रविवार, 2 अगस्त 2020

भाग-9 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा" (Kinner Kailash Yatra)

भाग-9 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

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                       "विकल्प और संकल्प"


       सुबह के सवा सात बज चुके थे, सतलुज घाटी को नहला चुकी धूप से अभी भी हम वंचित चले जा रहे थे क्योंकि हम उस पहाड़ की छाया में थे....जिसके शूल शिखरों पर अभी धूप आई ही थी, पर सामने सतलुज घाटी का नज़ारा खिली हुई धूप से और ज्यादा खिलता जा रहा था। सामने पगडंडी पर कुछ गाय चरती देख मुझसे आगे चल रहा नंदू पगडंडी छोड़, थोड़ा ऊपर चढ़ गायों से दूरी बनाकर उनके पार उतरता है....मैं भी ऐसा ही करता हूँ और नंदू से हंसता हुआ कहता हूँ- "भाई, जानवर का क्या उसे हम अजनबियों की शक्ल पसंद ना आए तो, और...!!" नीचे खाई की तरफ देखता हूँ तो उसमें एक चरागाह नज़र आती है जिसमें कुछ और गायें चर रही थी, इस जगह को स्थानीय लोग "पालंग" नाम से पुकारते हैं। गाय देख मैं नंदू को कहता हूँ- "यहाँ आस-पास फूआलों(गड़रियों) के डेरे होंगे।"
                     दस-पद्रंह मिनट चलते रहने के बाद हमें पानी गिरने की आवाज़ सुनाई देने लगती है, मतलब कि वह एकमात्र झरना अब आने वाला ही है....और कुछ कदमों बाद उस विशाल पथरीले पहाड़ की छाती पर पसीने की लकीर सा बहता झरना भी दिखाई पड़ने लगा।
                     बहुत बार सोचता हूँ कि इन निष्ठुर पर्वतों में बहते मिलते ऐसे छोटे-छोटे झरने सच्चे दोस्त साबित होते हैं, वरना पानी के बिना कौन जीवित बच कर वापस जा सकता है...हे गिरिराज, तेरे मौत के जबड़ों से..!
                     पाठक दोस्तों, ये झरने-नाले बहुत मददगार साबित होते हैं, यदि कोई पहाड़ों में भटक जाए तो वह इन झरने-नालों के बहाव के साथ-साथ चलना शुरू कर दें, तो निश्चित ही वह किसी मानवीय बस्ती तक पहुँच जाएगा।
                     झरने के पास पहुँच, ऊपर की ओर देखता हूँ तो चट्टानी पहाड़ को घिस-घिस कर बर्फ़ीले पानी ने सतलुज से मिलने के लिए अपना रास्ता खुद ही निकाला हुआ है, झरने में पड़ी छोटी-बड़ी चट्टानें उसका रास्ता रोकने में असमर्थ जान पड़ती हैं....पानी एक कुशल खिलाड़ी की तरह उनके ऊपर से छलांगें लगा रहा था। फिर भागे जाते पानी की भागने की दिशा यानि नीचे की तरफ़ देखता हूँ तो रिकांगपिओ शहर के दर्शन फिर से शुरू हो जाते हैं। तड़के की अपने कंधों पर टंगी रक्सैक अब मैं उतारता हूँ....अपनी व नंदू की बोतलें ले झरने के एक कोने में बैठ, उन बोतलों को भर लेता हूँ। बर्फ़ का पानी एकदम से तो पिया भी नहीं जाता, धीरे-धीरे कर कुछ घूँट गटक लेता हूँ और नंदू को भी कहता हूँ- "अब हम काफ़ी ऊँचाई पर आ गए हैं, यहाँ ऑक्सीजन की कमी की भरपाई के लिए हमें ज़्यादा से ज़्यादा पानी पीना है।"  परन्तु इतना ठंडा पानी नंदू से भी नहीं पिया जा रहा था।
                     पौने आठ बजे धूप ने शिखरों से नीचे घाटी की तरफ़ उतरना शुरू तो कर दिया, परंतु हम अभी भी धूप से वंचित ही थे। पगडंडी पर चलते-चलते सूर्य की दिशा की तरफ़ देखता हूँ, तो आकाश पर एक खास चमक बता रही थी कि इसी पहाड़ के पीछे ही सूर्यदेव हैं और तभी इंद्रकील पर्वत के शूल शिखरों के प्रथम दर्शन भी होते हैं। आगे की तरफ चली जा रही पगडंडी की दिशा से अनुमान लगाता हूँ कि ऊपर जो एक बहुत बड़ी चट्टान नज़र आ रही है, निश्चित है उसके नीचे ही गुफ़ा हो...!
