रविवार, 7 जून 2020

भाग-5 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा " (Kinner Kailash Yatra)

भाग- 5 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा" 

इस यात्रा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र http://vikasnarda.blogspot.com/2020/05/blog-post.html?m=1

               " कमरतोड़ चढ़ाईयाँ, तेरीयाँ भोलेनाथ "

              पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि किन्नर कैलाश के रास्ते में, हमें साढे़ चार घंटे चलते रहने के बाद सबसे पहले मिला वो "क्यूट" सा नागालैंड दीमापुर वासी नौजवान जिसका नाम  "अतिकुर रहमान"  सुनकर, मैं सोच में पड़ गया कि यह मुसलमान भाई किन्नर कैलाश की यात्रा पर कैसे....?
                         मेरे मन में उछल रहा यह सवाल मैंने बेबाकी से अतिकुर रहमान की तरफ उछाल दिया तो अतिकुर बोले- "नहीं-नहीं, मेरे पिताजी आसामी मुस्लिम थे और मेरी मां नागालैंडी इसाई....तो, दोनों का प्रेम विवाह हुआ और मैं पैदा हुआ.....पर जब मैं छोटा सा था तो पिताजी गुज़र गए, सब रिश्ते-नाते टूटने के बाद मेरे साथ बस पिताजी का नाम ही जुड़ा रह गया...!"
                         यह सुनकर मेरे दिमाग में अब एक और सवाल एकदम से उछल कूद करने लगा- "तो, फिर आप किस धर्म का अनुसरण कर रहे हो...?"
                        "इसाई धर्म का"
यह सुन फिर मेरा दिमाग घनचक्कर बनने लगा कि इसाई होने के बावजूद भी यह बंदा किन्नर कैलाश क्यों जा आया, क्योंकि किन्नर कैलाश की अत्यंत कठिन यात्रा हम हिंदुओं की धार्मिक यात्रा है। शायद उस वक्त मेरे दिमाग पर अनजाने में ही सही मेरा हिन्दूपन हावी सा होने लगा था.... तो एकदम से अतिकुर की तरफ अपना सवाल उछाल देता हूँ- " तो आप किन्नर कैलाश कैसे जा पहुँचे भाई...?"
                      मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी का विद्यार्थी हूँ और अभी शिक्षा पूर्ण होने के बाद हिमाचल भ्रमण के लिए निकला हूँ....तो जब मैं दिल्ली से बस में बैठ रिकांगपिओ आ रहा था, तो बस में ही मेरे साथ बैठे एक रिकांगपिओ के स्थानीय निवासी से हुई बातचीत में पता चला कि रिकांगपिओ में भी नागालैंड से एक सज्जन रहते हैं। तब मैं घूमते-घुमाते उनके घर भी जा पहुँचा, उन्होंने ही मुझे अपने घर की छत से पहली बार किन्नर कैलाश शिला दिखाकर कहा कि यह किन्नर कैलाश है, यहाँ भी लोग जाते हैं। मेरी दिलचस्पी बढ़ गई कि वहाँ कैसे पहुँचा जा सकता है, तो उन्होंने मुझे वहाँ जाने का रास्ता बताया। अगले दिन रिकांगपिओ से सुबह-सुबह मैं चल पड़ा बिना किसी तैयारी के, ना मुझे इस बात का ज्ञान था कि यह ट्रैकिंग इतनी मुश्किल होगी....ना किसी से बात हो पाएगी इस ट्रैक पर क्या करना है, क्या नहीं....और पहले ही दिन बहुत बारिश हुई, जैसे-तैसे कर मैं रात होने तक गणेशपार्क(मलिंगखट्टा) पहुँच कर, वहीं एक ढाबे वाले के पास रुक गया। तो उसी ढाबे वाले ने मुझे सलाह दी कि आपको कल ढाई-तीन बजे तक अंधेरे में ही किन्नर कैलाश के लिए आगे चलना होगा, तांकि समय पर ही आप किन्नर कैलाश पहुँचकर वापस उतर सको, क्योंकि दोपहर के बाद वहाँ पर मौसम का कोई भरोसा नहीं। पर मैं सोया ही लेट था तो आधी रात के ढाई बजे कहाँ उठ सकता था, तो आगे जाने के लिए तड़के लेट ही उठ पाया, पांच बजे.....और, हड़बड़ाहट में बिना कुछ खाए-पिए आगे बढ़ लिया। मेरे दिमाग में यह भी नहीं था कि पीने वाले पानी का एकमात्र स्रोत रास्ते में आने वाला झरना है, बाकी पार्वती कुंड का पानी मुझे पीने लायक नहीं लगा। दोपहर के बाद 3बजे किन्नर कैलाश पहुँचा, तो मौसम खराब होने लगा। वापसी करते हुए मैं पार्वती कुंड पर रास्ता भटक गया, क्योंकि मैंने कुछ खाया भी नहीं था.... सो मेरी हालत बहुत खराब हो चुकी थी, लेकिन मेरे दिमाग में यह बात घर कर गई कि यदि तुझे यहाँ से  "जिंदा"  निकलना है, तुझे हर हालत में आज गणेश पार्क वापस पहुँचना ही पड़ेगा.... क्योंकि खाना तो वहीं मिल सकता है, सो मैं अकेला ही चलता रहा, चलता रहा भूखा-प्यासा....आखिर रात के साढे़ नौ बजे गणेश पार्क पहुँच ही गया, वहाँ खाना मिला... जान में जान आई। मेरी कुछ भी प्लानिंग नहीं थी किन्नर कैलाश आने की, बस ऐसे ही मुँह उठाकर चल दिया और अब वापसी कर रहा हूँ।
                
