रविवार, 25 फ़रवरी 2018

भाग-3 करेरी झील..... " मेरे पर्वतारोही बनने की कथा "

                                                         
                                      " वो चार किलो का डंडा....!!! "

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                                      कांगड़ा में रात रुक,  सुबह जल्दी ही रवाना हो लिये धर्मशाला की ओर,   ताकि जल्दी से जल्दी करेरी गाँव पहुँच कर झील की तरफ 10 किलोमीटर की चढ़ाई शुरू कर सकें। 31 दिसम्बर 2012 के दिन सुबह 7:30 बजे ही हम धौलाधार हिमालय के चरणों में बसे शहर धर्मशाला जा पहुँचे।
                         सामने दिख रहे धौलाधार पर अभी चंद रोज़ पहले हुई ताज़ी बर्फबारी ऐसे प्रतीत हो रही थी, जैसे पर्वत हमें रिझाने के लिए तैयार हुए हो।  तभी उन पर्वत शिखरों पर सूर्योदय की सुनहरी किरणें आन पड़ी और ऐसा आभास हुआ कि पर्वतों के शिखरों पर सोने के पत्र मढ़ दिये हो.......यह नज़ारा मैं अपने जीवन में पहली बार देख रहा था।                                करेरी का रास्ता पूछते-पूछते, हम बाज़ार से निकले तो मेरी तेज नाक ने दूर से बन रहे "छोले-भटूरो" की गंध सूँघ ली....." चटोरे तो हम दोनों साँढ़ू भाई जन्मजात ही हैं.....!!!"
                         उस हलवाई की दुकान में दाख़िल होते हुए...तिल-भूग्गा,  अलसी की पिन्नी, इमरती और जलेबियों से हमारी आँखें दो-चार होना स्वाभाविक ही था दोस्तों।   खूब दबाकर नाश्ता किया और समोसे व "पलंग-तोड़"(मिल्क केक)पैक करवा कर, करेरी झील का रास्ता पूछा तो वह दुकानदार हमें घूरता हुआ बोला, " भला आज कल भी कोई करेरी झील पर जाता है.... बर्फ पड़ चुकी है, सब रास्ते बर्फ में दब गए होंगे... झील भी जम चुकी होगी,  मूर्खता है इस मौसम में करेरी जाना...यदि जाना ही चाहते हो तो,  'त्रियुड़' चले जाओ... वहाँ तो लोग आते-जाते रहते हैं और सुविधाएं भी उपलब्ध हैं....!!!!"
                          दुकानदार की यह बातें सुन, मुझ में से हवा निकली नही....बल्कि और ज्यादा बढ़ गई कि इस मौसम में कोई नहीं जाता करेरी,  तो फिर विकास नारदा अवश्य जाएगा...!!!     और,  विशाल जी ने भी जलती आग में घी डाल दिया "we will done it " कह कर अपनी मूँछों को ताव देने लगे।
                         और.....बगैर तैयारी व उपकरणों के हम फूली हुई छाती ले,  मुँह उठाकर चल दिए......जमी हुई करेरी झील देखने।  करेरी गाँव धर्मशाला से पठानकोट रोड पर 25किलोमीटर की दूरी पर है।  मुख्य सड़क छोड़ अब छोटी सी सड़क हमारे गाड़ी के टायरों के नीचे थी।  चंद किलोमीटर जाने के बाद काली सड़क,  मिट्टी के रास्ते में तब्दील हो गई।  हम उस इलाके की तरफ जा रहे थे, जिसके सामने धौलाधार हिमालय खड़ा होने से रास्ता आख़िरी गाँव करेरी तक जाकर बंद हो जाता है......और सामने दिख रहे धौलाधार के "भीमकसूटरी पर्वत"  पर पड़ी ताज़ी बर्फ हमारे आकर्षण का केंद्र बन चुकी थी।
                           गज नदी के किनारे गाँव से, अभी हाल में ही करेरी गाँव के लिए सड़क का निर्माण कार्य शुरू हुआ था। अब एक कच्ची सड़क पर हमारी गाड़ी बढ़ रही थी......और कदम-कदम पर बदलते दिलकश मंज़र हमें बार-बार गाड़ी से बाहर निकाल लाते। करेरी गाँव तक पहुँचने का मार्ग गाड़ी के चलने योग्य नही था,  सो उस वीरान जगह में ही अपनी गाड़ी को लावारिस छोड़ने के सिवाय हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नही था.....क्योंकि करेरी गाँव अभी भी  दो किलोमीटर दूर था।
                           उत्साह में बहुत ताकत होती है,  सो हम दोनों अब अपने बच्चों के स्कूल-बैगों में अपना जरूरी सामान भर रहे थे। पिट्ठू बैग पीठ पर डाल दो कदम चले तो मन में जाने क्या आया....अपने बैगों से हम दोनों ने ही गर्म लोईयाँ निकाल कर गाड़ी में फेंक दी,  कि सिर्फ दस किलोमीटर ही तो दूर है करेरी झील... करेरी गाँव से...!   और फटाफट जाकर शाम को वापस भी आ जाएंगे,  इस गर्म लोई के भार को क्यों व्यर्थ में उठाना है.....!!
