रविवार, 6 सितंबर 2020

भाग-11 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा" (Kinner Kailash Yatra)


भाग-11 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

इस यात्रा वृतांत को आरंभ से पढ़ने का यंत्र http://vikasnarda.blogspot.com/2020/05/blog-post.html?m=1स्पर्श करें।

                  " किन्नर कैलाश शिला और, 
                             मुझ नास्तिक के आँसू..!!"



            उन बिखरी पड़ी चट्टानों के ढेर की ओर मैं बढ़ता हुआ चला जा रहा हूँ, जिन पर रंग-बिरंगी प्रार्थना झंडियों की लड़ियाँ बंधी दिखाई पड़ रही हैं।
                हां, यह ही 'पार्वती कुंड' होगा....अपने-आप से सवाल-जवाब करता हुआ मैं अकेला जब उन चट्टानों के पास पहुँचता हूँ, तो देखता हूँ कि उन चट्टानों के नीचे पानी भरा हुआ है.....और ठीक सामने "किन्नर कैलाश शिला" दिखाई पड़ने लगी। मतलब पार्वती कुंड के बाद मुझे किन्नर कैलाश शिला की ओर अंतिम चढ़ाई चढ़नी है, परन्तु आगे तो चट्टानों के ढेर नज़र आ रहे थे....जिनमें से मुझे सही रास्ता ढूँढना था। मन में एक सबसे बड़ी राहत यह थी कि लक्ष्य सामने दिखाई दे रहा था "किन्नर कैलाश शिला"   यदि ऐसी दुर्गम व निर्जन जगहों पर अकेले भटक रहे अंजान आदमी को उसका लक्ष्य ना दिखाई पड़े और ऊपर से रास्ता भी संदिग्ध हो जाए तो, आप बखूबी समझ सकते हो कि पथिक के ऊपर चिंताओं का मानसिक दबाव कितना बढ़ जाता है।
                चट्टानों में इक्ट्ठे हुए पानी के पास पहुँच कर देखता हूँ कि बड़ी-बड़ी चट्टानों से घिरा हुआ एक छोटा सा जलकुंड है, जिसके तल पर सिक्के ही सिक्के नज़र आ रहे थे और कुंड के किनारे टेढ़ी खड़ी बड़ी सी चट्टान की प्राकृतिक समतल दीवार पर मां पार्वती का प्रतीक बनाया हुआ है, जिस पर लाल चुनरियाँ चढ़ी हुई थी। उसी बड़ी सी चट्टान के बिल्कुल साथ व सामने कुंड में एक चौरस सी चट्टान ऐसे पड़ी थी, जैसे चबूतरा हो और उस चबूतरे रूपी चट्टान पर श्रद्धालुओं द्वारा मां पार्वती को भेटें अर्पित की हुई थी जैसे श्रृंगार का सामान, चुनरियाँ, फोड़े हुए नारियलों के अवशेष और यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े नोट व सिक्के।
                मां पार्वती की चट्टान के बिल्कुल सामने कुंड के दूसरे छोर पर एक चट्टान पर मुझे सफेद धोती चढ़ी दिखाई पड़ी, निश्चित था कि वहाँ भगवान शिव का प्रतीक है। घर से भागकर किन्नर कैलाश आए वो दोनों बच्चे इस स्थल को किन्नर कैलाश मानकर यहीं अपने साथ लाई हुई पूजा सामग्री को अर्पण कर वापस चल दिए होंगे।
                मैं अपनी तुंगमापी घड़ी पर नज़र मारता हूँ- पार्वती कुंड की समुद्र तल से ऊँचाई 4320मीटर और समय दोपहर के साढ़े बारह बज चुके हैं।
                नीचे उतरकर कुंड से अपनी पानी की बोतल भरता हूँ और बर्फीला पानी पीते-पीते ऊपर किन्नर कैलाश शिला की तरफ़ देख मन ही मन अंदाजा लगता हूँ कि अब ज्यादा समय नहीं लगेगा वहाँ पहुँचने में, परंतु ऐसा होता नहीं......हम जब दूर से किसी ऊँची इमारत या जगह विशेष को देखते हैं तो वहाँ तक की सही दूरी का अंदाजा लगाना ज्यादातर गलत ही साबित होता है। इस जगह पर भी मेरे साथ ऐसा ही होने वाला है, जैसे जगन्नाथपुरी में मेरे साथ हुआ था।