                       सारी बात सुन, मैने अतिकुर से वो ही सवाल फिर से पूछा कि किन्नर कैलाश आने का मुख्य कारण क्या है आपका, सिर्फ ट्रैकिंग या कुछ और भी...?
                      "जी हां,  मुझे ट्रैकिंग के साथ-साथ फोटोग्राफ़ी का भी बहुत शौंक है इसलिए मैं किन्नर कैलाश आ गया " अतिकुर ने जवाब दिया।
                       चलते-चलते मैंने अतिकुर से आखिरी सवाल पूछा- "यह तो बताइए कि आप तंगलिंग गाँव कैसे पहुँचे थे, झूले में बैठ सतलुज को पार किया था या सड़क द्वारा...?"
                      "जब सुबह-सुबह मैं रिकांगपिओ में बस के इंतजार में था, तो एक बाइक वाले से मुझे लिफ्ट मिल गई....उन्होंने मुझे झूले के आगे उतार कर कहा कि झूले में बैठकर चले जाओ और मैं झूले में बैठकर के पार हो गया..!"
                        मैंने हंसते हुए अतिकुर रहमान से विदा लेते हुए कहा- "फिर तो यार आपने इस यात्रा के सारे रंग ही देख लिये, बहुत खूब...!!"   और जय किन्नर कैलाश बोल कर हम अपने-अपने रास्ते कम करने के लिए आगे बढ़ गए।
                      अतिकुर रहमान के जाने के बाद मेरे दिमाग में यह प्रश्न उठा कि यदि अब कोई तुझे पूछे कि तू किन्नर कैलाश क्यों जा रहा है जबकि तू भी नास्तिक सोच का प्राणी है.......उससे तो बड़ा उछल-उछल कर पूछ रहा था, दे जवाब अब पहले अपने आप को ही...!!!!!
                    अपने-आप से ही किए इस उलझनदार सवाल का जवाब मुझे अपने-आप को ही देते नहीं बन पा रहा था.....खैर, चंद क्षण सोच कर अपने-आप को प्रत्युत्तर देता मन ही मन कहता हूँ- "हां मैं नास्तिक हूँ.....किन्नर कैलाश जाना भी मेरे पर्वत प्रेम का परिणाम है! "   
                     तभी मेरी अंतरात्मा बोली - " यह वो अहम है जिसके वशीभूत हो तू पहाड़ पर चढ़ता है.....याद कर विकास, तेरा यह अहम ही पिछले वर्ष श्रीखंड महादेव पर चकनाचूर हो गया था...!
                     अपने भीतर की आवाज़ सुन, मेरा मन अनहोनी से काँप उठा कि कहीं इस यात्रा पर भी फिर से मुझे मुँह की ना खानी पड़े...!!!   मेरा मन मेरे ही नास्तिक दिमाग को डांट कर चुप करा देता है......और मन ही मुझे एहसास करवाता है कि विधाता चाहता है कि तू किन्नर कैलाश यात्रा संपूर्ण करें, तभी तो तुझे वो रास्ते में ऐसे अजनबियों से मिलवाता जा रहा है जो तेरे पथ प्रदर्शक बनते जा रहे हैं, जैसे पहले भगवान सिंह भंडारी और अब अतिकुर रहमान।
                      पाठक दोस्तों, आप सोच रहे होंगें कि मैं कैसी उलझनदार बातें कर रहा हूँ,  कभी नास्तिक तो कभी आस्तिक......हां मैं दिमाग से तो उच्च दर्जे का नास्तिक ही  हूँ, पर भावनाओं से भरा मेरा मन हमेशा बीच भंवर में ही गोते खाता रहता है...!!
                     चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते मेरी खुद से हो रही वार्ता तब टूटती है जब मुझ से आगे निकले नंदू के पास मैं पहुँचता हूँ, जो रास्ते में आई एक छोटी सी गुफा के सामने दम लेने बैठा हुआ मुझे बोलता है- "देख विक्की, यह छोटी सी गुफा।"
