शनिवार, 2 मई 2020

"मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

" मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"


        "उस भयानक-वीरान रास्ते पर सारा दिन मैं अकेला ही चलता हुआ जब "किन्नर कैलाश" शिला तक पहुँचा, तो मुझ 'नास्तिक' की आँखों में अश्रु धारा फूट पड़ी....मानो जैसे मैं भगवान शिव के चरणों को अपने आँसुओं से धो रहा हूँ...!!"
              
                        2017 की गर्मियाँ आते ही, मेरे घुमक्कड़ ह्रदय के एक कोने में हमेशा सुलगते रहते पर्वतारोहण के अनबुझे अंगारे फिर से गर्म हो दहकने लग पड़े थे कि...चल रे विकास, फिर से हिमालय देव की शरण में...जहाँ पिछले वर्ष "श्रीखंड कैलाश महादेव" ने अपनी लीला रचा, तेरी पर्वतारोहण की कथित अकड़ को तोड़-मरोड़ कर तुझे बगैर दर्शनों के लौटा दिया था। तब से मैं सिर पर चोट खाये सर्प की तरह छटपटा रहा था, परंतु ना जाने क्यों मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि फिर से श्रीखंड कैलाश चल दूँ...!  शायद दिल में डर बैठ चुका था कि यदि दूसरी बार भी श्रीखंड शिला तक पहुँचने में असफल रहा, तो पिछली बार अकड़ टूटी थी...अब की बार मनोबल भी टूट जाएगा।
                      खैर, मन के बे-लगाम अश्वों को कोई थाम सका है भला अब तक, सो मेरे भी ख्याली अश्व कहाँ थम रहे थे। कभी धौलाधार हिमालय के पर्वतों पर चढ़ जाते, तो कभी पीर-पंजाल होते हुए महान हिमालय के समक्ष मुझे लाकर खड़ा कर देते कि इस बार और कहाँ जाऊँ....फिर एकाएक विचार उपजा कि श्रीखंड महादेव जाने के बाद प्रत्येक यात्री भगवान शिव को समर्पित एक और पदयात्रा करने को आतुर हो उठता है  "किन्नर कैलाश"
                  
