शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

भाग-4 " मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से....!"



भाग-4 "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से....!"

इस यात्रा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र
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                                 " खींच"



                          16अगस्त 2014.....  मणिमहेश जाने के लिए डाली गई "टॉस" में मिली हार ने मेरे मन में उठ रहे ज्वार भाटे की लहरों को एकदम से शांत कर दिया और मैं अपना लटका सा मुँह लेकर गाड़ी की पिछली सीट पर चुपचाप जाकर बैठ जाता हूँ। विशाल जी व दिनेश जी गाड़ी की अगली सीटों पर बैठ गए,  जैसे ही दिनेश जी गाड़ी का इंजन चालू करते हैं.... तभी मेरे मन-दिमाग में फिर से बेचैनी सी छाने लगती है, जैसे मेरा कुछ वहाँ पर छूट रहा हो। उसी क्षण चलने को तैयार गाड़ी का दरवाजा खोल, मैं बाहर निकल खड़ा हो जाता हूँ।
                    दिनेश जी एक लंबी साँस छोड़, गाड़ी का इंजन बंद करते हुए मुझसे पूछते हैं कि अब क्या हुआ...?
                    मैं आठ-दस क्षण मौन रहने के बाद बोलता हूँ- "माना कि मैं टॉस हार चुका हूँ, परंतु अब भी मैं मणिमहेश जाना चाहता हूँ,  मुझे खुद समझ नहीं आ रहा कि जैसे कोई मुझे खींच रहा है.... मेरे दिलो-दिमाग पर यह अजीब सी खींच निरंतर चल रही है कि चल तुझे मणिमहेश जाना है,  मैं आप दोनों के सामने हाथ जोड़कर कहता हूँ कि मुझे अपने-आप को शांत करने के लिए मणिमहेश जाने दे...!!!" 
                     मेरी इस आखिरी पंक्ति में लाचारगी के भाव देख दिनेश जी के मन में दया का भाव जाग उठा और वह बोले- " देखो भाजी,  तुम्हें मैं किसी भी हालत में अकेला तो जाने नहीं दूँगा मणिमहेश,  यदि यह रास्ता मेरी शारीरिक क्षमताओं के अनुसार होता तो मैं ही तुम्हारे संग चला जाता मणिमहेश।"
                       और..... फिर वे विशाल जी की तरफ देखते हुए बोले-  "विशाल जी, अच्छा तो आप भाजी के साथ चले जाओ मणिमहेश" परंतु विशाल जी ने फिर से अपने निर्धारित समय-सीमा का राग अलाप दिया। तो दिनेश जी ने फिर कहा- "माना कि आपके पास छुट्टी नहीं है, पर फिर भी आप एक बार अपने बॉस से फोन पर बात तो करो।"
                      विशाल जी ने जेब से अपना मोबाइल टटोल कर सिग्नल टटोला..... और मेरी किस्मत बलवान जो होने चली थी कि उस वक्त विशाल जी के मोबाइल पर सिग्नल भी जाने कहाँ से आ गया, जो पिछले काफी समय से लापता चल रहा था।
                   "हां सर,  मैं मणिमहेश यात्रा पर आया हूँ परंतु यहाँ बहुत ज्यादा भीड़ होने से यहीं फंस गया हूँ.... शायद एक-आध दिन और लग जाए मुझे वापस दिल्ली पहुँचने में...!!"
