रविवार, 25 जून 2017

भाग-10 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....Shrikhand Mahadev yatra(5227mt)

भाग-10 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर.....
                                         "हरी मिर्च सी तीखी.... डंडा धार की चढ़ाई "

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                                             21जुलाई 2016.....सुबह के सात बज चुके थे,  मैं और विशाल रतन जी पिछले ढाई घंटे से डंडा धार पर्वत की डंडा नुमा चढ़ाई चढ़ते जा रहे थे... इस पर्वत की बनावट ऐसी है कि हमें कहीं भी पूर्ण शिखर नही दिखाई देता था,  बस ऐसा लगता था कि वो सामने दिख रहा उभार ही इस चढ़ाई का अंत हो.... परन्तु जब हम उस जगह पहुंचतें, तो पाते कि इस चढ़ाई का कहीं कोई अंत ही नही आ रहा है......
                         विशाल जी बोले, " बड़ी तीखी चढ़ाई है,  यह तो विकास जी..!! "
                   मैं भी हाँफ़ रहा था, फिर भी हंस कर बोला..."हां विशाल जी, हरी मिर्च सी तीखी...!!!"
        दोस्तों,  भोजन में जिस प्रकार हरी मिर्च का तीखापन स्वादिष्ट लगता है न,  ठीक उसी प्रकार ये तीखी चढ़ाइयाँ हम पर्वतारोहियों को हरी मिर्च सी स्वादिष्ट लगती है,  क्योंकि इन चढ़ाइयों को चढ़ कर ही हम शिखर-आंनद को प्राप्त होते हैं....
                         दिन चढ़ने के साथ ही अब पगडंडी पर भी पदयात्रियों की गिनती बढ़ती जा रही थी,  हर कोई शिव भक्ति में आस्था व विश्वास ले आगे बढ़ रहा था.... विशाल जी भी पिछले एक घंटे से अपनी अंगुली में डिजिटल कॉऊटर फंसा,  पाठ करते हुए चढ़ाई चढ़ रहे थे.... बस एक मैं ही था वास्तविक इंसान जिसकी आस्था तो अभी वास्तविकता में ही विचर रही थी,  और वो आस्था थी हर कदम पर बदलते मनमोहक दृश्य से आस्था,  उस ऊँचाई से नीचे दिख रहे छोटे-छोटे घरों से आस्था,  उन खामोश खड़े हरे-भरे पेड़ों के झुंडों से आस्था,  उन पीले व जामुनी फूलों की मुस्कुराहट से आस्था.... ये ही वास्तविकता की आस्था है जो मेरी आँखें देख रही थी और मन महसूस कर रहा था.....!!
                         तभी मेरा ध्यान टूटा,  जब विशाल जी चलते हुए बोले, " इस मक्खी ने मुझे कब का परेशान कर रखा है.... बार-बार मेरे कान के पास आ भुनभुनाना रही है..!! "      
                          मैं खिलखिला कर हंसा और बोला, " महाराज, यह मक्खी आपके कान के पास आ कर 'जय भोलेनाथ ' बोल रही है..!"      और हम दोनों खूब हंसे इस बात पर.... विशाल जी भी मस्ती में हो, ऊंची आवाज़ में जय भोलेनाथ- जय भोलेनाथ बोलने लगे....और अब वह मक्खी दोबारा विशाल जी के पास नही आई,  शायद किसी और श्रद्धालु के पास चली गई हो......
                           कुछ ऊपर की ओर चढ़े तो सामने से एक दम्पति जोड़ा पगडंडी से नीचे उतर रहा था,  सो हमने उन्हें रोक कर पूछा, कि कहाँ से आए थे दर्शन करने.... तो उन्होंने जवाब दिया "बरौदा गुजरात से...दूसरी बार श्री खंड आए हैं अपने बेटे-बहू को साथ ले कर, मन्नत थी न जो शिव-शम्भू ने पूर्ण कर दी.. हमें पोता दे दिया, उसका ही माथा टिकवा कर वापस आ रहे हैं "            बरौदा का नाम सुन कर मैने उनसे कहा कि मैने अब तक जितने भी म्यूजियम देखे है,  मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित आपके शहर बरौदा के म्यूजियम ने ही किया है और वहीं से ही मैं पावागढ़ चम्पानेर देखने गया था....... मेरी बात सुन वे सज्जन बोले, " तो भाई, आप भी घुमक्कड़ ही मालूम होते हो..!! "
                           मैं हंसते हुए बोला, " परन्तु आप गुजरातियों से कम ही घुमक्कड़ हूँ जी "      वे सज्जन बोले, " पर मैं गुजराती नही हूँ, राजस्थानी हूँ जोध पुर का.. काम की वजह से बरौदा में बस गया ".......मैं हंसते हुए फिर बोला, " तो फिर राजस्थानी को गुजराती घुमक्कड़ी का तड़का लग ही गया... जी "    
                           उन दम्पति से की हुई यह चंद क्षणों का वार्तालाप हमारे थक रहे शरीरों में नव जोश भर गया और फिर से हम उस चढ़ाई का सामना करने लगे.... अब जैसे-जैसे ऊपर की ओर बढ़ते जा रहे थे,  वैसे-वैसे नीचे की ओर दिख रहे दृश्य भी हसीन होते जा रहे थे..... रास्ते के ऊपर एक दुकान पर एक सज्जन हाथ में पापड़ ले, उसे बड़े मजे से खा रहे थे... हिमालय की इस ऊँचाई पर दुकान से तो पापड़ नही मिल सकता,  मैने विशाल जी से कहा कि वो सामने बैेठ पापड़ खा रहे सज्जन भी गुजराती ही जान पड़ते हैं, क्योंकि पूरे भारत में गुजराती ही पापड़ के सबसे बड़े शौकीन होते हैं... मैेने गुजरात भ्रमण में तकरीबन हर जगह पर भोजन के साथ पापड़ परोसा देखा है,  चलो लगे हाथ इन महाशय से भी मिल लेते हैं........
                            मैने उनके पास जा कहा, " क्यों भाई गुजरात से हो न..! " वे जनाब बोले, " नही बंगलौर, कर्नाटक से",               मैं बोला, " मैं तो आपको पापड़ खाते देख गुजराती समझा था " .....तो वे हंसते हुए हमें भी पापड़ खाने का न्यौता देने लगे,  बस हम दोनों उनका शुक्रिया अदा कर फिर से ऊपर की ओर चढ़ने लग पड़े..... आधा घंटा चढ़ते रहने के बाद एक जगह सांस लेने के लिए रुके, तो पीछे से तीन स्थानीय महिलाएँ भी हमारे पास आ कर सांस लेने हेतु रुक गई... पूछने पर पता चला, कि उनके परिवार वालों ने ऊपर यात्रा के रास्ते पर दुकानें लगा रखी हैं... उनके लिए राशन ले जा रही हैं,  उनकी पीठ पर चिरपरिचित तथाकथित राष्ट्रीय व्यंजन मैगी की चमक बोरियों में चमक रही थी..... मैने ये सब देख कर विशाल जी से कहा कि हम व्यर्थ में अपने साथ खाने-पीने के सामान को ढो रहे हैं,  जबकि इस ट्रैक पर तो खाने की भरपूर व्यवस्था है... क्यों न उन सभी खाने-पीने वाले सामान को खा कर खत्म कर दिया जाए,  पीठ पर वजन भी कुछ कम हो जाएगा...
                            तो,  मैने भुने हुए काले चने और अपने प्रिय बिस्कुट के पैकेट को आपातकालीन भोजन की श्रेणी में रख... सबसे पहले हमने लैमन टी की बोतलों को खाली किया..... सच बोलता हूँ मित्रों,  श्री खंड महादेव यात्रा के इस प्रथम चरण की परीक्षात्मक चुनौती "डंडा धार " की खड़ी चढ़ाई पर पीठ पर लदे भार की छोटी सी इकाई "रत्ती" भी भारी महसूस हो रही थी... परन्तु जहाँ तो पीठ पर कई किलोग्राम भार लाद रखा था....!!
                             दोस्तों,  इस ट्रैक पर कहीं-कहीं मोबाइल सिग्नल मिल ही जाता है,  सो घर वालों को अपनी राज़ी-खुशी दे उन्हें चिंतामुक्त किया... हम सब यात्रियों में जय भोलेनाथ का क्षणिक मिलाप सम्बोधन लगातार चल रहा था,  यह अलग बात है कि उतराई उतर रहे यात्री की आवाज़ साफ व चहकदार थी,  जबकि चढ़ाई चढ़ने के परिश्रम से हमारी फूली हुई साँसों की वजह से जय भोलेनाथ सम्बोधन का उत्तर मात्र औपचारिकता ही साबित हो रहा था,  हम छोड़ी हुई एक साँस में ही धीमे से जय भोलेनाथ बोल पाते......
                              तभी,  ऊपर से उतर रहे एक अधेड़ उमर सज्जन ने हमें कहा कि कहाँ से आये हो... मैने उत्तर दिया, "जी पंजाब से "   तो वे सज्जन बोले, " वो तो आपका डील-डोल देख कर ही लगता है कि आप पंजाबी हो..!! "
किसी अनजान व्यक्ति से अपनी प्रशंसा सुनना तो मिश्री से भी मीठा लगता है न मित्रों.... सो मुस्कराते हुए उनका धन्यवाद कर मैने उनके बारे में पूछा तो वे बोले, " मैं तो दाल-भात खाने वाला गुजराती हूँ बेटा,  अहमदाबाद से आया हूँ "
अहमदाबाद का नाम सुनते ही मैने चहकते हुए अहमदाबाद में देखे कई सारे पर्यटकीय स्थलों के नाम उनके आगे गिना दिये, तो उनकी प्रसन्नता की सीमा नही रही.... श्री खंड दर्शन के सवाल पर उन्होंने कहा कि, "नही मैं श्री खंड नही जा पाया,  बस भीमद्वारी तक जा कर वापस लौट आया हूँ..!! "         मैने कहा कि आप इस कठिनाई भरी यात्रा के 23किलोमीटर तो पार कर आखिरी पड़ाव भीमद्वारी पहुंच कर भी क्यों वापस आ गए,  जबकि वहाँ से श्री खंड शिला तो 13किलोमीटर ही रह जाती है...!             वे बोले, " बस मेरे स्वास्थ्य ने मुझे आगे जाने की अनुमति नही दी "
                                उनकी ये बात सुन विशाल जी ने दुख व्यक्त किया कि, " 23 किलोमीटर तक प्राकृतिक वाधाओं को पार कर भीमद्वारी पहुंच कर भी, आपको खाली हाथ वापस आना पड़ा... हमें अच्छा नही लग रहा...!!
तो उन्होंने जो जवाब दिया, उसमें बेहद संतोष भरा पड़ा था कि, " बेटा,  इस पावन क्षेत्र के प्रत्येक कण में भगवान शिव विद्यमान है,  मेरे लिए इतना ही काफी है कि मैं इस कठिन डगर पर भीमद्वारी तक तो जा आया हूँ...! "  और हम दोनों को उन्होंने यात्रा सम्बन्धी ढेरों शुभकामनाएं व आशीर्वाद के साथ आगे की ओर रवाना किया.....
                               और,  मैं सोचता हुआ अब आगे बढ़ रहा था कि मुझ में यह तथाकथित "संतोष" कब आयेगा...!!!!!

