रविवार, 30 अप्रैल 2017

भाग-2 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....Shrikhand Mahadev yatra(5227mt)

भाग-2 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....
                                  " घड़ी,  और स्वप्न यात्रा की शुभ घड़ी "

इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र (http://vikasnarda.blogspot.com/2017/04/1-shrikhand-mahadev-yatra5227mt.html?m=1) स्पर्श करें।
             
                                       दोस्तों,  आप मेरी पिछले साल की हुई श्री खंड महादेव कैलाश पदयात्रा चित्रकथा की दूसरी किश्त पढ़ रहे हैं..... श्री खंड महादेव यात्रा हर साल जुलाई माह में 15जुलाई से 25जुलाई तक केवल दस दिनों के लिए सरकारी तौर पर चलती है,  सो मैने अपने पर्वतारोही संगी विशाल रतन जी के साथ 20जुलाई की तारीख मुकर्रर कर ली, श्री खंड यात्रा के लिए....
                  और,  20जुलाई2016 को तड़के 2:30 बजे... मैं अपने शहर गढ़शंकर(पंजाब) से गाड़ी ले चला और विशाल जी 19जुलाई की रात को बस में सवार हो दिल्ली से रवाना हुए....और हमें मध्य रास्ते यानि जीरकपुर में इक्ट्ठा होना था,  मैने यात्रा सम्बन्धी सारा सामान रात को ही गाड़ी में रख दिया था कि,  बस गाड़ी स्टार्ट करूँ और रवाना हो चलूँ......और घर वालों से विदा ले चल पड़ा,  आदतन मैने जल्दी से मन ही मन अपने पर्वतारोही उपकरणों की गिनती की,  तो पाया कि सबसे अहम उपकरण मेरी "बैरोमीटर-अल्टीमीटर घड़ी" तो मैं घर पर ही भूल आया हूँ... यह घड़ी मुझे मेरी धर्मपत्नी ने अभी हाल में ही अमेरिका से माँगवा कर तोहफे में दी थी.... इस घड़ी के बगैर तो पर्वतारोहण का आनंद ही आधा है,  क्योंकि यह वो उपकरण है... जो आपको बताता है कि,  आप समुद्र तट से कितनी ऊंचाई तक पहुंच चुके हो, हवा का दबाव क्या है और वातावरण का तापमान कितना है....सो सिर पर हाथ मार, दोबारा से घर की तरफ दौड़ लिया... कि शुक्र है मौके पर दिमाग ने तुझे याद दिला दिया,  नही तो विकास नारदा तूने सारी यात्रा में खुद को ही कोसते रहना था...
                  गढ़शंकर से चण्डीगढ़ की तरफ गाड़ी को आधी रात के समय खाली पड़ी सड़कों पर खूब दौड़ाया और अपने मनपसंद गायक राहत फतेह अली खान साहिब की सी डी लगा उनकी लय से खुद की लय जोड़ खूब गानें गाये,  क्योंकि मेरा मन बहुत प्रसन्न था कि...रोज-रोज की वही कश्मकश के चक्रव्यूह को तोड़, मैं बढ़ रहा हूँ श्री खंड नामक सपने को साकार करने,  और रोजमर्रा के गेयर बाक्स की सभी गरारियों को बंद कर..... "घुमक्कड़ी" नामक स्पेशल उड़न गेयर लगा... बस मीठी आशाओं के संग उड़ता ही जा रहा था..... कि उड़ते-उड़ते मैं तड़के चार बजे जीरकपुर पहुंच गया,  जहाँ विशाल जी मेरा इंतजार कर रहे थे,  दोनों सांढ़ू ऐसे गले मिले... यदि हमारी पत्नियाँ हमे उस समय देख ले तो उनका हमसे नाराज़ होना तय है, कि "देख रही हो बहन.... ये दोनों हम से अलग अकेले जा कर कितने खुश है...!"
                   गाड़ी में बैठते ही मैने जोर से कहा, "हम फिर से इक्ट्ठा हो गए विशाल जी" और विशाल जी ने अंग्रेजी में गर्म जोशी से कहा, "We are back ".......  और चहकते हुए मुझे अपनी बैरोमीटर घड़ी दिखातें हुए बोले, " लो विकास जी.. मैं आपसे पीछे नही रहने वाला,  मैने भी आप जैसी घड़ी दिल्ली में ढूँढ निकाल, खरीद ली " .....मैने कहा, फिर तो आप बधाई के पात्र है जनाब...!
                     दोस्तों, नन्हें-मुन्नों अपने खिलौनों से बहुत प्यार व मान होता है,  ठीक वैसे ही हम दोनों को अपने पर्वतारोहण खिलौनों से बहुत गहरा लगाव है... क्योंकि पर्वतारोहण नामक खेल इन खिलौनों के दम पर ही खेला जाता है....                      अब हमारी गाड़ी दौड़ रही थी एक बेहतरीन सड़क के ऊपर जिसपर मानो हमारी गाड़ी तैर रही थी,  पहाड में इतनी शानदार,  खुली व एक तरफा सड़क जो जीरकपुर से कालका ले जाती है बाहर-बाहर से...... इस सड़क के निर्माण सम्बन्धी यह बात भी प्रचलित है कि, सड़क निर्माण क्षेत्र में नई आई सड़क निर्माता कम्पनी को इस सड़क निर्माण में घाटा ही पड़ा,  परन्तु उसने इसकी गुणवत्ता सें समझौता नही किया.... शायद ऐसा कर,  वह कम्पनी अपने उत्तम कार्य शैली की एक उदाहरण स्थापित करना चाहती होगी........ कालका के बाद सड़क फिर छोटी हो जाती है,  और एक घण्टा चलते रहने के बाद हमारी गाड़ी उस जगह पर रुकी,  जहाँ शिमला जा रहा प्रत्येक सैलानी रुकना चाहता है, ताँकि वो विश्व धरोहर खिलौना गाड़ी "हिमालयन क्वींन" को पास से देख सके.... क्योंकि यह वो जगह है यहाँ अाठरहवीं सदी के अंत में बिछी,  ढाई फुट चौड़ी रेलवे लाइन सड़क को काटती है और रेलवे फाटक बंद होने पर सड़क पर रुके प्रत्येक सैलानी के लिए शिमला यात्रा का यह हसीन व यादगार पल होता है....
                      बहुत बार सोचता हूँ अंग्रेज़ों की कार्य शैली में कितना जुनून रहा होगा कि,  कालका के मैदानी इलाके से 107सुरंगों व 864पुलों के द्वारा सन् 1903में रेल गाड़ी पहाड पर चढ़ा कर शिमला पहुंचा दी.... और इस रेलवे लाइन की लम्बाई है 96.5 किलोमीटर....और 164किलोमीटर लम्बी ऐसी ही छोटी रेलवे लाइन अंग्रेज़ों ने पठानकोट (पंजाब)के मैदान से जोगिंदर नगर(हिमाचल प्रदेश) के पहाड में 1929में बिछाई थी,  कि जोगिंदर नगर में भारत का पहला जल शक्ति से चलने मैगावाट बिजली घर बन सके और इसी रेलवे ट्रैक द्वारा बिजली घर की सारी मशीनरी पहाड पर पहुँचाई गई..... और तो और अंग्रेज़ों का दिमाग तो देखो मित्रों,  उन्होंनें जोगिंदर नगर बिजली घर से उस समय 12किलोमीटर लम्बी लाइन पहाड पर 60डिग्री के कोण से चढ़ा दी,  जिस पर एक ट्राली पर्वत के शिखर पर जा दूसरी ओर बरोट नामक अति सुन्दर व शांत पर्वतीय स्थल के लिए उतर जाती... यहाँ से एक सुरंग द्वारा ऊल नदी का पानी नीचे,  जोगिंदर नगर बिजली घर में आज भी विद्युत चक्कियों को चलाता है.... परन्तु आज,  वो बरोट को जाती रेलवे ट्राली अब सरकार व विभाग की अनदेखी के कारण बंद है और मैं कहता हूँ कि सबसे बड़ी अफसोस की यह बात है कि आज़ादी के इतने वर्ष बाद भी हमारी सरकारें अंग्रेज़ों द्वारा बिछाई इन रेलवे लाइनों को मात्र एक इंच भी आगे बढ़ा नही सकी....मेरे शहर गढ़शंकर में भी अंग्रेज़ों द्वारा 1920में बिछाई रेल लाइन जालंधर से जैजो दोआबा तक,  आज भी किसी और मुख्य रेल लाइन से जुड़ने के लिए बेक़रार है.... परन्तु सरकारों में बैठे कुछ मंत्रियों की अपनी निजी बसें चलती है, वो क्यों सस्ती परिवाहन हम जनता को उपलब्ध कराए......
                           " रुक जा, रे विकास नारदा, तू पथ भ्रष्ट हो रहा है...!!!! "
         जब मैं सुबह गढ़शंकर से चला था,  तो मेरी श्रीमती जी ने मुझे थरमस में डाल चाय साथ दे दी थी.... सो विशाल जी से कहा कि जहाँ भी रास्ते में सूर्योदय होता हमे नज़र आयेगा,  वहीं रुक कर हम चाय की चुस्कियाँ लेते हुए पहाडों में हो रहे सूर्योदय की सुरम्यता को निहारेंगें.....गाड़ी चलते हुए मेरी दृष्टि बार-बार पूर्व दिशा की ओर जा रही थी.... और इंतजार में था कि, कब भास्कर अपने आगमन का संदेश अपनी लालिमा बिखेर कर दें..... जल्द ही मुझे वह संदेश भी मिल गया और मैने अपनी गाड़ी एक उपयुक्त जगह देख कर रोक ली,  सुबह के 6बज चुके थे और सड़क किनारे बनी पत्थरों की रोक पर हमने अपना चाय-नाश्ता सजा लिया,  दोस्तों श्रीमती जी के हाथों बनी चाय तो हर रोज मैं पीता हूँ.... पर उस माहौल में जब मैने चाय की पहली चुस्की ली,  तो मुख से निकला "सुभान अल्लाह"..........और मेरे ज़ेहन में मेरी अर्धांगिनी के लिए खामोश व अदृश्य स्नेह व सम्मान की लहर घूम गई..... इधर हमारे चाय के कप ढ़ल रहे थे और उधर सूरज चढ़ रहा था, सच में बेहद हसीन सुबह थी वो......दोस्तों
                                      कुछ समय बाद मैं गाड़ी में बैठा था,  पर मेरे हाथों में अब दिशा-चक्र(स्ट्रेरिंग)की जगह मेरी प्रिय बाँसुरी आ चुकी थी.... और स्ट्रेरिंग विशाल जी हाथों में था.... ऐसी अवस्था प्रत्येक साल एक-दो बार ही आती है,  कि विशाल जी गाड़ी चलाते है और मैं मज़े से अपनी बाँसुरी फूँकता हूँ.... वरना सारा साल की जाने वाली यात्राओं में मेरे नसीब में स्ट्रेरिंग को पकड़ना ही होता है,  तो बाँसुरी की धुनों में बहते हुए हम एक घंटे बाद पहाडों की रानी "शिमला" से गुज़र रहे थे... सुबह के समय होने के कारण,  शिमला रानी की बलखाती-मटकाटी हुई सड़क खाली होने वजह से हम सिर्फ बीस मिनट में शिमला से बाहर नारकण्डा को जाने वाली सड़क पर थे..... शिमला से कुछ बाहर निकल कर मैने गाड़ी उस जगह रुकवाई, जिसे पिछले साल ही अपने परिवार संग की हुई "रिंकोगपीओ यात्रा " के दौरान देखा था, कि सड़क के इस मोड़ पर बहुत सारे देवदार के पेड़ों का जंगल है...जिस को पृष्ठभूमि मान कर कई सारे सैलानी अपनी गाडियाँ सड़क पर रोक कर अपना फोटो सैशन करवा रहे थे.... परन्तु अब की बार हम वहाँ अकेले थे,  क्योंकि इतनी सुबह तो सैलानी शिमला से कुफरी जाने से रहे...
                और,  मैने अपने पिता जी द्वारा मुझे भेट किये हुए "हैट" जिसे वह मेरे लिए कई साल पहले अपनी कन्याकुमारी यात्रा से लेकर आये थे... पहन कर चित्र खिंचवायें और कुछ चित्र विशाल जी के खींचे.....