                       मेरी और दिनेश जी की आँखें फोन कर रहे विशाल जी के चेहरे के भावों को एकटक पढ़ रही थी...और,  उनके चेहरे पर एकदम से आए एक विशेष भाव को देख हमारी आँखें चौड़ी हो गई और चेहरे फूल से खिल उठे।
                       अब, हम दोनों साढूँ गाड़ी की डिक्की में पड़ी अपनी रक्सैकों को तैयार कर रहे थे और दिनेश जी हमारी तरफ पीठ कर खामोशी से शून्य में घूर रहे थे। मैं निरा स्वार्थी उस समय तो बहुत प्रसन्न था, पर दिनेश जी की मेरे प्रति चिंता और अपने टूर की कुर्बानी मेरी प्रसन्नता से हजारों गुणा ऊँची थी। मझधार में फंसी मेरी कश्ती को दिनेश जी ने अपनी छुट्टियों की कुर्बानी रुपी पतवार बना पार लगा दिया था। दिनेश जी का यह त्याग मैं सारी उम्र नहीं भुला सकता, दोस्तों।
                       हमने अपने रक्सैकों से जयपुरी रजाइयों को निकाल गाड़ी में रख दिया,  क्योंकि त्यारी पुल से हमारी गाड़ी में लिफ्ट लेने वाले फार्मासिस्ट ने कहा था कि मणिमहेश को जाते इस रास्ते पर जेल-खड्ड नामक जगह पर लगने वाले एकमात्र लंगर पर रात रुकने का पूरा इंतजाम है।  तब नए पनपे हम पर्वतारोहियों ने " स्लीपिंग बैग" साक्षात देखे भी ना थे,  ट्रैकिंग स्टिक के नाम पर  हमारे पास बाँस की दो मजबूत लाठियाँ थी,  जो मैंने अपने फार्म हाउस पर लगे बाँस के बेड़ो से कटवाई थी।
                        सवा ग्यारह बजे दिनेश जी ने मुस्कुराते हुए हम दोनों को शिव-भोले के जयकारे के साथ मणिमहेश की ओर रवाना किया और हमें तब तक देखते रहे, जब तक हम उस मोड़ से ऊपरी त्यारी गाँव की ओर मुड़े नहीं। हम से आखिरी अभिनंदन पा कर, दिनेश जी गाड़ी लेकर घर वापसी की राह पर बढ़ गये और हम पांच-सात मिनट चलने के बाद ऊपरी त्यारी गाँव की तंग सी गली में से गुज़र रहे थे कि एक बूढ़ी अम्मा ने हमें रोककर पूछा- "मणिमहेश जा रहे हो, क्या...?"
                     हमने खुशी से अपने सिर जैसे ही हिलाये, तो वह अम्मा बोली- "ज़रा रुको"  और अपने घर के भीतर से हमारे लिए सेब ले आई। हम दोनों के चेहरे पर खुशी व हैरानी के मिश्रित भाव उभर आये कि कैसे कोई अंजान किसी दूसरे अंजान से गैर स्वार्थी स्नेह प्रकट करता है।
पूछने पर अम्मा ने अपना नाम "पारो देवी" बताया और कहा कि आगे आने वाले आखिरी गाँव "कलाह" में भी हमारे घर हैं, वहाँ पहुँच दोपहर का भोजन कर आगे जाना। अम्मा ने सेबों के साथ-साथ हमें हमारी यात्रा की ढेर सारी शुभकामनाएँ देकर रुख़सत किया।
                          दस- बीस कदमों में ही ऊपरी त्यारी गाँव पीछे छूट गया और हम पहाड़ पर चढ़ती पगडंडी पर चढ़ने लगे। जैसे-जैसे ऊपर चढ़ रहे थे सामने रावी नदी के पार पहाड़ पर तराशे हुए सीढ़ीदार खेत और उनमें बने घर हमें मजबूर कर रहे थे कि हम वहीं ठहर कर उन्हें निहारतें रहें।
                         हम नए पनपें पर्वतारोहियों को पदयात्रा के पहले घंटे में ही चढ़ाई ने थकाना आरंभ कर दिया। खैर अभी तो शुरुआत है थकना कैसा.... चंद मिनट रास्ते के किनारे पत्थरों पर बैठ, कुछ दम ले फिर से चल पड़ते चढ़ाई पर।
