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"परेशानियों का गठ्ठर"
तीन बच्चे, वो भी अकेले....मतलब घर से भागकर किन्नर कैलाश के खतरनाक रास्ते पर अग्रसर, जब हमारे पास से गुज़रने लगे तो सीताराम जी उनसे पूछते हैं- "कहाँ जा रहे हो...?"
तो उन तीनों बच्चों में सबसे आगे चलने वाला उनका साँवला सा लीडर....जो शक्लोसूरत से ही प्रवासी जान पड़ता था, बड़े आत्मविश्वास से बोला- "शिवलिंग" और उसके पीछे वाले दोनों लड़कों का चेहरा- मोहरा नेपाली था।
"घर से भाग कर चले हो किन्नर कैलाश..!!" सीताराम जी गरजे।
"नहीं अंकल" कहते हुए वो लड़का अपने दोनों साथियों को चलते रहने का इशारा करता हुआ आगे बढ़ता रहा। सीताराम जी फिर ऊँची आवाज़ में बोले-"क्यों झूठ बोल रहे हो तुम लोग, घर वालों को बगैर बताए आए हो...!!" वो तीनों "नहीं-नहीं" करते हुए हम से पीछा छुड़ाने के लिए अपने कदम आगे ही आगे बढ़ाते जा रहे थे।
तभी मैं पत्थर से उठ खड़ा हो, रोब से अपनी मूँछों को ताव देता झूठ-मूठ बोलता हूँ- "ओए, मैं पुलिस में हूँ....सब सच निकलवा लूँगा, रुक जाओ वहीं पर.....आगे नहीं बढ़ना, नहीं तो!!!"
और, वे बच्चे एकदम से वहीं ठिठक गए, दोनों नेपाली बच्चों के चेहरे पर भय की लकीरें उभर चुकी थी.....परंतु उनका लीडर मुझे भाव-शून्य चेहरे से लगातार देखता रहा। मैं उनके पास पहुँच फिर वही बात दोहराता हूँ तो वह लड़का भी वही 'ना' का उत्तर दोहरा देता है। मैं उन्हें पकड़ कर थाने ले जाने की धमकी देता हूँ, परंतु उन पर मेरी धमकी का कोई भी असर नहीं पड़ता....वे अपनी बात पर अडिग हैं, जैसे कोई शक्ति उनमें से बोल रही हो...! दूसरे पल मैं अपनी जुबान को मीठा बना, उनके नाम पूछता हूँ जिनमें से दो के नाम तो मैं भूल चुका हूँ.... हां एक नेपाली लड़के का नाम याद आ रहा है "अभिषेक"
मैं विषय बदल उनसे पूछता हूँ- "आज तो तुम लोग नहीं पहुँच पाओगे शिवलिंग तक, तो यहीं मेरे पास रुक जाओ....मैं भी किन्नर कैलाश जा रहा हूँ, कल सुबह मेरे साथ चल देना।"
परंतु उनका लीडर लड़का मेरी तरफ अविश्वास से देखता रहा और उन्हें कुहनी मार-मार कर चलते रहने का इशारा करता रहा। मैं उनके साथ पांच-दस कदम चला भी, परंतु उनकी बेरुखी देख मेरे कदम खुद-ब-खुद रुक जाते हैं। मैं बेबसी भरी परेशान नज़रों से कभी सीताराम जी की तरफ देखता हूँ तो कभी मुझसे दूर जा रहे उन तीन बच्चों की पीठों को।
एक बार दिमाग में आया कि भाग कर इन तीनों को जा पकड़ूँ....ना जाने दूँ इनको "मौत के जबाड़े" में, पर दूसरे क्षण ही मन ने मुझे ढांढस बंधाया कि तू कौन है उन्हें जबरदस्ती रोकने वाला, मत भूल जहाँ शिव का वास है "कैलाश"......वहाँ कुछ भी असाधारण व असंभव हो सकता है।
तभी सीताराम जी पीछे से बोले- "ये अब जाकर गुफा में रुकेंगे।" मैं ठंडी आह भर कर सीताराम जी के पास आ बैठता हूँ। पर मेरा ध्यान उन तीनों बच्चों में ही फंसा हुआ है। कुछ मिनट बाद वे मेरी आँखों से ओझल तो हो जाते हैं, पर दिमाग में उनकी छवि घर कर चुकी है..... खासकर उस भोले-भाले से दिखने वाले नेपाली लड़के "अभिषेक" की, जिसने अपनी पीठ पर स्कूल बैग टांग रखा था और दो-तीन मिनट की हमारी मुलाकात में उसने एक शब्द भी नहीं बोला था और वो सावले रंग का उनका लीडर प्रवासी लड़का व्यवहार और शक्लोसूरत से ही तेज़-तरार शैतानी दिमाग जान पड़ता था, वह ही अपने से छोटे उन दोनों नेपाली लड़कों को बरगला कर अपने साथ लाया होगा.....हो सकता है कि इनके मां-बाप मजदूर हो और किसी जगह इकट्ठा काम करते हो।
अपने-आप को थामने के लिए मैं उठकर फिर से चारों दिशाओं के चित्र खींचने में मगन हो जाता हूँ। शाम के 6बज चुके हैं, सूर्यदेव अपनी सुनहरी किरणों को समेटने लग पड़े हैं। खैर फिर से मुख्यधारा में लौट आता हूँ और सीताराम जी के समक्ष अपनी मानसिक प्रश्नावली के अगले प्रश्न को खोलता हूँ- "तो, आपका यह ढाबा कब से है यहाँ पर..?"
सीताराम जी हल्का सा मुस्कुराते हुए बोलते हैं- "बस इसी साल ही शुरू किया है मैंने, मेरा बेटा 'जीत सिंह' भी साथ होता है....वो अभी गाँव गया है, उसका ऊपर-नीचे आना-जाना लगा रहता है राशन सामग्री आदि लाने-ले जाने में।"
"कौन सा गाँव है आपका...?"
"यहीं नीचे की तरफ कंगरिंग से ऊपर कुछ घरों का मेरा गाँव है, तालंगपी"
"तो फिर गणेश पार्क में कब से ढाबे लग रहे हैं, यात्रा के दौरान...?" मेरा सवाल।
"यह कोई दो-तीन साल पहले से जब 2013 में फॉरेस्ट वालों ने कंगरिंग गाँव से ऊपर इस रास्ते को चौड़ा किया और यहाँ गणेश पार्क में फॉरेस्ट शेड बनाई।"
"तो उससे पहले इस यात्रा में क्या प्रबंध होता था..?"
