भाग-14 चलो, चलते हैं.... सर्दियों में खीरगंगा(2960मीटर) 3जनवरी 2016
( अंतिम किश्त )
इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र (http://vikasnarda.blogspot.com/2017/04/1-winter-trekking-to-kheerganga2960mt.html?m=1) स्पर्श करें।
श्री राम मंदिर मणिकर्ण में दर्शन कर मुख्य बाज़ार में वापस आया तो, दोपहर का डेढ़ बजने को था.थी।सो गुरुद्वारे की तरफ़ वापस चल दिया। मणिकर्ण के बाज़ार की तंग गलियों में घूमते-घूमते राधा-कृष्ण मंदिर पर पहुँचा, पर प्रथम सीढ़ी पर ही माथा टेक वापस चल दिया और गुरुद्वारे के पास शिव मंदिर की सीढ़ियाँ उतर, फिर से उबलतें हुए जल-कुण्ड के पास जा पहुँचा....क्योंकि वहाँ अब कई सारे सैलानी धागे संग बंधी कपड़े की छोटी-छोटी पोटलियों को जल-कुण्ड में डाल चावल आदि उबाल रहे थे। ये पोटलियाँ बाज़ार में कई दुकानों पर उपलब्ध हैं, चाहे यह कर्म बहुत से सैलानियों के लिए बस सिर्फ मनोरंजन का विषय ही था, परन्तु यह एक शुभ व पुरातन रिवाज़ है, जिसे पहाड़ी नवविवाहित जोड़े निभातें हैं....अपने परिणय-बंधन की अटूटता व सुदृढ़ता के लिए, क्योंकि भोजन पाक-शैली में निपुण स्त्री ही एक स्वस्थ परिवार की नींव बनती है...तो इसलिए ही नवविवाहिता को इस रिवाज़ द्वारा भगवान से आशीर्वाद दिलवाया जाता है।
दोपहर के 2:30बजे....और भूख जागृत। मैं गुरुद्वारे के लंगर-हाल में पंक्ति में बैठ स्टील की चमचमाती प्लेट में अपनी छवि निहार रहा था, कि उसमें "कढ़ी-चावल"डाल दिये गये। मेरे जैसे हर पंजाबी को यदि प्रसन्नता की असीम ऊँचाई तक पतंग की भाँति उड़ाना हो तो, उसे कढ़ी-चावल या साग-मक्की की रोटी परोस दो, खाने वाले के साथ खिलाने वाला भी धन्य हो जायेगा। लंगर में कढ़ी-चावल के अलावा सब्जियों के राजा "बैंगन" के संग विदेशी से स्वदेशी बने "मंत्री आलू " की मिश्रित सब्जी के साथ दो परशादे (रोटी) छक कर (खा कर)....मैं अपना सामान उठने के लिए लंगर हाल से ऊपरी मंजिलों में बनी सराय के कमरे की ओर चल दिया।
पहली मंजिल पर स्थित गुरुद्वारा साहिब के प्रकाश कक्ष के द्वार में एक कुत्ते को बैठा देख, मेरी हैरानी की परिधि असीमित हो चली कि गुरुद्वारे के इतनी भीतर और गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रकाश कक्ष के द्वार पर यह कुत्ता ऐसे कैसे शांत बैठा है, जैसे किसी साधना में लीन कोई योगी बैठा हो। मेरी उत्सुकता कहाँ शांत होती है, जब तक आस-पास कोई सवाल ना दाग दूँ। द्वार पर मौजूद सेवादार बाबा जी से पूछा कि क्या यह कुत्ता गुरुद्वारे में पालतू है, जो जहाँ इस पवित्र स्थान के इतनी पास बैठा हुआ है.....