                       मैं हांफते हुए अपना सिर हां में हिला देता हूँ। खड़ा-खड़ा ही कुछ दम लेता हूँ क्योंकि मैं ट्रैकिंग के दौरान कम ही बैठता हूँ, लेटने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। नंदू से अपनी रक्सैक की बाहरी जेब से बोतल निकलवा पानी के दो-चार घूंट पीता हूँ। पीछे मुड़कर देखता हूँ कि हम घाटी में बह रही सतलुज से काफी ऊपर पहुँच चुके हैं, इतना ऊँचा कि जिस पहाड़ पर हम सुबह से चढ़ रहे हैं....उसकी आधी ऊँचाई तक तो पहुँच चुके हैं और अपने अनुमान से ही नंदू को कहता हूँ कि इस पहाड़ के शिखर पर ही होगा "मलिंगखट्टा यानि गणेश पार्क" पर यह यात्रा आसान नहीं है, हर कदम चढ़ाई ही चढ़ रहा है... कहीं भी समतल रास्ता नहीं मिला और ना ही कहीं आगे मिलने की उम्मीद है.......और, भाई अभी मंज़िल बहुत दूर लगती है।
                        मैं अपनी तेज़ हृदयगति व साँस के सामान्य होने तक वहीं कुछ समय खड़ा रहता हूँ और फिर अपने मुँह में टॉफी डाल,  फिर से नंदू के साथ ऊपर की ओर चल पड़ता हूँ। कुछ मीटर ऊपर चढ़ने पर ही साँस फूलने लगता, सो हर दस-बीस मिनट बाद ही रुकना पड़ जाता।
                        साढे़ ग्यारह बजे चले थे, लगातार कमरतोड़ चढ़ाई मेरे शरीर से मेरी शक्ति छीन रही थी.....मुझे भूख का एहसास होने लगता है तो पगडंडी पर ही अपनी रक्सैक उतार बैठ जाता हूँ.....और कुछ बिस्कुट खा व पानी पी अपनी शक्ति को फिर से एकत्र करने की कोशिश करता हूँ। जबकि नंदू मस्त है, उसने एक बार भी नहीं बोला कि मैं थक रहा हूँ या मुझ से चढ़ा नहीं जा रहा। नंदू के इस प्रदर्शन को देख मैं मन ही मन खुश व हैरान हूँ क्योंकि ऐसी चढ़ाईयों पर अच्छे-अच्छों की जीभ बाहर निकल आती है, सो नंदू मेरे लिए एक मजबूत पर्वतारोही साथी साबित हो रहा है। बिस्कुट खा कर उसके खाली रैपर अपने कारगो बरमूडे की बाहरी जेब में घुसेड़ नंदू को बोलता हूँ- "क्योंकि.....हम यहाँ पहाड़ पर 'गंद डालने' नहीं आए...!!"
                         फिर से चले हुए अभी 15 मिनट ही हुए थे कि हमें ऊपर से आती हुई एक अधेड़ महिला दिखाई पड़ने लगी। उसकी चाल से प्रतीत हो रहा था कि उसकी सेहत खराब है, वह कुछ कदम चल रास्ते पर बैठ जाती। जब हम उसके पास पहुँचे तो मैंने सबसे पहले उनसे पूछा कि अभी गणेश पार्क कितनी दूर है...?
                        तो जैसे हर पहाड़ी कहता है- "बस थोड़ा और, ऊपर ही है...!"  ऊपर की तरफ उन्होंने इशारा कर कहा।
                    मैंने अपने सवाल को अपने हिसाब से बना फिर पूछा- "जितना हम तंगलिंग से यहाँ तक चढ़ आए हैं, उस हिसाब से अभी कितना बचता है गणेश पार्क...?"
                    "इस हिसाब से तो अभी आप को इतना ही और चलना है, गणेश पार्क पहुँचने के लिए।"
उत्सुकता वश मैं उनसे पूछ लेता हूँ कि आप कौन हो तो वह महिला बोली- "मेरे भाई 'सीताराम' का गणेश पार्क में ढाबा है, उसके पास गई थी हाथ बँटाने....पर मुझे दस्त लग गये सो अब धीरे-धीरे कर नीचे गाँव की तरफ उतर रही हूँ कि जाकर अपना इलाज करवा सकूँ।"
                       तो मैंने अपनी रक्सैक उतार, उसमें से दवाइयाँ निकाल उनको उसी समय खिलाते हुए कहा कि आपके गाँव पहुँचने से पहले ही आपके दस्त रुक जाएंगे और यह बाकी दवाई शाम को खा लेना। उन्होंने मुझे आशीष देते हुए कहा कि गणेश पार्क पहुँचकर मेरे भाई सीताराम के पास रुक जाना, एक ढाबा नीचे है और दूसरा ऊपर "निखिल टैंट हाउस" बाकी सारे ढाबे-टैंट बंद हो चुके हैं।
                        मैं फिर मन ही मन विधाता और अपनी किस्मत का शुक्रिया अदा करता हूँ कि तूने आज रात रुकने का हमारा ठिकाना तय कर दिया, क्योंकि सुबह से ही मन में चल रहा था कि मलिंगखट्टा पहुँचकर क्या होगा.....रहने- खाने की कुछ व्यवस्था होगी कि नहीं।
