शुक्रवार, 19 जून 2020

भाग-6 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा" (Kinner Kailash Yatra)

भाग-6   "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

इस यात्रा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र http://vikasnarda.blogspot.com/2020/05/blog-post.html?m=1 स्पर्श करें।

          "घर से भागे तीन बच्चे चले किन्नर कैलाश!"


                     पिछली किश्त में.......किन्नर कैलाश की कमरतोड़ चढ़ाई में मेरे साथ-साथ चलता नंदू बार-बार मुझसे बहुत आगे निकल जाता.....तो इस बार मैं ज़ोर से आवाज़ लगा नंदू को रोकता हूँ और उसके पास पहुँचकर गुस्से से कहता हूँ- "यदि इस घने जंगल में तुझे अकेले जान भालू पकड़ ले, तो मैं इतनी दूर से तेरे लिए क्या कर पाऊँगा और यदि मेरा पैर फिसल जाए और मैं किसी चट्टान पर लटक जाऊँ, तो तू मेरे किसी काम का नहीं....!!!"
                  मेरी यह बात सुन नंदू एकदम सुन्न सा हो गया, उसके मुँह से एक शब्द भी नहीं फूटा। परंतु दूसरे ही पल में फिर बोल उठता हूँ- "देख नंदू मैं तुझे अपनी ज़िम्मेदारी पर साथ लेकर आया हूँ, चलते समय तेरे घर पर भाभी जी को बोल कर आया था कि चिंता ना करें जैसे नंदू को ले जा रहा हूँ, वैसे ही उसे वापस लाऊँगा....और तू इस घने-बियाबान जंगल में अकेले ही ऐसे दौड़ लगा रहा है जैसे तेरे भीतर 'पी• टी• उषा' प्रकट हो गई हो....हम दोनों इक्ट्ठे इस कठिन यात्रा पर आए हैं, यहाँ कुछ भी अप्रिय घट सकता है हमारे साथ.....दोनों में किसी एक को कुछ हो गया तो दूसरे के लिए मुसीबत है, देख यार मैंने तुझे साबुत ही वापस ले जाकर भाभी जी को सोंपने का वादा किया है...!"        अब हम दोनों हंसते हुए साथ-साथ चल रहे हैं, मेरी यह तरकीब काम कर गई...नंदू ने अपनी तेज़ चाल को मेरे मुताबिक कम कर लिया।
                   तुंगमापी घड़ी पर नज़र दौड़ाता हूँ- 3060 मीटर,  मतलब हम पिछले एक-सवा घंटे में 250 मीटर की और ऊँचाई प्राप्त कर चुके हैं, देवदार अब कहीं- कहीं ही नज़र आ रहा था। निरंतर नीचे दिख रहा सतलुज घाटी का दिलकश दृश्य इस पदयात्रा का सबसे हसीन पहलू साबित हो रहा था।
                     2बजने को हो रहे थे, पगडंडी हमें एक ऐसी जगह पर ले आती है, जहाँ आधिकारिक यात्रा के दौरान किसी ने ढाबा लगाया होगा कुछ दिन पहले तक.... परंतु अब वहाँ केवल उस ढाबे के अवशेष ही बकाया थे। मुझे बाद में पता चलता है कि इस जगह का नाम "सेरियो" है....मतलब आधिकारिक यात्रा के समय कंगरिंग गाँव से पांच घंटे की चढ़ाई के बाद "सेरियो" नामक इस जगह पर रहने-खाने की व्यवस्था हो सकती है, गणेश पार्क पहुँचने के लिए सेरियो से दो-ढाई घंटे लग जाते हैं।
                    सेरियो के बाद "गिरिराज की सखी पगडंडी" हम पर कुछ समय के लिए रहम कर अपने-आप को सीधा-सपाट कर लेती है। अब नंदू की भूख जाग उठी है, सो पगडंडी पर हम दोनों जजों ने अपनी कचहरी लगा 'बंदी बिस्कुटों' की उम्र कैद को मृत्युदंड में बदल डाला...!  बिस्कुटों के खाली रैपरों को इस बार नंदू की रक्सैक की बाहरी जेब में घुसेड़ता हुआ बोलता हूँ- "क्योंकि नंदू हम पहाड़ पर गंद डालने नहीं आए..!!"