                             ............................(क्रमश:)
विश्व धरोहर खिलौना गाड़ी " हिमालयन क्वींन ".........और रेलवे फाटक बंद होने पर सड़क पर रुके हम सब...

वो स्थान जहाँ हम चाय पीने के लिए रुके थे,. सूर्योदय से चंद क्षण पहले और सूर्योदय के दृश्य.....

इधर हमारे चाय के कप ढ़ल रहे थे,  तो उधर सूरज चढ़ रहा था....क्या खूबसूरत अनुभव था.. 

विशाल रतन जी के हाथों में अब, गाड़ी का दिशा-चक्र और मेरे हाथों में मेरी प्रिय बाँसुरी.... 

सुबह के वक्त पहाडों की रानी "शिमला" की व्यस्त सड़क खाली थी..... 

तभी तो तुझे पहाडों की रानी कहते हैं...... शिमला 

बादलों से घिरा हुआ..... शिमला 

जिस ओर भी नज़र घुमाई, तो तेरा हसीन चेहरा ही नज़र आया...ओ पहाडों की रानी शिमला.... 

शिमला से कुछ बाहर नारकण्डा की तरफ निकल पर......खाली सड़क पर कुछ यादगारियाँ सम्भालतें हुए हम दोनों... 

मित्रों.....यह चित्र अप्रैल 2015 में बरोट का है,  जिसमें मैं अंग्रेज़ों द्वारा बनाई जोगिंदर नगर से बरोट 12किलोमीटर लम्बी रेलवे ट्राली लाइन पर खड़ा हूँ...... इस लाइन पर मेरे खड़े होने की मुद्रा से आप अंदाजा लगा सकते हैं, कि इस रेलवे लाइन का कोण कौन सा है.... वाह रे अंग्रेज़ों मान गया तुम्हारे दिमाग़ को.....!! 


रविवार, 23 अप्रैल 2017

भाग-1 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....Shrikhand Mahadev yatra(5227mt)

भाग-1  श्री खंड महादेव कैलाश की ओर.....
                                                      भूमिका -  " बीज यात्रा का "

                                    मित्रों....जय हिंद,  पुनः लौट आया हूँ आपके समक्ष एक नई पदयात्रा की चित्रकथा ले कर....यह यात्रा देवों के देव महादेव से सम्बन्धित वो यात्रा है, जिसमें मुझ में बेहद धार्मिक व आध्यात्मिक बदलाव हुए....
                   क्योंकि मैं एक ब्राह्मण अपने जीवन के शुरूआती 17साल तो आस्तिक रहा, परन्तु युवावस्था में "तर्कशील सोसाईटी" की चंद किताबें पढ़ जाने के बाद एक दम से नास्तिक हो गया....और मेरा आलम यह रहा कि,  मैं भगवान के अस्तित्व को ही चुनौती देने लगा, हर किसी से इस विषय पर भयंकर बहस करता... भूत-प्रेत, पुर्नजन्म,  धार्मिक अडम्बरों व विश्वास से, मैं बहुत आगे निकल चुका था.... हर रीति-रिवाज़ को मैं सिरे से खारिज़ करता और हर बात का मैं वैज्ञानिक तथ्य ढूढंता... और उस पर कभी घर वालों से, तो कभी बाहर वालों से अक्सर बहस करता, कि "यहाँ सब कुछ इंसान ने ही अपने लाभ व स्वार्थ के लिए ही बनाया है, भगवान ने इंसान को नही...अपितु इंसान ने भगवान को गढ़ा....! " अपने धर्म की ही कुरीतियों पर कटाक्ष करता,  परिणामस्वरूप मुझे सामने वाला धार्मिक व्यक्ति या मेरे दोस्त व रिश्तेदारों ने "नाशुक्रा" करार दिया, परन्तु मुझ पर इन बातों का कहाँ प्रभाव होता था....मैं तो अपनी धुन का पक्का था और हूँ....
                   ऐसा करते-करते जीवन के दस साल बीत गए,  यदि मेरे माता-पिता मुझ से कोई धार्मिक पूजा,  कार्य या दान करवाते तो बस उनका मन रखने के लिए वह सब कर देता परन्तु उसमें एक अहम अहसास नही होता जिसे हम "आस्था" कहते हैं.....
                   जीवन-च्रक बदला,  विवाह हुआ और अर्धागिनी मिली... परम आस्तिक और मैं सिरे का नास्तिक.... खैर उसने मेरे प्रति धैर्य रखा और मुझे बदलना प्रारंभ कर दिया और बदलते वक्त के साथ-साथ मुझे भी धीरे-धीरे अपने रंग में रंगना निरंतर जारी रखा,  अत: मेरी  अवस्था को नास्तिक से मोड़ " वास्तविक" तक ला खड़ा किया.... पिछले साल ग्रीष्मकालीन ट्रैकिंग के दौरान हुई अनुभूतियों ने मेरे मन को बेहद बदल दिया,  हर बात का वैज्ञानिक कारण जानते हुए भी मुझे अब आस्था व परम्परागत रीति-रिवाज़ों में रहना अच्छा लगने लगा,  अपने धर्म का सम्मान व उसपर मेरी अटल अडिगता अब हिमालय सी खड़ी है..... परन्तु आज भी मैं एक अंधविश्वासी आस्तिक नही हूँ, बल्कि एक आस्थावान वास्तविक इंसान हूँ..........