                        सो, एक-दो दिन चल चुकी मन की ख्याली अश्व दौड़ के आवारा अश्व को मैंने किन्नर कैलाश यात्रा करने के लिए लगाम डाल दी। अब अपने चिरपरिचित पर्वतारोही संगी मेरे सांढू भाई "विशाल रतन जी" को अपने संग ले जाने के लिए जब उत्साहित हो फोन किया, तो ऊँची उड़ान भर चुके मेरे मन के उमंगी पंछी के पंख, विशाल जी की इंकार रूपी सूर्य की गर्मी ने झुलसा दिये हो....उन्होंने अपनी नौकरी के भंवर में उलझे होने के कारण मेरा साथ देने के लिए असमर्थता जताई। फोन बंद होने तक मेरे मन का उमंगी पंछी चाहे जमीन पर आ गिरा था, पर मरा नहीं था......सो अब तन को किन्नर कैलाश पहुँचाने का जिम्मा दिमाग ने उठा लिया। क्योंकि मेरे घरवाले कभी भी मुझे अकेले किन्नर कैलाश नहीं जाने देते और अब तो विशाल रतन जी जैसे विश्वासयोग्य पर्वतारोही संगी मेरे साथ भी नहीं थे।
                         सोशल मीडिया पर चाहे कितने ही आभासी किरदार मेरे साथ चलने के लिए आतुर रहते हैं, पर मैं किसी भी अंजान व्यक्ति को कैसे ऐसी यात्राओं पर ले चलूँ जिन पर पर्वतराज आपको गलती सुधारने का दूसरा अवसर ही नहीं देते....या मैं कैसे उस व्यक्ति के साथ चल दूँ जो सिर्फ मेरा नाम व प्रोफाइल फोटो को पहचानता हो बस, और मैं कौन सा  "रोमांच का व्यापारी"  हूँ....जो अपने ग्राहकों को पीछे ले उन्हें रोमांच बेचूँ...!!!
                         पहाड़ पर ऐसी दुर्गम यात्राओं पर किसी अंजान को साथ ले जाना और किसी अनजान के साथ जाना दोनों ही संदेहास्पद और चुनौतीपूर्ण कार्य है....दोनों पक्ष एक-दूसरे के व्यवहार व शारीरिक क्षमताओं से ना- वाकिफ़ होते हैं और विडंबना तो यह भी है कि ये निर्मोही पर्वतराज हम मानवीय चेहरों पर चढ़े झूठे मुखौटों को तोड़ने में माहिर होते हैं।
                          सो, अब मैं ऐसा संगी खोज रहा था जो मेरे शहर "गढ़शंकर" (पंजाब) से ही हो....ताँकि हम दोनों एक-दूसरे को भलिभांति जानते हो और भविष्य में भी की जाने वाली ट्रैकिंगों में मुझे एक विश्वस्त साथी मेरे नजदीक ही मिल जाए।
                         आखिर अपनी खोज का दरवाज़ा जा खटखटाता हूँ उस बंदे का जो मुझे कई बार कह चुका है कि तू मुझे अपने साथ लेकर चल कभी, विक्की...!!!
                          जी हां, मेरा लघु नाम "विक्की" है....और लघु नाम से व्यक्ति अक्सर कहाँ पुकारा जाता है, घर- रिश्तेदारों में, मुहल्ले में या बचपन के यारों में।
                          जब मैं स्कूल में पढ़ता था तो बचपन में स्कूल से बाहर हर किसी को अपना निक नेम या कच्चा नाम ही बताता, क्योंकि अपना पक्का नाम "विकास नारदा"  मुझे खुद पर ही जचता हुआ नहीं महसूस होता था और अब इस उम्र में पहुँचकर, मैं अपना पक्का नाम ही नये मिलने वाले लोगों को बताता हूँ। यह नाम भी क्या अजब चीज़ है दोस्तों, हर किसी व्यक्ति की प्रिय चीजों में उसका सर्वाधिक प्रिय उसका नाम ही तो होता है.....यदि मैं आपको कहूँ कि यह लो लाख रुपये, अपना नाम आप मुझे बेच दो....!
तो आप झट से मुझे मना कर देंगे, क्योंकि यह नाम ही तो आपकी और मेरी पहचान है ना.... दोस्तों!
                       खैर, मुझे "विक्की" संबोधन करने वाला मेरा मुहल्लेदार "नंदू"  है और इसका भी एक पक्का नाम है "दीक्षित नैय्यर" 