                    आगे जा रहा नंदू तभी ऊँची आवाज़ में मुझे बता देता है- "विक्की, गुफ़ा वो देख सामने!" और मैं धीरे-धीरे अपनी चाल में चला हुआ जब उस बड़ी चट्टान के पास पहुँच, देखता हूँ कि उसके आगे बैंगनी रंग के हजारों जंगली फूल खिले हुए थे, ऐसे जैसे कि सजावट की हो..!!
                      ऊपर पहुँच देखता हूँ, नंदू उस चट्टान के नीचे बनी प्राकृतिक गुफ़ा के मुहाने पर हवा रोकने के लिए चिनी हुई पत्थरों की दीवार से टेक लगाकर अर्ध लेटा सा, मुझे देख खुशी से अपनी बाहें ऊपर कर लहरा रहा था। वहाँ पहुँच सबसे पहले गुफ़ा के अंदर झाँकता हूँ, दस-बारह बंदे तो आराम से लेट सकते हैं और गुफ़ा के फ़र्श पर लैटलोन शीट बिछे हुए थे, कुछ कम्बल भी एक तरफ़ पड़े थे। अपनी रक्सैक उतार नंदू की बगल में बैठ जाता हूँ जो गुफ़ा के बाहर पहले से ही बिछी हुई लैटलोन शीट पर बैठा है। बैठते ही अपनी तुंगमापी घड़ी पर नज़र दौड़ाता हूँ- गुफ़ा की समुद्र तल से ऊँचाई 3890मीटर और समय सवा आठ बज चुके थे, मतलब मलिंगखट्टा से यहाँ तक पहुँचने में हमें साढे तीन-चार घंटे लग गए।
                    धूप कब घाटी में भी उतर आई है, अपनी रक्सैक को पत्थरों की चिनी दीवार के साथ सट्टा कर जब उस पर ढांस लगता हूँ, तो थके शरीर को बहुत आराम मिलता है। अर्ध लेटा सा कभी गुफ़ा की छत और कभी सामने नज़र आ रहे पहाड़ को देखता जा रहा था जिस पर अब धूप बढ़ती जा रही थी।
                     पांच-सात मिनट बाद "घर से भागे हुए बच्चे" भी गुफ़ा के सामने आ पहुँचते हैं, परंतु वे अब दो नज़र आ रहे थे। मैं ज़रा सा उठकर उनके पीछे तीसरे को भी ढूँढता हूँ....पर वह दिखाई नहीं दिया। उन दोनों के हमारे पास पहुँचते ही, मैं पूछता हूँ- "तुम्हारा तीसरा साथी 'अभिषेक' कहाँ है...?"
                    "वह आया नहीं, थक गया है....फ़ॉरेस्ट शेड में ही रह गया!"  उन तीनों का लीडर, वो साँवला सा प्रवासी लड़का बोला।
                  "ओह, चलो खैर तुम तीनों ने बहुत अच्छा किया जो कल रात वापस हो, मलिंगखट्टा आकर फॉरेस्ट शेड में रुक गए, मुझे तुम लोगों की बहुत चिंता हो रही थी...!" मैं बोलता हूँ।
                  "खाक़ अच्छा किया अंकल, हम तो झरने तक पहुँच चुके थे....वे तीन अंकल कल हमें जबरदस्ती पकड़कर गणेश पार्क वापस ले गए!" लीडर लड़का बोला।
                   "चलो बेटा, फिर भी उन लोगों ने बहुत अच्छा किया कि तुम लोगों को सुरक्षित वापस गणेश पार्क ले आए...अंधेरी रात में कुछ भी अनहोनी हो सकती थी।"
                    मेरे ऐसे बोलते ही वह लीडर बालक गर्जा- "अंकल, उन लोगों के पास टॉर्च नहीं थी, उन्होंने हमारी टॉर्च छीन ली ताकि वह खुद गणेश पार्क पहुँच सकें...और हमें जबरदस्ती अपने साथ घसीट लिया..!!!"