                                                       मित्रों,  मेरी यह पदयात्रा भगवान शिव के एक निवास स्थल की है...हिन्दू मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव के पांच निवास स्थल है,
      सर्वप्रथम तिब्बत में स्थित "श्री कैलाश मानसरोवर".....द्वितीय-उत्तराखंड में स्थित "श्री आदि कैलाश"...........बाकी तीन निवास हिमाचल प्रदेश में "श्री मणिमहेश कैलाश", "श्री किन्नर कैलाश" व "श्री खंड महादेव कैलाश".....
                          मुख्यतः तिब्बत स्थित श्री कैलाश मानसरोवर पदयात्रा को कठिन माना जाता है,  परन्तु श्री खंड महादेव कैलाश की पदयात्रा, श्री कैलाश मानसरोवर पदयात्रा से भी कठिन है.......... और  इसी दुर्गम व अत्यन्त कठिन पदयात्रा पर मैं अपने पर्वतारोही संगी व सांढू भाई  विशाल रतन जी के साथ पिछले साल जुलाई 2016 को गया......
                         श्री खंड महादेव(5227मीटर) महान हिमालय के शिखर पर खड़ी 72फुट की एक अखण्ड शिला है,  जिसे भगवान शिव का शरीर माना जाता है... इस शिला तक पहुंचने के लिए पदयात्री को 36किलोमीटर लम्बा,  वो दुर्गम रास्ता कम से कम तीन दिन में तय करना पड़ता है,  जो कि प्राकृतिक वाधाओं से भरा पड़ा है... यह यात्रा बहुत धैर्य व धीमी रफ्तार से करने वाली है,  इसलिए इस पदयात्रा पर एक सप्ताह लग जाता है..
                         दोस्तों,  हम सब आमतौर पर भारत में भगवान शिव से सम्बन्धित एक यात्रा को ज्यादातर जानते हैं "अमरनाथ यात्रा " या फिर कुछ वर्षो से मणिमहेश कैलाश(चम्बा, हिमाचल प्रदेश)  यात्रा भी अब प्रचलित हो चुकी है..... मुझे अपने जीवन में पहली बार श्री खंड महादेव नाम की जानकारी कोई बारह-तेरह साल पहले हुई थी,  जब मैने अपने शहर गढ़शंकर में पकौड़ों की एक दुकान पर श्री खंड महादेव यात्रा का स्टीकर दीवार पर चिपका देखा,  जिसमें पवित्र शिला के चित्र पर लिखा था,  "चलो श्री खंड "
                          दुकानदार भी मेरे सवाल का संतुष्ट उत्तर नही दे पाया, बस यह ही कह सका कि कोई बाहर का ग्राहक इस स्टीकर को यहाँ लगा गया और मुझे लगता है कि यह भी अमरनाथ यात्रा की तरह ही कोई यात्रा है.... बात आई-गई हो गई, क्योंकि उस समय "जानी जान गूगल देवता " हमारे देश में प्रकट नही हुए थे...... फिर कुछ साल बाद समाचार पत्र में एक छोटा सा लेख श्री खंड महादेव कैलाश के बारे में पढ़ा,  सो फिर से श्री खंड महादेव नाम जेहन में अपनी जगह बना बैठ गया,  क्योंकि पर्वत मुझे शुरू से ही आर्कषित करते रहे हैं..... परन्तु दोस्तों वो भी क्या समय था कि बगैर इंटरनैट की उस जीवन शैली में, हम में कितना ठहराव, उम्मीद व इंतजार हुआ करता था,  जैसे किसी विशेष प्रश्न के लिए ठहराव रख उम्मीद से उसके उत्तर का इंतजार करते.... अपने दिमाग की तृष्णाओं को शांत व पूर्ण करने के लिए अनुभवशील बड़े-बुर्जुगों से साक्षात्कार करते,  भिन्न-भिन्न प्रकार की किताबें या साहित्य पढ़ रात की नींद को प्राप्त करना,  हर दूजे ज्ञानशील व्यक्ति का नित नियम था...... जब मेरी बेटी छोटी थी, तो उसके सवाल कभी खत्म नही होते थे,  क्योंकि उसे गूगल की जानकारी नही थी.. और अाज वह दसवीं कक्षा में पढ़ती है,  परन्तु अब उसने मुझ से सवाल पूछने बंद कर दिये है.. क्योंकि उसको जवाब देने के लिए बुद्धिमान गूगल साहिब सदैव तैयार रहते हैं...........हां,  मेरा आठ वर्षीय बेटा जरूर कई सारे सवाल तैयार रखता है,  क्योंकि उस की दौड़ अभी तक यू-ट्यूब में कार्टून तक ही सीमित है.....
                          खैर कुछ भी है,  विज्ञान की इस खोज ने हम सब की जिंदगी को आसान बना दिया है... मुझे संगीत (बाँसुरीवादन) में बेहद रूचि है,  और अब कुछ वर्ष से मेरे गुरु सर्वज्ञाता श्री गुगलेश्वर जी ही है,  मैं इनसे ही संगीत को पाठ लेता हूँ.....
                            मित्रों,  मेरे पर्वतारोही जीवन की शुरुआत 2014  में  40 साल की उमर में हुई..... जब मैं और मेरे सांढू विशाल रतन जी खेल-खेल में सर्दियों में हिमाचल प्रदेश धौलाधार हिमालय में स्थित जमी हुई "करेरी झील " देखने के लिए ऐसे ही मुंह उठा कर चल दिये.... और 13किलोमीटर के उस ट्रैक में बीच रास्ते बहुत ज्यादा बर्फ आने पर फंस गए,  तो रात ऐसे ही किसी गुफा में आग जला कर काटी और सुबह को वहीं से ही वापस नीचे उतर आए..... पहले ट्रैक की इस नाकामयाबी ने हमे तोड़ा या डराया नही,  अपितु हम दोनों ने इसे चुनौती मान गर्मियों में फिर से हिमालय का रूख किया और पहली बार में ही समुद्र तट से 4620मीटर की ऊंचाई के "कलाह पर्वत" को लांघ कर एक अलग व दुर्गम रास्ते से मणिमहेश जा पहुँचें...
                            इस के बाद भी हमने कई पदयात्राएं की,  क्योंकि अब हमारा नियम बन चुका है कि हमे साल में दो बार हिमालय पर जाना है...... श्री खंड महादेव कैलाश की समुद्र तट से ऊंचाई 5227 मीटर है, इसलिए मुझ पर्वतारोही के लिए इस ऊंचाई तक पहुंचना अपने-आप में ही एक उपलब्धि है....36किलोमीटर एक तरफ की इस पदयात्रा में सम्पूर्ण ट्रैकिंग पैकेज है,  इस यात्रा में पर्वतारोही पर्वतारोहण के प्रत्येक रंग को महसूस कर सकता है....जैसे 2000मीटर से 5200मीटर समुद्र तट की ऊंचाई के बीच हर प्रकार की भूमि पर चलना.... घास के मैदान, सीधे खड़े पहाड़ी रास्ते,  गहरी उतराईयाँ, चट्टानों और ग्लेशियरों से गुज़रना....... आप एक सप्ताह के लिए दीन-दुनिया से कट जाते हैं और रोज-मर्रा की घिसी-पिटी चिंताओं से दूर एक अलग माहौल में रच-बस जाते है....
                                                             इसलिए 2015 की गर्मियों में मैने श्री खंड कैलाश जाने की पेशकश विशाल जी के आगे रखी,  परन्तु विशाल जी जा नही पा रहे थे क्योंकि वे अपनी नई बदली हुई नौकरी की वजह से विवश थे... सो अकेले जाने का विचार अभी मन में आया ही था,  कि खबर आ गई कि श्री खंड महादेव यात्रा बादल फटने के कारण रोक दी गई है...... सो उस बार अपने छोटे भाई ऋषभ नारदा को साथ ले "लमडल यात्रा " पर निकल गया...
                             2016 की  गर्मियाँ आने से पहले ही मैं और विशाल रतन जी ने काना-फूंसी करनी प्रारंभ कर दी थी,  कि जो भी हो इस बार श्री खंड महादेव कैलाश की ऊंचाई को छू कर ही आना है..........