                                                                            ........................(क्रमश:)
श्री खंड यात्रा पथ...लगी अस्थायी दुकानों में खड़े विशाल रतन जी... 

जैसे-जैसे हम ऊपर चढ़ते जा रहे थे.... मैं आदतन बार-बार पीछे मुड़ देख लेता था,  पल-पल बदलती इस खूबसूरती को.... 

डंडा-धार की चढ़ाई.... 

डंडा-धार की चढ़ाई चढ़ते.... ध्यान ऊपर की ओर ही जाता,  कि वो सामने दिख रहा उभार ही इस पर्वत की चोटी हो... परन्तु वहाँ पहुंच देखते तो इस पर्वत की चढ़ाई का कहीं कोई अंत ही नही नज़र आ रहा था... 

एक श्रद्धालु भगवान शिव के लिए त्रिशूल ले जाता हुआ... 

बरौदा गुजरात से मन्नत पूर्ण करने आया दम्पति और विशाल जी... 

ऊपर रास्ते में एक सज्जन पापड़ खा रहे थे, जिन्हें मैं गुजराती समझा... परन्तु वो बंगलौर आंध्र प्रदेश के निकले... 

डंडा-धार पर्वत की कठिन चढ़ाई घने जंगल में .... और इस चित्र में आपकी दायें हाथ कुछ यात्री नज़र आ रहे हैं... 

इतनी बड़ी "जोंक "......यदि चिपक जाए तो......!!!! 

