भाग- 12 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा" (अंतिम किश्त)इस यात्रा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र http://vikasnarda.blogspot.com/2020/05/blog-post.html?m=1 स्पर्श करें।
"किन्नर कैलाश की समुद्र तट से ऊँचाई - 4630मीटर"
22 अगस्त 2017....किन्नर कैलाश शिला के समक्ष रो कर अब मेरा मन बहुत हल्का हो चुका है, किन्नर कैलाश पहुँचने की खुशी आँखों से बह चुकी है....मन-मस्तिष्क में आत्मविश्वास भरा ठहराव आ रहा था।
मैंने अपनी तुंगमापी घड़ी को कलाई से उतार कर साथ वाली चट्टान पर रख दिया था कि तापमान को भी माप सकूँ। तो, घड़ी को उठा कर देखता हूँ कि समय तीन बज कर पच्चीस मिनट पर दिन का तापमान 13डिग्री सेंटीग्रेड....और हां, किन्नर कैलाश की समुद्र तल से ऊँचाई 4630मीटर...!
जी हां, 4630 मीटर....!!
जबकि हमारे गूगल देव इस जगह की ऊँचाई 6000मीटर से भी ज्यादा बताते हैं। सो, पाठको इस भ्रम को तोड़ कर कह रहा हूँ कि किन्नर कैलाश शिला समुद्र तट से 4630मीटर की ऊँचाई पर ही है।
मेरे व्यक्तिगत कीर्तिमानों में अब मैं सबसे ऊँची जगह पर आ पहुँचा हूँ 4630मीटर, जब पिछले वर्ष यानि 2016 में "श्रीखंड कैलाश" की 5227मीटर तक पहुँचने के यत्न में......मैं 4545मीटर तक ही पहुँच पाया था और एक जानलेवा बर्फीले चक्रवात में फंसकर श्रीखंड कैलाश यात्रा को पूर्ण करने में नाकामयाब सिद्ध हुआ था। जबकि 2014 में, मैं पीर पंजाल हिमालय के "कलाह पास" (4620मीटर, गूगल अनुसार...परन्तु जब 2019 में "बैजनाथ से मणिमहेश" की 6दिवसीय पदयात्रा में पुन: कलाह पास पर पहुँचा, तो मेरी तुंगमापी घड़ी ने इस पास की ऊँचाई को 4420मीटर बताया ) को पार कर एक अलग व दुर्गम रास्ते से मणिमहेश पहुँचा था। खैर, ये ऊँचाईयाँ पेशावर पर्वतारोहियों को कम लगेगी....परंतु मुझ स्वयंभू पर्वतारोही के लिए ये ऊँचाईयाँ बड़ा कीर्तिमान रखती हैं जी...!!
किन्नर कैलाश के वीराने में, मैं शिला के समक्ष बैठा अपने-आप को अकेला मान रहा था कि शिला पर उड़कर आ उतरे, दम लेते उन पंछियों की चहचहाहट ने कहा कि तुम अकेले कहाँ हो विकास...!!!
और, तभी सूर्य देव भी किन्नर कैलाश शिला के सिर के पीछे आभामण्डल की तरह आकर चमकने लगे.....क्या गज़ब का नज़ारा था, एक क्षण के लिए तो ऐसा आभास हुआ कि मेरी आँखें सिर्फ उस नज़ारे के दर्शन कर रही हैं और बाकी सब अंधेरा है...!!
मैं किन्नर कैलाश पर करीब आधा घंटा ठहर चुका हूँ, अब मुझे वापस चलना चाहिए। जय भोलेनाथ के उद्घोष के साथ उठ खड़ा होता हूँ, चट्टान की ओट से ऊपर उठते ही तेज़ सर्द हवा के थपेड़े पड़ते हैं। ज़रा सा नीचे उतर शिला को पुन: देखता हूँ तो उसमें पड़ी बड़ी-बड़ी दरारों को देख, "भूकंप देवता" से मन ही मन प्रार्थना करता हूँ कि वह अपनी कू दृष्टि इस ओर ना डालें.....नहीं तो किन्नौर क्षेत्र का यह तीर्थ विलुप्त हो सकता है, पर शिव ऐसा होने देंगे..? परंतु भूकंप देव कहाँ मानते हैं किसी की, नहीं तो हजारों सालों से बने मंदिर-महल आज भी खड़े होते..!!!!
अपने-आप को डांट कर चुप करा देता हूँ- "तू ज्यादा तर्क विज्ञानी ना बनाकर विकास!!"