                                                       ........................................(क्रमश:)
                         
श्री कैलाश मानसरोवर.......ये सारे चित्र इंटरनैट से प्राप्त किये है, जी

श्री आदि कैलाश....

श्री मणिमहेश कैलाश.... 

श्री किन्नर कैलाश.... 

चलो, मित्रों मेरे संग-संग...... श्री खंड महादेव कैलाश की ओर


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गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

भाग-14 चलो, चलते हैं.....सर्दियों में खीरगंगा और मणिकर्ण(अंतिम किश्त) Winter trekking to Kheerganga & Manikaran darshan.

भाग-14  चलो, चलते हैं.... सर्दियों में खीरगंगा(2960मीटर) 3जनवरी 2016
                            ( अंतिम किश्त )
       
इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र (http://vikasnarda.blogspot.com/2017/04/1-winter-trekking-to-kheerganga2960mt.html?m=1)  स्पर्श करें।      
         
                              श्री राम मंदिर मणिकर्ण में दर्शन कर मुख्य बाज़ार में वापस आया तो,  दोपहर का डेढ़ बजने को था.थी।सो गुरुद्वारे की तरफ़ वापस चल दिया। मणिकर्ण के बाज़ार की तंग गलियों में घूमते-घूमते राधा-कृष्ण मंदिर पर पहुँचा, पर प्रथम सीढ़ी पर ही माथा टेक वापस चल दिया और गुरुद्वारे के पास शिव मंदिर की सीढ़ियाँ उतर,  फिर से उबलतें हुए जल-कुण्ड के पास जा पहुँचा....क्योंकि वहाँ अब कई सारे सैलानी धागे संग बंधी कपड़े की छोटी-छोटी पोटलियों को जल-कुण्ड में डाल चावल आदि उबाल रहे थे। ये पोटलियाँ बाज़ार में कई दुकानों पर उपलब्ध हैं,  चाहे यह कर्म बहुत से सैलानियों के लिए बस सिर्फ मनोरंजन का विषय ही था,  परन्तु यह एक शुभ व पुरातन रिवाज़ है,  जिसे पहाड़ी नवविवाहित जोड़े निभातें हैं....अपने परिणय-बंधन की अटूटता व सुदृढ़ता के लिए, क्योंकि भोजन पाक-शैली में निपुण स्त्री ही एक स्वस्थ परिवार की नींव बनती है...तो इसलिए ही नवविवाहिता को इस रिवाज़ द्वारा भगवान से आशीर्वाद दिलवाया जाता है।
                  दोपहर के 2:30बजे....और भूख जागृत। मैं गुरुद्वारे के लंगर-हाल में पंक्ति में बैठ स्टील की चमचमाती प्लेट में अपनी छवि निहार रहा था,  कि उसमें "कढ़ी-चावल"डाल दिये गये। मेरे जैसे हर पंजाबी को यदि प्रसन्नता की असीम ऊँचाई तक पतंग की भाँति उड़ाना हो तो,  उसे कढ़ी-चावल या साग-मक्की की रोटी परोस दो,  खाने वाले के साथ खिलाने वाला भी धन्य हो जायेगा। लंगर में कढ़ी-चावल के अलावा सब्जियों के राजा "बैंगन" के संग विदेशी से स्वदेशी बने "मंत्री आलू " की मिश्रित सब्जी के साथ दो परशादे (रोटी) छक कर (खा कर)....मैं अपना सामान उठने के लिए लंगर हाल से ऊपरी मंजिलों में बनी सराय के कमरे की ओर चल दिया।
                  पहली मंजिल पर स्थित गुरुद्वारा साहिब के प्रकाश कक्ष के द्वार में एक कुत्ते को बैठा देख,  मेरी हैरानी की परिधि असीमित हो चली कि गुरुद्वारे के इतनी भीतर और गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रकाश कक्ष के द्वार पर यह कुत्ता ऐसे कैसे शांत बैठा है,  जैसे किसी साधना में लीन कोई योगी बैठा हो। मेरी उत्सुकता कहाँ शांत होती है,  जब तक आस-पास कोई सवाल ना दाग दूँ। द्वार पर मौजूद सेवादार बाबा जी से पूछा कि क्या यह कुत्ता गुरुद्वारे में पालतू है,  जो जहाँ इस पवित्र स्थान के इतनी पास बैठा हुआ है.....तो बाबा जी ने जवाब दिया, "नही यह पालतू नही आवारा कुत्ता है,  इसका कई वर्षो से नियम है कि हर रोज दोपहर के वक्त ये जहाँ आ महाराज जी की बीड़(गुरु ग्रंथ साहिब जी) की तरफ मुँह कर बैठ जाता है जैसे कोई भक्त अपने असाध्य के सिमरन में लगा हो....जरूर इस कुत्ते में किसी ना किसी सिद्ध पुरुष की आत्मा है,  जिसे इस पावन गुरुद्वारे के साथ गहरा स्नेह है,  ऐसा हमारा विश्वास बन चुका है.......! "
                   मुझ "वास्तविक सोच " रखने वाले व्यक्ति के लिए यह विषय भी सिक्के के दो पहलू जैसा ही है....परन्तु मैने इस विषय में सिक्के के दूसरे पहलू को सिरे से नकार दिया,  कि ऐसा भी हो सकता है कि यह कुत्ता गुरुद्वारेें में मिलने वाले देसी घी के स्वादिष्ट कडाह प्रशाद का शौकीन हो.....मैंने पहले पहलू को ही सही माना,  क्योंकि इसे मान कर मुझे धार्मिक व आध्यात्मिक शांति ग्रहण हो रही थी......और उस कुत्ते से मैने एकाग्रता व नियम की सीख ली।
                     उन सेवादार बाबा जी से बात कर मुझे 24साल पहले की हुई मणिकर्ण-खीरगंगा यात्रा में......मणिकर्ण गुरुद्वारे में ही मिले उन मिलनसार बाबा जी की याद आ गई,  जो अपनी दोनों कलाईयों में बहुत ज्यादा कड़े पहने रखते थे, इसलिए उनका नाम ही "कड़ेआं वाला बाबा" पड़ गया था,  कलाई में कड़ा धारण करना एक पंजाबी की पहचान है दोस्तों... मेरी कलाई में भी कई वर्षो से एक कड़ा पड़ा हुआ है। 24साल पहले जब मैं अपने बचपन के दोस्त "सोनी" के साथ दूसरी बार मणिकर्ण आया,  तो मेरा मक़सद सिर्फ खीरगंगा जाना ही था। गुरुद्वारे के अंदर दाखिल हो,  जब हम दोनों दोस्त भीड़ को देख कर विस्मयजनक अवस्था में खड़े थे, कि अब क्या करे.....तो जोड़ा-घर (जूता-घर) की सेवा पर मौजूद बाबा कड़ेआं वाले जी ने हमे इशारा कर अपने पास बुलाया और पूछा, "कहाँ से आए हो लड़को".....मैंने कहा, "जी,  गढ़शंकर।"  तो वे बोले, "तो तुम तो मेरे इलाके के ही हो, मैं 'सिम्बली' गाँव से हूँ।"
                      सिम्बली गाँव मेरे शहर गढ़शंकर से मात्र 10किलोमीटर की दूरी पर है। बाबा जी ने उस समय हम नौसखियों की खूब मदद की,  जब मैने उनसे कहा कि हमे कल सुबह खीरगंगा जाना है....तो उन्होंने हमारा खूब मार्ग दर्शन किया और एक सलाह दी कि, "जाते समय टॉफियाँ जरूर ले जाना,  चढ़ाई चढ़ते समय मुँह में रखना...साँस कम चढ़ेगा।"  उनकी हर सलाह मेरे किशोर मन को खूब भा रही थी। वे जब भी मणिकर्ण से वापस अपने गाँव आते,  तो मुझे अकसर मिल कर जाते......परन्तु अब उनको भी स्वर्गवास हुए काफी वर्ष बीत चुके है। कहना का तात्पर्य यह है दोस्तों,  कि कई दफा हमें बिल्कुल अनजान या नई जगह पर भ्रमण हेतू जाते हैं और वापसी पर अपने साथ लाते है,  कई नये दोस्त और बहुत सी यादें.....जो तमाम उम्र हमारे ज़ेहन पर हावी रहती है,  चंद घड़ी की मुलाकात ही उम्र भर का रिश्ता स्थापित कर जाती है.... ठीक वैसे ही जैसे "लमडल यात्रा" के दौरान जब मैं जंगल में खो गया,  तो मुझे फ़रिश्ता बन मिले भेड़े चराने वाले गद्दी  "राणा चरण सिंह "......जिनसे मेरी दोस्ती जीवन भर कायम रहेगी।
                        दोपहर के तीन से ऊपर समय हो चुका था और मुझे वापसी के लिए चार बजे बस पकडनी थी,  सो कमरे से अपना सामान उठा कर कमरे की चाबी वापस लंगर हाल में जमा करा, गुरुद्वारे की गोलक में अपनी और विशाल रतन जी की ओर से यथासम्भव राशि डाल दी,  क्योंकि बुजुर्ग कहते हैं कि लंगर को कभी भी मुफ़्त मत खाओ,  भोजन ग्रहण करने के पश्चात उसमें अपना आर्थिक हिस्सा जरूर डालो, चाहे वो एक पैसा ही क्यों ना हो,  ताँकि पुन: लंगर लगाने हेतू प्रबंधक की मदद हो सके।
                        गुरुद्वारे से बस अड्डे की ओर चला...... तो दूर मुझे परम्परागत पहाड़ी वाद्य यंत्र "रणसिंगा,  करनाल,  नगाड़ा " आदि की मिश्रित मधुर ध्वनि सुनाई दी....और वह मधुर संगीत श्री राम मंदिर के सामने बज रहा था,  क्योंकि वहाँ तीन ग्राम देव-देवी - नैना माता,  वासुकी नाग और क्याणु नाग की पालकियाँ ऊपरी स्थान से चल नीचे मणिकर्ण आई थी....और प्रभु श्री राम चन्द्र जी के समक्ष उनकी हाज़री का समारोह चल रहा था। मैं बता नही सकता दोस्तों,  उस वक्त मेरी प्रसन्नता चरम सीमा पर थी कि मैं हिमाचल प्रदेश के परम्परागत धार्मिक रीति-रिवाज़ों को देख रहा हूँ,  वाद्य यंत्रों की थाप पर पालकियों को देव नचा रहे थे। उन पालकियों के चारों ओर काफी लोग इक्ट्ठा हो चुके थे,  और मैं उस माहौल को अपने कैमरे में भर रहा था..........कि एकाएक कुछ लोग बोलने लगे, "कैमरा बंद करो, कैमरा बंद करो....!! "             तभी मेरे पास खड़े दस वर्षीय किशोर ने मुझे कहा कि, "अंकल जल्दी से कैमरा बंद कर लो,  नही तो ये लोग आपका कैमरा तोड़ देंगे..! "
                       ऐसी क्या "हरकत" होने वाली थी कि, सारे कैमरे बंद करवा दिये गये और यहाँ तक कि एक छोटे से स्थानीय बालक ने मुझे कैमरा बंद करने की सलाह दे डाली। मैने इधर-उधर देखा,  तो एक आदमी एक भेड़ को खींच कर ला रहा था और कुछ "गण-मान्य" लोग उसे घेर खड़े हो गये..........बस उसके बाद मैने वहाँ कुछ नही देखना चाहा,  चल पड़ा उस भीड़ से निकल कर....... एक बार भी पीछे मुड़ कर नही देखा,  क्योंकि अब मुझे वहाँ सब "राक्षस " नज़र आ रहे थे.....!!!
                      गुम-सुम सा आ, अपनी बस में बैठ गया और सोचता रहा कि "मेरी इतनी सुखद यात्रा का, इतना दुखद अंत होगा........!!!