                 हुआ कुछ ऐसा था कि 2014 में, मैं जीवन में पहली बार अपने परिवार के संग वायु मार्ग से उड़ीसा दर्शन के लिए भुवनेश्वर उतरा....तो उड्डन-अड्डे पर ही हमें किस्मत से एक भला मानुष मिला- टैक्सी ड्राइवर "योगी"
जो हमें तीन दिनों तक भुवनेश्वर, कोणार्क, जगन्नाथ पुरी और चिल्का झील घुमाता रहा। जब वह हमें जगन्नाथ पुरी से भगवान जगन्नाथ के दर्शन करवाने पहुँचा तो उसने अपनी गाड़ी को एक बहुत खुली सड़क के किनारे खड़ी कर, हमें सामने दिखाई पड़ रहे भगवान जगन्नाथ मंदिर के शिखर की ओर इशारा कर कहा कि मेरी गाड़ी इससे आगे नहीं जा सकती, आप लोग यहाँ से रिक्शा आदि साधन द्वारा मंदिर तक चले जाएँ।
                 मंदिर शिखर को देखकर मैं हंसता हुआ बोला- "अरे इतना क्या....इतना सा रास्ता तो हम पैदल ही चल लेगें!"  तब योगी भी लगभग मेरी बात पर मजाक उड़ाते हुए बोला- "सर आपका अंदाजा सही नहीं है, मंदिर देखने में जितना पास लग रहा है परंतु असल में है नहीं।"
                 खैर, मैंने योगी की बात पर विश्वास करने की बजाय अपनी आँखों से दिख रही दूरी को नापते हुए सपरिवार पैदल चलने के लिए अपना पहला पैर आगे बढ़ाते हुए पंजाबी में कहा- " ओ कोई गल्ल नई योगीआ, अस्सी बजार-बुजार देखदे होए मंदिर तक पोहच जाना..!"
                 परंतु योगी का कथन सही ही निकला, मैं जिस दूरी को ज्यादा ना मानकर चल पड़ा था....वह खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी, मंदिर नज़दीक आता नज़र ही नहीं आ रहा था....वह दूरी मेरे अनुमान से दुगनी-तिगुनी निकली और पार्वती कुंड से किन्नर कैलाश शिला तक की दूरी पार करने में भी, मेरे साथ अब ऐसा ही होने वाला है मेरे पाठक दोस्तों...!!!
                  पार्वती कुंड पर जैसे-तैसे बर्फीला पानी गटक लेता हूँ और कुंड से अपनी बोतल को दोबारा भरकर, मैं आगे बढ़ने का रास्ता खोजते हुए किन्नर कैलाश शिला की दिशा में बढ़ने लगा। परंतु मुझे सही रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था, कुंड से थोड़ा आगे बढ़ते ही मेरे आगे एक बड़ी सी चट्टान आ गई....जिसके नीचे बैठने के लिए कुछ जगह थी। मैंने बाहर से झाँक कर अंदर देखा तो उस चट्टान के नीचे बनी गुफ़ा में एक रक्सैक पड़ी थी और उसी चट्टान के नीचे से रेंग कर, मैं आगे बढ़ जाना चाहता था। परंतु जैसे ही मैंने पैरों के भार बैठकर उस चट्टान के नीचे घुसना शुरू किया कि मेरा एकदम से दम घुटने लगा.....प्राणवायु मुँह से खींचने पर भी अंदर नहीं जा पा रही थी। मुझे झट से आभास हो गया कि यदि एक क्षण भी मैंने देर की...तो!!
मैं अपनी साँस रोकता हुआ चट्टान के नीचे से वापस बाहर निकल आया....और आठ-दस लम्बी-लम्बी साँसें ले कर अपने-आप को सामान्य करता हूँ। चट्टान के नीचे पड़ी रक्सैक को देखने का विचार भी त्याग देता हूँ और सोचता हूँ जब मेरे अलावा और कोई भी अब किन्नर कैलाश शिला तक नहीं है, तो यह रक्सैक कौन यहाँ छोड़ गया होगा।
फिर अपने आप को ही तर्क देता हुआ, इस निष्कर्ष तक पहुँचता हूँ कि ऊपर जा रहे किसी पदयात्री ने इस रक्सैक को भार जानकर यहाँ चट्टान के नीचे रख दिया हो कि किन्नर कैलाश से वापस आ इसे उठा लूँगा.....परंतु वापसी पर वह निश्चित ही इस चट्टान को दोबारा ढूँढ नहीं पाया होगा, अब इन चट्टानों के समंदर में किस चट्टान के नीचे उसने अपनी रक्सैक छुपाई थी, वह खोज नहीं पाया होगा।
