गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

"श्री कालिनाथ कालेश्वर महादेव" ....."मेरी मनपसंद जगह "

                                      मेरी मनपसंद जगह.... " श्री कालिनाथ कालेश्वर महादेव"

                               "मनपसंद जगह".......का मतलब वो जगह यहाँ आप बार-बार, हजार बार जाए क्योंकि वह आपकी मनपसंद जगह जो है......ना कि वह जगह जो आप से 3000 किलोमीटर की दूरी पर हो और वहाँ पहुँचना भी चांद को चाहने बराबर ही होता है दोस्तों।
                              " सुख वही खास, जो मिले आसपास, बाकी सब बकवास...!!!"   इसी आस-पास के चक्कर में...मैं अपनी मनपसंद जगह का सुख उस जगह में संपूर्ण पाता हूँ, जहां मैं सुबह जाकर शाम को तृप्त हो घर वापस लौट आता हूँ ....ऐसी ही एक जगह है "कालेश्वर महादेव"( गांव मनियाला, परागपुर जिला कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश) जो मेरे शहर गढ़शंकर (पंजाब) से केवल 100 किलोमीटर की दूरी पर है।  मुझे यह रमणीक स्थल इतना पसंद है कि गिनती तक भूल चुका हूँ कि मैं यहाँ कितनी बार जा चुका हूँ और यह भी याद नहीं रहा कि पहली बार कब और कौन मुझे वहाँ लेकर गया था।
                                हर वर्ष सावन के महीने में कोशिश होती है कि अपने मैदानी इलाकों की उमस़ भरी हवा से दूर, हरे भरे पहाड़ो से बह कर आ रहे बरसाती नदी- नालें लांघ,  कालेश्वर पहुँच व्यास नदी के किनारे बने शीतल जल के कुंड में गोते लगाऊँ।
                                और,   हर बार का सफ़र सुबह शुरू होता है....गाड़ी परिजनों से भर जाती है और निकल पड़ती है गढ़शंकर से हिमाचल प्रदेश की ओर। मेरे शहर से 5 किलोमीटर चलने पर ही हिमालय की निम्नतम पहली परत "शिवालिक" की उपश्रेणी पहाड़ियाँ स्वागत करती हैं।  दोस्तों यह श्रृंखला हमारे पड़ोसी पाकिस्तान से आरंभ हो तकरीबन 1600 किलोमीटर का विस्तार ले सिक्किम तक समाप्त हो जाती हैं।   मेरे "कथित पर्वत प्रेम" में इन छोटी पहाड़ियों का बेहद योगदान है, जब मैं भी छोटा था तो अक्सर छत पर पतंग उड़ाते समय दूर से इन पहाड़ियों को देख आकर्षित हो उठता था.... और जब कभी बारिश के अगले दिन मौसम साफ हो, तो मुझे छत से ही मेरी मनपसंद पवर्तीय "धौलाधार" हिमालय की सफेद धारों के दर्शन भी हो जाते थे और किशोर मन ना जाने कितने सपने अपने अंदर ही अंदर जमा कर लेता था।
                                सड़क मार्ग से शिवालिक की निम्न पहाड़ियों के शिखर पर पहुंच आंखें देखती है,  उस चौड़ी घाटी को जो पहाड़ियों और दूर आगे देख रही लोअर शिवालिक श्रृंखला का हिस्सा है। इस घाटी के मध्य "स्वां नदी"बहती है.... बचपन से ही अपने पिता के मुख से सुनता आ रहा हूँ कि इस नदी का नामकरण संस्कृत भाषा  में "श्वान" है। जिसका मतलब होता है कुत्ता यानि कि पता नहीं यह नदी कब एक कुत्ते की चाल की तरह अपनी दिशा बदल बैठे। श्वान नाम अब बिगड़ कर स्वां में तब्दील हो चुका है.... लेकिन अब स्वां नदी की इस क्रूरता को नकेल डालने के लिए तटीकरण का क्रम काफी हद तक हो चुका है। 80 किलोमीटर बहने के उपरांत इस नदी का साफ-सुथरा जल तिब्बत के मानसरोवर के समीप राक्षस ताल से बहकर आ रही सतलुज नदी का हिस्सा बन जाता है।
                                सामने दिख रही लोअर शिवालिक श्रृंखला में सबसे ऊंची पहाड़ी पर माता नैना देवी जी का मंदिर और वह दो पहाड़ों के शिखर दिखतें हैं, जिनके मध्य एशिया का सबसे का बांध "भाखड़ा बांध" बना हुआ है। घाटी में दूर-दूर दिखते हिमाचल और पंजाब के बहुत सारे गाँव, कस्बे व शहर।   नज़र के सामने दिख रहे दृश्य में एक छोर पर पूरे सफेद रंग से पुता, "गुरु गोविंद सिंह जी का शहर आनंदपुर साहिब" तो दूसरे छोर पर नंगल शहर की एन एफ एल खाद फैक्टरी एक खिलौने की भांति पड़ी नजर आती है।
                                दोस्तों, लोअर शिवालिक की इस श्रृंखला में माता चिंतपूर्णी, मां ज्वाला, मां कांगड़ा, मां बगलामुखी, मां चामुंडा और मां मनसा देवी के पावन शक्तिपीठ है और इस श्रृंखला के बाद अपर शिवालिक रेंज में डलहौजी, शिमला, मंसूरी आदि रमणीक पर्वतीय स्थल बसे हुए हैं।
                               हमारी गाड़ी हिमाचल प्रदेश की सीमा में प्रवेश पा,  मेरे पंजाब जैसे ही दिखने वाले लोगों और इलाकों से गुज़र "ऊना" शहर से गुज़रती है। वो शहर यहाँ आज भी गुरु नानक देव जी के वंशज रहते हैं और ऊना रेलवे लाइन द्वारा पूरे देश से जुड़ा हुआ है। दोस्तों अब तक पढ़ते-पढ़ते आपके मन में यह सवाल जरूर कोंदा होगा कि यह विकास नारदा कालेश्वर की बात कर करने की बजाय अभी रास्ते पर ही अटका हुआ है,  तो जवाब भी तैयार है जनाब जी..." खूबसूरत जगहों को जाने वाले रास्ते भी तो खूबसूरत ही होते हैं....!"  मेरे पर्वत प्रेम ही मुझे बार-बार खींच इन रास्तों पर ले जाता है और परिवार वालों को उनकी आस्था।
                                ऊना-अम्ब रोड पर 20 किलोमीटर चलते रहने के पश्चात बरूही गाँव मोड पर मेरी गाड़ी भी मुड़ जाती है,  इंसानी बस्तियों से दूर एक ऊंचे पहाड़ " ध्यूंसर " के शिखर पर बने "सदाशिव ध्यूंसर महादेव मंदिर" की ओर। बरूही मोड़ से 15 किलोमीटर लंबे इस रास्ते पर ज्वालामुखी लावा के ठंडा होने पर बने बड़े-बड़े चट्टानी पहाड़ और बरसात के उस मौसम में उन पर गिरते जलप्रपात मेरी गाड़ी के ब्रेक- पैडलों पर अक्सर भारी ही पड़ते हैं। सड़क की एक तरफ गहरी खाई के उस पार,  दूर वो झरना हर बार मैं देखता हूँ.....  जिसका जल एक ताल से निकल, नीचे बहता हुआ दूसरे ताल को भरता हुआ आगे बह जाता है।  खुराफाती मन उछलता है,  चल विकास उस ताल में जाकर नहाते हैं परंतु हर बार परिवार नामक संगल से मेरे पैर बंधे होते हैं,  सो बंधा हुआ पैर फिर से गाड़ी का एक्सीलेटर दबा देता है और जा कर रुकता है सदाशिव ध्यूंसर महादेव (गांव वही, जिला ऊना)  की सीढ़ियों के आगे.....कोई दुकान- मकान नहीं, बस  ध्यूंसर पर्वत शिखर पर बना एक खूबसूरत शिव मंदिर और उस उँचाई से दिखती हरियाली भरी घाटियाँ ....जहाँ पहुंच प्रकृति प्रेमी पर प्राकृतिक सुंदरता की मदहोशी छा जाती है।
                            स्थल इतिहास भी हर पुरातन स्थल की तरह महाभारत काल से ही जुड़ा है कि पांडवों के पुरोहित ऋषि धौम्य ने इसी ध्यूंसर पर्वत पर भगवान शिव को तप कर प्रसन्न किया था और वर मांगा कि मेरे द्वारा स्थापित इस शिवलिंग पर जो भी भक्त मनोकामना मांगेगा, उसे आप पूर्ण करेंगे।  समय बदला युग बदला,  और 1937सन् में... उत्तरकाशी में गंगा तट पर तपस्या में लीन स्वामी ओंकारानंद गिरि जी को रात्रि स्वपन में भगवान शिव ने एक गुफा और यह स्थल दिखाते हुए कहा कि जहाँ जाकर मेरा भजन करो...... और स्वामी जी ने आखिर 10 वर्षों की खोज के बाद 1947 में यह स्थान ढूंढ ही निकाला और 1948 में संपन्न लोगों के अनुदान द्वारा इस जीर्ण मंदिर का पुनर्निर्माण आरंभ किया।  मंदिर में स्थापित शिवलिंग चौरस आकार का है और प्रसाद मिलता है चूरमे का दोस्तों।
