भाग-10 चलो, चलते हैं..... सर्दियों में खीरगंगा(2960मीटर) 2जनवरी 2016
इस चित्रकथा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र (http://vikasnarda.blogspot.com/2017/04/1-winter-trekking-to-kheerganga2960mt.html?m=1) स्पर्श करें।
मैं और विशाल रतन जी खीरगंगा से वापस चल कर रुधिरनाग तक पहुँच चुके थे तब शाम के चार बज रहे थे। सुबह से कुछ खास खाया भी ना था....सो अब भूख ने पेट पर जबरदस्त दस्तक दी। विशाल जी मुश्कपूर से चलने वाले चूल्हे को निकाल...उस पर कप न्यूडल में डालने के लिये पानी गर्म करने लगे। खाली पेट में कुछ जाने के बाद ही कोई और बात सूझती है ना मित्रों, तो फिर से अपनी बाँसुरी निकाल मैं विशाल जी से बोला कि इस मनोरम नागफनी झरने के समक्ष मेरा वीडियो बनाये......परन्तु विशाल जी ने मुझे टालते हुआ कहा कि, "चलो...छोड़ो यह वीडियो बनाना, हम बहुत लेट हो जाएगें.....!" मैं उनका टका सा जवाब सुनकर हक्का-बक्का सा रह गया और भावनाओं में बह कर बोला, "आप क्या जानो विशाल जी...शौंक का मूल्य होता है, क्योंकि आपको भगवान ने यह शौंक दिया ही नही है...!! "
मेरी इस बात को सुन कर विशाल जी कुछ क्षणों के लिए चुप रह कर बोले, " यह मेरी बदकिस्मती है कि मुझे ऐसा कोई शौंक नही मिल पाया...! " विशाल जी की यह बात सुन मुझे अपनी बेवकूफ़ी भरी बात का अहसास हुआ, और मैने विशाल जी से इस बात पर माफी मांगते हुए कहा कि मैं आपके द्वारा मुझे मना करने में....आपकी मनोदशा समझ चुका हूँ, क्योंकि मैने खीरगंगा में सुबह आपको एक सफल वीडियो बनाने के चक्कर में बहुत समय तक बर्फ में खड़े रखा, परन्तु विशाल जी वहाँ ठण्ड बहुत ही ज्यादा थी इसलिए बाँसुरी बजाने में दिक्कत पेश आ रही थी....अब हम उस ऊँचाई से कुछ नीचे आ चुके हैं, सो मेरा आग्रह है कि आप सिर्फ एक ही बार के लिए सही, चंद मिनटों का मुझे एक मौका दें...बाँसुरी बजाने का, और जो भी जैसा भी वीडियो बना, वो मुझे मंजूर होगा....क्योंकि ऐसी हसीन जगहों पर बाँसुरीवादन का एक अलग ही महत्व होता है.... और मैने धुन छेड़ दी "पंख होते तो उड़ आती रे, रसिया ओ ज़ालिमा, तुझे दिल का दाग़ दिखलाती रे....!!!"
शाम के 5बजे, हम दोनों रुधिरनाग से फिर चल दिये, तो वहीं से दो कुत्ते भी हमारे साथ-साथ चलने लगे। जहाँ हम रुकते वो दोनों भी हमारे साथ ही बैठ जाते, चलते-चलते अब बिल्कुल अंधेरा हो चुका था......मैं निरंतर उन दोनों कुत्तों की गतिविधियों को ताड़ रहा था। एक घंटा चलने के बाद जैसे ही हमें नकथान गाँव की रौशनियाँ दिखाई दी.....वे दोनों कुत्ते हमे छोड़ सरपट भाग लिये गाँव की तरफ़, जबकि मैं उन्हें पीछे से आवाज़ें भी लगता रहा...पर उन्होंने पीछे मुड़ कर भी नही देखा। इस बात से मैंने यह निष्कर्ष निकाला, कि सामान्यता बहुत बार कई जंगली रास्तों पर हमारे साथ स्थानीय कुत्ते हमसफ़र बन चल देते हैं.....और हम उनके इस साथ को अपनी सुरक्षा समझ लेते हैं, परन्तु सच्चाई तो यह है कि वे कुत्ते भी जंगली जानवरों (खास कर भालू) से बचने के लिए हमारी सुरक्षा में चलते हैं....मतलब अनजाने में ही हम दोनों पक्ष एक-दूसरे के साथ से ही अपनी सुरक्षा की तसल्ली कर लेते हैं....!!!!