                          10किलोमीटर की चढ़ाई जो करेरी गाँव (1900मीटर) से शुरू होकर करेरी झील (2934मीटर) तक जाती है, हमारी नज़र में चंद घंटों का ही खेल था.... क्योंकि पहाड़ों को अब तक हमने सड़कों पर ही खड़े होकर देखा था। जबकि पहाड़ की चढ़ाई पर एक इंच भी एक मीटर जितना बड़ा लगता है दोस्तों....इस बात का इल्म कहाँ था...!!
                        पंजाबी में एक कहावत है, " या तां बाह पेआ जानें,  या राह पेआ जानें...!!"
 मतलब वास्ता पड़ने पर ही मुसीबत का ज्ञान होता है या उस रास्ते पर चलने पर ही कठिनता का आभास होता है।
                           गाड़ी को राम भरोसे छोड़ उस कच्ची सड़क नुमा रास्ते पर हम चल दिए, करेेरी गाँव की ओर।  करीब पौने घंटे की चढ़ाई के बाद सरसों के पीले फूलों के खेत और स्लेटों से बनी छतों वाले कच्चे-पक्के मकानों ने हमें दर्शन दिये।  उस ऊँचाई से पीछे मुड़ गाड़ी की तरफ देखा तो वह काली चींटी सी नज़र आ रही थी। धूप सेक रहे गाँव वाले हम अजनबी शहरी छोरों को प्रश्नवाचक नजरों से देख रहे थे।
                          करेरी झील पर कौन सा रास्ता जाता है का सवाल मानो उन्हें हैरान-परेशान  कर गया हो।उत्तर मिला, "भाई आजकल तो वहाँ कोई नही जाता, तुम क्यों जा रहे हो...!!"  मैंने चहकते हुए कहा बस हमें जमी हुई झील देखनी है।  तो उन्होंने कहा, " तुम लोग झील तक नही पहुँच पाओगे,  रास्ते में ही कहीं गुम ना हो जाओ....अच्छा है गाँव में एक गाइड सुरेश है, जो लोगों को झील पर घुमा कर लाता है...उसके घर जा कर उसे मिल, अपने साथ ले जाओ...!!!                                  विशाल जी बोले, " सलाह अच्छी है "   और हम दोनों उस गाइड सुरेश के घर जा पहुँचे तो पता चला कि वह तो सुबह सवेरे जल्दी ही जिला वन विभाग के मुख्य अधिकारी के बेटे और उसके मित्र को लेकर करेरी झील पर चला गया है और कोई भी व्यक्ति उस छोटे से गाँव में हमारे संग जाने के लिए तैयार नहीं हुआ।
                           गाँव के घरों में हमारे अलावा एक और दल भी घूम रहा था,  जिसे देख बड़ी हैरत हुई कि हिमालय के इस सदूर गाँव में, जहाँ अब तक सड़क भी नहीं पहुँची है..... इसाई धर्म के प्रचारक वहाँ पहुँच गाँव में नववर्ष के तोहफे बांट रहे थे। यह परोपकार देख मेरे मन का इंसान तो बहुत खुश हुआ,  परंतु दिमाग का हिंदू परेशान हो गया....!!!!
                           विशाल जी के पिट्ठू बैग की एक तनी उखड़ गई थी,  सो उसे भी ठीक करवाना था। दर्जी का घर ढूँढ बैग को सिलवाया और वही पड़ी हिमाचली टोपी पहन विशाल जी खूब इतराये।  इस चक्कर में दोपहर के 12बज चुके थे,   यानी हम आधा दिन खो चुके थे।
                          गाँव वालों से आखिर हमने करेरी झील का रास्ता पूछकर और गाइड का मोह त्याग, चलना शुरू कर दिया। करेरी से कुठारना गाँव तक का सड़क मार्ग निर्माण कार्य चल रहा था, बस उसी सड़क पर कोई तीन किलोमीटर चलने के बाद हमें "लियोंड खड्ड" पर बने नए पक्के पुल से पहले लियोंड खड्ड के साथ-साथ ऊपर को चढ़ना था। करेरी गाँव के घरों से निकल हम अब उस निर्माणाधीन सड़क पर चल पड़े।
                          कुछ आगे आने पर सड़क किनारे कंक्रीट की रोक लगाने वाले लोहे के सांचे पड़े थे और उसमें से मुझे एक सीधी लकड़ी मिल गई जो इन सांचों को फिट करने के बाद सीधा खड़ा रखने के लिए सहारे का काम देती होगी।  वह डंडा नुमा लकड़ी मैंने विशाल जी को थमा दी..... और बीस कदम बाद फिर से मुझे निर्माणाधीन सड़क के किनारे पड़ी एक दूसरी डंडा नुमा लकड़ी भी मिल गई,  परंतु वह लकड़ी ज़रा भारी थी... डंडा कम शहतीर ज्यादा लग रही थी। उस चार किलो के लठ को उठा,  मैंने अपनी पीठ पर लाद लिया यह सोचते हुए कि लाठी की लाठी और जरूरत पड़ने पर जलाने के लिए ईंधन।