                                             ......................(समाप्त)
राधा-कृष्ण मंदिर.... मणिकर्ण।

चावल की पोटलियों को उष्ण कुण्ड में उबालना.... सैलानियों का एक मनोरंजक अनुभव।

शिव मंदिर मणिकर्ण में स्थापित नंदी की बेहद सजीव धातु मूर्ति।

पंजाबियों की जान "कढ़ी-चावल"

गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रकाश कक्ष के द्वार पर बैठे इस आवारा कुत्ते का बहुत साल से यह नियम है,  कि हर रोज दोपहर को इस पावन स्थल पर आ.... ऐसे बैठ जाना,  जैसे कोई साधु अपनी साधना में मगन हो।

24साल पहले..... मणिकर्ण गुरुद्वारा साहिब में बाबा कड़े वाले के साथ, सोनी और मैं।

नैना माता, वासुकी नाग और क्याणु नाग की पालकियाँ....मणिकर्ण।

हिमाचल प्रदेश का बेहद खूबसूरत रहस्यमय धार्मिक इतिहास.... ग्राम देव-देवी की सवारी पालकियाँ,  जो खुश हो नाचती है,  रुष्ट हो एक जगह ही अड़ जाती है व भगतों से वार्तालाप,
बहुत सारे दिलचस्प रहस्य है,  जिन्हें समझना बहुत मुश्किल है।

देव पालकियों के आगे परम्परागत पहाड़ी वाद्य यंत्र बजाते हुए..... पूरे सम्मान व शान के साथ ये सवारी चलती है। 




श्री राम चन्द्र मंदिर मणिकर्ण के समक्ष ग्राम देव-देवी के हाज़री समारोह के दौरान परम्परागत वाद्य यंत्र की मधुर ध्वनि मेरे मन के स्वरों को भी छेड़ रही थी।

बुधवार, 19 अप्रैल 2017

भाग-13 चलो, चलते हैं.....सर्दियों में खीरगंगा और मणिकर्ण Winter trekking to Kheerganga & Manikaran darshan.

