रविवार, 4 मार्च 2018

भाग-4 करेरी झील..... " मेरे पर्वतारोही बनने की कथा "

            " और ले पंगें,  और ले पंगें....!!"      
                                               
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                                    करेरी झील के ट्रैक पर बंदरों से हुई मुठभेड़ के बाद, मैं और विशाल रतन जी फिर से चल पड़े।  अब रास्ता और भी घने जंगलों से होकर,  दीवार रूपी पर्वत पर चढ़ रहा था।  पत्थरों को काट- काट कर बनाई सीढ़ियां उस पर्वत की दीवार पर चिनी हुई थी। यह चढ़ाई ऐसी थी मानो हम सौ मंजिल ऊँची इमारत पर चढ़ते जा रहे हो।                          पहाड़ के मध्य जो वृक्षवीहीन जगह,  हमें लियोंड खड्ड के निर्माणाधीन पक्के पुल पर मिले मजदूरों ने दूर से दिखाई थी... पर आ पहुँचते हैं।  यह बहुत शानदार घास का मैदान था....जैसे यह जगह नीचे से देखने पर पूरे पहाड़ का आकर्षण बिंदु लग रही थी,  वैसे ही इस जगह पर खड़े हो नीचे घाटी में हमारी नज़रें लियोंड पुल को तलाश रही थी।अब सामने दिख रहे पर्वत के शिखर पर ताज़ी गिरी बर्फ दिखाई भी देने लगती है।  बर्फ के पास पहुँचने की उम्मीद हमारे उमंग भरे मनों को उत्साहित करती जा रही थी.... क्योंकि पर्वतों में पहुँच बर्फ को पाना,  किसी पुरस्कार से कम नहीं होता दोस्तों।
                         कदम बढ़ाते ही मंज़र बदल गया,  पर्वतों के मध्य बेहद खुली घाटी और उसके मध्य में बह रही लियोंड नदी।  दूर एक झोपड़ी नज़र आई,  पास जाकर उस झोपड़ी की बनावट देख हम दोनों ने सही अंदाज़ा लगाया कि यह भेड़-बकरी चराने वाले का डेरा है.... परंतु तब वहां कोई नहीं था।  पचास कदम चलने के बाद नदी की दूसरी तरफ भी एक और डेरा दिखाई दिया,  मतलब कि मजदूर ठीक ही कह रहे थे कि रास्ते में आपको रात काटने के लिए डेरे मिल जाएंगे।  "परंतु अभी तो 3:30 ही बजे हैं,  आगे चलते हैं...!" मैं विशाल जी से बोला।
                        रास्ता अब कुछ समतल सा चल रहा था, एक मोड़ मुड़े..... और, रास्ते पर पड़ी एक चीज देख हम दोनों के हर्षोउल्लास की सीमा ना रही।  वह रास्ते के किनारे पड़ी थोड़ी सी बर्फ थी दोस्तों।
                         "पहुँच गए... पहुँच गए, बर्फ के पास...!!!!"  यह कहते हुए हम दोनों उछल रहे थे।  
कुछ ही दूर लियोंड नदी पर बना लोहे का पैदल पुल नज़र आ रहा था,  मतलब हम रीओठा नामक जगह पर पहुँच चुके थे।   पुल पार कर हमें बांयी ओर मुड़ कर नदी के साथ-साथ ऊपर को चढ़ना था।  पुल पर खड़े हो जब बांयी ओर देखा तो बड़े-बड़े पत्थरों से थोड़ी सी जलधारा रिस रही थी।  यह ही छोटी सी जलधारा गर्मियों में विशाल रूप अख्तियार कर लेती होगी....जिसका प्रमाण यह लोहे का पुल और नदी में बिखरे पड़े पत्थर दे रहे थे।
                          पुल से बांयी ओर मुड़,  अब रास्ता बड़ी-बड़ी चट्टानों के ऊपर से हमें ले जा रहा था और आधा किलोमीटर बाद एक मोड़ मुड़े.......  तो दो पहाड़ों के मध्य आ रही इस नन्ही नदी लियोंड के सिवा सब कुछ बर्फ की चादर ओढ़े खड़ा था। यह दृश्य देख मेरी पहली नज़र में मुँह से निकला " वाह"  परंतु दूसरे पल दिमाग़ बोला " स्वाह...और ले पंगें....!!!!!"