तो बाबा जी ने जवाब दिया, "नही यह पालतू नही आवारा कुत्ता है, इसका कई वर्षो से नियम है कि हर रोज दोपहर के वक्त ये जहाँ आ महाराज जी की बीड़(गुरु ग्रंथ साहिब जी) की तरफ मुँह कर बैठ जाता है जैसे कोई भक्त अपने असाध्य के सिमरन में लगा हो....जरूर इस कुत्ते में किसी ना किसी सिद्ध पुरुष की आत्मा है, जिसे इस पावन गुरुद्वारे के साथ गहरा स्नेह है, ऐसा हमारा विश्वास बन चुका है.......! "
मुझ "वास्तविक सोच " रखने वाले व्यक्ति के लिए यह विषय भी सिक्के के दो पहलू जैसा ही है....परन्तु मैने इस विषय में सिक्के के दूसरे पहलू को सिरे से नकार दिया, कि ऐसा भी हो सकता है कि यह कुत्ता गुरुद्वारेें में मिलने वाले देसी घी के स्वादिष्ट कडाह प्रशाद का शौकीन हो.....मैंने पहले पहलू को ही सही माना, क्योंकि इसे मान कर मुझे धार्मिक व आध्यात्मिक शांति ग्रहण हो रही थी......और उस कुत्ते से मैने एकाग्रता व नियम की सीख ली।
उन सेवादार बाबा जी से बात कर मुझे 24साल पहले की हुई मणिकर्ण-खीरगंगा यात्रा में......मणिकर्ण गुरुद्वारे में ही मिले उन मिलनसार बाबा जी की याद आ गई, जो अपनी दोनों कलाईयों में बहुत ज्यादा कड़े पहने रखते थे, इसलिए उनका नाम ही "कड़ेआं वाला बाबा" पड़ गया था, कलाई में कड़ा धारण करना एक पंजाबी की पहचान है दोस्तों... मेरी कलाई में भी कई वर्षो से एक कड़ा पड़ा हुआ है। 24साल पहले जब मैं अपने बचपन के दोस्त "सोनी" के साथ दूसरी बार मणिकर्ण आया, तो मेरा मक़सद सिर्फ खीरगंगा जाना ही था। गुरुद्वारे के अंदर दाखिल हो, जब हम दोनों दोस्त भीड़ को देख कर विस्मयजनक अवस्था में खड़े थे, कि अब क्या करे.....तो जोड़ा-घर (जूता-घर) की सेवा पर मौजूद बाबा कड़ेआं वाले जी ने हमे इशारा कर अपने पास बुलाया और पूछा, "कहाँ से आए हो लड़को".....मैंने कहा, "जी, गढ़शंकर।" तो वे बोले, "तो तुम तो मेरे इलाके के ही हो, मैं 'सिम्बली' गाँव से हूँ।"
सिम्बली गाँव मेरे शहर गढ़शंकर से मात्र 10किलोमीटर की दूरी पर है। बाबा जी ने उस समय हम नौसखियों की खूब मदद की, जब मैने उनसे कहा कि हमे कल सुबह खीरगंगा जाना है....तो उन्होंने हमारा खूब मार्ग दर्शन किया और एक सलाह दी कि, "जाते समय टॉफियाँ जरूर ले जाना, चढ़ाई चढ़ते समय मुँह में रखना...साँस कम चढ़ेगा।" उनकी हर सलाह मेरे किशोर मन को खूब भा रही थी। वे जब भी मणिकर्ण से वापस अपने गाँव आते, तो मुझे अकसर मिल कर जाते......