वैसे, प्रशासन व स्थानीय लोगों को इस विषय पर सोचना चाहिए कि कैसे किन्नर कैलाश शिला की रखरखाव करें, नहीं तो लोगों ने शिला पर अपने नाम पक्के रंगों से लिखने शुरू कर रखे हैं....यह भी बंद होने चाहिए।
नीचे उतर कर, अब मैं अपनी ट्रैकिंग स्टिक को खोज रहा हूँ....जिसे मैने ऊपर चढ़ते हुए एक चट्टान के साथ खड़ा कर दिया था। परंतु अब सारी चट्टानें एक सी ही लग रही है, पांच-सात मिनट बीत चुके हैं, पर ट्रैकिंग स्टिक नहीं मिल रही....उसे छोड़ भी नहीं सकता, यदि कोई सादा डंडा-छड़ी होती तो उसे भूल जाता....शायद तब भी ना भूल पाता, क्योंकि अब मुझे उतराई में इन सहारों के सहारे ही नीचे तंगलिंग तक उतरना था....बगैर ट्रैकिंग स्टिक के उतराई पर मेरे घुटनों की शामत आ जाती है।
खैर मेरी किस्मत पार्वती कुंड पर चट्टानों में गुम हो चुकी रक्सैक के उस मालिक से अच्छी निकली, मुझे मेरी स्टिक मिल जाती है। नीचे उतरने की चाल भी चढ़ने की चाल जितना ही समय ले रही थी, यदि अपने शरीर को उतराई के हवाले कर ढ़ीला छोड़ देता हूँ....तो रफ़्तार जरूर बढ़ जाती है, पर मुझे अपने घुटनों को अभी भविष्य के कई ट्रैकों से जूझने के लिए बचा कर रखना है। नीचे उतरते-उतरते नंदू का फोन आता है, हम दोनों एक- दूसरे को अपना हाल सुनाते हैं। नंदू अब अपने-आप को सामान्य महसूस कर रहा था।
उतरते-उतरते मैं एक कंकर उठाकर अपने बाईं तरफ़ की उन चट्टानों के ढेर पर फैंकता हूँ, जिसमें से मुझे कुछ आवाज़ें सुनाई दे रही थी। मेरा फैंका कंकर एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर नीचे ऐसे गिरता हुआ आवाज़ कर रहा था, जैसे किसी कुएँ में गिर रहा हो और अंत में 'ठप्प' की जोरदार आवाज़, मतलब इन सभी चट्टानों के नीचे बेशुमार पानी इकट्ठा है।
अब मैं अपनी दूसरी ट्रैकिंग स्टिक के पास आ पहुँचा हूँ, जिसे मैं बीच रास्ते में ही छोड़ गया था। मुझे नीचे उतरते-उतरते लगभग 3घंटे बीत गए....तब कहीं जाकर पार्वती कुंड पहुँचा। शाम के साढ़े छह बज चुके थे, पार्वती कुंड पर उतरकर पानी की बोतल भरता हूँ, पानी पीता हूँ.... सारा दिन कुछ भी खाने को मन नहीं हुआ जबकि मेरे पास बिस्कुट और सूखे मेवे थे। सुबह से मात्र एक सेब और पंजीरी का एक लड्डू ही खाया था, ऊँचाई पर पहुँच मेरी भूख मर जाती है।
पार्वती कुंड से गुफ़ा की तरफ़ उतरते हुए जब-तब मैं पीछे मुड़कर देखता रहता हूँ कि सूर्यास्त की सुनहरी किरणों को इंद्रकील पर्वत शिखर पर खत्म होते देख सकूँ। पिछले 4घंटों में मैंने अपने मोबाइल पर केवल दो ही फोटो खींची क्योंकि मुझे सूचना लेने-देने के लिए अपने मोबाइल को जिंदा जो रखना था।
और, सूर्यास्त होते ही सारी घाटी में हल्का-हल्का अंधकार फैलने लगता है, पर मुझे अभी तक नीचे कहीं भी वह बहुत बड़ी सी चट्टान नहीं दिखाई पड़ रही जिसके नीचे गुफ़ा है। मलिंगखट्टा से लगातार चलते हुए मुझे 15वां घंटा चल रहा था, किन्नर कैलाश से रास्ता निरंतर उतराई का होने के कारण मेरे घुटनों पर अत्यंत दबाव पड़ने लगा...किसी-किसी कदम पर मैं लड़खड़ा जाता। अंधकार की स्याही हरियाली पर फैल चुकी थी.....और इस बार मेरा अगला कदम एक पत्थर पर पड़ ऐसा लड़खड़ाया कि मैं औंधे मुँह आगे की तरफ़ गिरने लगा....गिरते ही मेरा माथा सामने खड़ी एक चट्टान से जा टकराया, मेरी आँखों के सामने तारें नाचने लगे.....कुछ समय अपना माथा पकड़ वहीं बैठा रहा। शुक्र मना रहा हूँ कि सिर पर पहनी मोटी गर्म टोपी के सिरे को माथे पर मरोड़ रखा है, जिसकी मोटी तह की वजह से मेरा कुछ बचाव हो जाता है। यदि मेरा माथा नंगा होता, तो चोट और भी करारी लगनी थी....शायद जानलेवा भी साबित होती!!!