                   अपनी साँसो को सामान्य कर, अब मैं उस चट्टान के ऊपर जैसे-तैसे चढ़कर उसके पार जाने की कोशिश करता हूँ। पार्वती कुंड में उतरने के चक्कर में, मैंने रास्ते के निशानों के क्रम को खो दिया था,  अब फिर से दिन के उजाले में  "रास्ते के उन चिरागों"  को ढूँढ रहा हूँ जो मुझे किन्नर कैलाश शिला तक ले जाएँ।
                   खैर मुझे कोई बीस कू मीटर दूर एक चट्टान पर पीले रंग से बना एक निशान दिखाई पड़ा, मैं मन ही मन मुस्कुराता हूँ कि मुझे मेरे रास्ते का पहला चिराग मिल गया। वहाँ तक पहुँच कर आगे देखता हूँ तो रास्ते को निशान रूपी चिराग प्रकाशमान कर रहे थे। पीछे मुड़कर उसी चट्टान को देखता हूँ, जिसके नीचे मुझसे मेरी प्राणवायु छिन गई थी....अपने-आप को कहता हूँ, जो भी हो...पर एक बार तो रोमांच मिश्रित डर की अनुभूति हो गई, मज़ा आ गया....आनंद आ गया और जब मज़ा आता है तो हौसला बढ़ता है, सो उसी हौसले ने मेरे पैरों में जोश भर दिया। मेरी जोशीली आँखें अब चट्टानों के समंदर में पीले रंग के निशानों और चपटे पत्थरों पर चपटे पत्थर रखकर बनाई गई छोटी-छोटी बुर्जियों को खोज रही थी।
                  रह-रह कर मेरी दाईं तरफ़ के पहाड़ से चट्टानें टूट कर नीचे गिरने की आवाज़ और मेरा ध्यान अपनी तरफ़ के पहाड़ के शिखर की ओर चला जाता कि समय रहते गिरती हुई आ रही किसी चट्टान-पत्थर से अपने-आप को बचा लूँ। रास्ते के चिराग अब इशारा करने लगे कि अपनी बाई ओर मुड़.....उस ओर मुड़ कर देखता हूँ तो मुझे  50-60 डिग्री के कोण पर ऊपर को चढ़ना है, वो भी चट्टानों के ढेर पर।
                  अब ठंड लगनी शुरू हो गई क्योंकि सूर्यदेव के आशीर्वाद को बादल मुझ तक पहुँचने नहीं दे रहे थे, मैंने अपनी जैकेट दोबारा पहन ली। रुक-रुक आ रही चट्टानें गिरने की आवाज़, ना चाहते हुए मेरे दृढ़व्रत मन के किसी कोने में दहशत के तार छेड़ जाती।
                    चढ़ना शुरु कर देता हूँ.....परंतु कुछ मीटर चढ़ने के बाद ही समझ में आ गया कि यह चढ़ाई चढ़ने के लिए अब बंदे से बंदर बनना पड़ेगा! अपनी दो ट्रैकिंग स्टिकों में से एक को वहीं रास्ते में छोड़ देता हूँ कि बंदर भी कभी लाठी लेकर चलते हैं भला...!!
                    खैर, दूसरी ट्रैकिंग स्टिक को अभी अपने साथ ही रखता हूँ क्योंकि अभी मुझ में बंदे के कुछ अंश बाकी थे। पीछे मुड़कर इंद्रकील पर्वत पर पड़ी बर्फ देख-देखकर मोहित भी होता रहता हूँ। पार्वती कुंड से चले हुए मुझे एक घंटा बीत चुका है, किन्नर कैलाश शिला अब यहाँ से मुझे नज़र नहीं आ रही....लगता है कि इस चढ़ाई को पूरा चढ़ लेने के बाद वहाँ से किन्नर कैलाश शिला नज़र आएगी।
                   करीब तीन हिस्से चढ़ाई चढ़ जाने के बाद रास्ता चट्टानों से बनी एक गुफ़ा के भीतर से गुज़र रहा था। अभी पार्वती कुंड पर एक गुफ़ा में से गुज़रने के चक्कर में मेरा दम घुट चुका है, तो इस गुफ़ा के आगे खड़ा इस कश्मकश में हूँ कि अंदर घूसूँ या नहीं। खैर, दो कदम अंदर चढ़ रुक कर देखता हूँ कि मुझे साँस आ रही है या नहीं........हां, आ रही है और गुफ़ा के पार निकल जाता हूँ।
                   दो बजे,  जैसे ही शिखर पर पहुँचते हुए मैंने अपना पैर धार पर रखा कि तेज़ हवाओं के जबरदस्त बहाव से मेरा सामना होता है, पार का नज़ारा भी बेहद खूबसूरत था..... सतलुज घाटी का नज़ारा। दाईं तरफ़ बादलों में छिपी किन्नर कैलाश शिला धुँधली सी नज़र आ रही थी, जिस तक पहुँचने के लिए मुझे अभी और चढ़ाई चढ़नी है।
