मंगलवार, 19 मई 2020

भाग-3 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

भाग-3 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

इस यात्रा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र
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             " किन्नर कैलाश की प्रथम सीढ़ि - तंगलिंग"


         पिछली किश्त में....आप 20अगस्त 2017 की शाम मेरे साथ किन्नौर के स्वागती द्वार "तरण्डा ढांक"  की सैर कर रिकांगपिओ से कुछ पहले शोंगटोंग गाँव से तंगलिंग गाँव के लिए बनी कच्ची सड़क पर चले आए थे। आज की रात तंगलिंग गाँव में काट कर, आपको मेरे संग सुबह-सुबह "किन्नर कैलाश" के लिए जाना है मेरे पाठक दोस्तों।
                        तंगलिंग पहुँचते-पहुँचते शाम के 6बजने को हो लिये....गाँव की शुरुआत में ही सतलुज नदी की तरफ कुछ बड़े-बड़े शैड नज़र आए, वह "पटेल प्रोजेक्ट" का अस्थाई पड़ाव था। तंगलिंग के पास ही उनका कोई हाइड्रो प्रोजेक्ट चल रहा था। पटेल प्रोजेक्ट के बाद एक नाले के इर्द-गिर्द बसा तंगलिंग गाँव शुरू हो गया। छोटा सा गाँव, दो-चार खाने-पीने की छोटी-छोटी दुकानें, वो भी पटेल प्रोजेक्ट के यहाँ आने के बाद स्थानीय लोगों ने खोल ली होगी।
                       मेरी और नंदू हम दोनों की इस छोटे से गाँव में पहुँच, ऐसी स्थिति थी जैसे हर अजनबी की होती है अजनबी जगहों पर जाकर। तंगलिंक की उस छोटी सी सड़क पर हमें कहीं भी अपनी गाड़ी खड़ी करने के लिए कोई भी जगह नहीं मिली, जो जगह थी भी...उस पर पहले से ही स्थानीय नंबरों की गाड़ियों ने कब्ज़ा जमा रखा था। सो, मैं नंदू को कहता हूँ कि चल पहले गाड़ी लेकर पूरा गाँव घूम कर देखते हैं और रात रुकने के लिए किसी होटल का भी पता करते हैं। परंतु गाड़ी का तीसरा गेयर डालते ही गाँव खत्म भी हो गया और हम उस जगह पहुँचे, जहाँ से किन्नर कैलाश जाने के लिए प्रथम सीढ़ियाँ थी। सामने सतलुज के ऊपर वही झूला नुमा ट्राली थी, जिसके बीच में बैठकर मुख्य मार्ग पर स्थित पोवारी कस्बे से तंगलिंग आना-जाना होता है। झूले वाली जगह पर सतलुज की चौड़ाई और तीव्र बहाव को देख, मैं रोमांचित हो नंदू को कहता हूँ- "यार, इस झूले में बैठ तंगलिंक आना था...क्या जबरदस्त अनुभव होना था, जब तार पर लटकता झूला सतलुज के बीच में आता और तेज़ हवा से हिलने लगता, वाह क्या गज़ब का रोमांच आता नंदू...!!!"
                       पर नंदू की बुझी-बुझी सी हंसी से मैं समझ गया कि नंदू शुक्र मना रहा है कि वह मुझ सनकी के हत्थे नहीं चढ़ा...!!!!"
                         तभी, हमारे पास से एक सज्जन हमें देखते हुए गुज़रने लगे, उनके हाथ में एक लिफाफा सा था शायद गाँव की किसी दुकान से कोई राशन आदि लेकर आ रहे थे। मैं उन्हें आवाज़ देता हूँ- "नमस्कार भाई साहब, यहाँ रात रुकने के लिए होटल कहाँ है?"
                           वे सज्जन मुस्कुराते हुए बोले- "यहाँ तो कोई होटल नहीं, आप कहाँ से आए हो?"
           "पंजाब से, किन्नर कैलाश जाना है कल सुबह।"           