 ऐसी चढ़ाई......डंडा-धार की, बस चढ़ते जाओ... बस चढ़ते जाओ 

भैया, हम तो राशन पहुंचाने जा रही है... अपनी दुकानों पर,  जो हमारे घर वालों ने ऊपर लगा रखी हैं 

इस ट्रैक पर खाने-पीने की भरपूर सुविधा देख कर,  अपने साथ उठाये खाने-पीने के सामान के भार को खत्म करने में ही अपनी भलाई समझी.... दोस्तों 

लो भाई,  इस ट्रैक में कहीं-कहीं मोबाइल सिग्नल भी मिल जाता है.... अपने घर वालों को चिंतामुक्त करने के लिए 

ऐसा लग रहा था,  कि जल्द ही बादलों से हमारा साक्षात्कार होने वाला है.....

अहमदाबाद वाले सज्जन....... और मैं 

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रविवार, 18 जून 2017

भाग-9 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....Shrikhand Mahadev yatra(5227mt)

भाग-9 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर.....
                                 "मन्नत" 

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                                       मैं और विशाल रतन जी श्री खंड महादेव कैलाश पदयात्रा की पहली अग्नि परीक्षा "डांडा की धार " यानि डण्डे के समान सीधी खड़ी चढ़ाई पर,  सुबह के पांच बजे अंधेरे में पगडंडी पर अपनी टार्च की प्रकाश-परिधि का पीछा करते हुए चढ़ रहे थे... उस समय जंगल में शायद हम दोनों ही उस अंधेरे में चल रहे थे, क्योंकि एक घंटे के करीब हमें चलते-चलते बीत चुका था... परन्तु कोई भी आने-जाने वाला पदयात्री हमें नही मिला,  उस डंडा धार की चढ़ाई ने हमें बिल्कुल हल्की सी राहत दी कि चंद मीटर का कुछ समतल सा भूभाग राह में आया..... और वहीं रुक मैने श्रीमती जी द्वारा घर से चलते समय दिये केलों को अपनी रक्सक से निकाला... वो सिर्फ चार ही केले थे,  जिनमें से दो तो हम कल अपनी पदयात्रा शुरु करते समय खा गए थे,  बचे ये दो केले मैने अपनी रक्सक में डाल लिये थे....
                     दोस्तों, जीवन में अब तक हजारों दर्जन केले खा लिये होगे... परन्तु अपनी केरल यात्रा के समय खाया लाल रंग का केला और इस पदयात्रा पर खाया वो बेचारा केला (जिसे रक्सक में पड़े हुए बाकी सामान ने दबाब में ले लिया था) के स्वाद को जीवन भर याद रखने की कोशिश में हूँ..... क्योंकि यदि आप अपनी यात्राओं के अनुभवों को उस यात्रा के दौरान खाई हुई वस्तुओं के साथ जोड़ दें,  तो नतीजा एक बेहद मीठी याद के रुप में निकलता है... उस याद की मिठास तमाम उमर आपकी जीभ और दिमाग पर हावी रहती है......
                      सुबह के साढे पांच बजे कुछ-कुछ चानन(प्रकाश) सा होने लगा,  पेड़ों का रंग काले से अब हरा नज़र आना शुरु हो गया और कुछ इक्का-दूक्का यात्री भी मिलने लगे, हम बराहटी नाले से काफी ऊपर आ चुके थे...इतनी ऊपर कि अब चैल घाटी में बसे गाँव भी नज़र आने शुरु हो गए थे....घने जंगल और पेड़ों के झुरमुटों में अब कुछ कमी हो रही थी क्योंकि हम पहाड की काफी ऊँचाई पर आ चुके थे,  परन्तु इस पहाड का मुझे कहीं भी कोई शिखर नज़र नही आ रहा था....
                      रास्ते में एक तम्बू लगा आया तो मैने कहा कि, "विशाल जी यह भी लंगर ही लगता है, परन्तु अभी तो बंद है...शायद ये लोग सो रहे है "       तो विशाल जी ने कहा, "नही,  वो देखो तम्बू के पीछे हिस्से में से धुआँ उठ रहा है..ये लोग जाग चुके है,  आवाज़ लगाते हैं शायद कुछ चाय-नाश्ते का इंतजाम हो जाए "       और एक आवाज़ पर ही टैंट के दरवाजे पर लगे परदे खोल दिये गए व हमें अंदर आने के लिए कहा.... अंदर आए तो देखा कि वह टैंट कोई लंगर नही बल्कि अस्थायी दुकान है,  जिसमें वह दुकानदार लड़का अब जल्दी-जल्दी बिस्कुट व नमकीन के पैकेटों की लड़ियाँ टांग रहा था और कुछ नमकीन व मैगी की लड़ियाँ तम्बू के बाहर टांग दी गई,  जिससे वह तम्बू अब पूर्णता दुकान प्रर्दश्ति होने लगा........ अब हम उस खुले व साफ-सूथरे टैंट के अंदर बैठे थे, जिस के एक कोने में कई सारे कम्बलों की तह पड़ी थी......
                       यह सब देख,  मेरे प्रश्न-बाणों का रूख अब दुकानदार की तरफ होना ही था.....सो प्रश्नों का उत्तर मिला कि," इस जगह का नाम रेऊश है और लंगर तो पीछे बराहटी नाले पर जूना अखाड़ा वालों का ही है,  यहाँ आप लोग रात रुक कर आ रहे हैं... उस लंगर के बाद जो दो-तीन तम्बू आपने रास्तें में अलग-अलग जगह पर लगे देखे,  वे लंगर नही हम स्थानीय लोगों द्वारा इस यात्रा के लिए लगाई गई दुकानें हैं.... जो हर साल इस यात्रा के शुरु होने से एक महीने पहले से यात्रा पथ पर लगनी आरम्भ हो जाती है,  जो यात्रियों को भोजन व रात्रि विश्राम की सुविधा प्रदान करती है..... ऐसी सैंकड़ों अस्थायी दुकानें आप को इस यात्रा पथ पर लगी हुई मिल जाँएगी.....!"
                        मैने उनसे रात्रि विश्राम का शुल्क जानना चाहा,  तो उन्होंने कहा, " मैं 200रुपये प्रति व्यक्ति लेता हूँ.. जिसमें रात्रि भोजन भी सम्मिलित होता है.... परन्तु जैसे-जैसे आप ऊँचाई की ओर बढ़ते जाएगें, रहने-खाने की कीमतें भी बढ़ती जाँएगी,  आपको प्रत्येक दुकान पर चाय-नाश्ता व निश्चित मूल्य पर भरपेट भोजन और रात काटने के लिए जगह व बिस्तर मिल जायेंगें "