                           गाड़ी फिर से वापस उसी सड़क पर दौड़ती हुई योल नामक ग्राम से मोड़ देता हूँ कालेश्वर की ओर....कई सारे गांव, धान व मक्की के पहाड़ी खेत, सिलेटी छतों के मकान,  बरसात में बह चुके कच्चे-पक्के रास्ते और दूर सामने दिख रही धौलाधार हिमालय की गगनचुंबी दीवार। कोई एक घंटे के पहाड़ी सुहाने सफर के बाद अम्ब-नादौन मार्ग से कुछ हटकर आखिर गाड़ी आ पहुँचती है, अपनी असल मंजिल "कालेश्वर"(480 मीटर ).....जैसे-जैसे गाड़ी मंदिर के समीप होती जाती है, भोले के भक्त हमारा स्वागत करते हैं और  बम भोले, जय भोले के उद्घोष साँझा भी होते जाते हैं।                            "श्री काली नाथ कालेश्वर महादेव मंदिर" के छोटे से पैदल रास्ते में दोनों तरफ खाने-पीने की दुकानों को पार कर हम कालेश्वर महादेव मंदिर परिसर में दाखिल होते हैं। मंदिर प्रांगण में मुख्य मंदिर के साथ और भी कई बड़े-छोटे नव व पुरातन मंदिर हैं और एक ताजे़ जल की बावड़ी है। मंदिर प्रांगण की दीवार को व्यास नदी का जल छू कर बह रहा होता है। आस-पास का बेहद हसीन नज़ारा आंखों को मोहित कर जाता है। मुख्य मंदिर में स्थापित शिवलिंग भी अद्वितीय है, जो मंदिर तल से करीब डेढ़-दो फुट नीचे भूमि में स्थित है। पुजारी द्वारा डाले जाते इस शिवलिंग पर चढ़ाएं जल के छींटे श्रद्धालुओं को आत्मीय शीतलता प्रदान करते हैं।
                          मंदिर इतिहास जुड़ा है मां पार्वती के महाकाली रूप से....... महाकाली की उत्पत्ति राक्षसों के सर्वनाश करने हेतु हुई,  तो राक्षस-संहार में मां काली का क्रोध इतना क्रूर और विकराल हो जाता है कि संपूर्ण देव शक्तियां एकजुट हो उन्हें शांत नहीं कर पाती.... तो भगवान शिव खुदा महाकाली के आगे लेट जाते हैं परंतु उस वक्त महाकाली का क्रोध सुध-बुध की सीमा से बाहर था। महाकाली ने अपना पैर महादेव की छाती पर जैसे ही रखा,  महाकाली की चेतना लौट आई कि उसने अनजाने में ही अपने पति को पैर लगा दिया और इस महापाप के पश्चाताप में महाकाली,यहीं व्यास नदी के किनारे समाधि मगन हो भगवान शिव की तपस्या कर पाप मुक्त होती है।
                          मंदिर परिसर में ही हर वर्ष सावन के चारों सोमवार,  मेरे गढ़शंकर शहरवासी भोले के दरबार में आए भक्तों के लिए खाद्य पदार्थों के लंगर लगाते हैं। यदि मैं सावन महीने के सोमवार को यहाँ आऊँ,   तो हर तरफ मुझे जाने- पहचाने लोग मिलते हैं और मेरे गढ़शंकिरये भाई बहुत सेवा करते हैं। वैसे मंदिर में अपना लंगर कक्ष भी है, मुझे याद आ रहा है कि एक बार जब हम लंगर में अपनी भूख लेकर पहुंचे तो लंगर खत्म।  मेरी बुआ जी के आग्रह पर हमें थोड़े से फीके चावल और अदरक का अचार मिला....क्या स्वादिष्ट तालमेल बना उस अदरक के अचार संग चावल...सारी उम्र के लिए वह स्वाद जीभ और ज़हन में ताज़ा है। मेरा अनुभव है दोस्तों,  यदि आप अपनी यात्राओं की यादों के संग वहां मिले स्वादिष्ट भोजन के स्वाद की याद को भी जोड़ लेंगे, तो उस यात्रा की याद हमेशा ही आपके दिमाग के स्मृति भंडार में अग्रिम क्रम में पड़ी होगी।
                          लंगर कक्ष के पास एक बेहद प्राचीन दीवार है जिससे स्थानीय लोग महाभारत समयकालीन बतातें हैं, वही आस पास कई सारे पुरातन मंदिर भी है जो अब जर्जर हो चुके हैं....शायद अब उन पर कोई श्रद्धालु भी ना जाता हो।  मंदिर के पीछे व्यास नदी की नील-हरी सी धारा के समीप श्मशान भूमि है, इसका ज्ञान मुझे तब हुआ जब मैं अपने पर्वतारोही संगी विशाल रतन जी को ले सर्दियों में कालेश्वर पहुंचा,  तो व्यास नदी की जलधारा तट से काफी दूर बह रही थी और उसके किनारे कई सारी चिताओं के जलाये जाने के अवशेष थे।
                          मंदिर के नीचे उतरकर व्यास जलधारा के पास पहुँचना भी तभी संभव हुआ था.... क्योंकि सावन के महीने में एक तो व्यास नदी की धारा प्रचंड रुप ले मंदिर के पीछे ही बह रही होती है और दूसरा परिजनों की बेड़ियां भी  मेरे मन की चंचलता पर जकड़ी होती है दोस्तों, क्या समझे...!!!
                          परंतु आवारा जल में जाना मौत को दावत देने समान ही होता है।  इस बात का प्रमाण मुझे तब साक्षात हुआ, जब मैंने नदी घाट की सीढ़ियों में एक संगमरमर का सूचना-पट्ट लगा देखा जिस पर लिखा था.......
                         " अमन के परिवार व परिजनों की तरफ से अपील है कि चट्टान के पास पानी बहुत गहरा है वहाँ कदापि ना जाएें....हम सब के दिलों में अपनी यादें छोड़ कर जुदा हो गया अमन,  हमें रोता बिलखता छोड़कर ना जाओ आगे पानी बहुत गहरा है,  कुछ हाथ ना आएगा पछतावे को छोड़कर"         (गुरमुख सिंह पिता, सुनीता माता, तरलोचन सिंह हरमीत सिंह भाई )जन्म 11-10-1991 स्वर्गवास 16-3- 2010
                            यह एक पत्थर ही काफी है मन की चंचलता को काबू में करने के लिए..... परंतु अफसोस वो नवयुवक "अमन" इसकी उदाहरण बना ताकि किसी और परिवार का अमन व चैन फिर से इस नदी में न डूब जाए।
                             खैर दोस्तों मंदिर से वापस चल,  फिर से उन 4-5 दुकानों के बाज़ार में हर बार रुक जाता हूँ क्योंकि  चाय-पकौड़े और नारियल के लड्डू भी खाने होते हैं जी......या यूँ कहें कि इस जगह मिलने वाले ज्यादा चीनी के नारियल लड्डू भी मुझे बार-बार यहाँ खींच लाते हैं।
                              सच बात बोलूँ....तो मुझ घुमक्कड़ को अलग-अलग जगहों पर मिलने वाले व्यंजन ही खींच ले जाते हैं दोबारा उन्हीं जगहों पर.....  जैसे मथुरा वृंदावन में मिलने वाली खस्ता कचौरी,  अमृतसर में मिलने वाले छोले कुलचे, धर्मशाला-मक्लोडगंज में मिलने वाले मोमोस्।
                             और,  अंत में आता है बारम-बार करने वाली यात्रा का मुख्य आकर्षण.... सावन के महीने की चिपचिपी गर्मी से राहत दिलाता कालेश्वर का वो जलकुंड.... जिसमें पर्वत से भूमिगत रूप से एक मोटी जलधारा आ गिर रही है।  उस शीतल जल धारा के नीचे जब मैं कुंड में प्रवेश कर अपना सर नीचे करता हूँ, तो उस समय की प्रचण्ड गर्मी में ऐसी अनुभूति होती है जैसे कि किसी चकोर को उसका चांद मिल गया हो। स्त्री-पुरुषों दोनों के लिए अलग-अलग जलकुंड हैं और नहाते हुए लोगों की "किलकारियां" उनकी चंचलता व प्रसन्नता का प्रमाण देती हैं।
                             और, हर बार की तरह दिन ढलने से पहले हमारी गाड़ी वापस चल देती है गढ़शंकर की ओर दोस्तों। आप जब भी हिमाचल प्रदेश में माता चिंतपूर्णी आए तो,   कालेश्वर आने की कोशिश अवश्य करें। माता चिंतपूर्णी से कालेश्वर की दूरी मात्र 31 किलोमीटर और  मां ज्वाला जी का मंदिर भी कालेश्वर से मात्र 13 किलोमीटर की दूरी पर ही है।
वो देखो दूर..... ध्यूंसर पर्वत पर " सदाशिव ध्यूंसर महादेव मंदिर "