                         मेरी गली की शुरुआत में ही नंदू की बजाजी(कपड़े) की दुकान है, हम दोनों ही एक-दूसरे को बचपन से जानते हैं। नंदू में भी घुमक्कड़ी के जीवाणु मौसमी बुखार की तरह उभर आते हैं, जब हर वर्ष हम दुकानदारों को गर्मियों की छुट्टियाँ होती हैं। नंदू हमेशा मेरी घुमक्कड़ी के किस्सों का एक आदर्श श्रोता रहा है। नंदू द्वारा अमरनाथ यात्रा व 2016 में अपनी पत्नी व बच्चों समेत जून महीने में मणिमहेश की पदयात्रा कर आने से मेरे मन में एक आस जाग चुकी थी कि नंदू तेरा पर्वतारोही संगी बन सकता है और इसका भी मेरी तरह कोई भी "बॉस" नहीं है, जिससे छुट्टियाँ रूपी अमृत पाने के लिए घनघोर तपस्या करनी पड़े।
                         उस शाम जब मैं जिम से वापस घर को आ रहा था, तो नंदू की दुकान पर रुक जाता हूँ। नंदू अभी-अभी एक सूट लेकर गई महिला ग्राहक के जाने के बाद अपने इर्द-गिर्द लगे सूटों के पहाड़ रूपी थानों को लपेट रहा था।
                       "चल नंदू, तुझे किन्नर कैलाश लेकर चलता हूँ!" कपड़े का थान लपेटते नंदू के हाथ एकाएक थम जाते हैं, वह अवाक् सा मुझे देख रहा है....और, कहता है-"अच्छा, तुम्हें कल बताऊँगा...!"
                       अगली शाम, मैं स्वार्थी यार..... फिर नंदू की दुकान पर,  मुझे देख नंदू चहक उठा.....मैं उसका चेहरा पढ़ गया कि काम बन गया प्यारे!!
                       "कब जाना है"  के प्रश्न का उत्तर देने की बजाय मैंने नंदू की तरफ वो प्रश्न उछाल दिया जो कल से मेरे ज़ेहन में घूम रहा था- "तू कहता था कि कल बताऊँगा, क्या भाभी से पूछ कर आया है...?"
                       नंदू हल्की सी हंसी हंस धीरे से बोला-"उसको मैंने अभी बताया ही नहीं, जाने से कुछ समय पहले ही बताऊँगा तो अच्छा रहेगा....बाकी तुम खुद समझदार हो...!!"
                       जाने की तारीख़ पर नंदू से कहता हूँ कि वैसे तो हर वर्ष 1अगस्त से 15अगस्त तक प्रशासनिक तौर पर किन्नर कैलाश की पदयात्रा हिमाचल प्रदेश के किन्नौर क्षेत्र में रिकांगपिओ कस्बे के पास तंगलिंग गाँव से शुरू होती है, परंतु हम प्रशासनिक यात्रा समाप्त होने के चार-पांच दिन बाद में जाएंगे ताँकि हमें कोई भीड़-भाड़ ना मिले.....और, मैं शायराना अंदाज में नंदू की तरफ हाथ कर बोलता हूँ- "ले यार सफ़र शुरू हो गया, मेरा हमसफ़र तू हो गया..!"
                      नंदू कहता है- "अभी कहाँ सफ़र शुरू हुआ विक्की, अभी तो कई दिन पड़े हैं यार।"
                     "ओ यारा नंदू....जब मन में धारण कर लो तब से ही सफ़र शुरू हो जाता है, तन के सफ़र करने से पहले मन तो सफ़र करना आरंभ ही कर देता है....दिमाग जुट जाता है सफ़र की तैयारियाँ करने में,  तू भी अपनी तैयारियाँ शुरू कर दें....यह सफ़र भगवान शिव को समर्पित अमरनाथ या मणिमहेश यात्रा सा नहीं है कि तुझे जगह-जगह पर लंगर या सुख-सुविधाएँ मिलती रहे, यह पदयात्रा तो अति कठिन मानी गई श्रीखंड कैलाश यात्रा से चाहे आधी दूरी की ही है....पर श्रीखंड कैलाश यात्रा की तुलना में यह यात्रा उससे दुगुनी-तिगुनी कठिन है, क्योंकि इस यात्रा पर मौजूद सुविधाएँ नाममात्र की हैं....श्रीखंड कैलाश यात्रा पर शुरू से लेकर अंत तक रहने-खाने की सुविधा उपलब्ध होने से पदयात्री को सहुलियत मिलती रहती है, पर मैंने सुना है कि किन्नर कैलाश यात्रा में पहले दिन पदयात्री को पीने वाला पानी भी नीचे से भरकर साथ ही ढ़ोना पड़ता है, लगभग 10किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़ने के बाद पदयात्री को रास्ते में आया पानी का एक झरना मिलता है.....और, जब मैं जून 2015 में रिकांगपिओ-कल्पा भ्रमण पर गया था, तब कल्पा से सामने दिख रही किन्नर कैलाश शिला को देख मंत्रमुग्ध हो गया था,  वहाँ स्थानीय लोगों से इस ट्रैक संबंधी जानकारियाँ जुटाता रहा....एक बुजुर्ग ने बताया था कि तंगलिंग गाँव से पैदल चल यात्री एक प्राकृतिक गुफा में रात काट अगले दिन किन्नर कैलाश की ओर जाता है, तो भाई इस यात्रा पर हमें पूरी तैयारी व साजो-सामान के साथ जाना है इसलिए तुम ट्रैकिंग के उन मूलभूत उपकरणों व सामान को खरीदने की तैयारी करो...!"