परन्तु अब उनको भी स्वर्गवास हुए काफी वर्ष बीत चुके है। कहना का तात्पर्य यह है दोस्तों, कि कई दफा हमें बिल्कुल अनजान या नई जगह पर भ्रमण हेतू जाते हैं और वापसी पर अपने साथ लाते है, कई नये दोस्त और बहुत सी यादें.....जो तमाम उम्र हमारे ज़ेहन पर हावी रहती है, चंद घड़ी की मुलाकात ही उम्र भर का रिश्ता स्थापित कर जाती है.... ठीक वैसे ही जैसे "लमडल यात्रा" के दौरान जब मैं जंगल में खो गया, तो मुझे फ़रिश्ता बन मिले भेड़े चराने वाले गद्दी "राणा चरण सिंह "......जिनसे मेरी दोस्ती जीवन भर कायम रहेगी।
दोपहर के तीन से ऊपर समय हो चुका था और मुझे वापसी के लिए चार बजे बस पकडनी थी, सो कमरे से अपना सामान उठा कर कमरे की चाबी वापस लंगर हाल में जमा करा, गुरुद्वारे की गोलक में अपनी और विशाल रतन जी की ओर से यथासम्भव राशि डाल दी, क्योंकि बुजुर्ग कहते हैं कि लंगर को कभी भी मुफ़्त मत खाओ, भोजन ग्रहण करने के पश्चात उसमें अपना आर्थिक हिस्सा जरूर डालो, चाहे वो एक पैसा ही क्यों ना हो, ताँकि पुन: लंगर लगाने हेतू प्रबंधक की मदद हो सके।
गुरुद्वारे से बस अड्डे की ओर चला...... तो दूर मुझे परम्परागत पहाड़ी वाद्य यंत्र "रणसिंगा, करनाल, नगाड़ा " आदि की मिश्रित मधुर ध्वनि सुनाई दी....और वह मधुर संगीत श्री राम मंदिर के सामने बज रहा था, क्योंकि वहाँ तीन ग्राम देव-देवी - नैना माता, वासुकी नाग और क्याणु नाग की पालकियाँ ऊपरी स्थान से चल नीचे मणिकर्ण आई थी....और प्रभु श्री राम चन्द्र जी के समक्ष उनकी हाज़री का समारोह चल रहा था। मैं बता नही सकता दोस्तों, उस वक्त मेरी प्रसन्नता चरम सीमा पर थी कि मैं हिमाचल प्रदेश के परम्परागत धार्मिक रीति-रिवाज़ों को देख रहा हूँ, वाद्य यंत्रों की थाप पर पालकियों को देव नचा रहे थे। उन पालकियों के चारों ओर काफी लोग इक्ट्ठा हो चुके थे, और मैं उस माहौल को अपने कैमरे में भर रहा था..........कि एकाएक कुछ लोग बोलने लगे, "कैमरा बंद करो, कैमरा बंद करो....!! " तभी मेरे पास खड़े दस वर्षीय किशोर ने मुझे कहा कि, "अंकल जल्दी से कैमरा बंद कर लो, नही तो ये लोग आपका कैमरा तोड़ देंगे..! "
ऐसी क्या "हरकत" होने वाली थी कि, सारे कैमरे बंद करवा दिये गये और यहाँ तक कि एक छोटे से स्थानीय बालक ने मुझे कैमरा बंद करने की सलाह दे डाली। मैने इधर-उधर देखा, तो एक आदमी एक भेड़ को खींच कर ला रहा था और कुछ "गण-मान्य" लोग उसे घेर खड़े हो गये..........बस उसके बाद मैने वहाँ कुछ नही देखना चाहा, चल पड़ा उस भीड़ से निकल कर....... एक बार भी पीछे मुड़ कर नही देखा, क्योंकि अब मुझे वहाँ सब "राक्षस " नज़र आ रहे थे.....!!!
