सोमवार, 17 अप्रैल 2017

भाग-11 चलो, चलते हैं.....सर्दियों में खीरगंगा और मणिकर्ण Winter trekking to Kheerganga & Manikaran darshan.

भाग-11 चलो, चलते हैं..... सर्दियों में खीरगंगा (2960मीटर)

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                                           मणिकर्ण गुरुद्वारा साहिब में लंगर छकने के पश्चात मैं और विशाल रतन जी गुरुद्वारे की चौथी मंजिल पर बने, हमें ठहरने हेतू दिये गये कमरे में पहुँच....कोई आधा घंटा आराम करने के बाद,  हम दोनों फिर से नीचे उतर आये,  गुरुद्वारे के अंदर ही बने हुए गर्म पानी के सरोवर में स्नान करने के लिये। दो दिन की खीरगंगा जाने की के मुशक्कत के बाद उस गर्म जल से हमारे तन की मानो "टकोर" (सिकाई) बहुत ही बढिया ढंग से हो रही थी। थकी हुई मांसपेशियों को आराम मिल रहा था,  यह पानी अंतिम वैज्ञानिक तथ्य के अनुसार भूमि के गर्भ में स्थित गंधक की चट्टानों के सम्पर्क में आने से गर्म हो बाहर आता है,  और साथ में सल्फर गैस भी भूमि से बाहर लाता है।
                          गुरुद्वारे के भीतरी कक्ष में बने सरोवर से जब मैं बाहर निकल कर,  कपड़े पहन अभी चार कदम ही चला था कि मुझे एक जबरदस्त चक्कर आया और मुझे घुटन सी महसूस होने लगी। मैं झट से समझ गया कि मुझ पर सल्फर गैस का आक्रमण हो चुका है,  क्योंकि मैं गर्म पानी से मिलते आराम के लालच में ज्यादा समय गंधक युक्त पानी के सम्पर्क में रहा......और वहीं का वहीं ही खुली हवा में सीढियों पर बैठ मैने अपने सारे गर्म कपड़े उतार फैंके। अब वही जनवरी महीने की जमा देने वाली सर्द हवा मुझे आराम पहुँचा रही थी,  विशाल जी ठीक-ठाक थे....और मेरे साथ वे भी सीढियों पर ही बैठ गये। करीब आधे घंटे के बाद मैं कुछ सामान्य सा हुआ,  तो हम दोनों उठ कर कमरे की तरफ चल दिये.....परन्तु कमरे में भी पहुँच कर मैं बहुत समय तक दरवाजे में ही खुली हवा में सांस लेने हेतू बैठा रहा। पास पड़ी कुछ दवा खा कर, आखिर मैं एक-डेढ घंटे बाद ही पूरी तरह से सामान्य हो पाया......और फिर हम दोनों आखिर बातें करते-करते सो गये।
                          सुबह 5:30 बजे उठ हम दोनों तैयार हो,  गुरुद्वारा परिसर की दूसरी मंजिल पर स्थापित श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रकाश स्थल पर दर्शन हेतू पहुँचें। प्रकाश कक्ष की सुंदरता तो देखते ही बनती है कि पूरा प्रकाश कक्ष ही शीशे की नक्काशी से सजाया हुआ है। गुरु ग्रंथ साहिब जी के संग ही पूरे प्रकाश कक्ष में लगे समस्त देवी-देवताओं के अति सुंदर चित्र हमारे मन को सुख व शांति प्रदान कर रहे थे.....जो कि धार्मिक आधार व सांझ का प्रतीक है,  बस यही बात ही मुझे हर बार मणिकर्ण में प्रफुल्लित कर जाती है......और वहीं पर इस भव्य गुरुद्वारा साहिब के संस्थापित स्वर्गीय बाबा नारायण हरि जी के चित्र भी सुशोभित है।
                           सन् 1940 में उस पार (अब पाकिस्तान) से एक नवयुवक नारायण हरि,  हिमालय के इस हिस्से में खोज करता हुआ पहुॅंचा.....यहाँ गुरु नानक देव जी अपनी तीसरी उदासी (भ्रमण यात्रा) के दौरान अपने पांच अनुयाइयों संग 15वीं शताब्दी में पहुँचे थे। गुरु नानक देव जी के संगी भाई मरदाना जी ने यहाँ पहुँच भोजन तैयार करने हेतू जलावन का प्रबंध करना चाहा,  परन्तु उस समय कोई भी लकड़ी आदि यहाँ आस-पास उपलब्ध ना होने के कारण वे निराश हो गये,  और ऊपर से जोरो की भूख सता रही थी........तो गुरु जी ने भाई मरदाना की व्यथा देख बर्फीले पानी से लबालब भरी पार्वती नदी के किनारे पर एक पत्थर पीछे हटाया, और उसके नीचे से एक अति गीष्म जल की धारा फूट पड़ी और कहा, "ले मरदानेंआ....तेरा इंतजाम कर दिया, अब तू इस गर्म पानी में भोजन पका "           और खुशी-खुशी भाई मरदाना जी ने उनके पास जो भी थोड़ा-बहुत आटा था....एक बार में गूँथ कर, रोटियाँ बेल कर उस उबले जल में पकने के लिए छोड़ दिया....परन्तु वे सारी रोटियाँ गर्म जल में डूब गई,   निराश हो भाई मरदाना ने गुरु जी से कहा,  "यह क्या गुरु जी....मेरे पास मौजूद अल्प मात्रा अन्न भी व्यर्थ चला गया.......!"
