रविवार, 11 फ़रवरी 2018

भाग-1 करेरी झील..... " मेरे पर्वतारोही बनने की कथा "


                  मित्रों जय हिंद..... इस नई धारावाहिक चित्रकथा में मैने एक नया प्रयास किया है,  कथा को लिखने के साथ-साथ...  खुद बोल कर भी आपको कथा सुना रहा हूँ, क्योंकि व्यस्त जीवन शैली में शब्दों को पढ़ने में भी समय लगता है। परन्तु अब आप जब चाहे मेरी कथा को सुन भी सकते हैं। आशा है कि मेरा यह प्रयोग आपको बेहद पसंद व सुविधाजनक लगेगा और मेरी नज़र में ब्लॉग पर यात्रा वृतांत सुनाने का प्रयास करने वाला शायद मैं पहला व्यक्ति हूँ।
                     लीजिए पेश है मेरी धारावाहिक चित्रकथा, करेरी झील..... " मेरे पर्वतारोही बनने की कथा " का मौखिक व्याख्यान........
         
                                         भाग-1    करेरी झील..... " मेरे पर्वतारोही बनने की कथा "

                                              मैंने अपनी जवानी व्यायाम शाला में लोहे से दो-दो हाथ कर, ताइक्वांडो मार्शल आर्ट के अभ्यास से अपनी हड्डियां तोड़वा और बाँसुरी को फूँकने में बिता दी.......... और पर्वतारोहण का शौक आ चिपका जवानी गुजर जाने के बाद, 38 साल की उम्र में.....!
                             सोचता हूँ यदि यह शौक मुझे बीस साल की उम्र में लगा होता,  तो मेरी झोली में अनगिनत पर्वतीय यात्रा की सफलता होती। हिमालय में कुछ ऐसी दुर्गम यात्राएँ कर जाता,  जो आज मेरी जिंदगी का पैमाना होती।                               "परंतु मर जाना यह मन भी बड़ा बेशर्म है जो इसे मिल गया वह खाक़, जो ना मिला वह सोना है....!" दोस्तों इस नई धारावाहिक चित्र कथा को लिख रहा हूँ....जिसमें की हुई यात्रा ने मुझे सामान्य घुमक्कड़ से पर्वतारोही भी बना दिया। मैं इस यात्रा को अपने छोटे से पर्वतारोहण जीवन का आधार मानता हूँ कि शुगल-मेले में की हुई इस यात्रा को मेरा अशांत मन इतनी गंभीरता से ले लेगा.....और, मुझ में भयंकर हिमालय प्रेम जागृत हो जाएगा जो अपने कदमों से हिमालय को नापना चाहता है।
                             सन् 2012 की रुखसती करीब थी, बच्चों को सर्दियों की छुट्टियों में....मैं उन्हें उनके ननिहाल "नवांशहर"  छोड़ने गया था वहाँ मेरे सांढू भाई विशाल रतन जी दिल्ली से अपने बीवी-बच्चों को ले पहुँच चुके थे।
                             हम दोनों ही घुमक्कड़ किस्म के प्राणी हैं.....और बैठे-बैठे ही हम दोनों ने जीवन में पहली बार किसी जगह अकेले घूमने का कार्यक्रम बनाना आरंभ कर दिया और निष्कर्ष निकाला कि चलो हिमाचल चलते हैं क्योंकि सर्दियों में हम दोनों में से कोई भी पहाड़ों पर नहीं गया था....और हम भी उन अधिकांश लोगों की तरह पहाड़ों को केवल गर्मियों की बीमारी का इलाज समझते थे।
                             बातों बातों में ना जाने क्या मेरे दिमाग में कौंधा कि चलो किसी पहाड़ पर चढ़ते हैं और ख़्याल दौड़ चला धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) की ओर। विशाल जी ने झट से अपना लैपटॉप खोल लिया....हाँलाकि मेरी जेब में तब साधारण बोलने-सुनने वाले फोन से कुछ तरक्की हो 2 मेगापिक्सेल कैमरा फोन आ चुका था, जिस पर अभी जुम्मा-जुम्मा मेरी आंखें गूगल कुमार जी से लड़ रही थी। फेसबुक,  व्हाट्स एप, ब्लॉग नाम तो मैंने अभी सुने भी ना थे।
                            लैपटॉप पर उंगलियों की मेहनत से नाम सामने आया "करेरी झील " धौलाधार हिमालय पर समुद्र  तट से करीब 3000 मीटर की ऊंचाई पर जमी हुई झील के साथ अपना नववर्ष मनाने का उल्लास हम दोनों को उत्साहित कर चला।  हैरानी इस बात की हुई जब दोनों बहनों यानी हमारी पत्नियों ने बिना किसी लोलो-पोचो के हमें अकेले जाने की स्वीकृति दे डाली...!!
                            दोनों सांढू अब सोच रहे थे कि यात्रा में क्या-क्या चाहिए,  एक साधारण व्यक्ति सर्दियों में यदि पहाड़ पर मुँह उठाकर चल दे तो उसकी सोच में केवल गर्म कपड़े ही होते हैं... बस इससे ज्यादा हम कुछ भी ना  सोच पाये।यद्यपि सर्दियों में बर्फ भरे गिरिराज से साक्षात्कार करने के लिए विशेष उपकरणों की आवश्यकता होती है।
                           हमारी हमसफ़र विशाल जी की फोर्ड फिगो गाड़ी बन रही थी तो मैंने तर्क दिया,  "चलो छड़े-मलंगों की तरह चलते हैं... आप अपनी गाड़ी की पिछली सीट फोल्ड कर उसमें बिस्तर बना लो क्यों किसी होटल वाले की कमाई में इज़ाफा करें...!"
                           विशाल जी का पैतृक घर भी नवांशहर में ही है और रोजी रोटी उन्हें दिल्ली में डेरा डालने के लिए मजबूर कर रखे है.... वह भी अपने घर जा कल की तैयारियों में जुट जाते हैं और मैं भी ससुराल से केवल 10 किलोमीटर दूर अपने शहर "गढ़शंकर" में,   शाम को कल सुबह शुरू होने वाली यात्रा की तैयारी में लिप्त हो जाता हूँ।
                          बेटी के पिट्ठू नुमा स्कूल बैग को खाली कर उसमें एक गर्म लोई यानी ओढ़ने वाली चादर,दस्तानें, बंदरटोपी और गर्म जुराबें बाजार से खरीद डाल लेता हूँ... और अपनी तरफ से निश्चिंत हो जाता हूँ कि पहाड़ पर चढ़ने की पूरी तैयारी कर ली है।
