रविवार, 16 अप्रैल 2017

भाग-9 चलो, चलते हैं.....सर्दियों में खीरगंगा Winter trekking to Kheerganga(2960mt)

भाग-9  चलो, चलते हैं.....सर्दियों में खीरगंगा (2960मीटर) 2जनवरी 2016

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                          मैं और विशाल जी खीरगंगा मंदिर प्रांगण में गर्म जल स्रोत के पास करीब एक घंटे तक रहे....और मेरे बाँसुरीवादन की वीडियोग्राफी कर,  हम दोनों वापस धर्मशाला के कमरे में आ कर कुछ आराम करने लगे। कुछ समय बाद खीरगंगा धर्मशाला के केयरटेकर टेक चंद जी नेपाली अपने हाथों में एक रजिस्टर पकड़ हमारे कमरे में दाखिल हुए,  हम से हिसाब-किताब करने......पर जैसे ही मेरे हाथ में बाँसुरी देखी, तो हैरानी से बोले, "रे, बाबा रे बाबा...शाब जी, इतना बड़ा बाँशुरी, आप तो कलाकार जान पड़ते हो....! "   
                  मैं खूब हंसा और बोला, "नही, टेक चंद जी मैं कोई कलाकार नही,  बस शौंक पाल रखा है बाँसुरी का...! " तो टेक चंद जी झट से बोले कि मैं भी खूब शौंक रखता हूँ बाँसुरी बजाने का। मैने खुशी से उछल कर कहा, "अरे वाह, तो फिर लेकर आईये अपनी बाँसुरी। "
                  टेक चंद जी रजिस्टर वहीं बिस्तरे पर फैंक, भाग कर अपनी बाँसुरी ले आये.......और देखो दोस्तों, एक बाँस का खोखला सा टुकड़ा एक दम से एक-दूसरे को ऐसे इक्ट्ठा कर गया, कि जैसे हम दोनों कोई पुराने मित्र हो। हम दोनों एक-दूसरे के साथ बाँसुरी बजाते रहे और मैने उन्हें बाँसुरी बजाने की कुछ बारीकियाँ भी समझाई। टेक चंद जी की फ़रमाइश पर उन्हें  "कांची रे कांची रे,  प्रीत मेरी सांची.... रुक जा, ना जा दिल तोड़ के " नेपाली परिवेश में ढले हिन्दी गाने के कुछ बोल बाँसुरी पर भी सुनायें।
                   अब तो टेक चंद जी से हम दोनों बिल्कुल दोस्ताना से हो चले थे, सो मैंने उन से पूछा कि रात के खाने में वो चटनी किस चीज की थी.....तो जवाब मिला  " भांग के बीज"   यह जवाब सुन कर हमारे कान खड़े होना तो तय था। परन्तु टेक चंद जी ने हमारी व्याकुलता देख कहा, "घबराओं मत, इसमें नशा नही होता यह चटनी इस भयंकर ठण्ड में हमारे शरीर को गर्मी देती है और हम यहाँ इस ठण्ड में रहने वाले, इसका हर रोज सेवन करते हैं।"  तो मैने अफसोस जाहिर किया कि मैंने उस चटनी का मात्र स्वाद लेकर ही उसे छोड़ दिया था, पर विशाल जी ने तो इस चटनी को पूरा खाया था फिर भी इन्हें रात में ठंड लगती रही..!!!
                     टेक चंद जी से चल रही बातचीत में उन्होंने बताया कि  वह इस धर्मशाला पर पिछले बारह वर्षो से कार्यरत है, यहाँ वह साल के दस महीने रहते हैं। टेक चंद जी ने आगे बताया कि खीरगंगा में 30फुट के करीब हर साल बर्फ पड़ जाती है, यह सब जो भी आपको दिखाई दे रहा है....सब कुछ बर्फ में दफन हो जाता है, मैं यहाँ से फरवरी में निचले क्षेत्र में चला जाता हूँ....जब बर्फ 10फुट के करीब पड़ जाती है, क्योंकि तब यहाँ कोई नही पहुँच पाता....! "         
                    तो, मैने झट से पूछ लिया कि जब फरवरी में यहाँ कोई नही आ पाता, तो आप यहाँ से नीचे कैसे जाते हैं....?
                    टेक चंद जी ने हंसते हुए कहा, "जब दस-बारह फुट बर्फ पड़ने के एक सप्ताह बाद वह बर्फ कुछ सख्त हो जाती है,  तो मैं धीरे-धीरे एक चूहे की तरह दबे पाँव उस पर से गुज़रता हुआ नीचे की ओर उतर जाता हूँ......चार साल पहले एक रात में इतनी ज्यादा बर्फ पड़ गई कि मैं अपने कमरे में कैद हो गया और उस साल यहीं कैद रहा,  नीचे जा ही नही पाया....!! "         