"ओह, जय भोलेनाथ भाई...होटल तो कोई नहीं, आप मेरे घर रात रुक जाओ...कल सुबह चले जाना किन्नर कैलाश।" मैं हंसता हुआ उनका नाम पूछता हूँ।
           "हुकुम सेन....यहीं ऊपर तंगलिंग में मेरा घर है।"
 मैं हुकुम सेन से उनके घर रात रुकने के पैसे पूछता हूँ, तो हुकुम सेन बोले- "पैसे-पूसे कुछ नहीं...आप लोग हमारे मेहमान हैं, किन्नर कैलाश जा रहे हैं जो रूखी-सूखी हम खाएंगे...आप भी वही खा लेना, बिस्तर आपको दे दूँगा आराम कर सुबह यात्रा पर चल देना।"
                          मैंने नंदू की तरफ चोर आँख से देखा तो उसने भी चोर आँख से ही मुझे समझा दिया कि वह इस प्रस्ताव के हक में नहीं है। हालांकि मैं हुकुम सेन के निमंत्रण को सुन, भीतर से बहुत प्रसन्न था कि हमें आज रात पहाड़ पर बसे इस छोटे से गाँव में स्थानीय लोगों के बीच रहने का सुअवसर मिल रहा है, स्थानीय भोजन और रीति-रिवाज़ों से साक्षात्कार होगा.....परंतु नंदू की मनाही पर मैंने मौके पर बात बदल दी कि हुकुम सेन को बुरा ना लगे- "नहीं नहीं, हुकुम सेन जी.....हम आपको व्यर्थ का कष्ट नहीं देना चाहते, यदि गाँव में कोई होटल नहीं है...तो हम रिकांगपिओ चले जाते हैं, रात वहाँ होटल में रुक सुबह वापस यहीं आकर चढ़ाई शुरू कर देंगे।"
                         हुकुम सेन के जाते ही नंदू मुझे बोला- "अच्छा किया तूने विक्की, यह बंदा मुझे सही नहीं लग रहा... कैसे कोई अंजान हम अंजानों को अपने घर ले जाएगा, इसमें इस बंदे की कोई चाल या लालच है!!!"
                        मैं एक ठंडी साँस छोड़, पहले अपने आपको सामान्य कर बोलता हूँ- "नहीं, वह बंदा एकदम सही था....दोष उसमें नहीं, हम में है क्योंकि हम शहरों की शातिर सोच रखने वाले हैं और वह भोलेभाले गाँव की सी....नंदू मैं पहाड़ी लोगों के बीच में बहुत विचर चुका हूँ, ये बहुत ईमानदार व मददगार लोग होते हैं....तू शायद भूल रहा है कि 'लमडल झील' के रास्ते में, जब मैं जंगल में खो गया था तो मुझ अजनबी को एक स्थानीय पहाड़ी गद्दी  'राणा चरण सिंह'  ने ही बचाया था और तीन दिन मैं उनके साथ ही जंगल में रहा, वह ही मुझे धौलाधार हिमालय की सबसे लंबी व गहरी झील 'लमडल' के दर्शन करवा कर लाये....देखो हम दोनों भी एक-दूसरे के लिए अजनबी ही तो थे, अच्छा होता यदि हम हुकुम सेन का निमंत्रण स्वीकार कर लेते...परंतु तेरा रुख जान मैं पीछे हट गया...!!!!"
                          मेरी बात सुन नंदू कुछ तेज़ी से बोला- "यदि मेरी जगह तेरे बीवी-बच्चे होते, तो क्या तू हुकुम सेन के घर उन्हें लेकर चल देता...?"
                          मुझे नंदू के इस आक्रमक प्रश्न का उत्तर देने में कुछ क्षणों की देरी हो जाती है- "यदि मेरे पास कोई भी विकल्प शेष नहीं रह जाता, तो निश्चित ही अपने परिवार को लेकर हुकुम सेन के घर चल देता...पर परिवार के साथ रहते शायद मैं भी, तेरी तरह ही सोचता नंदू और यदि मैं अकेला होता तो झट से हुकुम सेन के साथ चल देता...!!"
                         बाकी आप बताओ मेरे पाठक मित्रों, आप भी तो हमारे साथ ही खड़े हैं....कि आपकी क्या राय है कि हमें हुकुम सेन के घर चले जाना चाहिए या नहीं..?"
                       