भाग-13  चलो चलते हैं.....सर्दियों में खीरगंगा (2960मीटर) 3जनवरी 2016

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                             माता नैना देवी जी के मंदिर में....माथा टेकने के उपरांत अब मैं, मणिकर्ण बाज़ार के उस बेहद खुले हिस्से में आ खड़ा था, जहाँ प्राचीन राम मंदिर है और उस खुली सी जगह के बीचों-बीच राम मंदिर के मुख्य द्वार के समक्ष लकड़ी का रथ खड़ा देख,  मैं उस ओर खींचा चला गया। मेरी जिज्ञासा तीव्र हो गई उस रथ के विषय में जाननें के लिए....तो उत्तर मिला कि यह भगवान श्री राम चन्द्र जी की सवारी है,  जिसमें प्रत्येक वर्ष दशहरा त्योहार के वक्त भगवान राम जी को ले,  मणिकर्ण शोभा-यात्रा में कई सारे व्यक्तियों द्वारा इसे खींचा जाता है, और इस प्राचीन रथ का नेतृत्व एक "विजेता" करता है..... विजेता उस प्रतियोगिता का,  जो हर वर्ष इस पर्व से कुछ पहले पार्वती नदी पर होती है....कि पार्वती नदी के एक किनारे से दूसरे किनारे पर एक निश्चित चट्टान पर जो व्यक्ति अपना पत्थर फैंक अचूक निशाना लगा देता है.....वह ही इस रथ को खींचने वाला मुखिया होता है। परन्तु मैने हैरान हो कहा कि यहाँ तो पार्वती नदी के दो किनारों की आपस में बहुत ज्यादा दूरी है,  इतनी दूरी पर पत्थर फेंक...एक अचूक निशाना लगना बहुत ही कठिन कार्य है। तो, वे जनाब बोले कि इस प्रतियोगिता के लिए बहुत सारे लोग सारा साल ही पत्थर फेंकने के अभ्यास में मगन रहते हैं.....क्योंकि भगवान राम जी के रथ का नेतृत्व करना बहुत गौरव व सम्मान की बात है।
                     और, प्रभु श्री राम जी के रथ संग अपनी तस्वीर खिंचवा,  मैं श्री राम मंदिर जाने की बजायेसीधा मणिकर्ण के बस-अड्डे की तरफ़ चल दिया कि घर वापसी के लिए जाने वाली सीधी बस का बिल्कुल सही समय पता कर सकूँ......और उस हिसाब से यह भी निश्चित कर सकूँ कि मुझे इतना समय मिल पाता है कि,  मैं मणिकर्ण से चार किलोमीटर पैदल पहाड़ के ऊपर चढ़ कर "ठंडी गुफा " के भी दर्शन कर सकता हूँ या नहीं।
                       बस-अड्डे पर पहुँच ज्ञात हुआ कि मणिकर्ण से अमृतसर जाने वाली बस शाम 4बजे चलती है...और उस समय दोपहर के 12:45 बज चुके थे,  सो मेरे पास ठंडी गुफा जाने के लिए अब पर्याप्त समय नही रह गया था।  इसलिए मैं अब वापस श्री राम मंदिर की ओर चल दिया क्योंकि अब दोपहर का एक बजने वाला था.....और जाते-जाते विशाल रतन जी से फोन पर बातचीत कर पूछा कि "कहाँ पहुँच चुके हो जनाब"....वे दिल्ली का आधा रास्ता पार चुके थे।
                       वापस बाज़ार में पहुँच.....कुछ सीढ़ियाँ चढ़ कर श्री राम मंदिर के निहायत खूबसूरत नक्काशीदार और सजीव मूर्तियों से सुसज्जित मुख्य द्वार से,  मैं श्री राम मंदिर परिसर में दाखिल हुआ। जूता घर में अपने जूते रखे,  तो जूता घर के सेवादार ने मुझे कहा, " श्री मान जी,  दर्शन करने के बाद कृपया लंगर ग्रहण कर जाये जी".......मुझे अभी भूख नही थी,  सो फिर भी मैंने हामी में सिर हिला दिया। परिसर में सब पहले शिव मंदिर और उनके साथ श्री राम चन्द्र जी का मुख्य मंदिर..... मुख्य मंदिर के समक्ष एक ऊँची ध्वजा व बगल में राम प्रिय भगत हनुमान जी का मंदिर है। उन सभी मंदिरों की निमार्ण शैली बहुत ही भव्य है,  मंदिर की दीवारों व स्तम्भों पर मनमोहक मूर्तियाँ गढ़ी हुई हैं।  मुख्य मंदिर में प्रवेश कर मैने भगवान राम,  लक्ष्मण व सीता जी की सुंदर मूर्तियों के आगे माथा टेका और पुजारी जी ने भी वही बात दोहराई, "भगत,  लंगर तैयार है...भोजन ग्रहण कर ही वापस जाना।"
                        मैंने पुजारी जी से कुछ समय मंदिर के विषय में बातचीत की, और उन्हें प्रणाम कर बाहर आ सम्पूर्ण मंदिर परिसर की परिक्रमा करने लगा,  तो फिर मुझे अब तीसरी बार मंदिर प्रबंधक ने आकर कहा, "भाई,  ऊपरी मंजिल में चले जाये...वहीं लंगर हाल है,  दोपहर का समय है और वहाँ आहार प्राप्त करे, जी। "
                       यह वाक्य सुन मेरा मन गौरवान्वित हो गया, कि इस मंदिर में भी गुरुद्वारे की तरह ही सुशासन चल रहा है.....परन्तु मैंने नाश्ता ही सुबह देर से किया था,  सो मुझे कताई भी भूख नही थी....सो मैने उन से क्षमा माँग ली।
                      मेरी तो रुचि इस प्राचीन मंदिर के इतिहास जानने में थी, कि क्यों इन दुर्गम पहाडों में श्री राम जी का भव्य मंदिर एक राजा ने बनाया, जबकि पहाडों में तो ज्यादातर भगवान शिव व माँ दुर्गा के मंदिर होते हैं.....! "
                      सो,  मंदिर में जड़े हुए एक प्राचीन पत्थर पर खुदा हुआ पढ़ा कि, कुल्लू क्षेत्राधिकारी सूर्यकुल प्रकाश राजा गत सिंह ने सन् 1653में अपने राज्य काल के दौरान इस राम मंदिर को बनाना प्रारंभ किया.....और वहाँ मंदिर में मौजूद लोगों....तथा बाहर आ स्थानीय लोगों से भी इस स्थान के इतिहास के बारे में पूछता रहा। मैंने इस भव्य मंदिर के निमार्ण सम्बन्धी जानकारियाँ हासिल कर निष्कर्ष निकाला, तो यह प्राचीन लोक कथा सामने आई.......
                       कुल्लू नरेश "राजा श्री मान जगत सिंह" (1637-1662 शासनकाल) से जाने-अनजाने में एक बहुत बड़ी भूल हो गई,  जिसके परिणामस्वरूप उन पर "ब्रह्म हत्या " का दोष लग गया। हुआ यूँ कि राजा जगत सिंह जी के पास आपसी रंजिश की वजह से एक झूठी शिकायत आई,  कि पार्वती घाटी में टिपरी गाँव के ब्राह्मण दुर्गादत्त के पास डेढ़ किलो सुच्चे मोती हैं। राजा को भी यह बात अटपटी लगी कि एक गरीब ब्राह्मण के पास इतने कीमती मोती कहाँ से आये। राजा ने आना दूत भेज ब्राह्मण को कहलवाया, " इन मूल्यवान मोतियों का या तो हिसाब दो कि इन्हें कहाँ से प्राप्त किया.... कमाये या उपहार मिला, यदि नहीं हिसाब दे सकते,  तो इन मोतियों को राजकोष में जमा करा दो....! "
                       परन्तु दुर्गादत्त के पास तो कोई ऐसे मोती नही थे,  सो वह बोला, "मेरे पास कहाँ ऐसे मोती"......और दूत ने राजा जी को जा कर सारी बात बता दी। शिकायतकर्ता की शायद राजा पर ज्यादा पकड़ थी,  सो कुछ समय उपरान्त राजा जगत सिंह पार्वती घाटी मणिकर्ण दौरे पर आये,  और पंडित दुर्गादत्त को सिपाहियों द्वारा संदेश भेजवाया,  कि मैं वापसी पर तेरे पास आऊँगा....तू मोती तैयार रखना। सिपाहियों ने दुर्गादत्त के साथ मारपीट की और सुच्चे मोती राजा को सौंपने के लिए चेतावनी दी।
                      परेशान व भयभीत दुर्गादत्त ने परिवार व खुद को अपनी झोपड़ी में ही कैद कर झोपड़ी में आग लगा ली.....और जलते हुए जोर-जोर से चिल्लाने लगा, "ले राजा सुच्चे मोती,  ले ले राजा सुच्चे मोती "........और बहुत दुःखद अंत हुआ पूरे के पूरे घर-परिवार का।
                       राजा जगत सिंह को अब सच्चाई पता चली कि मेरी वजह से इस निर्दोष ब्राह्मण को सपरिवार आत्महत्या करनी पड़ी।इस घटना का राजा जी के तन-मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा,  वे अपने-आप को पापग्रस्त समझने लगे। दिनचर्या, राज-पाठ सब कुछ अब परेशान कर रहा था,  भूख-प्यास मर गई....यदि खाना खाने बैठते तो उन्हें महसूस होता कि मेरे खाने में कीड़े रेंग रहे हैं,  पानी पीते तो,  उन्हें लगता कि मैं किसी निर्दोष का खून पी रहा हूँ......भयंकर मानसिक स्थिति से गुज़र रहे पश्चातापी राजा जगत सिंह ने अपने गुरु पुरोहित फुहारी बाबा के नाम से मशहूर किशन दास जी की शरण ली,  उन सिद्ध महात्मा ने राजन को सलाह दी,  कि आपको इस ब्रह्म हत्या के पाप से तो भगवान रघुनाथ यानी श्री राम जी ही मुक्त कर सकते हैं....आप अयोध्या में स्थापित भगवान राम जी को किसी भी तरह से यहाँ कुल्लू क्षेत्र में ले आये और अपना सारा राज-पाठ भगवान रघुनाथ जी को सौंप,  उनके सेवक व क्षमा के पार्थी बन शासन चलाये।
                       परन्तु अयोध्या से भगवान राम की मूर्ति लाना, एक असम्भव कार्य था और,  इस असम्भव कार्य को संभव करने का कार्य फुहारी बाबा ने अपने एक साहसिक चेले "दामोदर दास" को सौंपा,  जो उस समय सुंदरनगर के राजा सुकेत के पास नौकर था। अयोध्या पहुँच दामोदर दास अपनी चतुराई से राम मंदिर के मुख्य पुजारी का शिष्य बन,  और एक दिन मौका पा,  दामोदर दास भगवान रघुनाथ जी को ले उड़ा........और उसका पीछा करते-करते आखिर अयोध्या के एक पांडे जोधावर ने दामोदर दास को हरिद्वार में आ पकड़ा। परन्तु शायद प्रभु राम को कुछ और मंजूर था, जब जोधावर ने दामोदर से रघुनाथ जी की मूर्ति पकड़ी,  वह मात्र तीन इंच की स्वर्ण मूर्ति के भार से ही भूमि पर गिर गया और फिर से प्रभु राम की अत्यन्त भारी हो चुकी मूर्ति को उठा ना सका। पर जब दामोदर दास ने प्रभु राम की मूर्ति उठाने की चेष्टा की,  वह सहज उठ गई.....और दामोदर दास उसे ले 1651सन् में राजा जगत सिंह के पास कुल्लू रियासत के गड़सा घाटी राजमहल में आ पहुँचा।
                        राजा जगत सिंह जी एक विशाल यज्ञ का आयोजन कर, अपना समस्त राज-पाठ भगवान रघुनाथ जी को अर्पण कर......व भगवान रघुनाथ जी को ही राज्य का राजा बना,  खुद उनके सेवक बन गये।  दामोदर दास को भुन्तर में एक विशाल भू-खण्ड़ इनाम के तौर पर भी दिया गया। भगवान रघुनाथ जी के मूर्ति को उस समय कई गाँवों में बारी-बारी से छुपा कर रखा गया। कुछ समय मूर्ति को मणिकर्ण में भी रखा गया था,  इसलिए यहाँ भी बाद में मंदिर का निर्माण किया गया.....अंत: रघुनाथ जी की मूर्ति को कुल्लू में स्थापित किया गया और राजा जगत सिंह के जीवन में बहुत सुधार हुआ,  वे प्रतिदिन भगवान रघुनाथ जी को भोग लगा कर ही भोजन ग्रहण करते थे....... परिणामस्वरूप राजा जगत सिंह जी ब्रह्म हत्या के घोर पाप से मुक्त हो गये और उन्होंने ही विश्व प्रसिद्ध कुल्लू दशहरे की शुरुआत की। सात दिनों तक चलने वाले इस दशहरा उत्सव में देश के बाकी हिस्सों की तरह रावण, कुंभकर्ण व मेघनाथ के पुतले नही जलाये जाते.....अपितु इस उत्सव में अलग ही किस्मों के रीति-रिवाजों का निर्वाह होता है,  हिमाचल प्रदेश की संस्कृति को करीब से देखा जा सकता है,  इस कुल्लू दशहरा उत्सव में।