                    यह सुन मेरी नाक फूल गई, साँसे भी तेज़ हो गई....कि जब ये बच्चे कल रात अंधेरे में चलते हुए अपनी मंज़िल के इतने करीब पहुँच चुके थे, तो वो तीनों स्वार्थी मित्र इन बच्चों को अपने स्वार्थ में वापस मोड़ कर ले गए जबकि झरने से गुफ़ा तक का रास्ता आधे घंटे का ही है। कल रात मैं उन तीन मित्रों को आशीषें दे रहा था, अब मन ही मन उनको कोस रहा था।
                     तभी वो लीडर लड़का फिर से बोला- "अंकल, पता नहीं लोग हमें क्या समझ रहे हैं, अभी ऊपर चढ़ते हुए भी हमें रास्ते में दो आंटियाँ मिली थी....वह हमें नीचे की ओर भगाने लगी, यह कहते हुए कि तुम लोग किन्नर कैलाश पैसे उठाने जा रहे हो.....क्या हम चोर हैं, अंकल....हम भी तो आप सब की तरह ही माथा टेकने आए हैं, उन्होंने हमें नीचे की तरफ भगा दिया....पर हम घूमघाम कर फिर से ऊपर चढ़ आए....!!!"
                    मैं समझ गया कि यह दोनों वहीं स्थानीय महिलाएँ हैं, जो हमें शाखर से उतरने के बाद चंडीगढ़ वाले रमन शर्मा जी के साथ मिली थी। नेपाली लड़के के हाथ में पकड़े लिफ़ाफे में मुझे एक लाल रंग की चुनरी और नारियल दिखाई पड़ रहा था, जो यह प्रमाणित करने के लिए काफ़ी था कि ये बच्चे चोर नहीं हो सकते। अब मैं उन दोनों बच्चों के कपड़ों पर ध्यान देता हूँ तो प्रवासी लड़के ने अपने स्कूल की ही वर्दी पहन रखी थी और नेपाली लड़के ने इतनी ठंड में भी मात्र एक घिसी हुई टी-शर्ट जो छाती से फटी भी हुई थी, पहनी हुई थी परंतु किसी के कपड़े देख उसे चोर घोषित कर देना कहाँ तक उचित है...?
                    मैं उन बच्चों से कहता हूँ- "तुम बहुत हिम्मत वाले हो बेटा, परंतु तुम्हें घर से भागकर इस तरह यहाँ नहीं आना चाहिए था...तुम्हारे घर वाले भी परेशान होंगे..!!"
                   घर से भागने वाली बात फिर से शुरू होने पर उस प्रवासी लड़के ने नेपाली लड़के की बाँह पकड़ कर खिसकते हुए यह कहा- "अच्छा, अंकल चलते हैं..!!"  और दो पलों में ही वो दोनों गुफ़ा से ऊपर की ओर चढ़ती पगडंडी पर चढ़, हमारी आँखों से ओझल हो गए।
                  हम दोनों खामोशी से आठ-दस मिनट वहीं गुफ़ा के बाहर लेटे रहते हैं, फिर एकाएक मैं नंदू से कहता हूँ- "नंदू, आज हम अब और ऊपर नहीं जाएंगे, यहीं रुक जाते हैं...कल सुबह किन्नर कैलाश चलेंगे।"
                 मेरी बात सुनते ही नंदू उठ कर बैठ जाता है और तेज़ी से अपना सिर ना में हिलाता हुआ कहता है- "नहीं विक्की,  हम आज ही किन्नर कैलाश जाकर वापस गुफ़ा में आ जाएंगे, रात यहीं रुक कल नीचे उतर जाएंगे... क्योंकि मुझे परसों हर हाल में वापस गढ़शंकर पहुँचना है!!"     और नंदू ने अपने व्यापार संबंधी कई सारे काम गिनवा डालें।
                  मैं नंदू को समझाता हूँ- "देख नंदू, जल्दबाज़ी मत कर....एक दिन ही तो और लगेगा, यदि हम आज सारा दिन और रात यहीं गुफा में रुक जाते हैं तो हमारा शरीर ऊँचाई के अनुकूल हो जाएगा और हमारे पास खाने-पीने के सामान की कोई कमी नहीं है, उस के बल पर हम यहाँ एक दिन क्या दो दिन भी रुक सकते हैं।"
                 परंतु नंदू के सिर पर "जल्दबाज़ी का भूत" चढ़ गया था, वो एक दिन भी फालतू नहीं रुकना चाहता था।  