                        दुकानदार की बात सुन कर विशाल जी ने मुझ से कहा कि, " विकास जी, कल रात बराहटी नाले वाले लंगर के तम्बू में धूँऐ से भरी रात काटने की बजाय यह टैंट कितना सुविधाजनक जान पड़ता है, हम अब अपनी आगामी यात्रा में अब किसी भी लंगर पर रात नही रुकेंगें... ऐसे ही किसी निजी टैंट पर अगली रात काटेगें....! "   मैने भी विशाल जी की बात पर हामी भर दी,  तो दुकानदार ने कहा कि, " वैसे भी अब अगले 25किलोमीटर में केवल दो ही लंगर लगे हुए है,  एक लंगर तो "थाचडू" पर, और दूसरा थाचडू से 11किलोमीटर की दूरी पर "भीम द्वारी" में मिलेगा.... वैसे दुकानों की कमी नही है,  अपनी सुविधा के अनुरूप आप खर्च कर सुविधाएं प्राप्त कर सकते हैं "
                        और,  फिर से चल दिये हम दोनों डगर पर... बम भोले के उद्घोष के संग,  सुबह के सात बजने को थे...कि पीछे से एक अकेला युवक नंगे पैर चलता हुआ हमसे आगे निकला,  तो उसकी रक्सक में त्रिशूल लगा देख... मैने उनको पीछे से आवाज़ दे रोक कर त्रिशूल के विषय में पूछा.... तो उन्होंने कहा कि, "मेरी और इस त्रिशूल की यह दूसरी श्री खंड यात्रा है,  पिछली यात्रा पर मैं भगवान शिव से एक मन्नत मांग कर आया था कि मन्नत पूरी होने पर ये ही त्रिशूल मैं दोबारा भगवान आपको चढ़ाने आऊँगा...!! "
                         मै उत्साहित हो कर बोला, " तो आपकी मनोकामना पूर्ण हो गई....!!! "    परन्तु उस युवक ने कुछ ढीले से शब्दों में कहा,  " जी नही... चार साल पहले मांगी थी मनोकामना, वह तो अभी तक पूर्ण नही हुई... परन्तु यह त्रिशूल जरूर भगवान शिव को चढ़ाने जा रहा हूँ, कि क्या-जाने आगामी जिंदगी कैसी और कौन सी करवट ले ले और मैं इस कठिन यात्रा को दोबारा कर ही ना पाऊँ...!!"
                          उन की ये बात सुन,  मैं व्यक्तिगत सोच की उधेड़बुन में फंस गया,  कि युवक की इस यात्रा में उसकी मनोदशा को.....अपने ईष्ट पर अथाह आस्था या फिर मन्नत ना पूरी करने का डर कहूँ या फिर "आस्था व डर का मिश्रण....!!!"
                           दोस्तों, मेरी एक "कटु सोच" आप संग बांट रहा हूँ कि, " भगवान और भक्त में यह मन्नत का व्यापार कब आरम्भ हुआ होगा.... जिस की रीत इस संसार के प्रत्येक धर्म में प्रचलित है,  इस रीति के पनपनें की तह तक सोचता हूँ... तो क्या किसी भगवान ने अपने भक्त को मन्नत का प्रलोभन दिया या फिर भक्त ने भगवान को,  कि मेरा यह कार्य कर दो... मैं आपकी सेवा में ऐसा करूंगा...!!! "
                           परन्तु दोस्तों मैं कुछ वास्तविक सोच का व्यक्ति हूँ.... ना चाहते हुए भी कटु सत्य बोल ही जाता हूँ, कि "महापुरुष इस धरा पर पैदा हुए और सत्य की राह पर चले,  धर्म व मानवता की रक्षा व सेवा के लिए के लिए तमाम उमर लगा गये..... ज्यादातर इन महापुरुषों ने अपने जीवन को सादगी व आर्थिक तंगियों में ही काटा,  अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को मानवता के संग ही बाँटा, चाहे हालात उनके विरुद्ध ही रहे हो"
                उन महापुरुषों के इस सांसरिक जहान से पलायन के उपरांत उनके नाम पर बड़ी-बड़ी धार्मिक इमारतें खड़ी हो गई, तमाम उमर भूमि पर सोने वाले महापुरुष के प्रतीक को आज सोने के सिंहासन पर बिठा पूजा जाने लगे,  निजी पूजा व दर्शन के मूल्य तय किये जाने लगे...और प्रचंड भव्यता से ग्रसित उस स्थान पर सम्मोहित या प्रभावित हुआ भक्त जाने-अनजाने में मन्नत नाम के व्यापार का हिस्सा बन जाता है, कुदरतन जिस भक्त की जायाइज़ मनोकामना पूर्ण हो गई (जायाइज़ मनोकामना से मेरा तात्पर्य है कि जो कुछ एक आम आदमी को अपने जीवन चक्र में चाहिए)  तो सौदा पार नही तो भक्त के ही फूटे कर्म या गलतियां,  क्या किसी भक्त ने कभी भगवान से यह मनोकामना मांगी कि मेरी बूढ़ी दादी को बी•ए• पास करवा दो, कम से कम किसी स्कूल में बच्चों को पढ़ा कर कुछ पैसे तो कमाने लगे.... नही ना दोस्तों,  हम सब की वही मिली-जुली मांगे है जिनका कुदरतन कम से कम पचास फीसदी तो पूर्ण होना तय है, उदाहरण पुत्र-प्राप्ति की मन्नत.... पुत्र हुआ तो वारे न्यारे.....!!
                          बाकी पचास फीसदी मन्नत उनकी पूर्ण होती है,  जो मेहनती भी होते है...अपने कर्म को पूर्ण करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाते हैं.....!!!
                          दोस्तों,  मैने अभी हाल में ही की हुई अपनी राजस्थान भ्रमण यात्रा के दौरान एक ऐसा अत्यन्त भव्य व विशाल धार्मिक स्थल देखा,  जिसके बारे में ये बात प्रचलित है कि इस भव्य स्थल को "तस्करों" ने बनाया है.... वहाँ पूछने पर उत्तर मिला कि, " ये भगवान सब की सुनतें है...!! "        
                           अफ़ीम की खेती होती रही उस इलाके में.....और इस स्थल का मासिक चढ़ावा ढाई करोड रुपये को पार कर,  राजस्थान का सबसे ज्यादा कमाई वाला धार्मिक स्थल बन गया है.... मैं तो कहता हूँ यह मन्नतों की एक दुकान ही है, जहाँ मन्नतें बिकती हैं कि भगवान ये माल पार लगा दो... "आधा तेरा..आधा मेरा "
                            इस कड़ी के अंत में बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि हमारा मनुष्य मन बेहद कोमल व चंचल है, जो हमेशा सहारे की चाह में रहता है... और वो सहारा धार्मिक, आध्यात्मिक, भौतिक व सांसारिक ही होता है.. दोस्तों

                                                           ................................(क्रमश:)
बराहटी नाले से ऊपर जंगल में रास्ते किनारे.....किसी देव का स्थान 

ये ही वो दो केले थे..... दोस्तों, जो उस अंधेरे में बहुत स्वादिष्ट लग रहे थे 

पगडड़ी के किनारे एक पत्थर पर "भोले" लिखा था.....