                          गाड़ी मोड़ कर हम वापस गाँव की ओर चल देते हैं कि कहीं कोई ऐसी जगह मिले जहाँ हम अपनी गाड़ी खड़ी कर टैंट लगा सकें। पुल के पास की दुकानों से कुछ पीछे ही हम उस छोटी सी ढाबा नुमा दुकान पर पहुँच जाते हैं....जिसके बारे में अभी एक स्थानीय से पूछताछ भी की थी कि यहाँ अच्छा खाना कहाँ मिलेगा, तो उसने इसी दुकान के बारे में बताया....जिसे एक नेपाली दम्पति चला रहा है और पटेल प्रोजेक्ट के कर्मचारी ज्यादातर इसी ढाबे पर खाना खाते हैं।
                         ढाबे के अंदर जा पूछता हूँ कि आज रात के खाने में क्या खिला रहे हो.......तो वह नेपाली बोला- "मुर्गे के साथ रोटी, शाब जी।"
                        "ओ नहीं, मुझे मुर्गे के साथ नहीं अपने इस मित्र नंदू के साथ रोटी खानी है भाई....और कोई कंद-मूल, शाक-सब्जी, दाल-भात की बात करो...क्योंकि मैं शाकाहारी हूँ...!!!" मैं गंभीर सा मुँह बना कर बोला।
                       "नहीं शाब जी, यहाँ शब लोग मीट ही खाता है..!"
                        मैं नंदू की तरफ देख कर कहता हूँ- "ले यार, यह तो बस तेरे मतलब का ढाबा निकला...!!"
 परंतु नंदू बोला- "नहीं विक्की, मैं भी मीट नहीं खाऊँगा क्योंकि हम धार्मिक यात्रा कर रहे हैं।"
"आप हम दोनों के लिए कुछ और बना दो" नंदू उस नेपाली दुकानदार से बोला।
                        "अच्छा तो आप दोनों के लिए हम पनीर की सब्जी बना देगा, अभी रिकांगपिओ से पनीर भी मंगवा लेता हूँ।"
                        मैं बोला- "चलो यह ठीक है, हम आठ बजे पहुँच जाएंगे, आपके पास खाना खाने....पर एक बात बताओ कि हम अपनी गाड़ी कहाँ खड़ी करें, जहाँ टैंट भी लगा सकें और हमारे किन्नर कैलाश जाने के बाद गाड़ी वहाँ सुरक्षित खड़ी रहे।"
                       "तो, पुल पार कर पटेल प्रोजेक्ट का बजरी का डम्प है, वहाँ खुली जगह है और गार्ड भी हर वक्त रहता है।" ढाबे वाले ने सलाह दी।
                       लो, हम अपनी गाड़ी ले पटेल प्रोजेक्ट के बजरी डम्प पर पहुँच जाते हैं। वहाँ एक तरफ पहले से ही बाहर की नम्बरों वाली दो गाड़ियाँ खड़ी थी.....निश्चित ही वे गाड़ियों वाले भी हमारी तरह ही किन्नर कैलाश गए होंगें। मुझे भी वहाँ गाड़ी लगाते देख, वहाँ मौजूद गार्डों ने पहले तो हमें वहाँ गाड़ी खड़ी करने से मना कर दिया कि हमारे ट्रक आते-जाते रहते हैं....उन्हें मोड-मुड़ाई में दिक्कत होगी,  पर फिर बाद में वे मान गए....यह कहते हुए कि हम आपकी गाड़ी की रखवाली नहीं करेंगें, हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है। हम आठ-दस मिनट उन गार्डों से बातचीत करते रहे, नतीजा यह हुआ कि वे हमसे घुल-मिल गए। रात का खाना उसी नेपाली दम्पति के ढाबे पर खाने की सलाह भी जब उन्होंने हमें दी, तो मैंने कहा- "वह बंदा हमारे लिए रिकांगपिओ से स्पेशल पनीर मंगवा कर उसकी सब्जी बना रहा है, बस अंधेरा होते ही हम वहाँ खाना खाने पहुँच जाएंगे.....अभी दिन की इस जाती हुई रोशनी में, हम जल्दी से अपनी गाड़ी के पास यदि टैंट लगा ले तो आपको कोई एतराज़ तो नहीं है भाई...?"