                 "अच्छा, जैसे तेरी मर्जी" कह कर मैं उठकर अपनी रक्सैक से राशन का लिफ़ाफा निकाल, उसमें से भगवान सिंह द्वारा चोरी तोड़ कर दिए गए उपहारस्वरूप  सेब ढूँढ कर अपने शिकारी चाकू से टुकड़ों में काटते हुए सोच रहा था कि नंदू चाहे जिस्म से मेरे साथ आया तो है, पर रुह इसकी दुकान पर ही छूट गई लगती है...कल-परसों करने वाले कामों की चिंता इसे आज का लुत्फ़ भी नहीं उठाने दे रही है...!
                   खैर, एक लम्बी साँस छोड़, खामोशी से कटे हुए सेब, मेरी फोटो खींच चुके नंदू को पकड़ा देता हूँ। सेब खाने के बाद अपनी रक्सैक से मेरी सासुमाँ द्वारा बनाए पंजीरी के लड्डू निकालता हूँ....हम दोनों एक-एक लड्डू खाकर पानी पी लेते है, लो जी हो गया हमारा नाश्ता!
                  अब हमें आगे जाने की तैयारी करनी थी, सो रक्सैक से एक छोटा पिठ्ठू झोला निकाल उसमें रेन सूट, पांच ग्राम का आपातलीन कम्बल (खास किस्म की प्लास्टिक की शीट) बिस्कुट, माथा-बैटरी और कुछ सूखे मेवे भरता हूँ। नंदू अपनी बजाजी की दुकान के नाम से छपवाये लिफ़ाफे में अपनी ज़रूरत का सामान भर लेता है, नंदू का लिफ़ाफा देख मैं मन ही मन मुस्कुरा देता हूँ कि तू यहाँ भी अपनी दुकान के मशहूरी कर ले,भाई...!
                    अपनी रक्सैकों को हम गुफ़ा के एक कोने में रख कर, उस जगह पर अधिकार जमा देते हैं...जहाँ रात में लेटे हुए बाहर की ठंडी हवा ना लगे।
                    लो, नौ बज कर दस मिनट पर फिर से चल दिए यात्री किन्नर कैलाश। नंदू फिर से छलांगें लगा मेरे आगे-आगे हो लिया। मौसम बिल्कुल साफ़ था,  नीले आसमान पर सूरज चमक रहा था...उसकी चमकार में सतलुज घाटी के पार वाले पर्वतों के सिर पर मौजूद बादलों की सफ़ेदी और ज़्यादा बढ़ गई थी। मैं उस मंजर की फोटो खींचते हुए मन ही मन बुदबुदाता हूँ- "बड़े जंच रहे हो गिरिराज, इन बादलों की सफ़ेद पगड़ी में...!!"
                    थोड़ा-सा ऊपर चढ़ने के बाद हमें गुफ़ा से थोड़ी ही दूर फूआलों(गडरियों) का डेरा भी नज़र आ जाता है। जय भोलेनाथ बोलते-बोलते हम दोनों पगडंडी पर अपने पग धर कर ऊपर की ओर चढ़ते चले जा रहे थे। परंतु कुछ ही मिनटों में मुझसे आगे भागे जा रहे नंदू की रफ़्तार एकाएक धीमी होने लगी, मैं अपनी रफ़्तार से चलता हुआ नंदू के बराबर पहुँच जाता हूँ तो नंदू मुझे आगे बढ़ने का इशारा कर पगडंडी से एक तरफ़ हो गया। ऐसा होता देख, एक बार तो मेरा माथा ठनका....फिर यह सोच कर आगे बढ़ गया कि इस खड़ी चढ़ाई पर नंदू ज़्यादा तेज़ नहीं चल पा रहा होगा।
                    कुछ कदम चलकर मैं सोचता हूँ कि अभी तो हमें गुफ़ा से चले हुए आधा घंटा ही तो हुआ है, इतनी जल्दी नंदू थक तो नहीं सकता....यह सोचते हुए पीछे मुड़कर नंदू की तरफ़ देखता हूँ,  पर यह क्या....नंदू पगडंडी पर लगभग गिरा हुआ सा बैठा है...!!!
                    मैं वहीं से ऊँची आवाज़ में पूछता हूँ- "क्या हुआ नंदू..?"
                   "मुझे एक दम से चक्कर आने लगे हैं, मेरी टाँगे भी काँप रही है विक्की!" नंदू बोला।
                    मेरा मन एकदम से चिंता में डूब गया कि जिस बात का मुझे डर था अब वही हो रहा है....नंदू की जल्दबाज़ी हमें ले डूबेगी। दूसरे पल ही मैं समझ गया कि नंदू पर 'हाई एल्टीट्यूड सिकनेस' ने आक्रमण कर दिया है, परंतु एक दम से कैसे...!