सुबह के साढे पांच बजे..... कुछ चानन सा होने लगा और पेड़ों के रंग काले से हरे नज़र आने लगे.. 

और, अब कुछ यात्री भी राह में मिलने आरम्भ हो गए....इसलिए ही हम दोनों की इक्ट्ठी फोटो खिंच पाई 

जैसे-जैसे डंडा धार पर्वत की ऊँचाई पर चढ़ते जा रहे थे..... नीचे का दृश्य हसीन होता जा रहा था 

उसी हसीनता पर मंत्रमुग्ध हुए..... विशाल रतन जी

रेऊश नामक स्थान पर.... उस साफ-सुथरी अस्थायी दुकान पर बैठ चाय पीते हम दोनों...

अरे भाई,  ये त्रिशूल क्यों ले जा रहे हो...... तो इन्होंने कहा कि इस त्रिशूल और मेरी ये दूसरी श्री खंड यात्रा है, मन्नत थी सो इस त्रिशूल को श्री खंड चढ़ाने जा रहा हूँ... 

वाह ये हरियाली से भरे पहाड़..... आँखों को कितना सुकून दे रहे थे 

डंडा धार पर्वत की चढ़ाई से नीचे दिख रहे गाँव.... कल दोपहर जब हम जांओ गाँव में पहुँचें थे, तो ये गाँव ऊपर से हमें देख मस्कुरा रहे थे... और अब हम इन्हें और ऊपर जा कर मुस्कुरातें हुए देख रहे थे,  दोस्तों 
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रविवार, 11 जून 2017

भाग-8 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....Shrikhand Mahadev yatra(5227mt)

भाग-8 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....
                                     " वो धुँऐ भरी रात "

इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र (https://vikasnarda.blogspot.com/2017/04/1-shrikhand-mahadev-yatra5227mt.html?m=1) स्पर्श करें।
                                             