                           तब गुरु नानक देव जी ने कहा,  "मरदानेंआ....तू हरि दा नाम लेह के रोटियाँ नही तारिआं,  इेस करके उह डूब गईआं..... हरि दा ताह काम ही है सानूं तारना, इेस भौतिक समाज ते भव सागर बिच्चो हरि दा नाम ही सानूं तारदा है।"
                           तब भाई मरदाना जी ने हरि को याद किया और चमत्कारिक रुप में सारी पकी हुई रोटियाँ गर्म जल के भीतर से निकल, ऊपर तैरने लगी। इस घटना से गुरु जी का यह उपदेश है कि  चाहे जितनी भी विपदा-मुश्किलें जिंदगी में हमें डूबानें की लाख कोशिशें करती रहे.....परमेश्वर का नाम व स्मरण ही हमें समस्त जीवन तैराता हुआ अच्छाई की डगर पर बढ़ाता रहता है।
                           जब सन्1940 में बाबा नारायण हरि जी ने मणिकर्ण पहुँच,  इस स्थान की खोज कर वहाँ लकड़ी का एक छोटा सा झोपड़ी नुमा गुरुद्वारा बनाना शुरू किया,  तो उन्हें स्थानीय निवासियों के विरोध का सामना करना पड़ा। वहाँ इन्हें टिकने नही दिया जा रहा था,  वे लोग बाबा जी द्वारा बनाया सब कुछ तहस-नहस कर जाते....परन्तु बाबा नारायण हरि जी गुरु नानक देव जी द्वारा बताये "सब्र-संतोष" के सुमार्ग पर चल कर, फिर दोबारा से अपने काम को चालू कर देते.....ऐसा कई बार हुआ......पर बाबा जी उन लोगों से कई शिकवा-शिकायत नही करते, उल्टा जब वे विरोधी सब कुछ तहस-नहस करने के बाद थक जाते,  तो बाबा जी उन्हें चाय-पानी पिलाते,  लंगर खिलाते। अंतत: बाबा नारायण हरि जी उन सब लोगों के दिल में जा बसे,  और 1991 में अपनी अंतिम यात्रा तक के 51साल,  उन्होंने इस पावन गुरुद्वारा साहिब की कार-सेवा की। एक छोटी सी झोपड़ी से बहुमंजिला इमारत खड़ी कर दी,  जिसमें सैकड़ों नही हजारों श्रद्घालु एक साथ लंगर छक सकते हैं और रात्रि विश्राम भी। मैं बाबा नारायण हरि जी की हिम्मत व लगन से बहुत प्रभावित हूँ,  कि कैसे एक साधारण इंसान सैकड़ों किलोमीटर से इस जगह को तलाशता हुआ,  वहाँ पहुँचा और इस गुरुद्वारा साहिब के निर्माण के लिए उसने अपनी तमाम जिंदगी कुर्बान कर दी। दोस्तों,  उस समय तो मणिकर्ण आने के लिए कोई सड़क-मार्ग भी ना था,  तो बाबा नारायण हरि जी मणिकर्ण से 35किलोमीटर दूर भुन्तर से भवन निर्माण सामग्री अपने कंधों पर लाद कर पैदल ही मणिकर्ण पहुँचतें थे.....एक-एक ईट से उन्होंने इस विशाल महल रुपी गुरुद्वारा साहिब को आधी सदी में खड़ा किया। उनके स्वर्गवास के बाद अब यह बीड़ा उनकी बेटी, माँ देवा जी व उनके पति बाबा श्री राम जी ने उठा रखा है। वे अब गुरुद्वारे में पहुँची सब संगत में स्नेह बांटते हैं और उनके लिए सुख-सुविधाओं का प्रबन्ध करते हैं।
                           फिर हमने लंगर हाल में पहुँच चाय पी और लंगर हाल से कच्चे चावलों की देगें(बर्तन) उबलते पानी के चश्मे तक पहुँचने में कारसेवक की मदद की,  वह कारसेवक उन देगों के मुँह कपड़े से बांध कर उन्हें प्राकृतिक रुप में उबलते उष्ण जल के कुण्ड में डाल रहा था........मित्रों,  मणिकर्ण में ज्यादातर लंगर इस उबलते गर्म पानी के बीच में ही पकता है।  दाल, चावल व सब्जियाँ आदि इसी उष्ण जल की उष्णता से उबाले व पकाये जाते हैं। यह उबलता जल-स्रोत प्राचीन शिव मंदिर के सामने है और गुरुद्वारा व शिव मंदिर एक ही जगह पर बने हुए हैं।
                           शिव मंदिर में भगवान शिव व माता पार्वती की बहुत सुंदर व मनमोहक धातु मूर्तियाँ स्थापित है और सुबह की पूजा कर रहे पुजारी जी ने हमे रोक लिया कि मैं प्रशाद तैयार कर रहा हूँ,  लेकर ही जाना........और वो मीठे चावलों का क्या स्वादिष्ट प्रशाद था, आंनद आ गया।
                           अब हम सरोवर के साथ ही प्राकृतिक रुप से बनी हुई गर्म गुफा में जा पहुँचे। दोस्तों जब मैने सबसे पहली बार 1989 में इस गुफा को देखा था,  तो मेरे लिए यह उस समय भी अचम्भित लम्हा था कि बाहर कड़ाके की ठंड और इस गर्म गुफा में कुछ समय ही रुकने वाले व्यक्ति को पसीना आ जाता है। खैर इस गुफा में ज्यादा समय रुकना,  किसी-किसी के लिये चक्कर आने का अन्देशा भी बन सकता है। सो कुछ समय बाद ही वहाँ से निकल हम अपने कमरे की तरफ़ रवाना हो गये....क्योंकि विशाल जी को अब दिल्ली वापसी के लिए बस जो पकड़नी थी।