                      मेरी बात सुन नंदू ने कहा- "ट्रैकिंग का सामान क्या खरीदना, ऐसे ही चल दूँगा तेरे साथ।"
                     "देख भाई नंदू....इस यात्रा को हल्के में मत ले, कम से कम तेरे पास ज़ीरो डिग्री में काम आने वाला अपना स्लीपिंग बैग तो होना चाहिए ना... बाकी सामान मैं देख लूँगा यार।"
                     अब तो हर दूसरे दिन की शाम मेरा अड्डा नंदू की दुकान बन जाती है। पर भाभी जी के सामने हम दोनों किन्नर कैलाश की यात्रा संबंधी कोई भी वार्ता नहीं करते। तय तारीख़ से चार दिन पहले नंदू अपने मोटरसाइकिल पर  लुधियाना में स्थित  "डिकेथलॉन"  पर जाकर ज़ीरो डिग्री का एक बढ़िया स्लीपिंग बैग और एक ट्रैकिंग स्टिक खरीद लाया। शाम को जब मैं नंदू की दुकान की सीढ़ियों पर अपना पैर धरता हूँ तो मुझे देख भाभी जी के चेहरे पर आए उस भाव को क्षण भर में पढ़ लेता हूँ कि अब भाभी जी को मेरे चेहरे में  "प्रेम चोपड़ा"  नज़र आने लगा है।
                        यात्रा के तय दिन 20अगस्त 2017 के सूर्य चढ़ने से पहले हमें अपनी गाड़ी पर चढ़ना था, सो तड़के 3बजे मैं अपनी "एर्टिगा" ले गली के मोड़ पर खड़ा नंदू के घर की तरफ देख रहा हूँ। मेरी पत्नी "भावना" हमें रुखसत करने के लिए साथ खड़ी है। नंदू अपना सामान उठाए तेज़ी से गाड़ी की तरफ आते हुए मुझे जल्दबाजी में कहता है- "चल विक्की,चल-चल...!!"
                        भाभी जी के परेशान चेहरे को देख,मैं और भावना नंदू को साथ ले.....भाभी जी के पास जाते हैं और मैं कहता हूँ कि भाभी जी चिंता मत करें, नंदू अब मेरी जिम्मेवारी है...जैसा इसे लेकर जा रहा हूँ वैसा ही आपको वापस करूँगा।
                       भावना ने भाभी जी को ढांढस बंधाते हुए कहा- "ऐसी कोई भी परेशानी अपने मन में मत पालें, मुझे देखिए यह तो हर बार ऐसे ही जाते हैं...!!"
                       भाभी जी के चेहरे पर सुखद मुस्कान है, दोनों इकट्ठा खड़ी हमें विदाई दे रही हैं और मैंने भगवान शिव के जयकारे के साथ गाड़ी को आगे बढ़ा दिया।
                       गाड़ी के चण्डीगढ़ रोड पर चढ़ते ही नंदू ने कहा- " यार विक्की, कल रात मैंने गूगल पर देखा कि किन्नर कैलाश की समुद्र तल से ऊँचाई 6000मीटर से भी ज्यादा बताई गई है.....क्या हम इतनी ऊँचाई पर पहुँच पाएंगे कि नहीं....?"
                       "पहली बात तो नंदू....मेरा मानना है कि गूगल पर मौजूद किन्नर कैलाश शिला की ऊँचाई 6000 मीटर गलत बताई गई है, क्योंकि मैंने खुद 2015 में कल्पा से खड़े हो किन्नर कैलाश पर्वत श्रृंखला को देखा है... किन्नर कैलाश शिला "जोरकंदें पर्वत" के शिखर पर नहीं बल्कि शिखर से काफी नीचे है,  हां उस जोरकंदें पर्वत या आसपास के पर्वत शिखर 6000मीटर से भी ज्यादा ऊँचे तो हो सकते हैं....पर किन्नर कैलाश शिला मेरे मुताबिक साढ़े चार हजार मीटर के आसपास ही होनी चाहिए, बाकी भाई मैं अपनी "तुंगतामापी घड़ी" (एल्टीमीटर यंत्र) को साथ लाया हूँ....तो वह दूध का दूध पानी का पानी कर देगी।"
                        गाड़ी के स्टीरियो पर मेरे पसंदीदा गायक "मन्नाडे साहिब"  के पुराने गाने बजते जा रहे थे और मैं उनके संग गुनगुना रहा था। हम गढ़शंकर से शिमला की ओर चलते हुए अब 'पिंजौर' पार कर चुके हैं, नया दिन अंगड़ाइयाँ ले रहा है। 6बजे के करीब-करीब हम सोलन से पहले मुख्य सड़क को काटती कालका-शिमला की रेल पटड़ी को पार कर जाते हैं। मैं चाहता तो था कि हमें इस बार भी रेल का फाटक बंद मिले और शिमला को जाती खिलौना-रेल के दर्शन भी हो जाएं, परंतु हर बार आपके मन की कहाँ होती है...!