                  अगले रास्ते के लिए मुझे पहाड की पतली सी धार पर चलना था, जब उस ओर बढ़ा तो नीचे गहरी खाईयाँ देख मेरा कलेजा मुँह को आ गया....टाँगे काँपने लगी ऐसे महसूस हुआ कि तेज़ हवा ही मुझे कहीं नीचे ना गिरा दे। दूसरे क्षण मैने अपनी नज़रें चुरा कर ऊपर किन्नर कैलाश शिला की ओर कर ली। उस ओर मुझे अब दो ही रंग नज़र आ रहे थे, श्याम और श्वेत.....श्याम रंग चट्टानों का और श्वेत रंग उन पर पड़ी बर्फ़ व बादलों से घिर चुके नभ का। एक सुरक्षित जगह पर खड़ा हो सतलुज घाटी में पुन: देखता हूँ....तो दोनों दृश्यों में फर्क पाता हूँ, नीचे सतलुज घाटी जीवन लिये थी....हरा रंग, जंगलों से ढकी हुई और उनमें नज़र आते गाँव।
                    किन्नर कैलाश शिला और मेरे बीच में अब हज़ारों चट्टानें पार करनी की परीक्षा पड़ी थी....भाव शून्य सा एक मशीन की तरह उन तेज़ हिमानी हवाओं के थपेड़े खाता हुआ कदम-दर-कदम ऊपर की ओर चढ़ता जा रहा हूँ, चलने की रफ़्तार प्राणवायु की कमी ने बहुत ज्यादा कम कर दी थी।
                    आधा घंटा और बीत गया, किन्नर कैलाश शिला अभी भी दूर ही है। मुझे अब दूसरी ट्रैकिंग स्टिक भी अखड़ने लगी, क्योंकि इसका उपयोग तो कब का समाप्त हो चुका था.....सो एक चट्टान ऐसी दिखाई पड़ी जिसके पास पहले से ही कई लाठियाँ-डंडे पड़े देख, मैने अपनी ट्रैकिंग स्टिक भी उनके साथ खड़ी कर दी। अब आख़िरी चढ़ाई में दोनों हाथों का खाली होना भी जरुरी हो चुका था।एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर मैं एक बूढ़े बंदर की तरह चढ़ रहा था। रास्ता मुझे किन्नर कैलाश शिला के बिल्कुल पीछे से ऊपर की ओर चढ़ाता जा रहा था, वहाँ से देखने पर शिखर पर खड़ी शिला किसी दीये की जल रही बाती  के समान दिखाई पड़ रही थी। मन भीतर से प्रसन्नता से भरता जा रहा है कि मैं अपने लक्ष्य के इतना करीब आ पहुँचा हूँ।
                     ऊपर चढ़ते हुए मैं चट्टानों के मध्य कई जगहों पर आग जलाये जाने की असम्भव कोशिशों को भी देखता हूँ.....एक जगह तो अधजला छाता भी चट्टानों की गहराई में उस जगह पड़ा था, जहाँ उग्र हवाओं से बचा जा सके। उस अधजले छाते को देख झट से दिमाग कहानियाँ घड़ने लगता है कि कहीं वो पदयात्री रात में तो यहाँ ना फंस गया हो कि उसे अपने सामान व छाते को जलाने तक की नौबत आन पड़ी...! यह सोच आते ही एक सिहरन सी दौड़ जाती है मेरे मन-मस्तिष्क में।
                   आख़िर, तीन बजने से सात मिनट पहले मैं किन्नर कैलाश शिला के बराबर आ पहुँचता हूँ और एक गहरी साँस छोड़ कर, खड़ा शिला को निहार रहा हूँ....मेरे भीतरी वस्त्र पसीने से भीगे हुए है, अब मुझे कुछ समय बाद भयंकर ठंड लगने वाली है.....सो सिर पर चढ़ी गर्म टोपी पर अपनी गर्म जैकेट की टोपी भी चढ़ा लेता हूँ, जैकेट की जंजीरी भी कस लेता हूँ। खड़ा किन्नर कैलाश शिला को निहार रहा हूँ.....जिस की सजावट में बंधी रंग-बिरंगी प्रार्थना झंडियों की लड़ियाँ, हवा के बहाव से फड़फड़ाती हुई मधुर संगीत प्रवाह कर रही थी।
                  पहली नज़र में मेरा नास्तिक तर्कबुद्धि दिमाग किन्नर कैलाश शिला की बनावट देख उसे प्रकृति की कलात्मकता मानता है, कैसे पर्वत शिखर पर एक चट्टान को काट-छाँट कर एक ऐसा रूप दे दिया जिसे मनुष्य ने