                                            .........................(क्रमश:)
श्री राम मंदिर मणिकर्ण.... और मंदिर के सामने खड़ा श्री राम जी का रथ,
जिस पर हर वर्ष दशहरे पर्व पर प्रभु राम की सवारी निकलती है।

पार्वती नदी पर पड़ा झूला पुल... जो मणिकर्ण को मुख्य सड़क से जोड़ता है। 

मणिकर्ण मुख्य सड़क के दूसरी ओर.....पार्वती नदी के किनारे ही बसा हुआ है,  पुल से किया यह छायांकन।

श्री राम मंदिर मणिकर्ण... मुख्य मंदिर प्रभु रघुनाथ जी और साथ में महादेव शंकर जी का मंदिर,
और... श्री राम मंदिर का मुख्य द्वार।

श्री राम मंदिर के द्वार पर खड़े दरबान.... मंदिर का भीतरी कक्ष और मुस्कुरातें हुए पुजारी जी,
मंदिर में स्थापित श्री राम, लक्ष्मण व सीता जी की स्वर्ण मूर्तियाँ।

श्री राम मंदिर मणिकर्ण की दीवारों पर गढ़ी हुई बेहद सुंदर मूर्तियाँ। 

श्री राम मंदिर मणिकर्ण का शिखर,  मंदिर प्रांगण और राम भक्त हनुमान जी का मंदिर।

श्री राम मंदिर मणिकर्ण में दीवार पर बना... माता सरस्वती जी का सुंदर चित्र,
मंदिर की सीढ़ियों पर खड़ा मैं... और सीढ़ियों के सामने ही खड़ा भगवान रघुनाथ जी का रथ।

एक नज़र.... पार्वती नदी के तट पर बसा मणिकर्ण।

( इस चित्रकथा का अंतिम भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )

भाग-12 चलो, चलते हैं.....सर्दियों में खीरगंगा और मणिकर्ण Winter trekking to Kheerganga & Manikaran darshan.