नंदू का फोन फिर से आता है पूछ रहा है कि अंधेरा हो गया है, मुझे चिंता हो रही है...तू कहाँ तक आ पहुँचा है...?
"आ रहा हूँ यार, अभी ऊपर ही हूँ....अंधेरा बढ़ने के कारण मुझे दूर के दृश्य दिखाई नहीं पड़ रहे हैं।" अपनी माथा-बैटरी को पहनकर पगडंडी की पहचान करता हुआ नीचे उतरता जाता हूँ। आधे घंटे बाद एक दम घुप अंधकार फैल जाता है, मुझसे पगडंडी की पहचान भी अब ठीक से नहीं हो रही थी.....नतीजा मैं पगडंडी से बिछुड़ गया। सीधा ही उतराई उतरने लगा....परंतु आगे गहरी खाई आ गई।
मुझे यह तो ज्ञात था कि नीचे ही कहीं वह गुफ़ा है परंतु उसकी दिशा मालूम नहीं पड़ रही थी। नंदू को फोन मिलाता हूँ और कहता हूँ- "नंदू, मैं ऊपर ही कहीं फंस गया हूँ....अंधेरे की वजह से सही रास्ते का पता नहीं चल रहा, तू गुफा से बाहर निकल कर ऊपर की ओर बैटरी की रौशनी मार, ताकि पता लग सके कि मुझे किस ओर उतरना है। अच्छा कहकर नंदू गुफ़ा से बाहर बैटरी की रौशनी ऊपर की ओर मारता है......फोन चालू था- "विक्की, दिख रही रौशनी...!"
"नहीं, नंदू मुझे तो नीचे हर तरफ़ अंधेरा ही अंधेरा नज़र आ रहा है, तो इसका मतलब है कि मैं अभी बहुत ऊपर हूँ....इस जगह से गुफ़ा दिखाई नहीं दे रही, चल मैं और नीचे पहुँचने की कोशिश करता हूँ।"
फोन बंद करते ही मैं सोच में पड़ जाता हूँ कि ऐसे अंधेरे में बिना रास्ते से नीचे खाई में उतरना दाव़ते- मौत सिद्ध हो सकती है, क्यों ना फिर से ऊपर चढ़कर पगडंडी को दोबारा खोजूँ। यह ख्याल दिमाग में आते ही ऊपर की ओर मुड़ कर फिर से चढ़ने लग पड़ता हूँ और ऊपर मुझे उस बड़ी सी चट्टान की काली झलक नज़र आ जाती है, जिसके पास से रास्ता मुझे नीचे ले जा रहा था। वहाँ तक पहुँच कर मुझे पगडंडी फिर मिल जाती है....मैं पगडंडी पर अपनी आँखें गड़ाये नीचे उतरना शुरू कर देता हूँ, चलते-चलते मैं ध्यान देता हूँ कि सुबह ऊपर की ओर जाते हुए मेरी दोनों ट्रैकिंग स्टिकों के नीचे लगे नुकीले सूओं से तकरीबन हर कदम पर मिट्टी में निशान बने हुए थे, क्योंकि मुझे आदत है कि मैं ट्रैकिंग स्टिक को गाड़ कर आगे बढ़ता हूँ। मैंने अब आगे देखना छोड़ दिया क्योंकि "रास्ते के चिराग" तो मेरे पैरों में पड़े थे.....बस एक के बाद दूसरे, दूसरे के बाद तीसरे निशान को देखकर उनका पीछा करता हुआ नीचे उतरता रहा।
जब मैं "शाखर" के बराबर सामने पहुँचा, तो शाखर से झरने की तरफ़ उतरते कुछ यात्रियों की आवाज़ें सुनाई देने लगी। अंधेरे में गुफ़ा की ओर बढ़ते हुए उनमें से कोई एक ऊँची आवाज़ में भगवान शिव को समर्पित पहाड़ी भजन गाता जा रहा था।
नंदू का फोन फिर से आता है, मैं खुशी से बोलता हूँ- "हां नंदू ज्यादा दूर नहीं हूँ अब, मुझे ऊपर से गुफ़ा वाली चट्टान दिखने लगी है....जल्दी ही पहुँच रहा हूँ।" और, आखिर पौने आठ बजे मैं गुफ़ा तक पहुँच जोर से शिव का जैकारा लगाता हूँ। मेरी आवाज़ सुन नंदू गुफ़ा से बाहर निकल हर्षोल्लास से मुझे जप्फी डाल, कहता है- "शुक्र है यारा तेरी यात्रा संपूर्ण हुई।"
गुफ़ा में वो चारों जन लेटे हुए थे जिनकी आवाज़ें शाखर से उतरते हुए मुझे सुनाई दे रही थी, उनसे पूछता हूँ कि आप में से पहाड़ी भजन कौन गा रहा था तो वे तीनों अपने चौथे साथी की तरफ़ देखने लगे और मैंने उसे कहा- "वाह भाई, रात में महफिल सजायेगें....आप गाना, मैं आपके साथ बाँसुरी बजाऊँगा।"
पर पाठक दोस्तों, थकान ने यह होने ही नहीं दिया.....गायक भी सो लिया और बाँसुरीवादक भी!!