खुराफाती मन उछलता है,  चल विकास उस ताल में जा कर नहाते है...
परन्तु हर बार परिवार नामक संगल से मेरे पैर बंधे होते हैं, सो बंधा हुआ पैर फिर
से गाड़ी का एक्सीलेटर दबा देता है सदाशिव महादेव मंदिर की ओर। 

बस हम कालेश्वर पहुँचने ही वाले हैं,  जी।

श्री कालीनाथ कालेश्वर महादेव मंदिर का मुख्य द्वार। 

श्री कालीनाथ कालेश्वर मंदिर। 

मंदिर में स्थापित शिवलिंग पर चढ़ाएं जल के छींटे जब पुजारी आपके ऊपर फैंकता है,
 तो आत्मीय शीतलता की अनुभूति होती है दोस्तों। 

पूरे मंदिर परिसर में मुझे इस मंदिर की कारीगरी बेहद पसंद है। 

कालेश्वर मंदिर परिसर में महाभारत समकालीन एक पुरातन दीवार,  जिसे संरक्षित किया गया है। 

कालेश्वर मंदिर परिसर में कई सारे मंदिरों का समूह है दोस्तों। 

मंदिर परिसर में कुछ मंदिर तो जर्जर हो चुके हैं। 

मंदिर के पास बह रही व्यास नदी के तट पर श्मशान।

कालेश्वर के छोटे से बाज़ार में मिलने वाले नारियल के लड्डू....जो मुझे बहुत पंसद हैं। 

कालेश्वर का मुख्य आकर्षण...ठंडे जल की वो धारा,  जो भूमिगत रुप से  पहाड के गर्भ से निकल कुंड में गिरती है,
यह चित्र सर्दियों का है...बरसात में यह धारा बेहद मोटी होती है।

गर्मियों में कालेश्वर का मुख्य आकर्षण.... ठंडे व ताज़े पानी का यह कुंड।
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(1) " पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास " यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(2) " श्री खंड महादेव कैलाश की ओर " यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(3) " चलो, चलते हैं सर्दियों में खीरगंगा " यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(4) करेरी झील " मेरे पर्वतारोही बनने की कथा " यात्रा वृत्तांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(5) "मणिमहेश, एक दुर्गम रास्ते से...!" यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।

रविवार, 19 नवंबर 2017

भाग-28 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर (अंतिम किश्त)Shrikhand Mahadev yatra(5227mt)



भाग-28 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....(अंतिम किश्त)
                                                 " पापी व दुराचारी को रोकता वो द्वार "

इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र(https://vikasnarda.blogspot.com/2017/04/1-shrikhand-mahadev-yatra5227mt.html?m=1)स्पर्श करें।
                                   