                       तो वो गार्ड बोले- "नहीं, आप को टैंट लगाने की कोई जरूरत नहीं....हम दोनों की आज नाइट ड्यूटी है, आप हमारे कमरे में जाकर हमारे बिस्तरों पर आराम से सो जाईये।"  इस बार मुझे नंदू की तरफ चोर आंख से देखने का मौका भी नहीं मिला क्योंकि उनके इस प्रस्ताव को सुन मुझसे पहले नंदू की वाह-वाह की आवाज़ ने फैसला सुना दिया था। अब वे गार्ड हमें व हमारे सामान को अपने कमरे तक छोड़ गए। दस-बीस मिनट अपनी कमर सीधी कर हम पहुँच जाते हैं, उसी नेपाली दम्पति के ढाबे पर।
                         ढाबे के दोनों मेज़ पूरी तरह से भरे हैं, प्रोजेक्ट के मजदूरों को खाना खिलाया जा रहा है और कुछ थकान उतारने वाली कथित दवा को भी रोटी के साथ पानी में मिलाकर पिये जा रहे थे। कुछ इंतजार के बाद हमें जगह मिल जाती है और हमारी थालियाँ भी आ जाती हैं।
                         तरी वाला पनीर देख, मैं ढाबे वाले को मज़ाक में कहता हूँ- "देखना यार, कहीं ऐसा तो नहीं कि तूने मुर्गे की तरी में पनीर तैरवा दिया हो और मेरा ब्राह्मण धर्म भ्रष्ट हो जाए...!!"
                         "नहीं शाब जी, आपके लिए अलग से सब्जी बनाया है....कसम से!!!"   खैर उस बंदे ने हमें ऐसे रोटी खिलाई जैसे हम उसके ग्राहक ना हो कर, उसकी बहन के ससुराल से आए मेहमान हों।
                          वापस कमरे में आ, सोने से पहले मैं और नंदू दिन भर के घटनाक्रम पर बातें करते रहते हैं। नंदू बोला- "यार विक्की, यहाँ लोग कितने अच्छे व मददगार हैं...ढाबे वाले ने क्या बढ़िया खाना खिलाया और इन गार्डों ने हमें अपना कमरा तक दे दिया।"
                          "हां नंदू वो 'हुकुम सेन' भी इन सब भले मनुष्यों में से एक भला मानुष ही था...!!"
                            नंदू बोला- "हां, इन सब लोगों को मिलने के बाद मुझे भी ऐसा ही लगने लगा है कि तू सही था....वह हुकुम सेन भी हमारा एक मददगार ही था, परंतु यदि हम उसके साथ चल देते....तो इन लोगों से कैसे मिलना होता, जो होता है अच्छा ही होता है।"
                       कुछ समय बाद हमारे कमरे में अब सतलुज के बहने और झिंगुरों की मिश्रित आवाज़ ही रह जाती है, क्योंकि हम दोनों निंद्रा देवी का आह्वान कर चुके थे। मैं यहाँ यह भी लिख सकता हूँ कि आधी रात को नंदू के नींद में बड़बड़ाने की आवाज़ ने मुझे जगा दिया, "जनाब सपने में भी अपनी बीवी को सूटों के दाम बता रहे थे..!"
                      परंतु यह झूठ है और मैं कभी भी अपने यात्रा- वृतांतों में झूठ का नमक-मिर्च-मसाला नहीं डालता, जो मेरे साथ घटा है और जो अनुभव मैंने उस यात्रा पर कमाया है....उसे ही आप संग बांटता हूँ और हर घटना के सबूत के रूप में अपने द्वारा खींचे हुए चित्र भी संग पेश करता हूँ। मेरी कोई भी बात मनगढ़ंत नहीं होती और ना ही मैं कोई कहानीकार हूँ, मैं तो बस आप सब में से ही एक साधारण बंदा हूँ।
                     तड़के पौने पांच बजे, मेरे मोबाइल के पालतू  मुर्गे ने बांग दे-देकर हमें जगा दिया और हम दोनों ने नव जोश के साथ किन्नर कैलाश जाने की तैयारी पकड़ ली।
                      सुबह 6बजे हम अपनी कमर कस चुके थे, अपनी रक्सैकों से। मौसम कुछ-कुछ बारिश वाला हो रहा था। कल जिस दिशा में हमें किन्नर कैलाश बताया गया था उस ओर के पहाड़ों के शिखर मेघों के हत्थे चढ़े हुए थे। सूर्य देव के प्रकाश बाण भी अभी इन मेघों के कवच को भेद कर धरती पर नहीं पहुँच पा रहे थे। एक खुशनुमा सी हवा की हल्की-हल्की फुहारे मेरे चेहरे से टकरा रही थी, सतलुज नदी का शोर अब चिड़ियों की चहचहाहट से संधि कर कर्णप्रिय संगीत में तब्दील हो चुका था।