मैं इस पदयात्रा में कहीं भी बाँसुरी नहीं बजा पाया क्योंकि इस यात्रा की कठिनता ने मेरी "पुंग्गी" बजा रखी थी!!!
अब मैं और नंदू खाना बनाने में जुट जाते हैं। मेरी पत्नी "भावना" ने मुझे तड़का बनाकर साथ दे दिया था, बस उस तड़के में हमें सोयाबीन की बड़ियाँ उबाल कर डालनी थी और ब्रेड हम साथ लाये थे। अपनी रक्सैक से मुश्क कपूर से चलने वाला नन्हा सा चूल्हा निकाल, उसमें मुश्क कपूर की टिक्की जलाकर केतली में पानी गर्म करने के लिए चढ़ा देता हूँ और चूल्हे में जल रही टिक्की की आग में.....घर से साथ लाई हुई लकड़ी के टुकड़ों को भी डाल देता हूँ, परन्तु हमारे मैदानी इलाकों से साथ लाई सूखी लकड़ी पहाड़ की इतनी ऊँचाई पर जलने का नाम ही नहीं ले रही थी।
गुफा में रुकने के लिए तीन जन और जाते हैं, दो महिलाएँ और एक पुरुष- तीनों नेपाली....वे बताते हैं कि घर से भागे उन तीनों बच्चों को वे ढूँढने आये थे। वे "अभिषेक" के माता-पिता और मौसी हैं, उन तीनों बच्चों को तो उनके साथ वाले नीचे ले गए परंतु इन तीनों को किन्नर कैलाश की लालसा ऊपर खींच लाई....कहने लगे कि अब शिवलिंग के इतने पास आ गए हैं, तो दर्शन कर माथा भी टेक लेते हैं।
हमारी आग ना जलती देख अभिषेक की माँ ने वहाँ पड़ी एक मोटी लकड़ी डाल, उसे अच्छे से जला दिया....आखिर जिसका काम उसी को साजे!!!
और, हमने अपनी सब्जी उस पर बनाई और आनंद से गर्मागर्म खाई। मैं आज यह सोचता हूँ कि मैने उस वक्त गुफ़ा में ठहरे किसी भी व्यक्ति से खाने के बारे में नहीं पूछा, कितना स्वार्थी हो गया था मैं उस वक्त....और मुझे याद आ रहा है वे चारों दोस्त कुछ काटने के लिए मुझ से चाकू मांगने आए थे, जिन्हें मैने नाजाने क्यों मना कर दिया था। जबकि अभिषेक के माता-पिता व मौसी को मैने कुछ भी खाते हुए नहीं देखा। अपने इस ओछे व्यवहार के बारे में सोच, मैं ग्लानि से भर जाता हूँ....पर यह महसूस करता हूँ कि ऐसे माहौल व जगहों पर व्यक्ति का स्वार्थी हो जाना स्वाभाविक ही है।
यह सब करते-धरते 10बज गए और हम दोनों गुफा में अपनी जगह पर आकर स्लीपिंग बैगों में लेट गए। मैं नंदू को पूछता हूँ कि तू सारा दिन इस गुफ़ा में क्या करता रहा...?