"पहली बात तो यह कि उस समय इस यात्रा पर केवल स्थानीय लोग ही जाया करते थे और यहाँ पहाड़ पर भेड़ बकरी चराने वाले 'पुआल' (गडरिये) उनके चाय-नाश्ते का प्रबंध कर, उन दिनों में कुछ कमाई कर लेते थे।"
फ़ॉरेस्ट वालों की बात आते ही मैंने सीताराम जी से पूछा- "यहाँ ढाबे लगाने पर फ़ॉरेस्ट वाले आप को रोकते नहीं क्या...?"
"वो हमें क्यों रोकेंगे, क्योंकि यह हमारी अपनी निजी जमीन है.....जितने भी ढाबे लगते हैं सबकी अपनी- अपनी पुश्तैनी जायदाद है यहाँ पर....और हमने फ़ॉरेस्ट वालों से लाइसेंस बना कर ही यहाँ अपनी जमीनों पर ढाबे बनाए हैं....उस समय जब यह किन्नौर क्षेत्र एक बंद दुनिया हुआ करती थी, तब हमारे पूर्वज अप्रैल महीने में इस जगह पर अपनी भेड़-बकरी ले आते और यहाँ खेती करते आलू, शलगम, फाफड़ा-औखला की फसलें उगाते और अक्तूबर महीने में फिर से नीचे उतर जाते।"
जमीन-जायदाद सुन, मैं सीताराम जी से पूछता हूँ कि क्या आप राजपूत हो...?
सीताराम जी बोले- "दरअसल प्राचीन काल से ही किन्नौर में कोई राजपूत-ब्राह्मण जाति नहीं है, यहाँ सिर्फ तीन वर्ण ही हैं...मंगोलिया से आई खश जनजाति, दूसरे कारीगर और तीसरे हरिजन...हम कारीगर वर्ण के सोई खानदान से हैं, हमारे बुजुर्ग कपड़े सिलने का काम करते थे और वह यहाँ के मूल निवासी भी नहीं थे, हम मैदानी इलाकों से यहाँ आ बसे है।"
सीताराम जी की बात सुन मैं कहता हूँ- "हां जी, पुराने समय में ऐसे ही होता था हर गाँव में कारीगर बाहर से लाकर बसाये जाते थे और यह भी हो सकता है कि औरंगजेब की कट्टर खूनी तलवार से अपने धर्म की रक्षा करते हुए बहुत सारे मैदानी लोग पलायन कर इन पहाड़ों में आ छिप गए और यहीं बस गए।"
अपनी प्रश्नावली के अगले उस प्रश्न को मैं ज़रा संकोच रख सीताराम जी से पूछ ही लेता हूँ कि क्या अब भी यहाँ "बहुपति प्रथा" है यानी पांडव विवाह या द्रोपदीवाद...?
"नहीं अब तो समय बहुत बदल गया है...ऐसा बहुत कम ही होता है, युवा पीढ़ि पढ़ लिखकर बड़े-बड़े शहरों में जाकर काम-धंधे करने लगी है।"
"फिर भी क्या आपने अपनी आँखों से इस पांडव विवाह प्रथा को देखा है...?"
"मेरे गाँव में कोई आठ-दस साल पहले दो भाईयों के साथ एक लड़की ब्याही आई थी!" सीताराम जी बोले।
"अच्छा एक बात मुझे और बताएँ सीताराम जी, कि क्या मणिमहेश की तरह यहाँ किन्नर कैलाश में भी बलि चढ़ती है और क्या तंगलिंग गाँव का देवता भी किन्नर कैलाश माथा टेकने आता है यात्रा के दौरान..?"
सीताराम का जवाब- "पहली बात तो यह है कि तंगलिंग का देवता 'परका शंकरस' और किन्नर कैलाश एक ही देव हैं.......और यह देव बलि नहीं लेता, चाहे मंदिर में या किन्नर कैलाश पर....बस वहाँ नारियल चढ़ता है।"
"तो 'परका शंकरस' भगवान शिव ही हैं परंतु यह कैसा नाम परका शंकरस...?" मेरा सवाल।
"यह नाम तो सदियों से चला आ रहा है, जब यह सारा इलाका आदिवासी था....उनकी अपनी बोली हुआ करती होगी और उनको क्या पता होगा कि यह शंकर भगवान है, यह तो बाद में पता चला होगा कि परका शंकरस और भगवान शंकर एक ही हैं.....और जो किन्नर कैलाश ना जा पाए, वो परका शंकरस के मंदिर में माथा टेक ले, उसे यात्रा का पुण्य प्राप्त हो जाता है।"
"मैंने एक और बात सुनी थी कि यात्रा के दौरान यात्रियों को अनिवार्य कर दिया जाता है कि वे तंगलिंग गाँव में परका शंकरस के मंदिर में अपनी हाज़िरी लगवा कर ही किन्नर कैलाश जाएँ.....हाज़िरी से मेरा मतलब है चंदा, सीताराम जी...!!"
मेरी यह बात सुन सीताराम जी ज़रा सा आवेश में बोले- "आप जिसे यात्रा कह रहे हैं हम उसे भंडारा कहतें हैं और मैं तंगलिंग मंदिर विकास कमेटी का सेक्रेटरी भी हूँ.... भंडारे के समय जब श्रद्धालु किन्नर कैलाश माथा टेकने जाते हैं, तो पार्वती कुंड में पैसे फैंक देते हैं....या किन्नर कैलाश शिला पर चढ़ा देते हैं, जो तेज़ हवाओं और चोरों के हत्थे चढ़ जाता है....पानी में फैंका पैसा भी व्यर्थ जाता है, भौगोलिक कारणों से पार्वती कुंड या किन्नर कैलाश पर कोई भी निर्माण नहीं हो सकता तो हमारी कमेटी ने मंदिर में एक गोलक लगा रखी है कि यात्री वही पैसा उसमें डालें, तांकि मंदिर के विकास में काम आ सके।"
सीताराम जी की बात का मैं समर्थन करता हुआ कहता हूँ- "यह भी ठीक है, वैसे परका शंकरस का सालाना मेला भी तो होता होगा, वह कब मनाते हैं...?"
"हर साल 12 व 13 जून और मेले को हम लोग 'डखरेन' बोलते हैं यहाँ पर।" सीताराम जी बोले।
सीताराम जी से बतियाते-बतियाते पौना घंटा बीत चला था.....गणेश पार्क पर पानी की उपलब्धता के विषय में पूछता हूँ तो वह कहते हैं कि इस पर्वत के शिखर पर पूरी बर्फ पिघल जाने के कारण अब हमें काफी गहराई में नीचे उतर कर एक छोटे से जल स्रोत से पानी भर, ऊपर ढों कर लाना पड़ता है।
"वैसे गणेश पार्क वाले इस पर्वत का क्या नाम है सीताराम जी...?"
