि मुझे मणिमहेश जाना है बस।"
                         बातें करते-करते ही हमारे आगे लंगर परोस दिया गया, काबुली छोले-आलू की सब्जी, चावल व रोटी..... आनंद आ गया, तब मैने खाना खाते वक्त विशाल जी से पंजाबी की एक मशहूर कहावत बोली- "टिडे पाईआं रोटिआं, सबणा गल्लां खोटिआं...!"    और हम दोनों साढूँ भाई मंद-मंद मुस्कान हंसने लगते हैं।
                        समय रात के दस बजने को हो रहे थे, बाबा सुरजीत जी बाहर से तम्बू में आ कर बोले- "अच्छा तो, आप दोनों मेरी जगह पर ही सो जाना....क्योंकि आपसे पहले आए लोग सारे कम्बल नीचे बिछा कर उस पर सो चुके हैं, जिनमें कुछ महिलाएँ भी है...अब उन सब को कैसे जगा कर उनके नीचे से कम्बल निकालूँ, सो आप दोनों मेरे बिस्तर पर सो जाओ।"
                     जब मैंने बाबा जी से पूछा- "तो आप कहाँ सोओगें बाबा जी....?"
                    " मेरा क्या है, मैं तो फक्कड़ आदमी हूँ कहीं भी सो जाऊँगा।"
                     मैने और विशाल जी ने एक सुर में बोला- "आप हमारे लिए इतना कष्ट मत उठाये, हम बगैर कम्बल के ही रात काट लेंगे" कि तभी वो जो दो युवक बाबा जी ने हमें लेने के लिए भेजे थे ना,  वे तब से ही हमारी सेवा में मगन थे, उन्होंने ही हमारे हाथ-मुँह धुलवा कर हमें खाना परोसा ..... ने हमारी बात बीच में काट बाबा जी से कहा कि हम इन को अपने साथ ही लिटा लेंगे, आप चिंता ना करें। उनमें से एक युवक तो होली गाँव में हार्डवेयर व पेंट की दुकान चला रहा था तो दूसरा स्वास्थ्य विभाग में फार्मासिस्ट था।
                       वे दोनों हमें संग लेकर तम्बू में बची हुई अपनी जगह पर ले आए और उस फार्मासिस्ट युवक ने अपने स्लीपिंग बैग की ज़िप खोल उसे हम संग बांट लिया और बाकी कम्बलों को आड़ा कर हम चारों में अपने ऊपर ले लिये। मेरे पैर तम्बू से बाहर निकल रहे थे, सो बूट डाले ही लेट जाता हूँ... वैसे भी आड़े कर ओढ़े हुए खुले स्लीपिंग बैग व कम्बल हमारे घुटनों तक ही पहुँच पा रहे थे।
                      लेटे-लेटे हमें उस फार्मासिस्ट युवक ने कहा- "आप मेरे गाँव आना, मेरे गाँव से ऊपर भी भगवान शिव का एक और डल (झील) है  'लमडल'  जो धौलाधार हिमालय की सबसे की बड़ी लंबी झील है, मैं आपको वहाँ लेकर जाऊँगा।"
                      हमारे लिए "लमडल" नाम भी बिल्कुल नया था, उन्होंने ही मुझे लमडल झील नाम से वाकिफ़ करवाया था....सो अगले साल मैं चल दिया लमडल देखने।  यह पदयात्रा मेरे जीवन की सबसे ज्यादा रोमांचकारी यात्रा साबित हुई दोस्तों।
                     खैर, अब हम सभी नींद के आगोश की ओर बढ़ रहे थे, मैं आज सारे दिन घटे घटनाक्रम के बारे में सोचने लग जाता हूँ।  दिनेश जी के त्याग की बदौलत हम इस पदयात्रा पर रवाना हुए और विशाल जी के संग के साथ ही मैं इस जगह जेल-खड्ड तक पहुँच पाया हूँ। यदि कहीं अकेला ही इस कठिन व दुर्गम राह पर चल देता तो क्या मैं अकेला ही आज यहाँ तक पहुँच पाता और मन ही मन सो चुके विशाल जी को एक मौन आभार व्यक्त करता हूँ।
                                        (क्रमश:)


                                       
सेबों के बगीचों से घिरा "कलाह गाँव"

कलाह गाँव से कुछ ऊपर।

कलाह गाँव से आगे रास्ते में आई इस गुफा में "पौणाहारी बाबा बालक नाथ" का स्थान है।

बाबा बालक नाथ की गुफा के बाहर ये तीनों स्थानीय युवक धड़ाधड़ इन सीढ़ियों को चढ़ गए, जबकि हमारा ऐसा हाल था जैसे "चींटी चली पहाड़ चढ़ने...!"