नंदू बोला कि सुबह तेरे साथ किन्नर कैलाश जाते हुए मेरी सेहत जब बिगड़ने लगी तो मैंने अपने भीतर की आवाज़ सुनी कि यदि तू एक कदम भी ऊपर की ओर चढ़ा तो तेरे लिए वह खतरनाक हो सकता है और वापस गुफ़ा में आ गया.....मुझे चक्कर आ रहे थे, तो आते ही लेट गया.....कोई एक-डेढ़ घंटे के लिए मुझे नींद भी आ गई फिर उठकर गुफ़ा से कुछ दूर पशुपालकों के डेरे पर जाकर उनसे पानी मांग लाया। वे पहले मुझे पानी देने में आना-कानी करते रहे कि खुद नीचे जाकर झरने से पानी भर लाओ, पर जब मैंने उनसे कहा कि मेरी सेहत ठीक नहीं है मैं तो आपके डेरे पर बड़ी मुश्किल से पहुँचा हूँ तो उन्होंने मुझ पर दया कर मेरी बोतल में पानी भर दिया और कहा कि दोबारा यहाँ पानी माँगने मत आना, हम खुद बड़ी मुश्किल से यहाँ तक पानी भरकर लाते हैं...!! गुफ़ा पर वापस आ, तेरी रक्सैक से खाने-पीने का सामान निकाल चाय बनाई और बिस्कुट खाये। फिर तेरी रक्सैक से ही तेरा पॉवर बैंक ढूँढ कर अपना मोबाइल चार्ज लगा कर फिर से लेट गया और मुझे फिर से नींद आ गई। दोपहर को चूहों के खर्टर-पटर्र की आवाज़ें सुन, मेरी नींद खुली.....मैंने उठकर सारी गुफ़ा का बड़े ध्यान से मुआना किया, तो गुफ़ा में बेशुमार गंद व कचरा भरा पड़ा था। राशन के कच्चे सामान के साथ-साथ पकाये हुए राशन के कई लिफ़ाफे कोनों में पड़े सड़ रहे थे, जिन से बदबू उठ रही थी। मैंने एक सिरे से लगकर गुफ़ा में सफाई करनी शुरू कर दी। गुफा के बाहर एक कोने में उस कचरे का ढेर लग गया। शाम को झरने पर जा पानी की बोतलें भी भर लाया।
"वाह नंदू, तूने तो कमाल कर दिया यारा...तूने वह काम किया जो इस यात्रा पर आए किसी विरले ने ही किया होगा....अच्छा एक बात और बता कि तूने मेरे पॉवर बैंक की चार्जिंग पर डाका मार अपना फोन चार्ज तो कर लिया, तो आज कितने सूट बेच डाले तूने...!!!"
अब हम दोनों हंस रहे हैं और मैं कहता हूँ- "यार नंदू, तेरा फोन चालू रहा तभी तो हम दोनों सारा दिन एक-दूसरे की ख़बर-सार लेते रहे।"
हम दोनों गुफ़ा के कोने में लेटे हुए थे और हमारे साथ वो चारों व्यक्तियों का दल भी खुला-खुला लेटा हुआ था, तो अभिषेक के माता-पिता व उसकी मौसी गुफ़ा के मुहाने पर आग जला कर बैठे रहे.....शायद गुफ़ा के अंदर हम इतने सारे मर्दो के लेटे होने के कारण वे दोनों औरतें कतरा गई हो। आधी रात को मुझे उनकी आवाज़ें सुनती हैं कि बाहर ठंड बहुत बढ़ गई है, पर मुझ पर थकान की नीम बेहोशी छाई हुई थी। आखिर 16घंटों के लगातार ट्रैक का इनाम था वह नीम बेहोशी....मैं उठ भी नहीं पाया कि उनके लिए भी गुफ़ा में लेटने योग्य जगह बना दूँ।
अगली सुबह 6बजे हमारे उठने से पहले वे सब लोग किन्नर कैलाश की ओर चढ़ चुके थे। अब हमें भी वापस नीचे की ओर उतरना था, सो हम भी अपने साजो-सामान को समेटने में जुट जाते हैं और 7बजे तक हम अपना नाश्ता भी बना लेते हैं- कप न्यूडल और सूखे दूध की चाय। 8बजे हमने गुफा से वापसी का बिगुल बजा दिया। सवा नौ बजे हम चढ़ाई चढ़कर "शाखर" पर बैठे दम ले रहे थे। रास्ते में फैंकी हुई बियर-शराब की खाली बोतलें देख मन परेशान होता है।
साढ़े दस बजे हम मलिंगखट्टा में सीताराम जी के पास उनके ढाबे पर जा पहुँचे। सीताराम जी ने हमें चाय पिलाई, उसके पैसे भी नहीं लिये और रास्ते के खाने के लिए अपने घर से आई "नाशपातियाँ" भी भेंट में दी। रुख़सती पर मुझसे कहने लगे कि दोबारा फिर से आना मेरे पास आठ-दस दिन निकाल कर, मैं आपको घुमाऊँगा....ऐसी जगह ले कर जाऊँगा, जहाँ कोई नहीं जाता....रंगकुम्मों पर्वत को लांघ कर मैं आपको "कार्तिकेय पर्वत" पर घुमा कर लाऊँगा।
11बजे हम सीताराम जी से विदा हो लिये। वापसी पर मैंने अपने बूट उतार कर सैंडल पहन लिये थे, तांकि उतराई पर मेरे पैरों की अँगुलियों को फैलने में कोई दिक्कत ना हो....उतराई पर बूट पहनने के कारण पैर की अँगुलियाँ बूटों में कस जाती है, उन पर अत्यधिक दबाव बढ़ जाता है.....परिणामस्वरूप पैर का अँगूठा व अँगुलियों में कई महीनों तक दर्द व सनसनाहट बनी रह सकती है। परन्तु मेरे सैंडलों में मुझे एक दिक्कत यह आ रही थी कि उनका तला घिसा हुआ था, जिसकी वजह से मैं बार-बार उस तीव्र उतराई पर फिसल जाता।
बीच रास्ते में एक कुत्ता हमें आ मिला और अगले दो घंटों तक हमारे साथ चलता रहा, कंगरिंग गाँव के घर दिखते ही वह हमें छोड़ कर आगे भाग लिया....क्योंकि उसका मतलब पूर्ण हो चुका था, मतलब था घने जंगल में अपनी सुरक्षा हमारे द्वारा हासिल करना!