                           दोपहर एक बजे हम लियोंड खड्ड पुल पर जा पहुँचे,  जहाँ से करेरी झील को रास्ता मुड़ रहा था। पक्के पुल पर पहुँच खुशी उल्लास उत्साह उमंग हमारे कदमों को नचाने लगी... और हम दोनों साँढ़ू भाई भांगड़ा डालने लग पड़ते हैं...!!     सड़क निर्माण में लगे मजदूर हमारे साथ-साथ अपनी उन लकड़ियों को भी घूर रहे थे,  जो हमने उनके सामान से चुरा ली थी।  लकड़ियों के प्रश्न पर हमने उनसे निवेदन किया कि आप और लकड़ी काट लेना भाई,  ये हमें चाहिए...क्योंकि हम करेरी झील पर जा रहे हैं।  तो वे मजदूर बोले, " इस समय करेरी तो बहुत देर से जा रहे हैं.....आज तो नहीं पहुँच पाओगे,  रास्ते में आपको गद्दियों के वीरान डेरे मिल जाएंगे... उसमें रात गुज़ार कर सुबह करेरी झील चल देना...!"
                            उस गाइड और दो लड़कों के बारे में पूछा तो जवाब मिला वह लोग सुबह गए थे और उन तीनों से पहले दो अंग्रेज जोड़े भी करेरी झील की ओर चढ़े हैं।   यह सुन हमें कुछ तसल्ली हुई कि हमारे आगे कुछ और लोग भी गए है......और हमें वह वापसी करते हुए मिल भी सकते हैं।
                             हम दोनों उस समय हर चीज को अपने मुताबिक ही सोच रहे थे,  परंतु पहाड़ कभी भी आपके मुताबिक नही सोचता।      "पहाड़ का तो अर्थ ही होता है, मुश्किल"    हर कदम मुश्किलें आपका रास्ता रोक कर कहती हैं, " एे बंदे, मैं पहाड़ हूँ पहाड़.... तुझे तेरी औकात मुझ पर चार कदम चल कर ही पता लग गई होगी...!!"  इस सत्य का प्रकाश हमारे अनुभवहीन दिमाग़ में जल्दी ही हो गया। सीधा-सादा रास्ता अब टेढ़ी-मेढ़ी पत्थर की सीढ़ियों और कदम-दर-कदम घुमावदार पगडंडी ने ले लिया।  पर अभी यह सब मुसीबतें बेहद मीठी लग रही थी, चढ़ाई चढ़ने में खासा आनंद भी प्राप्त हो रहा था।  लियोंड खड्ड की जलधारा को उसी में पड़े बड़े-बड़े पत्थरों पर उछल-उछल कर फाँदना ऐसे लग रहा था,  जैसे हम बचपन में पहुँच " स्टापू" खेल रहे हो....!
                             मैंने उन मजदूरों से करेरी झील की दिशा के बारे में पूरी जानकारी ले ली थी कि सामने दिख रहे इस पहाड़ की पिछली तरफ पहुँच, इसी नदी पर बने लोहे के पुल को पार कर... बाएं हाथ मुड अगले पहाड़ पर करेरी झील है।  सो एक मात्र पगडंडी पर अपने पग बढ़ाए जा रहे थे.....चढ़ाई और उखड़ी सांसो की जुगलबंदी ने हमें झट से ही थका डाला, कहाँ नाच रहे हमारे कदमों पर अब जूतों का भी भार महसूस होने लग पड़ा और ऊपर से मेरे हाथ में वह चार  किलो का मोटा डंडा जिसे मैंने अपनी ट्रैकिंग स्टिक बना रखा था।  चढ़ाई के इस पहले स्तर में ही हम दोनों थक कर रास्ते पर ही धूप में लम-लेट हो गए।  पलकें खुद-ब-खुद भारी हो बंद हो गई,  थकान झपकी का सहारा ले बैठी।
                             कुछ समय बाद मुझे उस घने जंगल में एक आहट अपने पास आते हुए महसूस हुई और झट से आँखें खोल उस ओर देखा..... तो,  एक बहुत बड़ा बंदर दबे पांव हमारे पास.... पीछे पड़े बैग उठाने के लिए बढ़ता आ रहा था और उसकी सेना पीछे खामोश खड़ी अपने मुखिया को देख रही थी। मैंने फुर्ती से अपना चार किलो का लठ उठाकर उस बंदर की तरफ दे मारा ....और पहाड़ की उस खामोशी में बंदरों व हमारे विरोध की चीखें गूँज उठी। चंद क्षणों में फिर से सन्नाटा छा गया,  बंदर हमारी नजरों से ओझल हो चुके थे।  तब ध्यान आया कि पहाड़ों में जंगल भी होते हैं और उन जंगलों में खतरनाक जंगली जानवरों का ही राज होता है.... खासकर भालू।
                              खैर अब डर की क्या बात जलावन के लिए उठाया वह चार किलो का डंडा,  ट्रैकिंग स्टिक के साथ अब मेरा हथियार भी बन चुका था।