                     कमरतोड़ चढ़ाईयाँ अब फिर हमारे आगे अपनी अकड़ में तनी खड़ी हैं और हम दोनों भी अड़ियल बन उन चढ़ाईयों पर कदम-दर-कदम ऊपर की ओर चढ़ते जा रहे हैं। कंगरिंग गाँव में नाले से भरी पानी बोतल कब भी खत्म हो गई थी, अब तो दो लीटर की रिज़र्व बोतल का पानी भी कम होता जा रहा है।
                     "समझदार को मात्र इशारा"  पाठ का सम्मान नंदू ने रख लिया था, वह अब समझदारी दिखाता हुआ पिछले दो-ढाई घंटों से मेरे अंग-संग ही चला जा रहा था। समय दोपहर के बाद सवा तीन बजे का, तुंगमापी घड़ी पर नज़र- 3350मीटर.....मतलब पिछले डेढ़-पौने दो घंटों में हम 300मीटर और ऊपर चढ़ चुके हैं। पहाड़ पर देवदार अब कहीं-कहीं दिखाई पड़ने लगा, हां "डेज़ी" जाति के पहाड़ी फूलों की झाड़ियाँ यहाँ-वहाँ सजावट के गुलदस्ते बन खड़ी थी। यहाँ इतनी ऊँचाई पर पहुँच कर, हम दोनों कुछ समय के लिए दम लेने घाटी की तरफ मुँह कर बैठ जाते हैं, क्योंकि घाटी में हमें सारे रिकांगपिओ शहर के विहंगम दृश्य के दर्शन जो हो रहे थे।
                       नंदू उस दृश्य को देख मुझे कहता है- "यार विक्की, रात के अंधेरे में जब उस पहाड़ पर रिकांगपिओ शहर जगमगाता होगा तो यहाँ से देखने में कितना खूबसूरत लगता होगा।"
                        "हां, सही कह रहा है तू नंदू.....मुझे लगता है कि मलिंगखट्टा से भी यह नज़ारा दिखता होगा, रात में देखेंगे रिकांगपिओ की टिमटिमाती रौशनियों को यारा...!"
                       कुछ नये दम हो चले ही थे कि ऊपर से कुछ बंदे लदे-फदे नीचे उतर रहे थे, उनकी पीठ पर लदे जरनेटर, गैस के सिलेंडर आदि से ज़ाहिर हो रहा था कि वे ढाबा-टैंट वाले हैं जो मलिंगखट्टा से वापसी कर रहे हैं।  
                       आखिर पौने चार बजे हम चलते-चलते वहाँ तक पहुँचते हैं, जहाँ से सामने ऊपर की तरफ देखते हुए मलिंगखट्टा (गणेश पार्क) के हमें प्रथम दर्शन होते हैं, एक बड़ी सी वृक्ष विहीन भूमि जिस में नीले रंग की तरपाल से बना एक ढाबा और जंगलात की इमारत नज़र आने लगती है.....और मेरी दायी तरफ बर्फ से लबालब वो गिरिराज अब अपनी विशालता मुझे दिखा रहे थे, जिन्हें मैं नीचे से ऊपर चढ़ता हुआ निरंतर देखता आ रहा था। एक देवदार पर लगे फूलों को देख मुझे एकाएक याद आता है तो नंदू से कहता हूँ-"नंदू, रिकांगपिओ-कल्पा अपने 'चिलगोज़ों' के लिए भी बहुत मशहूर है.... चिलगोज़ा मतलब चीड़ या पाइन के पेड़ का फल, जिसे हम पंजाब में 'नेजा' कहते हैं और यहाँ स्थानीय लोग इसे 'न्योजा' पुकारते हैं.....कंगरिंग गाँव से जब हम नाला पार कर ऊपर की ओर चढ़े थे, तब वहाँ पर इन चिलगोज़ा चीड़ों के पेड़ों का जंगल भी तो था......बचपन में जब मेरी दादी जी मुझे कहती कि जा अपने दादा जी की दुकान पर जाकर पैसे ले, फला-फला करियाने का सामान लाला राम प्रकाश की दुकान से ले आ, तो मैं अपने दादा जी  'हकीम साधु राम'  की दुकान पर पहुँच....सबसे पहले उनसे इन नेजों की मांग करता, और दादाजी दो-चार नेजे दराज़ से निकल मुझे दे देते....बहुत स्वाद लगते थे मुझे ये नेजे, हां एक बात और तब मैं दालों के नाम भूल जाता था, तो मेरी मां व दादी मुझे दालों के रंग बता कर भेजते थे बाज़ार....जैसे हरी दाल मतलब साबुत मूंगी और जब मुझे कहा जाता कि मूंगी-मसूर की धुली दाल लेकर आ, तो मैं घर से छड़प्पे लगा भागता और रटता जाता मूंगी-मसूर की धुली दाल, मूंगी-मसूर की धुली दाल........पर जब दादा जी की दुकान पर पहुँचता तो धुली दाल ही याद रहता, मूंगी-मसूर फिर भूल जाता.....नंदू आज समझ आ रहा है कि एक पूरी ज़िन्दगी में बचपन का कितना महत्व है, जब मैं बच्चा था तो मुझे बड़ों का जीवन अच्छा लगता था।"