                    हम दोनों ने ही टेक चंद जी की जम कर तारीफ़ की,  कि हम तो सैलानी है.....यहाँ पहुँच कुछ घंटे बिता कर, सारी उमर नायक बन डींगें मारते रहते हैं, असली नायक तो आप है....जो इन कठिन परिस्थितियों में भी यहाँ सारा साल बने रहते है।
                   खैर, बातों-बातों में 12बजने को थे। सो जल्दी से अपना सामान पैक कर, वापसी के लिए धर्मशाला से बाहर आ गये...तो अपनी दोनों की इक्ट्ठी फोटो धर्मशाला प्रांगण में खिचवाने के लिए,  जब मैने वहाँ मौजूद एक ओर आदमी को अपना कैमरा थमाया, तो........उसके हाथ,शक्ल और बाल देख कर मुझे बहुत घिन्न आई, ऐसा लग रहा था कि जैसे वो कई वर्षों से कभी नहाया ही ना हो। दरअसल वो हिप्पी व्यक्ति एक नशेड़ी होगा,  जो स्थानीय भांग के नशे के चक्रव्यूह में फंस सभ्यता से दूर इन पहाडों में जमा बैठा होगा।
                     और......12बजे दोपहर हमने अपनी वापसी का रूख कर लिया। क्या खिली-खिली धूप.....सिर के ऊपर साफ नीला आकाश और पैरों के नीचे साफ सफेद बर्फ.....ऐसा प्रतीत हो रहा था कि हम किसी बड़ी सी "मंज़र सज्जा" (सीनरी) में खुद ही घूम रहे हो जैसे...!
                     तीन कुत्तों का दल हमे उस पागल भंगी बाबा की झोपड़ी तक छोड़ कर वापस फिर खीरगंगा की ओर चला गया। पिछली शाम हमने यहाँ अंधेरा ही अंधेरा देखा था,  अब तो सब आँखों के सामने दूर तक दिखाई दे रहा था कि रास्तों पर बर्फ का शीशा जमा हुआ है। उस फिसलन भरे पथ पर हम से आगे चलते हुए, वो ही चण्डीगढ़ वाले तीनों लड़का-लड़की भी फिसलदार बर्फ से जुझतें हुए मिले। उस शीशे रुपी फिसलनदार पक्की बर्फ के रास्ते पर कल शाम चढ़ाई तो जैसे-कैसे कर ली थी हमने, परन्तु उस पर से अब वापस उतरना बेहद कठिनाई भरा कार्य सिद्ध होता जा रहा था। पर दिन के उजालें का एक लाभ यह हो रहा था, कि हम बर्फ से जमे रास्ते की बजाय इधर-उधर,  ऊपर-नीचे चढ़-उतर कर उतराई उतरते जा रहे थे।
परन्तु हर जगह हमारी नही चल रही थी, कई बार तो उस शीशेनुमा रास्ते पर पैर रखने पड़ ही जाते थे....एक जगह मेरा पैर ऐसे पड़ा कि  मैं असंतुलित हो गिर गया और देखते ही देखते उस बर्फीले शीशे पर फिसलता हुआ, उस गहरी खाई जिसमें पार्वती नदी बह रही थी....की ओर फिसलता चला गया।
                     शुक्र है कि ऐन किनारे पर मेरी पीठ पर लदी रक्सैक जमीन पर कहीं फंस गई और मैं वहीं रुक गया.......तो ऊपर खड़े विशाल जी की, और मेरी उखड़ी हुई सांसें तब जा कर थमी। मैंने हंसते हुए विशाल जी से कहा कि मेरी इसी गिरती-पड़ती अवस्था में एक फोटो तो खींच लो........विशाल जी गुस्से से बोले, " विकास जी, आप मरण किनारे पड़े हो और मुझ से कह रहे हो, फोटो खींचो.....नही, मैं आपकी फोटो नही खींच सकता....! "
                       तो,  मैने खुद ही उसी मुद्रा में अपने कैमरे से अपनी सेल्फी खींच डाली कि यह बात मुझे सबक बन जीवन भर याद रहे..! 
                       वैसे दोस्तों,  यह मेरे गिरने वाली बात अब से पहले सिर्फ विशाल जी ही जानते थे......और अब आप सब जान चुके हो,  हम पर्वतारोही लोग पर्वतारोहण के समय की अनहोनी घटनाओं को ज्यादातर अपने घर वालों से छिपा ही लेते हैं,  ताँकि वे हमारे पर्वतारोहण पर कहीं अंकुश ना लगा दे....!!!
                        तीन बजे के आस-पास हम वापस उस जगह पर पहुँच गये, जहाँ कुछ बंद ढाबे थे और एक जमा हुआ झरना था। मित्रों यहाँ एक अहम बात आप संग करना चाहता हूँ कि मैने जितना कचरा इस ट्रैक पर बिखरा पड़ा देखा, उतना अब तक की हुई किसी भी पहाड़ी पदयात्रा पर नही देखा, स्वदेशी कचरा तो है ही.....विदेशी कचरे की खूब भरमार है। सोचने वाली बात है कि सफाई के लिए अनुशासित व सभ्य माने जाने वाले विदेशी भी यहाँ भारत में आ हमारे रंग में रच-बस जाते हैं।