                         छोटा सा त्यारी गाँव अब और भी छोटा सा नज़र आने लगा उस ऊँचाई पर पहुँच कर। दोपहर का एक बजने को था, सूर्यदेव का तेज़ ऐसे लगता था कि मेरे सिर के बाल भी जल जाएंगे... सो अपनी रक्सैक से तौलिया निकाल सिर ढक लेता हूँ।  चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते हम उस ऊँचाई पर पहुँच चुके हैं, जहाँ से नीचे बहुत खूबसूरत दृश्य दिखाई दे रहा था कि दो पर्वत श्रृंखलाओं के बीचो-बीच बह रही रावी नदी और सामने नज़र आ रही धौलाधार हिमालय श्रृंखला के "तलांग पर्वत"  के सिर पर बंधी सफेद पगड़ी खूब जच रही थी। जबकि हम पीर-पंजाल पर्वत श्रृंखला में चढ़ाई कर रहे थे। पर्वतों पर छाई हरियाली का हरा रंग ऐसा था,  जैसे प्रकृति देवी ने पूरे जी-जान से उसे पत्थरों पर पोता हो।
                        त्यारी गाँव से काफी ऊपर आकर रास्ते किनारे पत्थरों से बना एक चबूतरा सा आया, जिस पर कुछ समय बैठ नीचे का नज़ारा देखते हुए हम दम लेते रहे। उस चबूतरे से ज़रा सा ऊपर चढ़ने पर रास्ते किनारे बनी पहली 'वर्षा-शालिका' आती है... परंतु हम उस में बैठते नहीं, बस फोटो खींचे आगे बढ़ जाते हैं।  आगे बढ़ते ही पीछे छूट चुका त्यारी गाँव दिखना बंद हो जाता है और एक नया दृश्य आँखों में उभर आता है....नीचे घाटी में रावी नदी के किनारे बसे गाँव "होली" का विहंगम दृश्य और होली गाँव के ठीक ऊपर तलांग पर्वत के हिमाच्छादित शिखर।
                        कुछ समतल सी पगडंडी पर चलने के बाद एक मोड़ मुड़े तो होली गाँव दिखना भी बंद हो गया और हम एक नई घाटी में पहुँच जाते हैं.....इसके बहुत नीचे "जेल-खड्ड"  से बह कर आ रहा नाला बह रहा था, जो होली में पहुँच रावी नदी में समा जाता है। घाटी के मध्य कई सारे 'बाज़' उड़ रहे थे जो कुछ-कुछ समय बाद उड़ते-उड़ते हमारे पास से भी गुज़र जाते, जैसे पता कर रहे हो कि कौन अजनबी उनके इलाके में घूम रहे हैं।
                      कलाह गाँव की तरफ जाती इस घाटी में एक बहुत ऊँचा पर्वत शिखर बार-बार हमारा ध्यान खींच रहा था,  जिसका नाम व इतिहास हमें बाद में पता चला.... इसका वर्णन में आगामी किश्तों में करूँगा। उस टेढ़े पर्वत शिखर का नाम "कुज्जा पर्वत" है, दोस्तों।
                     त्यारी गाँव से ढाई घंटे चलने के बाद रास्ते किनारे बनी दूसरी वर्षा-शालिका आती है, इसके सामने हम पेयजल की पाइप लाइन पर लगे नल से जमकर पानी पीते हैं......क्योंकि त्यारी गाँव के बाद अभी हमें पानी मिला था, त्यारी गाँव में पेयजल के नलों के अलावा एक प्राकृतिक बावड़ी भी है जो हमारी नज़र में आने से छूट गई।