                                25-07-2016...के दिन सुबह के 7बजे,  मैं और विशाल रतन जी श्री खंड यात्रा के पहले पड़ाव सिंहगाड़ में श्री खंड सेवा मण्डल लंगर के प्रबंधक गोविंद प्रसाद शर्मा जी और सतीश अग्रवाल का आभार व्यक्त कर... जांओं गाँव की ओर चल दिये,  कल रात को इसी लंगर पर ही मिले एक जनाब ने हमारे साथ "साई-बधाई" लगा ली कि कल सुबह अाप मुझे अपनी गाड़ी में ले जा कर शिमला उतार देना... ऐसे ही तीन और औरतों ने मुझे रात में पूछा कि आपके पास गाड़ी है,  हमें फलां-फलां जगह उतार देना.... परन्तु मैं किसी को भी साथ नही ले जाना चाहता था क्योंकि मैं अपनी मर्जी का मालिक हूँ... यहाँ मुझे पहाड़ ने रोक लिया,  ना जाने कितना समय उसे खड़ा निहारता रहूँ,  उस संग बातें करता रहूँ और जहाँ चाहूँ उस ओर चला जाऊँ.... किसी बंधन में नही बंधना हमें,  सो उन तीनों महोतरमाओं को सुबह कहा कि हमे देर से जाना है और रात से चिपके शिमला वाले जनाब जब नहा रहे थे,  उन्हें अलविदा कह लंगर से निकल लिये,  हमें जाता देख उन जनाब का चेहरा ऐसा हो गया जैसे हम नही उनकी प्रथम श्रेणी की रेलगाड़ी छूट रही हो।  लंगर के बाहर निकले तो बहादुरगढ़ निवासी मोटे शीशों की ऐनक वाले जनाब भी वापसी सम्बन्धी पूछताछ करने लगे,  उन्हें भी टाल-मटोल कर दिया.... क्योंकि हम दोनों अपनी एकान्तता किसी संग बांटना नही चाहते थे और हमें वापसी में "निरमण्ड" के परशुराम मंदिर और भगवान शिव के गुफा मंदिर "देव-ढाँक" भी तो जाना था... यदि उन सब को गाड़ी में भर लाता, तो उन स्थानों पर कैसे पहुँच सकता था दोस्तों।
                              लंगर से कोई बीस कदम ही चले थे कि सामने दुःखद दृश्य दिखाई पड़ा,  वह चौथी लाश थी... तीन लोग पिछले एक सप्ताह में इस यात्रा पर मर चुके थे... चौथी लाश बना सिंहगाड़ गाँव जलेबी-पकौड़ों का लंगर बनाने वाला हलवाई,  जिससे हमनें यात्रा पर जाते समय खूब जलेबी-पकौड़े खा कर गए थे... उस हलवाई की कोई ज्यादा उम्र भी नही थी,  उसकी मृत्यु का कारण ह्रदयघात बताया गया... अब नेपाली कुली उस लाश को लोहे के दो पाइपों के मध्य बांध कर जांओं गाँव सड़क तक पहुँचानें की तैयारी कर रहे थे ताँकि उस लाश को उसके गाँव पहुँचाया जा सके....बार-बार उस हंसमुख से चेहरे वाले पतले-दुबले हलवाई का चेहरा मेरी आँखों के आगे घूम रहा था और दिमाग़ ने दबी सी ज़ुबान में मेरे मनमौजी मन को कहा, " देखा विकास,  तू बच कर जा रहा है.. तेरी बात यदि मैं ऊपर बसार गई में मान लेता यहाँ बर्फीला तूफ़ान आया था, तो ये लोहे की दो पाइपें तेरे काम भी आ सकती थी पगले...!!! "
                              दोस्तों, मैने अपने जीवन में घटी हुई घटनाओं से सीखा है कि जो भी आपके साथ घट रहा होता है वो मौके पर कभी आपको अच्छा नही लगता,  कि मेरे साथ यह जो भी घटित हो रहा है गलत हो रहा है.... परन्तु कुछ समय बाद लगता है कि चलो जो हुआ था वो अच्छा ही हुआ,  इसी में मेरी भलाई थी।
                               खैर कुछ क्षणों बाद ही मेरे दिमाग़ पर हलवाई की मौत को वापसी के रास्ते पर आ रहे मनमोहक दृश्यों ने दबा दिया.... वो मिट्टी के बने पुराने घर मुझे अपने से लगने लगे,  जिन्हें मैं श्री खंड जाते समय मिल कर गया था... रास्ते में गाँव के घरों के बाहर बगीचों में लगे फूल अब मुरझा चुके थे, जिन्हें 6दिन पहले हम खिलखिलातें हुए छोड़ गए थे,  परन्तु जीवन चक्र का नियम बादस्तूर चल रहा था,  6दिन पहले देखी कलियाँ अब फूल बन मुस्कुरा रही थी।  गाँव के बाहर जगह-जगह खुद ही उग आये जंगली डेज़ी के फूल हमें झूम-झूम कर रुख़सती दे रहे थे।
                                डेढ़ घंटा लगातार चलते रहने के बाद हम उस जगह पहुँचे जहाँ से श्री खंड शिला के प्रथम दर्शन होते हैं,  उस जगह पहुँचते ही मैने झट से पीछे मुड़ देखा तो आनंद ही आ गया क्योंकि जाते समय बादलों के कारण हमे श्री खंड शिला के दर्शन नही हो पाये थे,  परन्तु अब श्री खंड महादेव शिला आज हमें देख मुस्कुरा रही थी और एकाएक मेरे अंर्तमन में स्वर गूँजनें लगे,  " विकास,  मैं बोल रहा हूँ शिव.... तू मुझ तक ना पहुँचने को हार-जीत में मत तोल,  बल्कि इसे सीख मान चल.... और हां एक बात और,  यदि तू मान लेगा तो तेरी हार है,  ठान लेगा तो तेरी जीत है... तू दोबारा से ठान कर आना,  तेरा सदा स्वागत है..!!! "
                                 श्री खंड महादेव शिला के अंतिम दर्शन पा हम दोनों अपने-आप को धन्य व शांत महसूस कर रहे थे.... दो घंटे चलने के बाद यानि 9बजे हम जांओं गाँव पहुँच गए,  जहाँ पिछले 6दिनों से हमारी गाड़ी सड़क किनारे लावारिस खड़ी थी।  गाड़ी को दूर से ही देख मेरा माथा खटका और पास जाने पर वही बात सिद्ध हो गई,  क्योंकि हमारी गाड़ी के आगे एक महापुरुष अपनी गाड़ी ऐसे जोड़ कर खड़ी कर गया था कि हमारी गाड़ी आगे नही निकल सकती थी और गाड़ी को रिवर्स करना नामुमकिन था क्योंकि पीछे एक छोटा सा नाला, जिसमें बड़े-बड़े पत्थर और गड्ढे थे... मैं अपनी गाड़ी रिवर्स कर इस ढंग से खड़ी कर गया था कि वापसी पर इसे सीधा आगे की ओर निकाल लूँगां.... पर अब उसे आगे की ओर निकालना असंभव था,  जबकि उस महापुरुष के पास आगे काफी जगह थी गाड़ी पार्क करने की... परन्तु वह अपनी गाड़ी मेरी गाड़ी के साथ जोड़ कर खड़ा कर गया।
                                  खैर, मरता क्या ना करता... गाड़ी को स्टार्ट कर रिवर्स गेयर लगाया तो पत्थरों पर फिसल कर गाड़ी पीछे जाने की बजाय सड़क किनारे लगी हुई पत्थरों की रोक नुमा दीवार से जा टकराने लगी,  उस दीवार और एक महीना पहले ली हुई मेरी नई गाड़ी में मात्र एक इंच का फासला रह गया।  अजीब मुसीबत गले आन पड़ी थी,  मन चंचल बोल उठा, " और जवाब दे जरूरतमंद लोगों को,  कि मैं किसी को अपने साथ नही ले कर जाऊँगा...ले निकल गई तेरी अकड़ सारी,  अब यहाँ बैठ माथा पीट...! "       गड्ढों को पत्थरों से भर फिर एक बार रिवर्स में गाड़ी डाल रेस दी तो एक इंच का फासला अब आधा इंच रह गया दीवार से... और पत्थरों की दीवार को संभाल रही लोहे की तारों व गाड़ी की टेल-लाइट में मिलन हो गया,  सो झट से अपने स्लीपिंग मैट निकाल बीच में फंसा दिया...कि गाड़ी को खरोंच ना पड़े।
                                   बदकिस्मती ने यहाँ भी हमारा पीछा नही छोड़ा और गाड़ी के पिछले पहिये पत्थरों में धंस गए और गाड़ी फिसल कर पत्थरों की दीवार से जा चिपकी।  तभी एक लड़का हमारे पास आ पहुँचा और बोला यह गाड़ी तो फला आदमी की है,  मैं उसे फोन कर पूछता हूँ कि वह कहाँ है.... फोन पर बातचीत के अनुसार उसने हमें जवाब दिया कि गाड़ी वाला अभी भीमद्वारी से चला है, पहाड़ी आदमी है...शाम तक आसानी से यहाँ पहुँच जाएगा...!
                                    पर शाम किसने देखी है,  कौन उसका इंतजार करना चाहता था और गाड़ी इस प्रकार फंस चुकी थी कि उसे ना तो अब आगे बढ़ाया जा सकता था और ना ही पीछे,  क्योंकि वह अपनी जगह पर ही पत्थरों में धंस चुकी थी,  सो अब अपने जैक द्वारा गाड़ी के पिछले टायर ऊपर उठाने लगा, पर सब व्यर्थ... अब तो केवल एक ही सूरत बची थी कि गाड़ी को समानांतर दिशा में खींच कर पहले दीवार से दूर हटाया जाये।
                                    कुछ समय बाद हमारे पास दो युवक और आ पहुँचे जो श्री खंड पद यात्रा के रास्ते पर सबसे पहले लगे लंगर (पंजाब के "गागा लहड़ी" कस्बे वालों का लंगर)  पर अपने ट्रक में सामान ले कर आये थे.... उन्होंने लंगर से कई और नौजवान,  जैक व रस्सी मांगवा लिये।  अब हम दस-बारह लोग गाड़ी को सड़क की ओर खींच रहे थे,  परन्तु गाड़ी टस से मस भी नही हुई।  सब के सब ज़ोर-अज़माइश कर पीछे हट चुके थे, तो गागा लहड़ी लंगर वाले लड़कों ने कहा कि आप लोग लंगर पर आ जाए,  गाड़ी को सड़क की तरफ खींचने का कोई प्रबंध वहाँ स्थानीय गाँव में जा कर करतें हैं।  विशाल जी उनके साथ लंगर पर चले गए और मैं गाड़ी के पहियों के नीचे की मिट्टी खोदने लगा.... और हां, जाते हुए उस लड़के से गलत गाड़ी पार्क करने वाले महापुरुष का नम्बर भी ले लिया..... उसे फोन लगाया पर "क्षेत्र सीमा से बाहर "
                                    खैर,  अब मैं अकेला गाड़ी के नीचे घुस मिट्टी व पत्थर निकाल रहा था,  एक तो पिछले 6दिन से हम नहाये नही थे और ऊपर से सूरज देव की क्रूरता मेरे दिमाग के ठंडे पारे को उबालने लगी,  रसीले फलों से लदी टहनी सा मेरा व्यवहार,  अब सूखी कंटीली झाड़ी में तबदील होने लग पड़ा था।  सो गुस्से से बार-बार उस कथित महापुरुष को फोन पर फोन लगाता जा रहा था,  परन्तु हर बार " क्षेत्र सीमा से बाहर, पुन: प्रयास करें " मीठी व बेशर्म सी घोषणा कानों के रास्ते दिमाग़ की परेशानी को और बढ़ाती जा रही थी।