( अंतिम किश्त )
इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र (http://vikasnarda.blogspot.com/2017/04/1-winter-trekking-to-kheerganga2960mt.html?m=1) स्पर्श करें।
श्री राम मंदिर मणिकर्ण में दर्शन कर मुख्य बाज़ार में वापस आया तो, दोपहर का डेढ़ बजने को था.थी।सो गुरुद्वारे की तरफ़ वापस चल दिया। मणिकर्ण के बाज़ार की तंग गलियों में घूमते-घूमते राधा-कृष्ण मंदिर पर पहुँचा, पर प्रथम सीढ़ी पर ही माथा टेक वापस चल दिया और गुरुद्वारे के पास शिव मंदिर की सीढ़ियाँ उतर, फिर से उबलतें हुए जल-कुण्ड के पास जा पहुँचा....क्योंकि वहाँ अब कई सारे सैलानी धागे संग बंधी कपड़े की छोटी-छोटी पोटलियों को जल-कुण्ड में डाल चावल आदि उबाल रहे थे। ये पोटलियाँ बाज़ार में कई दुकानों पर उपलब्ध हैं, चाहे यह कर्म बहुत से सैलानियों के लिए बस सिर्फ मनोरंजन का विषय ही था, परन्तु यह एक शुभ व पुरातन रिवाज़ है, जिसे पहाड़ी नवविवाहित जोड़े निभातें हैं....अपने परिणय-बंधन की अटूटता व सुदृढ़ता के लिए, क्योंकि भोजन पाक-शैली में निपुण स्त्री ही एक स्वस्थ परिवार की नींव बनती है...तो इसलिए ही नवविवाहिता को इस रिवाज़ द्वारा भगवान से आशीर्वाद दिलवाया जाता है।
दोपहर के 2:30बजे....और भूख जागृत। मैं गुरुद्वारे के लंगर-हाल में पंक्ति में बैठ स्टील की चमचमाती प्लेट में अपनी छवि निहार रहा था, कि उसमें "कढ़ी-चावल"डाल दिये गये। मेरे जैसे हर पंजाबी को यदि प्रसन्नता की असीम ऊँचाई तक पतंग की भाँति उड़ाना हो तो, उसे कढ़ी-चावल या साग-मक्की की रोटी परोस दो, खाने वाले के साथ खिलाने वाला भी धन्य हो जायेगा। लंगर में कढ़ी-चावल के अलावा सब्जियों के राजा "बैंगन" के संग विदेशी से स्वदेशी बने "मंत्री आलू " की मिश्रित सब्जी के साथ दो परशादे (रोटी) छक कर (खा कर)....मैं अपना सामान उठने के लिए लंगर हाल से ऊपरी मंजिलों में बनी सराय के कमरे की ओर चल दिया।
पहली मंजिल पर स्थित गुरुद्वारा साहिब के प्रकाश कक्ष के द्वार में एक कुत्ते को बैठा देख, मेरी हैरानी की परिधि असीमित हो चली कि गुरुद्वारे के इतनी भीतर और गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रकाश कक्ष के द्वार पर यह कुत्ता ऐसे कैसे शांत बैठा है, जैसे किसी साधना में लीन कोई योगी बैठा हो। मेरी उत्सुकता कहाँ शांत होती है, जब तक आस-पास कोई सवाल ना दाग दूँ। द्वार पर मौजूद सेवादार बाबा जी से पूछा कि क्या यह कुत्ता गुरुद्वारे में पालतू है, जो जहाँ इस पवित्र स्थान के इतनी पास बैठा हुआ है.....तो बाबा जी ने जवाब दिया, "नही यह पालतू नही आवारा कुत्ता है, इसका कई वर्षो से नियम है कि हर रोज दोपहर के वक्त ये जहाँ आ महाराज जी की बीड़(गुरु ग्रंथ साहिब जी) की तरफ मुँह कर बैठ जाता है जैसे कोई भक्त अपने असाध्य के सिमरन में लगा हो....जरूर इस कुत्ते में किसी ना किसी सिद्ध पुरुष की आत्मा है, जिसे इस पावन गुरुद्वारे के साथ गहरा स्नेह है, ऐसा हमारा विश्वास बन चुका है.......! "