                     पहाड़ की बाँह के डोले पर वह छोटी सी पगडंडी ऐसे जान पड़ रही थी जैसे उस पर नज़र का काला धागा बंधा हो, उस पगडंडी पर हम दोनों आगे बढ़ते-चढ़ते जा रहे थे कलाह गाँव की ओर।  पीछे मुड़कर देखने पर अब फिर से होली गाँव के दूर-दर्शन होने लगे थे और सबसे प्रभावशाली दर्शन तो 'तलांग पर्वत' शिखर के थे जो बार-बार मुझे पीछे मुड़कर देखने के लिए विवश किये जा रहा था।
                       समय दोपहर के ढाई बजने को थे, पगडंडी ने एक तीखा मोड़ काटा और रास्ते की तीसरी वर्षा-शालिका व उसके साथ ही बना एक छोटा सा मंदिर आया। यह मंदिर "केलांग देवता" का था, केलांग देव के बारे में जानकारी हमें कलाह गाँव में पहुँचने पर ग्राम-वासियों से हुई "केलांग वजीर"  शिव जी के बड़े पुत्र कार्तिक का नाम है।
                       तभी हमारे पीछे से तीन यात्री और आ गए, जिनमें एक औरत भी थी। वे सब होली गाँव से थे और हमारी तरह ही कलाह पर्वत को लाँघ कर मणिमहेश झील पर लगे हुए 'न्यौण मेले' में नहाने जा रहे थे। उन्हें देख हम में कुछ संतोष जगा कि इस दुर्गम रास्ते पर हम अकेले नहीं हैं।  उन तीनों के जाने के बाद एकाएक विशाल जी को याद आया कि आज तो शनिवार है और ग्रहों के मुताबिक मुझे कुछ-ना-कुछ कुछ मीठी चीज़ दान करनी होती है..... तो मैंने हंसते हुए कहा तो क्या है रक्सैक से मीठे बिस्कुटों का पैकेट निकाल सामने मंदिर में चढ़ा दो और विशाल जी ने वही किया। बिस्कुटों का पैकेट निकालते वक्त मैंने मक्खन का पैकेट भी रक्सैक से निकाल लिया और शक्ति व स्फूर्ति पाने के चक्कर में हम दोनों साढूँओं ने मक्खन की पूरी टिक्की सूखी ही रगड़ डाली,  मतलब पेट के हवाले कर दी...!!
                       कुछ समतल सी पगडंडी पर दस मिनट चलने के बाद हमें मानव-बसो चिन्ह नज़र आने लगे। सूरजमुखी के फूल, आडू के पेड़ और दो-तीन मोड़ों के बाद दिखाई दे रही स्लेटों से बनी छतें.... मतलब कलाह गाँव आने को है।  तभी सामने पगडंडी पर से एक औरत एक लड़की को थामें चली आ रही थी और वह लड़की जोर-जोर से रो रही थी। उन्हें दूर से देखने पर मैंने विशाल जी से कहा- "हो सकता है यह लड़की बिमार हो, उसे कहीं पर दर्द हो.... चलो पास आने पर पूछते हैं, उसे कोई दवाई  आदि देंगे, शायद ये इसे लेकर नीचे होली में किसी डॉक्टर के पास जा रही हो...!"
                    परंतु उनके पास आने पर बात कुछ और ही निकली.... पूछने पर जवाब मिला- "इस लड़की का पिता मर गया है, बिमार था 'टांडा' में इलाज चल इलाज रहा था.... लाश त्यारी गाँव से लेकर आनी है, उसे लेने जा रहे हैं।"
                     "टांडा"  नाम सुन कर, मैं कुछ हैरत में पड़ गया कि टांडा शहर तो होली से 250किलोमीटर दूर जिला होशियारपुर (पंजाब) में है, इतनी दूर इलाज...!