                                                                 .................................(क्रमश:)
करेरी झील पर जाने के लिए,  सुबह साढ़े सात बजे ही हम धर्मशाला पहुँच गए।

धौलाधार हिमालय पर पड़ी ताज़ी बर्फ,  ऐसे प्रतीत हो रही थी कि पर्वत हमे रिझानें के लिए तैयार हुये हो। 

तभी सूर्योदय की किरणें पर्वत शिखरों से अठखेलियाँ करने लगी। 

सूर्योदय की स्वर्णिम किरणें ऐसा आभास दे रही थी कि जैसी पर्वत शिखरों पर सोने के पत्र मढ़ दिये गए हो,
यह नज़ारा मैं अपनी जिंदगी में पहली दफा देख रहा था दोस्तों। 

इतनी खूबसूरत मिठाई.... तो कैसे ना आँखें दो-चार हो। 

खूब दबा कर खाए,  " छोले-भूटरे " 

और,  मीठे में तिल-भूग्गा और इमरती। 



फिर,  धर्मशाला से चल दिये हम करेरी गाँव की ओर। 

रास्ते में दिख रही धौलाधार हिमालय की पर्वतश्रेणी। 

रास्ते में सड़क निर्माण का कार्य करते मजदूर। 

                                                                                 
करेरी के रास्ते में लगा एक छोटा सा विद्युतउत्पादन केन्द्र। 

विशाल जी,  मुझे यहाँ उतार दो....और गाड़ी वहाँ जाकर रोकना,  मैं उस झरने के साथ गाड़ी की फोटो खिंचूगाँ। 

रास्ते की सुंदरता... हमें बारम्बार गाड़ी से उतार बाहर खींच लाती। 

देखा ना क्या खूबसूरत चित्र,  धौलाधार में कच्ची सड़क पर हिमाचल परिवहन की बस और हमारी गाड़ी। 

धौलाधार हिमालय का भीमकसूटरी पास। 

भीमकसूटरी पर्वत पर पड़ी ताज़ी बर्फ। 

हिमालय तू गोरा भी सुंदर और काला भी सुंदर....!! 

घेरा गाँव आ गया दोस्तों। 

और,  हर जगह से दिखता भीमकसटूरी पर्वत हमारे आकर्षण का केन्द्र बन चुका था। 

घेरा गाँव में गज नदी पर लगी विद्युत परियोजना।

वाह,  कितना मनमोहक गाँव। 

घेरा गाँव से करेरी गाँव के लिए सड़क निर्माण कार्य चल रहा था। 
             
                                                                                 
धौलाधार के चरणों में मानव निर्मित सुंदरता। 

धौलाधार से बह कर आ रही नदियों में नाममात्र ही जल था। 

रास्ता अब हमारी गाड़ी को परेशान करने लगा था। 

और,  करेरी गाँव से दो किलोमीटर पहले कच्ची सड़क पर गाड़ी आगे बढ़ना मुश्किल सा हो गया,  तो इस वीरान जगह पर ही गाड़ी को लावारिस छोड़ देना हमारी मजबूरी बन गई, और अपने पिट्ठू बैग डाल हम सामने देख रहे पहाड़ पर चढ़ दिये....

करेरी गाँव की ओर। 

पहाड़ चढ़ने पर सबसे पहले हमे सरसों के खेत व स्लेटों की छतों वाले मकानों ने दर्शन दिये। 

उस ऊँचाई पर पहुँच, नीचे देखा तो गाड़ी काली चींटी सी नज़र आ रही थी। 

गाँव वाले हम अजनबी शहरी छोरों को प्रश्नवाचक नजरों से देख रहे थे। 

औसम्..... विशाल जी का तकिया-कलाम।

गाँव वालों से भेट-वार्तालाप। 

गाँव के दर्जी से विशाल जी के बैग की उखड़ी तनी ठीक करवाई,
वहाँ पड़ी हिमाचली टोपी पहन विशाल जी खूब इतराये। 

दर्जी के घर के बाहर।

और,  हम करेरी गाँव से झील का रास्ता पता कर चल दिये और जा पहुँचें करेरी झील से बह कर आ रही लियोंड नदी पर बने पुल पर,
जहाँ से हमें नदी के साथ-साथ ऊपर चढ़ना था। 

लियोंड खड्ड पर बने नये पुल पर पहुँच,  हमारे कदम खुशी उल्लास उत्साह उमंग से नाचने लग पड़ते हैं... 

और,  हम दोनों साँढ़ू भांगड़ा डालने लग पड़ते हैं...!!! 

लियोंड खड्ड पर पर पुराना पुल। 

पुल पर काम कर रहे मजदूर हमारे साथ अपने उन डंडों को भी घूर रहे थे,  जो हमने चुरा लिये थे। 

उन मजदूरों से करेरी झील के विषय में जानकारियाँ ले उस एकमात्र पगडंडी पर चढ़ दिये। 



लियोंड खड्ड को पार करते हुये,  उसमें पड़े पत्थरों को फाँदना ऐसा लग रहा था जैसे हम बचपन में पहुँच स्टापू खेल रहे हो। 

मेरी पीठ पर लदा,  वो चार किलो का डंडा...!!!!