भाग-12  चलो,  चलते हैं...... सर्दियों में खीरगंगा(2960मीटर) 3जनवरी 2016

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                                         सुबह सात बजे भी अभी अंधेरा ही था,  जब मैं विशाल रतन जी को मणिकर्ण गुरुद्वारा साहिब के आगे से ही दिल्ली वापस जाने के लिए बस पर चढ़ाने के लिए गया और फिर कमरे में आकर कुछ समय के लिए लेट गया। जब उठा तो सूर्य के उजालें में अब सब कुछ जगमगा रहा था....क्योंकि हम रात के अंधेरे में गुरुद्वारा में पहुँचें थे, सो बड़ी तीव्र इच्छा हुई कि कमरे से बाहर निकल,  गुरुद्वारे की ऊपरी छत पर जा कर हर तरफ की सुंदरता को निहार लूँ।
                        परन्तु जब मैं घूमता-घूमता गुरुद्वारे के उस हिस्से में पहुँचा, तो वहाँ की छत को फटा देख...मेरे दिमाग में उस जगह 6महीने पहली घटी एक अत्यंत दर्दनाक दुर्घटना,  एक चलचित्र की भाँति घूम गई....कि अगस्त 2015 में मणिकर्ण गुरुद्वारा साहिब के पीछे गाड़गी गाँव के ऊपर पहाड में भूस्खलन होने के कारण एक बहुत बड़ी चट्टान खिसकी.....और तेज रफ्तार से गाड़वी गाँव में....राह में आये एक मकान को ध्वस्त करने के बाद गुरुद्वारे की सराय की छत पर बहुत भयंकर व तीव्र वेग से आ गिरी......और सराय की पांच मंजिलों की छतों और लगभग 15कमरों को तहस-नहस करने के उपरांत पार्वती नदी में जा गिरी।
                        दोपहर 1:30बजे के करीब केवल एक क्षण भर के समय में घटी इस दर्दनाक दुर्घटना ने गुरुद्वारे की सराय के एक हाल कमरे में आराम कर रहे 18नवयुवकों के दल  ( जो कि पंजाब के संगरूर जिले के "रोगंला" गाँव में मणिकर्ण साहिब दर्शन के लिए आये ही थे ) को रौंद दिया,  जिसमें से सात नवयुवकों का मौके पर ही दर्दनाक अंत हो गया.....और बाकी ग्यारह नवयुवक गम्भीर रुप से घायल हो गये। वहाँ खड़े जब मैने उस करुणामय व वेदनात्मक क्षण को महसूस करना चाहा,  तो मेरी रूह कांप गई.....और उन परिवारों के दर्द को जीया,  जिन्होंने इस दुर्घटना में अपने घरों के एकमात्र चिराग खो दिये।
                          दोस्तों,  फिर वही बात दोहराता हूँ.... जो अक्सर कहता हूँ कि, "हे गिरिराज,  तुम कितने सुंदर हो..... परन्तु सिर्फ ऊपर से..... और भीतर से उतने ही कठोर व पत्थर दिल.......!!!! "
                          इस दुर्घटना के बाद गुरुद्वारे की सराय की अब काफी हद तक मरम्मत कर दी गई थी,  बस एक ही छत बाकी थी,  जिसे मैं देख रहा था। वहाँ से ऊपरी मंजिलों की ओर चढ़ कर चारों दिशाओं में दिखने लगा,  पार्वती नदी के पार बना बहुत बड़ा गर्म जल का सरोवर व पार्वती नदी पर बना गुरुद्वारे के मुख्य द्वार को आता हुआ पुल बहुत खूब नज़र आ रहा था, जिस पर लोग अपनी यादगारी फोटो खिंचवा रहे थे। गुरुद्वारे साहिब के सुनहरी रंग में रंगे गुम्बदों ने मुझे अपनी ओर आकर्षित कर लिया,  वहाँ पहुँचा तो गुरुद्वारे के संग बने प्राचीन शिव मंदिर के कलश शिखर ने भी अपना आकर्षण मुझ पर छोड़ा। गुरुद्वारे और मंदिर पर सुशोभित निशान साहिब व डमरू-त्रिशूल मुझे अडिगता व स्थिरता की प्रेरणा दे रहे थे.........और, एक हवा का झोंका आया......संग लाया चावलों की खुशबू.......और मैं खींचा चला गया,  जिस ओर से यह खुशबू आ रही थी। गुरुद्वारे की सराय की छत की मुंडेर से नीचे देखा,  तो शिव मंदिर के पास वाले उष्ण जल के कुण्ड में पकने हेतू रखे भोजन के बड़े-बड़े बर्तनों से वह भीनी-भीनी सुगंध फैल रही थी। जो मेरी नसिका के रास्ते से उदर में घुसपैठ कर मेरी इच्छुक भूख की इंद्रियों को भड़का रही थी, परन्तु मेरा मन तो उस समय कुछ चाइनीज़ खाने को कर रहा था। सो सोचा कि जब मैं यहाँ से मणिकर्ण के बाज़ार में जाऊँगा,  तो वहाँ ही कुछ चाइनीज़ नाश्ता करूगाँ।
                           और, फिर नीचे उतर कर गुरुद्वारे के पुल पर आ कर कुछ चित्र खींच और खिंचवा.......मैं मणिकर्ण के बाज़ार की ओर रवाना हो चला। मणिकर्ण के बाज़ार में हर किस्म की दुकानें हैं, और मैं जा रुका एक तिब्बती की दुकान पर,  जहाँ मैने सिर्फ 25रूपये में भरपेट नाश्ता किया।
                         दोस्तों,  मणिकर्ण के विषय में एक विशेष बात बताता हूँ..... कि कुल्लू-मनाली घूमने आये सैलानी जब मणिकर्ण पहुँचतें हैं,  तो उनकी जेब ढीली होनी एक दम से बंद हो जाती है। कहाँ मनाली में खाया 50रुपये का पराँठा,  अब मणिकर्ण आने पर बहुत सस्ता या फिर मंदिर या गुरुद्वारे में मिलने वाले लंगर (मुफ्त भोजन)  में तबदील हो जाता है। कहाँ मनाली में कई हजार रुपये एक रात रहने के लिए "उड़ा" दिये जाने पड़ते हैं......और वहाँ मणिकर्ण में सैलानी गुरुद्वारे या मंदिर की सराय में आराम कर सकता है और वो भी धार्मिक व आध्यात्मिक सुकून के संग।
                         स्वादिष्ट नाश्ता करने के पश्चात मैं पहुँचा, श्री रघुनाथ जी महाराज के प्राचीन मंदिर में.....पर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मंदिर का अभी हाल में ही जीर्णोद्धार किया गया है। पहाड़ी शैली में बने इस छोटे से मंदिर पर बहुत सुंदर नक्काशी की हुई है,  मंदिर के जालीदार कपाट तो बंद थे। द्वार से ही मुझे भगवान रघुनाथ जी की मूर्ति के दर्शन हो गये,  परन्तु मुझे ऐसा वहाँ कोई भी नही मिला जो मुझे इस प्राचीन मंदिर के विषय में बता सके। 
                             अब मैं बाज़ार में ही स्थित माता नैना देवी जी के नव निर्मित बेहद ही खूबसूरत नक्काशी से सुशोभित मंदिर पर आ गया,  जिसके बाहर ही गर्म जल का एक कुण्ड है। उस उबलते जल कुण्ड की दीवारों पर कुछ बुजुर्ग टेक लगाये बैठे सर्दी के मौसम में गरमाहट का आंनद लेते हुए बतिया रहे थे। वहीं उस गर्म जल कुण्ड से स्थानीय लोग रबड़ की हॉट बोतलों में भी गर्म पानी भर रहे थे,  जिसे वे ठण्ड से बचने हेतू हाथ सेंकने के काम में ला रहे थे।
                        दोस्तों,  लकड़ी से बना माता नैना देवी जी का मंदिर जितना खूबसूरत है, उतनी ही मंदिर में स्थापित माँ नैना देवी जी की मूर्ति मनमोहक है। यह वही स्थान है,  यहाँ जलक्रीडा में मगन माता पार्वती के प्रिय कर्ण-आभूषण की मणि जल में गिर गई, जब भगवान शिव माता पार्वती के संग भ्रमण करते हुए,  इस रमणीक स्थल की मनोहारी आभा देख यहाँ ठहरे हुए थे। समस्त शिव गण नाकाम रहे मणि ढूँढनें में,   परिणामस्वरूप भगवान शिव ने अत्यंत क्रोधित हो अपना तीसरा नेत्र खोला......उस दिव्य नेत्र से एक शक्ति नैना देवी प्रकट हुई....और माता नैना देवी ने ही माता पार्वती की खोई हुई मणि का पता दिया,  कि वह बहुमूल्य मणि तो पाताल लोक के स्वामी शेषनाग के अधिकार में चली गई है, तो देवताओं के आग्रह पर शेषनाग ने मणि लौटाने के लिए पाताल लोक से ही जोर का फुंकारा मारा,  जिसके परिणामस्वरूप इस स्थान पर उबलते हुए गर्म जल की धारा भूमि से फूट पड़ी।  वह जलधारा अपने साथ सहस्त्र मणियों के संग माता पार्वती के आभूषण की मणि भी बाहर ले आई।
                       तब जा कर भगवान शिव का क्रोध शांत हुआ,  इसी वजह से इस स्थान का नाम मणिकर्ण पड़ा.......और मणिकर्ण की प्राकृतिक सुंदरता भगवान शिव को इतनी पंसद आई,  कि उन्होंने अपनी नगरी "वाराणसी " में गंगा नदी के किनारे एक घाट का नाम "मणिकर्णिका घाट " रखा........मणिकर्ण ही वह भूमि है,  जहाँ कालान्तर में अनगिनत योगियों व श्रृषि मुनियों ने तपस्या व साधना कर भगवान शिव से अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त की। आज भी अलग-अलग क्षेत्रों से आये नगर व ग्राम देवी-देवता अपने पूरे हार-श्रृंगार के संग डोलियों पर सवार हो मणिकर्ण तीर्थ की यात्रा कर भगवान शिव से आशीर्वाद प्राप्त कर,  पुनः लोकोपार की प्ररेणा ले वापस लौट जाते हैं।
                       इतिहास में महाभारत सम्बधित एक मुख्य घटना भी यहीं मणिकर्ण क्षेत्र में ही घटी,  भगवान शिव ने शिकारी का रुप धर सर्वश्रेष्ठ धर्नुधर अर्जुन की परीक्षा ली थी,  और प्रसन्न हो अर्जुन को अपना पाशुपात अस्त्र देकर निर्भय बना दिया,  क्योंकि पाशुपात अस्त्र एक अति विध्वंसक विनाशकारी अस्त्र माना जाता था। इस दिव्य अस्त्र को धारक मात्र आँख,  मन,  शब्द या धनुष से दाग सकता था,  इस अस्त्र के प्रहार से बचना बहुत कठिन कार्य था। मैं बहुत बार सोचता हूँ दोस्तों,  कि हमारे भारत वर्ष के प्राचीन इतिहास में भिन्न -भिन्न क्षेत्रों में विज्ञान ने बहुत प्रगति की हुई थी......युद्ध विज्ञान से मात्र इशारों से अग्नि अस्त्र चल पड़ते थे,  आयुर्वेद में संजीवनी से मृत जीवित हो उठता था, आकाश मार्ग में विमान उड़ रहे थे, आदि-आदि .....परन्तु यह सब अविष्कार,  वे सब ज्ञानी व विज्ञानी लोग अपने साथ लेकर ही मर गये, अगली पीढ़ियों यानि हमें वंचित कर गये इन सब अविष्कारों से,  या यूँ भी अपनी "तुच्छ सोच" सोचता हूँ कि यह सब राजे-महाराजों के किस्से -कहानियाँ है,  जो लिखारियों ने बढ़ा-चढ़ा कर लिखे....!!!

                                                        ....................(क्रमश:)
लो, विशाल जी तो चल दिये.... घर वापस दिल्ली को।

इंटरनेट से प्राप्त गुरुद्वारा मणिकर्ण चट्टान दुर्घटना के उस समय के चित्र..... और बाद के चित्र, जो मैने खींचें थे।

गुरुद्वारा साहिब मणिकर्ण के गुम्बद व निशान साहिब ....और प्राचीन शिव मंदिर के कलश-त्रिशूल।

प्राचीन शिव मंदिर मणिकर्ण... के प्रांगण में गर्म कुण्ड में पक रहा लंगर, जिसकी महक से मैं खिच गया,
और,  यह चित्र गुरुद्वारे की मुंडेर से खींचा था। 

गुरुद्वारा मणिकर्ण साहिब की छत से खींचे थे.... ये चित्र।

गुरुद्वारा मणिकर्ण साहिब का मुख्य द्वार। 

प्राचीन शिव मंदिर.... और गुरुद्वारा साहिब मणिकर्ण।

गुरुद्वारा मणिकर्ण के पुल पर हर सैलानी कम से कम एक फोटो तो जरूर खिंचवाता है,  जी।

प्राचीन मंदिर श्री रघुनाथ जी महाराज.... मणिकर्ण।

माता नैना देवी का भव्य नक्काशीदार काठ मंदिर.... मणिकर्ण। 

मणिकर्ण का एक सुंदर दृश्य।

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