"कैलाश"  की उपाधि दे डाली....यानि शिव का निवास स्थान।
                    आगे बढ़ता हुआ, अपने जूते उतार ऊपर चढ़कर शिला के समक्ष आ जाता हूँ, मात्र तीन-साढे़ तीन फुट चौड़ी शिखर-धार पर खड़ा पार का दृश्य देख कर मेरा मन एक बार तो दहल जाता है कि इस पार गहरी खाई है। धीरे-धीरे संतुलन बनाकर मैं शिला के समीप पहुँच,  शिला को स्पर्श कर नमन करता हूँ। पैंट की दायीं जेब में रखे हुए मेरे व नंदू के सांझे खाते में से एक नोट निकाल कर शिला के आगे अर्पण कर देता हूँ.....जबकि यह भी मुझे पता है कि तेज़ हवाएँ इस कागज़ को उड़ा ले जाएंगी।
                    माथा टेक पीछे हटता हुआ शिला के समक्ष ही एक सुरक्षित जगह पर बैठ जाता हूँ। हालाँकि तेज़ सर्द हवाएँ मुझे वहाँ बैठने में बाधक सिद्ध हो रही थी, पर मुझे वहाँ कुछ समय तो बैठना है....ऐसा मेरा दिल कह रहा था, उसे शांति मिल रही थी जैसे।
                   कभी सामने देख रहे इंद्रकील पर्वत के हिमाच्छादित शिखरों को बैठा देख रहा हूँ, तो कभी किन्नर कैलाश शिला को। जेब से अपना गधा मोबाइल फोन निकाल कर चेक करता हूँ- नेटवर्क आ रहा है, तो झट से अपनी पत्नी को फोन लगा कर अपनी इस सफलता की खुशी का भागीदार बनाना चाहता हूँ।
                घंटी बजती है....मेरी पत्नी का स्वर आता है- "हां जी"
               "भावना, मैं पहुँच गया..!"  कह कर मेरा गला रूंध जाता है, मैं फूट-फूट कर रोने लगता हूँ। भावना मेरी बात सुन अत्यंत प्रसन्न होती है और कह रही है- "पर, आप रो क्यों रहे हैं..?"
                मुझसे बोला नहीं जा रहा था, रोते-रोते में इतना बोल पाया- "मैं कामयाब हो गया भावना,  मैं काम...याब और मेरा गला फिर भर आता है।  दोबारा बात करूँगा कहकर फोन बंद कर देता हूँ परंतु मेरा रोना बंद नहीं हो रहा....ना जाने कौन सी ताकत मुझे रुलाती जा रही थी। पिछले वर्ष श्रीखंड महादेव यात्रा को संपूर्ण करने में, मैं असफल रहा था.....उस असफलता ने मुझे भीतर से तोड़ दिया था, इस यात्रा पर भी हर वक्त मुझ पर यही विचार हावी था कि कहीं इस यात्रा में भी मैं असफल ना हो जाऊँ!
                  भीगी हुई आँखों को पोछ कर अपने-आप को सामान्य करने की कोशिश करता हूँ। संभल जाने पर भगवान शिव को समर्पित प्रिय पहाड़ी भजन- "शिव कैलाशों के वासी, धौली धारों के राजा... शंकर संकट हरणा"  गाने लग पड़ता हूँ। भजन गाते-गाते पुन: रोना शुरू कर देता हूँ.....रोते-रोते भजन गाता रहता हूँ। अपने-आप को रोने से रोकने की कोशिश करता हूँ, पर सब व्यर्थ....ना जाने मुझे क्या होता जा रहा है, मैं रोता ही जा रहा हूँ....जैसे अपने-आप को भीतर से धो रहा हूँ...!!!
                  कुछ समय बाद खुद को बहुत हल्का व अंतर्मन से अत्यंत प्रसन्न पाता हूँ। उन आँसुओं की वर्षा को मैं आज तक नहीं समझ पाया हूँ कि क्या यह मुझ बाहरी नास्तिक की भीतरी आस्तिकता थी, क्या यह ट्रैक की सफलता में खुशी के आँसू थे......या मेरे भावुक स्वभाव की भावुकता!!!
             "तुम्हें ढूँढ रहा हूँ शिव, तुम मुझे कहीं नहीं मिले... कहीं ऐसा ना हो कि मैं मरणासन्न हूँ और तुम कहो कि मैं तो तुम्हारे दिल में रहता हूँ.....तो उस वक्त बहुत देर हो चुकी होगी!"
                                      (क्रमश:)         




