भाग-14 पैदल यात्रा लमडल झील वाय गज पास (4470मीटर)
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सुबह के चलते-चलते अब दोपहर हो चली थी, प्यास के मारे मेरा गला सूख रहा था और पानी तो कब का खत्म हो चुका था और राणा चरण सिंह के अनुसार अब पानी तो हमे सिर्फ गज पर्वत को लांघ कर लमडल झील में ही मिलेगा, परन्तु गज पर्वत पर चढ़ते-चढ़ते मुझे इस पर्वत का शिखर भी अभी कहीं नजर ना आ रहा था.........तभी चरण सिंह ने एकाएक कहा कि आगे पगडंडी के कुछ नीचे की ओर एक पत्थर आयेगा, उस पर एक क़ुदरती गड्डा बना हुआ है.... बारिश का एक-आध लीटर पानी उस गड्डे में जमा हो जाता है, शायद हमे वहां पीने योग्य पानी मिल जाये....... और हम उस पत्थर को अपनी स्थानीय भाषा में "चट" नाम से सम्बोधन करते हैं, जब मैं छोटा था.... तो अपने पिता के लिए जब कभी ऊपरी धार में राशन आदि लेकर जाता था, तो मेरी माँ मुझे रास्ते में खाने के लिए जो रोटी देती थी..... वो मैं चट नामक उसी पत्थर पर बैठ कर खाता था और गड्डे से पानी पी, आगे का सफ़र तय करता था.........
कुछ समय ऊपर चढ़ने के बाद वह पत्थर आ गया, परन्तु उसके छोटे से गड्डे में पानी सूख चुका था.... उम्मीद के मुताबिक वहां पानी ना मिलने पर प्यास और तीव्र हो गई, गला खुश्क हो रहा था और ऊपर से बस चढाई ही चढाई...... समुद्र तट से बढ़ रही ऊँचाई से हवा में कम हो रही आक्सीजन की मात्रा अब मेरे शरीर को आगे चलने के लिए भारी बना रही थी..... परन्तु प्रत्येक कदम पर बदल रही प्राकृतिक सुन्दरता को देख मन प्रफुल्लता से मचल रहा है, थकान व प्यास को एक तरफ रख, आगे बढ़ने की चाह व निश्चय मेरे हर कदम को फिर से उठा रही थी ...... और आगे नया देखने की तमन्ना मुझे आगे की ओर निरंतर खींचती चली जा रही थी तथा मैं प्रकृति की सुन्दरता के नशे में बस चला जा रहा था.......
तभी मुझे ऊपर एक त्रिशूल नजर आया, तो मैने चरण सिंह से पूछा..... वे बोले, हां वह "टापरी गोट" पर स्थित "ओखराल माता" के मंदिर शिखर पर लगा त्रिशूल है और हम वहीं जा कर कुछ समय सांस लेगे और माथा भी टेक लेंगे..... इस वीरान जगह पर मंदिर होना का कारण पूछने पर चरण सिंह बोले, यह माता ओखरालू का मूल स्थान नहीं है, मूलस्थान तो गज पर्वत के शिखर पर है, वो देखो आम आदमी की पहुंच से बाहर, गज पर्वत की सहायक श्रृंखला के शिखर की ओर........परन्तु उस समय शिखर और घाटी को बादलों ने अपने आगोश में ले रखा था.............. चलते-चलते हम मंदिर तक पहुंच गए और यह 2004 में नवनिर्मित माता शेरां वाली को समर्पित एक छोटा सा पक्का मंदिर था जिसमें ढेरों छोटे-छोटे कई सारे त्रिशूल और माँ दुर्गा की मूर्तियाँ थी........ परन्तु "ओखराल" शब्द पर मेरी जिज्ञासा तीव्र हो गई, तो चरण सिंह के इस विषय पर बताते-बताते ही शिखर से एकाएक बादल छटने लगे और गज पर्वत की मुख्य शिखर धार के साथ वाली सहायक पर्वत धार पर एक बहुत विशाल ओखराल नुमा पत्थर दिखाई दिया (ओखराल, जिसमें पहाड़ी लोग धान डाल कर लकड़ी के मूगले से कूट कर चावल निकालते हैं)......."यह ओखराल नुमा पत्थर ही इन माता का मूलस्थान है, यहां टापरी गोट पर अपनी सुविधा के लिए इनका प्रतीक चिन्ह स्थापित कर लिया गया है".....कहते हुए चरण सिंह ने मुझे इस सम्बन्ध में लोक कथा सुनानी आरंभ की.........