                         धर्मशाला जाने का रास्ता नवांशहर से गढ़शंकर होकर ही जाता है....सो 30दिसम्बर 2012 सुबह 7बजे विशाल जी मुझे ले गाड़ी दौड़ा रहे थे हिमाचल प्रदेश की ओर। मेरी एक बहुत बुरी आदत है मैं कम समय में ज्यादा जगह देखना चाहता हूँ। धुंध से भरी पंजाब की सड़कों को पार कर अपना पहला दर्शनीय पडाव मुकर्रर करता हूँ हिमालय के जिला ऊना में  "ध्यूसर" पहाड़ के शिखर पर बने " सदाशिव ध्यूसर महादेव मंदिर" को।
                         मैं यहाँ कई बार आ चुका हूँ और विशाल जी को नई जगह भी तो दिखानी थी। इस स्थल पर पांडवों के पुरोहित ऋषि धौम्य ने तपकर शिवलिंग स्थापित किया हुआ है। पर्वत शिखर पर बना मंदिर और मंदिर प्रांगण से नीचे दिखती घाटियों की हरियाली मन को भी हरा भरा कर जाती है, परंतु उस समय हरियाली को धुंध ने सफेदी मार दी थी खैर उसे भी देखने का एक अलग ही आनंद था। विशाल जी की वाहवाही लूट गाड़ी वापस चल देती है, क्योंकि एक और नई जगह भी तो विशाल जी को दिखानी है "कालेश्वर महादेव "
                         यह स्थान मेरा मनपसंद स्थान है, यहाँ मैं अनगिनत बार जा चुका हूँ......हाँ सर्दियों में कालेश्वर जाना पहली दफा ही हो रहा था जबकि पहले हर बार सावन के महीने में ही जाना हुआ।
                          पेट ने दिमाग को संदेश भेजा मैं सुबह से खाली पड़ा हूँ, इस बंदे को बोल...कुछ खा ले अब तो दस भी  बज चुके है...!!  रास्ते में एक हलवाई के शो-केस में "गजरेला"  पड़ा चमक रहा था और खींच लिया उसने हमें।
                          विशाल जी की बहन ने रास्ते में खाने के लिए कचौरियां बनाकर साथ भेज दी थी। सुबह का नाश्ता बेहद स्वादिष्ट  "कचौरियां, चाय और गजरेला" को पेट व स्मरण में हावी कर चल देते हैं कालेश्वर की ओर।
                          छोटी सड़कों पर आए छोटे-छोटे गांव बड़ा न्योता देते हैं कि मुसाफिर चंद क्षण रुक मुझसे भी बात कर.......परंतु मैं आंखों ही आंखों में उनसे बतिया आगे बढ़ता रहता हूँ।  सड़क पर एक जगह रुक विशाल जी बिखरी हुई सूखी लकड़ियाँ इकट्ठी करने लग जाते हैं कि कहीं रात में बोन फायर करेंगे, मतलब यारों की मस्ती खूब होने वाली है।कभी हमारा रास्ता सलेटों की छतों वाले आशियानें रोक लेते हैं....तो कभी राह में मिले धौलाधार से नीचे उतर आए गद्दी और उनकी भेड़ें।
                         बाँस की कटाई का मौसम था तो सड़क किनारे सड़क से कटकर आए उम्दा किस्म के बाँसों के ढेर भी कम आकर्षक ना थे..... और हम दोनों सांढू प्रकृति कि हर खूबसूरती संग अपने चित्रों को संग्रहित करते जा रहे थे।
                          कालेश्वर पहुंचते साढे ग्यारह बज चुके थे,  सड़क से दिख रही व्यास नदी को देख विशाल जी बच्चों जैसी चहचहाहट बिखेरते हुए गाड़ी का स्टेरिंग छोड़ सड़क किनारे खड़े व्यास नदी की नीली जलधारा को निहार रहे थे। मैं उनके इस रवैय्या पर सोचता हूँ कि दिल्ली जैसे व्यस्त महानगर की लाल-हरी बत्तियों और लाल-पीली भीड़ से दूर आ व्यक्ति प्रकृति की गीतांजलि सुन, ऐसे ही मस्त हो जाता है जैसे अब विशाल जी हुए जा रहे हैं।
                          कालेश्वर स्थल अपने नाम के अनुरूप कि भगवान शिव को समर्पित स्थल है.... राक्षसों का सर्वनाश करने में लीन मां काली ने अपना पैर पति शिवजी को लगाने का पश्चाताप इसी स्थल पर किया था। यदि आप लोग मेरी कालेश्वर और सदाशिव महादेव यात्रा को विस्तार से पढ़ना चाहते हैं तो मेरे ब्लॉग पर इसे पढ़ भी सकते हैं केवल एक ही लेख में लिखा है।  "मेरी मनपसंद जगह"  और लिंक यह रहा.....https://vikasnarda.blogspot.in/2017/12/blog-post_21.html?m=1.मैं खामखा इस चित्र कथा को ज्यादा लंबा नहीं करना चाहता।
                           कालेश्वर महादेव मंदिर में माथा टेक, व्यास नदी किनारे घूम और बाजार से अपने मनपसंद नारियल के लड्डू खा हम चल दिए धर्मशाला की ओर....... परंतु बीच रास्ते घुमक्कड़ नजरें जा मिली "नगरकोट दुर्ग" जिसे कांगड़ा किला कहा जाता है। बस दोनों की एक राय बन गई और गाड़ी खुद-ब-खुद मुड़ चली पुराना कांगड़ा शहर की ओर...!!
                           दोपहर के ढाई बज चुके थे और किले कभी खाली पेट नहीं देखे जा सकते दोस्तों...!!!!  सो किले के सामने इक्का-दुक्का दुकानों में से एक पर, हमें एक महिला दुकानदार ने घर जैसा खाना खिला दिया। उदर भूख शांत होते ही नयन भूख तीव्र हो चली नगरकोट दुर्ग को देखने के लिए।
                           मैं इस दुर्ग को जीवन में दूसरी बार देखने जा रहा था हाँलाकि इस किले को मैंने पहली बार 30साल पहले देखा था जब मैं केवल 8वर्षीय बालक था और हमारा संयुक्त परिवार दुर्ग में पिकनिक मनाने आया था। 30साल पहले की एक धुंधली सी याद लिये किले के प्रवेश टिकट खरीदें और एक गाइड की मांग भी रखी। उत्तर ना में ही मिला और सुझाव दिया गया कि फिर से परिसर से वापस, बाहर निकल गेट के पास ही कांगड़े के राजसी परिवार के दफ्तर से आप लोग "वॉइस गाइड"  किराए पर ले सकते हैं।  यह नाम और उपकरण मेरे लिए नया ही था।  दो वॉइस गाइड उपकरण ले और उन्हें चलाने का ढंग सीख..... अब हम दोनों भारत के सबसे पुराने किले की ओर बढ़ रहे थे जो करीब 4000साल पुराना है जिसकी दीवारों ने  असंख्य हमलों को झेला है। बगैर वॉइस गाइड के यह किला खामोश रह जाता पर अब इस किले का हर पत्थर हमें अपने किस्से-कहानियाँ सुनाएगा।