                    तभी मैं अपनी तुंगमापी घड़ी पर उस जगह की ऊँचाई देखता हूँ....4040 मीटर! मतलब गुफ़ा से मात्र 150मीटर ऊपर आते ही अच्छे-भले नंदू को ऊँचाई की बीमारी ने आ घेरा। मेरे मन की व्याकुलता ने दौड़ लगानी शुरू कर दी कि अब क्या होगा! इसी चिंता में, मैं दौड़ते कदमों से नंदू के पास पहुँचता हूँ।
                  "विक्की, यार मुझे लगता है कि मेरा ब्लड प्रेशर डाउन हो गया है....मुझे नहीं लगता कि मैं अब ऊपर जा पाऊँगा, मेरी सेहत बिगड़ रही है....तू चला जा, मैं धीरे-धीरे बैठ-बैठ कर गुफ़ा तक वापस पहुँच जाऊँगा..!"
                   मैं नंदू को बताता नहीं कि उसे हाई एल्टीट्यूड सिकनेस का अटैक हो गया है, वह इसी भ्रम में रहे कि उसका ब्लड प्रेशर डाउन हो गया है....कहीं इसका मनोबल ना टूट जाए। मैं नंदू को ढांढस बंधाता हुआ कहता हूँ- "कोई बात नहीं नंदू, हम कुछ समय यहीं बैठ लेते हैं...जब तू अपने-आप को बेहतर महसूस करेगा, हम ऊपर की ओर चल देंगे....अभी तो सारा दिन पड़ा है, हम धीरे-धीरे कर किन्नर कैलाश पहुँच जाएंगे...यार तू चिंता ना कर...!!!"
                    हालांकि मैंने नंदू को यह बात तो बोल दी थी, पर मैं जानता था कि इस हालत में नंदू को और ऊपर ले जाना उसकी जान के साथ खिलवाड़ करना भी साबित हो सकता है। मैं पगडंडी पर धराशायी हो चुके नंदू में मनोबल फूँकना चाह रहा था, परंतु नंदू ने ढीली-सी आवाज़ में फिर कहा- "तू चला जा विक्की, मेरे बस का नहीं रहा अब.... यदि मैं तेरे साथ ऊपर चल भी दूँ तो मैं तेरी यात्रा भी खराब कर दूँगा, तू अपनी यात्रा पूरी कर....तू पिछले साल भी श्रीखंड कैलाश से खाली हाथ लौट आया था, कहीं ऐसा ना हो कि मेरी सेहत ऊपर जाकर और ज्यादा ख़राब हो जाए और तुझे मुझे उठाकर नीचे लाना पड़े....यार तुम मेरी चिंता छोड़, मैं जितना भी आ गया उस से ही संतुष्ट हूँ, हमें कल हर हाल में वापस उतरना है....तू ऊपर चला जा क्योंकि तेरे पास तो तुज़र्बा भी है, ऐसी यात्राओं का...!!"
                    नंदू ने विकल्प चुन लिया था जबकि मुझे अब संकल्प लेना है अकेले आगे जाने का, मैंने वह संकल्प उठाने में एक क्षण की भी देरी नहीं की....अकेले आगे जाने की बात पर भी मैं एक बार भी नहीं घबराया, रोमांच से मेरे रोम-रोम खड़े हो गए कि अब मैं अकेला ही किन्नर कैलाश जाऊँगा।
                   नंदू अपने लिफ़ाफे से मुझे किशमिश और बिस्कुट का एक पैकेट निकालकर थमा देता है और हंसते हुए कहता है- "जय भोलेनाथ'  विक्की इस बार तू कामयाब होगा।"
                   और, पगडंडी के किनारे खड़े पत्थरों को पकड़-पकड़ कर नंदू नीचे गुफ़ा की तरफ़ चल देता है। मैं वहीं खड़ा उसको एकटक देख रहा हूँ........और नंदू के त्याग को महसूस कर रहा हूँ।
                  "त्याग"  जी हां, त्याग.... मेरे पाठक दोस्तों! नंदू ने खुद अपने-आप को यात्रा से अलग कर लिया कि मेरी यात्रा में विघ्न ना पड़े, चाहता तो वह मुझे भी वापस गुफ़ा में ले आता और मुझे आना भी पड़ता है या मैं खुद उसे गुफ़ा में वापस लाता......परंतु नंदू ने ऐसा कोई मौका आने ही नहीं दिया, वह मुझे आज़ाद छोड़कर पगडंडी पर बैठ-बैठ कर नीचे की ओर उतर रहा था!!!
                                        (क्रमश:)
                   