"बाटूसकार पर्वत "
और लगे हाथ मैने उनसे पूछा- "तो, जिस पर्वत पर किन्नर कैलाश शिला है उसका भी नाम बताए सीताराम जी..?"
"इंद्रकील पर्वत"
सीताराम जी से अपने मन मुताबिक जानकारियाँ पा कर मेरा मन तृप्त हो चला था, मैं बैठा-बैठा अपनी बायीं तरफ खड़े रंगकूम्मो पर्वत पर फिर नज़र दौड़ाता हूँ....सूर्यास्त की जाती किरणें अब शिखरों तक खिंच चुकी हैं, पर्वतों के शरीरों की हरियाली स्याह रंग में रंगती जा रही है। धूप में हसीन नज़र आने वाले पहाड़ों पर अब क्षण-दर-क्षण अंधेरे की रहस्यमय परत चढ़ती जा रही थी।
सीताराम जी मुझसे पूछते हैं कि क्या मैं रात के खाने में आपके लिए सोयाबीन बड़ियों की सब्जी बना दूँ.....तो मैं चहक कर कहता हूँ सोयाबीन की बड़ियाँ तो मैं हर रोज़ खा सकता हूँ जी...!
सीताराम जी अपने नेपाली नौकर को साथ ले रसोई की तरफ चल देते हैं, पर मैं अभी भी एकांत में उसी पत्थर पर बैठा सामने दिख रहे रिकांगपिओ को एकटक देख रहा था, जहाँ अब बत्तियाँ जगनी शुरू हो चली थी। दिमाग में फिर से उन तीन बच्चों की चिंता जाग उठी है, बदहवासी में एकदम उठ कर उस दिशा की ओर देखता हूँ जिस ओर वह तीनों बच्चे किन्नर कैलाश की ओर गए थे। उस ओर पूरा अंधेरा हो चुका है, मन में अजीब-अजीब से ख़्याल आने लग पड़े कि वो तीनों बच्चे इस अंधेरे में चले जा रहे होंगे, कहाँ तक पहुँचे होंगे, क्या वह तीनों ठीक-ठाक भी हैं, मुझे हर कीमत पर उन तीनों को अकेले आगे नहीं जाने देना चाहिए था। बार-बार मुड़ कर उस ओर देखता हूँ कि कोई यात्री किन्नर कैलाश से वापस आता दिखाई पड़े तो उससे उन तीनों बच्चों का हाल जानूँ....फिर एकदम से विचार उत्पन्न हुआ कि क्या तू अपने बेटे को ऐसे आगे भेज सकता है क्या, मुझे खुद पर ही गुस्सा आने लगता है....पछतावा होने लगता है कि यदि कुछ अनहोनी हो गई तो शायद मैं भावुक आदमी अपने-आप को ही दोषी मानने लगूँ.....यह सोचते-सोचते मैं वापस तम्बू(टैंट) में पहुँच जाता हूँ।
नंदू अभी भी बाहर की दीन-दुनिया से बेख़बर लेटा हुआ ही है, उसे उठाकर घर से भागकर किन्नर कैलाश आए उन तीनों बच्चों की ख़बर सुनाता हूँ। नंदू भी यह ख़बर सुन हैरान है, अब मैं भी नंदू के साथ लेट जाता हूँ।
तम्बू में सोलर लाइट जल चुकी है, मैं लेटे-लेटे उस मध्यम सफेद रोशनी वाली टयूब की तरफ देख रहा हूँ जिस पर नन्हें-नन्हें कीट अपने पंख रगड़ रहे थे....मन को फिर से वही अजीब परेशानी परेशान करने लगी कि जाने उन बच्चों के साथ क्या घट रहा होगा। सोचते-सोचते मेरी आँखें बंद हो जाती हैं, कम्बलों की गर्माहट मेरे थके शरीर को आराम पहुँचा रही थी और कुछ समय बाद दिमाग भी सोचना बंद कर देता है....मुझे नींद आ जाती है।
सीताराम जी के नेपाली नौकर की पुकार पर नींद टूटती है, वह हमारे लिए गर्मागर्म भोजन परोस जाता है। लेटे-लेटे ही मैं अपनी घड़ी पर नज़र दौड़ाता हूँ, समय 9बज चुके थे और टैंट के अंदर का तापमान 10डिग्री।
मैं और नंदू कम्बल ओढ़े ही भोजन की वंदना में जुट जाते हैं, आलू-सोयाबीन बड़ियों की तरीदार सब्जी और कनक के फुलके....मज़ा आ गया!
खाना खाकर हाथ धोने के लिए बाहर क्या आता हूँ कि फिर से अकेला टहलता हुआ उसी पत्थर पर जा बैठ, नीचे दिख रही रिकांगपिओ-कल्पा की बत्तियों को निहारने लग पड़ता हूँ। हवा में ठंड की गंध आ रही थी, नाक ठंडा होकर कुछ-कुछ बहने लग पड़ा था...पर फिर भी मुझे वह ठंड बहुत भा रही थी। अपना "गधा मोबाइल सेट" निकाल घरवालों को फोन कर अपनी सलामती का पैगाम भी देता हूँ।
एकांत अब मुझे पुन: उन तीनों बच्चों की याद दिला देता है, फिर से ना जाने क्या-क्या सोचने लग पड़ता पड़ता हूँ। 10बजने को हो रहे थे कि मुझे किन्नर कैलाश की ओर से आ रही पगडंडी पर से कुछ आवाज़ें मेरी तरफ आती हुई सुनाई देने लगी। मैं उत्सुकता से उस ओर देखने लग पड़ता हूँ......और कुछ समय बाद ढाबे की रोशनी के घेरे में जब वे आवाजें आ पहुँची, तो देखता हूँ कि वह तीन नवयुवक हैं। मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता है, और बेसब्र हो उनसे उन तीनों बच्चों के विषय में पूछता हूँ............