                                     दोस्तों, अब सोचता हूँ कि अच्छा हुआ उस समय मेरा फोन उस महापुरुष को नही लगा,  यदि लग जाता तो मेरी पंजाबियत उस समय प्रचण्ड सीमा पर उबल रही थी,  वो पंजबियत जो पूरे विश्व में बदनाम है कि हर बात पर " जी" साथ लगाने वाले पंजाबी,  गुस्से में सामने वाले की माँ-बहन....!!!!!!
                                      माफ़ करना दोस्तों,  कुछ अभद्र हो गया हूँ पर उस वक्त मेरा ऐसा ही व्यवहार हो चुका था.... मैं अब थक-हार कर गाड़ी के किनारे सड़क पर ही सिर पकड़ पर बैठा था कि दूर एक ट्रैक्टर के आने की आवाज़ सुनाई दी और उस पर ड्राइवर के बगल में बैठे विशाल जी चमक व चहक रहे थे।
                                      गागा लहड़ी लंगर वालों की रस्सी से ट्रैक्टर व गाड़ी का गठबंधन कर पहले गाड़ी का पिछला हिस्सा सड़क की ओर घसीटा और फिर आगे वाला हिस्सा....और गाड़ी को स्टार्ट कर रिवर्स गेयर लगाया,  असहाय हो चुकी गाड़ी अब सड़क पर खड़ी हमारे संग हंस रही थी।  पत्थरों की दीवार से गाड़ी के एक दरवाजे को खोलने वाले हत्थे पर मात्र छोटी सी चोट यानि खरोंच आई थी,  हम दोनों ने अपनी सूझबूझ से गाड़ी को सुरक्षित बाहर निकाल लिया था।
चेहरों पर अत्यन्त हर्ष के भाव को हम दोनों सांढ़ू भाइयों ने एक-दूसरे को गले लगा और बढ़ाया।  दोस्तों साढे तीन घंटे की मेहनत-मुशक्कत के बाद यानि दोपहर साढे बारह बजे हमारी गाड़ी बाहर निकल पाई थी...... ट्रैक्टर वाले सज्जन को असंख्य आभार और सीमित कागज़ी शुक्रानें संग हंसते-हंसते विदा किया।
                                     ट्रेक्टर वाले के जाने के बाद,  हंसते-हंसते मेरा चेहरा एक दम से कठोर हो गया.... क्योंकि अंदर का पंजाबी फिर जाग रहा था और सड़क किनारे पड़े एक बड़े से पत्थर को उठा,  उस कथित महापुरुष की गाड़ी की ओर बढ़ने लगा।  विशाल जी झट से मेरी मंशा समझ गए.... मेरे हर कदम पर "नही,  नही,  नही विकास ऐसा मत करो..!"    मैने अपनी दोनों भुजाओं को सिर से ऊपर उठा रखा था और हाथों में पत्थर लहरा रहा था व निशाना बन चुका था उस महापुरुष की गाड़ी का मुख्य शीशा।
                                     विशाल जी लगातार चीख रहे थे, " नही विकास,  नही विकास इस पागल की तरह पागल मत बनो "..........विशाल जी की बात सुन अब मेरे दिमाग़ में द्वंद्व आरंभ हो चुका था "बुरे विकास नारदा और अच्छे विकास नारदा में "......... और चंद ही क्षणों के बाद अच्छे विकास नारदा की जीत हुई।  मैने अपनी भुजाओं को नीचे कर पत्थर उस महापुरुष की गाड़ी के बोनट पर रख दिया,  विशाल जी की साँस में साँस अाई और तब मैं बोला यदि मेरी गाड़ी इस अनाड़ी ड्राइवर के आगे खड़ी होती तो निश्चित है विशाल जी यह बंदा मेरी गाड़ी का शीशा अवश्य तोड़ कर जाता।
                                     चलो खैर अब हम गाड़ी ले कुछ ही दूर गागा लहड़ी वालों के लंगर पर जा रुके,  जहाँ हमने उनकी रस्सी (जो अब तीन जगह से टूट चुकी थी) और जैक भी उन्हें वापस करना था।  लंगर वालों के आग्रह पर वहीं दोपहर का भोजन करने के उपरांत हम चल दिये वापसी के रास्ते पर.........निरमण्ड नही रुक पाये क्योंकि हमारा सारा समय तो गाड़ी को निकालने के चक्कर में लग चुका था,  सो एक-डेढ़ घंटा गाड़ी दौड़ाने के बाद करीब ढाई बजे सीधे ही देव-ढाँक जा पहुँचे।
                                     देव-ढाँक गुफा सतलुज नदी की घाटी में ऊँचे पर्वत के मध्य प्राकृतिक रुप से बनी हुई है....गाड़ी खड़ी कर जैसे ही हम बाहर निकले,  एक स्थानीय बूढ़ी माँ ने हमें पूछा कि बेटा श्री खंड जा रहे हो।  मैने कहा नही माता जी, हम तो श्री खंड से वापस आ रहे हैं.... तो वे बोली, " अच्छा,  वैसे हमारी रीत यह है कि जो भी श्री खंड जाना चाहता है वह पहले देव-ढाँक माथा टेक कर जाये। "   हमारी अधूरी यात्रा पर वे माता जी पुन: बोली, " बेटा,  शिव जी ने तुम लोगों को जीवन दान दिया है... इसलिए उसने तुम्हें वापस भेज दिया,  यह उसकी लीला है जो तुम नही समझ पाये...!!! "
                                    मैने उन संग अपनी सैल्फी खींचने के लिए उन्हें कहा,  तो वह बोली, " मेरा दोहता अम्बाला में रहता है और ऐसे ही अजीब-अजीब सी शक्ल बना कर मेरे साथ फोटो खींचता है। "     मैं हंसते हुए बोला, " नानी,  यह आज की पीढ़ी का रंग-ढंग है,  अलग- अलग शक्लें बना खुद की ही फोटो खींचना...! "
                                     मंदिर परिसर में पहुँच हम दोनों ने सबसे पहले 6दिनों से ना नहानें के कारण,  चंडाल जैसे बने रंग-रुप को स्नानघर में पहुँच "बंदों" में शामिल किया।  स्नान के पश्चात हम दोनों गुफा की ओर बढ़ दिये.... पर यह क्या गुफा का प्रवेश द्वार बहुत ही संकरा था,    और तभी वहीं पता चला कि देव-ढाँक की इस शिव गुफा के द्वार से केवल पुण्य कमाने वाला व्यक्ति ही प्रवेश पा सकता है पापी नही,  अर्थात् स्थानीय लोगों की मानें तो यह शिव गुफा मापदंड है "सदाचारी या दुराचारी व्यक्ति की पहचान का "      सदाचारी व परोपकारी व्यक्ति कितना भी मोटा क्यों ना हो,  वह इस गुफा में प्रवेश कर जाएगा... परन्तु यदि दुराचारी पापी व्यक्ति जितना भी दुबला-पतला हो वह इस द्वार के पार नही जा सकता।
                                     दोस्तों,  मैं बहुत दफा सोचता हूँ कि क्या पाप करने वाले व्यक्ति को ज्ञात होता है कि वह पाप कर रहा है,  उदाहरण के तौर पर क्या चोर को पता होता है कि वह चोरी कर पाप कर रहा है...नही उसे नही पता होता है कि वह पाप कर रहा है, यदि उसे पता चल जाए कि चोरी करना पाप है.. तो वह शायद इसे ना करे,  चोर चोरी को पाप ना मान कर इसे अपना कर्म मानता है।  ठीक वैसे ही रिश्वतखोर कहाँ मानता है कि रिश्वत लेना पाप है,  वह तर्क देता है कि यह तो मेरी काम करने की फीस है।
                                     खैर,  हम दोनों भी फंस-फंसा कर ही सही... पर गुफा के उस संकरे द्वार को पार कर भीतर पहुँच ही गए।  देव-ढाँक गुफा एक छोटी सी प्राकृतिक गुफा है जिसमें मानव-निर्मित शिवलिंग के ऊपर छत से निरंतर जल की बूँदें टपकती रहती हैं, गुफा के मध्य से एक छोटा सा रास्ता भी कहीं जाता सा नज़र आता है... जिसके बारे में मान्यता है कि भस्मासुर नामक राक्षस से बचते हुए भगवान शिव ने इसी गुफा में शरण ली थी और इसी संकरे छोटे से भूमिगत रास्ते द्वारा भगवान शिव श्री खंड कैलाश पर्वत पर गए थे।  गुफा से बाहर निकलने का रास्ता यानि निकासी द्वार भी अलग है,  वह भी प्रवेश द्वार की तरह ही बेहद संकरा सा ही है।  गुफा से बाहर निकल मैं विशाल जी से बोला, " मुझे लगता है कि इस गुफा के द्वार ने अब कलयुग में काम करना बंद कर दिया है,  यदि यह पूर्ण रुप से काम करे तो आज का कोई भी मानव इस मंदिर के अंदर ना जा पाये...शायद मंदिर का पुजारी भी नही....!!!!"
                                     जब हम दोनों गुफा मंदिर से वापस अपनी गाड़ी के पास जा रहे थे तो मंदिर परिसर के बाहर रास्ते किनारे आठ-दस नवयुवकों का दल बैठा था,  जो हमें श्री खंड यात्रा के दौरान नयन सरोवर से आगे मिला था...वे सब एक चिलम को बारी-बारी से घूमते हुए बम-भोले के उद्घोष संग फूँकें जा रहे थे।   देखते ही वे हमें पहचान गए और बोले, " आओं ट्रेकर बंधुओं.... तुम भी भोले के आनंद में दो-चार कश खींच लो...! "    मैं हंसते मुख पर दुखी ह्रदय से मात्र यह ही बोल पाया, " शिव जी ने हमें इस धुँऐं के बगैर ही अनंत आनंद दे रखा है मेरे नौजवान दोस्तों...!!! "
                                     शाम के 4बजे घर वापसी की राह पकड़ ली...नारकण्डा के पास सड़क पर हुई एक दुर्घटना में एक गाय मरी पड़ी थी और गिद्धों का झुंड उसे नोच रहा था.... यह भीषण दृश्य देख, मैं कहाँ चुप रहने वाला था....सो बोल उठा, " विशाल जी,  पिछले जन्म में संत विकासश्वेर जी ने कहा था कि ऐसा कलयुग आयेगा घर में बंधी गाय रास्तों पर भटकेगी और रास्तों में भटकने वाला कुत्ता घर में बंधा होगा.....!  क्या विडम्बना है कि हम लोग कितने स्वार्थी हैं कि सारी उम्र हमें अपना दूध दे पालने वाली गाय को बूढ़ी होने पर हम उसे डंडें मार घर से बाहर निकाल देंते हैं, सड़कों पर मरने और मारने के लिए.....और दूसरी ओर एक कुत्ते के पिल्ले को अपने बच्चों की तरह पालतें है और तब तक पालते है जब तक वह बूढ़ा हो मर नही जाता,  वाह रे मानव,  तेरी लीला भी अपम्पार है.....!!!!