जिला चम्बा के एक गांव में 6बहने थी, माता-पिता के देहांत के बाद उनमें जायदाद सम्बन्धी विवाद उत्पन्न हो गया.... और अपनी-अपनी ताकत के हिसाब से बड़ी बहनों ने अलग-अलग चीजों व जायदाद को अपने कब्ज़े में ले लिया, सब से छोटी बहन जो कुंवारी थी....उस बेचारी के हाथ सिर्फ घर में रखी कुछ धान ही आई..... तो वह रूष्ट हो वही धान ले, इस निर्मोही संसार व रिश्ते-नातों को छोड़ गज पर्वत की ऊँचाई पर चढ़ गई और लापता हो गई............... समय गुज़रता रहा और गज पर्वत पर भेड़-बकरी चराने वाले गद्दीयों को कई बार गज पर्वत की इस ऊँचाई पर धान के दानों का मिलना आश्चर्यजनक व संदेहप्रद लगने लगा और यह धान उस ओखराल नुमा पत्थर के पास अक्सर मिलता था.......बड़े-बुजुर्गो ने खोज-खबर की और उस आत्मा की शांति हेतू इस स्थान का निर्माण किया गया............ मैं सोचने लगा, देखने में यह सब पत्थरों के ढेर और सभ्यता के दूर है.... परन्तु यहां मौजूद हर कण कुछ ना कुछ कह रहा है, बशर्ते कोई सुनने वाला चाहिए......
मंदिर के बाहर पत्थर की एक छोटी सी मूर्ति को देख, मैं बोला कि यह माँ भवानी की शेर सवारी तो नही लग रही..... तो चरण सिंह ने कहा, हां यह शेर की मूर्ति नही है, यह तो देवो के देव महादेव की सवारी नंदी की मूर्ति है, हमारे इस इलाके में मन्नत पूरी होने पर भगवान शिव को उनका प्रिय वाहन नंदी चढ़ने की मान्यता है.......... मैने चरण सिंह की बात का विश्लेषण कर कहा, कि हो सकता है पहले-पहल लोग सच का बैल भगवान शिव को चढ़ते होगे और कालान्तर में धीरे-धीरे अब यह रीति मात्र सूक्ष्म चिन्ह यानि पत्थर के नंदी की मूर्ति तक ही सिमट गई है........ ठीक वैसे ही, जैसे परातुन समय में धार्मिक अवसरों पर भेट किये जाने वाला वस्त्र, अब सिर्फ मौली (धागा) कलाई पर बांधने तक ही सीमित हो गया है.....
मैं कई घंटों से बगैर पानी के चल रहा था, समुद्र तट से कदम दर कदम ऊपर उठ रही ऊँचाई से मेरे शरीर में आक्सीजन तथा पानी की निरंतर कमी होती जा रही थी, मेरे होंठ सूख कर फटने लगे थे और मेरी आंखों में भी सूजन आ चुकी थी.......... ऐसी स्थिति में जल ही आपको बचाता है, निरंतर पानी पीते रहने से हमारा शरीर इन पर्वतीय ऊँचाईयों पर जल में मिश्रित आक्सीजन ले हमे निर्जलीकरण व पर्वतीय ऊँचाई दबाव से बचाता रहता है...... यानि कि मुझे उस समय तक कम से कम पांच लीटर पानी पी लेना चाहिए था, परन्तु मेरे पास मौजूद एक लीटर पानी तो ट्रैक के पहले ही घंटे में खत्म हो गया था, जबकि चरण सिंह बिल्कुल सामान्य थे और ना ही उन्हें पानी की जरूरत महसूस हो रही थी, क्योंकि उनका शरीर उन परिस्थितियों का पहले से ही अभ्यस्त था.........
......................................(क्रमश:)
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सुबह के चलते-चलते अब दोपहर हो चली थी, प्यास के मारे मेरा गला सूख रहा था और पानी तो कब का खत्म हो चुका था और राणा चरण सिंह के अनुसार अब पानी तो हमे सिर्फ गज पर्वत को लांघ कर लमडल झील में ही मिलेगा, परन्तु गज पर्वत पर चढ़ते-चढ़ते मुझे इस पर्वत का शिखर भी अभी कहीं नजर ना आ रहा था.........तभी चरण सिंह ने एकाएक कहा कि आगे पगडंडी के कुछ नीचे की ओर एक पत्थर आयेगा, उस पर एक क़ुदरती गड्डा बना हुआ है.... बारिश का एक-आध लीटर पानी उस गड्डे में जमा हो जाता है, शायद हमे वहां पीने योग्य पानी मिल जाये....... और हम उस पत्थर को अपनी स्थानीय भाषा में "चट" नाम से सम्बोधन करते हैं, जब मैं छोटा था.... तो अपने पिता के लिए जब कभी ऊपरी धार में राशन आदि लेकर जाता था, तो मेरी माँ मुझे रास्ते में खाने के लिए जो रोटी देती थी..... वो मैं चट नामक उसी पत्थर पर बैठ कर खाता था और गड्डे से पानी पी, आगे का सफ़र तय करता था.........