पौने चार बजे हम दोनों तंगलिंग गाँव पहुँच, गाँव के बाहर सिंचाई के लिए बहती आ रही पानी की कूल में अपने पैर डूबो कर बैठे रहे.....और अब रास्ता हमें उस ओर से नीचे ले गया, जिस पर से हम ऊपर नहीं गए थे और रास्ते की दोनों तरफ़ सेबों के बागीचे थे। उस रास्ते ने हमें तंगलिंग गाँव के देवता "शंकरस्" के मंदिर में पहुँचा दिया।
शंकरस् का काष्ठ मंदिर बहुत सुंदर व नक्काशीदार है, पर मंदिर के कपाट बंद थे। ऐसे ही बाहर से मंदिर में झाँका-झाँकी कर कुछ चित्र खींच, चल देते हैं उस ओर जहाँ हमारी गाड़ी खड़ी थी।
और, साढ़े चार बजे मैं अपनी गाड़ी के आगे खड़ा, विजय चिन्ह बनाता हुआ चित्र खिंचवा रहा था....आखिर सफल ट्रैक की कामयाबी की खुशी भी तो होती है ना।
साढे़ पांच बजे "रिकांगपिओ" के मुख्य चौक में पहुँच, उसी होटल में जा रुकता हूँ जिसमें पिछली बार रुका था। चार दिन बाद नहा-धो कर, मैं नंदू को रिकांग पिओ के बाज़ार में घुमाने निकल पड़ता हूँ और शाम की हल्की भूख को "थुपका" पी कर शांत करते हैं। नंदू जीवन में पहली बार थुपका पी रहा था, अब उसने नॉनवेज थुपका लिया। पर नंदू इस उलझन में था कि इस व्यंजन को खाना है या पीना, मैं हंसता हुआ कहता हूँ- "खा कर पी ले यार...!"
रात का भोजन करने के लिए मैं नंदू को उस पंजाबी ढाबे पर ले आया, जहाँ पिछली बार हमने खाना खाया था। ढाबे का मालिक हमारे पास के जिला ऊना में बंगाणा गाँव से है, जरा सा याद करवाने पर मुझे पहचान गए....बहुत ही स्वादिष्ट खाना होता है उनके ढाबे का। बातचीत में उन्होंने बताया कि किन्नर कैलाश के बिल्कुल नीचे किसी गाँव तक सड़क बन रही है, जिससे किन्नर कैलाश का रास्ता कम रह जाएगा। जबकि मैं इस हक में नहीं हूँ कि किन्नर कैलाश का रास्ता छोटा हो.....अरे क्या कठिनाइयों भरे तीर्थ इसलिए हमारे बुजुर्गों ने बनाए थे कि एक दिन हम हेलीकॉप्टरों में बैठकर वहाँ पहुँचें...!!!!!
खाना खाने के बाद टहलते हुए, मैं मुख्य चौक में स्थापित "ठाकुर सैन नेगी जी" की मूर्ति के आगे उनकी ही तरह अपनी जैकेट में हाथ डाल कर फोटो खिंचवाता हूँ, मेरे ख्याल में रिकांगपिओ घूमने आए ज्यादातर सैलानी ऐसा ही करते होंगें।
सुबह उठते ही नंदू को कहता हूँ- "चल, कल्पा चलते हैं!" पर नंदू नहीं माना, इसी सनक पर था कि मुझे वापस जाना है बस। मन मार कर साढ़े छह बजे चल पड़ता हूँ वापसी की डगर पर। गाड़ी में बैठते ही नंदू अपनी पेनड्राइव स्टीरियो में लगा देता है, अब मुझे वापसी पर भी नंदू की पसंद के गाने सहन करने पड़ेंगे..!!!