                                                                       ......................................(क्रमश:)
दो सांढू़ भाई। 

विशाल रतन जी ने तब मूँछ पाल रखी थी,  दोस्तों। 

ध्यूसर सदाशिव महादेव के रास्ते में.....एक बेहद बड़ी चट्टान पर खड़ा मैं। 

ध्यूसर पर्वत शिखर पर बने सदाशिव महादेव मंदिर का दूर-दृश्य। 

रास्ते की सुंदरता....झरने का जल एक ताल से निकल दूसरे ताल को भर बहता हुआ। 

धुंध को भेद रही सूर्योदय की किरणें। 

सिंदूरी सवेर। 

सदाशिव महादेव मंदिर को जाता सीढ़ीदार रास्ता,  परन्तु हम सड़क मार्ग से ऊपर जा रहे थे। 

यात्रा की खुशी। 

धुंध फिर बलवान हो गई सूर्यदेव पर। 

परन्तु यह धुंध भरा दृश्य भी हसीन लग रहा था दोस्तों।  


सदाशिव महादेव मंदिर। 

सदाशिव महादेव मंदिर प्रांगण का प्रवेश द्वार। 

पांडवों के पुरोहित ऋषि धौम्य द्वारा स्थापित शिवलिंग। 

और,  यह शिवलिंग चौरस आकार का है। 


अरे विशाल जी,  ऊपर कहाँ देखने लगे...! 