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रविवार, 18 फ़रवरी 2018

भाग-2 करेरी झील....." मेरे पर्वतारोही बनने की कथा "

                     
                                                                 " कांगड़ा दुर्ग में चंद घंटे "

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                                        कानों में वॉइस गाइड लगाए हम दोनों, भारत के सबसे पुराने किले नगरकोट कांगड़ा दुर्ग की ओर बढ़ रहे थे.....और हमारे हाथों में किले का नक्शा था। जिसे वॉइस गाइड के अनुसार क्रमवार नंबरों में विभाजित किया हुआ था। निर्धारित जगह पर पहुँच वॉइस गाइड का नंबर एक दबाया,  तो विश्व के सबसे पुराने राजवंश "चंद्रवंशी कटोच राजपूत राजवंश" के 488वें  राजा आदित्य देव चंद कटोच जी की आवाज कानों में गूंजी.....और शुरुआत हुई 4000 साल पुराने कांगड़ा किले की कहानी की।
                        " हिमालय में बने इस किले पर जिसका कब्जा, वही पहाड़ों का राजा घोषित होता था " तो अनगिनत देसी-विदेशी हमलावरों से हजारों साल जूझता रहा कांगड़ा दुर्ग।
                        7800 ईसा पूर्व, यानी करीब 10000 साल पहले राजा भूमि चंद कटोच से इस राजवंश की शुरुआत हुई और मुल्तान (जो कि अब पाकिस्तान में है) में अपना राज्य स्थापित किया.... जिसका क्षेत्र लद्दाख तक था। यह वह राजवंश है जिन्होंने 5000 ईसा पूर्व भगवान श्रीराम से भी प्रभुता का युद्ध लड़ा था और इस दुर्ग के स्थापक राजा सुशर्मा चंद कटोच ने 1500 ईसा पूर्व कौरवों का साथ देते हुए अर्जुन से युद्ध लड़ा था।
                       किले के मुख्य द्वार महाराजा रणजीत सिंह द्वार के पास जाने के बाद हर कदम पर किला अपने स्वर्णिम इतिहास की कहानी सुना रहा है। हर मोड़ पर दीवारें व दरवाजे अपनी बात रख रही हैं और दीवारों में मढ़ी हुई मूर्तियां भी कहां खामोश थी।
                       25 सौ साल पहले सिकंदर से युद्ध लड़ने वाला राजा पोरस भी कटोच राजवंश से ही था।  करीब 2350 साल पहले सम्राट अशोक ने कटोचों से युद्ध लड़ मुल्तान छीन लिया।  पहली सदी में कांगड़ा घराना कन्नौजों संग जूझता रहा.....और पांचवी सदी में हिमालय पर प्रभुत्व के लिए कश्मीर के राजाओं संग कटोचों का आमना-सामना होता रहा।                            10 वीं सदी में आ धमका महमूद गजनी...और लुटेरे ने खूब लूटा कांगड़े को। लूटा क्या मैं तो इसे चोरी ही कहूँगा क्योंकि जब कांगड़े की सेना किसी और जगह युद्ध में रत थी और पीछे से कोई आक्रमणकारी आ पहुँचा पहली बार किले के भीतर...!
                       मोहम्मद गौरी भी आया था किला लूटने कांगड़ा, 11वीं सदी के अंत में।  13वीं सदी में कटोच लड़ते-लड़ते दिल्ली जा पहुँचे, तुगलकों और तैमूर के विरुद्ध भी घमासान युद्ध होते रहे।  दिल्ली का शहंशाह तुगलक कांगड़ा के किले को कई महीनों तक घेरे बैठा रहा और एक दिन किले की दीवार पर घूम रहे कटोच राजा की नज़र जा मिली तुगलक से  और इशारों- इशारों में ही दोनों बातचीत के लिए तैयार हो गए....बाद में इनकी संधि हो गई।
                       फिर 15वीं सदी में शेरशाह सूरी कांगड़े पर आ चढ़ा, परंतु हार गया। मुगल सम्राट अकबर से भी भीषण  युद्ध होते रहे.... 52बार अकबर ने कोशिश की इस दुर्ग पर विजय पाने की, परन्तु कामयाब ना हो सका..  अंततः कटोचों से उसकी संधि हुई।
                        सोलहवीं सदी में अकबर का पुत्र जहांगीर एक बहुत बड़ी सेना ले ठान कर आया और 14 महीनों तक किले की घेराबंदी कर रखी। अनाज-रसद खत्म होने पर आखिर राजपूतों ने आत्मसमर्पण करने की बजाय किले के द्वार खोल कर उस विशाल सेना से लड़ना-मरना ही मुनासिब समझा।
                        कहते हैं 12हजार के करीब कटोच सैनिक मारे गए इस भीषण संग्राम में.... किला हारते देख किले के अंदर जौहर की तैयारी होने लगी। अपनी प्रतिष्ठा, सम्मान बचाने के लिए बलिदान देते हुए कटोच महिलाएं किले के सरोवर "कपूर सागर"  में अपने पैरों में पत्थर बांधकर डूब मरी।  कितना हृदय विदारक दृश्य होगा....सोच कर मेरी रूह कांप उठी।