                                            श्री खंड महादेव यात्रा में तीन लोगों की मौत की खबर सुना, उन लड़को ने हमारे मन में भी अचानक से एक डर पैदा कर दिया.... जूना अखाड़ा लंगर बराहटी नाले के तम्बू के साथ बह रही कुरपन नदी का शोर अब एकाएक डरावना सा लगने लगा,  हमारे तम्बू में पसरी ख़ामोशी तब टूटी... जब चार-पांच यात्री एक दम से तम्बू के भीतर अा खड़े हुए,  वे सब श्री खंड से वापस आ रहे थे और उनके बैठते ही निश्चित तौर पर हमारा उनसे सब से पहला सवाल उन तीन मौतों के विषय में ही होना था,  तो उन्होंने कहा, " हां जी यह खबर बिल्कुल सही है... ऊपर तीन व्यक्तियों की मौत हो चुकी है,  जालन्धर वाला लड़का तो बहुत जवान है जिसकी लाश ऊपर जंगल में ही पड़ी है,  ऊपर से नीचे तक लाश को ले कर आना भी बहुत मुश्किल व ख़र्चीला काम है..सुना है कि हजारों रुपये लग जाते है ऊपर से नीचे सड़क तक लाश को पहुंचाने में.... यह सब भोले नाथ की ही माया है, उसकी वो ही जानें... हम क्या है उसके आगे...!!! "
                        उस व्यक्ति की यही आख़िरी पंक्ति हमारे मुनष्य मन को समझाने के लिए काफी मानी जाती है,  सो मैने विशाल रतन जी से कहा कि, " ये कोई आम यात्रा नही है.. अत्यंत कठोर परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ सकता है हमें..! "  तो विशाल जी ने कहा, " हाँ मुझे भी आभास हो चुका है कि यह यात्रा जल्दबाजी की नही, संयम व ठंडे दिमाग से करने वाली यात्रा है...इसलिए हम कल सुबह जितनी जल्दी हो सके,  इसे शुरू कर देंगे...! "
                         तम्बू में अब धूआँ भरना शुरू हो चुका था,  क्योंकि उन लौटते हुए यात्रियों की थकान,  शायद सिगरेट पर सिगरेट पीने से उतर रही थी.... सो ताज़ी साँस लेने के लिए हम दोनों तम्बू से निकल, लंगर की तरफ आ गए..
                          रात के 8बज चुके थे,  सो भोजन कर हम जल्दी ही सो जाना चाहते थे, तांकि सुबह जल्दी से अपनी यात्रा को पुन: आरम्भ कर सके...... परन्तु लंगर प्रबंधक ने हमे कहा कि पहले साधुओं का भोजन है, तत्पश्चात् साधारण लोगों के लिए..... मैं झट से समझ गया कि यह साधु-अखाड़ों की रीत है, सो हम साधारण जन अपनी बारी की प्रतीक्षा में इधर-उधर घूमने लगे.....
                           दोस्तों,  एक बात और बताना चाहता हूँ कि प्राचीन काल में ऐसी कठिन पर्वतीय तीर्थ यात्राएँ अधिकतर साधु ही किया करते थे, हम साधारण मनुष्यों में न पहले इतना निष्ठावान ठहराव रहा होगा और न अब.. हम लोग तो ज्यादातर ऐसी जगहों पर मुँह उठा कर केवल पिकनिक मानने चल देते हैं,  जिस का भीषण परिणाम है ये तीन मौतें.... और एक बात हम सामान्य जन बगैर किसी तैयारी के अपने-आप को आस्था के नाम पर इन कठिन डगरों पर अग्रसर कर देते है,  जो कभी-कभार बदकिस्मती से "आत्महत्या" भी साबित हो जाती है....!!
                           दोस्तों, मेरी बात कड़वी लग रही है न...परन्तु यही सच्चाई है  कि जो व्यक्ति कभी अपने गाँव-शहर में दस कदम पैदल चलने से भी परहेज करता हो,  वो एकाएक अमरनाथ यात्रा को चल दे... तो उसकी यात्रा के दौरान क्या स्थिति होगी,  अाप बखूबी समझ चुके हो....!
                            खैर, सब साधु-महात्मा गण भोजन ग्रहण कर चुके थे...सो हमें भी वहीं बैठा कर लंगर परोसा गया.. माँह-छोले की काली दाल, (जिसे हर पंजाबी हर रोज़ खा सकता है... ठीक वैसे, जैसे हर दक्षिण भारतीय हर रोज़ अरहर की दाल खा सकता है) के साथ चावल,  रोटी, कद्दू की सब्जी,  आचार.... एक सम्पूर्ण आहार जिसकी हर थके हुए यात्रि की अति आवश्यकता थी.... कि इस सम्पूर्ण व स्वादिष्ट आहार को खा कर हमारा शरीर रात की नींद में अपनी थकी-टूटी हुई कोशिकाओं की मरम्मत कर उन्हें कल की यात्रा के लिए नव संचारित कर दे.......
                           भोजन करने के पश्चात् हम दोनों बाबा अशोक गिरि जी के पास उनके धूने पर जा बैठे, परन्तु बाबा जी ने हम साधारण जनों में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई... वे अपनी श्रेणी के साधु-महात्माओं के संग ही बतियाने में मस्त थे....सो हमने धूने पर यथासम्भव राशि चढ़ा कर माथा टेका और बाबा जी का धन्यवाद कर अपने तम्बू की ओर कदम बढ़ा दिये.... यदि बाबा अशोक गिरि जी हम में भी थोड़ी सी दिलचस्पी दिखाते तो यह कथा और भी लम्बी हो जानी थी,  क्योंकि मेरे पास सवालों की कमी नही होती........ यही सोचते हुए जब तम्बू में कदम रखा,  तो सारा तम्बू ही यात्रियों से भर चुका था, केवल हमारे "कब्जे वाली" ही जगह खाली थी..... तम्बू में करीब हम सब पंद्रह जन थे, परन्तु उनमें से ज्यादातर लोग धूम्रपान करने वाले ही थे... धूँए का प्रकोप तम्बू में जल रहे बल्ब की रोशनी पर भी भारी पड़ रहा था,  पर किस से कहें और क्यों कहें,  कौन हमारी बात सुनेगा....क्योंकि हम अनजान जगह और अनजान लोगों के बीच थे,  सो मन मार कर अपने-आप को हालात के हवाले ही करना मुनासिब जाना....और उन नये आये यात्रियों द्वारा कुछ-कुछ कम की हुई हमारी कब्जे वाली जगह पर हम जैसे-तैसे लेट गए ......और सोने से पहले तय हुआ कि सुबह चार बजे का अलार्म लगा कर उठना है.....
                            कुछ ही देर बाद जेनरेटर बंद कर दिया गया और हर तरफ का रंग स्याह हो गया,  उस स्याह रंग की खामोशी को तीन तरह की आवाज़ें निरंतर तोड़ रही थी....मेरे भीतर की शंखनाद ध्वनि, बाहर कुरपन नदी से उठ रही जलतंरगी ध्वनि और इन दोनों मधुर ध्वनियों की संगीतमय युगलबंदी को बेसुरा करती तम्बू में हमारे संग लेटे हुए धूम्रपानियों की खाँसी......लेटते ही मेरे चेतन व अवचेतन मन की कुछ वार्ता चली और मेरी आँखों की पलकें भारी हो गई................. करीब आधे घंटे बाद अर्ध सोई अवस्था में मेरे अवचेतन मन में मुझे महसूस हुआ कि मेरा दम घुट रहा है....और चेतन मन ने झट से शरीर में चेतना जगा, मुझे एक झटके से उठ कर बिठा दिया... मेरे उठते ही विशाल जी भी मेरी तरह से, मेरे साथ ही उठ गए और उन्होंने भी वही बात दोहराई,  कि मेरा भी सोते हुए दम घुटा........कारण समुद्र तट से 2175मीटर की ऊँचाई और बंद तम्बू में धूम्रपान की क्रूरता.......... खैर कुछ देर बैठ,  हम दोनों ने फिर से अपने-आप को हालात के हवाले कर दिया और थके हुए तन-मन पर आखिर नींद का साया भारी पड़ा...... या यूँ कहें कि "सूटे" के मादक धूँए ने अप्रत्यक्ष रुप में हमें नींद में मदहोश कर दिया......!!
                             चार बजे के अलार्म ने हमारी निद्रा तोड़ी और अपने स्लीपिंग बैग व बाकी सामान को पैक कर चुपके से तम्बू में सोये हुए लोगों के ऊपर से गुजर कर बाहर आ गए.... नित्यकर्म में आधा घंटा लगा,  साढ़े चार बजे अंधेरे में हमारी रक्सकों पर बंधी घंटियाँ पुन: बजनी शुरू हो गई.... हम दोनों अकेले ही टार्च की सहायता से नदी के साथ-साथ चलने लगे, पंद्रह मिनटों के बाद हम कुरपन नदी पर बने पुल के ऊपर खड़े थे, यहाँ दो नालों का संगम है जिसे "बराहटी" नाम से जाना जाता है.....और उस पुल पर खड़े अंधेरे में हमे सिर्फ पानी की चीत्कार ही सुनाई पड़ रही थी.....दोस्तों इस स्थान पर बरास या बुराश के पेड़ों की भरमार है, जिस पर बेहद हसीन लाल रंग के फूल खिलतें है... जो मुझे बेहद पंसद है,  इसलिए इस जगह का नाम बराहटी पड़ गया.......
                               पुल पार करते ही "गीरचाडू देवता".का मंदिर था... और उसके सामने एक तम्बू लगा रखा था, जिसमें भी कुछ लोग सो रहे थे... मैने विशाल जी से कहा कि "यहाँ भी यह, एक छोटा सा लंगर लगा लगता है "  चार कदम आगे बढ़ने पर पता चल गया कि अब "डांडा की धार" शुरू हो गई है, इस पदयात्रा की पहली आठ किलोमीटर लम्बी चढ़ाई जो अपने नाम के ही अनुरुप ही "डण्डा रुपी" चढ़ाई है... मतलब सीधे खड़े डण्डे पर चढ़ना,  धारणा यह है कि जो यात्री इस पहली अत्यंत कठिन डण्डे रुपी चढ़ाई को चढ़ गया....वो श्री खंड यात्रा के लिए मान्य है,  यह चढ़ाई ही श्री खंड महादेव पदयात्री की पहली "अग्नि परीक्षा" है, जिसमें उत्तीर्ण हो वह यात्रा के अगले कठिन पड़ावों की ओर बढ़ता है.............

                                                        ...............................(क्रमश:)
 
               
                 
                         
           
लंगर में लगा.... यात्रा की दूरियाँ सम्बन्धी विवरण 
बरहाटी नाला लंगर में किया.... वो स्वादिष्ट रात्रि भोजन 

बाबा अशोक गिरि जी......जूना अखाड़ा बरहाटी नाला लंगर प्रबंधक 

सुबह साढे चार बजे हम दोनों जूना अखाड़ा लंगर से आगे की ओर चल दिये..... और कुरपन नदी पर बने पुल पर उस समय अंधेरे में सिर्फ़ हमे पानी की भीषण चीत्कार ही सुनाई दे पा रही थी... 