                             ..........................(क्रमश:)
मणिकर्ण गुरुद्वारा साहिब जी में..... श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी प्रकाश स्थल 

मणिकर्ण गुरुद्वारा लंगर हाल से पकने के लिए जा रही चावलों की देगें.... और उबलता हुआ उष्ण जल-स्रोत, जिसमें इन बर्तनों के मुँह बांध कर इन्हें उबलते जल में रख कर भोजन पकाया जाता है। 

उबलते हुए जल-स्रोत के साथ ही प्राचीन शिव मंदिर में स्थापित उमा-शंकर की मनमोहक धातु मूर्तियाँ,
और,  देसी घी डाल कर बनाया गया चावलों का प्रशाद.....बहुत ही स्वादिष्ट था।

पहाड से हौसले व दृढ़निश्चयी व्यक्तित्व.....स्वर्गीय बाबा नारायण हरि जी।

मणिकर्ण गुरुद्वारा में...... गर्म गुफा में बैठे हम दोनों।

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5 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसे ही सल्फर युक्त गर्म पानी के झरने हमारे यहां राजगीर में भी है, जिसमें नहाने से मन बिल्कुल तरोताजा हो जाता है, मतलब आपको उस पानी में नहाने के बाद दवाई की जरूरत भी पड़ गई, हर अच्छे काम की शुरुआत में मुश्किल आती है वैसे ही बाबा हरिनारायण जी को गुरुद्वारा बनाने में बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ा, पर आज वही गुरुद्वारा हजारों लोगों के लिए आश्रय स्थान और भोजन प्रदाता बना हुआ है

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    1. अभयानंद जी, क्योंकि मैं चारदीवारी में बंद सरोवर में खूब नहा लिया था.... खुले में सल्फर का प्रकोप कम होता है, जी।

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  2. बढ़िया जी हमने भी आपके साथ डेल्ही की बस पकड़ ली...बढ़िया घुमाया जी

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    1. नही, प्रतीक जी.... मैं थोड़े ना जा रहा हूँ, विशाल रतन जी जा रहे हैं... आप कसोल में उतर कर वापस मणिकर्ण आ जाए क्योंकि मुझे आप को अभी मणिकर्ण भी तो घूमना है, जी।

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  3. बढ़या घुमा रहे हो जी, हम तो आज तक पहाड़ पर गये ही नही ह् कही

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