                          परंतु मेरा मन पहले से ही लापरवाह रहा है,  दिमाग़ की कम ही सुनता है। सो हम चलते-चलते नदी किनारे चल एक समतल सी जगह पर आ रुके,  जिसमें एक झोपड़ी का ढांचा खड़ा था।  क्योंकि अब आगे बर्फ ही बर्फ और आगे बढ़ने का रास्ता बर्फ के नीचे कहीं दब चुका था।  इस बात का ज्ञान पहली बार हुआ कि सूरज की तरफ मुख वाले पहाड़ के हिस्से पर बर्फ नहीं थी,  जिस पर हम चढ़कर आ रहे थे और जब इसी पहाड़ की दूसरी तरफ पहुँचे तो इसे बर्फ से भरा पाया.... यानी सूर्य मुख वाले पहाड़ से बर्फ जल्दी पिघल जाती है।
                         अब हमें समझ नहीं आ रहा था कि इस बर्फ पर कहाँ अपना पहला कदम रखें.... तभी कुछ दूर पहाड़ पर चढ़ती पत्थर की सीढ़ियां दिखाई दी,  तो उसी दिशा में नीचे की ओर देखा तो हमें बर्फ में पड़े पदचिन्ह नज़र आ गए।वो पदचिन्ह जो सुबह आगे गए अंग्रेजों के दल और स्थानीय गाइड के दल ने बना दिए थे। ये पद चिन्ह अब हमारे पथप्रदर्शक बन चुके थे.... वरना इन निशानों के बगैर हम बर्फ में घुसने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे।
                          4बज चुके थे और हम पदचिन्हों का पीछा करते हुए जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे,  बर्फ भी बढ़ती जा रही थी।  दिमाग़ ने सोचना बंद कर दिया था... आँखें केवल बर्फ पर बने निशानों को ही ढूँढ रही थी। पहाड़ की छाया वाले इस हिस्से पर ठंड भी एकाएक बढ़ चुकी थी...और हमारे चलने की रफ्तार कम होने से शरीर भी ठंडे हो रहे थे। बर्फ पर पड़े पदचिन्हों की गहराई कहीं-कहीं इतनी गहरी थी कि हम घुटनों तक बर्फ में धंस जाते।
                          विशाल जी ने स्पोर्ट्स शूज़ डाल रखे थे जो अब पूरी तरह गीले हो चुके थे.... मेरे चमड़े के सेमी हाई नैक शूज़ में पानी अभी अंदर नहीं पहुँच पाया था। परंतु कुछ समय बाद हम दोनों की हालत एक सी हो गई थी, बर्फ की वजह से हम घुटनों तक बुरी तरह से भीग चुके थे। बार-बार बूट खोलकर उसमें घुसी बर्फ को बाहर निकाल रहे थे। जीवन में पहली बार ताज़ी गिरी बर्फ से हम अनाड़ियों का साक्षात्कार हुआ था....सो दोनों पक्ष एक-दूसरे पर प्रभाव डालने के लिए कोशिश में जुटे हुए थे।
                          आखिर डेढ़ घंटे बाद लगातार उस बर्फीले रास्ते पर धंसते हुए,  हम दोनों अब एक ऐसी जगह खड़े थे....जो नदी के किनारे पर थी और रास्ता ऊपर को चढ़ रहा था।  परंतु उस पर ना तो हमारे पथप्रदर्शक पदचिन्ह थे और बर्फ भी बेशुमार थी।   मेरा दिमाग़ पिछले एक घंटे से हर दो मिनट बाद पंजाबी में चीख उठता था, "होर लै पंगें, होर लै पंगें...!!!! "
                           परंतु मन बेशर्म कहाँ सुनता है मेरे दिमाग की.... ठीक इसी प्रकार की मनोस्थिति विशाल जी की भी रही होगी, परंतु इस स्थान पर पहुँच शायद उनका दिमाग़ मन को जीत चुका था।  वह एकाएक बोले, " नहीं विकास, अब और आगे बढ़ना मूर्खता की निशानी है,  एक तो आगे कोई भी पदचिन्ह नही दिखाई दे रहा... दूसरा अंधेरा भी जल्दी ही हो जाएगा...!"