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मैं और विशाल रतन जी खीरगंगा से वापस चल कर रुधिरनाग तक पहुँच चुके थे तब शाम के चार बज रहे थे। सुबह से कुछ खास खाया भी ना था....सो अब भूख ने पेट पर जबरदस्त दस्तक दी। विशाल जी मुश्कपूर से चलने वाले चूल्हे को निकाल...उस पर कप न्यूडल में डालने के लिये पानी गर्म करने लगे। खाली पेट में कुछ जाने के बाद ही कोई और बात सूझती है ना मित्रों, तो फिर से अपनी बाँसुरी निकाल मैं विशाल जी से बोला कि इस मनोरम नागफनी झरने के समक्ष मेरा वीडियो बनाये......परन्तु विशाल जी ने मुझे टालते हुआ कहा कि, "चलो...छोड़ो यह वीडियो बनाना, हम बहुत लेट हो जाएगें.....!" मैं उनका टका सा जवाब सुनकर हक्का-बक्का सा रह गया और भावनाओं में बह कर बोला, "आप क्या जानो विशाल जी...शौंक का मूल्य होता है, क्योंकि आपको भगवान ने यह शौंक दिया ही नही है...!! "
मेरी इस बात को सुन कर विशाल जी कुछ क्षणों के लिए चुप रह कर बोले, " यह मेरी बदकिस्मती है कि मुझे ऐसा कोई शौंक नही मिल पाया...! " विशाल जी की यह बात सुन मुझे अपनी बेवकूफ़ी भरी बात का अहसास हुआ, और मैने विशाल जी से इस बात पर माफी मांगते हुए कहा कि मैं आपके द्वारा मुझे मना करने में....आपकी मनोदशा समझ चुका हूँ, क्योंकि मैने खीरगंगा में सुबह आपको एक सफल वीडियो बनाने के चक्कर में बहुत समय तक बर्फ में खड़े रखा, परन्तु विशाल जी वहाँ ठण्ड बहुत ही ज्यादा थी इसलिए बाँसुरी बजाने में दिक्कत पेश आ रही थी....अब हम उस ऊँचाई से कुछ नीचे आ चुके हैं, सो मेरा आग्रह है कि आप सिर्फ एक ही बार के लिए सही, चंद मिनटों का मुझे एक मौका दें...बाँसुरी बजाने का, और जो भी जैसा भी वीडियो बना, वो मुझे मंजूर होगा....क्योंकि ऐसी हसीन जगहों पर बाँसुरीवादन का एक अलग ही महत्व होता है.... और मैने धुन छेड़ दी "पंख होते तो उड़ आती रे, रसिया ओ ज़ालिमा, तुझे दिल का दाग़ दिखलाती रे....!!!"
शाम के 5बजे, हम दोनों रुधिरनाग से फिर चल दिये, तो वहीं से दो कुत्ते भी हमारे साथ-साथ चलने लगे। जहाँ हम रुकते वो दोनों भी हमारे साथ ही बैठ जाते, चलते-चलते अब बिल्कुल अंधेरा हो चुका था......मैं निरंतर उन दोनों कुत्तों की गतिविधियों को ताड़ रहा था। एक घंटा चलने के बाद जैसे ही हमें नकथान गाँव की रौशनियाँ दिखाई दी.....वे दोनों कुत्ते हमे छोड़ सरपट भाग लिये गाँव की तरफ़, जबकि मैं उन्हें पीछे से आवाज़ें भी लगता रहा...पर उन्होंने पीछे मुड़ कर भी नही देखा। इस बात से मैंने यह निष्कर्ष निकाला, कि सामान्यता बहुत बार कई जंगली रास्तों पर हमारे साथ स्थानीय कुत्ते हमसफ़र बन चल देते हैं.....और हम उनके इस साथ को अपनी सुरक्षा समझ लेते हैं, परन्तु सच्चाई तो यह है कि वे कुत्ते भी जंगली जानवरों (खास कर भालू) से बचने के लिए हमारी सुरक्षा में चलते हैं....मतलब अनजाने में ही हम दोनों पक्ष एक-दूसरे के साथ से ही अपनी सुरक्षा की तसल्ली कर लेते हैं....!!!!