                        जैसे-जैसे हम पहाड़ के ऊपर की ओर चढ़ते जा रहे थे, देवदारों के कद छोटे होते जा रहे थे। उन विरले देवदारों के पार रिकांगपिओ-कल्पा के दूरदर्शन मन को सुकून सा दे रहे थे कि चाहे मैं एक वीरान जंगल में चला तो जा रहा हूँ, पर ये "मानव बसो चिन्ह" मुझे हौसला दे रहे थे कि तुम मानव बस्तियों के आसपास ही हो जैसे!!
                        चलते-चलते अपनी "तुंगमापी घड़ी" पर नज़र दौड़ाता हूँ तो हम समुद्र तट से 2810 मीटर की ऊँचाई पर आ चुके हैं।
                       आगे जा रहे नंदू को आवाज़ दे रोक कर उसके पास पहुँच कर बोलता हूँ- " तंगलिंग मतलब करीब 2000मीटर से चलकर 6घंटों में हम 800मीटर की चढ़ाई कर चुके हैं, इन 6घंटों में एक-डेढ़ घंटा यदि खाने-पीने व दम लेने का काट लूँ तो प्रति घंटा लगभग 200मीटर की सीधी चढ़ाई चढ़ना बहुत कठिन कार्य है....अच्छे-अच्छों के छक्के छूट जाए इस राह पर नंदू, इस यात्रा के प्रथम चरण में ही मुझे आभास हो चला है कि यह पदयात्रा 'श्रीखंड कैलाश' की पदयात्रा से कहीं ज्यादा कठिन जान पड़ती है, जबकि श्रीखंड कैलाश की यात्रा को कठिनतम यात्राओं की श्रेणी में रखा जाता है....श्रीखंड कैलाश यात्रा में आती 'डांडे की धार' की चढ़ाई से दुगनी-चौगनी मुश्किल चढ़ाई हम चढ़ रहे हैं नंदू सुबह से...!!"
             चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो तीन नवयुवक धड़ाधड़ चढ़ाई चढ़ते हुए हमारी ओर बढ़ते चले आ रहे थे। उनकी तेज़ चाल बता रही थी कि वह तीनों स्थानीय ही है। पास आने पर हम में शिव-भोले के जयकारे का आदान-प्रदान होता है। उन तीनों में से एक युवक नंगे पैर यात्रा कर रहा था,  बातचीत शुरू हुई तो उन में से एक नवयुवक बोला- "जी हां, हम तीनों दोस्त किन्नर कैलाश जा रहे हैं.....मैं 'आशीष नेगी' गाँव तंगलिंग से, यह 'आकाश' पडसेरी गाँव से और यह 'सोनू'  तेलिंगी गाँव का।"
            "तो फिर आज आप लोग कहाँ रुकेंगे?" मैं आशीष नेगी से पूछता हूँ।
                          "हम आज आराम-आराम से गुफा तक पहुँच जाएंगे, रात वहीं काटेंगे और कल तड़के ही वहाँ से किन्नर कैलाश चल देंगे।" आशीष बोला।
                          और, वह तीनों हंसते-गाते दोस्त हमारी आँखों से देखते ही देखते ओझल हो गए....जबकि उस 50-60 डिग्री की कमरतोड़ चढ़ाई पर हर कदम, हमें नए दम हो चढ़ना पड़ रहा था। पिछले दो घंटे से मुझे सामने की तरफ बर्फ से लबालब एक गिरिराज के दर्शन होते जा रहे थे, गिरिराज पर  "गिरगिटी बादल"  अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश में मगन थे......गिरगिटी बादल इसलिए कह रहा हूँ कि उन बादलों ने गिरिराज की बर्फ के सफेद रंग जैसा ही अपना रंग बना रखा था, कई बार भ्रम हुआ कि यह बादल है या बर्फ...!!
                       दोपहर का एक बजने को हो रहा था, चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते हम दोनों आगे दिख रही उस जगह पहुँचने वाले हैं....जहाँ मध्य प्रदेश से आए दो सज्जनों का गाइड उनसे आगे नीचे उतर कर, पत्थर पर बैठा उनका इंतजार कर रहा है। हमारे वहाँ पहुँचते-पहुँचते वे दोनों सज्जन भी वहाँ पहुँच जाते हैं। मैं उत्सुक हो उनसे पूछता हूँ कि दर्शन हो गए भाई...?