                         आधे घंटे के सफ़र के बाद वहाँ पहुँचकर रुक जाता हूँ...जहाँ हर बार ही रुकता हूँ, उस घाटी को देखने जिस में बसा "सोलन" शहर देखना मुझे हर बार भाता है, अब तो यह नज़ारा नंदू को भी दिखाना था ना दोस्तों।
                         गाड़ी में बजते जा रहे मन्नाडे साहिब के गाने सुन-सुन अब नंदू ऊब गया था, सो उसने अपनी जेब से एक पेन ड्राइव निकालकर स्टीरियो में फंसाते हुए कहा- "ये सब गाने मैंने चुन-चुन कर नेट से भरे हैं, विक्की!"
                        मैं अनचाही हंसी हंसता हूँ और मन ही मन बोलता हूँ- "अच्छा भाई अब तू सुन ले अपनी पसंद के गाने!"  नंदू अब मस्त है, अपनी पसंद के गानों पर मस्ती से गुनगुना रहा है और मैं....!!!"
                        सुबह के 7बज चुके थे और हर तरफ बादल ही बादल आवारागर्दी करते हुए दिखाई पड़ रहे थे.... सूर्यदेव अपनी सीढ़ि लगा आसमान पर काफी ऊँचे चढ़कर पृथ्वी को देख तो रहे होंगे.....पर पृथ्वी देवी ने भी उनसे अभी बादलों का घूँघट कर रखा था।
                         शिमला आने से बीस-तीस किलोमीटर पीछे हमें एक हरे-भरे पहाड़ पर बहुत सारी बहुमंजिला इमारतों का जमावड़ा दिखाई पड़ा,  वह एक यूनिवर्सिटी है.......पर मैं नंदू को कहता हूँ- "परंतु मुझे तो इन इमारतों को देख ऐसा लग रहा है जैसे मेरे निर्दोष पहाड़ को 'फोड़े' निकल आये हो....!"
                         8बजे हम आराम-आराम से शिमला के बीच में से गुज़र गए क्योंकि उस समय सड़कों पर खास भीड़भाड़ नहीं थी,  शिमला के दीदार को भी बादलों व धुँध ने धुँधला कर रखा था।
                         शिमला के गुज़र जाने पर मैं फिर से वहीं रुक कर अपनी फोटो खिंचवाने लगता हूँ,  जहाँ घने देवदारों के पेड़ों से पर्वत व घाटियाँ लबालब है.....हर बार वहाँ रुकता हूँ, पर इस जगह का नाम मालूम नहीं था। अभी पिछले वर्ष "खड़ा-पत्थर" भ्रमण के दौरान इस जगह का नाम मालूम पड़ा "हसन वैली" सचमुच यह वैली अपने नाम के अनुरूप ही बेहद हसीन है। जहाँ फोटो खींचते हुए मुझे झटका लगता है कि मेरा कैमरा ठीक से काम नहीं कर पा रहा, एकाएक चिंता होने लगी कि बगैर कैमरे के घुमक्कड़ी मतलब बिना नमक की सब्जी।
                        नारकंडा की तरफ जाते हुए हर बार की तरह "फागू"  फॉग(धुँध) में ही लिपटा दिखाई दिया, सड़क पर घूम रहे बादल देख मुझे ऐसा आभास हुआ कि मैं गाड़ी नहीं बल्कि बादलों में "पुष्पक विमान" उड़ा रहा हूँ जैसे। इस जगह का नाम सोच समझकर अंग्रेजों ने रखा था क्योंकि यहाँ पर हर वक्त धुँध (फॉग) ही छाई रहती है।
                         सुबह का नाश्ता "भावना"  ने जबरदस्ती मुझे बांध कर दे दिया था.....सो नंदू से कहता हूँ कि जहाँ से पहाड़ पर बसे सुंदर से कस्बे "ठियोग" के दर्शन होने शुरू हो जाएंगे....वहीं उसके सामने बैठ उस सुंदरता को देखते हुए हम नाश्ता करेंगे यार।
                        आखिर साढ़े नौ बजे हम उस जगह तक पहुँच जाते हैं और हम सड़क किनारे ठियोग की तरफ मुँह कर चौंकड़ी मार बैठ जाते हैं..... हमारे बीच में मेरी प्रिय प्राणेश्वरी द्वारा बनाए गए अति स्वादिष्ट राजमाँह-चावल सजे हुए थे और थर्मस में डाल कर दी गई चाय भी अभी गर्म थी।
                         वाह, अपने मनपसंद पहाड़ों में, अपनी मनपसंद जगह पर, अपने मनपसंद राजमाँह-चावल के साथ और बाये हाथ की अगुंली में गर्म चाय का कप......परमानंद!!!!!!
                                             (क्रमश:)

