भाग-7 "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से....!"
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"अलौकिक दर्शन कैलाश के"
17अगस्त 2014...... ग्यारह बज चुके थे, सूर्यदेव खूब चमक रहे थे। सुखडली से जैसे ही मैं और मेरे साढूँ भाई विशाल रतन जी कलाह पर्वत की आखिरी चढ़ाई चढ़ने के लिए चले, तो एक साधु अकेले ही जेल-खड्ड की तरफ से चलते हुए हमारे पास से गुज़र, आगे निकल गए। हम दोनों उनके पीछे-पीछे ग्लेशियर पर चढ़ने लगे जिसके पार सफेदी से रंगा रास्ता, दीवार नुमा कलाह पर्वत के सुगठित तन पर चढ़ रहा था। छोटी-बड़ी चट्टानों व पत्थरों से बने रास्ते पर बढ़ रहा हर एक कदम हमें ऊँचा ले जा रहा था।
बीस कदम ही चले थे कि साँस भी चढ़ने लगा। ऐसे आभास होने लगा कि हमारी टाँगे हमारे शरीर के भार को उठाने में दिक्कत महसूस कर रही हो। वो अकेला साधु हम से काफी आगे निकल चुका था, खैर हम दोनों धीरे-धीरे कलाह पर्वत की दीवार नुमा चढ़ाई चढ़ रहे थे।
बीस-तीस कदम चलते ही हमारी साँसें धौंकनी की तरह फूल जाती, नाक से साँस लेना हमें कम पड़ने लगा सो मुँह से साँसों का तेज़ क्रम निरंतर चल रहा था। थोड़े-थोड़े समय बाद रुक कर बेकाबू हुई अपने हृदय गति को काबू में लाते।
एक घंटा बीत चुका था चढ़ते-चढ़ते, दोपहर के 12बज चुके थे.... उस ऊँचाई पर पहुँच कर सामने दिख रहे "कुज्जा वज़ीर पर्वत" की भव्यता और दूर दिख रही धौलाधार पर्वतमाला में "तलांग पर्वत" की सुंदरता देख मन को सुकून मिल रहा था। कुछ आगे चढ़े तो देखा कि हमसे आगे गए वह साधु किसी एक जड़ी-बूटी को इकट्ठा कर रहे थे। हम दोनों भी उनके पास जा बैठे, तो बातचीत से मालूम पड़ा कि वह साधु पिछले सात दिनों से पैदल ही "बैजनाथ" से चलकर प्राचीन रास्ते द्वारा धौलाधार पर्वत श्रृंखला के "जालसू पर्वत" को लांघ कर मणिमहेश जा रहे हैं...... यह सुन कर एक बार तो हम नये पनपे पर्वतारोहियों की हवा निकल गई कि यह बाबा पिछले सात दिनों से इन पहाड़ों में पैदल चला आ रहा है।
खैर, कुछ दम लेने के बाद अब हम तीनों ही इकट्ठा ऊपर की ओर चढ़ने लग पड़ते हैं। कुछ ऊपर चढ़े तो वहाँ से नीचे दिख रहा सुखडली ग्लेशियर का दृश्य अब तक इन आँखों में कैद है दोस्तों।
जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते जा रहे थे मेरे शरीर में अजीब सा बदलाव आता जा रहा था....मेरा दिमाग सुन्न सा हो रहा था, ऐसा प्रतीत होने लगा कि मैं कई दिनों से जैसे सोया ही नही हूँ। मन कर रहा था कि अभी यहीं रास्ते में सब कुछ छोड़ कर सो जाऊँ, परंतु मन में एक अजीब सा डर भी बैठ चुका था कि यदि मैं यहाँ सो गया, तो शायद फिर कभी उठूँगा नहीं। ऐसा ही हाल विशाल जी का भी हो रहा था, वह भी आँखें बंद किए जा रहे थे और मैं उन्हें भी सोने नहीं दे रहा था और वह साधु बाबा हमें हल्ला-शेरी देकर अपने साथ चलाए जा रहे थे। हमें खुद भी समझ नहीं आ रहा था कि हमारे साथ यह क्या हो रहा है। दरअसल दोस्तों, यह सब उस दबाव के कारण हो रहा था जो समुद्र तट से बढ़ रही उस ऊँचाई के वजह से हमारे शरीर पर पड़ रहा था, जिस ऊँचाई पर हम अपने जीवन में पहली बार पहुँच रहे थे।
आखिर दोपहर दो बजे कलाह पर्वत शिखर के पास गड़े झंडों की फड़फड़ाहट ने बता दिया कि अब कलाह शिखर दूर नहीं है........और, उस आखिरी चट्टान पर चढ़ते हुए जैसे ही सिर ऊपर उठा, तो हमारा स्वागत तेज़ हवा के झोंके ने किया। साधु बाबा ने उत्साहित हो शिखर की दूसरी तरफ झांकते हुए....बादलों से घिरे पर्वतराज की ओर इशारा कर कहा- "यह है भोलेनाथ का निवास स्थान, कैलाश"
और, हम तीनों खुशी से नरमस्तक हो गये। कलाह पास पर अब हम तीनों चौकड़ी मारकर बैठ चुके थे। मेरी आँखों के नीचे कुछ सूजन सी हो चुकी थी, होठ भी खुश्क हो फटने लगे थे और सिर में हल्का सा दर्द हो रहा था। परंतु कलाह शिखर पर बैठ कैलाश पर्वत को एकटक निहारने का परमसुख इन सब विपदाओं पर भारी था दोस्तों, चाहे बादलों ने कैलाश पर्वत की ऊँचाई को आधे से ज्यादा अपने आगोश में ले रखा था।
तभी हमारे मददगार वो साधु बाबा उठ खड़े हुए और बोले- "अच्छा मैं चलता हूँ, आप लोग धीरे-धीरे उस दिशा की ओर उतर आना.....सामने मणिमहेश झील नज़र आने लगेगी।" और, वो बाबा जी हमें दोबारा फिर कहीं पर भी नज़र नहीं आए, शायद मणिमहेश झील पर पहुँच भीड़ में कहीं गुम हो गए होंगे।
मैं और विशाल जी कलाह पास पर बैठे, दोनों ओर के नज़ारों को आधे घंटे तक निहारते रहे कि एकाएक मौसम बदला और हल्की बूँदाबांदी के साथ कंचों के आकार जैसे बड़े-बड़े 'गड़े' कहीं-कहीं पर गिरने लगे तो हम दोनों अपने सिरों पर हाथ रख नीचे की ओर भाग पड़े और एक बड़े पत्थर के नीचे घुस कर जा बैठे। हमारी किस्मत अच्छी रही कुछ मिनटों बाद ही बारिश थम गई।
हम पगडंडी का अनुसरण करते हुए पिछले एक घंटे से नीचे की ओर उतरते जा रहे थे कि एकाएक आँखों में मणिमहेश झील का विहंगम दृश्य आ समाया और हम दोनों साढूँ उत्साहित हो चिल्लाने लगे। थोड़ा सा और नीचे उतरे तो झील के सामने कैलाश पर्वत भी नज़र आने लगा। परंतु अभी भी कैलाश को बादलों ने घेर रखा था।
कलाह शिखर की ओर से एक कुत्ता भी हमारे पास आकर खड़ा हो गया, इस कुत्ते को कल मैंने जेल-खड्ड लंगर पर देखा था। वह कुत्ता भी हमारे साथ- साथ झील की और उतरने लगा। तभी नीचे दिख रहा झील का मंज़र कहीं से उड़कर आए बादलों में ढक लिया और कुछ क्षणों बाद बादलों के गुज़र जाते ही झील फिर से प्रकट हो गई। ऐसी आँखमचौली का क्रम अब निरंतर चल रहा था, हम दोनों एक जगह बैठ कर दम लेते हुए ऊपर से झील की तरफ देखते रहे। जब भी हवा का झोंका झील की तरफ से ऊपर की ओर यानि हमारी तरफ आता तो "लो-बाण" (ऊँचाई पर पैदा होने वाली जंगली धूप) की सुगंध लाता।