                       दोस्तों , हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में एक शब्द "देखो" अब कितना आम हो गया है कि...."देखो, यह नगरपालिका या पंचायत वाले सही ढंग से काम नही करते,  हर जगह कचरा ही कचरा बिखरा पड़ा है..!"
                      "देखो,  ये सरकारी परिवहन का क्या हाल है,  बसें खस्ताहाल..... रेल बेहाल.....प्राइवेट वाले मालामाल...!
                      " देखो, देखो, देखो".......हर बात पर बस देखते और दिखाते रहते हैं,  करते कुछ नही...... और सारा दोष सरकारी तंत्र पर मढ़ देते हैं.......!!!
                       हम भारतीय यदि विदेश घूमने या काम से जायें, तो अमेरीका में सड़क पर थूकतें नही......दुबई में सड़क किनारे पेशाब नही.......इंग्लैंड में कचरा कूड़ादान में दान करते.......और अपने भारतीय होने का मान करते।  हम सब दूसरे देशों की व्यवस्था का आदर एवं पालन करते,  परन्तु जब लौट फिर से भारत माता के आँचल में आते....तो हमारे सारे सभ्य तौर-तरीके हवाई-जहाज में ही छूट जाते................इस बात का नतीजा यह है कि,  हम सब पराई धरती पर जा अनुशासित हो जाते हैं,  पर भारत में क्यों नही.......हम अपने घरों को रोज साफ-सुथरा कर उसका कचरा ज्यादा दूर नहीं,  बस अपने ही घर के आगे फेंक देते हैं......और फिर वहीं वाक्य "देखो, इस देश का कुछ नही हो सकता।"  हर दूसरा-तीसरा आदमी अपने ही देश को गाली देने को तैयार है और इसे छोड़ अमेरिका-कनाडा बस जाना चाहता है, परन्तु सकारात्मक योगदान या बदलाव के बारे में सबकी जुबानों पर अलीगढ़ी ताला जड़ जाता है। जब भी कुछ अच्छा करने की बात आती है.....हम खुद व अपने परिवार को या फिर परिवार वाले हमें घर के अंदर ले जाते हैं......यह कहते हुए कि, "यह हमारा काम नही है...!!!"
                     हमारा काम नही है, तो फिर शुरुआत कैसे और कहाँ से होगी दोस्तों....."देखो नहीं, देश व समाज के लिए कुछ करो भी......!"       मैं और विशाल रतन जी जब भी पर्वतारोहण के लिये जाते हैं, तो अपना सारा कचरा वहीं फैकतें नही, अपितु उस कचरा को अपने साथ ही वापस लाकर कूड़ादान में डालते है....चाहे वो रास्ते में खाई हुई टॉफी का रेपर भी क्यों ना हो।
                     चार बज रहे थे,  और हमें अब ऊपर से रुधिरनाग दिखाई देना शुरु हो गया था और इन चार घंटों में हमें एक भी व्यक्ति नीचे से खीरगंगा जाने के लिये नही मिला। जब हम पार्वती नदी पर बने पुल से थोड़ा ऊपर पहाड से नीचे उतर रहे थे,  तो रुधिरनाग की तरफ दो शहरी किशोरी लड़कियाँ ऊपर चढ़ती हुई हमारे पास आ कर रुकी......और हमे अंकल सम्बोधन कर बोली कि खीरगंगा अभी कितना है..? 
                    खैर हमने उन्हें रास्ते का पूरा विवरण दिया और सलाह दी कि आपसे पीछे एक और दल चला आ रहा दिख रहा है, आप इनके साथ जुड़ जायें। परन्तु मैं आज भी बहुत बार सोचता हूँ कि क्या वे दोनों लड़कियाँ खीरगंगा पहुँच पाई होगी, क्योंकि उस वक्त शाम के चार बज चुके थे और पांच बजे तो अंधेरा छाना शुरू हो जाता है। इन दोनों के पास डंडों के अलावा कोई ओर सामान नही था,  राम ही जाने कि उनके साथ क्या घटा  होगा.....!!!
                      और,  हम रुधिरनाग वापस पहुँच कुछ समय विश्राम करने हेतू बैठ गये।