                        तो वे बोले- "हमने गणेश पार्क से ही किन्नर कैलाश शिला के दूर से ही दर्शन कर माफी मांगते हुए माथा टेक दिया भाई, बहुत मुश्किल है यह यात्रा....हम कल बड़ी मुश्किल से पहुँचे थे गणेश पार्क तक, उससे आगे का रास्ता तो और भी मुश्किल और खतरनाक है....तो हमने गणेश पार्क से ही वापसी करने में अपनी भलाई समझी, वैसे हम अभी मणिमहेश कैलाश की यात्रा करने के बाद किन्नर कैलाश की यात्रा पर आए हैं, हम तो मणिमहेश की यात्रा को बहुत मुश्किल समझे थे परंतु यह यात्रा तो मणिमहेश की यात्रा से कई गुणा मुश्किल यात्रा है।"
                        उनकी बात सुन मैं कहता हूँ- "वैसे बुरा ना मानना भाई, मैं मणिमहेश यात्रा को  'पिकनिक'  ही कहता हूँ क्योंकि हम सब लोगों ने इस यात्रा को गर्मियों की छुट्टियों में मनाई जाने वाली पिकनिक ही बना लिया है, यात्रा तो यह पहले हुआ करती होगी....जब स्थानीय लोग हर वर्ष के निश्चित दिन पर मणिमहेश डल पर पहुँच उसमें पवित्र स्नान किया करते थे, इसीलिए इस यात्रा को 'न्यौण यात्रा' कहा जाता है......परंतु धीरे-धीरे इस यात्रा का व्यवसायीकरण होता गया, मैदानों से पहुँचे हम जैसों ने अपनी सुख-सुविधाओं के सारे यंत्र-मंत्र भी वहाँ पहुँचा दिए........खैर अच्छा तो है जो अपनी टांगों के दम पर वहाँ नहीं जा सकता, वह पैसे के दम पर वहाँ पहुँच सकता है.... पर हमारे बुजुर्गों ने क्या इसलिए ही ऐसी दुर्गम व दुष्कर यात्राओं का चलन आरंभ किया था, इन कमरतोड़-चुनौतीपूर्ण धार्मिक यात्राओं के चलन के पीछे अपने अहम को तोड़ना, अपनी आस्था की चरम सीमा प्राप्त करना और अपनी शारीरिक समर्था की सीमाएँ जांचना या उन्हें लांघ जाना, मुख्य उद्देश्य रहा होगा.......अभी यह किन्नर कैलाश पदयात्रा अपनी प्राचीनता लिये हुए ही है, पर धीरे-धीरे यह सुलभ होती जाएगी....हर मोड़ पर ठंडे की बोतल मिलने लगेगी, नए आसान रास्ते बनने लगेंगे, लोह-हंस भी उड़ने आ आएंगे यहाँ पर.....आप दोनों मित्र यह मत सोचें कि आप लोग दूर से किन्नर कैलाश भगवान को माथा टेक गणेश पार्क से वापस आ गए, अरे भाई किन्नर कैलाश शिला को तो रिकांगपिओ-कल्पा से भी देख कर माथा टेका जा सकता है....मैं तो आप दोनों की दाद देता हूँ कि मध्य प्रदेश से मणिमहेश आकर यात्रा संपूर्ण कर, आप लोग किन्नर कैलाश यात्रा पर चल दिये......आपने अपनी शारीरिक समर्था की सीमाओं को बखूबी लांघा है, ये यात्राएँ हमें यही तो सीख देती हैं और हम में एक नव ऊर्जा का संचार कर जाती है दोस्तों।"
                          मेरा "सत्संग" सुन वे हमें शुभ यात्रा की शुभकामनाएँ देकर नीचे उतरने लगे और हम ऊपर की ओर चढ़ने लग पड़े। परंतु हर बार की तरह मेरे साथ चला नंदू, हर बार की तरह ही मेरे आगे-आगे चलता हुआ मुझसे बहुत दूर पहुँच गया, क्योंकि एक तो उसका भार 58किलो और मेरा 75 किलो....उस पर नंदू की रक्सैक से दुगना भार मेरी रक्सैक का, वह इसलिए कि मैंने अपनी पीठ पर इस दुर्गम यात्रा में काम आने वाली हर चीज़ को लाद रखा है... यहाँ तक कि आग जलाने के लिए सूखी लकड़ियों के दो बंडल भी मेरी रक्सैक में थे।
                     मैं इस बार ज़ोर से आवाज़ लगा नंदू को रोकता हूँ और उसके पास पहुँचकर गुस्से से कहता हूँ- "यदि इस घने जंगल में तुझे अकेला जान भालू पकड़ ले, तो मैं इतनी दूर से तेरे लिए क्या कर पाऊँगा और यदि मेरा पैर फिसल जाए और मैं किसी चट्टान पर लटक जाऊँ तो तू मेरे किसी काम का नहीं....!!!!!
                                         (क्रमश:)