ओह,  अब समझे.... सदाशिव महादेव मंदिर के शिखर को। 

सदाशिव महादेव मंदिर प्रांगण से नीचे दिखती सुंदर घाटियाँ। 

उस ऊँचाई से दूर-दूर दिखते गाँव व शहर। 

और,  दूसरी दिशा में दिखते पर्वत और धुंध।  

सदाशिव महादेव मंदिर में मिला चूरमे का प्रसाद। 

है ना.... कितना शानदार "गजरेला"

सुबह का नाश्ता बेहद स्वादिष्ट,  " कचौरियां, चाय व गजरेला"

विशाल जी गाड़ी से उतर सड़क पर बिखरी हुई सूखी लकड़ियाँ इक्ट्ठी करने लग जाते हैं,  कि कहीं रात को बोन-फायर करेंगें। 

कभी सलेटों की छतों वाले घर हमारा राह रोक लेते। 

तो,  कभी धौलाधार से नीचे उतर रहे गद्दी और उनकी भेड़े। 

गद्दी चरवाहा। 

कालेश्वर महादेव की ओर। 

बाँस की कटाई का मौसम था.... तो उम्दा किस्म के बाँस जंगल से काट कर सड़क किनारे इक्ट्ठा किये जा रहे थे। 

गलत बात है विशाल जी... जब मैने आपकी फोटो बाँसों के संग खींची, अब आप मेरी भी फोटो खींचो जी। 

एक किलोमीटर की दूरी पर कालेश्वर महादेव। 

कालेश्वर गाँव में खेतों की बाड़ बेहद लम्बी डंडा-थोर से रखी थी,  और हमे एक अलग पृष्टभूमि मिल गई अपने चित्र खिंचवाने के लिए।
वाह,  बहुत जंच रहे हो विशाल जी। 

फोटो खिंचवाने में... मैं बहुत माहिर हूँ दोस्तों,  देखा क्या खूबसूरत फोटो आई मेरी। 

कालेश्वर, मनियाला गाँव में बहती व्यास नदी। 

विशाल जी खूब चहक उठे व्यास नदी की नीली जलधारा देख कर। 

श्री कालीनाथ कालेश्वर मंदिर का स्वागती द्वार। 

कालेश्वर मंदिर परिसर। 

श्री कालीनाथ कालेश्वर मंदिर। 

श्री कालीनाथ कालेश्वर शिवलिंग। 

बहुत सारे प्राचीन मंदिर बने हुये है कालेश्वर मंदिर परिसर में। 


व्यास नदी के घाट पर। 

घाट से नदी की ओर। 

व्यास नदी की जलधारा के किनारे.... जली हुई चितांएे। 

कालेश्वर के छोटे से बाज़ार में तब मेरे मनपसंद नारियल के लड्डू बन रहे थे। 

कालेश्वर से धर्मशाला की तरफ बढ़ने पर हमे धौलाधार हिमालय की धौली-धारें दिखनी आरंभ हो गई। 

कांगड़ा शहर से कुछ पहले सड़क के पुल के समान्तर पठानकोट-जोगिंदरनगर नैरो गेज रेल मार्ग का पुल। 

कांगड़े से कुछ पहले आता गुफा मार्ग। 

कांगड़े में पहाड़ पर बना जयंती माता मंदिर। 

और,  कांगड़ा दुर्ग ने हमारा रास्ता रोक ही लिया। 

और,  हमारी गाड़ी मुड़ चली पुराना कांगड़ा शहर की ओर। 

मोटर साइकिल प्रेमी तो मैं शुरू से ही हूँ..... तब हीरो का ओफ रोड़ बाइक " इम्पलस्" बाज़ार में नया-नया आया था,
और कांगड़ा किले के सामने वाले बाज़ार में इसे खड़ा देख, अपनी फोटो इस संग खिंचवाने के लिए विवश हो गया। 

किले कभी खाली पेट नही देखे जा सकते,  तो किले के सामने वाले बाज़ार में एक महिला दुकानदार ने हमें घर जैसा खाना खिला दिया। 

और... आखिर हम वॉइस गाइड किराए पर ले कांगड़ा किले की ओर बढ़ रहे थे। 

             (अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )


गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

"श्री कालिनाथ कालेश्वर महादेव" ....."मेरी मनपसंद जगह "

                                      मेरी मनपसंद जगह.... " श्री कालिनाथ कालेश्वर महादेव"