जैसे-जैसे हम झील के पास उतरते जा रहे थे, हमारा ध्यान झील पर मौजूद भीड़ खींचने लगी। आखिर शाम के 4बजे हमने मणिमहेश झील पर पहुँच कर पाया कि यहाँ तो हर तरफ भीड़ ही भीड़ है। खैर अब हम दोनों भी उस भीड़ का हिस्सा बन चुके थे। झील के किनारे लगी कच्ची टैंट नुमा दुकानों पर कुछ पूछताछ करने पर हमें रात रुकने के लिए एक टैंट नुमा दुकान पर आखिर जगह मिल गई, जिसके अंदर आठ-दस लोग पहले ही लेटे हुए थे। बिस्तर के नाम पर उस दुकानदार ने बेरुखी से हमारे हाथ में तीन पतले से कम्बल थमा दिये कि एक कम्बल नीचे बिछा कर, दो कम्बल ऊपर ओढ़ लेना।
अतिरिक्त कम्बल की हमारी मांग उसने सिरे से खारिज़ कर कहा कि उसके टैंट में जो आखिरी जगह व कम्बल बचे थे, वो आपको दे दिये हैं।
अब हमारे पास भी इसके अलावा कोई और विकल्प भी कहाँ बचा था, बाहर घूम रही भीड़ को देख उस दुकानदार द्वारा दिखाई जगह पर हम दोनों ने जा डेरा जमाया।
टैंट में पहले से एक परिवार भी लेटा हुआ था, मियां-बीवी और उनके दो बच्चे। बातचीत के दौर में उन्होंने कहा कि हम तो दिल्ली से आये थे कि इन छुट्टियों में मणिमहेश झील की यात्रा करते हैं परंतु यहाँ तो भीड़ ने सारा मज़ा ही किरकिरा कर रखा है। जब हमने उन्हें कहा कि उस भीड़ की वजह से ही हम भरमौर से आगे नहीं बढ़ पाये और फिर कलाह पास वाले लम्बे व दुर्गम रास्ते से यहाँ पहुँचे हैं, तो उनके चेहरों पर हैरानी के भाव उभर आये। दिल्ली वाले परिवार के आगे उत्तर प्रदेश से आये दो मित्र भी बैठे थे, जो अभी-अभी झील के बर्फीले जल से स्नान पवित्र स्नान कर आये थे......ने अपना अनुभव सुनाया कि भैया इतना ठंडा पानी कि दो डिब्बे ही काफी है सिर पर डालने के लिए, पर नहा कर सारी थकान उतर गई।
अब हम दोनों भी ज़रा लेट कर अपनी पीठ सीधी करना चाहते थे, सो जैसे से ही कुछ सामान निकालने के लिए मैंने अपने रक्सैक खोली तो देखा कि रक्सैक के बीच रखी दही की डिब्बी का ढक्कन खुलने से दही बिखर चुका था। यह देख मुझे याद आया कि हमने त्यारी गाँव से पैदल चलने से पहले खाने-पीने के सामान साथ दही की डिब्बी भी खरीदी थी कि रास्ते में कहीं खा लेंगे...... परंतु समुद्र तट से बढ़ती ऊँचाई ने मुझे भुलक्कड़ सा बना दिया, मैं भूल ही गया कि मेरी रक्सैक में दही भी पड़ा है। खैर रक्सैक को एैसे ही बंद कर, पहले कुछ समय के लिए लेट जाते हैं....कहकर हम दोनों लेट गए।
एक-डेढ़ घंटा आराम करने के बाद पेट की दस्तक पर हम दोनों टैंट से बाहर आ कुछ खाने के लिए लंगरों की ओर बढ़ गये। झील की एक तरफ लगे लंगरों में ऐसी प्रतिस्पर्धा चल रही थी, जैसे किसी बस अड्डे पर एक ही जगह जाने वाली दोनों बसों के परिचालक सवारियों को ऊँची-ऊँची आवाज़ें मार इशारों से अपनी बस की ओर आकर्षित कर रहे हो.... ठीक ऐसा ही दृश्य वहाँ भी था।
"भक्तों आओ, खीर व मालपुऐं खाओ.... नहीं इधर आओ गरमागरम ब्रेड पकोड़े.... नहीं इनको छोड़ो केसर दूध और जलेबी....!!!"
भक्तों की भीड़ भी दुविधा में थी कि क्या छोड़े और क्या खाये..... या कौन सा पकवान पहले खायें और कौन सा उसके बाद....! खैर, हमने चाय-पकौड़ों की तरफ अपने पैर मोड़ लिये। मैंने ध्यान दिया कि काफी सारे लोग टकटकी लगाकर बादलों से घिरे कैलाश शिखर की ओर निरंतर देखते जा रहे थे। लंगर के तम्बू में हमने अभी चाय पीना शुरू ही किया था कि बाहर एकाएक शिव के जयकारों का गगनभेदी गुंजन गूँज उठा। उत्सुकता से बाहर आ देखा तो सब लोगों का चेहरा कैलाश शिखर की ओर ही था...... कैलाश शिखर से बादलों ने अपना पर्दा हटा लिया था और जो दृश्य नज़र आने लगा वो अलौकिक था।
पूछने पर ज्ञात हुआ कि शिखर के पास बर्फ में जो अकेला पत्थर नज़र आ रहा है वह शिव का प्रतीक है। तभी दूसरे क्षण मेघराज ने फिर अपनी बाँहें फैला ली, अलौकिक दृश्य आलोप हो गया। परंतु हर किसी की नज़र वहाँ से हट नहीं रही थी, चंद क्षणों में पवन देव की कृपा से हठी मेघराज को फिर अपना हठ छोड़ना पड़ा और गगन पुनः गूँज उठा।
हम चाय पीना भूल, अब उस टकटकी बांधी भीड़ का हिस्सा बन चुके थे। मेरे हाथ में कैमरा था.... जिसकी अंतिम पाँच प्रतिशत बैटरी मैंने ऐसे ही यादगारी क्षणों को कैद करने के लिए बचा रखी थी, जबकि हमारे मोबाइल फोन तो कब के चिरनिंद्रा में पहुँच चुके थे।
झील पर बिजली के नाम पर अंधेरा होने पर दो घंटों के लिए जरनैटर चलाया जाता है दोस्तों, जिससे आस बंध चुकी थी कि हमारे फोन व कैमरा अब दोबारा चार्ज हो जाएंगे। परंतु बत्तियाँ जगने पर हमारे टेंट के स्वामी ने बेरुखी से कह दिया कि उसके पास मोबाइल आदि चार्ज करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। झील के किनारे एक दुकान पर बीएसएनएल का "वाई मैक्स" सेटेलाइट फोन था, जहाँ फोन करने वालों की लाइन थी। हम दोनों ने वहीं से फोन कर अपने घर अपनी कुशल-मंगलता बताई, क्योंकि पिछले दो दिन से हमारी घर पर कोई बात नही हो पाई थी।
विशाल जी चाहते थे कि वह कल सुबह ही हेलीकॉप्टर द्वारा भरमौर उतरकर जल्दी से जल्दी दिल्ली की ओर रवाना हो जाएँ, परंतु हेलीकॉप्टर बुकिंग वाले महाशय ने कल सुबह जाने की हमारी मांग पर हमसे बात करनी ही बंद कर दी.... क्योंकि उसके पास अगले दो दिनों के बाद की सीट थी।
मैं अपनी रक्सैक भी अब साथ उठा लाया था कि इसके अंदर गिरा हुआ दही धो सकूँ। पानी की व्यवस्था इस "न्यौण मेले" के दौरान लगने वाले अस्थाई शौचालयों के पास थी। परंतु इस लाखों की भीड़ में यह दस-बीस शौचालय.... मतलब आप खुद ही समझ जाओ...!!!!!