वो "क्यूट" सा नागालैंड दीमापुर वासी नौजवान  "अतिकुर रहमान"  

 चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते मेरी खुद से हो रही वार्ता तब टूटती है जब मुझ से आगे निकले नंदू के पास मैं पहुँचता हूँ, जो रास्ते में आई एक छोटी सी गुफा के सामने दम लेने बैठा हुआ मुझे बोलता है- "देख विक्की, यह छोटी सी गुफा।" 

पीछे मुड़कर देखता हूँ कि हम घाटी में बह रही सतलुज से काफी ऊपर पहुँच चुके हैं, इतना ऊँचा कि जिस पहाड़ पर हम सुबह से चढ़ रहे हैं....उसकी आधी ऊँचाई तक तो पहुँच चुके हैं।
                           
लगातार कमरतोड़ चढ़ाई मेरे शरीर से मेरी शक्ति छीन रही थी.....मुझे भूख का एहसास होने लगता है तो पगडंडी पर ही अपनी रक्सैक उतार बैठ जाता हूँ.....और कुछ बिस्कुट खा व पानी पी अपनी शक्ति को फिर से एकत्र करने की कोशिश करता हूँ। 

बिस्कुट खा कर उसके खाली रैपर अपने कारगो बरमूडे की बाहरी जेब में घुसेड़ नंदू को बोलता हूँ- "क्योंकि.....हम यहाँ पहाड़ पर 'गंद डालने' नहीं आए...!!"