                       गार्ड हमें शुभ यात्रा की आशीष देकर विदा करते हैं और मैं पूरे जोश से शिव भोले का जयकारा लगाता हूँ....तो जवाब में नंदू व दोनों गार्ड हर-हर-महादेव का उद्घोष करते हैं।
                        हम दोनों पुल पार कर गाँव से गुज़र उस ओर चले जा रहे थे, जहाँ से किन्नर कैलाश के लिए प्रथम सीढ़ियाँ चढ़ती हैं। प्रशासनिक तौर पर तो यात्रा 15अगस्त को ही समाप्त कर दी गई थी, इसलिए हम दोनों अब अकेले ही नज़र आ रहे थे यात्रा पथ पर।
                       दस मिनट चलते रहने के बाद हम उस जगह पहुँच जाते हैं, जहाँ सतलुज को पार करने के लिए झूला लगा है और उसके सामने ही किन्नर कैलाश को जाने के लिए ट्रैक शुरू होता है। मैं सम्मान वश झुक कर प्रथम सीढ़ि को छूकर उसकी मिट्टी अपने माथे पर लगाता हूँ और "जय किन्नर कैलाश"  बोलकर प्रथम सीढ़ि चढ़ जाता हूँ। सीढ़ियाँ चढ़ते ही कई सारे बैनर रास्ते में लगे नज़र आने लगते हैं, जिनसे पता चलता है कि किन्नर कैलाश मार्ग के मध्य में पड़ते "मलिंगखट्टा" में उन सब बैनर वालों ने अपने-अपने टैंट व ढाबों की व्यवस्था कर रखी है.....इसीलिए तो मैं अपना टैंट गाड़ी में छोड़ आया था, नहीं तो मेरी रक्सैक का वज़न पोने चार किलो और ज्यादा बढ़ जाना था, दोस्तों। परंतु हम यात्रा समाप्ति के एक सप्ताह बाद जा रहे थे, तो इन सब ढाबों का वहाँ मौजूद होना मुझे संदेहप्रद सा लग रहा था....क्योंकि यात्रा समाप्त होते ही ढाबे-टैंट वालों ने भी वापसी करनी शुरू कर दी होगी, फिर सोचता हूँ कि यदि हमें मलिंगखट्टा जिसे गणेश पार्क भी कहते हैं, में कोई आश्रय नहीं मिला तो मेरी पीठ पर खाने-पीने का सामान तो लदा ही है और सुना है की मलिंगखट्टा में वन विभाग की एक छोटी सी इमारत भी है.....नहीं तो, यदि दिन हुआ मलिंगखट्टा से आगे वह प्राकृतिक गुफा भी है जिस में अक्सर किन्नर कैलाश यात्री सदियों से रुकते आ रहे हैं........ऐसा मैं मन ही मन सोचता जाता हूँ।
                         नंदू से इस बारे में कोई बात नहीं करता क्योंकि नंदू तो मस्त है पगडंडी के किनारे अभी-अभी आए एक पेड़ को देखने में, जिस पर अखरोट लगे हुए थे।
                         अब तंगलिंग गाँव के घर आने शुरू हो गए, जिन को सेब के पेड़ों ने और ज्यादा खूबसूरत बना दिया था। लाल-लाल सेब इन पेड़ों पर लटकते हुए अपनी जवानी की शेखी बिखेर रहे थे।
                        तंगलिंग गाँव से गुज़रते-गुज़रते ही बूंदाबांदी शुरू हो जाती है, हम दोनों एक-दूसरे की तरफ ऐसे देखते हैं जैसे कोई बना-बनाया खेल बिगड़ गया हो! हम दोनों अब एक घने पेड़ के नीचे अवाक् से खड़े हैं, चिंता की लकीरों से हम दोनों के माथों पर बल पड़ चुके हैं। पांच मिनट बाद उस घने पेड़ से भी पानी टपकने लगता है तो मैं नंदू को कहता हूँ कि पहाड़ों में मौसम का मिजाज़ उस नन्हे बालक सा होता है जो पल-भर-पल हंसता है, रोता है...या तो उसे सब कुछ चाहिए या कुछ भी नहीं...! चल नंदू चलते हैं, रुके रहने से हम आज के पड़ाव से दूर होते जाएंगे....तू अपना रेन कोट पहन, मैं छाता निकालता हूँ.....चल यार जो होगा देखा जाएगा!!!
                         खैर, बारिश वाले ने भी हम बेशर्मों को देख थोड़ी सी शर्म खा ही ली .....उसने अपने वेग को कुछ कम कर लिया।
                                     (क्रमश:)
                   