हां, एक बात तो मैं बताना ही भूल गया कि शाम को जब हम झील के इर्द-गिर्द परिक्रमा करते हुए उस जगह पर पहुँचे, जहाँ लोग पवित्र झील "शिव डल" (प्राचीन मान्यताओं अनुसार भगवान शिव इसी झील में नहाते थे) के बर्फीले जल से नहा रहे थे। नहाने के नाम पर बड़ी हिम्मत कर व्यक्ति जल्दबाजी से एक-दो डिब्बे पानी के सिर पर उड़ेल कांपते हुए स्नान को सम्पूर्णता दे रहे थे। मैंने विशाल जी से पूछा- "हां जी, यदि इस ठंडक में इतने बर्फीले पानी से नहा लिये.... तो यकीनन हमें 'हाइपोथर्मिया' हो जाएगा.....!!"
और, हम दोनों ने झील के तट पर बैठ जल के छींटे सिर पर डाल "पंचतरणीय स्नान" करना ही मुनासिब जाना।
रात्रि भोजन लंगर पर कर जब अपने टैंट की ओर चले आ रहे थे, तो देखा कि लोग खुले में आग जलाकर कैलाश पर्वत की तरफ टकटकी लगा बैठे हैं। बातचीत से पता चला कि वह सारी रात जागकर कैलाश पर्वत से निकलने वाली "दिव्य मणि" के दर्शन करना चाहते हैं। मेरे मन में आया कि जाकर अपने टैंट मालिक से पूछूँगा कि क्या उसने कभी मणि के दर्शन किये हैं, क्योंकि हम यात्री तो एक-दो दिन यहाँ रुकते हैं...वो तो महीनों रहते हैं यहाँ पर। परंतु मेरे इस सवाल पर उसने फिर बेरुखी से ना में सिर मार दिया।
समय रात के साढ़े नौ बज चुके थे, हमारे टेंट के सभी यात्री अपनी-अपनी जगह पर लेट ले चुके थे। आँख लगी को अभी एक-डेढ़ घंटा ही हुआ था कि बाहर झील के किनारे एकदम से शिव भोले के जयकारे गूँजने लगे। उस शोर से मेरी व विशाल जी की नींद जैसे ही टूटी, हम दोनों बाकी लोगों की तरह उछल कर बाहर निकल कैलाश शिखर की ओर देखने लगे..... तो पाया कि कैलाश पर्वत के पीछे से एक तारे का उदय हो रहा था, जिसकी टिमटिमाहट शिखर पर मणि सी आभा दे रही थी। टैंट से बाहर निकल जाने के कारण हमारे शरीर उस ठंड से एकदम से ठंडे हो गये, सो जल्दी से वापस आ फिर अपनी जगह पर लेट गये। जमीन पर बिछी पतली सी लटलोन की शीट पर एक कम्बल बिछा, दो पतले से कम्बलों को जोड़ कर भी ठंड कहाँ कम हो सकती थी और उस टैंट मालिक ने दोपहर को कह दिया था कि इन तीन कम्बलों से ज्यादा आपको कुछ नहीं मिलेगा, इसमें ही गुज़ारा करना पड़ेगा। गर्म जैकेट व टोपी आदि पहने होने के कारण शरीर का ऊपरी भाग तो कुछ गर्म हो जाता था, परंतु पैरों का हाल ऐसा था कि जैसे कम्बलों में नहीं बर्फ में गड़े हो। खैर फिर कुछ समय बाद आँख लगी, आधी रात को जयकारों का तीव्र उद्घोष पुन: गूँज उठा और इस बार लगातार जयकारों पर जयकारे लगाए जा रहे थे।
परन्तु इस बार मैं अकेला ही उठकर टैंट से बाहर निकल आया तो देखा कि कैलाश शिखर के पीछे से प्रकाश आ रहा था, जैसे-जैसे प्रकाश की तीव्रता बढ़ती जा रही थी.....श्रद्धालुओं की आवाज़ें भी तीव्र व उत्साहित होती जा रही थी। मैं भौचक्का सा खड़ा देख रहा हूँ कि इस चमत्कार का मैं भी हिस्सेदार बनने जा रहा हूँ.....परंतु अब कैलाश शिखर के पीछे से "चन्द्रदेव" उदय हो रहे थे, यह देखकर भी वहाँ मौजूद प्रत्येक व्यक्ति के उत्साह की कोई कमी नहीं थी।
मैं पुनः अपनी जगह पर आ जाता हूँ, विशाल जी और बाकी यात्री भी बिस्तरों में दुबके मुझसे पूछते हैं तो मैं कहता हूँ कि अबकी बार तारा नहीं चन्द्र उदय हुआ है कैलाश के पीछे से।
ज्यों-ज्यों रात घटती जा रही थी, ठंड भी बढ़ती जा रही थी और इस भयंकर ठंड ने हमारी नींद भी उड़ा दी थी। आखिर साढ़े तीन बजे मैंने विशाल जी से कहा-"इस ठंड में इतने पतले से नाममात्र के कम्बलों में लेटना तो यातना समान है, अच्छा है कि अभी नीचे उतर चलते हैं... चलते हुए शरीर भी गर्म रहेंगे और आपको भी जल्द से जल्द दिल्ली पहुँचने की मजबूरी है...!"