                           मेरा मन सदा से ही लापरवाह रहा है.... मैं विशाल जी को तर्क देता हूँ,  "इस जगह बर्फ ज्यादा होने के कारण वह लोग घूम-घाम कर आगे चढ़ गये होंगे और अभी साढे पांच ही तो बजे हैं,  वह देखो सामने पर्वत के शिखर पर कैसी धूप चमक रही है....और लगता है कि हम करेरी झील से ज्यादा दूर नहीं है, चलो आगे जाने का रास्ता ढूँढते हैं और आज रात जमी हुई करेरी झील पर बनी धर्मशाला में जाकर ही रुकते है... यदि करेरी ना पहुँच पाए तो रास्ते में आए किसी गद्दी के डेरे पर रुक जाएंगे...!"
                           परंतु विशाल जी ने सिरे से मेरी बात यह कहते हुए नकार दी, " विकास जी, भले ही दिन के उजाले में यह नज़ारा हमें बहेद खूबसूरत नज़र आ रहा है,  परंतु रात के अंधेरे में यह सारा नज़ारा खतरनाक रूप ले सकता है.... हमारे पास कोई टॉर्च भी नही है और यदि रोशनी रहते झील तक नही पहुँच पाऐं,  और रास्ते में रात गुज़ारने के लिए हमें कोई भी उचित जगह या गद्दी डेरा ना मिला,  तो निश्चित है हम दोनों कल आ रहे नव वर्ष के पहले दिन को ना देख पाएें, हमारी बेहतरी इसी में ही है कि दिन रहते हम वापस उस गुफा की ओर चलते हैं,  जो हमने अभी आते समय नदी के उस पार देखी थी... वही चल आज नववर्ष की पूर्वसंध्या मनाते हैं।"
                           मेरा लापरवाह मन नही मान रहा था क्योंकि वह व्यक्तिगत कीर्तिमानों का भूखा है.... परंतु जैसे एक गाड़ी के पहियें एक ही दिशा में चल व मोड़ सकते हैं,  सो मुझ पहिये को सूत्र में बंधा होने के कारण बेमन से विशाल जी रूपी पहिये के संग मुड़ना ही पड़ा।
                           नदी में पानी बहुत कम था,  सो पार हो हम दूर दिख रहे उस गुफा नुमा डेरे पर जा पहुँचें।  एक बहुत बड़ी चट्टान के नीचे बनी इस प्राकृतिक गुफा को किसी गद्दी ने अपनी जरूरत अनुसार ढाल रखा था। उस छोटी सी गुफा में एक चबूतरा बना,  एक तरफ भेड़-बकरियों के बच्चों के लिए एक बंद बाड़ा.... मध्य चूल्हा,  दो जनों के लेटने योग्य  समतल स्थान और सामने लकड़ी की एक छोटी सी अलमारी व गुफा के बाहर भेड़-बकरियों के लिए घास-फूस की छत वाला छप्पर। गुफा का मुहाना खुला था उसे तो बंद नहीं किया जा सकता था....हाँ नदी की तरफ वाली दिशा में एक-दो दरार नुमा झरोखे से थे,  जिनमें से सर्द हवा अंदर आ रही थी.... जिन्हें मैं अब पत्थर चिन कर बंद कर रहा था।
                           उस छोटी सी अलमारी को खोला तो उसमें से हमें लोहे का एक चिमटा और दो बोरियों को सिल कर बनाई हुई चटाई मिली..... उन्हें देख हम दोनों की खुशी का ठिकाना ना रहा और उस बोरी नुमा चटाई को गुफा के ठंडे फर्श पर बिछा लिया।  अब हमे अंधेरा होने से पहले लकड़ी का इंतजाम भी करना था,  गुफा के बंद बाड़े के फर्श को लकड़ी के फट्टों से बना रखा था और बहुत सी लकड़ी उस गुफा नुमा डेरे के निर्माण में लगी हुई थी।  हम दोनों ने सलाह की, कि इस गुफा में लगी किसी भी लकड़ी को हम तोड़ जलाएंगे नही.... क्योंकि यह भी किसी का घर है,  चलो आस पास जाकर सूखी लकड़ी ढूँढ कर लाते हैं।
                           और,  हम बाहर से इतनी लकड़ी इकट्ठी कर लाए जो सारी रात जल सके। इन्हीं यत्नों में कब अंधेरा हो गया,  पता ही नही चला और अब हाथ कांप रहे थे क्योंकि अंधेरा अपने साथ भयंकर सर्दी को भी ले आया था, दोस्तों।