                    दोस्तों, मुझे इस घटना के तीन साल बाद पता चला कि वो टांडा जिला होशियारपुर वाला नहीं, बल्कि "डॉ राजेंद्र प्रसाद आयुर्विज्ञान महाविद्यालय एवं चिकित्सालय, टांडा" जो कांगड़ा में है, उसकी बात कर रही थी। परंतु होली से कांगड़ा भी तो करीब 200 किलोमीटर की दूरी पर है, यह दूरी भी इलाज के लिए बहुत ज्यादा है।  यहाँ तक कि कलाह गाँव से होली बाज़ार की दूरी भी दस किलोमीटर यानि कम-से-कम पाँच घंटों का पैदल रास्ता है,  जबकि बीमार के लिए तो अपने घर के एक कमरे से दूसरे कमरे में जाना मुश्किल हो जाता है। होली से ऊपरी त्यारी यानि आधे रास्ते तक जीप द्वारा पहुँचा जा सकता है, परंतु इन पाँच किलोमीटर के कच्चे व गड्ढेदार रास्ते पर जीप वाला भी 500रुपये ले लेता है.... जिसे देना हर किसी के बस की बात नहीं है। मतलब ऐसी दुर्गम जगहों पर रहने वाले लोगों के लिए मात्र साधारण सर्दी- ज़ुकाम रोग भी जी-का-जंजाल बन जाता है, बगैर दवाई या इलाज के......भयंकर या आपातकालीन स्थिति की तो बात ही क्या की जा सकती है।
                        तीन अभी बजने को थे और हम पत्थरों व लकड़ी की मिलीभगत से बनी दीवारों और स्लेटों की छतों वाले मकानों के बीचो-बीच जा पहुँचे। पगडंडी हमें कलाह गाँव में आई थी और हम दोनों 'पारो देवी' द्वारा दिए गए रसभरे सेबों को खाते हुए कलाह गाँव की कच्ची गलियों में बढ़ने लगे और मुश्किल से 15 से 20 घरों के गाँव कलाह में लकड़ी से बनी तीनमंजिला पुरानी इमारत में,  पूरे गाँव की एकमात्र चाय की दुकान पर जा पहुँचे। जिसके बरामदे में एक बुजुर्ग, चार-पाँच बच्चे और वह दुकानदार युवक ताश की बाज़ी जमाये थे। इमारत में लगी लकड़ी की चौखट में चाक द्वारा हाथ से लिखा हुआ था- "सूर्य अस्त, चगत मस्त....दुकान यहाँ है।" आज नकद कल उधार, जय मणिमहेश, गर्मा-गर्म चाय, 1-2-3-4 भोले की जय- जयकार, भोलेनाथ सबके साथ।
                       उस दुकान के सामने वाले घर में बैठे घर वाले हम मणिमहेश यात्रियों को देख प्रसन्न हो रहे थे, सवाल पूछे जाने लगे कि कहाँ से आये हो.....?
                        दुकान के पास लगे बगीचे में पेड़ों पर सेब झूल रहे थे। चाय के साथ मूंग दाल व गिरी मूंगफली ही हमें प्राप्त हुई उस दुकान से। पारो देवी के विषय में पूछताछ की तो मालूम हुआ कि कलाह गाँव उनका मायका है। गांव वासी हमें न्यौता देने लगे कि चलो हमारे घर में खाना खाओ, चाहे तो आज रात रुक कर कल मणिमहेश की ओर चल देना। वह सारा गाँव राजपूत बिरादरी का है, सब लोग एक ही गोत्र के हैं "उत्तम"
                       परंतु दुकान पर आये एक मुसलमान भाई को देख हमने सवाल किया तो जवाब मिला- "अरे यह तो भट्ट साहिब है, पेयजल की पाइप लाइन बिछाने वाले ठेकेदार है।"
                       गाँव वालों से अगले रास्ते की जानकारी ले और गाँव में बने ग्राम देव "कलिंग वजीर" का मंदिर देख, हम दोनों आधे घंटे में ही कलाह गाँव से ऊपर की ओर चढ़ती चढ़ाई चढ़ने लगे।
                                        (क्रमश:)