नकथान गाँव से निकल कर हम दोनों अब एक दम घुप्प अंधेरे में बरषैनी गाँव की तरफ बढ़े चले जा रहे थे, तो मैंने अब अपने मोबाइल पर गाने लगा कर उस संग गाना शुरू कर दिया...ताँकि अंधेरे में हमारी मौज़ूदगी की खबर आस-पास जाती रहे और सफ़र भी कटता जाये।
दो घंटे लगातार चलने के बाद आखिर हम रात 8बजे बरषैनी गाँव में प्रेम ढाबे पर पहुँच, वहाँ रखा अपना बाकी सामान उठा कर बरषैनी से सीमेंट वाली पिकअप गाड़ी में बैठ मणिकर्ण की ओर रवाना हो चले। उस "छोटे हाथी" नामक गाड़ी का चालक भी भुन्तर के आस-पास का था, जो वापस भुन्तर ही जा रहा था......तो विशाल जी बोले, " क्यों ना विकास जी, मैं अभी ही इनके साथ भुन्तर चला जाऊँ, और वहाँ से बस लेकर दिल्ली निकल जाता हूँ " मैने विशाल जी से कहा कि यदि आप आज रात मणिकर्ण गुरुद्वारा साहिब में दर्शन व विश्राम कर, कल सुबह जल्दी वहाँ से दिल्ली के लिए निकल जाये तो अच्छा रहेगा....और भाई, मणिकर्ण में गर्म जल के सरोवर में नहाने से आपकी सारी थकान भी छूमंत्र हो जायेगी जनाब...!!
दो घंटे लगातार चलने के बाद आखिर हम रात 8बजे बरषैनी गाँव में प्रेम ढाबे पर पहुँच, वहाँ रखा अपना बाकी सामान उठा कर बरषैनी से सीमेंट वाली पिकअप गाड़ी में बैठ मणिकर्ण की ओर रवाना हो चले। उस "छोटे हाथी" नामक गाड़ी का चालक भी भुन्तर के आस-पास का था, जो वापस भुन्तर ही जा रहा था......तो विशाल जी बोले, " क्यों ना विकास जी, मैं अभी ही इनके साथ भुन्तर चला जाऊँ, और वहाँ से बस लेकर दिल्ली निकल जाता हूँ " मैने विशाल जी से कहा कि यदि आप आज रात मणिकर्ण गुरुद्वारा साहिब में दर्शन व विश्राम कर, कल सुबह जल्दी वहाँ से दिल्ली के लिए निकल जाये तो अच्छा रहेगा....और भाई, मणिकर्ण में गर्म जल के सरोवर में नहाने से आपकी सारी थकान भी छूमंत्र हो जायेगी जनाब...!!