तंगलिंक गाँव वासी "हुकुम सेन" जिन्होंने हमें अपने घर रात रुकने की पेशकश की थी, परन्तु.....!!

"पटेल प्रोजेक्ट" के वो दोनों गार्ड....जिन्होंने ने हमें अपना कमरा दे दिया, रात रुकने के लिए।    मैं अपने इन दोनों मददगारों के नाम भूल चुका हूँ, याद आते ही अपडेट कर दूँगा।
तरी वाला पनीर देख, मैं ढाबे वाले को मज़ाक में कहता हूँ- "देखना यार, कहीं ऐसा तो नहीं कि तूने मुर्गे की तरी में पनीर तैरवा दिया हो और मेरा ब्राह्मण धर्म भ्रष्ट हो जाए...!!"
"नहीं शाब जी, आपके लिए अलग से सब्जी बनाया है, कसम से...!!!"

अगली सुबह.....जिस दिशा में हमें किन्नर कैलाश बताया गया था उस ओर के पहाड़ों के शिखर मेघों के हत्थे चढ़े हुए थे।

तंगलिंग गाँव।

पटेल प्रोजेक्ट के बजरी डम्प पर खड़ी मेरी गाड़ी।

चल नंदू......खिच तैयारी यारा।

ले हुन, आपां भी तेरे नाल....जय किन्नर कैलाश बाबे दी।

तंगलिंग गाँव के पुल पर।

तंगलिंग गाँव के बीच में गुज़रता यह खूबसूरत नाला, जो सतलुज में समा जाता है।

सतलुज किनारे पटेल प्रोजेक्ट का बजरी डम्प।

नाले के इर्द-गिर्द बसा तंगलिंग गाँव।

सतलुज के ऊपर पड़ा झूला.....जिसमें बैठ कर दरिया पार कर तंगलिंग पहुँचा जाता है।

झूले के सामने ही किन्नर कैलाश को जाती प्रथम सीढ़ियाँ।

 मैं सम्मान वश झुक कर प्रथम सीढ़ि को छूकर उसकी मिट्टी अपने माथे पर लगाता हूँ और "जय किन्नर कैलाश"  बोलकर प्रथम सीढ़ि चढ़ जाता हूँ।

सीढ़ियाँ चढ़ते ही कई सारे बैनर रास्ते में लगे नज़र आने लगते हैं, जिनसे पता चलता है कि किन्नर कैलाश मार्ग के मध्य में पड़ते "मलिंगखट्टा" में उन सब बैनर वालों ने अपने-अपने टैैंट व ढाबों की व्यवस्था कर रखी है।
नंदू मस्त है पगडंडी के किनारे अभी-अभी आए एक पेड़ को देखने में.....



जिस पर अखरोट लगे हुए थे। 

अब तंगलिंग गाँव के घर आने शुरू हो गए, जिन को सेब के पेड़ों ने और ज्यादा खूबसूरत बना दिया था। लाल-लाल सेब इन पेड़ों पर लटकते हुए अपनी जवानी की शेखी बिखेर रहे थे। 

 चल नंदू चलते हैं, रुके रहने से हम आज के पड़ाव से दूर होते जाएंगे....तू अपना रेन कोट पहन, मैं छाता निकालता हूँ.....चल यार जो होगा देखा जाएगा!!!



(अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें)


मेरे यात्रा वृतांत -
(१) " शिमला से आगे, कूप्पड़ में गिरी गंगा...!" (कूप्पड़ ट्रैक)
(२) "एक गाँव ऐसा, जहाँ घरों की दूसरी मंजिल बनाना वर्जित है..!" (जंयती देवी)
(३) ताजमहल देखने जब आगरा जाऐ, तो बादशाह अकबर का मक़बरा " सिकन्दरा" जरूर देखें।








16 टिप्‍पणियां:

  1. आपको हुकम सेन के घर रुक जाना चाहिए था।मैं बेशक आप जैसा घुमक्कड़ होने के आस पास भी नही हु।पर हिमाचल में बहुत यात्राएं की है मैंने और हर बार ऐसे ही गांवों में रुकता हु ररात्रि विश्राम के लिए।ये लोग बहुत ही प्यार से पेश आते और अपनी तरफ से सेवा भाव मे कमी नही आने देते।

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    1. सही कहा आपने, हिमाचल के गाँवों में ढेर सारा अपनापन मिलता है.....मैं हुकुम सेन के ही घर रुकता, परन्तु दो जनों में बटी यात्रा गाड़ी के पहियों सी ही चलती है....दोनों पहिये अलग दिशा में नहीं मुड़ सकते ना।

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  3. जय भोले की ।
    वैसे सच है इस यात्रा के पश्चात नंदू भाई भी सबके बन्धु बन गये होंगे ।
    बढ़िया विवरण, भोले के दर्शनों के इन्तज़ार में

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  4. नंदू शुक्र मना रहा कि वो आप सनकी के हत्थे न चढ़ा...
    आपको हुक़ूम सेन के घर जाना चाहिए था.....बढ़िया गार्ड के कमरे में आपको सोने मिल गया.....थकान मिताने वाली दवा....मुर्गे की तरी में सब्जी और बहन का ससुराल वाह...बिलकुल सही कहा आपने जो आपने अनुभव किया वहीँ आप लिखते हो...बेहद उम्दा लेख....

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  5. विकास जी आपका यात्रा वृतांत बहुत ही अच्छा है। लगता है जैसे पाठक भी साथ चल रहा है पर यात्रा विवरण क्रमशः में ज़्यादा न चलाए थोड़ा जल्दी जल्दी अपडेट करें और अगर आप यूट्यूब पर व्लोगिग भी करते हैं तो ठिकाना बताये अगर नहीं करते हैं तो अगली यात्रा का व्लोग ज़रूर बनाये।

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    1. बेहद धन्यवाद योगेश जी, यूट्यूब पर मेरे नाम से ही मेरा यूट्यूब चैनल भी है "Vikas Narda"

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  6. बहुत बढ़िया भाई ....
    सच में हम शहर के लोग धीरे धीरे कुछ ज्यादा ही प्रैक्टिकल होते जा रहे हैं ....क्यूंकि शहरों का माहौल ही कुछ ऐसा होता है कि सहसा किसी पर भी यक़ीन करना मुश्किल होता है।
    हुकुम सेन का घर निश्चित ही छोटा होगा लेकिन दिल जरूर बड़ा है।
    अगर मै होता तो अंतिम विकल्प के रूप में उनके साथ चल देता.....लेकिन अफ़सोस भी होता और मन में शंसय भी रहता है कि पता नही हमारे जाने से उनकी व्यस्थाएं ना चरमरा जाए... वैसे ही बड़ा कठिन जीवन निर्व्हन होता है उन लोगों का वरना यूँ ही कोई अपनी माटी को छोड़ पलायन करने को मजबूर नही होता है।

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    1. मनोज जी....एक दम सही विश्लेषण किया आपने, ऐसे किसी राह चलते अंजान को अपने घर में पनाह देना किसी बड़े दिल वाले का ही काम होता है जी।

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  7. आप के अनुभव ही इतने संपन्न हैं, झूठ के तड़के की आवश्यकता ही नहीं। जब यात्री नियमित यात्रें करने लगता है तो उसे ज्ञात हो जाता है कि सभी आदमी बुरे नहीं होते।

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  8. हुकुम जी की ईलतजा मान लेनी थी ।पहाड़ो पर अभी लालच ने अपने कदम नही पसारे हैं।

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    1. सत्य वचन, परन्तु गाड़ी के दोनों पहिये एक ही तरफ मुड़ सकते हैं जी।

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