शाखर के नीचे उतर, रास्ते में आई एक छोटी सी गुफ़ा।  
सामने पगडंडी पर कुछ गाय चरती देख मुझसे आगे चल रहा नंदू पगडंडी छोड़, थोड़ा ऊपर चढ़ गायों से दूरी बनाकर उनके पार उतरता है....मैं भी ऐसा ही करता हूँ और नंदू से हंसता हुआ कहता हूँ- "भाई, जानवर का क्या उसे हम अजनबियों की शक्ल पसंद ना आए तो, और...!!"



नीचे खाई की तरफ देखता हूँ तो उसमें एक चरागाह नज़र आती है जिसमें कुछ और गायें चर रही थी, इस जगह को स्थानीय लोग "पालंग" नाम से पुकारते हैं।

रास्ते में आई बाधा को पार करता हूँ नंदू।

कुछ दम ले लेते हैं, यार।

  दस-पद्रंह मिनट चलते रहने के बाद हमें पानी गिरने की आवाज़ सुनाई देने लगती है, मतलब कि वह एकमात्र झरना अब आने वाला ही है....और कुछ कदमों बाद उस विशाल पथरीले पहाड़ की छाती पर पसीने की लकीर सा बहता झरना भी दिखाई पड़ने लगा।

झरने को पार करता हुआ नंदू।

झरने के पास पहुँच, ऊपर की ओर देखता हूँ तो चट्टानी पहाड़ को घिस-घिस कर बर्फ़ीले पानी ने सतलुज से मिलने के लिए अपना रास्ता खुद ही निकाला हुआ है।

   फिर भागे जाते पानी की भागने की दिशा यानि नीचे की तरफ़ देखता हूँ तो रिकांगपिओ शहर के दर्शन फिर से शुरू हो जाते हैं।

झरने में पड़ी छोटी-बड़ी चट्टानें उसका रास्ता रोकने में असमर्थ जान पड़ती हैं....पानी एक कुशल खिलाड़ी की तरह उनके ऊपर से छलांगें लगा रहा था।

तड़के की अपने कंधों पर टंगी रक्सैक अब मैं उतारता हूँ....अपनी व नंदू की बोतलें ले झरने के एक कोने में बैठ, उन बोतलों को भर लेता हूँ।

झरने से आगे गुफ़ा की ओर बढ़ते हुए....पलट कर फिर झरने की फोटो खींचता हूँ।

पौने आठ बजे धूप ने शिखरों से नीचे घाटी की तरफ़ उतरना शुरू तो कर दिया, परंतु हम अभी भी धूप से वंचित ही थे।

नीचे, सतलुज घाटी में दिखाई दे रहा रिकांगपिओ।

पगडंडी पर चलते-चलते सूर्य की दिशा की तरफ़ देखता हूँ, तो आकाश पर एक खास चमक बता रही थी कि इसी पहाड़ के पीछे ही सूर्यदेव हैं और तभी इंद्रकील पर्वत के शूल शिखरों के प्रथम दर्शन भी होते हैं। 

आगे की तरफ चली जा रही पगडंडी की दिशा से अनुमान लगाता हूँ कि ऊपर जो एक बहुत बड़ी चट्टान नज़र आ रही है, निश्चित है उसके नीचे ही गुफ़ा हो...! 

आगे जा रहा नंदू तभी ऊँची आवाज़ में मुझे बता देता है- "विक्की, गुफ़ा वो देख सामने!" 