                               "मनपसंद जगह".......का मतलब वो जगह यहाँ आप बार-बार, हजार बार जाए क्योंकि वह आपकी मनपसंद जगह जो है......ना कि वह जगह जो आप से 3000 किलोमीटर की दूरी पर हो और वहाँ पहुँचना भी चांद को चाहने बराबर ही होता है दोस्तों।
                              " सुख वही खास, जो मिले आसपास, बाकी सब बकवास...!!!"   इसी आस-पास के चक्कर में...मैं अपनी मनपसंद जगह का सुख उस जगह में संपूर्ण पाता हूँ, जहां मैं सुबह जाकर शाम को तृप्त हो घर वापस लौट आता हूँ ....ऐसी ही एक जगह है "कालेश्वर महादेव"( गांव मनियाला, परागपुर जिला कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश) जो मेरे शहर गढ़शंकर (पंजाब) से केवल 100 किलोमीटर की दूरी पर है।  मुझे यह रमणीक स्थल इतना पसंद है कि गिनती तक भूल चुका हूँ कि मैं यहाँ कितनी बार जा चुका हूँ और यह भी याद नहीं रहा कि पहली बार कब और कौन मुझे वहाँ लेकर गया था।
                                हर वर्ष सावन के महीने में कोशिश होती है कि अपने मैदानी इलाकों की उमस़ भरी हवा से दूर, हरे भरे पहाड़ो से बह कर आ रहे बरसाती नदी- नालें लांघ,  कालेश्वर पहुँच व्यास नदी के किनारे बने शीतल जल के कुंड में गोते लगाऊँ।
                                और,   हर बार का सफ़र सुबह शुरू होता है....गाड़ी परिजनों से भर जाती है और निकल पड़ती है गढ़शंकर से हिमाचल प्रदेश की ओर। मेरे शहर से 5 किलोमीटर चलने पर ही हिमालय की निम्नतम पहली परत "शिवालिक" की उपश्रेणी पहाड़ियाँ स्वागत करती हैं।  दोस्तों यह श्रृंखला हमारे पड़ोसी पाकिस्तान से आरंभ हो तकरीबन 1600 किलोमीटर का विस्तार ले सिक्किम तक समाप्त हो जाती हैं।   मेरे "कथित पर्वत प्रेम" में इन छोटी पहाड़ियों का बेहद योगदान है, जब मैं भी छोटा था तो अक्सर छत पर पतंग उड़ाते समय दूर से इन पहाड़ियों को देख आकर्षित हो उठता था.... और जब कभी बारिश के अगले दिन मौसम साफ हो, तो मुझे छत से ही मेरी मनपसंद पवर्तीय "धौलाधार" हिमालय की सफेद धारों के दर्शन भी हो जाते थे और किशोर मन ना जाने कितने सपने अपने अंदर ही अंदर जमा कर लेता था।
                                सड़क मार्ग से शिवालिक की निम्न पहाड़ियों के शिखर पर पहुंच आंखें देखती है,  उस चौड़ी घाटी को जो पहाड़ियों और दूर आगे देख रही लोअर शिवालिक श्रृंखला का हिस्सा है। इस घाटी के मध्य "स्वां नदी"बहती है.... बचपन से ही अपने पिता के मुख से सुनता आ रहा हूँ कि इस नदी का नामकरण संस्कृत भाषा  में "श्वान" है। जिसका मतलब होता है कुत्ता यानि कि पता नहीं यह नदी कब एक कुत्ते की चाल की तरह अपनी दिशा बदल बैठे। श्वान नाम अब बिगड़ कर स्वां में तब्दील हो चुका है.... लेकिन अब स्वां नदी की इस क्रूरता को नकेल डालने के लिए तटीकरण का क्रम काफी हद तक हो चुका है। 80 किलोमीटर बहने के उपरांत इस नदी का साफ-सुथरा जल तिब्बत के मानसरोवर के समीप राक्षस ताल से बहकर आ रही सतलुज नदी का हिस्सा बन जाता है।
                                सामने दिख रही लोअर शिवालिक श्रृंखला में सबसे ऊंची पहाड़ी पर माता नैना देवी जी का मंदिर और वह दो पहाड़ों के शिखर दिखतें हैं, जिनके मध्य एशिया का सबसे का बांध "भाखड़ा बांध" बना हुआ है। घाटी में दूर-दूर दिखते हिमाचल और पंजाब के बहुत सारे गाँव, कस्बे व शहर।   नज़र के सामने दिख रहे दृश्य में एक छोर पर पूरे सफेद रंग से पुता, "गुरु गोविंद सिंह जी का शहर आनंदपुर साहिब" तो दूसरे छोर पर नंगल शहर की एन एफ एल खाद फैक्टरी एक खिलौने की भांति पड़ी नजर आती है।
                                दोस्तों, लोअर शिवालिक की इस श्रृंखला में माता चिंतपूर्णी, मां ज्वाला, मां कांगड़ा, मां बगलामुखी, मां चामुंडा और मां मनसा देवी के पावन शक्तिपीठ है और इस श्रृंखला के बाद अपर शिवालिक रेंज में डलहौजी, शिमला, मंसूरी आदि रमणीक पर्वतीय स्थल बसे हुए हैं।
                               हमारी गाड़ी हिमाचल प्रदेश की सीमा में प्रवेश पा,  मेरे पंजाब जैसे ही दिखने वाले लोगों और इलाकों से गुज़र "ऊना" शहर से गुज़रती है। वो शहर यहाँ आज भी गुरु नानक देव जी के वंशज रहते हैं और ऊना रेलवे लाइन द्वारा पूरे देश से जुड़ा हुआ है। दोस्तों अब तक पढ़ते-पढ़ते आपके मन में यह सवाल जरूर कोंदा होगा कि यह विकास नारदा कालेश्वर की बात कर करने की बजाय अभी रास्ते पर ही अटका हुआ है,  तो जवाब भी तैयार है जनाब जी..." खूबसूरत जगहों को जाने वाले रास्ते भी तो खूबसूरत ही होते हैं....!"  मेरे पर्वत प्रेम ही मुझे बार-बार खींच इन रास्तों पर ले जाता है और परिवार वालों को उनकी आस्था।