मुझ "वास्तविक सोच " रखने वाले व्यक्ति के लिए यह विषय भी सिक्के के दो पहलू जैसा ही है....परन्तु मैने इस विषय में सिक्के के दूसरे पहलू को सिरे से नकार दिया, कि ऐसा भी हो सकता है कि यह कुत्ता गुरुद्वारेें में मिलने वाले देसी घी के स्वादिष्ट कडाह प्रशाद का शौकीन हो.....मैंने पहले पहलू को ही सही माना, क्योंकि इसे मान कर मुझे धार्मिक व आध्यात्मिक शांति ग्रहण हो रही थी......और उस कुत्ते से मैने एकाग्रता व नियम की सीख ली।
उन सेवादार बाबा जी से बात कर मुझे 24साल पहले की हुई मणिकर्ण-खीरगंगा यात्रा में......मणिकर्ण गुरुद्वारे में ही मिले उन मिलनसार बाबा जी की याद आ गई, जो अपनी दोनों कलाईयों में बहुत ज्यादा कड़े पहने रखते थे, इसलिए उनका नाम ही "कड़ेआं वाला बाबा" पड़ गया था, कलाई में कड़ा धारण करना एक पंजाबी की पहचान है दोस्तों... मेरी कलाई में भी कई वर्षो से एक कड़ा पड़ा हुआ है। 24साल पहले जब मैं अपने बचपन के दोस्त "सोनी" के साथ दूसरी बार मणिकर्ण आया, तो मेरा मक़सद सिर्फ खीरगंगा जाना ही था। गुरुद्वारे के अंदर दाखिल हो, जब हम दोनों दोस्त भीड़ को देख कर विस्मयजनक अवस्था में खड़े थे, कि अब क्या करे.....तो जोड़ा-घर (जूता-घर) की सेवा पर मौजूद बाबा कड़ेआं वाले जी ने हमे इशारा कर अपने पास बुलाया और पूछा, "कहाँ से आए हो लड़को".....मैंने कहा, "जी, गढ़शंकर।" तो वे बोले, "तो तुम तो मेरे इलाके के ही हो, मैं 'सिम्बली' गाँव से हूँ।"
सिम्बली गाँव मेरे शहर गढ़शंकर से मात्र 10किलोमीटर की दूरी पर है। बाबा जी ने उस समय हम नौसखियों की खूब मदद की, जब मैने उनसे कहा कि हमे कल सुबह खीरगंगा जाना है....तो उन्होंने हमारा खूब मार्ग दर्शन किया और एक सलाह दी कि, "जाते समय टॉफियाँ जरूर ले जाना, चढ़ाई चढ़ते समय मुँह में रखना...साँस कम चढ़ेगा।" उनकी हर सलाह मेरे किशोर मन को खूब भा रही थी। वे जब भी मणिकर्ण से वापस अपने गाँव आते, तो मुझे अकसर मिल कर जाते......परन्तु अब उनको भी स्वर्गवास हुए काफी वर्ष बीत चुके है। कहना का तात्पर्य यह है दोस्तों, कि कई दफा हमें बिल्कुल अनजान या नई जगह पर भ्रमण हेतू जाते हैं और वापसी पर अपने साथ लाते है, कई नये दोस्त और बहुत सी यादें.....जो तमाम उम्र हमारे ज़ेहन पर हावी रहती है, चंद घड़ी की मुलाकात ही उम्र भर का रिश्ता स्थापित कर जाती है.... ठीक वैसे ही जैसे "लमडल यात्रा" के दौरान जब मैं जंगल में खो गया, तो मुझे फ़रिश्ता बन मिले भेड़े चराने वाले गद्दी "राणा चरण सिंह "......जिनसे मेरी दोस्ती जीवन भर कायम रहेगी।
दोपहर के तीन से ऊपर समय हो चुका था और मुझे वापसी के लिए चार बजे बस पकडनी थी, सो कमरे से अपना सामान उठा कर कमरे की चाबी वापस लंगर हाल में जमा करा, गुरुद्वारे की गोलक में अपनी और विशाल रतन जी की ओर से यथासम्भव राशि डाल दी, क्योंकि बुजुर्ग कहते हैं कि लंगर को कभी भी मुफ़्त मत खाओ, भोजन ग्रहण करने के पश्चात उसमें अपना आर्थिक हिस्सा जरूर डालो, चाहे वो एक पैसा ही क्यों ना हो, ताँकि पुन: लंगर लगाने हेतू प्रबंधक की मदद हो सके।