                                                 ......................(क्रमश:)
खीरगंगा की सुंदरता..... मनमोहक।

कांची रे, कांची रे, प्रीत मेरी सांची..... रुक जा ना, जा दिल तोड़ के,
टेक चंद जी और मैं, दो अजनबियों को बाँसुरी ने इकट्ठा कर दिया। 

बस इतना सा ही है खीरगंगा... और उस हिप्पी ने हमारी यह फोटो खींची थी।

नज़ारा.......खीरगंगा का।

आखिरी सलाम....खीरगंगा तेरे लिये।

वापसी पर फिर से वही मुसीबत खड़ी थी... रास्ते पर पक्की बर्फ जम कर शीशा बनी हुई थी और वही चण्डीगढ़ वाला दल भी हमारी तरह जूझ रहा था इस मुसीबत से। 

उस शीशा नुमा फिसलनदार बर्फ से इस बार ऐसा फिसला,  कि मैं गहरी खाई की ढलान में गिरता ही चला गया..... शुक्र है कि मेरी पीठ पर लदी रक्सक कहीं फंस गई और मैं रुक गया,
यह सेल्फी मेरे लिए जीवन भर की सीख है कि, " पहाड हमेशा बलवान होते हैं... इन्हें कभी मत कम आंकना, तू विकास नारदा...! "

जमा हुआ एक झरना.... और मैं तो भाई,  फोटो खिंचवानें में भी आख़िर महारत रखता हूँ ना।

भांग के बीजों की चटनी।


लो, ये दोनों सिरफिरे आख़िर खीरगंगा घूम ही चले,
अब सारी उमर इस यात्रा की बड़ी-बड़ी डीगें भी तो मारनी है,ना....!!

(अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )

10 टिप्‍पणियां:

  1. वाह फिर से नया शब्द मंजर सज्जा....भांग के बीज की चटनी शायद आपने lamdal झील के ट्रैक में भी खायी थी...बढ़िया पोस्ट

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    1. धन्यवाद प्रतीक जी, भांग के बीजों की चटनी मैने पहली बार खीरगंगा में चखी थी, लमडल यात्रा में नही.... उस यात्रा पर बहुत कुछ जीवन में पहली दफा ही खाया था, जी।

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  2. वाह मजा आ गया पढ़कर, जितना सुन्दर विवरण उतने ही सुन्दर फोटो, हर पहाड़ी यात्राा में कुत्तों का मिलना भी अपने आप में अद्भुत है जी और उससे भी बढ़कर वो आपके साथ साथ चलते हैं तो एक अलग ही शमा बंध जाता है, वो उपर नीला आसमान, पैरों के नीचे सफेद बर्फ, वाह मन भावविभोर हो गया आपके साथ इस यात्राा में

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    1. बेहद आभार अभयानंद जी, इस श्रृंखला की आगामी किश्तें में मैने पर्वतारोहण के दौरान साथ चल पड़ने वाले कुत्तों पर भी शोध किया कि वे क्यों हम अजनबियों के साथ-साथ चलते हैं, जी।

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  3. कि हम तो सैलानी है.....यहाँ पहुंच कुछ घंटे बिता कर, सारी उमर नायक बन डींगें मारते रहते हैं, असली नायक तो आप है..... जो इन कठिन परिस्थितियों में भी यहाँ सारा साल बने रहते है.........This the truth.

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  4. बहुत ही रोमांचक यात्रा,सुबह से अब तक लगातार सारे भाग दुबारा से पढ़े ह

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    1. बेहद धन्यवाद अशोक जी, मुझे अपना कीमती समय देने के लिए जी।

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  5. बहुत ही रोचक यात्रा का बहुत ही सुंदर वर्णन

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