मेरी इस बात पर गाड़ी के चालक ने भी हामी भरते हुए कहा, " ये भाई साहिब...आपको बिल्कुल सही सलाह दे रहे हैं, आप आज रात मणिकर्ण ही रहें....गुरुद्वारा में दर्शन करें, गर्म सरोवर में स्नान करें, लंगर छकें और गर्म गुफा में भी कुछ समय बितायें...मैने भी मणिकर्ण गुरुद्वारा साहिब में 12साल लगातार सेवा की है, और वहाँ का माहौल ही निराला है।"
और..... रात 9बजे के करीब हम मणिकर्ण गुरुद्वारा में पहुँच गये। मैं जीवन में चार बार पहले भी मणिकर्ण आ चुका हूँ, अब पांचवी बार गुरुद्वारा में दर्शन हेतू जा रहा था। मुख्य सड़क से सीढ़ियाँ उतर, हम पार्वती नदी पर बने पुल को पार कर गुरुद्वारा में पहुँचे, और वहाँ का माहौल हर बार की तरह बहुत शांत व आध्यात्मिक था। एक अलग व सुखद अहसास मुझे हर बार प्राप्त होता है, जब भी मैं इस पावन स्थान पर दाखिल होता हूँ।
दर्शन तो अब सुबह ही हो सकते थे, क्योंकि श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी प्रकाश कक्ष के कपाट, अब सुबह तीन बजे खुलेगें। हमने लंगर कक्ष में जा कर लंगर छका.......कढ़ी-चावल, दाल-रोटी और गोभी के डंडलों की सब्जी.....एक सम्पूर्ण आहार, और भी स्वादिष्ट लगने लगता है, जब लंगर खिलाने वाले आपको पूरी श्रृद्धा एवमं सत्कार से लंगर परोसे।
मित्रों, मैं पूरे भारत में काफी जगह घूम चुका हूँ.... परन्तु लंगर यानी "मुफ्त खिलाने " की परंपरा पंजाब, हिमाचल, हरियाणा और दिल्ली के बाद एक दम से आलोप हो जाती है। पंजाब के अलावा हरियाणा और हिमाचल में, इसलिए कि ये दोनों प्रांत भी पंजाब से ही विभाजित हो निकले हैं और भारत के अलावा यदि विश्व में, जहाँ-जहाँ भी पंजाबी रहते हैं....वे और हम सब गुरु नानक देव जी द्वारा शुरु की हुई इस "वंड छको"(मिल-बाँट कर खाना) की प्रथा को पीढ़ियों से चलते आ रहे थे, और रहती दुनिया तक यह प्रथा सहर्ष चलती रहेगी। गुरु नानक देव जी की वाणी ने हमें आपसी भाईचारा रखने, अंधविश्वास व जात-पात की ऊँच-नीचता से ऊपर उठ कर नेक कर्म करने का मार्ग दिखाया। गुरु नानक देव जी अपनी उदासी यात्राओं (विचरण यात्रा) में शब्द-गायन व प्रवचन के उपरांत अपने साथी भाई बाला जी व भाई मरदाना जी एवमं श्रद्घालुओं के संग भूमि पर बैठ, एक साथ सात्विक भोजन करते थे....वो ही बात आज भी निरंतर चलती आ रही है। लंगर में किसी भी धर्म-जाति और पद का व्यक्ति इक्ट्ठे बैठ अपनी उदर-भूख को शांत करता है।
और..... रात 9बजे के करीब हम मणिकर्ण गुरुद्वारा में पहुँच गये। मैं जीवन में चार बार पहले भी मणिकर्ण आ चुका हूँ, अब पांचवी बार गुरुद्वारा में दर्शन हेतू जा रहा था। मुख्य सड़क से सीढ़ियाँ उतर, हम पार्वती नदी पर बने पुल को पार कर गुरुद्वारा में पहुँचे, और वहाँ का माहौल हर बार की तरह बहुत शांत व आध्यात्मिक था। एक अलग व सुखद अहसास मुझे हर बार प्राप्त होता है, जब भी मैं इस पावन स्थान पर दाखिल होता हूँ।
दर्शन तो अब सुबह ही हो सकते थे, क्योंकि श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी प्रकाश कक्ष के कपाट, अब सुबह तीन बजे खुलेगें। हमने लंगर कक्ष में जा कर लंगर छका.......कढ़ी-चावल, दाल-रोटी और गोभी के डंडलों की सब्जी.....एक सम्पूर्ण आहार, और भी स्वादिष्ट लगने लगता है, जब लंगर खिलाने वाले आपको पूरी श्रृद्धा एवमं सत्कार से लंगर परोसे।