                         तलवारों की आवाजें, तोपों के बारूद की गंध, भीषण युद्ध की चीत्कार, औरतों की चीखें व बच्चों के रोने की आवाजें मुझे चंद क्षणों के लिए उस खंडहर किले में अचानक से सुनाई देने लगी...... फिर,  एकाएक उन दीवारों को पुन: देखता हूँ और अपने-आप को आज में पाता हूँ।
                        बंदी बनाए गए कटोच राजा को जहांगीर मारता नहीं, बल्कि घुट-घुटकर मरने के लिए आजाद कर देता है। पर दोस्तों कटोच तो कटोच ही है ना... कटोच का मतलब "कट-ऊँच" जिसकी तलवार हमेशा ऊँची रहती है।  कुछ समय बाद सब कुछ हारे हुए उस कटोच राजा ने पुन: कोशिश की अपना राज-सम्मान व किला वापस पाने हेतु......परंतु वह हार गया और जहांगीर ने अब उसे बेहद क्रूरता से मारा.....जीवित अवस्था में ही उस वीर कटोच राजा की खाल उतरवा दी।
                         समय का चक्कर चलता रहा जहांगीर के बाद शाहजहां का भी कांगड़े किले पर अधिकार रहा। जहांगीर की क्रूरता का बदला उस कटोच राजा के पोते ने आ लिया.. उसने पुन: किले पर चढ़ाई कर किले में मौजूद जितने भी मुगल अधिकारी व सैनिक थे उन सब की जीवित ही खाल उतरवा दी....!!
                           17वीं  सदी में कटोच राजा भीम चंद ने औरंगजेब की हिंदू धर्म विरोधी नीतियों का विरोध कर गुरु गोविंद सिंह जी का साथ देते हुए औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध लड़ा। 17वीं सदी के अंत में ही बटाला के सिख सरदार जय सिंह कन्हैया और तत्कालीन कटोच वंशी राजा संसार चंद ने कमजोर हो चुके मुगलों से किला जीता और मैदानी क्षेत्रों के बदले किले को राजा संसार चंद कटोच को सौंप दिया।
                            कई सौ वर्ष के बलिदान और जंग के उपरांत आखिर फिर से कांगड़ा दुर्ग पर हिंदू राज लौट आया और सत्ता पर काबिज हो महत्वाकांक्षी राजा संसार चंद कटोच ने अपने राज्य के विस्तार के लिए अन्य राज्यों पर हमले आरंभ कर दिए.....सो 18वीं सदी में नेपाल के अमर सिंह थापा अन्य राज्यों का नेतृत्व कर अपनी गोरखा सेना ले 4 वर्षों तक कांगड़ा दुर्ग की घेराबंदी कर खड़ा रहा। तब राजा संसार चंद ने शेरे-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह से गोरखों के विरुद्ध संधि कर किला सिक्खों को सौंप दिया......और अंत में सिक्खों के राज के बाद अंग्रेज आ दुर्ग पर काबिज हो गए।                                इस दुर्ग पर अधिकार की सनक हर काल में हर एक शक्तिशाली राजा को रही....कटोचों की जुबानी यह कहा जाता है कि उन्होंने अपने संपूर्ण इतिहास में औसतन हर चार साल बाद एक युद्ध लड़ा है।
                              किले की ऊँची रक्षा प्राचीर जो चार किलोमीटर लंबी है,  के एक बुर्ज पर खड़ा मैं नीचे देखता हूँ कि किले की पहाड़ी को टापू की तरह मध्य ले,  दो नदियां पातालगंगा और बाणगंगा बह रही हैं जो किले की पहाड़ी के इर्द-गिर्द गहरी खाईयों का काम करती है।  सामने मुझे दिखाई दे रही है धौलाधार हिमालय की हिमाच्छादित चोटियाँ.....कितना मनोरम स्थल जो मन को सुकून दे रहा था।  फिर किले के सामने उस बड़े मैदान को देख सोचने लग जाता हूँ कि यही आ कर सब आक्रमणकारी खड़े होते होंगे.... तोपों के भरे मुँह किले को घूर रहे होंगे।
                             इतनी सुंदर जगह पर कैसे कोई लड़ सकता है.... मुझे तो चारों और फैली रमणीयता से नयन लड़ाने से ही फुर्सत नहीं मिल रही....!!!
                            फिर मन का एक पक्ष बोलता है, " रे तू तो ठहरा एक सामान्य प्राकृत प्रेमी और वे सब थे ताकतवर अमीर... वो अमीर जो दूसरे अमीर को लूटकर और ज्यादा अमीर होना चाहता था...!"  पुराने समय में राजा यही तो करते थे, वह एक दूसरे को लूट ही तो रहे थे।  राज्य, किले, खज़ाना, औरतें लूटकर हर विजयी राजा अपने राज्य और खज़ाने का विस्तार कर रहा था। जर, जोरू, जमीन बल से ही रखी जाती हैं इस कहावत की उत्पत्ति राजाओं के इस व्यवहार से ही हुई होगी वरना गरीब तो दूसरे जून की रोटी की चिंता में फंसा रहता होगा।