त्यारी से पदयात्रा शुरू करने के बाद हमने किसी से भी रास्ता नहीं पूछा था क्योंकि रास्ता पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ रही थी। रास्ता खुद हमें रास्ता दिखा रहा था, मतलब कुछ-कुछ दूरी पर रास्ते-किनारे के पत्थरों को चूने से रंग कर सफेद किया हुआ था।

इन आँखों ने यह नज़ारा जीवन में पहली और अब तक भी आखिरी बार ही देखा है कि घाटी के बिल्कुल बीच एक पर्वत से दूसरे पर्वत तक "इंद्रधनुष" का सेतू बना हुआ था।
 इंद्रधनुष को हम पंजाबी  "रब्ब दी पींग" कहते हैं दोस्तों, मतलब भगवान का झूला।
पीछे मुड़कर देखता हूँ....तो यह नज़ारा फिर आगे नहीं देखने देता, "धौलाधार हिमालय का तलांग पास"

कलाह गाँव से चले हुए एक घंटा बीत चुका था, हमसे आगे निकल गए वो तीनों स्थानीय युवक रास्ते किनारे आई वर्षा-शालिका में बैठे आराम कर रहे थे कि हम भी वहाँ जा पहुँचे।

विशाल जी, ज़रा रुकना....एक फोटू तो खींच लूँ आपकी और विशाल जी अपना साँस अंदर खींच कर पोज़ देने लगे...!!!!

हम अब उस ऊँचाई पर जा पहुँचे थे, जहाँ से सामने "कुज्जा पर्वत" पूर्णतः दिखाई पड़ने लगा था।

कलाह घाटी का मुख्य आकर्षण "कुज्जा पर्वत"
सामने दिख रही नंगे पर्वतों की दीवार पर पड़ी कुछ बर्फ को देख मन मचल रहा था कि क्या हम इस बर्फ को छूँ पाएंगे।

रास्ते में एक स्थानीय व्यक्ति मिला जिसने अपनी पीठ पर सूखी लकड़ियों से भरी एक बोरी बांध रखी थी। वह व्यक्ति हमारी खुशी देख हैरान हो रहा था।

"बखोली कुड" इस दीवार नुमा पर्वत के नीचे बहुत बड़ा कुड यानि प्राकृतिक वर्षा-शालिका बनी हुई थी, जिसके नीचे भेड़-बकरी वाले रात में अपना डेरा जमाते होगें।

"बखोली कुड" के पास से गुज़रती पगडंडी पर बढ़े जा रहे विशाल जी।

हमने फिर उन तीनों युवकों को जा घेरा, जो हमसे बहुत आगे जा निकले थे। अब हमें उनकी तेज़ रफ्तार का राज मालूम हो चुका था.... वो तीनों ही "भांग की बूटी"  को अपने हाथों से मलते हुए 'बम-बोल' के जयकारे लगा रहे थे। उन्हें यह कृत्य करते देख मन एकदम से परेशान हो उठा कि नशा हमारी युवा पीढ़ी को गर्क में ले जा रहा है।

लो भाई, "दरम्बड गोठ" आ गया है।

पीछे मुड़कर देखा तो दूर कलाह गाँव अब भी नज़र आ रहा था। 
                                       
हम दोनों ही बुरी तरह से थक चुके थे। जैसे ही जंगलात विभाग द्वारा बनाई गई पक्की शैड के पास पहुँचे तो हम दोनों एकदम से उस शैड के अंदर जाकर लेट गए।
                                       
कुछ समय आराम करने के बाद हम उठ कर शैड से बाहर आ गए।

जंगलात विभाग में गार्ड के पद पर तैनात "राजकुमार जी" और उनके सहयोगी वहाँ धरम्बड गोठ में हर साल न्यौण यात्रा के समय मणिमहेश पदयात्रियों के लिए छोटा सा लंगर लगाते हैं।

लंगर में बनी " मूँग-मसूर की दाल"

राजकुमार जी के सहयोगी हमारे लिए चाय बनाते हुए।

वो तीनों स्थानीय युवक भी धरम्बड गोठ पहुँच जाते है।

हमें चाय के साथ ब्रेड परोसी जाती है।

भूख में तो चने भी बादाम लगते हैं, दोस्तों....यह सूखी ब्रेड तब मुझे ऐसी ही लग रही थी।

घरम्बड़ गोठ पर ही इनसे भी भेट हुई थी।

रात नौ बजे जेल-खड्ड पहुँच कर खाया यह लंगर।

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