रविवार, 16 अप्रैल 2017

भाग-7 चलो, चलते हैं.....सर्दियों में खीरगंगा Winter trekking to Kheerganga(2960mt)

भाग-7  चलो, चलते है..... सर्दियों में खीरगंगा (2960मीटर) 1जनवरी 2016

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                                      उस क्रुद्ध भंगी बाबा की झोपड़ी से मुझे विशाल जी बाहर खींच लाये.....और मेरे गुस्से को शांत करने लगे तथा तर्क दिया, कि उस साधु का चाहे बात करने का ढंग गलत है...परन्तु उसकी बात में दम है कि इतनी जबरदस्त ठण्ड में कैसे कोई टैंट लगा कर रात काट सकता है...विकास जी,  विकट परिस्थिति में प्रभाव से नही बल्कि स्वभाव से काबू पाना चाहिए...!!
                     और.....फिर से हम ऊपर की ओर बर्फ में चढ़ने लगे,  परन्तु खीरगंगा का तो कहीं भी कोई नामोनिशान नहीं नज़र आ रहा था, हर तरफ़ अंधेरा ही अंधेरा.....ऊपर से खुली जगह होने के कारण भयंकर ठण्ड व सर्द हवा,  अब हमारे हौंसले को तोड़ रही थी। अब मैं वहीं कहीं कैम्प लगाने के लिए मुनासिब जगह ढूँढ़ने लगा...परन्तु हर तरफ बर्फ का ही साम्राज्य हो चुका था। खैर, जैसे-तैसे हमारे कदम डगमगाते हुए चढ़ाई चढ़ते रहे, कि हमारी टार्च की रौशनी में एक इमारत दिखाई दी.....और हम उस इमारत के बड़े से बरामदें में दाखिल हुए,  यह इमारत भी एक बड़ा ढाबा था। जो गर्मियों में खूब चलता होगा,  टार्च की रौशनी में आस-पास देखा तो ऐसी दो-तीन इमारतें और भी वहाँ थी, जिनकी छते बर्फ से लदी पड़ी थी....परन्तु सब की सब खाली। हमने सोचा कि यहीं इस इमारत के अंदर टैंट लगा कर इस सर्द रात को काट लेते हैं, परन्तु टैंट की कीलें तो बर्फ या मिट्टी में ठोकी जाती हैं....उस इमारत में तो हर जगह पक्के फर्श पड़े हुए थे।  सो वहाँ टैंट गाड़ने वाली हमारी योजना असफल हो चुकी थी, तो विशाल जी से मैं फिर बोला, "चलो फिर से हिम्मत जुटा आगे की ओर बढ़ते हैं ".....परन्तु विशाल जी बोले, " अब तो इस भयंकर सर्दी और बर्फ से टक्करें खा-खा कर दिमाग ने भी काम करना बंद कर दिया है,  चलो पहले चाय बना कर पीते हैं...इससे एक तो हमे सोचने के लिये वक्त मिल जायेगा और शरीर में भी स्फूर्ति जाग जायेगी आगे की रणनीति तय करने के लिए......! "
                         फिर क्या था,  विशाल जी ने झट से अपनी रक्सैक से मुश्क कपूर से चलने वाला लघु चुल्हा निकाला,  और हम दोनों चाय बनाने में व्यस्त हो गये। चाय तैयार की ढेर सारा शहद डाल कर,  ताँकि शरीर में कुछ गर्मी व शक्ति आये............तभी बाहर रास्ते पर हमे रौशनी और कुछ आवाज़े पास आती सुनाई दी, और देखा कि दो लड़के व एक लड़की भी हमारी तरह गिरते-पड़ते बर्फ से जूंझतें हुए,  हमारे पास आ खड़े हुए और बोले, "भईया खीरगंगा....?"
                         मैने कहा, "हम भी उसे ही ढूँढ रहे हैं भाई,  मंजिल यहीं आस-पास ही है परन्तु इस अंधेरे में नज़र नही आ रही........ और भाई आप लोग बहुत हिम्मत वाले हो,  जो यहाँ तक पहुँच गये....कहाँ से हो...!"           तो उन्होंने जवाब दिया कि "चण्डीगढ़ " से और आगे की ओर बढ़ गये।
                        उनके जाने के कुछ समय बाद हम दोनों भी चल दिये, ऊपर की तरफ़। दस मिनट चलने के बाद हमें कुत्तों के भौकनें की आवाज़ें सुनाई देने लगी और कोई व्यक्ति अपनी टार्च जगा-बुझा कर हमें अपनी ओर आने का इशारा कर रहा था। यह देख हमारे चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई, कि आखिर मंजिल आ ही गई।
                       वहाँ पहुँच....पाया कि लकड़ी के कुछ छोटे-छोटे से कमरे बने हुए थे और एक नेपाली "टेक चंद" जी वहाँ टार्च लिये हमारा इंतजार कर रहे थे। पास जा मैने शिव का जयकारा लगाया,  और टेक चंद जी ने हमारा स्वागत कर पूछा, कि क्या आपके पीछे भी कोई और आ रहा है। हमने कहा कि हमारी जानकारी से तो नही, बाकी कोई हमसे पीछे चल रहा हो,  कह नही सकते। तो टेक चंद जी बोले, "आओ मैं आपको कमरे तक पहुॅंचा देता हूँ....यहाँ बाहर तो इस सर्दी में खड़ा भी नही जा रहा।" मैने टेक चंद जी को रोक कर कहा कि हमें कमरे में नही, बाहर खुले में अपना टैंट लगाना है....कोई उचित जगह बताओ जहाँ टैंट लगाया जा सके। 
                       मेरी बात सुन टेक चंद जी बोले, "अरे शाब जी (साहिब जी) क्या सौ रुपये बचाने के चक्कर में लगे हो, खीरगंगा मंदिर कमेटी द्वारा यहाँ प्रत्येक यात्री से 100रुपये लेकर रात ठहरने व भोजन का प्रबन्ध किया गया है।"     मैने कहा कि भाई मैं सौ रुपये नही बचा रहा हूँ, मैं तो कैम्पिंग का सारा सामान नीचे से अपनी पीठ पर ढ़ो कर यहाँ तक पहुँचा हूँ....और इस सर्दी में बाहर कैम्प लगा कर अपने कैम्पिंग उपकरणों व अपनी शारीरिक क्षमता को परखना चाहता हूँ।
                      और दोस्तों,  मेरे अंर्तमन में उस साधु के कटाक्ष भी बारम्बार गूँज रहे थे कि हीरो बनने आया है यहाँ,  टैंट लगा कर इस सर्दी में रात काटेंगा....!!!!
                       मेरी बात सुन टेक चंद जी बोले,  "भाई, एक तो रात को यहाँ का तापमान शुन्य से माइनिस 10डिग्री तक नीचे चले जाता है, जिस की वजह से सराय का कमरा ही आप लोगों के लिए बहुत ज्यादा सुरक्षित है...और दूसरा हर तरफ़ बर्फ ही बर्फ बिछी पड़ी है,  यदि आप दिन की रौशनी में मेरे पास पहुँच जाते तो,  मैं बर्फ हटाकर यहीं-कहीं हवा का रुख देख आपका टैंट लगवा भी देता,  अब मुश्किल है...आप लोग मेरी बात मानिये और आज रात बंद कमरे में ही बितायें....!"
                         मैं अड़ियल का अड़ियल ही हूँ,  और विशाल रतन जी हर परिस्थिति में समझदारी से काम लेते हैं। विशाल जी की यही समझदारी हमारी पर्वतारोहण सांझ की रीढ़ है, यदि मैं कहीं बगैर होश के ज्यादा जोश में आ जाता हूँ....तो विशाल जी अपनी सूझबूझ से मुझे शांत कर लेते हैं, हालांकि मुझे कई बार उन की उस मौके पर की हुई बात अच्छी नही लगती,  परन्तु उस का परिणाम ज्यादातर अच्छा ही साबित हुआ है। इसी प्रकार उन्होंने यहाँ भी कहा, " छोड़ो विकास जी...अब ज़िद छोड़ दो,  टेक चंद जी की बात में बहुत ज्यादा वज़न है.....ये यहीं पर रहते हैं,  इनको इस जगह के स्वभाव के विषय में हम दोनों से कई गुणा ज्यादा पता है......और मैं आप की सराहना करता हूँ कि आप कैम्पिंग के इस वजन को अपनी पीठ पर लाद कर चलते हैं,  पर विकास जी यहाँ पहुँचने पर परिस्थिति हमारे अनुकूल बन चुकी है,  कि हमे रात काटने के लिए एक कमरा मिल रहा है.....यदि हम आज रात पीछे ही कहीं जंगल में फंस जाते,  तो ये ही कैम्पिंग उपकरण हमारे जीवन रक्षक साबित होने वाले थे और अब ताज़ा बनी परिस्थिति को देख, कमरा छोड़ बाहर टैंट लगाना मेरे हिसाब तो सौ प्रतिशत "बेवकूफी " ही साबित होगी......सो मेरी व टेक चंद जी की बात मान,  ज़िद छोड़ कमरे में चलो.......!!!"
                         और......मैं एक छोटे बच्चें की तरह उन दोनों के पीछे चल दिया। परन्तु जैसे ही टेक चंद जी ने सराय के उस छोटे से कमरे का दरवाज़ खोला, पहले से ही तैयार बैठे दो कुत्ते भाग कर आये और हम से पहले ही कमरे मे दाखिल हो पंलग के नीचे घुस गये। टेक चंद जी ने कहा,  "अरे मेरे तो ध्यान में ही नही रहा, कि दरवाज़ा खेलते ही ये सब कुत्ते ठण्ड से बचने के लिए कमरों में आकर बिस्तरों में घुस जाते हैं "  और टेक चंद जी ने उन्हें पलंग के नीचे से खींच कर निकाल कमरे से बाहर कर, हमें हिदायत दी कि कमरे के दरवाजे की कुंडी लगा कर रखे क्योंकि ये कुत्ते मुंँह से भी दरवाज़ा खोल लेते हैं। मेरे मन में उन बेज़ुबानों को देख कर बड़ा तरस आ रहा था,  परन्तु मैं कर कुछ नही सकता था।
                        टेक चंद जी आधे घंटे के बाद कमरे में ही हमारा खाना दे गये,  रात के उस खाने में राजमाँह-चावल व एक अजीब से स्वाद वाली चटनी थी,  विशाल जी तो सब मिला-जुला चटम कर गये.....चटनी का तो मैने बस स्वाद ही देखा और राजमाँह-चावल भी ज्यादा ना खा सका,  क्योंकि ऊँचाई पर आ कर मेरी भूख मर सी जाती है। खाना खाते-खाते मुझे,  1992में की हुई खीरगंगा यात्रा में, इसी स्थान पर किये हुए रात के स्वादिष्ट भोजन की याद ताज़ा हो गई। उस समय खीरगंगा के नाम पर एक गर्म पानी का कुण्ड व एक छोटा सा लकड़ी का कमरा था, जिसमें उस रात हम 12-15 आदमी ठहरें हुए थे...और हम में कुछ साधु व अंग्रेज़ जोड़े भी थे। उस छोटे से कमरे के मध्य आग का अलाव जल रहा था और एक विशेष प्रकार की "चिलम" का खूब दौर चल रहा था। रात को लंगर में हमे माँह-चावल परोसे गये, वो भी एलुमिनियम के बर्तनों में.....उस आग के अलाव की हल्की सी रौशनी में मैने जो वो माँह-चावल खाये थे,  उस जैसे स्वादिष्ट माँह-चावल मैने जीवन में फिर कभी नही खाये। फिर उसी छोटी सी जगह में फंस-फंसा कर जमीन पर ही सो गये, परन्तु नींद कहाँ आई थी सारी रात। एक तो बेशुमार ठण्ड और सिर्फ एक कम्बल, जो मैं अपने साथ ही वहाँ लेकर गया था।
                      परन्तु इस बार तो यहाँ सब कुछ ही बदल गया है,  हमें एक अलग कमरा मिला,  पलंग और पांच-पांच कम्बल.......सो,  रात्रिभोज के उपरांत हम दोनों अपने-अपने पांचों कम्बल ओढ़ कर लेट गये और सारे दिन के घटनाक्रम को दोहरातें हुए हम एक दम से नींद के आगोश में चले गये।
                                                          ......................(क्रमश:)
बस हमारी टार्च की रौशनी इतनी ही दूरी तक काम कर रही थी... खीरगंगा कहीं पास में है, परन्तु अंधेरा होने के कारण दिखाई नही दे पा रहा था... 

चलो, विकास जी पहले चाय बनाते हैं.... चाय पीने के बाद ही इन निढाल हो चुके शरीरों में फिर से आगे बढ़ने की ताकत आएगी...विशाल जी बोले ।

टेक चंद जी ने हिदायत दी,  कि दरवाजे की कुंडी लगा कर रखे... ठण्ड के मारे कुत्ते जबरदस्ती कमरे के अंदर घुस आते हैं।

राज-माँह चावल.... और वो चटनी।

लो भाई,  एक कम सिरफिरा.... इस ज्यादा सिरफिरें को समझा कर आखिर कमरे में ले जाने के लिए सफल हो ही गया..!

( अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )

10 टिप्‍पणियां:

  1. विशाल जी की सूझ बुझ और आप का जोश वाकई में। ग़ज़ब है जी ऐसी दोस्ती बिरले ही होती है

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  2. आपकी हर कड़ी एक नया रोमांच ले कर आती है. पहले वाले मे साधु बाबा, अब टेक चाँद जी, प्रकृति और मनुष्यों का बड़ा ही खूबसूरत ताना-बाना है आपकी कहानी मे.

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    1. बेहद धन्यवाद जी, बस जो भी अनुभव व अनुभूतियाँ यात्रा पथ पर हुई, उन्हें स्मरण कर शब्दों का रुप दे देता हूँ जी

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  3. मज़ा आ गया पढ़ कर।यद्यपि मैं काफी लेट पढ़ रही हूँ परनतु मज़ा वही ले सकता है जो स्वयम् भी पहाडों के इन रोमांचकारी अनुभवों का आनन्द ले चुका हो। आपके अनुभव मुझे मेरी टरैकिंगस में मुझे दोबारा ले जा रहे हैं ।मैं अभी अपने हिमालय से हज़ारों मील दूर बैठी हूँ।

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    1. बेहद धन्यवाद स्वराज जी, हिमालय देव आपकी इंतजार में है, जी।

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  4. चटनी भांग वाली लग रही है दिखने में।

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    1. बेहद धन्यवाद, मेरे हमसफ़र बनने के लिए जी।

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