कुछ समय ऊपर चढ़ने के बाद वह पत्थर आ गया, परन्तु उसके छोटे से गड्डे में पानी सूख चुका था.... उम्मीद के मुताबिक वहां पानी ना मिलने पर प्यास और तीव्र हो गई, गला खुश्क हो रहा था और ऊपर से बस चढाई ही चढाई...... समुद्र तट से बढ़ रही ऊँचाई से हवा में कम हो रही आक्सीजन की मात्रा अब मेरे शरीर को आगे चलने के लिए भारी बना रही थी..... परन्तु प्रत्येक कदम पर बदल रही प्राकृतिक सुन्दरता को देख मन प्रफुल्लता से मचल रहा है, थकान व प्यास को एक तरफ रख, आगे बढ़ने की चाह व निश्चय मेरे हर कदम को फिर से उठा रही थी ...... और आगे नया देखने की तमन्ना मुझे आगे की ओर निरंतर खींचती चली जा रही थी तथा मैं प्रकृति की सुन्दरता के नशे में बस चला जा रहा था.......
तभी मुझे ऊपर एक त्रिशूल नजर आया, तो मैने चरण सिंह से पूछा..... वे बोले, हां वह "टापरी गोट" पर स्थित "ओखराल माता" के मंदिर शिखर पर लगा त्रिशूल है और हम वहीं जा कर कुछ समय सांस लेगे और माथा भी टेक लेंगे..... इस वीरान जगह पर मंदिर होना का कारण पूछने पर चरण सिंह बोले, यह माता ओखरालू का मूल स्थान नहीं है, मूलस्थान तो गज पर्वत के शिखर पर है, वो देखो आम आदमी की पहुंच से बाहर, गज पर्वत की सहायक श्रृंखला के शिखर की ओर........परन्तु उस समय शिखर और घाटी को बादलों ने अपने आगोश में ले रखा था.............. चलते-चलते हम मंदिर तक पहुंच गए और यह 2004 में नवनिर्मित माता शेरां वाली को समर्पित एक छोटा सा पक्का मंदिर था जिसमें ढेरों छोटे-छोटे कई सारे त्रिशूल और माँ दुर्गा की मूर्तियाँ थी........ परन्तु "ओखराल" शब्द पर मेरी जिज्ञासा तीव्र हो गई, तो चरण सिंह के इस विषय पर बताते-बताते ही शिखर से एकाएक बादल छटने लगे और गज पर्वत की मुख्य शिखर धार के साथ वाली सहायक पर्वत धार पर एक बहुत विशाल ओखराल नुमा पत्थर दिखाई दिया (ओखराल, जिसमें पहाड़ी लोग धान डाल कर लकड़ी के मूगले से कूट कर चावल निकालते हैं)......."यह ओखराल नुमा पत्थर ही इन माता का मूलस्थान है, यहां टापरी गोट पर अपनी सुविधा के लिए इनका प्रतीक चिन्ह स्थापित कर लिया गया है".....कहते हुए चरण सिंह ने मुझे इस सम्बन्ध में लोक कथा सुनानी आरंभ की.........
जिला चम्बा के एक गांव में 6बहने थी, माता-पिता के देहांत के बाद उनमें जायदाद सम्बन्धी विवाद उत्पन्न हो गया.... और अपनी-अपनी ताकत के हिसाब से बड़ी बहनों ने अलग-अलग चीजों व जायदाद को अपने कब्ज़े में ले लिया, सब से छोटी बहन जो कुंवारी थी....उस बेचारी के हाथ सिर्फ घर में रखी कुछ धान ही आई..... तो वह रूष्ट हो वही धान ले, इस निर्मोही संसार व रिश्ते-नातों को छोड़ गज पर्वत की ऊँचाई पर चढ़ गई और लापता हो गई............... समय गुज़रता रहा और गज पर्वत पर भेड़-बकरी चराने वाले गद्दीयों को कई बार गज पर्वत की इस ऊँचाई पर धान के दानों का मिलना आश्चर्यजनक व संदेहप्रद लगने लगा और यह धान उस ओखराल नुमा पत्थर के पास अक्सर मिलता था.......बड़े-बुजुर्गो ने खोज-खबर की और उस आत्मा की शांति हेतू इस स्थान का निर्माण किया गया............ मैं सोचने लगा, देखने में यह सब पत्थरों के ढेर और सभ्यता के दूर है.... परन्तु यहां मौजूद हर कण कुछ ना कुछ कह रहा है, बशर्ते कोई सुनने वाला चाहिए......