                                                         .........................(समाप्त)
सिंहगाड़ गाँव में गिरचाडू देवता का मंदिर,  जिसके प्रांगण में हर वर्ष यात्रा के समय श्री खंड सेवा मण्डल द्वारा लंगर लगाया जाता है।  

वापसी का राह... पर्वतों की सुंदरता में बसे घर। 

मिट्टी के घर,  मुझे अपने से लगे.. क्योंकि जाते समय मैं इनसे मिल कर जो गया था, दोस्तों। 

वाह बेटी,  तुम्हारा घर भी बहुत खूबसूरत है। 

डेजी के आवारा फूल.... हमें झूम-झूम कर रुख़सती दे रहे थे। 

पर्वत की ऊँचाई से सेब-सब्जियों को सड़क तक पहुँचाने के लिए लगे यंत्र। 

पीछे मुड़ कर देखा,  तो यह नज़ारा था... श्री खंड महादेव शिला के अंतिम दर्शन कर अपने आप को धन्य व शांत महसूस कर रहे थे हम दोनों। 

लो,  कुछ ओर नजदीक से देख लो दोस्तों श्री खंड महादेव कैलाश। 

इससे ज्यादा नजदीक नही दिखा सकता दोस्तों,  कैलाश पर्वत पर स्थित श्री खंड महादेव शिला। 

यह देखिए,  उस कथित महापुरुष की करतूत। 

इस कथित महापुरुष ने अपनी गाड़ी हमारी गाड़ी के आगे जोड़ कर ऐसे खड़ी की,  कि हमारी गाड़ी इसके पीछे फंस गई। 

सो,  हमारी गाड़ी आगे नही बढ़ सकती थी और पीछे एक नाला, बड़े-बड़े पत्थर व गड्ढे थे.... फिर भी कोशिश की, कि गाड़ी को थोड़ा-बहुत आगे पीछे कर निकालने की.... परन्तु गाड़ी पत्थरों पर फिसल कर दीवार की तरफ जा टकरानें लगी, दीवार और गाड़ी में मात्र आधा इंच का ही फांसला रह गया....अजीब मुसीबत गले आन पड़ी थी। 

आखिर साढे तीन घंटे की मेहनत के बाद ट्रैक्टर वाले इन सज्जन ने हमारी मदद की और हम दोनों सांढू़ भाइयों ने गाड़ी को बगैर नुक्सान के बाहर खींच लिया। 

गाड़ी अब हमारे संग हंसती हुई वापसी की डगर पर बढ़ रही थी.... निगाहें कहाँ अब एक जगह रुक रही थी, निरमण्ड के बाद घाटी की सुंदरता। 