किन्नर कैलाश पर्वत श्रृंखला की यह सुंदर तस्वीर मैने जून 2015 में रिकांगपिओ भ्रमण दौरान कल्पा से खींची थी, इससे ही मैने अनुमान लगाया था कि गूगल पर बताई जाती किन्नर कैलाश शिला की समुद्र तट से ऊँचाई 6000मीटर गलत है, तो यदि मान भी लेता कि किन्नर कैलाश शिला की ऊँचाई इतनी है, तो क्या पर्वत के बाकी शिखर "माउंट एवरेस्ट" से भी ऊँचे है...यह ही सोचने की बात थी।

लीजिए चित्रकथा का भी सफ़र शुरू हो गया,  6बजे के करीब-करीब हम सोलन से पहले मुख्य सड़क को काटती कालका-शिमला की रेल पटड़ी को पार कर जाते हैं। मैं चाहता तो था कि हमें इस बार भी रेल का फाटक बंद मिले और शिमला को जाती खिलौना-रेल के दर्शन भी हो जाएं, परंतु हर बार आपके मन की कहाँ होती है...!

वाह, क्या दिलकश मंजर है।

आधे घंटे के सफ़र के बाद वहाँ पहुँचकर रुक जाता हूँ...जहाँ हर बार ही रुकता हूँ, उस घाटी को देखने जिस में बसा "सोलन" शहर देखना मुझे हर बार भाता है।

   सुबह के 7बज चुके थे और हर तरफ बादल ही बादल आवारागर्दी करते हुए दिखाई पड़ रहे थे.... सूर्यदेव अपनी सीढ़ि लगा आसमान पर काफी ऊँचे चढ़कर पृथ्वी को देख तो रहे होंगे.....पर पृथ्वी देवी ने भी उनसे अभी बादलों का घूँघट कर रखा था। (गाड़ी चलते हुए ही मैने यह चित्र खींचा था)


  शिमला आने से बीस-तीस किलोमीटर पीछे हमें एक हरे-भरे पहाड़ पर बहुत सारी बहुमंजिला इमारतों का जमावड़ा दिखाई पड़ा,  यह एक यूनिवर्सिटी है।

                                     
यह देख, मैं नंदू को कहता हूँ- "परंतु मुझे तो इन इमारतों को देख ऐसा लग रहा है जैसे मेरे निर्दोष पहाड़ को 'फोड़े' निकल आये हो....!"

 शिमला के दीदार को भी बादलों व धुँध ने धुँधला कर रखा था।

शिमला में छाये हुए बादल।

     शिमला के गुज़र जाने के बाद नारकंडा रोड़ पर मैं फिर से रुक जाता हूँ,  जहाँ घने देवदारों के पेड़ों से पर्वत व घाटियाँ लबालब है "हसन वैली"

मैं "हसन वैली" में रुक कर हर बार की तरह ही अपनी फोटो खिंचवाने लगता हूँ।

"हसन वैली" की सुंदरता को अपने मोबाइल में भरने में मगन 'नंदू'

  नारकंडा की तरफ जाते हुए हर बार की तरह "फागू"  फॉग(धुँध) में ही लिपटा दिखाई दिया। इस जगह का नाम सोच समझकर अंग्रेजों ने रखा था क्योंकि यहाँ पर हर वक्त धुँध (फॉग) ही छाई रहती है। 