और, हम दोनों करीब दस मिनट बाद अपनी बैटरियाँ जला कर मणिमहेश झील से हड़सर की ओर कूच कर चले। हैरानी की बात उस वक्त भी लोग मणिमहेश झील की ओर चले आ रहे थे। "धन्छो" तक पहुँचते-पहुँचते सुबह के साढ़े सात बज चुके थे। वहाँ सुबह का नाश्ता एक लंगर पर कर, हम जब हडसर आ पहुँचे तो वहाँ से भरमौर को जाने के लिए कोई भी गाड़ी उपलब्ध नहीं थी। कारण कि हडसर तक गाड़ी ही नहीं पहुँच पा रही थी, फिर क्या था हडसर से पैदल ही तीन किलोमीटर और चलना पड़ा.....तब जाकर सीमेंट ढोने वाली एक जीप में हम बीस-पच्चीस जनों को भेड़-बकरी की तरह लादा गया और हडसर से भरमौर तक हम एक लात पर खड़े पहुँचे। हड़सर से भरमौर तक सड़क किनारे जगह-जगह पर लोगों के वाहन खड़े थे, जिसकी गाड़ी जहाँ तक पहुँची वह वहीं अपनी गाड़ी छोड़ मणिमहेश झील की ओर रवाना हो गया।
भरमौर के बस अड्डे पर बेशुमार भीड़, भरमौर से चम्बा जाने वाली बस मिली पर सीट नही... परिचालक ने धोखे से हमें चढ़ा लिया कि कुछ समय बाद आप दोनों को सीट मिल जाएगी। चम्बे तक का चार घंटे लम्बा सफर भी हमने बस में खड़े होकर काटा। चम्बे के बस अड्डे पर भी कहीं जमीन नही नज़र आ रही थी, हर तरफ बस लोगों की भीड़ ही जमा थी। अंधेरा होने को था, चम्बा से पठानकोट जाने के लिए तब कोई बस नही थी, यदि आ भी जाती तो हमें लग नहीं रहा था कि उसमें हम चढ़ भी पायें...!!!
खैर, वहीं बस अड्डे पर पूछताछ करते-करते हमें मेरठ से मणिमहेश जाकर वापस आये हुए एक वकील साहिब व उनका दल मिल गया, तब हम सब ने मिलकर पठानकोट तक पहुँचने के लिए एक सूमो टैक्सी कर ली। जब हम दोनों अपने डंडे सूमो में रख रहे थे, तो वह वकील साहिब झल्ला कर बोले- "इन डंडों को बाहर फैंकों...!"
परंतु मैं अड़ गया- "नही, ये डंडें हमारे हमसफ़र है और हमारे साथ ही आये थे और हमारे साथ ही वापस जाएंगे....!!!"
पठानकोट तक पहुँचते-पहुँचते आधी रात होने को आई। पठानकोट बस अड्डे पर भी सवारियाँ ज्यादा परंतु किसी भी तरफ जाने वाली बस गैरहाज़िर थी। सो एक प्राइवेट बस वाले ने सवारियों का लालच देख जालंधर के लिए स्पेशल बस चला दी। जालंधर हमारे रास्ते से दूसरी तरफ था, पर फिर भी हम दोनों उस बस में सवार हो गए कि चलो पहले जालंधर ही चलते हैं।
और, रात तीन बजे के करीब जालंधर पहुँचते ही, मेरी पत्नी अपने देवर के साथ गाड़ी ले गढ़शंकर से जालंधर पहुँच..... हमें लेकर गढ़शंकर की ओर वापस चल दी। परंतु विशाल जी के लिए अभी भी एक मुसीबत खड़ी थी कि उन्हें सुबह दस बजे दिल्ली पहुँच कर अपनी नौकरी पर हाज़िर होना था। सो गढ़शंकर से दिल्ली के लिए उन्होंने टैक्सी की और हमारी गाड़ी से ही उतरकर तड़के साढ़े चार बजे दिल्ली को रवाना हो लिये।
घर पर आराम करते हुए मैंने चार्ज हो चुके मोबाइल पर कलाह पर्वत के विषय में गूगल पर खोजा तो दंग रह गया कि गूगल कलाह पर्वत की समुद्र तट से 4630मीटर की ऊँचाई बता रहा है, मतलब हम नौसिखियें पहली ही बार में इतनी ज्यादा ऊँचाई को छूँ गये।
और हां दोस्तों, अंत में एक बात आप संग सांझा करना चाहता हूँ कि मणिमहेश यात्रा के दौरान खाने-पीने वाले लंगरों की बहुतायत है। मैं मानता हूँ कि यात्रियों को मुफ्त भोजन की सुविधा मिलनी चाहिए और वहाँ के स्थानीय दुकानदारों में इतनी शक्ति नहीं है कि वे इतनी ज्यादा भीड़ का पेट भर सकें। परंतु भोजन के साथ-साथ और भी बेशुमार सुविधाएँ हैं, जिनके अभाव से यात्रा कर रहा हर एक यात्री परेशान होता है जैसे हम इस यात्रा पर परेशान हुए।
सारे के सारे लंगर स्वयंसेवी दलों द्वारा ही लगाए जाते हैं, यदि वो स्वयंसेवी न्यौण यात्रा के दौरान अन्य सुविधाओं पर भी ध्यान दें, तो यात्रा का आनंद दोगुना-चौगुना हो जाएगा.... क्योंकि इन कार्यों को सरकार या प्रशासन के माथे मढ़ना उचित नहीं है।
ट्रैफिक कंट्रोल की सेवा, सुनियोजित पार्किंग की सेवा, शौचालयों की सेवा, रात रुकने के लिए उचित स्थान व गर्म बिस्तर की सेवा की आदि यदि स्वयंसेवी दल देने लग पड़े तो क्या गज़ब का सुप्रबंधन हो सकता है मणिमहेश यात्रा पर।
(समाप्त)
इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र(http://vikasnarda.blogspot.com/2019/07/blog-post.html?m=1) स्पर्श करें।
"अलौकिक दर्शन कैलाश के"
17अगस्त 2014...... ग्यारह बज चुके थे, सूर्यदेव खूब चमक रहे थे। सुखडली से जैसे ही मैं और मेरे साढूँ भाई विशाल रतन जी कलाह पर्वत की आखिरी चढ़ाई चढ़ने के लिए चले, तो एक साधु अकेले ही जेल-खड्ड की तरफ से चलते हुए हमारे पास से गुज़र, आगे निकल गए। हम दोनों उनके पीछे-पीछे ग्लेशियर पर चढ़ने लगे जिसके पार सफेदी से रंगा रास्ता, दीवार नुमा कलाह पर्वत के सुगठित तन पर चढ़ रहा था। छोटी-बड़ी चट्टानों व पत्थरों से बने रास्ते पर बढ़ रहा हर एक कदम हमें ऊँचा ले जा रहा था।
बीस कदम ही चले थे कि साँस भी चढ़ने लगा। ऐसे आभास होने लगा कि हमारी टाँगे हमारे शरीर के भार को उठाने में दिक्कत महसूस कर रही हो। वो अकेला साधु हम से काफी आगे निकल चुका था, खैर हम दोनों धीरे-धीरे कलाह पर्वत की दीवार नुमा चढ़ाई चढ़ रहे थे।