                                       ............................(क्रमश:)
पर्वत शिखर गिरी ताज़ी बर्फ को दिखाता हुआ, मैं। 

वो,  चार किलो का डंडा...!!

पगडंडी में बुराश के पेड़ के तने को आधा काट कर रास्ता बनाया गया था।



और, जैसे- जैसे हम पहाड़ पर चढ़ते जा रहे थे... बर्फ नजदीक आती जा रही थी। 

कुछ दम लेते हुए.... विशाल रतन जी। 

अरे,  यह तो किसी गद्दी का वीरान डेरा है। 

नदी की दूसरी तरफ दूर हमें एक और वीरान गद्दी डेरा दिखाई दिया,  मतलब कि वे मजदूर सही कह रहे थे कि आपको रात गुज़ारनें के लिए रास्ते में गद्दियों के वीरान डेरे मिल जाएंगे,  परन्तु अभी तो दोपहर के साढे तीन ही बजे थे... सो हम अागे बढ़ जाते हैं। 

पहुँच गए,  पहुँच गए बर्फ के पास.....
पर्वतों में पहुँच बर्फ को पाना किसी पुरस्कार से कम नही होता दोस्तों। 

तब मोबाइल में फ्रंट कैमरा का अविष्कार नही हुआ था,  परन्तु मैं डिजीटल कैमरे को अपनी तरफ मोड़ खुद की ही फोटो खींच लेता था....
जिसे आजकल "सैल्फी" नाम से जाना जाता है। 

लियोंड खड्ड पर बना लोहे का पैदल पुल... रीओठा पुल। 

रीओठा पुल। 

पुल से बायी ओर लियोंड नदी के साथ हम ऊपर को चढ़ते हुए....इस समतल से स्थान पर पहुँचें,  जिससे आगे बर्फ ही बर्फ थी। 

बस बर्फ ही बर्फ,  हमारे आगे गए अंग्रेज़ों के दल के पदचिन्ह अब हमारे पथप्रदर्शक बन चुके थे। 

रास्तें में गद्दियों के वीरान व सूने डेरे मिलते जा रहे थे। 

गिरता हुआ पानी भी जम चुका था,  हमारे पैर भी गीले हुए बूटों में जम चुके थे। 

आखिर, इस जगह पर पहुँच रास्ता बर्फ में कहीं गुम हो चुका था और हमारे पथप्रदर्शक पदचिन्ह भी एकाएक गायब हो चुके थे। 

और....आखिर हम रात काटने के लिए इस गुफा नुमा डेरे की ओर बढ़ रहे थे।

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