गुरुद्वारे से बस अड्डे की ओर चला...... तो दूर मुझे परम्परागत पहाड़ी वाद्य यंत्र "रणसिंगा, करनाल, नगाड़ा " आदि की मिश्रित मधुर ध्वनि सुनाई दी....और वह मधुर संगीत श्री राम मंदिर के सामने बज रहा था, क्योंकि वहाँ तीन ग्राम देव-देवी - नैना माता, वासुकी नाग और क्याणु नाग की पालकियाँ ऊपरी स्थान से चल नीचे मणिकर्ण आई थी....और प्रभु श्री राम चन्द्र जी के समक्ष उनकी हाज़री का समारोह चल रहा था। मैं बता नही सकता दोस्तों, उस वक्त मेरी प्रसन्नता चरम सीमा पर थी कि मैं हिमाचल प्रदेश के परम्परागत धार्मिक रीति-रिवाज़ों को देख रहा हूँ, वाद्य यंत्रों की थाप पर पालकियों को देव नचा रहे थे। उन पालकियों के चारों ओर काफी लोग इक्ट्ठा हो चुके थे, और मैं उस माहौल को अपने कैमरे में भर रहा था..........कि एकाएक कुछ लोग बोलने लगे, "कैमरा बंद करो, कैमरा बंद करो....!! " तभी मेरे पास खड़े दस वर्षीय किशोर ने मुझे कहा कि, "अंकल जल्दी से कैमरा बंद कर लो, नही तो ये लोग आपका कैमरा तोड़ देंगे..! "
ऐसी क्या "हरकत" होने वाली थी कि, सारे कैमरे बंद करवा दिये गये और यहाँ तक कि एक छोटे से स्थानीय बालक ने मुझे कैमरा बंद करने की सलाह दे डाली। मैने इधर-उधर देखा, तो एक आदमी एक भेड़ को खींच कर ला रहा था और कुछ "गण-मान्य" लोग उसे घेर खड़े हो गये..........बस उसके बाद मैने वहाँ कुछ नही देखना चाहा, चल पड़ा उस भीड़ से निकल कर....... एक बार भी पीछे मुड़ कर नही देखा, क्योंकि अब मुझे वहाँ सब "राक्षस " नज़र आ रहे थे.....!!!
गुम-सुम सा आ, अपनी बस में बैठ गया और सोचता रहा कि "मेरी इतनी सुखद यात्रा का, इतना दुखद अंत होगा........!!!
......................(समाप्त)
......................(समाप्त)
राधा-कृष्ण मंदिर.... मणिकर्ण। |
चावल की पोटलियों को उष्ण कुण्ड में उबालना.... सैलानियों का एक मनोरंजक अनुभव। |
शिव मंदिर मणिकर्ण में स्थापित नंदी की बेहद सजीव धातु मूर्ति। |
पंजाबियों की जान "कढ़ी-चावल" |
गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रकाश कक्ष के द्वार पर बैठे इस आवारा कुत्ते का बहुत साल से यह नियम है, कि हर रोज दोपहर को इस पावन स्थल पर आ.... ऐसे बैठ जाना, जैसे कोई साधु अपनी साधना में मगन हो। |
24साल पहले..... मणिकर्ण गुरुद्वारा साहिब में बाबा कड़े वाले के साथ, सोनी और मैं। |
नैना माता, वासुकी नाग और क्याणु नाग की पालकियाँ....मणिकर्ण। |
देव पालकियों के आगे परम्परागत पहाड़ी वाद्य यंत्र बजाते हुए..... पूरे सम्मान व शान के साथ ये सवारी चलती है। |
श्री राम चन्द्र मंदिर मणिकर्ण के समक्ष ग्राम देव-देवी के हाज़री समारोह के दौरान परम्परागत वाद्य यंत्र की मधुर ध्वनि मेरे मन के स्वरों को भी छेड़ रही थी। |
सही कहा आपने कि यात्रा के दौरान मिले लोगों से अमिट रिश्ता बन जाता है, चाहे कभी उनसे दुबारा मिलना हो या नही. बलि एक ऐसी प्रथा है जिससे अधिकांश पर्यटकों का सामना होता है. कामाख्या देवी, सरहन का काली मंदिर, कारेरी झील पर- हर जगह से संभावित बलि की घटना घटने से पहले ही हमने कदम लौटा लिए. ...जाकी जैसी भावना.