और मैं धीरे-धीरे अपनी चाल में चला हुआ जब उस बड़ी चट्टान के पास पहुँच, देखता हूँ कि उसके आगे बैंगनी रंग के हजारों जंगली फूल खिले हुए थे, ऐसे जैसे कि सजावट की हो..!!

ऊपर पहुँच देखता हूँ, नंदू उस चट्टान के नीचे बनी प्राकृतिक गुफ़ा के मुहाने पर हवा रोकने के लिए चिनी हुई पत्थरों की दीवार से टेक लगाकर अर्ध लेटा सा, मुझे देख खुशी से अपनी बाहें ऊपर कर लहरा रहा था।


वहाँ पहुँच सबसे पहले गुफ़ा के अंदर झाँकता हूँ, दस-बारह बंदे तो आराम से लेट सकते हैं और गुफ़ा के फ़र्श पर लैटलोन शीट बिछे हुए थे, कुछ कम्बल भी एक तरफ़ पड़े थे।

 नंदू, देख इधर।

मैं नंदू की बगल में बैठ जाता हूँ जो गुफ़ा के बाहर पहले से ही बिछी हुई लैटलोन शीट पर बैठा है।
                                       
बैठते ही अपनी तुंगमापी घड़ी पर नज़र दौड़ाता हूँ- गुफ़ा की समुद्र तल से ऊँचाई 3890मीटर और समय सवा आठ बज चुके थे, मतलब मलिंगखट्टा से यहाँ तक पहुँचने में हमें साढे तीन-चार घंटे लग गए। 

धूप कब घाटी में भी उतर आई है, अपनी रक्सैक को पत्थरों की चिनी दीवार के साथ सट्टा कर जब उस पर ढांस लगता हूँ, तो थके शरीर को बहुत आराम मिलता है। अर्ध लेटा सा कभी गुफ़ा की छत और कभी सामने नज़र आ रहे पहाड़ को देखता जा रहा था जिस पर अब धूप बढ़ती जा रही थी।
                             
पांच-सात मिनट बाद "घर से भागे हुए बच्चे" भी गुफ़ा के सामने आ पहुँचते हैं, परंतु वे अब दो नज़र आ रहे थे। मैं ज़रा सा उठकर उनके पीछे तीसरे को भी ढूँढता हूँ....पर वह दिखाई नहीं दिया। उन दोनों के हमारे पास पहुँचते ही, मैं पूछता हूँ- "तुम्हारा तीसरा साथी 'अभिषेक' कहाँ है...?"

  "अच्छा, जैसे तेरी मर्जी" कह कर मैं उठकर अपनी रक्सैक से राशन का लिफ़ाफा निकाल, उसमें से भगवान सिंह द्वारा चोरी तोड़ कर दिए गए उपहारस्वरूप  सेब ढूँढ कर अपने शिकारी चाकू से टुकड़ों में काटते हुए सोच रहा था कि नंदू चाहे जिस्म से मेरे साथ आया तो है, पर रुह इसकी दुकान पर ही छूट गई लगती है...कल-परसों करने वाले कामों की चिंता इसे आज का लुत्फ़ भी नहीं उठाने दे रही है...!

खैर, एक लम्बी साँस छोड़, खामोशी से कटे हुए सेब, मेरी फोटो खींच चुके नंदू को पकड़ा देता हूँ। सेब खाने के बाद अपनी रक्सैक से मेरी सासुमाँ द्वारा बनाए पंजीरी के लड्डू निकालता हूँ....हम दोनों एक-एक लड्डू खाकर पानी पी लेते है, लो जी हो गया हमारा नाश्ता! 

लो, नौ बज कर दस मिनट पर फिर से चल दिए यात्री किन्नर कैलाश। 
      
मौसम बिल्कुल साफ़ था,  नीले आसमान पर सूरज चमक रहा था...उसकी चमकार में सतलुज घाटी के पार वाले पर्वतों के सिर पर मौजूद बादलों की सफ़ेदी और ज़्यादा बढ़ गई थी। मैं उस मंजर की फोटो खींचते हुए मन ही मन बुदबुदाता हूँ- "बड़े जंच रहे हो गिरिराज, इन बादलों की सफ़ेद पगड़ी में...!!"