                                       
दिनेश जी का त्याग मैं जीवन भर नही भूला सकता दोस्तों, कि उन्होंने अपनी छुट्टियों की कुर्बानी दे...मुझ अड़ियल व ज़िद्दी बंदे के साथ विशाल जी को मणिमहेश जाने के लिए तैयार किया।

लो, चले पड़े नये पनपे पर्वतारोही मणिमहेश झील की ओर।

दिनेश जी से आख़िरी अभिनंदन।

लो, आ पहुँचे हम ऊपरी त्यारी गाँव की गलियों में।

" मणिमहेश जा रहे हो क्या" और अम्मा "पारो देवी" ने हमें सेब व ढेर सारी शुभकामनाएँ दे रुख़सत किया।


                                           
त्यारी गाँव से ऊपर चढ़ाई चढ़ते हुए दिख रहा मंजर।


यात्रा के पहले ही घंटे में हम नये पनपे पर्वतारोहियों को चढ़ाई ने थकाना आरंभ कर दिया, खैर थकना कैसा....अभी तो शुरुआत है। हम रास्ते किनारे पत्थरों पर दम ले फिर से चढ़ देते चढ़ाई पर।

छोटा सा गाँव " त्यारी" अब और भी छोटा नज़र आने लगा, इस ऊँचाई पर पहुँच कर।

धूप इतनी तेज़ कि मेरा सिर जलने लगा, सो रक्सैक से तौलिया निकाल सिर ढक लेता हूँ। 

परन्तु विशाल जी तो अपने डंडे को टोपी पहने में मश़रुफ़ थे। 
         
                                     
रावी घाटी की एक सुंदर अदा।


सामने दिख रही धौलाधार पर्वत श्रृंखला में "तलांग पर्वत"

धौलाधार हिमालय और पीर- पंजाल हिमालय के बीचो-बीच बह रही रावी नदी।

तलांग पर्वत के सिर पर बंधी सफेद पगड़ी।

पहाडों पर छाई हरियाली का हरा रंग ऐसा था, जैसे प्रकृति देवी ने पूरे जी-जान से इसे पत्थरों पर पोता हो।

रास्ते किनारे में आया पत्थरों से बना एक चबूतरा।

इसी चबूतरे पर बैठ, हम दम लेते हुए नीचे दिख रहे त्यारी गाँव को देखते रहे।

रास्ते की पहली वर्षा-शालिका।

आगे बढ़ते ही पीछे छूट चुका त्यारी गाँव दिखना बंद हो जाता है और एक नया दृश्य आँखों में उभर आता है....नीचे घाटी में रावी नदी के किनारे बसे गाँव "होली" का विहंगम दृश्य।

 होली गाँव के ठीक ऊपर तलांग पर्वत के हिमाच्छादित शिखर।

तलांग पर्वत का एक दिलकश दृश्य।

रावी नदी के किनारे बसा "होली गाँव"

होली गाँव में स्थित हैलीपैड।

लो, एक और नज़र होली गाँव पर।

  कलाह गाँव की तरफ जाती इस घाटी में एक बहुत ऊँचा पर्वत शिखर बार-बार हमारा ध्यान खींच रहा था, इस टेढ़े पर्वत शिखर का नाम "कुज्जा पर्वत" है, दोस्तों।

दरअसल विशाल जी अपनी सुंदर सी तस्वीर खिंचवाने के लिए सिर से टोपी उतार डंडे के सिर पर पहना देते थे, दोस्तों।

यह बंदा कुछ जाना-पहचाना सा लगता है, हैं ना दोस्तों।

घाटी के मध्य कई सारे 'बाज़' उड़ रहे थे जो कुछ-कुछ समय बाद उड़ते-उड़ते हमारे पास से भी गुज़र जाते, जैसे पता कर रहे हो कि कौन अजनबी उनके इलाके में घूम रहे हैं।

त्यारी गाँव से ढाई घंटे चलने के बाद रास्ते किनारे बनी दूसरी वर्षा-शालिका आती है, इसके सामने हम पेयजल की पाइप लाइन पर लगे नल से जमकर पानी पीते हैं......क्योंकि त्यारी गाँव के बाद अभी हमें पानी मिला था।