                                ऊना-अम्ब रोड पर 20 किलोमीटर चलते रहने के पश्चात बरूही गाँव मोड पर मेरी गाड़ी भी मुड़ जाती है,  इंसानी बस्तियों से दूर एक ऊंचे पहाड़ " ध्यूंसर " के शिखर पर बने "सदाशिव ध्यूंसर महादेव मंदिर" की ओर। बरूही मोड़ से 15 किलोमीटर लंबे इस रास्ते पर ज्वालामुखी लावा के ठंडा होने पर बने बड़े-बड़े चट्टानी पहाड़ और बरसात के उस मौसम में उन पर गिरते जलप्रपात मेरी गाड़ी के ब्रेक- पैडलों पर अक्सर भारी ही पड़ते हैं। सड़क की एक तरफ गहरी खाई के उस पार,  दूर वो झरना हर बार मैं देखता हूँ.....  जिसका जल एक ताल से निकल, नीचे बहता हुआ दूसरे ताल को भरता हुआ आगे बह जाता है।  खुराफाती मन उछलता है,  चल विकास उस ताल में जाकर नहाते हैं परंतु हर बार परिवार नामक संगल से मेरे पैर बंधे होते हैं,  सो बंधा हुआ पैर फिर से गाड़ी का एक्सीलेटर दबा देता है और जा कर रुकता है सदाशिव ध्यूंसर महादेव (गांव वही, जिला ऊना)  की सीढ़ियों के आगे.....कोई दुकान- मकान नहीं, बस  ध्यूंसर पर्वत शिखर पर बना एक खूबसूरत शिव मंदिर और उस उँचाई से दिखती हरियाली भरी घाटियाँ ....जहाँ पहुंच प्रकृति प्रेमी पर प्राकृतिक सुंदरता की मदहोशी छा जाती है।
                            स्थल इतिहास भी हर पुरातन स्थल की तरह महाभारत काल से ही जुड़ा है कि पांडवों के पुरोहित ऋषि धौम्य ने इसी ध्यूंसर पर्वत पर भगवान शिव को तप कर प्रसन्न किया था और वर मांगा कि मेरे द्वारा स्थापित इस शिवलिंग पर जो भी भक्त मनोकामना मांगेगा, उसे आप पूर्ण करेंगे।  समय बदला युग बदला,  और 1937सन् में... उत्तरकाशी में गंगा तट पर तपस्या में लीन स्वामी ओंकारानंद गिरि जी को रात्रि स्वपन में भगवान शिव ने एक गुफा और यह स्थल दिखाते हुए कहा कि जहाँ जाकर मेरा भजन करो...... और स्वामी जी ने आखिर 10 वर्षों की खोज के बाद 1947 में यह स्थान ढूंढ ही निकाला और 1948 में संपन्न लोगों के अनुदान द्वारा इस जीर्ण मंदिर का पुनर्निर्माण आरंभ किया।  मंदिर में स्थापित शिवलिंग चौरस आकार का है और प्रसाद मिलता है चूरमे का दोस्तों।
                           गाड़ी फिर से वापस उसी सड़क पर दौड़ती हुई योल नामक ग्राम से मोड़ देता हूँ कालेश्वर की ओर....कई सारे गांव, धान व मक्की के पहाड़ी खेत, सिलेटी छतों के मकान,  बरसात में बह चुके कच्चे-पक्के रास्ते और दूर सामने दिख रही धौलाधार हिमालय की गगनचुंबी दीवार। कोई एक घंटे के पहाड़ी सुहाने सफर के बाद अम्ब-नादौन मार्ग से कुछ हटकर आखिर गाड़ी आ पहुँचती है, अपनी असल मंजिल "कालेश्वर"(480 मीटर ).....जैसे-जैसे गाड़ी मंदिर के समीप होती जाती है, भोले के भक्त हमारा स्वागत करते हैं और  बम भोले, जय भोले के उद्घोष साँझा भी होते जाते हैं।                            "श्री काली नाथ कालेश्वर महादेव मंदिर" के छोटे से पैदल रास्ते में दोनों तरफ खाने-पीने की दुकानों को पार कर हम कालेश्वर महादेव मंदिर परिसर में दाखिल होते हैं। मंदिर प्रांगण में मुख्य मंदिर के साथ और भी कई बड़े-छोटे नव व पुरातन मंदिर हैं और एक ताजे़ जल की बावड़ी है। मंदिर प्रांगण की दीवार को व्यास नदी का जल छू कर बह रहा होता है। आस-पास का बेहद हसीन नज़ारा आंखों को मोहित कर जाता है। मुख्य मंदिर में स्थापित शिवलिंग भी अद्वितीय है, जो मंदिर तल से करीब डेढ़-दो फुट नीचे भूमि में स्थित है। पुजारी द्वारा डाले जाते इस शिवलिंग पर चढ़ाएं जल के छींटे श्रद्धालुओं को आत्मीय शीतलता प्रदान करते हैं।
                          मंदिर इतिहास जुड़ा है मां पार्वती के महाकाली रूप से....... महाकाली की उत्पत्ति राक्षसों के सर्वनाश करने हेतु हुई,  तो राक्षस-संहार में मां काली का क्रोध इतना क्रूर और विकराल हो जाता है कि संपूर्ण देव शक्तियां एकजुट हो उन्हें शांत नहीं कर पाती.... तो भगवान शिव खुदा महाकाली के आगे लेट जाते हैं परंतु उस वक्त महाकाली का क्रोध सुध-बुध की सीमा से बाहर था। महाकाली ने अपना पैर महादेव की छाती पर जैसे ही रखा,  महाकाली की चेतना लौट आई कि उसने अनजाने में ही अपने पति को पैर लगा दिया और इस महापाप के पश्चाताप में महाकाली,यहीं व्यास नदी के किनारे समाधि मगन हो भगवान शिव की तपस्या कर पाप मुक्त होती है।