थोड़ा-सा ऊपर चढ़ने के बाद हमें गुफ़ा से थोड़ी ही दूर फूआलों(गडरियों) का डेरा भी नज़र आ जाता है।

इसी धार को पार कर हम गुफ़ा तक पहुँचे थे।

पगडंडी से ऊपर की ओर दिखता दृश्य, इंद्रकील पर्वत शिखर।

नंदू को पगडंडी पर गिरा देख, मैं समझ गया कि नंदू पर 'हाई एल्टीट्यूड सिकनेस' ने आक्रमण कर दिया है, परंतु एक दम से कैसे...!
                    तभी मैं अपनी तुंगमापी घड़ी पर उस जगह की ऊँचाई देखता हूँ....4040 मीटर! मतलब गुफ़ा से मात्र 150मीटर ऊपर आते ही अच्छे-भले नंदू को ऊँचाई की बीमारी ने आ घेरा।

और, पगडंडी के किनारे खड़े पत्थरों को पकड़-पकड़ कर नंदू नीचे गुफ़ा की तरफ़ वापस चल देता है। मैं वहीं खड़ा उसको एकटक देख रहा हूँ........और नंदू के त्याग को महसूस कर रहा हूँ।

15 टिप्‍पणियां:

  1. भाई साहब एकदम जीवंत वर्णन किया है। लग रहा है जैसे सब कुछ मेरी आँखों के सामने ही घटित हो रहा है।

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  2. नंदू का ध्यान दुकान में था इस लिए वह उपर नही जा पाया

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  3. हरहर महादेव🙏
    इसबार यात्रा पूर्ण होगी.

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  4. बहुत ही बेहतरीन यात्रा रही भाई ये आपकी।
    रहस्य,रोमांच और त्याग बलिदान दोस्ती और स्वार्थ जैसी कई मानवीय सम्वेदनाओं से भरपूर ...
    उन 3 बच्चों को मै अभी तक नादाँ और बेवकूफ समझ रहा था अब उन पर गर्व हो रहा है , हालाँकि मै फिर भी इनकी इस यात्रा का समर्थन कदापि नही करूँगा। हाँ उन3 लोगो के स्वर्थ पर जरूर गुस्सा आ रहा है जो इन लड़कों को महज टॉर्च के लिए वापस गणेश पार्क ले गए... ऐसी कठिन यात्रा में टोर्च तो रखना था , इनकी बेवकूफी की सजा बच्चो को मिली।
    "गिरिराज की छाती पर पसीनें की लकीर सा झरना" आपकी कल्पना शक्ति का नमूना है।हाई alltitude सिकनेस के शिकार नंदू ने काफी हिम्मत दिखाई , जो अब तक आपसे आगे आगे चल रहा था .....अनुभव की कमी ने उसकी यात्रा में बाधा डाल दी , अगर वह आपकी बात मानकर गुफा में रुक जाता तो दोनों के लिए सहज होता.....
    खैर नंदू ने बहादुरी और बलिदान का परिचय दिया और आपकी यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया...
    👌👌👍👍...

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    1. सुमधुर आभार मनोज जी, आप बहुत जबरदस्त विशेषणकार है जी।

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  5. आपकी यात्रा मेरे रोंगटे खड़े कर देती हैं लेकिन रोमांच भी कम नही देती😀

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  6. पानी एक कुशल खिलाड़ी..बालको के हाथ से टार्च छीनने वाले उन बन्दों ने बहुत गलत किया....नंदू का शरीर यहाँ आ गया लेकिन आत्मा दुकान ही रह गयी...विकल्प और संकल्प में नंदू ने त्याग चुना....उसे आपके दर्शन की काफी चिंता थी....श्रीखंड कैलाश हमने भी पढ़ी है नंदू का कहना एकदम वाजिब और सही था...काश आप लोग उसी दिन उस गुफा में अपने आप को अनुकूल करते तो शायद कुछ और हो सकता था लेकिन यात्राओं के ऐसे काफी काश रह जाते है...जो किस्मत में है वही हो रहा है....बेहतरीन शानदार लेख....

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    1. प्रतीक जी, सही कहा आपने....नंदू की जल्दबाजी ने अपना रंग दिखा दिया, नहीं तो नंदू भी किन्नर कैलाशी हो जाता।

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  7. भाग-9 में सीख मिली कि यात्रा के लिये जोश और धैर्य चाहिये तो दोनों, पर धैर्य के साथ अपने जोश का प्रयोग करना हमे आना चाहिए और अनुभवी की सलाह को मान देना चाहिये।

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