हां, यह ही 'पार्वती कुंड' होगा....अपने-आप से सवाल-जवाब करता हुआ मैं अकेला जब उन चट्टानों के पास पहुँचता हूँ, तो देखता हूँ कि उन चट्टानों के नीचे पानी भरा हुआ है।

कुंड के किनारे टेढ़ी खड़ी बड़ी सी चट्टान की प्राकृतिक समतल दीवार पर मां पार्वती का प्रतीक बनाया हुआ है, जिस पर लाल चुनरियाँ चढ़ी हुई थी। 

 मां पार्वती की चट्टान के बिल्कुल सामने कुंड के दूसरे छोर पर एक चट्टान पर मुझे सफेद धोती चढ़ी दिखाई पड़ी, निश्चित था कि वहाँ भगवान शिव का प्रतीक है।

उसी बड़ी सी चट्टान के बिल्कुल साथ व सामने कुंड में एक चौरस सी चट्टान ऐसे पड़ी थी, जैसे चबूतरा हो और उस चबूतरे रूपी चट्टान पर श्रद्धालुओं द्वारा मां पार्वती को भेटें अर्पित की हुई थी जैसे श्रृंगार का सामान, चुनरियाँ, फोड़े हुए नारियलों के अवशेष और यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े नोट व सिक्के।

पार्वती कुंड से दिखाई देती "किन्नर कैलाश शिला"

पार्वती कुंड से आगे का रास्ता।

मेरी जोशीली आँखें अब चट्टानों के समंदर में पीले रंग के निशानों और चपटे पत्थरों पर चपटे पत्थर रखकर बनाई गई छोटी-छोटी बुर्जियों को खोज रही थी।

रास्ते में आती ऐसी चट्टानों को पार कर आगे बढ़ रहा हूँ।

रास्ते के चिराग अब इशारा करने लगे कि अपनी बाई ओर मुड़.....

उस ओर मुड़ कर देखता हूँ तो मुझे  50-60 डिग्री के कोण पर ऊपर को चढ़ना है, वो भी चट्टानों के ढेर पर।

ऊपर चढ़ते हुए मेरी दाईं तरफ़ का दृश्य।

चढ़ते-चढ़ते पीछे मुड़कर इंद्रकील पर्वत पर पड़ी बर्फ देख-देखकर मोहित भी होता रहता हूँ।




 ऊपर चढ़ते-चढ़ते समझ में आ गया कि यह चढ़ाई चढ़ने के लिए अब बंदे से बंदर बनना पड़ेगा! अपनी दो ट्रैकिंग स्टिकों में से एक को वहीं रास्ते में छोड़ देता हूँ कि बंदर भी कभी लाठी लेकर चलते हैं भला...!! 

मेरी दाईं ओर दिख रहा दृश्य- इंद्रकील पर्वत 

और, बाई तरफ़ का दृश्य।

जैसे ही शिखर पर पहुँचते हुए मैंने अपना पैर धार पर रखा कि तेज़ हवाओं के जबरदस्त बहाव से मेरा सामना होता है, पार का नज़ारा भी बेहद खूबसूरत था..... सतलुज घाटी का नज़ारा। 


दाईं तरफ़ बादलों में छिपी किन्नर कैलाश शिला धुँधली सी नज़र आ रही थी, जिस तक पहुँचने के लिए मुझे अभी और चढ़ाई चढ़नी है।