                          मंदिर परिसर में ही हर वर्ष सावन के चारों सोमवार,  मेरे गढ़शंकर शहरवासी भोले के दरबार में आए भक्तों के लिए खाद्य पदार्थों के लंगर लगाते हैं। यदि मैं सावन महीने के सोमवार को यहाँ आऊँ,   तो हर तरफ मुझे जाने- पहचाने लोग मिलते हैं और मेरे गढ़शंकिरये भाई बहुत सेवा करते हैं। वैसे मंदिर में अपना लंगर कक्ष भी है, मुझे याद आ रहा है कि एक बार जब हम लंगर में अपनी भूख लेकर पहुंचे तो लंगर खत्म।  मेरी बुआ जी के आग्रह पर हमें थोड़े से फीके चावल और अदरक का अचार मिला....क्या स्वादिष्ट तालमेल बना उस अदरक के अचार संग चावल...सारी उम्र के लिए वह स्वाद जीभ और ज़हन में ताज़ा है। मेरा अनुभव है दोस्तों,  यदि आप अपनी यात्राओं की यादों के संग वहां मिले स्वादिष्ट भोजन के स्वाद की याद को भी जोड़ लेंगे, तो उस यात्रा की याद हमेशा ही आपके दिमाग के स्मृति भंडार में अग्रिम क्रम में पड़ी होगी।
                          लंगर कक्ष के पास एक बेहद प्राचीन दीवार है जिससे स्थानीय लोग महाभारत समयकालीन बतातें हैं, वही आस पास कई सारे पुरातन मंदिर भी है जो अब जर्जर हो चुके हैं....शायद अब उन पर कोई श्रद्धालु भी ना जाता हो।  मंदिर के पीछे व्यास नदी की नील-हरी सी धारा के समीप श्मशान भूमि है, इसका ज्ञान मुझे तब हुआ जब मैं अपने पर्वतारोही संगी विशाल रतन जी को ले सर्दियों में कालेश्वर पहुंचा,  तो व्यास नदी की जलधारा तट से काफी दूर बह रही थी और उसके किनारे कई सारी चिताओं के जलाये जाने के अवशेष थे।
                          मंदिर के नीचे उतरकर व्यास जलधारा के पास पहुँचना भी तभी संभव हुआ था.... क्योंकि सावन के महीने में एक तो व्यास नदी की धारा प्रचंड रुप ले मंदिर के पीछे ही बह रही होती है और दूसरा परिजनों की बेड़ियां भी  मेरे मन की चंचलता पर जकड़ी होती है दोस्तों, क्या समझे...!!!
                          परंतु आवारा जल में जाना मौत को दावत देने समान ही होता है।  इस बात का प्रमाण मुझे तब साक्षात हुआ, जब मैंने नदी घाट की सीढ़ियों में एक संगमरमर का सूचना-पट्ट लगा देखा जिस पर लिखा था.......
                         " अमन के परिवार व परिजनों की तरफ से अपील है कि चट्टान के पास पानी बहुत गहरा है वहाँ कदापि ना जाएें....हम सब के दिलों में अपनी यादें छोड़ कर जुदा हो गया अमन,  हमें रोता बिलखता छोड़कर ना जाओ आगे पानी बहुत गहरा है,  कुछ हाथ ना आएगा पछतावे को छोड़कर"         (गुरमुख सिंह पिता, सुनीता माता, तरलोचन सिंह हरमीत सिंह भाई )जन्म 11-10-1991 स्वर्गवास 16-3- 2010
                            यह एक पत्थर ही काफी है मन की चंचलता को काबू में करने के लिए..... परंतु अफसोस वो नवयुवक "अमन" इसकी उदाहरण बना ताकि किसी और परिवार का अमन व चैन फिर से इस नदी में न डूब जाए।
                             खैर दोस्तों मंदिर से वापस चल,  फिर से उन 4-5 दुकानों के बाज़ार में हर बार रुक जाता हूँ क्योंकि  चाय-पकौड़े और नारियल के लड्डू भी खाने होते हैं जी......या यूँ कहें कि इस जगह मिलने वाले ज्यादा चीनी के नारियल लड्डू भी मुझे बार-बार यहाँ खींच लाते हैं।
                              सच बात बोलूँ....तो मुझ घुमक्कड़ को अलग-अलग जगहों पर मिलने वाले व्यंजन ही खींच ले जाते हैं दोबारा उन्हीं जगहों पर.....  जैसे मथुरा वृंदावन में मिलने वाली खस्ता कचौरी,  अमृतसर में मिलने वाले छोले कुलचे, धर्मशाला-मक्लोडगंज में मिलने वाले मोमोस्।
                             और,  अंत में आता है बारम-बार करने वाली यात्रा का मुख्य आकर्षण.... सावन के महीने की चिपचिपी गर्मी से राहत दिलाता कालेश्वर का वो जलकुंड.... जिसमें पर्वत से भूमिगत रूप से एक मोटी जलधारा आ गिर रही है।  उस शीतल जल धारा के नीचे जब मैं कुंड में प्रवेश कर अपना सर नीचे करता हूँ, तो उस समय की प्रचण्ड गर्मी में ऐसी अनुभूति होती है जैसे कि किसी चकोर को उसका चांद मिल गया हो। स्त्री-पुरुषों दोनों के लिए अलग-अलग जलकुंड हैं और नहाते हुए लोगों की "किलकारियां" उनकी चंचलता व प्रसन्नता का प्रमाण देती हैं।
                             और, हर बार की तरह दिन ढलने से पहले हमारी गाड़ी वापस चल देती है गढ़शंकर की ओर दोस्तों। आप जब भी हिमाचल प्रदेश में माता चिंतपूर्णी आए तो,   कालेश्वर आने की कोशिश अवश्य करें। माता चिंतपूर्णी से कालेश्वर की दूरी मात्र 31 किलोमीटर और  मां ज्वाला जी का मंदिर भी कालेश्वर से मात्र 13 किलोमीटर की दूरी पर ही है।
वो देखो दूर..... ध्यूंसर पर्वत पर " सदाशिव ध्यूंसर महादेव मंदिर "