रास्ते में मिली बीमार महिला को दवाई देते हुए।


     जैसे-जैसे हम पहाड़ के ऊपर की ओर चढ़ते जा रहे थे, देवदारों के कद छोटे होते जा रहे थे। 

  चलते-चलते अपनी "तुंगमापी घड़ी" पर नज़र दौड़ाता हूँ तो हम समुद्र तट से 2810 मीटर की ऊँचाई पर आ चुके हैं।

मुझ से बहुत आगे निकल जाते नंदू को आवाज़ दे कर रोकता हूँ।

सतलुज घाटी का विहंगम दृश्य।

उन विरले देवदारों के पार रिकांगपिओ-कल्पा के दूरदर्शन मन को सुकून सा दे रहे थे कि चाहे मैं एक वीरान जंगल में चला तो जा रहा हूँ, पर ये "मानव बसो चिन्ह" मुझे हौसला दे रहे थे कि तुम मानव बस्तियों के आसपास ही हो जैसे!!

 "जी हां, हम तीनों दोस्त किन्नर कैलाश जा रहे हैं.....मैं 'आशीष नेगी' गाँव तंगलिंग से, यह 'आकाश' पडसेरी गाँव से और यह 'सोनू'  तेलिंगी गाँव का।"

कमरतोड़ चढ़ाई।

उस 50-60 डिग्री की कमरतोड़ चढ़ाई पर हर कदम, हमें नए दम हो चढ़ना पड़ रहा था। 

मध्य प्रदेश से आए वो दोनों मित्र, उनका गाइड और हम।

                                     
मध्य प्रदेश के इन दोनों सज्जनों के नाम, मैं भूल चुका हूँ...यात्रा के समय जो पाकेट डायरी मेरे पास थी, जिन पर इनका भी नाम लिखा था...वो डायरी बदकिस्मती से खो चुकी है।


जैसे-जैसे हमारे कदम ऊपर चढ़ते जा रहे थे, नीचे सतलुज घाटी का विहंगम दृश्य और ज्यादा खूबसूरत होता जा रहा था।

नयनसुख देता यह नज़ारा, कितना प्यारा..!

पहाड़ पर बसे रिकांगपिओ का दृश्य।

 चलते-चलते हर बार नंदू मुझ से बहुत दूर निकल जाता, तो मैं ऊँची आवाज़ में शिव भोले का जयकारा लगा....उसके उत्तर की प्रतीक्षा करता।

"कमरतोड़ चढ़ाईयाँ....तेरी भोलेनाथ!"
                                       
 मैं इस बार ज़ोर से आवाज़ लगा नंदू को रोकता हूँ और उसके पास पहुँचकर गुस्से से कहता हूँ- "यदि इस घने जंगल में तुझे अकेला जान भालू पकड़ ले, तो मैं इतनी दूर से तेरे लिए क्या कर पाऊँगा और यदि मेरा पैर फिसल जाए और मैं किसी चट्टान पर लटक जाऊँ तो तू मेरे किसी काम का नहीं....!!!!!

             (अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें)

23 टिप्‍पणियां:

  1. नास्तिक मत बोलो अपने आपको , भोले को पूजते हो और खुद को नास्तिक बोलते हो। खतरनाक चढ़ाई जय भोले👏

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    1. नहीं, मैं सिरे का नास्तिक ही हूँ....बस अपनी नास्तिकता ज़ाहिर नहीं करता जी।

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  2. Bhut aacha yatra vartant vikas ji .....Aap ne ghar baathe hi kinnar kalash ke darshan karwa deye.
    Jai bhole naath ki....aagle bhaag ka intzar rhega

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  3. ਵਾਹ ਨਜ਼ਾਰਾ ਆ ਰਿਹਾ ਜੀ ਪੜ੍ਹਨ ਦਾ