बरहाटी नाले पर लगा यात्रा सम्बन्धी बोर्ड..... 

गीरचाडू देवता मंदिर,  बरहाटी नाला 



बरहाटी नाले के चार कदम चलने पर ही चढ़ाई शुरू हो गई.....
श्री खंड कैलाश महादेव पदयात्रा की प्रथम अग्नि परीक्षा "डांडा की धार" की चढ़ाई....

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रविवार, 4 जून 2017

भाग-7 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....Shrikhand Mahadev yatra(5227mt)

 भाग-7 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....
                              " हाय ओ रब्बा, मेरे सोहने पंजाब दी जवानी....!!!"
     
इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र (https://vikasnarda.blogspot.com/2017/04/1-shrikhand-mahadev-yatra5227mt.html?m=1) स्पर्श करें।        
                                                 
                                      मैं और विशाल रतन जी, श्री खंड महादेव कैलाश पदयात्रा पर पहले दिन के रात्रि ठहराव के लिए जूना अखाड़ा बराहटी नाले की ओर चलते जा रहे थे...... श्री खंड से वापसी कर रहे यात्रियों से निरंतर पूछ रहे थे, कि अभी कितना और चलना है... क्योंकि शाम तो होने चली थी और घने पेड़ों के नीचे पहुंच रही सूरज की रौशनी, भी लगता था सारा सारा दिन भाग-भाग कर थक सी गई हो.....  
                    और,  सामने हम जिस टेढ़ी उतराई को उतर रहे थे....दूसरी तरफ से उस खड़ी चढ़ाई पर एर बेहद थक चुके सज्जन बड़ी मुश्किल से अपने-आप को ढोतें हुए चढ़ रहे थे,  रास्ता सिर्फ एक व्यक्ति के निकलने योग्य था....सो हम ऊपर ही रुक उनके ऊपर आने की प्रतीक्षा में खड़े हो गए..... हमारा सामना जैसे ही उनसे हुआ,  वे बोले, " क्या आपके पास कोई दर्द निवारक दवा है,  मेरे तो घुटनों ने जवाब ही दे दिया है... बहुत परेशान हूँ, अब तो चला भी नही जा रहा....!"
                    मैने थकान से टूट चुके उन सज्जन को वहीं रास्ते में बैठा कर,  उनके घुटनों पर दर्द निवारक स्प्रे किया और एक दर्द नाशक दवा खिलाई.... व उन्हें हौसला दे, फिर से पथ पर खड़ा कर....  बम भोले का जयकारा लगा, हम नदी की ओर ले जा रही उस सीधी खड़ी उतराई पर अपने-आप को ही रोकते हुए उतरने लगे...... और अभी मिले सज्जन व सिंहगाड से जहाँ तक पहुँचें सिर्फ ढाई किलोमीटर लम्बे रास्ते को देख मेरे दिमाग में,  सिंहगाड में केरल वाले जय चन्द्रन जी की बात घूम गई,  कि " मैं कैलाश मानसरोवर भी जा चुका हूँ.. पर यह यात्रा उससे 'सौ गुणा' कठिन है...! " 
                     और,  एक बड़े वृक्ष पर चढ़ी एक घूमती-घूमाती सी बेल के जैसी उस अत्यन्त कठिनाई युक्त पगडंडी से नन्ही सी चींटी की तरह उतर कर हम नदी के तट के पास लगे, खन्ना(पंजाब) से आए जूना अखाड़ा लंगर (2175मीटर) पर शाम 6बजे के करीब पहुंच ही गए..... और अनजान लोगों के बीच ऐसे किसी व्यक्ति को हमारी नज़र तलाश रही थी,  जिसे मिल हम कह सके कि हमें आज की रात आपके लंगर में शरण चाहिए..... 
                       एक नौजवान साधु रसोई में सेवादारों को निर्देश दे रहे थे,  सो उनसे जा कर प्रार्थना की... तो उन्होंने कहा,  "अभी आप बैठ कर चाय व अल्प आहार ग्रहण करे...और लंगर आयोजक फलाहारी बाबा अशोक गिरी जी से मिल कर ले,  वे आपके यहाँ रुकने की व्यवस्था कर देंगे "  
                        कुरपन नदी के किनारे कुछ ऊँची समतल जगह पर रास्ते के दोनों ओर पक्के कमरे डाल कर 21वी बार यह लंगर लगा हुआ था..... तकरीबन सब किस्म की सुविधाएं लंगर में मौजूद थी,  बिजली के लिए जेनरेटर का प्रबंध,  रात्रि-विश्राम के लिए बड़े-बड़े जलरोधक तम्बू और उनमें पड़े बिस्तर आदि....... ताज़ा बने बेसन के लड्डू के संग हमे चाय परोसी गई और आदतन मैने कैमरा चालू किया,  उस बेसन के लड्डू और चाय को यादगार बनाने के लिए....  सारा दिन दौड़-दौेड़ कर मेरा कैमरा भी थक चुका था,परन्तु मैं अड़ियल कैमरे की बात सुन ही नही रहा था... मुझे तो वो बेसन के स्वादिष्ट लड्डू की तस्वीर चाहिए थी,  तो कैमरे से जोर-जबरदस्ती पर उतारू हो गया.... नतीजा यात्राओं का साक्षी व परम मित्र मेरा "छायाकान यंत्र " मृत पड़ गया,  उसका मुख खुला का खुला रह गया और मेरे लाख मनाने पर भी कोई प्रतिक्रिया नही....
                        दोस्तों,  यात्रा के दौरान कैमरा खराब हो जाए,  इससे बड़ी कोई बदकिस्मती और नही हो सकती...क्योंकि यात्रा के समय अपनी आँखों से देखे गए सुंदर दृश्य कुछ समय बाद ही मृत पड़ जाते हैं,  यदि उन दृश्यों को मशीनी आँख से सदा के लिए कैद कर रखा है,  तो वे चित्र रुपी दृश्य धुंधली हुई स्मृति को पुर्नजीवित कर जाते हैं....