तो उन तीनों बच्चों में सबसे आगे चलने वाला उनका साँवला सा लीडर....जो शक्लोसूरत से ही प्रवासी जान पड़ता था, बड़े आत्मविश्वास से बोला- "शिवलिंग" और उसके पीछे वाले दोनों लड़कों का चेहरा- मोहरा नेपाली था।
"घर से भाग कर चले हो किन्नर कैलाश..!!" सीताराम जी गरजे।
"नहीं अंकल" कहते हुए वो लड़का अपने दोनों साथियों को चलते रहने का इशारा करता हुआ आगे बढ़ता रहा। सीताराम जी फिर ऊँची आवाज़ में बोले-"क्यों झूठ बोल रहे हो तुम लोग, घर वालों को बगैर बताए आए हो...!!" वो तीनों "नहीं-नहीं" करते हुए हम से पीछा छुड़ाने के लिए अपने कदम आगे ही आगे बढ़ाते जा रहे थे।
तभी मैं पत्थर से उठ खड़ा हो, रोब से अपनी मूँछों को ताव देता झूठ-मूठ बोलता हूँ- "ओए, मैं पुलिस में हूँ....सब सच निकलवा लूँगा, रुक जाओ वहीं पर.....आगे नहीं बढ़ना, नहीं तो!!!"
और, वे बच्चे एकदम से वहीं ठिठक गए, दोनों नेपाली बच्चों के चेहरे पर भय की लकीरें उभर चुकी थी.....परंतु उनका लीडर मुझे भाव-शून्य चेहरे से लगातार देखता रहा। मैं उनके पास पहुँच फिर वही बात दोहराता हूँ तो वह लड़का भी वही 'ना' का उत्तर दोहरा देता है। मैं उन्हें पकड़ कर थाने ले जाने की धमकी देता हूँ, परंतु उन पर मेरी धमकी का कोई भी असर नहीं पड़ता....वे अपनी बात पर अडिग हैं, जैसे कोई शक्ति उनमें से बोल रही हो...! दूसरे पल मैं अपनी जुबान को मीठा बना, उनके नाम पूछता हूँ जिनमें से दो के नाम तो मैं भूल चुका हूँ.... हां एक नेपाली लड़के का नाम याद आ रहा है "अभिषेक"
मैं विषय बदल उनसे पूछता हूँ- "आज तो तुम लोग नहीं पहुँच पाओगे शिवलिंग तक, तो यहीं मेरे पास रुक जाओ....मैं भी किन्नर कैलाश जा रहा हूँ, कल सुबह मेरे साथ चल देना।"
परंतु उनका लीडर लड़का मेरी तरफ अविश्वास से देखता रहा और उन्हें कुहनी मार-मार कर चलते रहने का इशारा करता रहा। मैं उनके साथ पांच-दस कदम चला भी, परंतु उनकी बेरुखी देख मेरे कदम खुद-ब-खुद रुक जाते हैं। मैं बेबसी भरी परेशान नज़रों से कभी सीताराम जी की तरफ देखता हूँ तो कभी मुझसे दूर जा रहे उन तीन बच्चों की पीठों को।
एक बार दिमाग में आया कि भाग कर इन तीनों को जा पकड़ूँ....ना जाने दूँ इनको "मौत के जबाड़े" में, पर दूसरे क्षण ही मन ने मुझे ढांढस बंधाया कि तू कौन है उन्हें जबरदस्ती रोकने वाला, मत भूल जहाँ शिव का वास है "कैलाश"......वहाँ कुछ भी असाधारण व असंभव हो सकता है।
तभी सीताराम जी पीछे से बोले- "ये अब जाकर गुफा में रुकेंगे।" मैं ठंडी आह भर कर सीताराम जी के पास आ बैठता हूँ। पर मेरा ध्यान उन तीनों बच्चों में ही फंसा हुआ है। कुछ मिनट बाद वे मेरी आँखों से ओझल तो हो जाते हैं, पर दिमाग में उनकी छवि घर कर चुकी है..... खासकर उस भोले-भाले से दिखने वाले नेपाली लड़के "अभिषेक" की, जिसने अपनी पीठ पर स्कूल बैग टांग रखा था और दो-तीन मिनट की हमारी मुलाकात में उसने एक शब्द भी नहीं बोला था और वो सावले रंग का उनका लीडर प्रवासी लड़का व्यवहार और शक्लोसूरत से ही तेज़-तरार शैतानी दिमाग जान पड़ता था, वह ही अपने से छोटे उन दोनों नेपाली लड़कों को बरगला कर अपने साथ लाया होगा.....हो सकता है कि इनके मां-बाप मजदूर हो और किसी जगह इकट्ठा काम करते हो।
अपने-आप को थामने के लिए मैं उठकर फिर से चारों दिशाओं के चित्र खींचने में मगन हो जाता हूँ। शाम के 6बज चुके हैं, सूर्यदेव अपनी सुनहरी किरणों को समेटने लग पड़े हैं। खैर फिर से मुख्यधारा में लौट आता हूँ और सीताराम जी के समक्ष अपनी मानसिक प्रश्नावली के अगले प्रश्न को खोलता हूँ- "तो, आपका यह ढाबा कब से है यहाँ पर..?"
सीताराम जी हल्का सा मुस्कुराते हुए बोलते हैं- "बस इसी साल ही शुरू किया है मैंने, मेरा बेटा 'जीत सिंह' भी साथ होता है....वो अभी गाँव गया है, उसका ऊपर-नीचे आना-जाना लगा रहता है राशन सामग्री आदि लाने-ले जाने में।"
"कौन सा गाँव है आपका...?"
"यहीं नीचे की तरफ कंगरिंग से ऊपर कुछ घरों का मेरा गाँव है, तालंगपी"
"तो फिर गणेश पार्क में कब से ढाबे लग रहे हैं, यात्रा के दौरान...?" मेरा सवाल।
"यह कोई दो-तीन साल पहले से जब 2013 में फॉरेस्ट वालों ने कंगरिंग गाँव से ऊपर इस रास्ते को चौड़ा किया और यहाँ गणेश पार्क में फॉरेस्ट शेड बनाई।"
"तो उससे पहले इस यात्रा में क्या प्रबंध होता था..?"
"पहली बात तो यह कि उस समय इस यात्रा पर केवल स्थानीय लोग ही जाया करते थे और यहाँ पहाड़ पर भेड़ बकरी चराने वाले 'पुआल' (गडरिये) उनके चाय-नाश्ते का प्रबंध कर, उन दिनों में कुछ कमाई कर लेते थे।"
फ़ॉरेस्ट वालों की बात आते ही मैंने सीताराम जी से पूछा- "यहाँ ढाबे लगाने पर फ़ॉरेस्ट वाले आप को रोकते नहीं क्या...?"