देव-ढाँक के रास्ते में दिख रही सतलुज घाटी का मनोरम दृश्य। 

देव-ढाँक पहुँचने से कुछ पहले घाटी में दिखाई दे रहे..... सतलुज नदी और किनारे बसे गाँव। 

वो देखो,  पहाड़ के मध्य दिख रहा देव-ढाँक शिव गुफा मंदिर। 
देव-ढाँक गुफा को जाता रास्ता। 

बेटा,  तुम शिव जी की लीला नही समझ पाये... उसने तुम्हें जीवन दान दिया है।
देव-ढाँक गुफा मंदिर को जाता रास्ता। 

पर यह क्या... गुफा का द्वार तो बेहद संकरा है।
मान्यता है कि इस द्वार को केवल परोपकारी व्यक्ति ही लाँघ सकता है, कोई पापी नही। 

पापी को रोकने वाले इस द्वार के अंदर का दृश्य... 
                                                                                 
                                                                               


देव-ढाँक गुफा के अंदर का दृश्य....शिवलिंग पर गुफा की छत से निरंतर जल की बूँदें टपकती रहती हैं। 

गुफा की दीवार में उभरी हनुमान जी की आकृति। 

मान्यता है कि इस रास्ते से ही भगवान शिव भूमिगत रुप में श्री खंड कैलाश गए थे। 

गुफा मंदिर का निकासी द्वार भी बहुत ही तंग है,  जिसमें से निकल रहा मैं। 

सड़क पर दुर्घटना...  गाय की मौत और गिद्ध।
(1) "चलो, चलते हैं..... सर्दियों में खीरगंगा " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(2) करेरी झील...." मेरे पर्वतारोही बनने की कथा " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।
(3) " पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास " यात्रा वृतांत की धारावाहिक चित्रकथा पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें।






                 
                                   







                 

                     










                             

रविवार, 12 नवंबर 2017

भाग-27 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर.... Shrikhand Mahadev yatra(5227mt)


 भाग-27 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....
                               " ब्राह्मण हूँ ना, शिक्षा देना तो मेरे खून में ही घुला है...!"

इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र (https://vikasnarda.blogspot.com/2017/04/1-shrikhand-mahadev-yatra5227mt.html?m=1) स्पर्श करें।
                                   