  सुबह का नाश्ता मेरी पत्नी "भावना"  ने जबरदस्ती मुझे बांध कर दे दिया था.....सो नंदू से कहता हूँ कि जहाँ से पहाड़ पर बसे सुंदर से कस्बे "ठियोग" के दर्शन होने शुरू हो जाएंगे....वहीं उसके सामने बैठ उस सुंदरता को देखते हुए हम नाश्ता करेंगे यार। उस अति सुंदर नज़ारा का प्रमाण मैं आपको वहाँ के खींचे चित्र के रुप में दे रहा हूँ, दोस्तों।

 आखिर साढ़े नौ बजे हम उस जगह तक पहुँच जाते हैं और हम सड़क किनारे ठियोग की तरफ मुँह कर चौंकड़ी मार बैठ जाते हैं।

हमारे बीच में मेरी प्रिय प्राणेश्वरी द्वारा बनाए गए अति स्वादिष्ट राजमाँह-चावल सजे हुए थे और थर्मस में डाल कर दी गई चाय भी अभी गर्म थी।

लो, अब तड़प लो....इन स्वादिष्ट राजमाँह-चावल को देख कर, दोस्तों...!!!
                 (अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )


मेरी साहसिक यात्राओं की चित्रकथाएँ.....
(१) "श्री खंड महादेव कैलाश की ओर" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(२) " पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(३) "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से....!" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(४) "चलो, चलते हैं सर्दियों में खीरगंगा" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(५) करेरी झील " मेरे पर्वतारोही बनने की कथा" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।



34 टिप्‍पणियां:

  1. शुरुआत शानदार है, बस इसबार ज्यादा इंतजार न करवाना भाई जी 🌹🙏

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    1. कोशिश करूंगा कि आगामी किश्तों को जल्दी ही लिखूँ, पर अच्छा लिखने के लिए समय लगता है उदय जी।

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  2. सोशल मीडिया पर चाहे कितने ही आभासी किरदार मेरे साथ चलने के लिए आतुर रहते हैं, पर मैं किसी भी अंजान व्यक्ति को कैसे ऐसी यात्राओं पर ले चलूँ जिन पर पर्वतराज आपको गलती सुधारने का दूसरा अवसर ही नहीं देते....

    बिल्कुल सही निर्णय, कोई कितना भी नजदीकी हो, यात्रा में एक अलग ही रँग निकल कर आता है बन्दे का, तो रिस्क लेना ठीक नहीं ।
    शानदार वृतान्त और नज़ारे

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    1. सुमधुर आभार कौशिक जी, मेरा समर्थन करने के लिए जी।

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  3. बहुत बढ़िया शुरुआत भाई ....
    लेख शुरू से आख़िर तक किसी अविरल धारा की भांति निरन्तर और निर्बाध रूप से बह रहा था....
    कहीँ कोई ठहराव नही।
    बेलगाम मन के घोड़ों को आखिर किन्नर कैलाश के लिए लगाम दाल ही दी आपने....
    वैसे एक दम सही फ़रमाया आपने कि किए भी यात्रा में पहले मन ही , मन ही मन यात्रा का आता है।
    बाद में तो केवल शरीर को घसीट कर ले जाना होता है।

    हाँ सहयात्री परिचित हो या दोस्त हो तो यात्रा अधिक सहज हो जाती हैं।
    वरना मेरे जैसे सहयात्री मिल जाए तो anil dixit और pratik Gandhi जैसा हाल हो जाता हैं। ����

    वैसे नंदू जैसे बचपन का यार मिल जाए तो यात्रा की बात ही कुछ और हो जाती हैं।
    नंदू के घर सीढ़ियों पर कदम रखते ही भाभीजी को आपमें प्रेम चोपड़ा नजर आया ...हा हा हा...मजा आ गया।

    निर्दोष पहाड़ों पर बहुमंजिला इमारते देख ऐसा लगता है जैसे पहाड़ों पर फोड़े निकल आए... दिल जीत लिया इस व्यंग्य ने भाई ....