"वो हमें क्यों रोकेंगे, क्योंकि यह हमारी अपनी निजी जमीन है.....जितने भी ढाबे लगते हैं सबकी अपनी- अपनी पुश्तैनी जायदाद है यहाँ पर....और हमने फ़ॉरेस्ट वालों से लाइसेंस बना कर ही यहाँ अपनी जमीनों पर ढाबे बनाए हैं....उस समय जब यह किन्नौर क्षेत्र एक बंद दुनिया हुआ करती थी, तब हमारे पूर्वज अप्रैल महीने में इस जगह पर अपनी भेड़-बकरी ले आते और यहाँ खेती करते आलू, शलगम, फाफड़ा-औखला की फसलें उगाते और अक्तूबर महीने में फिर से नीचे उतर जाते।"
जमीन-जायदाद सुन, मैं सीताराम जी से पूछता हूँ कि क्या आप राजपूत हो...?
सीताराम जी बोले- "दरअसल प्राचीन काल से ही किन्नौर में कोई राजपूत-ब्राह्मण जाति नहीं है, यहाँ सिर्फ तीन वर्ण ही हैं...मंगोलिया से आई खश जनजाति, दूसरे कारीगर और तीसरे हरिजन...हम कारीगर वर्ण के सोई खानदान से हैं, हमारे बुजुर्ग कपड़े सिलने का काम करते थे और वह यहाँ के मूल निवासी भी नहीं थे, हम मैदानी इलाकों से यहाँ आ बसे है।"
सीताराम जी की बात सुन मैं कहता हूँ- "हां जी, पुराने समय में ऐसे ही होता था हर गाँव में कारीगर बाहर से लाकर बसाये जाते थे और यह भी हो सकता है कि औरंगजेब की कट्टर खूनी तलवार से अपने धर्म की रक्षा करते हुए बहुत सारे मैदानी लोग पलायन कर इन पहाड़ों में आ छिप गए और यहीं बस गए।"
अपनी प्रश्नावली के अगले उस प्रश्न को मैं ज़रा संकोच रख सीताराम जी से पूछ ही लेता हूँ कि क्या अब भी यहाँ "बहुपति प्रथा" है यानी पांडव विवाह या द्रोपदीवाद...?
"नहीं अब तो समय बहुत बदल गया है...ऐसा बहुत कम ही होता है, युवा पीढ़ि पढ़ लिखकर बड़े-बड़े शहरों में जाकर काम-धंधे करने लगी है।"
"फिर भी क्या आपने अपनी आँखों से इस पांडव विवाह प्रथा को देखा है...?"
"मेरे गाँव में कोई आठ-दस साल पहले दो भाईयों के साथ एक लड़की ब्याही आई थी!" सीताराम जी बोले।
"अच्छा एक बात मुझे और बताएँ सीताराम जी, कि क्या मणिमहेश की तरह यहाँ किन्नर कैलाश में भी बलि चढ़ती है और क्या तंगलिंग गाँव का देवता भी किन्नर कैलाश माथा टेकने आता है यात्रा के दौरान..?"
सीताराम का जवाब- "पहली बात तो यह है कि तंगलिंग का देवता 'परका शंकरस' और किन्नर कैलाश एक ही देव हैं.......और यह देव बलि नहीं लेता, चाहे मंदिर में या किन्नर कैलाश पर....बस वहाँ नारियल चढ़ता है।"
"तो 'परका शंकरस' भगवान शिव ही हैं परंतु यह कैसा नाम परका शंकरस...?" मेरा सवाल।
"यह नाम तो सदियों से चला आ रहा है, जब यह सारा इलाका आदिवासी था....उनकी अपनी बोली हुआ करती होगी और उनको क्या पता होगा कि यह शंकर भगवान है, यह तो बाद में पता चला होगा कि परका शंकरस और भगवान शंकर एक ही हैं.....और जो किन्नर कैलाश ना जा पाए, वो परका शंकरस के मंदिर में माथा टेक ले, उसे यात्रा का पुण्य प्राप्त हो जाता है।"
"मैंने एक और बात सुनी थी कि यात्रा के दौरान यात्रियों को अनिवार्य कर दिया जाता है कि वे तंगलिंग गाँव में परका शंकरस के मंदिर में अपनी हाज़िरी लगवा कर ही किन्नर कैलाश जाएँ.....हाज़िरी से मेरा मतलब है चंदा, सीताराम जी...!!"
मेरी यह बात सुन सीताराम जी ज़रा सा आवेश में बोले- "आप जिसे यात्रा कह रहे हैं हम उसे भंडारा कहतें हैं और मैं तंगलिंग मंदिर विकास कमेटी का सेक्रेटरी भी हूँ.... भंडारे के समय जब श्रद्धालु किन्नर कैलाश माथा टेकने जाते हैं, तो पार्वती कुंड में पैसे फैंक देते हैं....या किन्नर कैलाश शिला पर चढ़ा देते हैं, जो तेज़ हवाओं और चोरों के हत्थे चढ़ जाता है....पानी में फैंका पैसा भी व्यर्थ जाता है, भौगोलिक कारणों से पार्वती कुंड या किन्नर कैलाश पर कोई भी निर्माण नहीं हो सकता तो हमारी कमेटी ने मंदिर में एक गोलक लगा रखी है कि यात्री वही पैसा उसमें डालें, तांकि मंदिर के विकास में काम आ सके।"
सीताराम जी की बात का मैं समर्थन करता हुआ कहता हूँ- "यह भी ठीक है, वैसे परका शंकरस का सालाना मेला भी तो होता होगा, वह कब मनाते हैं...?"
"हर साल 12 व 13 जून और मेले को हम लोग 'डखरेन' बोलते हैं यहाँ पर।" सीताराम जी बोले।
सीताराम जी से बतियाते-बतियाते पौना घंटा बीत चला था.....गणेश पार्क पर पानी की उपलब्धता के विषय में पूछता हूँ तो वह कहते हैं कि इस पर्वत के शिखर पर पूरी बर्फ पिघल जाने के कारण अब हमें काफी गहराई में नीचे उतर कर एक छोटे से जल स्रोत से पानी भर, ऊपर ढों कर लाना पड़ता है।
"वैसे गणेश पार्क वाले इस पर्वत का क्या नाम है सीताराम जी...?"
"बाटूसकार पर्वत "
और लगे हाथ मैने उनसे पूछा- "तो, जिस पर्वत पर किन्नर कैलाश शिला है उसका भी नाम बताए सीताराम जी..?"