                                           मैं और विशाल रतन जी पिछले 13घंटों से लगातार चलते हुए अब बराहटी नाले के ऊपर जंगल में से गुज़र रहे थे.... दिन मरणासन्न था और अंधेरे के स्याह अंकुर फूट रहे थे।  पम्मा,  बाबा और बहादुरगढ़ वाले जनाब हमसे आगे निकल चुके थे। रास्ते के बीचो-बीच एक गर्म टोपी गिरी हुई थी... मैने उसे उठा कर देखा तो मुझे लगा कि यह टोपी तो कलकत्ता वाले बाबा की है...परन्तु दिल्ली वासी विशाल जी ने महानगरीय तौर तरीकों से ग्रस्त मुझे एकाएक कहा, " छोड़ो विकास जी,  हमे क्या लेना-देना...जिस किसी की भी हो यह टोपी..! "
                           और,  मैं भी एक आज्ञाकारी बच्चे की भाँति उस टोपी को रास्ते किनारे पत्थर पर रख नीचे की ओर बढ़ने लगा.... बात यहाँ टोपी की नही है,  हमारे उस व्यवहार की है जो हम लोग हर रोज करते है कि हमें क्या लेना-देना किसी से..... कोई सड़क पर गिरा है तो हम उसे शराबी मान कर आगे निकल जाते हैं,  पर हो सकता है उसे दिल का दौरा पड़ा हो... पर हमे क्या लेना-देना,  जरूरतमंद मजबूर व्यक्ति की सच्ची फ़रियाद भी हमे झूठी लगती है क्योंकि हमें क्या लेना-देना....!   परन्तु मैं भी ना कम बुद्धि इंसान हूँ दोस्तों,  यह भूल जाता हूँ कि हमारा समाज बगैर लेन- देन के कहाँ चलता है,  जी....!!!
                           एक दम से हरा जंगल अंधेरे की काली चादर ओढ़ रहस्यमय रुप ले चुका था,  खैर अंधेरे से लड़ने वाले हमारे नन्हें-मुन्नें सिपाही "हमारी टार्चें" हमे निर्विघ्न आगे बढ़ा रही थी.... इसी अंधकार का मारा एक बेचारा लड़का रास्ते किनारे निहत्था बैठा था क्योंकि चण्डीगढ़ से आए उस नौजवान के पास अंधेरे से लड़ने के लिए हथियार नही था..... और अब वह भी हमारे सिपाहियों के सुरक्षा घेरे में आ चुका था।
                            रात 8बजे हम तीनों बराहटी नाले पर लगे जूना अखाड़ा लंगर (जहाँ हमने इस यात्रा की पहली रात गुज़री थी) पर पहुँचें,  तो वहाँ चाय पी रहे बाबा जी और पम्मे ने हमे आवाज़ दे रोक लिया.... बाबा जी ने हमें पूछा कि ऊपर रास्ते में कहीं आपको मेरी गिरी हुई टोपी तो नही दिखी.... मैने कहा हां,  तो बाबा जी मेरे खाली हाथ देख कर इतना ही बोल चुप हो गए, " तो....फिर आप...!!!"          
                             बाबा जी की एकाएक चुप्पी मुझ से हजारों सवाल करने लगी कि विकास तू क्या इस बूढ़े बाबे की 100ग्राम की ऊनी टोपी भी नही उठा सकता था,  जब कि तेरे शहर वाला पम्मा इस बूढ़े बाबा की भारी गठरी उठा कर ला रहा है.... जो आदमी बारिश से गीला हो चुका अपना कम्बल नही छोड़ सका, उसके लिए उसकी एकमात्र टोपी भी कितना महत्व रखती होगी।  
                              मित्रों,  यह बात तो कुछ भी नही है,  शायद वो बाबा भी चंद क्षणों के बाद अपनी टोपी को भूल गए होंगे, परन्तु मुझे यह बात नही भूल रही कि यदि मैं वो टोपी उठा लाता तो जरूरतमंद बाबा के हंसते चेहरे और अपनी मन के संतोष को तमाम उम्र एक मीठी याद की तरह याद रखता,  याद तो अब भी रहेगी परन्तु एक चुभती सी याद।
                              कुछ मिनट जूना अखाड़ा लंगर बराहटी नाला पर रुकने के उपरांत पम्मा और बाबा जी भी हमारे साथ ही हो लिये...... बराहटी नाले के बाद एक दम खड़ी चढ़ाई आती है,  जिसे पार करने के बाद... पिछले दो घंटे से हमारे साथ चिपके उस चण्डीगढ़िये लड़के (जिसके पास टार्च नही थी)  को अपनी रक्सक से टार्च निकाल कर थमाई... टार्च देख कर उस लड़के का मुझे अजीब ढंग से देखना जायज़ बनता था,  निश्चित है उसके दिमाग़ में यह सवाल उपजा होगा कि कैसा अजीब पागल दिमाग आदमी है, जब इसके पास एक और टार्च थी... तो मुझे पहले क्यों नही दी,  खामखां पिछले दो घंटों से मैं अपनी आँखें फाड़-फाड़ कर उनके पीछे चल रहा हूँ।
                               मैने उसके कुछ बोलने से पहले ही बोल दिया, " यदि मैं चाहता तो तुम्हें यह टार्च उसी समय दे देता जब तुम हमे मिले ही थे... पर नही दी क्योंकि मेरी इच्छा है कि तुम सारी उम्र मुझे और इस अंधेरे भरे सफर को याद रखो,  मैने तुम्हें रोमांच व गिरने के डर की मिश्रित अनुभूति दिलवाई है,  यदि यह टार्च तुम्हें पहले दे देता तो तुम ना मुझे याद रखते और ना ही इस सफर को.....!!! "
                                वह लड़का कुछ ना बोला,  मेरे पीछे चलने की बजाय वह अब मुझ से आगे हो गया......शायद वो मन ही मन मुझे दुआऐं या फिर गालियाँ ही दे रहा होगा।  पर क्या करूँ भाई लोगों... मैं ऐसा ही हूँ,  ब्राह्मण हूँ ना...शिक्षा देना तो मेरे खून में ही घुला है.......!!!!!      
                                सिंहगाड़ से कुछ पहले रास्ते में आए लंगर पर मैं बासी ठंडे पकौड़े  खाए ही जा रहा था, क्योंकि पांच दिनों के बाद मुझे अपना मनपसंद व्यंजन जो मिला था.....खैर रात साढे नौ बजे हम श्री खंड यात्रा के प्रथम पड़ाव सिंहगाड़ में "श्री खंड सेवा मण्डल " अरसू की ओर से चलाये जा रहे लंगर के आगे खड़े थे.... अभी सड़क तक पहुँचने के लिए 3किलोमीटर का रास्ता शेष था,  और हम आज साढे पंद्रह घंटे पैदल चल चुके थे सो कुछ समय रुकने के लिए लंगर की सीढ़ियाँ चढ़ गए।
                                 गिरचाडू देवता मंदिर के प्रांगण में लगे लंगर में हम श्री खंड जाते समय नही रुके थे,  एक बड़ा सा पंडाल और खूब सजावट... लंगर छकने के लिए कुर्सी-मेज... हम एक व्यवस्थित स्थान में आ खड़े हो गए थे, अभी खड़े-खड़े हम दोनों मुआयना ही कर रहे थे कि एक सज्जन से व्यक्ति ने हमे आ कर कहा कि अपने बैग उतार कर खाना खाइये,  वे लंगर प्रबंधक श्री गोविंद प्रसाद शर्मा जी थे.... " कहाँ से हो " से बातचीत का दौर चल निकला उनके संग।
                                 श्री खंड यात्रा अधूरी रहने पर उन्होंने खूब अच्छा तर्क दिया कि यह मत सोचिये कि आपकी यात्रा अधूरी रह गई,  इस क्षेत्र में पहुँचना ही क्या कम है और आपकी हाज़िरी शिव ने मंजूर कर ली है।  बातों-बातों में उन्होंने बताया कि वे बहुत वर्षों से श्री खंड यात्रा के दौरान हर वर्ष यात्रियों की सुविधाओं के लिए लंगर व अन्य जरूरतों का प्रबंध करते आ रहे हैं,  श्री खंड के रास्ते में पड़े कचरे को साफ करना भी इसी क्रम में आता है..... तो हमने झट से अपनी जेबों में रखी टोफियों के रैपरों को निकाल उन्हें दिखाया कि हम अपना कोई भी कचरा ऊपर नही छोड़ कर आ रहे,  बल्कि उसे अपने संग वापस ही ला रहे हैं.... हमारी बात सुन गोविंद जी बेहद खुश व प्रभावित हुए और उन्होंने हम दोनों को अपने संग बिठा कर रात का भोजन करवाया।
                                   दोस्तों,  लंगर भी कम शानदार ना था...दाल,  कढ़ी,  सब्जी,  चावल, तंदूरी रोटी,  आचार व खीर जैसे किसी विवाह समारोह का भोज हो...... भोजन करने के पश्चात गोविंद जी ने अपने सहयोगी सतीश अग्रवाल जी से कहा कि चाहे आज हमारे लंगर का अंतिम दिन है,  हम अपना बहुत सारा सामान समेट चुके हैं... परन्तु हमें इन दोनों(यानि हम) को सम्मानित करना है,  सो तैयारी करो...!
                                    महाराज, सम्मान किसे नही मीठा लगता... हम दोनों साढ़ू भाई उत्साहित हो एक-दूसरे के चेहरे की खुशी पढ़ रहे थे..... कुछ समय बाद सभा सज गई और हमे बारी-बारी "सरोपा" पहना कर सम्मानित किया गया और भजन-कीर्तन गाने शुरू हो गए,  गोविंद जी ने ढोलक बजाने वाले से पूछा, " भाई हारमोनियम वाले कहाँ है " तो जवाब मिला कि वो आज गाँव चले गए है।      सो मैने गोविंद जी से कहा कि एक साज मेरे पास भी है यदि आप कहे तो मैं उनकी संगत कर सकता हूँ.......गोविंद जी बोले, " जरूर जी,  यह खुला मंच है यहाँ कोई भी अपनी प्रतिभा प्रदर्शित कर सकता है " ..........वे सब स्थानीय भाषा में भजन गा रहे थे जो मुझे पूरी तरह से समझ तो नही आ पाये,  परन्तु दोस्तों संगीत की कोई भाषा नही होती... तो उनमें रच-बस मैं बाँसुरी बजाने लगा।  मुझे उन संग बाँसुरी बजाते देख विशाल जी के मुख पर गौरवमय भाव थे और दोस्तों यह पहला अवसर था जब मैने किसी मण्डली में बैठ बाँसुरी बजाई थी।  खैर बहुत आनंद आ रहा था इस लंगर पर पहुँच कर,  और हम अपने-आप को कोस रहे थे कि हम श्री खंड जाते हुए यहाँ पहली रात क्यों नही रुके।
                                   गोविंद जी ने हमारे सोने की व्यवस्था बेहद अच्छे तरीके से की,   उन्होंने हमे एक अलग कमरा दिया सोने के लिए और नींद भी खूब आई....... फिर से सुबह आई और हम दोनों ने तैयार हो कर गोविंद जी और सतीश जी के पास पहुँच कर आभार व्यक्त करते हुए यथासंभव राशि का लंगर अनुदान दिया और गोविंद जी ने हमारा नाम और पता नोट किया...एक वर्ष बाद यानि इसी वर्ष हम दोनों को ही उनके द्वारा भेजा हुआ श्री खंड महादेव यात्रा का निमंत्रण- पत्र डाक द्वारा प्राप्त हुआ...... और वह कागज का एक टुकड़ा मन की बेताबी तारों संग छेड़खानी सा कर गया।

                                                                                    ................................(क्रमश:)
बराहटी नाले के ऊपर जंगल में स्थानीय देव का मंदिर और दुकानदार की तरफ से लिया रात्रि विश्राम हेतू तम्बू। 

जूना अखाड़ा लंगर बराहटी नाले से एक दम खड़ी चढ़ाई। 

सिंहगाड़ के रास्ते में आये एक लंगर पर मैं बासी व ठंडे पकौड़े ही खाता चला गया, भाई पांच दिनों बाद मुझे मेरा मनपसंद व्यंजन जो मिल गया था। 

सिंहगाड़ से कुछ पहले... पम्मा और उसके आगे टार्च संभाले बाबा जी। 


गिरचाडू देवता मंदिर सिंहगाड़ के प्रांगण श्री खंड सेवा मण्डल द्वारा लगाया गया लंगर शिविर। 

मैं, सतीश अग्रवाल और गोविंद प्रसाद शर्मा जी। 

लंगर छकने के लिए बैठने की व्यवस्था। 

लंगर बांटते हुए स्वंय सेवक। 

गोविंद जी ने हमारे संग ही बैठ कर रात्रि भोजन किया। 

निहायत ही स्वादिष्ट था भोजन दोस्तों। 

सभा का आरंभ करते गोविंद जी। 
विशाल जी और मुझे सम्मानित करते सतीश अग्रवाल जी। 

और,  मैं उन संग बैठ बाँसुरी बजाने लगा। 





                                                                 एक झलक उस भजन की।


                                                                               
                                         
 
                                      शिव कैलाशों के वासी,   धौली धारों के राजा,  शंकर संकट हरना।


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