बस्पा नदी और सतलुज के संगम "करशम" में गाड़ी रोक नंदू को लालच देता हूँ कि यह सड़क हमारे देश के आखिरी गाँव "छितकुल" तक जाती है...चल तुझे वह दिखा कर लाता हूँ। परंतु नंदू ने उस सड़क की तरफ़ एक नज़र मार, सिर हिलाते हुए कहा- "नहीं-नहीं विक्की, मुझे आज गढ़शंकर वापस पहुँचना है, फिर कभी आएंगे!" परंतु मैं ठहरा "घुमक्कड़".....तो रास्ते में ही आने वाले स्थलों में, जो मैं अपनी पिछली किन्नौर यात्रा में छोड़ गया था....उन्हें देखने के लिए ज्यूरी के "उन्नू महादेव मंदिर" के आगे गाड़ी खड़ी कर नंदू से कहता हूँ- "यहाँ गर्म पानी का चश्मा है और हम सुबह से नहाए भी नहीं है, चल यार गर्म पानी में नहाते हैं।"
हम दोनों मंदिर परिसर के अंदर चले जा रहे हैं, मुझे चलने में कठिनाई आ रही थी क्योंकि मेरे पैरों में छाले पड़ चुके थे। गर्म जल से स्नान कर, माथा टेकने के बाद 10बजे मैं रामपुर बुशहर में "नरेंद्र ढाबे" पर आ रुकता हूँ जिनके स्वादिष्ट भोजन का मैं पिछली दफा की यात्रा में कायल हो गया था....खासकर घी में तली उस सूखी लाल मिर्च का, जो भोजन के साथ परोसी जाती है। इस बार भी भोजन बेहद स्वाद था, नंदू भी बहुत खुश हुआ।
नारकंडा के बाद हम शिमला की भीड़-भाड़ से बचने के लिए रास्ता बदलकर, दोपहर साढ़े तीन बजे "चायल" पहुँचकर चाय-नाश्ता करते हैं और मैं चायल से स्थानीय अचार व जूस खरीदता हूँ। लिंगडू का अचार, कचालु का अचार और छुआरे का अचार......व आठ अलग-अलग तरह के फलों के रस। यह मेरी आदत है जब भी हिमालय भ्रमण के लिए जाऊँ तो ऐसी सौगातें अपने साथ अवश्य लाऊँ।
गाड़ी शाम तक पहाड़ों से उतर कर जैसे ही मैदानी सड़कों पर भागने लगी, नंदू के चेहरे पर खुशी चमक उठी थी......जबकि मेरा चेहरा मुरझा रहा था क्योंकि मैं अपने दोस्त "हिमालय" से बिछुड़ रहा था!
(समाप्त)
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किन्नर कैलाश के वीराने में, मैं शिला के समक्ष बैठा अपने-आप को अकेला मान रहा था कि शिला पर उड़कर आ उतरे, दम लेते उन पंछियों की चहचहाहट ने कहा कि तुम अकेले कहाँ हो विकास...!!! और, तभी सूूर्य देेव भी किन्नर कैलाश शिला के सिर के पीछे आभामण्डल की तरह आ कर चमकने लगे। |
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हमारे गूगल देव इस जगह की ऊँचाई 6000मीटर से भी ज्यादा बताते हैं। सो, पाठको इस भ्रम को तोड़ कर कह रहा हूँ कि किन्नर कैलाश शिला समुद्र तट से 4630मीटर की ऊँचाई पर ही है। |
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पार्वती कुंड से गुफ़ा की तरफ़ उतरते हुए जब-तब मैं पीछे मुड़कर देखता रहता हूँ कि सूर्यास्त की सुनहरी किरणों को इंद्रकील पर्वत शिखर पर खत्म होते देख सकूँ। |
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सूर्यास्त होते ही सारी घाटी में हल्का-हल्का अंधकार फैलने लगता है, पर मुझे अभी तक नीचे कहीं भी वह बहुत बड़ी सी चट्टान नहीं दिखाई पड़ रही जिसके नीचे गुफ़ा है। |
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अपनी रक्सैक से मुश्क कपूर से चलने वाला नन्हा सा चूल्हा निकाल, उसमें मुश्क कपूर की टिक्की जलाकर केतली में पानी गर्म करने के लिए चढ़ा देता हूँ। |
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हमारी आग ना जलती देख अभिषेक की माँ ने वहाँ पड़ी एक मोटी लकड़ी डाल, उसे अच्छे से जला दिया....आखिर जिसका काम उसी को साजे!!! |
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हमारा रात्रिभोज। |
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अगली सुबह गुफ़ा के आगे बैठा चूल्हे पर नाश्ता बनाने में मगन नंदू। |
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गुफ़ा का एक और चित्र, दूसरे कोण से। |
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नंदू द्वारा गुफ़ा में से सफाई कर बाहर निकाले कचरे के ढेर पर और कचरा फैंकता नंदू। |
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गुफ़ा के अंदर का दृश्य। |
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7बजे तक हम अपना नाश्ता भी बना लेते हैं- कप न्यूडल और सूखे दूध की चाय। |
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8बजे हमने गुफ़ा से वापसी का बिगुल बजा दिया। |
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सवा नौ बजे हम चढ़ाई चढ़कर "शाखर" पर बैठे दम ले रहे थे। |
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शाखर से दिखता सतलुज घाटी का नज़ारा। |
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शाखर से दूसरी ओर दिखाई दे रहा मलिंगखट्टा की ओर वापसी का रास्ता। |
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गणेश पार्क मलिंगखट्टा की तरफ उतरते हुए। |
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गणेश पार्क मलिंगखट्टा की तरफ़ उतरता नंदू। |