बीस-तीस कदम चलते ही हमारी साँसें धौंकनी की तरह फूल जाती, नाक से साँस लेना हमें कम पड़ने लगा सो मुँह से साँसों का तेज़ क्रम निरंतर चल रहा था। थोड़े-थोड़े समय बाद रुक कर बेकाबू हुई अपने हृदय गति को काबू में लाते।
एक घंटा बीत चुका था चढ़ते-चढ़ते, दोपहर के 12बज चुके थे.... उस ऊँचाई पर पहुँच कर सामने दिख रहे "कुज्जा वज़ीर पर्वत" की भव्यता और दूर दिख रही धौलाधार पर्वतमाला में "तलांग पर्वत" की सुंदरता देख मन को सुकून मिल रहा था। कुछ आगे चढ़े तो देखा कि हमसे आगे गए वह साधु किसी एक जड़ी-बूटी को इकट्ठा कर रहे थे। हम दोनों भी उनके पास जा बैठे, तो बातचीत से मालूम पड़ा कि वह साधु पिछले सात दिनों से पैदल ही "बैजनाथ" से चलकर प्राचीन रास्ते द्वारा धौलाधार पर्वत श्रृंखला के "जालसू पर्वत" को लांघ कर मणिमहेश जा रहे हैं...... यह सुन कर एक बार तो हम नये पनपे पर्वतारोहियों की हवा निकल गई कि यह बाबा पिछले सात दिनों से इन पहाड़ों में पैदल चला आ रहा है।
खैर, कुछ दम लेने के बाद अब हम तीनों ही इकट्ठा ऊपर की ओर चढ़ने लग पड़ते हैं। कुछ ऊपर चढ़े तो वहाँ से नीचे दिख रहा सुखडली ग्लेशियर का दृश्य अब तक इन आँखों में कैद है दोस्तों।
जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते जा रहे थे मेरे शरीर में अजीब सा बदलाव आता जा रहा था....मेरा दिमाग सुन्न सा हो रहा था, ऐसा प्रतीत होने लगा कि मैं कई दिनों से जैसे सोया ही नही हूँ। मन कर रहा था कि अभी यहीं रास्ते में सब कुछ छोड़ कर सो जाऊँ, परंतु मन में एक अजीब सा डर भी बैठ चुका था कि यदि मैं यहाँ सो गया, तो शायद फिर कभी उठूँगा नहीं। ऐसा ही हाल विशाल जी का भी हो रहा था, वह भी आँखें बंद किए जा रहे थे और मैं उन्हें भी सोने नहीं दे रहा था और वह साधु बाबा हमें हल्ला-शेरी देकर अपने साथ चलाए जा रहे थे। हमें खुद भी समझ नहीं आ रहा था कि हमारे साथ यह क्या हो रहा है। दरअसल दोस्तों, यह सब उस दबाव के कारण हो रहा था जो समुद्र तट से बढ़ रही उस ऊँचाई के वजह से हमारे शरीर पर पड़ रहा था, जिस ऊँचाई पर हम अपने जीवन में पहली बार पहुँच रहे थे।
आखिर दोपहर दो बजे कलाह पर्वत शिखर के पास गड़े झंडों की फड़फड़ाहट ने बता दिया कि अब कलाह शिखर दूर नहीं है........और, उस आखिरी चट्टान पर चढ़ते हुए जैसे ही सिर ऊपर उठा, तो हमारा स्वागत तेज़ हवा के झोंके ने किया। साधु बाबा ने उत्साहित हो शिखर की दूसरी तरफ झांकते हुए....बादलों से घिरे पर्वतराज की ओर इशारा कर कहा- "यह है भोलेनाथ का निवास स्थान, कैलाश"
और, हम तीनों खुशी से नरमस्तक हो गये। कलाह पास पर अब हम तीनों चौकड़ी मारकर बैठ चुके थे। मेरी आँखों के नीचे कुछ सूजन सी हो चुकी थी, होठ भी खुश्क हो फटने लगे थे और सिर में हल्का सा दर्द हो रहा था। परंतु कलाह शिखर पर बैठ कैलाश पर्वत को एकटक निहारने का परमसुख इन सब विपदाओं पर भारी था दोस्तों, चाहे बादलों ने कैलाश पर्वत की ऊँचाई को आधे से ज्यादा अपने आगोश में ले रखा था।
तभी हमारे मददगार वो साधु बाबा उठ खड़े हुए और बोले- "अच्छा मैं चलता हूँ, आप लोग धीरे-धीरे उस दिशा की ओर उतर आना.....सामने मणिमहेश झील नज़र आने लगेगी।" और, वो बाबा जी हमें दोबारा फिर कहीं पर भी नज़र नहीं आए, शायद मणिमहेश झील पर पहुँच भीड़ में कहीं गुम हो गए होंगे।
मैं और विशाल जी कलाह पास पर बैठे, दोनों ओर के नज़ारों को आधे घंटे तक निहारते रहे कि एकाएक मौसम बदला और हल्की बूँदाबांदी के साथ कंचों के आकार जैसे बड़े-बड़े 'गड़े' कहीं-कहीं पर गिरने लगे तो हम दोनों अपने सिरों पर हाथ रख नीचे की ओर भाग पड़े और एक बड़े पत्थर के नीचे घुस कर जा बैठे। हमारी किस्मत अच्छी रही कुछ मिनटों बाद ही बारिश थम गई।
हम पगडंडी का अनुसरण करते हुए पिछले एक घंटे से नीचे की ओर उतरते जा रहे थे कि एकाएक आँखों में मणिमहेश झील का विहंगम दृश्य आ समाया और हम दोनों साढूँ उत्साहित हो चिल्लाने लगे। थोड़ा सा और नीचे उतरे तो झील के सामने कैलाश पर्वत भी नज़र आने लगा। परंतु अभी भी कैलाश को बादलों ने घेर रखा था।
कलाह शिखर की ओर से एक कुत्ता भी हमारे पास आकर खड़ा हो गया, इस कुत्ते को कल मैंने जेल-खड्ड लंगर पर देखा था। वह कुत्ता भी हमारे साथ- साथ झील की और उतरने लगा। तभी नीचे दिख रहा झील का मंज़र कहीं से उड़कर आए बादलों में ढक लिया और कुछ क्षणों बाद बादलों के गुज़र जाते ही झील फिर से प्रकट हो गई। ऐसी आँखमचौली का क्रम अब निरंतर चल रहा था, हम दोनों एक जगह बैठ कर दम लेते हुए ऊपर से झील की तरफ देखते रहे। जब भी हवा का झोंका झील की तरफ से ऊपर की ओर यानि हमारी तरफ आता तो "लो-बाण" (ऊँचाई पर पैदा होने वाली जंगली धूप) की सुगंध लाता।
जैसे-जैसे हम झील के पास उतरते जा रहे थे, हमारा ध्यान झील पर मौजूद भीड़ खींचने लगी। आखिर शाम के 4बजे हमने मणिमहेश झील पर पहुँच कर पाया कि यहाँ तो हर तरफ भीड़ ही भीड़ है। खैर अब हम दोनों भी उस भीड़ का हिस्सा बन चुके थे। झील के किनारे लगी कच्ची टैंट नुमा दुकानों पर कुछ पूछताछ करने पर हमें रात रुकने के लिए एक टैंट नुमा दुकान पर आखिर जगह मिल गई, जिसके अंदर आठ-दस लोग पहले ही लेटे हुए थे। बिस्तर के नाम पर उस दुकानदार ने बेरुखी से हमारे हाथ में तीन पतले से कम्बल थमा दिये कि एक कम्बल नीचे बिछा कर, दो कम्बल ऊपर ओढ़ लेना।