"इंद्रकील पर्वत"
सीताराम जी से अपने मन मुताबिक जानकारियाँ पा कर मेरा मन तृप्त हो चला था, मैं बैठा-बैठा अपनी बायीं तरफ खड़े रंगकूम्मो पर्वत पर फिर नज़र दौड़ाता हूँ....सूर्यास्त की जाती किरणें अब शिखरों तक खिंच चुकी हैं, पर्वतों के शरीरों की हरियाली स्याह रंग में रंगती जा रही है। धूप में हसीन नज़र आने वाले पहाड़ों पर अब क्षण-दर-क्षण अंधेरे की रहस्यमय परत चढ़ती जा रही थी।
सीताराम जी मुझसे पूछते हैं कि क्या मैं रात के खाने में आपके लिए सोयाबीन बड़ियों की सब्जी बना दूँ.....तो मैं चहक कर कहता हूँ सोयाबीन की बड़ियाँ तो मैं हर रोज़ खा सकता हूँ जी...!
सीताराम जी अपने नेपाली नौकर को साथ ले रसोई की तरफ चल देते हैं, पर मैं अभी भी एकांत में उसी पत्थर पर बैठा सामने दिख रहे रिकांगपिओ को एकटक देख रहा था, जहाँ अब बत्तियाँ जगनी शुरू हो चली थी। दिमाग में फिर से उन तीन बच्चों की चिंता जाग उठी है, बदहवासी में एकदम उठ कर उस दिशा की ओर देखता हूँ जिस ओर वह तीनों बच्चे किन्नर कैलाश की ओर गए थे। उस ओर पूरा अंधेरा हो चुका है, मन में अजीब-अजीब से ख़्याल आने लग पड़े कि वो तीनों बच्चे इस अंधेरे में चले जा रहे होंगे, कहाँ तक पहुँचे होंगे, क्या वह तीनों ठीक-ठाक भी हैं, मुझे हर कीमत पर उन तीनों को अकेले आगे नहीं जाने देना चाहिए था। बार-बार मुड़ कर उस ओर देखता हूँ कि कोई यात्री किन्नर कैलाश से वापस आता दिखाई पड़े तो उससे उन तीनों बच्चों का हाल जानूँ....फिर एकदम से विचार उत्पन्न हुआ कि क्या तू अपने बेटे को ऐसे आगे भेज सकता है क्या, मुझे खुद पर ही गुस्सा आने लगता है....पछतावा होने लगता है कि यदि कुछ अनहोनी हो गई तो शायद मैं भावुक आदमी अपने-आप को ही दोषी मानने लगूँ.....यह सोचते-सोचते मैं वापस तम्बू(टैंट) में पहुँच जाता हूँ।
नंदू अभी भी बाहर की दीन-दुनिया से बेख़बर लेटा हुआ ही है, उसे उठाकर घर से भागकर किन्नर कैलाश आए उन तीनों बच्चों की ख़बर सुनाता हूँ। नंदू भी यह ख़बर सुन हैरान है, अब मैं भी नंदू के साथ लेट जाता हूँ।
तम्बू में सोलर लाइट जल चुकी है, मैं लेटे-लेटे उस मध्यम सफेद रोशनी वाली टयूब की तरफ देख रहा हूँ जिस पर नन्हें-नन्हें कीट अपने पंख रगड़ रहे थे....मन को फिर से वही अजीब परेशानी परेशान करने लगी कि जाने उन बच्चों के साथ क्या घट रहा होगा। सोचते-सोचते मेरी आँखें बंद हो जाती हैं, कम्बलों की गर्माहट मेरे थके शरीर को आराम पहुँचा रही थी और कुछ समय बाद दिमाग भी सोचना बंद कर देता है....मुझे नींद आ जाती है।
सीताराम जी के नेपाली नौकर की पुकार पर नींद टूटती है, वह हमारे लिए गर्मागर्म भोजन परोस जाता है। लेटे-लेटे ही मैं अपनी घड़ी पर नज़र दौड़ाता हूँ, समय 9बज चुके थे और टैंट के अंदर का तापमान 10डिग्री।
मैं और नंदू कम्बल ओढ़े ही भोजन की वंदना में जुट जाते हैं, आलू-सोयाबीन बड़ियों की तरीदार सब्जी और कनक के फुलके....मज़ा आ गया!
खाना खाकर हाथ धोने के लिए बाहर क्या आता हूँ कि फिर से अकेला टहलता हुआ उसी पत्थर पर जा बैठ, नीचे दिख रही रिकांगपिओ-कल्पा की बत्तियों को निहारने लग पड़ता हूँ। हवा में ठंड की गंध आ रही थी, नाक ठंडा होकर कुछ-कुछ बहने लग पड़ा था...पर फिर भी मुझे वह ठंड बहुत भा रही थी। अपना "गधा मोबाइल सेट" निकाल घरवालों को फोन कर अपनी सलामती का पैगाम भी देता हूँ।
एकांत अब मुझे पुन: उन तीनों बच्चों की याद दिला देता है, फिर से ना जाने क्या-क्या सोचने लग पड़ता पड़ता हूँ। 10बजने को हो रहे थे कि मुझे किन्नर कैलाश की ओर से आ रही पगडंडी पर से कुछ आवाज़ें मेरी तरफ आती हुई सुनाई देने लगी। मैं उत्सुकता से उस ओर देखने लग पड़ता हूँ......और कुछ समय बाद ढाबे की रोशनी के घेरे में जब वे आवाजें आ पहुँची, तो देखता हूँ कि वह तीन नवयुवक हैं। मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता है, और बेसब्र हो उनसे उन तीनों बच्चों के विषय में पूछता हूँ............
मेरे पाठक दोस्तों, चाहता तो इस पंक्ति के साथ ही इस किश्त का अंत कर देता....फिर से एक नया सस्पेंस छोड़ जाता आपके लिए! परंतु मैं भुगत-भोगी रहा हूँ, मैंने उस वक्त इस परेशानी के गठ्ठर को चंद घंटों के लिए अपने सिर पर उठाया था....तो मेरा क्या हाल हुआ था। सो मैं आप पर इस परेशानी का गठ्ठर नहीं लादना चाहता, ना जाने कितने दिनों तक आपको इस परेशानी का गठ्ठर, अगली किश्त लिखने तक ढोना पड़े...!!!
............तो वो तीनों नवयुवक खुश हो एक ही आवाज़ में बोलते हैं- "हम उन्हें वापस ले आए हैं, ऊपर फॉरेस्ट शेड में हैं।"
मेरी खुशी की सीमा नहीं रहती जैसे परेशानियों का गठ्ठर मेरे सिर से उतर गया हो। मैं तन-मन- दिमाग से अपने-आप को बहुत हल्का महसूस करता हूँ। वह तीनों नवयुवक सीताराम जी की रसोई की तरफ बढ़ जाते हैं। मैं तापमान नापने के लिए चट्टान पर रखी अपनी घड़ी को देख पहन लेता हूँ, रात 10बजे का तापमान 8डिग्री!