खुराफाती मन उछलता है,  चल विकास उस ताल में जा कर नहाते है...
परन्तु हर बार परिवार नामक संगल से मेरे पैर बंधे होते हैं, सो बंधा हुआ पैर फिर
से गाड़ी का एक्सीलेटर दबा देता है सदाशिव महादेव मंदिर की ओर। 

बस हम कालेश्वर पहुँचने ही वाले हैं,  जी।

श्री कालीनाथ कालेश्वर महादेव मंदिर का मुख्य द्वार। 

श्री कालीनाथ कालेश्वर मंदिर। 

मंदिर में स्थापित शिवलिंग पर चढ़ाएं जल के छींटे जब पुजारी आपके ऊपर फैंकता है,
 तो आत्मीय शीतलता की अनुभूति होती है दोस्तों। 

पूरे मंदिर परिसर में मुझे इस मंदिर की कारीगरी बेहद पसंद है। 

कालेश्वर मंदिर परिसर में महाभारत समकालीन एक पुरातन दीवार,  जिसे संरक्षित किया गया है। 

कालेश्वर मंदिर परिसर में कई सारे मंदिरों का समूह है दोस्तों। 

मंदिर परिसर में कुछ मंदिर तो जर्जर हो चुके हैं। 

मंदिर के पास बह रही व्यास नदी के तट पर श्मशान।

कालेश्वर के छोटे से बाज़ार में मिलने वाले नारियल के लड्डू....जो मुझे बहुत पंसद हैं। 

कालेश्वर का मुख्य आकर्षण...ठंडे जल की वो धारा,  जो भूमिगत रुप से  पहाड के गर्भ से निकल कुंड में गिरती है,
यह चित्र सर्दियों का है...बरसात में यह धारा बेहद मोटी होती है।

गर्मियों में कालेश्वर का मुख्य आकर्षण.... ठंडे व ताज़े पानी का यह कुंड।
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(1) " पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास " यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(2) " श्री खंड महादेव कैलाश की ओर " यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(3) " चलो, चलते हैं सर्दियों में खीरगंगा " यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(4) करेरी झील " मेरे पर्वतारोही बनने की कथा " यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(5) "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से...!" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।