अगले रास्ते के लिए मुझे पहाड की पतली सी धार पर चलना था, जब उस ओर बढ़ा तो नीचे गहरी खाईयाँ देख मेरा कलेजा मुँह को आ गया....टाँगे काँपने लगी ऐसे महसूस हुआ कि तेज़ हवा ही मुझे कहीं नीचे ना गिरा दे।

दूसरे क्षण मैने अपनी नज़रें चुरा कर ऊपर किन्नर कैलाश शिला की ओर कर ली। उस ओर मुझे अब दो ही रंग नज़र आ रहे थे, श्याम और श्वेत.....श्याम रंग चट्टानों का और श्वेत रंग उन पर पड़ी बर्फ़ व बादलों से घिर चुके नभ का।

चट्टानों को पार करते-करते आधा घंटा और बीत गया, किन्नर कैलाश शिला अभी भी दूर ही है। 

मुझे अब दूसरी ट्रैकिंग स्टिक भी अखड़ने लगी, क्योंकि इसका उपयोग तो कब का समाप्त हो चुका था.....सो एक चट्टान ऐसी दिखाई पड़ी जिसके पास पहले से ही कई लाठियाँ-डंडे पड़े देख, मैने अपनी ट्रैकिंग स्टिक भी उनके साथ खड़ी कर दी।

अब आख़िरी चढ़ाई में दोनों हाथों का खाली होना भी जरुरी हो चुका था, एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर मैं एक बूढ़े बंदर की तरह चढ़ रहा था।

रास्ता मुझे किन्नर कैलाश शिला के बिल्कुल पीछे से ऊपर की ओर चढ़ाता जा रहा था।

वहाँ से देखने पर शिखर पर खड़ी शिला किसी दीये की जल रही बाती के समान दिखाई पड़ रही थी।

मन भीतर से प्रसन्नता से भरता जा रहा है कि मैं अपने लक्ष्य के इतना करीब आ पहुँचा हूँ। 

आख़िर, तीन बजने से सात मिनट पहले मैं किन्नर कैलाश शिला के बराबर आ पहुँचता हूँ और एक गहरी साँस छोड़ कर, खड़ा शिला को निहार रहा हूँ

पहली नज़र में मेरा नास्तिक तर्कबुद्धि दिमाग किन्नर कैलाश शिला की बनावट देख कर उसे प्रकृति की कलात्मकता मानता है, कैसे पर्वत शिखर पर एक चट्टान को काट-छाँट कर ऐसा रुप दे दिया जिसे मनुष्य ने "कैलाश" की उपाधि दे डाली.....यानि शिव का निवास स्थान।

आगे बढ़ता हुआ किन्नर कैलाश शिला को देख रहा हूँ, जिसके पीछे से सूर्य देव मुझे देख रहे थे।

किन्नर कैलाश शिला की सजावट में बंधी रंग-बिरंगी प्रार्थना झंडियों की लड़ियाँ, हवा के बहाव से फड़फड़ाती हुई मधुर संगीत प्रवाह कर रही थी।

प्रार्थना झंडियाँ।

किन्नर कैलाश शिला के समक्ष आ जाता हूँ, मात्र तीन-साढे़ तीन फुट चौड़ी शिखर-धार पर खड़ा पार का दृश्य देख कर मेरा मन एक बार तो दहल जाता है कि इस पार गहरी खाई है। धीरे-धीरे संतुलन बनाकर मैं शिला के समीप पहुँच,  शिला को स्पर्श कर नमन करता हूँ।

वहीं खड़ा पीछे मुड़कर देखता हूँ....इंद्रकील पर्वत।

माथा टेक पीछे हटता हुआ शिला के समक्ष ही एक सुरक्षित जगह पर बैठ जाता हूँ। 

हालाँकि तेज़ सर्द हवाएँ मुझे वहाँ बैठने में बाधक सिद्ध हो रही थी, पर मुझे वहाँ कुछ समय तो बैठना है....ऐसा मेरा दिल कह रहा था, उसे शांति मिल रही थी जैसे।

  "भावना, मैं पहुँच गया..!"  कह कर मेरा गला रूंध जाता है, मैं फूट-फूट कर रोने लगता हूँ।







मेरी एक अन्य साहसिक यात्रा- "यमुना नदी के उद्गम स्थल सप्तऋषि कुंड की यात्रा"  का वीडियो...