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पीछे मुड़कर आख़िरी बार किन्नर कैलाश शिला को देखता हूँ। |
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मलिंगखट्टा में फ़ॉरेस्ट शैड। |
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रंगकूम्मो पर्वत। |
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रास्ते में फैंकी हुई बियर-शराब की खाली बोतलें देख मन परेशान होता है। |
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लो, आ गया गणेश पार्क। |
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साढ़े दस बजे हम मलिंगखट्टा में सीताराम जी के पास उनके ढाबे पर जा पहुँचे। |
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सीताराम जी ने हमें चाय पिलाई, उसके पैसे भी नहीं लिये। |
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सीताराम जी ने रास्ते के खाने के लिए अपने घर से आई "नाशपातियाँ" भी भेंट में दी। |
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बीच रास्ते में एक कुत्ता हमें आ मिला और अगले दो घंटों तक हमारे साथ चलता रहा, कंगरिंग गाँव के घर दिखते ही वह हमें छोड़ कर आगे भाग लिया....क्योंकि उसका मतलब पूर्ण हो चुका था, मतलब था घने जंगल में अपनी सुरक्षा हमारे द्वारा हासिल करना! |
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पौने चार बजे हम दोनों तंगलिंग गाँव पहुँच, गाँव के बाहर सिंचाई के लिए बहती आ रही पानी की कूल में अपने पैर डूबो कर बैठे रहे। |
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और, अब रास्ता हमें उस ओर से नीचे ले गया, जिस पर से हम ऊपर नहीं गए थे और रास्ते की दोनों तरफ़ सेबों के बागीचे थे। उस रास्ते में हमें तंगलिंग गाँव के देवता "शंकरस्" के मंदिर में पहुँचा दिया। |
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शंकरस् का काष्ठ मंदिर बहुत सुंदर व नक्काशीदार है, पर मंदिर के कपाट बंद थे। |
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शंकरस् मंदिर में टंगा नगाड़ा। |
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शंकरस् मंदिर की खूबसूरत मीनाकारियों में उकेरे भगवान विष्णु। |
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मीनाकारियों में ड्रैगन भी है। |
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शंकरस् मंदिर परिसर में खड़ा मैं। |
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मैं अपनी गाड़ी के आगे खड़ा, विजय चिन्ह बनाता हुआ चित्र खिंचवा रहा था....आखिर सफल ट्रैक की कामयाबी की खुशी भी तो होती है ना। |
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लो, आ पहुँचे हम "रिकांगपिओ" |
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रिकांगपिओ में पीया "वेज थूपका" |
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रिकांगपिओ के "पंजाबी ढाबे" पर स्वादिष्ट रात्रि भोजन। |
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रात्रिभोजन खाने के बाद टहलते हुए, मैं मुख्य चौक में स्थापित "ठाकुर सैन नेगी जी" की मूर्ति के आगे उनकी ही तरह अपनी जैकेट में हाथ डाल कर फोटो खिंचवाता हूँ, मेरे ख्याल में रिकांगपिओ घूमने आए ज्यादातर सैलानी ऐसा ही करते होंगें। |
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लो, अगली सुबह वापसी करते हुए आ पहुँचे "तरण्डा ढाँक" |
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वहीं सतलुज के पार क्या हसीन झरना गिर रहा था। |
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किन्नौर के स्वागती द्वार से पार..... |
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ज्यूरी के "उन्नू महादेव मंदिर" जहाँ गर्म पानी का चश्मा है। |
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मेरे पैरों में पड़ गए छाले, ओ दुनिया के रखवाले....!!
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10बजे मैं रामपुर बुशहर में "नरेंद्र ढाबे" पर आ रुकता हूँ जिनके स्वादिष्ट भोजन का मैं पिछली दफा की यात्रा में कायल हो गया था। |
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लीजिए आप भी आँखों से चखिए "नरेन्द्र ढाबे" के लजीज खाने को। |
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घी में तली इस सूखी लाल मिर्च का क्या कहना, जो भोजन के साथ परोसी जाती है। |
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"चायल" के रास्ते का नज़ारा। |
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लिंगडू का अचार, कचालु का अचार और छुआरे का अचार......व आठ अलग-अलग तरह के फलों के रस। यह मेरी आदत है जब भी हिमालय भ्रमण के लिए जाऊँ तो ऐसी सौगातें अपने साथ अवश्य लाऊँ। |