जवाब देंहटाएंजय श्री जी, बलि प्रथा तो मात्र मुँह के स्वाद के लिए प्राचीन काल से प्रचलन में है। देवी-देवता का तो सिर्फ बहाना ही होता है, जी।
हटाएं👍
हटाएंबहुत बढ़िया जी...
जवाब देंहटाएंसुमधुर आभार प्रतीक जी।
हटाएंबढ़िया संस्मरण ��
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद जी ।
हटाएंसभी लेख एक से एक शानदार
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद चन्द्रशेखर जी।
हटाएं.bahut sunder laga
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद दत्ता साहिब।
हटाएंविकास जी बिल्कुल सही सचेत किया उस बालक ने आपको, क्योंकि जब उस जीवित भेड़ को नहीं बख्शा तो उस निर्जीव कैमेरे की क्या बिसात थी ।
जवाब देंहटाएंऔर बिल्कुल सही बात कही आपने, यात्राओं के दौरान बहुत से जीवन पर्यंत के लिए मित्र मिल जाते हैं । हमें भी मिले हैं 🙏
सत्य वचन, कौशिक साहब।
हटाएंAwesome clicks,don't hesitate to write,in order to please God we have made our own ruled but God may or may not please but we r doing sins on his name.God bless us.Thanks a lot Dear friend.
जवाब देंहटाएंसुस्वागतम् गांधी साहब।
हटाएंबहुत ही सजीव चित्रण, साधुवाद।
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद जी।
हटाएंक्या अब भी ये बलि प्रथा प्रचलित है ? अत्यंत दुःखद।
जवाब देंहटाएंजी हां, मित्तल साहब....यह प्रथा अभी भी संजीव है।
हटाएंविकास जी आप की क्षीरगऺगा और मनीकरण के यात्रा वृत्तान्त ने मेरी 1972 की परिवार के साथ की हुई यात्रा की यादें ताजा कर दी तब और आज के वातावरण में अंतर स्वाभाविक है उस समय मनीकरण जाने के लिए भुंतर का पुल पैदल पार कर जीप लेनी पड़ती थी, बाबा जी तब भी महान थेे। गुरुद्वारे में मुश्किल से 10आदमी रुक सकते थे गांव का हाल तो आप सोच नहीं सकते। आप के द्वारा किए गए सारगर्भित वर्णन को पढ़कर मन प्रसन्न हो गया, धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंउपरोक्त लेख
जवाब देंहटाएंउपरोक्त टिप्पणी मेरे द्वारा की गई है। सुरेन्द्र ढींगरा ।
जवाब देंहटाएंमेरे पास आपके लेखनी के लिए तारीफ के कोई शब्द नहीं है
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा
विकास जी
भैया मै आपका फैन नवीन तिवारी
जवाब देंहटाएंअपनी 1995 ओर 2019 की दोनो यात्राओं में मैंने राधा कृष्ण का मन्दिर नही देखा ।ये किधर था। और आप मणिकर्ण के संगम पर नही गए थे क्या? पार्वती नदी के साथ अन्य पहाड़ी नदी का संगम देखने लायक हैं और उधर जाने का मार्ग बाजार से ही आता हैं।अगली बार जरूर देखना।
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