वे तीनों नवयुवक सीताराम जी की रसोई में बैठे खाना खा रहे थे तो मैं उनसे पूछता हूँ कि क्या उन बच्चों के पास कुछ खाने-पीने का सामान है कि नहीं, तो वे बोले कि उन बच्चों के पास खाने-पीने का पूरा इंतजाम है.......और वे तीनों नवयुवक खाना खाने के बाद सीताराम जी से कम्बल किराए पर लेकर, वापस फॉरेस्ट शेड पर चले जाते हैं।
मैं रसोई के बर्तन संभाल रहे सीताराम जी के पास बैठ जाता हूँ, वह मेरे लिए सूखे दूध की चाय बना रहे हैं। सीताराम जी भी उन तीनों बच्चों की ख़बर जानकर सुख की साँस ले रहे थे। चाय पीने के बाद सीताराम जी का सारा हिसाब उसी वक्त चुकता कर देता हूँ क्योंकि हमें आधी रात के बाद ही किन्नर कैलाश के लिए चल देना था।
तम्बू में वापस आ कम्बलों में दुबके पड़े नंदू को उन बच्चों की "सुख-ख़बर" देता हूँ। अपनी रक्सैक से पावर बैंक निकालकर अपना एंड्रॉयड फोन उसके साथ जोड़ देता हूँ। पावर बैंक देख नंदू भी अपना फोन उस पावर बैंक के साथ जुड़ना चाहता है तो उसे कहता हूँ- "देख नंदू मेरा कैमरा खराब होने की वजह से फोटो खींचने का सारा काम मेरा यह एंड्रॉयड मोबाइल ही कर रहा है....और इस पावर बैंक की चार्जिंग को मुझे अपने इस मोबाइल के लिए बचा कर रखना है कि इस यात्रा के अंत तक की भी फोटो खींचता रहूँ।" फिर मन ही मन बोलता हूँ- "तू अपना फोन इसलिए चार्ज करना चाहता है नंदू कि कल किन्नर कैलाश जाते हुए भी तू अपनी दुकान के सूट बेचता रहे...!"
लेटते ही दिन भर के घटनाक्रम के विचारों की रेलगाड़ी दिमाग की पटरी पर भागने लगती है। सब कुछ सोचने के बाद एक विचार पर मेरी सोच केंद्रित हो जाती है, "बहुपति प्रथा" पर। सोचने लग पड़ता हूँ कि क्या उस समय द्रोपदी चाहती थी कि उसके पांच पति हो, जबकि उसने तो केवल अर्जुन से विवाह किया था....और किन्नरों के इस देश किन्नौर में कोई लड़की मन से चाहती थी या होगी कि सदियों से चली आ रही इस बहुपति प्रथा को वह स्वेच्छा से निभा सके...!!!
(क्रमश:)
मेरी खुशी की सीमा नहीं रहती जैसे परेशानियों का गठ्ठर मेरे सिर से उतर गया हो। मैं तन-मन- दिमाग से अपने-आप को बहुत हल्का महसूस करता हूँ। वह तीनों नवयुवक सीताराम जी की रसोई की तरफ बढ़ जाते हैं। मैं तापमान नापने के लिए चट्टान पर रखी अपनी घड़ी को देख पहन लेता हूँ, रात 10बजे का तापमान 8डिग्री!
वे तीनों नवयुवक सीताराम जी की रसोई में बैठे खाना खा रहे थे तो मैं उनसे पूछता हूँ कि क्या उन बच्चों के पास कुछ खाने-पीने का सामान है कि नहीं, तो वे बोले कि उन बच्चों के पास खाने-पीने का पूरा इंतजाम है.......और वे तीनों नवयुवक खाना खाने के बाद सीताराम जी से कम्बल किराए पर लेकर, वापस फॉरेस्ट शेड पर चले जाते हैं।
मैं रसोई के बर्तन संभाल रहे सीताराम जी के पास बैठ जाता हूँ, वह मेरे लिए सूखे दूध की चाय बना रहे हैं। सीताराम जी भी उन तीनों बच्चों की ख़बर जानकर सुख की साँस ले रहे थे। चाय पीने के बाद सीताराम जी का सारा हिसाब उसी वक्त चुकता कर देता हूँ क्योंकि हमें आधी रात के बाद ही किन्नर कैलाश के लिए चल देना था।
तम्बू में वापस आ कम्बलों में दुबके पड़े नंदू को उन बच्चों की "सुख-ख़बर" देता हूँ। अपनी रक्सैक से पावर बैंक निकालकर अपना एंड्रॉयड फोन उसके साथ जोड़ देता हूँ। पावर बैंक देख नंदू भी अपना फोन उस पावर बैंक के साथ जुड़ना चाहता है तो उसे कहता हूँ- "देख नंदू मेरा कैमरा खराब होने की वजह से फोटो खींचने का सारा काम मेरा यह एंड्रॉयड मोबाइल ही कर रहा है....और इस पावर बैंक की चार्जिंग को मुझे अपने इस मोबाइल के लिए बचा कर रखना है कि इस यात्रा के अंत तक की भी फोटो खींचता रहूँ।" फिर मन ही मन बोलता हूँ- "तू अपना फोन इसलिए चार्ज करना चाहता है नंदू कि कल किन्नर कैलाश जाते हुए भी तू अपनी दुकान के सूट बेचता रहे...!"
लेटते ही दिन भर के घटनाक्रम के विचारों की रेलगाड़ी दिमाग की पटरी पर भागने लगती है। सब कुछ सोचने के बाद एक विचार पर मेरी सोच केंद्रित हो जाती है, "बहुपति प्रथा" पर। सोचने लग पड़ता हूँ कि क्या उस समय द्रोपदी चाहती थी कि उसके पांच पति हो, जबकि उसने तो केवल अर्जुन से विवाह किया था....और किन्नरों के इस देश किन्नौर में कोई लड़की मन से चाहती थी या होगी कि सदियों से चली आ रही इस बहुपति प्रथा को वह स्वेच्छा से निभा सके...!!!