अतिरिक्त कम्बल की हमारी मांग उसने सिरे से खारिज़ कर कहा कि उसके टैंट में जो आखिरी जगह व कम्बल बचे थे, वो आपको दे दिये हैं।
अब हमारे पास भी इसके अलावा कोई और विकल्प भी कहाँ बचा था, बाहर घूम रही भीड़ को देख उस दुकानदार द्वारा दिखाई जगह पर हम दोनों ने जा डेरा जमाया।
टैंट में पहले से एक परिवार भी लेटा हुआ था, मियां-बीवी और उनके दो बच्चे। बातचीत के दौर में उन्होंने कहा कि हम तो दिल्ली से आये थे कि इन छुट्टियों में मणिमहेश झील की यात्रा करते हैं परंतु यहाँ तो भीड़ ने सारा मज़ा ही किरकिरा कर रखा है। जब हमने उन्हें कहा कि उस भीड़ की वजह से ही हम भरमौर से आगे नहीं बढ़ पाये और फिर कलाह पास वाले लम्बे व दुर्गम रास्ते से यहाँ पहुँचे हैं, तो उनके चेहरों पर हैरानी के भाव उभर आये। दिल्ली वाले परिवार के आगे उत्तर प्रदेश से आये दो मित्र भी बैठे थे, जो अभी-अभी झील के बर्फीले जल से स्नान पवित्र स्नान कर आये थे......ने अपना अनुभव सुनाया कि भैया इतना ठंडा पानी कि दो डिब्बे ही काफी है सिर पर डालने के लिए, पर नहा कर सारी थकान उतर गई।
अब हम दोनों भी ज़रा लेट कर अपनी पीठ सीधी करना चाहते थे, सो जैसे से ही कुछ सामान निकालने के लिए मैंने अपने रक्सैक खोली तो देखा कि रक्सैक के बीच रखी दही की डिब्बी का ढक्कन खुलने से दही बिखर चुका था। यह देख मुझे याद आया कि हमने त्यारी गाँव से पैदल चलने से पहले खाने-पीने के सामान साथ दही की डिब्बी भी खरीदी थी कि रास्ते में कहीं खा लेंगे...... परंतु समुद्र तट से बढ़ती ऊँचाई ने मुझे भुलक्कड़ सा बना दिया, मैं भूल ही गया कि मेरी रक्सैक में दही भी पड़ा है। खैर रक्सैक को एैसे ही बंद कर, पहले कुछ समय के लिए लेट जाते हैं....कहकर हम दोनों लेट गए।
एक-डेढ़ घंटा आराम करने के बाद पेट की दस्तक पर हम दोनों टैंट से बाहर आ कुछ खाने के लिए लंगरों की ओर बढ़ गये। झील की एक तरफ लगे लंगरों में ऐसी प्रतिस्पर्धा चल रही थी, जैसे किसी बस अड्डे पर एक ही जगह जाने वाली दोनों बसों के परिचालक सवारियों को ऊँची-ऊँची आवाज़ें मार इशारों से अपनी बस की ओर आकर्षित कर रहे हो.... ठीक ऐसा ही दृश्य वहाँ भी था।
"भक्तों आओ, खीर व मालपुऐं खाओ.... नहीं इधर आओ गरमागरम ब्रेड पकोड़े.... नहीं इनको छोड़ो केसर दूध और जलेबी....!!!"
भक्तों की भीड़ भी दुविधा में थी कि क्या छोड़े और क्या खाये..... या कौन सा पकवान पहले खायें और कौन सा उसके बाद....! खैर, हमने चाय-पकौड़ों की तरफ अपने पैर मोड़ लिये। मैंने ध्यान दिया कि काफी सारे लोग टकटकी लगाकर बादलों से घिरे कैलाश शिखर की ओर निरंतर देखते जा रहे थे। लंगर के तम्बू में हमने अभी चाय पीना शुरू ही किया था कि बाहर एकाएक शिव के जयकारों का गगनभेदी गुंजन गूँज उठा। उत्सुकता से बाहर आ देखा तो सब लोगों का चेहरा कैलाश शिखर की ओर ही था...... कैलाश शिखर से बादलों ने अपना पर्दा हटा लिया था और जो दृश्य नज़र आने लगा वो अलौकिक था।
पूछने पर ज्ञात हुआ कि शिखर के पास बर्फ में जो अकेला पत्थर नज़र आ रहा है वह शिव का प्रतीक है। तभी दूसरे क्षण मेघराज ने फिर अपनी बाँहें फैला ली, अलौकिक दृश्य आलोप हो गया। परंतु हर किसी की नज़र वहाँ से हट नहीं रही थी, चंद क्षणों में पवन देव की कृपा से हठी मेघराज को फिर अपना हठ छोड़ना पड़ा और गगन पुनः गूँज उठा।
हम चाय पीना भूल, अब उस टकटकी बांधी भीड़ का हिस्सा बन चुके थे। मेरे हाथ में कैमरा था.... जिसकी अंतिम पाँच प्रतिशत बैटरी मैंने ऐसे ही यादगारी क्षणों को कैद करने के लिए बचा रखी थी, जबकि हमारे मोबाइल फोन तो कब के चिरनिंद्रा में पहुँच चुके थे।
झील पर बिजली के नाम पर अंधेरा होने पर दो घंटों के लिए जरनैटर चलाया जाता है दोस्तों, जिससे आस बंध चुकी थी कि हमारे फोन व कैमरा अब दोबारा चार्ज हो जाएंगे। परंतु बत्तियाँ जगने पर हमारे टेंट के स्वामी ने बेरुखी से कह दिया कि उसके पास मोबाइल आदि चार्ज करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। झील के किनारे एक दुकान पर बीएसएनएल का "वाई मैक्स" सेटेलाइट फोन था, जहाँ फोन करने वालों की लाइन थी। हम दोनों ने वहीं से फोन कर अपने घर अपनी कुशल-मंगलता बताई, क्योंकि पिछले दो दिन से हमारी घर पर कोई बात नही हो पाई थी।
विशाल जी चाहते थे कि वह कल सुबह ही हेलीकॉप्टर द्वारा भरमौर उतरकर जल्दी से जल्दी दिल्ली की ओर रवाना हो जाएँ, परंतु हेलीकॉप्टर बुकिंग वाले महाशय ने कल सुबह जाने की हमारी मांग पर हमसे बात करनी ही बंद कर दी.... क्योंकि उसके पास अगले दो दिनों के बाद की सीट थी।
मैं अपनी रक्सैक भी अब साथ उठा लाया था कि इसके अंदर गिरा हुआ दही धो सकूँ। पानी की व्यवस्था इस "न्यौण मेले" के दौरान लगने वाले अस्थाई शौचालयों के पास थी। परंतु इस लाखों की भीड़ में यह दस-बीस शौचालय.... मतलब आप खुद ही समझ जाओ...!!!!!