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  4. विकास जी आप यात्रा का विवरण बड़े दिलचस्प तरीके से लिखते हो पड़ने मै मज़ा आ जाता है भोले बाबा का बुलावा किस्मत वालो को ही आता है मै हर साल यात्रा कि सोचता हूं तभी हर बार कोई अर्चन आ जाती है जय भोले की

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    1. जय भोलेनाथ, कोशिश करना मत छोड़ना जी....आपको अवश्य यात्रा की प्राप्ति होगी जी।

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  5. ग़ज़ब अनुभव लिखा हैं आपने....अतिकुर रहमान की बाते हो या फिर अतिकुर रहमान के दिल्ली से काल्पा peo होते हुए यहाँ आने उसका भटकना पानी का न होना बहुत रोमांचक है....उस महिला को आपने दवाई देकर अच्छा किया....75 किलो का बैग बाप रे ....लकड़ी भी....मध्य प्रदेश वालो को आपका दिया सत्संग हमेशा याद रखेंगे वो...बेहतरीन से बेहतरीन लेखन....

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    1. प्रतीक जी, 75 किलो का बैग नहीं.....बल्कि 75किलो तो मेरा वजन है, जो नंदू के वजन से 17किलो ज्यादा था, ऊपर से मेरी पीठ पर रक्सैक का वजन जो 18-20 किलो तो होगा ही.....इसीलिए मैं नंदू से पिछड़ जाता।

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  6. Wah wah jai Bhole
    Bahut hi sunder sajeev yatra ka warnan kiya hai aapne.pics bhi behatareen hai

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  7. बहुत बढ़िया भाई , आस्तिक और नास्तिक के भंवर में फंसे अंतर्मन की दुविधा का बखूबी चित्रण किया आपने।
    नंदू का आपसे तेज चलना दर्शाता है कि वाक़ई उनके अंदर बढ़िया ट्रेकर छुपा है।
    ऐसी दुर्गम यात्रा में मेरे प्रदेश के 2 लोग मिले ....
    अच्छा लगा पढ़कर.... हाँ उनका वहां तक ना पहुँच पाने पर कुछ निराशा जरूर हुई।
    जिनको ऊपर वाले का बुलावा होगा वही पंहुच पाएगा बाकि दूर से तो भगवान् सभी को दर्शन दे ही रहे हैं।

    नंदू का साथ साथ चलना जरूरी है ताकि ऐसे दुर्गम रस्ते पर किसी अनहोनी में एक दूसरे का सहारा बन सके।

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    1. सुमधुर आभार मनोज जी, आपने मेरे मन की व्यथा को बखूबी पढ़ डाला, जी।

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  8. आपके यात्रा विवरण को पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे आपके साथ मैं भी यात्रा कर रहा हु। अच्छा तो ये लगा कि इतनी कठिन चढ़ाई पर भी आप रास्ते मे लोगो से मिलते हुए, बातचीत करते हुए और सहायता भी करते हुए आगे बढ़ रहे थे।
    अतिसुन्दर लेख।

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    1. बेहद धन्यवाद अभिषेक जी, मेरे हमसफ़र बनने के लिए जी।

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  9. अति सुन्दर यात्रा व्रतांत, जय भोले नाथ 🔱

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  10. Bhai shab aisa lagta h jaise aaap jaan k khud ko nastik saabit karne me lage hai,,, itna kuch anubhav karne k baad bhi aap kisi shakti ko mehsus krne k baad bhi aap nakar rahe ho. Main aapki trekking k liye nhi asstha ki vjah se pad rha hu.. trekking k liye aur b pahadiya hai. Bholeynath ki jai b bolte ho aur unka astitva nakarte bhi ho. Maaf karna bura laga ho kuch to... par nastik bol k yaatra ki ekagrta bhang kar dete ho aap

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  11. Bhai shab aisa lagta h jaise aaap jaan k khud ko nastik saabit karne me lage hai,,, itna kuch anubhav karne k baad bhi aap kisi shakti ko mehsus krne k baad bhi aap nakar rahe ho. Main aapki trekking k liye nhi asstha ki vjah se pad rha hu.. trekking k liye aur b pahadiya hai. Bholeynath ki jai b bolte ho aur unka astitva nakarte bhi ho. Maaf karna bura laga ho kuch to... par nastik bol k yaatra ki ekagrta bhang kar dete ho aap

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