22 टिप्‍पणियां:

  1. ‌Osm!गजब!!हैरत करने वाली यात्रा!!! इतनी चटटानों पर आप कैसे चढ़े होंगे,सरासर जान का खतरा दिख रहा है आप तो खतरों के खिलाड़ी हो विकास अद्भुत👌👌👌आपने तो मुंह पर ताला ही लगा दिया।

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  2. आपके हृदय में विराजमान शम्भु कैलाश के वासी धौलाधार के राजा को कोटि प्रणाम।

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  3. धर्मेंद्र सिंह

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  4. बाहरी नास्तिकता की अंदुरुनी आस्तिकता.....क्या अपने आप को परख रहे हो बहुत ग़ज़ब....पार्वती कुंड से शिला तक पहुचने की पहले पूरी ब्लॉग स्टोरी पढ़ी फिर फोटो देखे और ऐसा लगा कि किंन्नर कैलाश ट्रेक वाकई बहुत challanging क्यों है.....ये 11 बजे से आपके 3 बजे तक की यात्रा बहुत रोमाँचक कठिन और दिल कडा करने वाली है....किंन्नर कैलाश और श्रीखंड महादेव दो बहुत कठिन ट्रेक है....आपका आज का लेख पढ़कर बहुत प्रसन्नता हो रही है ऐसा लग रहा है में भी आपके साथ इस शिला के पास खड़ा होकर दर्शन कर रहा हु....अद्भुत रोमांच....वाकई डर भी लगना चाहिए आखरी के हिस्से में....बहुत बहुत बधाई हो विकास जी....

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    1. प्रतीक जी, सही कहा आपने आखिर के वो चार घंटे सच में चुनौतीपूर्ण थे....जब कोई अकेला ही उन वीरानों में भटक रहा हो।
      बेहद आभारी हूँ कि आप मेरी इस शब्दिक यात्रा पर मेरे हमसफ़र रहे जी।

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  5. बहुत हिममत करी विकास भाई आपने और हमारा इंतजार भी खत्म हुआ,विकास भाई आपके साथ आज मन से तो यात्रा कर ही ली बस अब तन से यात्रा करनी बाकी है।
    जय भोले शंकर

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    1. बेहद धन्यवाद मुकेश गोयल जी, जय भोलेनाथ।

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  6. नास्तिक होना और तार्किक होना दोनों अलग अलग चीज़ हैं। आस्तिक होते हुए भी तार्किक हुआ जा सकता है। व्यक्ति इतनी ऊंचाई पर भाव विभोर होते हुए शिव के भजन गा सकता है वो कैसे नास्तिक हुआ।

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    1. Haha Haha....अभिनव गर्ग जी, परन्तु मैं दिमाग से नास्तिक ही हूँ....शायद भावनाएँ व संस्कार मेरे दिल से खिलवाड़ कर जाते हैं।

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  7. बहुत ही साहसिक यात्रा ....कैसे इन चट्टानों को पर किया होगा, सोचकर ही हैरान हूँ... खुद ही ने खुद का मनोबल बढ़ाते हुए आगे बढ़ते रहे होंगे।
    बहुत कठिन और भाव विभोर कर देने वाली यात्रा ...
    आस्तिक और नास्तिकता के विषय पर तो ज्यादा नही बोल सकता ये तो अपनी अपनी आस्था और मान्यताओं की बात है लेकिन उस दिव्य शिला के सामने भावनाशून्य खड़े होना और फिर घर पर बात करते हुए फुट फुट कर रोना सामान्य बात नही है.....
    रोने के बाद मन का हल्का होना लाजिमी था , शायद ठीक ही कहा आपने की रो रोकर अपने आपको भीतर से धो लिया....आंसुओ ने काया को पवित्र कर दिया।

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    1. बिल्कुल सही विश्लेषण किया आपने, मेरी मनोदशा का....मनोज जी, सुमधुर आभार।

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  8. जल्दी पुस्तकक लिखें वरना कॉपीराइट की परवाह किये बिना आपके इन संस्मरणों को मैं पुस्तक में उकेर दूंगा,बस विकास की जगह धीरेन्द्र हो जाएगा

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  9. जल्दी पुस्तकक लिखें वरना कॉपीराइट की परवाह किये बिना आपके इन संस्मरणों को मैं पुस्तक में उकेर दूंगा,बस विकास की जगह धीरेन्द्र हो जाएगा

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  10. बहुत शानदार यात्रा शानदार लेखन और चित्र। लेखन इतनी शानदार की लगा खुद यात्रा कर रहे हैं। शेयर के लिए धन्यवाद

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