मित्रों, मैं पूरे भारत में काफी जगह घूम चुका हूँ.... परन्तु लंगर यानी "मुफ्त खिलाने " की परंपरा पंजाब, हिमाचल, हरियाणा और दिल्ली के बाद एक दम से आलोप हो जाती है। पंजाब के अलावा हरियाणा और हिमाचल में, इसलिए कि ये दोनों प्रांत भी पंजाब से ही विभाजित हो निकले हैं और भारत के अलावा यदि विश्व में, जहाँ-जहाँ भी पंजाबी रहते हैं....वे और हम सब गुरु नानक देव जी द्वारा शुरु की हुई इस "वंड छको"(मिल-बाँट कर खाना) की प्रथा को पीढ़ियों से चलते आ रहे थे, और रहती दुनिया तक यह प्रथा सहर्ष चलती रहेगी। गुरु नानक देव जी की वाणी ने हमें आपसी भाईचारा रखने, अंधविश्वास व जात-पात की ऊँच-नीचता से ऊपर उठ कर नेक कर्म करने का मार्ग दिखाया। गुरु नानक देव जी अपनी उदासी यात्राओं (विचरण यात्रा) में शब्द-गायन व प्रवचन के उपरांत अपने साथी भाई बाला जी व भाई मरदाना जी एवमं श्रद्घालुओं के संग भूमि पर बैठ, एक साथ सात्विक भोजन करते थे....वो ही बात आज भी निरंतर चलती आ रही है। लंगर में किसी भी धर्म-जाति और पद का व्यक्ति इक्ट्ठे बैठ अपनी उदर-भूख को शांत करता है।
गुरुद्वारा के लंगर-हाल में भी मुझे यही बात देखने में मिली, कि हमारे साथ पंक्तियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग बैठ लंगर छकने का आनंद ले रहे थे, कुछ दक्षिण भारतीय लोग जो मनाली आदि घूमने के लिये आयें होगें....वे सब हमारे सामने वाली पंक्ति में बैठे थे और लंगर करवाने वाले स्वंयसवेक उन्हें बड़े प्यार से लंगर में बैठने और खाने के तौर-तरीके समझा रहे थे।
लंगर छकने के पश्चात हमे गुरुद्वारे की चौथी मंजिल पर कमरे की चाबी दे दी गई...... और हम अपना सामान उठा सीढ़ियाँ चढ़, गुरुद्वारे की सराय में बने बेशुमार कमरो में से अपने नम्बर वाला कमरा ढूँढ़नें लगे।
........................(क्रमश:)
........................(क्रमश:)
खीरगंगा से वापसी पर रूधिर नाग से कुछ ऊपर हम, और वहीं से नीचे दिखाई देता रूधिर नाग। |
कप न्यूडल में डालने के लिए पानी गर्म करते हुऐ विशाल रतन जी। |
रूधिर नाग के जल-प्रापत की लय लेकर...... बाँसुरी बजाता हुआ, मैं। |
संध्या का वक्त.... और हिमालय पर मड़राता हुआ "आशिक़ बादल" |
अंधेरे में डूब चुके नकथान गाँव के घरों की बत्तियाँ तो जग चुकी थी, परन्तु पर्वत शिखर पर मर रही लौ में अभी जान बाकी थी। |
बरषैनी गाँव में पहुँच..... खीरगंगा ट्रैक को सफलतापूर्वक पूर्ण करने के पश्चात, हमारी विजय मुद्रा। गुरुद्वारा मणिकर्ण साहिब में प्रवेश करते हुऐ, और गुरुद्वारा साहिब में छका हुआ लंगर। |
आपकी और विशाल की केमिस्ट्री भी अच्छी है और नोक झोक भी...लंगर सच में खाना मुझे भी बहुत अच्छा लगता है
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद प्रतीक जी, लंगर छकना हम सब को ही अच्छा लगता है जी
हटाएंShandar yatra vritant sir..Dhanyawad
हटाएंI like your writings and want more.
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद स्वराज जी, आप मेरे ब्लॉग पर मेरी और यात्राओं के वृतांत व अनुभव पढ़ सकते हैं... नीचे अगली किश्त पर बढ़ने के लिए या पिछली किश्त पर जाने के लिए दोनों तरफ तीर के निशान है, या फिर गूगल पर आप मेरे ब्लॉग का पता लिख कर ब्लॉग देख सकते हैं
हटाएंvikasnarda.blogspot.in
या फिर mera ghumakkar granth गूगल पर लिखते ही मेरा ब्लॉग खुल जाएगा जी।