  पहाड़ की बाँह के डोले पर यह छोटी सी पगडंडी ऐसे जान पड़ रही थी जैसे उस पर नज़र का काला धागा बंधा हो।

उस पगडंडी पर हम दोनों आगे बढ़ते-चढ़ते जा रहे थे कलाह गाँव की ओर।

  पीछे मुड़कर देखने पर अब फिर से होली गाँव के दूर-दर्शन होने लगे थे और सबसे प्रभावशाली दर्शन तो 'तलांग पर्वत' शिखर के थे जो बार-बार मुझे पीछे मुड़कर देखने के लिए विवश किये जा रहा था।

उस ऊँचाई से नज़र आ रहा....होली का "पर्वतारोहण भवन"

 तभी हमारे पीछे से तीन यात्री और आ गए। वे सब होली गाँव से थे और हमारी तरह ही कलाह पर्वत को लाँघ कर मणिमहेश झील पर लगे हुए 'न्यौण मेले' में नहाने जा रहे थे। उन्हें देख हम में कुछ संतोष जगा कि इस दुर्गम रास्ते पर हम अकेले नहीं हैं।

 शक्ति व स्फूर्ति पाने के चक्कर में हम दोनों साढूँओं ने मक्खन की पूरी टिक्की सूखी ही रगड़ डाली,  मतलब पेट के हवाले कर दी...!!

तीसरी वर्षा-शालिका के साथ ही बना हुआ " केलांग वज़ीर" का मंदिर।

दो-तीन मोड़ों के पार हमें स्लेटों की छतों वाले दो मकान नज़र आए, मतलब कलाह गाँव आने को है।

कलाह गाँव की बढ़ते हुए.....पगडंडी किनारे लगे सूरजमुखी के फूल।

कलाह गाँव से पहले आया आडू का पेड़।

सामने दूर घाटी में दिखाई यह जगह रहस्यमय सी प्रतीत हो रही थी, जिसकी तरफ हमें जाना था।

कलाह गाँव से कुछ पहले, यहीं हमें वो रोती हुई लड़की मिली थी....जिसके पिता की मौत हो चुकी थी।

लो, आ गया आख़िरी गाँव "कलाह"

और,हम दोनों 'पारो देवी' द्वारा दिए गए रसभरे सेबों को खाते हुए कलाह गाँव की कच्ची गलियों में बढ़ने लगे।

 मुश्किल से 15 से 20 घरों के गाँव कलाह में लकड़ी से बनी तीनमंजिला पुरानी इमारत में,  पूरे गाँव की एकमात्र चाय की दुकान पर जा पहुँचे।

जिसके बरामदे में एक बुजुर्ग, चार-पाँच बच्चे और वह दुकानदार युवक ताश की बाज़ी जमाये थे।

    उस दुकान के सामने वाले घर में बैठे घर वाले हम मणिमहेश यात्रियों को देख प्रसन्न हो रहे थे, सवाल पूछे जाने लगे कि कहाँ से आये हो.....?

   दुकान के पास लगे बगीचे में पेड़ों पर सेब झूल रहे थे।

चाय के साथ मूंग दाल व गिरी मूंगफली ही हमें प्राप्त हुई उस दुकान से।

गड्डी जांदी आ, छलांगां मारी दी....मैनू याद आई मेरे यार दी।

सारा गाँव राजपूत बिरादरी का है और उन सब का गोत्र है "उत्तम", परंतु दुकान पर आये एक मुसलमान भाई को देख हमने सवाल किया तो जवाब मिला- "अरे यह तो  भट्ट साहिब है, पेयजल की पाइप लाइन बिछाने वाले ठेकेदार है।"

कलाह गाँव में शिव के बड़े पुत्र कार्तिक का मंदिर, जिसे गाँव वासी " कलिंग वज़ीर" नाम से सम्बन्धित करते हैं।


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