                            अपने मुँह-मिट्ठू की परिभाषा देता जहांगीर के बनाए जहांगीर दरवाजे को लांधने के बाद सीढ़ियां चढ़ते हम दोनों उस छोटे से दर्शनी दरवाजे के आगे खड़े होते हैं,   जिसके दोनों तरफ गंगा और यमुना की खंडित मूर्तियां लगी हुई हैं।  दर्शनी द्वार पार करते ही बेहद खुली जगह आती है और सामने नज़र आता है कटोचों की कुलदेवी अंबिका मां का मंदिर,वहीं एक और मंदिर में जैन तीर्थांकर आदिनाथ जी विराजमान है।
                           किले में जैन मंदिर का इतिहास भी खासा रोचक है दोस्तों....जैन धर्म के आखिरी तीर्थांकर महावीर जी ने अपनी बहन का विवाह कटोच राजा से इसलिए किया कि निशस्त्र जैन समुदाय को सुरक्षा मिले,  क्योंकि सुरक्षा के लिए शस्त्र उठाने आवश्यक है... जो कटोच हर समय अपने सिर से ऊपर ही उठाए रखते थे।  भगवान महावीर जी ने खुद ही भगवान आदिनाथ जी की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा कर इसे यहां स्थापित किया था, दोस्तों।
                          उस बेहद खुले आंगन जिसमें सदियों पुराना पीपल का वृक्ष अब भी हरा भरा है। जिसने ना जाने कितनी बार उस खुले आंगन में खुशी- गमी की सभाएं लगती देखी होंगी। किले के किशोर-किशोरियों को झूले झुलवायें होंगे।  ना जाने कितनी बार लहू से रंगी नंगी तलवारों को महल में दाखिल होते देखा होगा और अपने संरक्षकों को कटते भी देखा होगा।  काश मैं उस बूढ़े पीपल बाबा की भाषा समझ पाता जो वह अपने पत्ते हिला-हिला मुझे बता रहे थे...!
                         महल के इस आंगन में जगह-जगह नक्काशीदार अवशेष बिखरें पड़े हैं जो इस जगह की भव्यता की कब्र है।  इस आंगन से चंद सीढ़ियां चढ़ हम अब उन अवशेषों में खड़े हैं,  जो किले की सबसे ऊँची जगह पर है और यह अवशेष कभी सात मंजिल हुआ करते थे।  दुश्मनों की तोपों के गोले कभी यहां तक नहीं पहुंच पाए,  परंतु प्रकृति के सबसे बड़े दुश्मन "भूचाल" ने सन् 1905 में इस महल को नेस्तनाबूद कर दिया। उस किले की दीवारें तक उखाड़ दी जो कभी हजारों सालों से आक्रमणकारियों के हौसलें उखाड़ती आ रही थी।
                           शाम के साढे चार बज चुके थे किले के बंद होने का समय हो चला था,  सो नीचे उतर कर हम किले के बाहर बने सरकारी संग्रहालय में आ पहुँचे। परंतु अभी कटोच राजपरिवार का व्यक्तिगत संग्रहालय देखना बाकी था, सो उस छोटे से बाज़ार जहाँ एक नवीन व भव्य जैन मंदिर भी है...को लांघकर "महाराजा संसारचंद संग्रहालय" में जा पहुँचे।संग्रहालय में कटोच राजपरिवार की भव्यता देख बाहर निकले तो सूर्यास्त हो चुका था।  किले के पीछे मर चुके दिन की लाली अभी अंतिम सांस ले रही थी......और लगे हाथ हम दोनों किले के सामने बने जैन मंदिर में भी जा पहुँचे, बेहद भव्य मंदिर और शांति इतनी खुद की शंखनाद ध्वनि सुनाई दे रही थी।
                          मंदिर में धर्मशाला देख मैंने विशाल जी से कहा,  "अब हमें गाड़ी में रुकने की बजाय इस धर्मशाला में रुक जाना चाहिए क्योंकि हमें अपने फोन पर कैमरे में भी तो शक्ति भरनी है..!"  धर्मशाला संचालक ने कहा, "यदि आप जैन हो तो ही आपको कमरा मिल सकता है...!!"  अब भला ब्राह्मण बंदे झूठ भी कैसे बोल सकते हैं....तो उन्होंने फिर एक और सुझाव दिया कि किसी जैनी की सिफारिश डलवा लो। परंतु ऐन मौके पर यह भी ना हो सका तो हम गाड़ी ले कांगड़ा शहर के जगमगाते बाजार में आ रुके.... और "बृजेश्वरी देवी मां मंदिर" में पहुँच मां के श्रृंगार की मंगला आरती में हाज़िरी लगवाई व दाल-चावल का लंगर ग्रहण किया।
                           कांगड़ा बाजार में ही कमरा ले,  अब कल की रणनीति यह बनाते हैं कि जितना हो सके सुबह जल्दी ही निकलना है करेरी की ओर........लेटते ही हम दोनों में से नींद किसे पहले आई,  मुझे याद नहीं रहा। परंतु हम दोनों में से जो एक पहले सो गया होगा, उसके खर्राटों की आवाज से दूसरे को कहाँ जल्दी नींद आई होगी,  दोस्तों..!!!!