(क्रमश:)
घर से भाग किन्नर कैलाश जा रहे वो तीनों बच्चे। |
इनमें से दो के नाम तो मैं भूल चुका हूँ.... हां मध्य में खड़े इस नेपाली लड़के का नाम याद आ रहा है "अभिषेक" |
अपने-आप को थामने के लिए मैं उठकर फिर से चारों दिशाओं के चित्र खींचने में मगन हो जाता हूँ। शाम के 6बज चुके हैं, सूर्यदेव अपनी सुनहरी किरणों को समेटने लग पड़े थे। |
रंगकूम्मो पर्वत के साथ का दृश्य। |
नीचे दिख रहे नीले व सफेद रंग गणेश पार्क में बने ढाबों की छतें हैं दोस्तों। |
उस ढाबे का एक जूम चित्र। |
उस ढाबे के साथ भेड़-बकरी रखने वाला बाड़ा भी दिखाई दे रहा था। |
मैं और नंदू कम्बल ओढ़े ही भोजन की वंदना में जुट जाते हैं, आलू-सोयाबीन बड़ियों की तरीदार सब्जी और कनक के फुलके....मज़ा आ गया! |
रात का दृश्य। |
खाना खाकर हाथ धोने के लिए बाहर क्या आता हूँ कि फिर से अकेला टहलता हुआ उसी पत्थर पर जा बैठता हूँ। |
नीचे दिख रही रिकांगपिओ-कल्पा की बत्तियों को निहारने लग पड़ता हूँ। हवा में ठंड की गंध आ रही थी, नाक ठंडा होकर कुछ-कुछ बहने लग पड़ा था...पर फिर भी मुझे वह ठंड बहुत भा रही थी। |
ये तीनों नवयुवक खुश हो एक ही आवाज़ में बोलते हैं- "हम उन बच्चों को वापस ले आए हैं, वे अब ऊपर फॉरेस्ट शेड में हैं।" |
रात दस बजे मलिंगखट्टा का तापमान 8डिग्री, और समुद्र तट से ऊँचाई 3520मीटर। |
मैं रसोई के बर्तन संभाल रहे सीताराम जी के पास बैठ जाता हूँ, वह मेरे लिए सूखे दूध की चाय बना रहे हैं। सीताराम जी भी उन तीनों बच्चों की ख़बर जानकर सुख की साँस ले रहे थे। |
बहुत खूब। उन बच्चों का कुशल जानकर राहत मिली। 💐😊🙏
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद अमित जी।
हटाएंबहुत बढ़िया विकास जी जो आपने बच्चो की कहानी को अगले भाग तक नहीं ले गए बच्चो की कुशलता जान कर बहुत राहत मिली इस बार विकास जी बड़ा इंतज़ार करना पड़ा आप ऐसे ही रोचकता बनाए रखे जय भोले बाबा की
जवाब देंहटाएंजय भोलेनाथ, क्या करूँ जब लिखने का मन नहीं हो तो नहीं लिखता, जब लिखने लग जाऊँ तो लिखता ही रहता हूँ जी।
हटाएंभाग-7 सस्पेंस से भरपूर और फिर सुखद अंत।
जवाब देंहटाएंजी हां, भाग-7 का सुखद अंत, परन्तु अभी कहानी बाकी है....आगे बहुत कुछ घटने वाला है।
हटाएंकितने मासूम बच्चे है,हम तो दुकान से ब्रेड भी न मंगवाए।आपको मालूम करना था वो इस निर्जन जगह पर क्यो जा रहे थे।
जवाब देंहटाएंसनक, शिवभोले नाथ की।
हटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति भाई ....
जवाब देंहटाएंबच्चो की कहानी ने वाक़ई सोचने पर मजबूर कर दिया था।
बार बार चिन्ता होना आपकी संवेदनशीलता को दर्शाता है।
वैसे चिन्ता तो हम पाठको को भी खाए जा रही थी, अगर आपने खुलासा नहीं किया होता तो मुझे आपको फोन करना पड़ता....
खैर अंत भला तो सब भला ।
ढाबे वाले से बातचीत कर आपने काफ़ी जानकारियां हासिल कर ली।
आज की पोस्ट दिल थाम कर पढ़ी मैंने।
अगली कड़ी थोड़ा जल्दी आने की उम्मीद करता हूँ।
😊😊
मनोज जी, बेहद धन्यवाद जी......अंत भला कहाँ, दिन का अंत भला हुआ.... अभी अगले दिन की वो कठिन यात्रा, ये बच्चे और वापस मुड़ रहे यात्रियों की कहानियाँ....बहुत कुछ घटित होना बाकी है जी।
हटाएंपरेशानियों का गट्ठर...क्या कहा आपने उनका सांवला सा लीडर....मुछो पर ताव देते हुए तो आप रौबदार पुलिस वाले लगोगे ही.....तीन मासूम से लड़के इस तरह से हिम्मत से जाते हुए बहुत संशय पैदा कर रहे है....इतने ऊपर पहाड़ो पर भी गाव वालो की पुश्तैनी जमींन है वाह....शाम के 6 बजे है अब तो सीताराम जी से बहुत कुछ जानने मिलने वाला है....किन्नौर के ऐसे ही बहुपति विवाह और एक से अधिक विवाह के बारे में सुन रखा था आपकी पोस्ट से थोड़ा क्लियर हुआ और...जो किंन्नर कैलाश न जा सके वो परका शंकरस के दर्शन कर ले बहुमूल्य जानकारियों का स्त्रोत होती है स्थानीय लोगो से बातचीत...परका शंकरस के मेले का नाम दखरेंन है....बाटुस्कार पर्वत जबर्दस्त जानकारियां....आपके लेख पढ़ते हुए ऐसा लगता है आप के साथ यात्रा कर रहे है और ये जानकारियां बेमिसाल है...इतनी रिसर्च इतनी स्थानीय जानकारी आपके लेखों से मिलती है बहुमूल्य है जी...गधा मोबाइल सेट..सूखे दूध की चाय याने पाउडर वाली चाय....सीताराम जी के ढाबे से फारेस्ट शेड कितनी दूर है ? आखरी वाला सवाल झकजोर देने वाला है
जवाब देंहटाएंआनंद आ गया विस्तृत लेख पढ़कर...
सुमधुर आभार प्रतीक जी, सीताराम जी के ढाबे से फ़ॉरेस्ट शेड़ ज्यादा दूर नहीं है, सौ मीटर के आस-पास ही होगा।
हटाएंसर बहुत ही बेहतरीन वर्णन
जवाब देंहटाएंअच्छा हुआ बच्चों की कुशलता का यही बता दिया । नही तो मन मे बेचैनी रहती।
जय भोले नाथ
जय भोलेनाथ......जी।
हटाएंअगली किश्त का बेसब्री से इंतजार रहेगा विकास जी
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद प्रदीप जी.....लिख रहा हूँ, इस सप्ताह के अंत तक प्रकाशित कर दूँगा जी।
जवाब देंहटाएंशानदार लेखन
जवाब देंहटाएं