हां, एक बात तो मैं बताना ही भूल गया कि शाम को जब हम झील के इर्द-गिर्द परिक्रमा करते हुए उस जगह पर पहुँचे, जहाँ लोग पवित्र झील "शिव डल" (प्राचीन मान्यताओं अनुसार भगवान शिव इसी झील में नहाते थे) के बर्फीले जल से नहा रहे थे। नहाने के नाम पर बड़ी हिम्मत कर व्यक्ति जल्दबाजी से एक-दो डिब्बे पानी के सिर पर उड़ेल कांपते हुए स्नान को सम्पूर्णता दे रहे थे। मैंने विशाल जी से पूछा- "हां जी, यदि इस ठंडक में इतने बर्फीले पानी से नहा लिये.... तो यकीनन हमें 'हाइपोथर्मिया' हो जाएगा.....!!"
और, हम दोनों ने झील के तट पर बैठ जल के छींटे सिर पर डाल "पंचतरणीय स्नान" करना ही मुनासिब जाना।
रात्रि भोजन लंगर पर कर जब अपने टैंट की ओर चले आ रहे थे, तो देखा कि लोग खुले में आग जलाकर कैलाश पर्वत की तरफ टकटकी लगा बैठे हैं। बातचीत से पता चला कि वह सारी रात जागकर कैलाश पर्वत से निकलने वाली "दिव्य मणि" के दर्शन करना चाहते हैं। मेरे मन में आया कि जाकर अपने टैंट मालिक से पूछूँगा कि क्या उसने कभी मणि के दर्शन किये हैं, क्योंकि हम यात्री तो एक-दो दिन यहाँ रुकते हैं...वो तो महीनों रहते हैं यहाँ पर। परंतु मेरे इस सवाल पर उसने फिर बेरुखी से ना में सिर मार दिया।
समय रात के साढ़े नौ बज चुके थे, हमारे टेंट के सभी यात्री अपनी-अपनी जगह पर लेट ले चुके थे। आँख लगी को अभी एक-डेढ़ घंटा ही हुआ था कि बाहर झील के किनारे एकदम से शिव भोले के जयकारे गूँजने लगे। उस शोर से मेरी व विशाल जी की नींद जैसे ही टूटी, हम दोनों बाकी लोगों की तरह उछल कर बाहर निकल कैलाश शिखर की ओर देखने लगे..... तो पाया कि कैलाश पर्वत के पीछे से एक तारे का उदय हो रहा था, जिसकी टिमटिमाहट शिखर पर मणि सी आभा दे रही थी। टैंट से बाहर निकल जाने के कारण हमारे शरीर उस ठंड से एकदम से ठंडे हो गये, सो जल्दी से वापस आ फिर अपनी जगह पर लेट गये। जमीन पर बिछी पतली सी लटलोन की शीट पर एक कम्बल बिछा, दो पतले से कम्बलों को जोड़ कर भी ठंड कहाँ कम हो सकती थी और उस टैंट मालिक ने दोपहर को कह दिया था कि इन तीन कम्बलों से ज्यादा आपको कुछ नहीं मिलेगा, इसमें ही गुज़ारा करना पड़ेगा। गर्म जैकेट व टोपी आदि पहने होने के कारण शरीर का ऊपरी भाग तो कुछ गर्म हो जाता था, परंतु पैरों का हाल ऐसा था कि जैसे कम्बलों में नहीं बर्फ में गड़े हो। खैर फिर कुछ समय बाद आँख लगी, आधी रात को जयकारों का तीव्र उद्घोष पुन: गूँज उठा और इस बार लगातार जयकारों पर जयकारे लगाए जा रहे थे।
परन्तु इस बार मैं अकेला ही उठकर टैंट से बाहर निकल आया तो देखा कि कैलाश शिखर के पीछे से प्रकाश आ रहा था, जैसे-जैसे प्रकाश की तीव्रता बढ़ती जा रही थी.....श्रद्धालुओं की आवाज़ें भी तीव्र व उत्साहित होती जा रही थी। मैं भौचक्का सा खड़ा देख रहा हूँ कि इस चमत्कार का मैं भी हिस्सेदार बनने जा रहा हूँ.....परंतु अब कैलाश शिखर के पीछे से "चन्द्रदेव" उदय हो रहे थे, यह देखकर भी वहाँ मौजूद प्रत्येक व्यक्ति के उत्साह की कोई कमी नहीं थी।
मैं पुनः अपनी जगह पर आ जाता हूँ, विशाल जी और बाकी यात्री भी बिस्तरों में दुबके मुझसे पूछते हैं तो मैं कहता हूँ कि अबकी बार तारा नहीं चन्द्र उदय हुआ है कैलाश के पीछे से।
ज्यों-ज्यों रात घटती जा रही थी, ठंड भी बढ़ती जा रही थी और इस भयंकर ठंड ने हमारी नींद भी उड़ा दी थी। आखिर साढ़े तीन बजे मैंने विशाल जी से कहा-"इस ठंड में इतने पतले से नाममात्र के कम्बलों में लेटना तो यातना समान है, अच्छा है कि अभी नीचे उतर चलते हैं... चलते हुए शरीर भी गर्म रहेंगे और आपको भी जल्द से जल्द दिल्ली पहुँचने की मजबूरी है...!"
और, हम दोनों करीब दस मिनट बाद अपनी बैटरियाँ जला कर मणिमहेश झील से हड़सर की ओर कूच कर चले। हैरानी की बात उस वक्त भी लोग मणिमहेश झील की ओर चले आ रहे थे। "धन्छो" तक पहुँचते-पहुँचते सुबह के साढ़े सात बज चुके थे। वहाँ सुबह का नाश्ता एक लंगर पर कर, हम जब हडसर आ पहुँचे तो वहाँ से भरमौर को जाने के लिए कोई भी गाड़ी उपलब्ध नहीं थी। कारण कि हडसर तक गाड़ी ही नहीं पहुँच पा रही थी, फिर क्या था हडसर से पैदल ही तीन किलोमीटर और चलना पड़ा.....तब जाकर सीमेंट ढोने वाली एक जीप में हम बीस-पच्चीस जनों को भेड़-बकरी की तरह लादा गया और हडसर से भरमौर तक हम एक लात पर खड़े पहुँचे। हड़सर से भरमौर तक सड़क किनारे जगह-जगह पर लोगों के वाहन खड़े थे, जिसकी गाड़ी जहाँ तक पहुँची वह वहीं अपनी गाड़ी छोड़ मणिमहेश झील की ओर रवाना हो गया।
भरमौर के बस अड्डे पर बेशुमार भीड़, भरमौर से चम्बा जाने वाली बस मिली पर सीट नही... परिचालक ने धोखे से हमें चढ़ा लिया कि कुछ समय बाद आप दोनों को सीट मिल जाएगी। चम्बे तक का चार घंटे लम्बा सफर भी हमने बस में खड़े होकर काटा। चम्बे के बस अड्डे पर भी कहीं जमीन नही नज़र आ रही थी, हर तरफ बस लोगों की भीड़ ही जमा थी। अंधेरा होने को था, चम्बा से पठानकोट जाने के लिए तब कोई बस नही थी, यदि आ भी जाती तो हमें लग नहीं रहा था कि उसमें हम चढ़ भी पायें...!!!