                                                                  ......................................(क्रमश:)
कानों में वॉइस गाइड लगाये हम बढ़ रहे थे,  कांगड़ा दुर्ग के प्रवेश द्वार "महाराजा रणजीत सिंह द्वार " की ओर। 

कांगड़ा दुर्ग का प्रवेश द्वार। 

मुख्य द्वार से अंदर जाने के बाद। 

कांगड़ा दुर्ग के अंदर का रास्ता। 

वॉइस गाइड की बातें सुनता मैं।  

अब,  दुर्ग की दीवारें व दरवाजे अपनी बात रख रहे थे। 

दुर्ग की दीवारों में मढ़ी मूर्तियाँ भी अब कहाँ खामोश थी,
कटोचों की कुल देवी अम्बिका माँ की मूर्ति। 

एक द्वार पर बैठ उसकी कहानी सुनते विशाल जी। 

किले की रक्षा प्राचीर की ओर बढ़ता मैं। 

कांगड़े दुर्ग की चार किलोमीटर लम्बी रक्षा प्राचीर पर खड़ा, मैं सोच में डूबा हुआ था। 

कि किले की रक्षा प्राचीर से नीचे देखता हूँ,  किले के आगे इसी मैदान में आक्रमणकारियों की सेना आ खड़ी होती होगी,
अब यहाँ एक बेहद सुंदर व भव्य जैन मंदिर स्थापित है। 

फिर ऊपर की ओर देखता हूँ,  तो धौलाधार हिमालय की धौली धाराएँ दिखाई दी... और सोचने लगा कि इस सुंदर जगह में आ, कैसे कोई लड़ सकता है। 

जब कि मुझे तो चारों ओर फैली इस रमणीयता से नयन लड़ाने से ही फुर्सत नही मिल रही,
कांगड़ा किले से दिख रहा पातालगंगा और बाणगंगा नदियों का संगम। 

किले की रक्षा प्राचीर पर खड़े विशाल जी मगन थे, वॉइस गाइड की किस्से-कहानियों में। 

भूचाल से गिर चुकी दीवारों को फिर से खड़ा किया गया है।

कांगड़े किले में जहाँगीर के द्वारा निर्मित मस्जिद,
कहते हैं कि इस मस्जिद के निर्माण से पहले जहांगीर ने यहाँ गाय की बलि दी थी। 

दर्शनी द्वार। 

इस छोटे से दर्शनी द्वार की दोनों तरफ गगां व यमुना की मूर्तियाँ स्थापित है,  जो अब खंडित हो चुकी है। 

दर्शनी द्वार पार करने के बाद एक बेहद खुली जगह आती है। 

और,  सामने दिखाई देता है... कटोचों की कुल देवी अम्बिका माँ का मंदिर। 

और,  उसी खुले से आँगन में जैन धर्म के पहले तीर्थांकर आदिनाथ जी का भी मंदिर है। 

मंदिरों की दीवारों पर की हुई नक्काशी। 

उस जगह बहुत सारे अवशेष बिखरे पड़े हैं.... जो इस जगह की भव्यता की कब्र है। 



काश,  मैं इस बूढ़े पीपल बाबा की भाषा समझ पाता,  जो ये अपने पत्ते हिला-हिला कर मुझे बता रहे थे। 

इस दुर्ग में एक राजा भी अपनी मरजी से नही आ सकता था,  साधारण व्यक्ति की बात ही क्या करनी।
परंतु आज एक साधारण व्यक्ति दुर्ग के अंदर अपनी मौज से चित्र खिंचवा रहा है दोस्तों। 

कांगड़ा किले के मंदिरों की नक्काशीदार दीवारें। 

उस खुले आँगन से सीढ़ियाँ चढ़ हम किले की सबसे ऊँची जगह पर बने महल के उन अवशेषों में जा पहुँचे,  जो कभी सात मंजिल ऊँचें हुआ करते थे।  

महल की उस खिड़की में खड़ा मैं.... जिसमें कभी रानियाँ खड़ी हो,  घाटी की सुंदरता को निहारती होगी। 

किले की सब से ऊँची जगह से खींची हुई तस्वीर.... नीचे घाटी में उड़ता एक बाज़। 

किले की पीछे से आ रही पातालगंगा और बाणगंगा नदियाँ,
यह चित्र किले की सबसे ऊँची जगह खींचेहैं। 

महाराजा संसार चंद संग्रहालय में.... कटोचों के सिंहासन। 

आखिर हमे भी सम्मान दिया गया कि आप भी इन राजसी कुर्सियों पर बैठ सकते हैं,
कटोचों के व्यक्तिगत संग्रहालय में। 

संग्रहालय से बाहर निकले तो,  कांगड़े किला के पीछे मर चुके दिन की लाली अंतिम सांस ले रही थी।

संग्रहालय देखने के पश्चात हम उस भव्य जैन मंदिर में आ पहुँचे,  जो किले के सामने ही बना है। 

और,  फिर हम कांगड़े वाली माता "ब्रजेश्वरी देवी" के मंदिर में माथा टेकने आ गये। 

और, माँ के श्रृंगार की मंगला आरती में भाग लिया तथा हमें प्रसाद मिला रौंगी दाल का, दोस्तों।

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