    लेखन की बढ़िया शैली ...������
    अलग जी अंदाज ए बयां.....
    लेख में रोचकता बनाए रखता है।

    तो आप अपने पसंदीदा जगह पर भाभीजी के हाथ का राजमा चावल का आनंद लीजिए.... और हम अगली कड़ी का इंतजार करते हैं।

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    1. सुमधुर आभार मनोज जी....परन्तु आप और प्रतीक जी की जोड़ी को मैं "धर्म-वीर" सी जोड़ी मानता हूँ कि...."टूटें से भी ना टूटेगी यह धर्म-वीर जोड़ी, हो-हो, होsss-होsss"

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  4. जबरदस्त आगाज़। घूमने का जज्बा और लेखन की कला, दोनों मिल के गजब ढा ते हैं पाठक प्र।

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  5. बहोत मजा आ रहा है। शुरुआत में नंदूभैया का परिचय थोड़ा लंबा हो गया, वह छोटा होता तो अभी बहोत आगे, लंच तक पहोंच गए होते। मज़ाक कर रहा हूं। मजा आ रहा है।

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    1. Haha Haha .....परन्तु मैं तो आपको इतनी जल्दी किन्नर कैलाश भी पहुँचाने वाला नहीं हितेन जी, क्योंकि मैं अपने यात्रा वृतांत को लम्बा खींचने के लिए बदनाम हूँ जी।

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  6. आखिर इंतजार की घड़ियां खत्म हुई। हम भी साथ ही लटके हुए है ,जरा राजमा इधर भी खरकायो विक्की 😂😂😂

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    1. Haha Haha.....आप देर से आये, राजमा-चावल तो अब सारे ही घटक डाले जी।

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  7. मन की मुराद मिल गयी मुझे ...किन्नौर कैलाश की यात्रा का नाम सुनकर ही मन में झुरझुरी उठने लगती है ...आगे पढता हूँ

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  8. मैंने सोचा आप पूरी यात्रा लिख चुके हैं ...आनंद और रोमांच की पराकाष्ठा ...बेहतरीन यात्राओं में शामिल है किन्नौर कैलाश की यात्रा ..इंतज़ार रहेगा अगली पोस्ट का

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    1. बेहद धन्यवाद योगी जी, इस चित्रकथा को धारावाहिक के रुप में लिख रहा हूँ।

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  9. में कौनसा रोमांच का व्यापारी हु....आखिर आप हमें किंन्नर कैलाश के दर्शन करवाने ले ही जा रहे हो....नंदू को ले जाने में ऐसा लग रहा था जैसे नंदू कोई जंग पर जा रहा हो
    श्रीखंड कैलाश से 2 3 गुना कठिन किंन्नर कैलाश बाप रे
    मजा आने वाला है

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  11. बहुत़ ही सुंदर फोटोग्राफी के साथ शानदाऱ यात्रा शुरूआत। जय़ बाबा भोलेनाथ विकास जी। 🙏 🙏 🌹 🌹

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  12. बहुत सुंदर यात्रा विवरण और चित्र। हर हर महादेव

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  13. बहुत सुंदर यात्रा विवरण और चित्र। हर हर महादेव

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  14. बस मजा आ गया।लग रहा है कि मैं भी साथ में हूं ।जय किन्नर कैलाश

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  15. बस मजा आ गया।लग रहा है कि मैं भी साथ में हूं ।जय किन्नर कैलाश

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    1. बेहद धन्यवाद, मेरे हमराही बनने के लिए जी।

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  16. फेसबुक पर बहुतों को पढ़ा है, लेकिन जैसा आप वर्णन करते हैं
    ऐसा लगता है कि साथ में घूम रहा हूँ, कोरोना के चलते नवंबर 2019 से घर पर work from home चल रहा। तो आपके ब्लॉग पढ़ पढ़ कर घूम ले रहा हूँ।

    वैसे आप और आपके साढ़ू भाई दोनो ही भाग्यशाली हैं कि इतना अच्छा घुमक्कड़ जोड़ीदार एक दूसरे को मिला है। लिखते रहिए घूमते रहिए 🙏

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  17. विकास भाई, आपके लेख से प्रभावित होकर इस साल 3 अगस्त 2022 को किन्नौर कैलाश के दर्शन कर ही लिए, जय भोलेनाथ

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