खैर, वहीं बस अड्डे पर पूछताछ करते-करते हमें मेरठ से मणिमहेश जाकर वापस आये हुए एक वकील साहिब व उनका दल मिल गया, तब हम सब ने मिलकर पठानकोट तक पहुँचने के लिए एक सूमो टैक्सी कर ली। जब हम दोनों अपने डंडे सूमो में रख रहे थे, तो वह वकील साहिब झल्ला कर बोले- "इन डंडों को बाहर फैंकों...!"
परंतु मैं अड़ गया- "नही, ये डंडें हमारे हमसफ़र है और हमारे साथ ही आये थे और हमारे साथ ही वापस जाएंगे....!!!"
पठानकोट तक पहुँचते-पहुँचते आधी रात होने को आई। पठानकोट बस अड्डे पर भी सवारियाँ ज्यादा परंतु किसी भी तरफ जाने वाली बस गैरहाज़िर थी। सो एक प्राइवेट बस वाले ने सवारियों का लालच देख जालंधर के लिए स्पेशल बस चला दी। जालंधर हमारे रास्ते से दूसरी तरफ था, पर फिर भी हम दोनों उस बस में सवार हो गए कि चलो पहले जालंधर ही चलते हैं।
और, रात तीन बजे के करीब जालंधर पहुँचते ही, मेरी पत्नी अपने देवर के साथ गाड़ी ले गढ़शंकर से जालंधर पहुँच..... हमें लेकर गढ़शंकर की ओर वापस चल दी। परंतु विशाल जी के लिए अभी भी एक मुसीबत खड़ी थी कि उन्हें सुबह दस बजे दिल्ली पहुँच कर अपनी नौकरी पर हाज़िर होना था। सो गढ़शंकर से दिल्ली के लिए उन्होंने टैक्सी की और हमारी गाड़ी से ही उतरकर तड़के साढ़े चार बजे दिल्ली को रवाना हो लिये।
घर पर आराम करते हुए मैंने चार्ज हो चुके मोबाइल पर कलाह पर्वत के विषय में गूगल पर खोजा तो दंग रह गया कि गूगल कलाह पर्वत की समुद्र तट से 4630मीटर की ऊँचाई बता रहा है, मतलब हम नौसिखियें पहली ही बार में इतनी ज्यादा ऊँचाई को छूँ गये।
और हां दोस्तों, अंत में एक बात आप संग सांझा करना चाहता हूँ कि मणिमहेश यात्रा के दौरान खाने-पीने वाले लंगरों की बहुतायत है। मैं मानता हूँ कि यात्रियों को मुफ्त भोजन की सुविधा मिलनी चाहिए और वहाँ के स्थानीय दुकानदारों में इतनी शक्ति नहीं है कि वे इतनी ज्यादा भीड़ का पेट भर सकें। परंतु भोजन के साथ-साथ और भी बेशुमार सुविधाएँ हैं, जिनके अभाव से यात्रा कर रहा हर एक यात्री परेशान होता है जैसे हम इस यात्रा पर परेशान हुए।
सारे के सारे लंगर स्वयंसेवी दलों द्वारा ही लगाए जाते हैं, यदि वो स्वयंसेवी न्यौण यात्रा के दौरान अन्य सुविधाओं पर भी ध्यान दें, तो यात्रा का आनंद दोगुना-चौगुना हो जाएगा.... क्योंकि इन कार्यों को सरकार या प्रशासन के माथे मढ़ना उचित नहीं है।
ट्रैफिक कंट्रोल की सेवा, सुनियोजित पार्किंग की सेवा, शौचालयों की सेवा, रात रुकने के लिए उचित स्थान व गर्म बिस्तर की सेवा की आदि यदि स्वयंसेवी दल देने लग पड़े तो क्या गज़ब का सुप्रबंधन हो सकता है मणिमहेश यात्रा पर।
(समाप्त)
मणिमहेश की ओर जाते हुए कलाह पर्वत की आखिरी चढ़ाई चढ़ते, सामने दिखाई दे रहा " कुज्जा वज़ीर पर्वत" |
कलाह पर्वत पर मिले ये साधु बाबा, जो पिछले सात दिनों से पैदल चले आ रहे थे....बैजनाथ से मणिमहेश जाने के लिए। |
कलाह पर्वत की चढ़ाई के मध्य में। |
वहीं से नीचे दिख रहे "सुखडली ग्लेशियर" का सुंदर दृश्य। |
कलाह पास। |
कलाह पास पर कदम रखते ही दूसरी तरफ झांका, तो सामने एक पर्वत नज़र आया जिसका शिखर बादलों ने घेर रखा था.....वह भगवान शिव का निवास स्थान "कैलाश" था, दोस्तों। |
कलाह पास पर खड़े विशाल रतन जी। |
कैलाश के समक्ष हम। |
कलाह पास से खींचा हुआ "कैलाश" पर्वत का निकट चित्र। |
कलाह पास पर चौकड़ी मार बैठे हुए हम...... ऊँचाई की वजह से मेरी आँखों के नीचे सूजन और होठ खुश्क होकर फटने लगे थे। |
हम आधा घंटा कलाह पास पर बैठ दोनों ओर के नज़ारों को देखते रहे और इंतजार करते रहे कि बादल कैलाश पर्वत शिखर से हट जाए, परन्तु बादल बहुत हठी निकले। |
और, एकाएक बारिश व कंचों जितने बड़े "गड़े" आसमान से गिरने लगे और हम नीचे की तरफ भाग लिये। |
मणिमहेश झील के प्रथम दर्शन। |
थोड़ा और नीचे उतरते ही झील और कैलाश पर्वत के इक्ट्ठे दर्शन होने लगे। |
क्या खूबसूरत नज़र आ रही थी मणिमहेश झील इस ऊँचाई से। |
ऊपर से "गौरी कुण्ड" भी दिखाई दे रहा था। |
कलाह पास की ओर एक कुत्ता भी उतर कर हमारे पास आ पहुँचा, जो अब हमारे साथ-साथ ही झील की ओर उतर रहा था। |
लो, विकास जी आखिर हम पहुँच ही गए....विशाल जी के बोल। |
तभी, कहीं से उड़ कर आये बादलों ने झील को ढक लिया। |
कैलाश पर्वत पर तो बादलों का कब्ज़ा बरकरार चल ही रहा था। |
बादलों के घूँघट से झाँकती हुई झील। |
ज्यों-ज्यों हम नीचे उतरते जा रहे थे, हमारा ध्यान झील पर मौजूद भीड़ खींचने लगी। |
झील पर मौजूद भीड़ में स्थानीय लोग अपने ही रिवाज़ों में व्यस्त थे। |
कैलाश पर्वत के अलौकिक दर्शन। |
कैलाश शिखर पड़ी सूर्यास्त की आखिरी किरणों का दिव्य दृश्य। |
सूर्यास्त के उपरांत कैलाश पर्वत। |
बम-बम भोले, "शिव डल" पर खड़े हम दोनों। |
झील के किनारे खुले में ही बना शिव भोले का मंदिर। |
अच्छा दोस्तों चलते हैं....फिर हाज़िर होंगे एक नई कहानी लेकर। |