मंदिर के बाहर पत्थर की एक छोटी सी मूर्ति को देख, मैं बोला कि यह माँ भवानी की शेर सवारी तो नही लग रही..... तो चरण सिंह ने कहा, हां यह शेर की मूर्ति नही है, यह तो देवो के देव महादेव की सवारी नंदी की मूर्ति है, हमारे इस इलाके में मन्नत पूरी होने पर भगवान शिव को उनका प्रिय वाहन नंदी चढ़ने की मान्यता है.......... मैने चरण सिंह की बात का विश्लेषण कर कहा, कि हो सकता है पहले-पहल लोग सच का बैल भगवान शिव को चढ़ते होगे और कालान्तर में धीरे-धीरे अब यह रीति मात्र सूक्ष्म चिन्ह यानि पत्थर के नंदी की मूर्ति तक ही सिमट गई है........ ठीक वैसे ही, जैसे परातुन समय में धार्मिक अवसरों पर भेट किये जाने वाला वस्त्र, अब सिर्फ मौली (धागा) कलाई पर बांधने तक ही सीमित हो गया है.....
मैं कई घंटों से बगैर पानी के चल रहा था, समुद्र तट से कदम दर कदम ऊपर उठ रही ऊँचाई से मेरे शरीर में आक्सीजन तथा पानी की निरंतर कमी होती जा रही थी, मेरे होंठ सूख कर फटने लगे थे और मेरी आंखों में भी सूजन आ चुकी थी.......... ऐसी स्थिति में जल ही आपको बचाता है, निरंतर पानी पीते रहने से हमारा शरीर इन पर्वतीय ऊँचाईयों पर जल में मिश्रित आक्सीजन ले हमे निर्जलीकरण व पर्वतीय ऊँचाई दबाव से बचाता रहता है...... यानि कि मुझे उस समय तक कम से कम पांच लीटर पानी पी लेना चाहिए था, परन्तु मेरे पास मौजूद एक लीटर पानी तो ट्रैक के पहले ही घंटे में खत्म हो गया था, जबकि चरण सिंह बिल्कुल सामान्य थे और ना ही उन्हें पानी की जरूरत महसूस हो रही थी, क्योंकि उनका शरीर उन परिस्थितियों का पहले से ही अभ्यस्त था.........
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बदकिस्मती से चट नामक इस पत्थर के छोटे से गड्ढे में पानी भी सूखा मिला... |
रास्ते में जगह-जगह लगे ये पत्थरों के ढेर किसी कलाकृति से कम नही लग रहे थे.....मित्रों |
प्रकृति ना जाने कितने रुप बदल कर मेरे मन को मोह रही थी... |
एक ऐसा नज़ारा, मैं जिसे जीवन भर नही भूल सकता... |
ओखराल माता मंदिर... टापरी गोट |
चरण सिंह द्वारा ओखराल माता की लोक कथा सुनातें-सुनातें ही एकाएक बादल छटने लगे.... |
और, बादल छटते ही शिखर पर स्थित ओखराल के दर्शन होने लगे.... |
सूर्य देव व ओखराल माता मंदिर शिखर पर स्थापित त्रिशूल, भगवान शिव का वाहन और ओखराल माता मंदिर के भीतरी दर्शन... |
ओखरालू माता मंदिर में हम दोनों... |
मेरे चेहरे पर पहाड़ की ऊँचाई के दबाव व निर्जलीकरण के लक्षण इस चित्र में दिखाई दे रहे हैं.... मेरे होंठ फट रहे थे और आँखो में सूजन आ चुकी थी... (अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें ) |
वाह इतनी ऊंचाई पर भी मंदिर बनाना हिम्मती कार्य है जय माता दी
जवाब देंहटाएंजय माता दी, लोकेन्द्र जी बिल्कुल सही कहा जी।
जवाब देंहटाएंचेहरा उतर गया है पानी के इंतज़ार में...यह प्यास है बड़ी...
जवाब देंहटाएंHaha Haha..... सही कहा श्री मान जी।
हटाएंHaha Haha..... सही कहा श्री मान जी।
हटाएंनंदी कितना मनमोहक है।
जवाब देंहटाएंख़ाली चट एक नयी सी चीज़ मानो अमृत कुंड।
सही कहा आपने सुमित जी , यदि उस समय चट नामक उस पत्थर के छोटे से गड्ढे में पानी मिल जाता...तो वह अमृत समान ही था जी ।
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद जी।
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