                         मेरा हाल मेरे कैमरे की रुकी हुई सांसों जैसा ही हो चुका था उस समय,  सब कुछ छोड़ कर कैमरे की ही उधेड़बुन में मगन था, कि विशाल जी बाबा अशोक गिरी जी से मिल कर रात रुकने की बात भी कर आए....और हमे खुद बाबा जी ने एक अलग बड़े से तम्बू में पहुँचाया...... तम्बू के एक कौने में अपना सामान रख अपनी जगह निश्चित की और हमने अपने स्लीपिंग बैग खोल कर कुछ समय आराम करना ही मुनासिब जाना....... और विशाल जी के हाथ में जाते ही मेरे कैमरे ने अपनी नाराजगी खत्म कर दी, और मेरे चेहरे की तरह ही उसकी स्क्रीन भी अब खुशी से लाल हो चुकी थी..... कैमरे को पावर बैंक का साथ दें,  हम दोनों अपनी पीठ सीधी करने हेतू लेटे ही थे,  कि हमारे तम्बू के दरवाजे पर दो 17-18 साल के नवयुवक आ बैठे........ और पंजाबी में बोले, " कि पहली बार चलो ओ,  श्री खंड "......हमने हाँ में उत्तर दिया,  तो बातचीत का दौर शुरू हो गया....
                           खन्ना(पंजाब) से उन जैसे कई लड़के लंगर में सेवा करने हेतू यहाँ आए हुए थे,  तभी एक ने दूसरे को इशारा किया... तो वे वही काम करने लगे,  जिसके लिए वे इस तम्बू में आ बैठे थे.... एक ने काले रंग की छोटी सी गोली को जेब से निकाल,  उसे माचिस की तीलियों से आग लगा-लगा कर पिघलाने लगे और जब वह पदार्थ कुछ जल कर धुआँ छोड़ने लगा... तो उसे सिगरेट के साथ मिलाकर उन दोनों बारी-बारी कश खींचने शुरू कर दिये..... वह काला पदार्थ "हशीश" या उनकी भाषा में शिव जी का प्रसाद "सूटा" था.....इसी सूटों को मैने अभी कुछ समय पहले इसी लंगर में जहाँ हम बैठे चाय पी रहे थे, दो साधुओं को भी सिगरेट में भरते देखा था... पर मैने इनकी तरफ कोई तव्वजो नही दी,  क्योंकि साधु समुदाय में इस प्रकार की बातें सामान्य है,  परन्तु यहाँ तो मेरे सामने ही "मेरे सोहने पंजाब" की जवानी "बम भोले" की आड़ में धूऐं के गोले उड़ा रही थी.....!!
                            उन लड़कों के इस रवाइयें ने मन व्याकुल सा कर दिया..... मुझ से रहा नही जा रहा था,  सो पूछ ही बैठा, कि यह बुरी लत कैसे लगा ली,  तो उनमें से एक लड़का पंजाबी में बोला, " भाजी,  टैंट दा कम्म करदे आं बेहरा गिरी दा.. बस ऐदां ई इक-दूजे तो इह आदत लग गई... जी "
                               विशाल जी ने उनको समझना शुरू किया कि, " ये नशे का रास्ता बहुत खतरनाक है... इस पर तो पैसे और जान की बर्बादी है, बस और कुछ नही.. छोड़ क्यों नही देते इस जहर को...!! "
                                विशाल जी की बात सुन उन लड़कों ने बस हमें इतना ही आश्वासन दे दिया कि...हाँ भाजी,  छोड़ देंगे..परन्तु मैं उन लोगों के बोलने के अंदाज़ से समझ गया कि वे "छोड़ देंगे" शब्द सिर्फ इच्छा से ही बोले है निश्चय से नही... किसी नशेड़ी के लिए नशा छोड़ देना, "उसकी इच्छा " तो हो सकती है "निश्चय " नही.....जब तक वह खुद नशा छोड़ने का अटल निश्चय नही लेगा, उसकी या किसी और की इच्छा उसका नशा नही छुड़वा सकती....!!
                                 मैने उन्हें कुरेदा, तो पता चला... कि और भी कुछ लड़के है जो सिर्फ नशे की पूर्ति के लिए पंजाब से यहाँ सेवा करने के बहाने आए हुए हैं..... सो बातचीत बदलने के लिए मैने इनसे पूछा,  कि आप दोनों श्री खंड महादेव के दर्शन कर आये हैं.... तो उनके जवाब ने हमारी अब तक की यात्रा के उल्लास को ग्रहण लगा दिया...!!
                                 क्योंकि वे लड़के अब हल्के से नशे में बोल रहे थे कि, "भाजी हमे मरना नही है,  ऊपर तीन आदमी मर गये हैं..एक की लाश अभी दोपहर को ही यहीं से निकली है सिंहगाड की ओर,  दो दिन पहले भी एक लाश ऊपर से नीचे लाई गई.. और अभी एक और जवान लाश पड़ी है ऊपर थाचडू के जंगल में,  सुना है कि वह जालन्धर शहर का है.... हम दोनों भी आज सुबह यहाँ से श्री खंड के लिए चले थे,  परन्तु बराहटी नाले से आगे की चढ़ाई जिसे 'डंडाधार की चढ़ाई' कहते है, मतलब डंडे के ऊपर चढ़ना.. एक दम सीधी चढ़ाई... उस चढ़ाई ने तो जान ले ली हमारी और ऊपर से उस जालन्धर वाले की लाश हमने देख ली,  फिर क्या था... दोनों वापस ही आ गए कि कहीं रास्ते में मर-मरा गए तो कोई नही पूछने वाला.....!!!!! "
                                  उनके मुख से निकली बात हमारे यात्रा के जोश को एक दम से ठण्डा कर गई.... मैं विशाल जी का मुख देंखूँ और वो मेरे मुखमण्डल को..... हवाईयाँ तो हम दोनों की ही उड़ चुकी थी,  कि तम्बू में लगा बिजली का बल्ब जग उठा...और वो एक लड़का दूसरे से बोला, " चल उठ अब शेरा, रात का लंगर भी तो अब बरतना है "
                                  और....... हम दोनों सुन्न से तम्बू में अब अकेले बैठे शून्य में घूर रहे थे.......!!!    

                                                                       ...............................(क्रमश:)
इस उतराई को उतरने के लिए..... केवल एक व्यक्ति योग्य रास्ता ही था, और दूसरी ओर से एक व्यक्ति बड़ी मुश्किल से अपने-आप को ढोता हुआ इस चढ़ाई को चढ़ रहा था..... 

और......उस व्यक्ति के ऊपर चढ़ने के इंतज़ार में खड़े-खड़े... मैने विशाल रतन जी से यह फोटो खिंचवा डाली.... 

हमारे पास पहुंचतें ही उन्होनें हमें अपने दर्द का सांझीदार बनाया..... और थक चुके उनके घुटनों पर दर्द निवारक स्प्रे करता हुआ मैं....... 

श्री खंड रास्ते के दोनों बराहटी नाले के पास पड़ा...जूना अखाड़ा लंगर 

तकरीबन हर किस्म की सुविधा थी इस लंगर में..... दोस्तों 

             ( अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )