गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

भाग-1 चलो, चलते हैं... सर्दियों में खीरगंगा Winter trekking to Kheerganga(2960mt)

भाग-1    चलो, चलते हैं.... सर्दियों में "खीरगंगा" (2960मीटर)

                     मित्रों,  जय हिंद....... मैं फिर से रंग में आ गया हूँ,  एक नई साप्ताहिक चित्रकथा के संग। यह वो चित्रकथा मेरी शीतकालीन ट्रैकिंग, हिमाचल प्रदेश में प्राकृतिक गर्म जल स्रोतों की घरती "मणिकर्ण " से भी आगे पार्वती घाटी में मौजूद मनोरम स्थल "खीरगंगा" की है...जो मैने अपने पर्वतारोही साथी, मेरे सांढ़ूभाई विशाल रतन जी के साथ 31दिसम्बर 2015 की रात यात्रा आरंभ की थी।
                       मैने अपने शहर गढ़शंकर (पंजाब) से रात 10:30 बजे हिमाचल रोडवेज़ पकड़ी,  जो कि अमृतसर से मणिकर्ण जाती है। परन्तु बस में एक भी सीट खाली ना थी और रात का सफर, वो भी 10घंटे का, सिर पर आन पड़ा था। बस में नज़र घुमाई, तो देखा कि बस में हिमाचली सवारियों के साथ कुछ पंजाबी सरदार सहयात्री भी बस में बैठे थे,  जिससे मुझे आशा की किरण नज़र आई कि ये सवारियाँ अमृतसर से श्री आंनदपुर साहिब के गुरुद्वारा केशगढ़ साहिब दर्शन के लिए जा रही हैं।  सो उनकी सीट एक घंटे के सफ़र के बाद खाली होने के आसार बंध गये। परन्तु मुझे एक सीट नही, बल्कि दो सीट चाहिए थी....विशाल रतन जी के लिए भी,  क्योंकि वह दिल्ली से रेलगाड़ी के द्वारा आंनदपुर साहिब पहुँच रहे थे,  करीब 11बजे रात को। पर बस में मैं अकेला नही खड़ा था,  मेरे साथ कई और लोग भी खड़े थे....और निश्चित ही सबके दिमाग में वही सिख परिवार की सीटें चल रही थी।  खैर,  आंनदपुर साहिब आया....मुझे विशाल जी बस-अड्डे पर खड़े होने की अपनी सूचना फोन पर पहले ही दे चुके थे। बस रुकी,  सवारियाँ चढ़ी व उतरी.......और मुझे व विशाल जी को आखिर अलग-अलग स्थान पर सीट मिल ही गई और तब मैने अपनी घड़ी पर समय देखा,  तो 12बज रहे थे.....हम दोनों ने एक-दूसरे को नव वर्ष 2016 की शुभकामनाएँ दी व अपनी-अपनी सीट पर जा बैठे।
                         मित्रों, यहाँ तमाम दुनिया के लोग नव वर्ष के आगमन में हर्षोन्माद में लिप्त हो रहे होते हैं,  वहाँ हम दोनों सांढ़ूभाई ऐसे ही पिछले कुछ वर्षो से, हर बार नव वर्ष के आगमन की इस शुभ घड़ी पर,  किसी ना किसी पहाड पर चढ़ रहे होते हैं,  और वहीं एक-दूसरे से हम नव वर्ष की मंगलमय शुभकामनाओं का आदान-प्रदान कर लेते हैं।  खैर,  अब रात का 1बज चुका था,  बस में अब शांति सी छा गई थी....पर जैसे-जैसे बस पंजाब के मैदानी इलाकों से हिमाचल के पहाड़ी इलाकों की ओर बढ़ रही थी,  वैसे-वैसे ठंड भी बढ़ती जा रही थी। विशाल जी को मेरे सामने वाली सीट मिली थी और उनके साथ एक महिला बैठी थी,  जो शायद पंजाब के ही किसी मैदानी इलाके से आ रही थी...क्योंकि उन्होनें इतनी ठंड में सिर्फ एक हल्का सा स्वैटर ही डाल रखा था। वह अब उस बढ़ रही ठंड में काँप रही थी और वह बार-बार अपने पास बैठे लोगों से किसी गर्म कपड़े की मांग कर रही थी। उस की हालत देख, मेरे मन में दया उत्पन्न हई, और मेरे पास एकमात्र गर्म कपड़ा,  वो पशमीना शाल जो मेरी माँ ने मुझे इस यात्रा पर आते समय दिया था....अपनी रक्सैक से निकाल कर उस स्त्री को ओढ़ने के लिए दे दिया।
                             हिमाचल प्रदेश की बल खाती व घुमती सी सड़क पर बस आगे बढ़ती जा रही थी.... और मेरे साथ भी एक महिला ही बैठी थी,  जिससे मुझे उस हिलती-डुलती बस में उस सीट पर बैठने में असहजता हो रही थी,  सो सामने वाली सीट पर विशाल जी के साथ बैठी उस महिला (जिसे मैने एक घंटे पहले अपना पशमीना शाल दिया था) से आग्रह किया कि यदि आप मेरी वाली सीट पर बैठ जाये...तो बहुत मेहरबानी होगी और मैं व विशाल जी हम दोनों एक जगह इकट्ठे हो जायेंगें।
          परन्तु यह क्या,  उस महिला ने मुझे टका सा जवाब दिया कि  "मैं यहाँ बैठी हूँ..... ठीक हूँ "     और अपनी आँखें बंद कर ली।   मुझे उससे इस तरह के बर्ताव की उम्मीद कतई ना थी और जो भी सहयात्री मेरी व उसकी वार्ता सुन रहे थे,  सब के सब हैरान रह गये कि खुदगर्जी की भी तो कोई हद होती है...परन्तु इसने तो वो भी पार कर दी....!" तभी मैं स्वार्थी होकर बोला, "मैडम,  मैने आपको अपनी एकमात्र शाल ठंड से बचने के लिए दी है, यदि मुझे ठंड लगी....तो मैं आपसे इसे वापस ले लूगाँ "......तो मेरी इस बात पर आँखे मूँदी हुई उस महोतरमा ने सिर्फ हल्का सा सिर हिला दिया।
                         दोस्तों,  इस प्रकार की कटु घटनाएँ ही हमें अपनी आगामी जिंदगी में हमारे भीतर के "दानवीर कर्ण "को मार देने के लिए प्रेरित करती हैं।  इसी प्रकार की कटु घटना का यहाँ जिक्र करूँगा,  कि जब मैं 17-18साल का था तो एक बार चण्डीगढ़ से वापस अपने घर गढ़शंकर बस में आ रहा था...कि रास्ते में एक बुजुर्ग महिला व उनका जवान पोता बस में चढ़े,  और कोई सीट ना होने के कारण खड़े थे।  तो मैने उन बुजुर्ग महिला को अपनी सीट दे दी, परन्तु जब अगले बस-अड्डे पर बस रुकी और उन बुजुर्ग महिला के साथ वाली सीट खाली हुई तो उन्होंने मुझे उस सीट पर बैठने नही दिया,  जोर से आवाज़ लगा....बस के अगले हिस्से में खड़े अपने पोते को बुला कर उस सीट पर बिठाया....!
               मुझे याद है, कि इस घटना ने मुझे अत्यन्त निष्ठुर बना दिया,  और मैने काफी समय तक कभी दोबारा किसी महिला के लिए अपनी सीट नही छोड़ी...... फिर समय के साथ-साथ उमर बढ़ने से,  मैं इस घटना को भूल कर सामान्य हो गया।
                         रात के तीन बजे के करीब बस सुंदरनगर बस डिपो पर जा कर खड़ी हो गई और हमे कहा गया कि अब यह बस आगे नही जायेगी, आप लोग जिस प्रकार इस बस में बैठे है,  ठीक उसी प्रकार उस दूसरी बस में बैठ जायें और बदले हुए बस चालक के साथ, वो नई बस मणिकर्ण की तरफ़ रवाना हो ली।
                 अब बस में ठंड में निरंतर बढ़ौतरी होती जा रही थी। मेरा ऊपरी शरीर तो एकदम कपड़ों से पैक था,   परन्तु मेरी टांगो में अब बढ़ रही ठंड के कारण कंपन चालू हो गया और जो थोड़ी बहुत कभी-कभार आँख लग भी रही थी,    वह भी अब इस भयंकर ठंड के कारण एक दम खुल गई थी। पर मैने अपना एकमात्र गर्म शाल तो उन मैडम को दे दिया, जो अब बहुत आराम से उस शाल की गरमाहट में सो रही थी। परन्तु मेरे संस्कारो ने मुझे वो शाल उस कथित महोतरमा से वापस मांगने के लिए रोक दिया और अपने रक्सैक से हवारोधक पैजामा निकाल डाल लिया, तथा जो कुछ भी मेरे पास था सब कुछ पहन लिया,  परन्तु ठंड की वजह से नींद फिर भी नही आई।
                         सुबह तड़के बस "औट" नामक कस्बे पर रुकी और वहाँ कई सारी चाय-पकौड़ों की दुकाने थी...... और हर दुकान के आगे दुकानदार ने आग का अलाव जला,  सेंकने की सुविधा प्रदान कर रखी थी। दोस्तों वहाँ मिलने वाले पकौड़े दिखने में सुंदर और खाने में बहुत स्वादिष्ट होते हैं। भुन्तर शहर पहुँचते-पहुँचते बस में हम दोनों को छोड़ कर सब सवारियाँ उतर गई,  क्योंकि ज्यादातर लोग मनाली जाने वाले थे। सो वो सब अब भुन्तर से अपनी बस बदलने लगे....वो महोतरमा भी जल्दी से उठी और मेरा शाल मुझे जल्दी में थमा कर,  अंग्रेजों द्वारा हमे दान में दिया बहुत भारी-भरकम शब्द  "थैंक्स " बोल कर बस से नीचे उतर गई..!
              तीन और लड़के जो शायद दिल्ली से आ रहे थे, भुन्तर से चढ़ कसोल में उतरे। कसोल में नव वर्ष की पार्टियाँ बीती रात पूरे यौवन पर रही होगी,  उसका सबूत वहाँ जगह-जगह खड़ी पर्यटकों की कारों के काफिलों से मिल रहा था। 
                और,  सुबह 8बजे बस हम इक्का-दुक्का सवारियों को ले मणिकर्ण आ पहुँची।
                                   .............................(क्रमश:)
हवाई अड्डा "भुन्तर" शहर के रास्ते में आये "औट" नामक कस्बे पर क्या शानदार व स्वादिष्ट पकौड़े मिलते हैं...दोस्तों 

मणिकर्ण के रास्ते में... पार्वती घाटी में बह रही "पार्वती नदी "

यह चित्र विशाल रतन जी ने खींचा था, जब कसोल से एक युवती अपने नन्हें से बच्चे के संग बस में सवार हुई.... उसने वो बच्चा अपनी पीठ पर बांध रखा था,  और उसे ठंड से बचाने के लिए कम्बल से ढका हुआ था.. हमे सिर्फ उस बच्चे की टोपी ही नज़र आ रही थी।

मित्रो...मेरे साथ चलो,  मैं आप को अपनी इस चित्रकथा द्वारा खीरगंगा की इन हसीन वादी में ले चलूँगा,  जी।

( अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )

20 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही कटु अनुभव और अंतर्मन के पशोपेश से गुज़रे आप.

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    1. जी हां....जी, मेरी मनोदशा को सही पहचाना आपने जी।

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  2. बस के अनुभव बहुत कुछ ऐसे ही होते है...कसोल के बारे में आपने सही कहा

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    1. क्योंकि प्रतीक जी, बस में वन-वन की लकड़ी एक जगह इक्ट्ठा हुईहोती है, जी।

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    1. नही जनाब, यह यात्रा तो पिछले साल की है, जी।

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  4. आज से इस सीरीज को पढ़ने की शुरुआत कर रहा हूं।पिछली पोस्टों पर किये गये कमेंट नही दिख रहे ऐसा क्यों।

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    1. स्वागत है अनिल जी, मुझे नही ज्ञात क्योंकि अभी तक भी मैं ब्लॉग चलाने में पूर्ण रुप से सक्षम नही हो पाया हूँ जी।

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  5. जीवन ऐसे ही कड़वे मीठे रस से भरपूर है विकास जी,
    वो महिला बहुत पक्की थी।
    बेहतरीन शुरुआत।

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  6. मैं एक रात ओट मे बिताया हूँ। नदी के किनारे कमरा था। शानदार जगह है।

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    1. सही कहा आपने उदय जी, ओट बहुत सुंदर जगह है जी।

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  7. तमाम खट्टे मीठे अनुभव के बाद अब आगे की यात्रा पढ़ना चाहते हैं।
    सुंदर.....बहुत सुंदर लिखते हैं सर आप।

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