                            खैर, उन फूलों वाले पेड़ का नाम "ख़ौग़्" था, यह भी देवदार की एक जाति है.....इसका ज्ञान मुझे बाद में होता है। अब हमें पगडंडी शिखर की उसी दिशा की ओर ले जा रही थी, जहाँ नीली तरपाल वाला ढाबा दिखाई पड़ रहा था। मंजिल सामने देख नंदू मुझे कहता है- "मैं जल्दी-जल्दी ऊपर ढाबे पर जाकर रोटी पानी की व्यवस्था देखता हूँ,  तू अपनी चाल से चला आ!"
                     और, साढ़े चार बजने से दस मिनट पहले मैं भी मलिंगखट्टा, सीताराम के ढाबे "निखिल टैंट हाऊस" के नीचे पहुँचता हूँ...तो नंदू ऊपर से भागा-भागा मेरे पास आकर कहता है कि इस ढाबे वाले ने तो मना कर दिया कि शाम के इस वक्त उसके पास कोई खाना नहीं है, खाना तो अब रात में ही बनेगा।  मैं बुझी सी हंसी हंसता हूँ और नंदू को अपने गर्व में कहता हूँ- देख, अब मैं उसी बंदे से दोबारा पूछता हूँ...!!"
                     ऊपर पहुँचा तो दो-तीन बंदे ढाबे के बाहर एक चट्टान पर बैठे बातें कर रहे थे। मैं उनके पास पहुँचकर पूछता हूँ- "सीताराम जी कौन है..?"
                     तो एक बंदा झट से खड़ा हो मेरी तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से देखता है। दूसरे ही क्षण मैं फिर से बोलता हूँ- "सीताराम जी आपकी बहन मुझे रास्ते में मिली थी, उसे मैंने दवाई दी है।"
                     "हां वह बीमार थी, इलाज के लिए वापस गाँव जा रही है"- सीताराम जी बोले।
                     "हां जी, उसी ने ही हमें बोला कि ऊपर मेरे भाई सीताराम का ढाबा अभी चल रहा है, तो हमारे भोजन का कुछ प्रबंध करें क्योंकि हम दोनों ने सुबह की एक मैगी ही खा रखी है। ज़रा सा सोच कर सीताराम जी बोले- "आप टैंट में चलकर आराम करें, मैं आपके लिए दोपहर की बची दाल के साथ चावल बना देता हूँ " और यह कहकर सीताराम जी हमारे आगे-आगे चल देते हैं रसोई की तरफ।
                   वहाँ पहाड़ की ढलान पर उन्होंने छह-सात टैंट लगा रखे थे, सीताराम जी के इशारे पर नंदू तो एक टैंट में चला जाता है.....पर मैं सीताराम जी के पास उनकी रसोई के दरवाज़े पर खड़ा हो जाता हूँ, यह पूछने के लिए उस ओर इशारा करते हुए कहता हूँ कि यह जो बर्फ से लबालब गिरिराज मुझे कंगरिंग के जंगल के बाद से लगातार नज़र आते जा रहे हैं, इनका परिचय क्या है...?
                 "इस पर्वत का नाम  'रंगकूम्मो पर्वत' है" सीताराम जी ने जवाब दिया।
                "बहुत भव्य पर्वत है, सुबह से ही मेरा ध्यान इस पर ही टिका हुआ है, सीताराम जी।"
                       सीताराम जी अपने स्टोव में मिट्टी का तेल डाल हमारे लिए चावल बनाने में जुट गए और मैं चल देता हूँ टैंट की ओर। टैंट में नंदू पसरा पड़ा है, मैं भी उस साथ जाकर चौड़े में पसर जाता हूँ। लेटते ही तुंगमापी घड़ी पर आदतन नज़र दौड़ाता हूँ- मलिंगखट्टा की समुद्र तल से ऊँचाई 3520 मीटर और समय शाम के साढ़े चार बज चुके हैं।
                        लेटे-लेटे नंदू मुझसे कहता है- "हम कितने किलोमीटर आ गए होंगे, विक्की...?"
                       उसका प्रश्न सुन, मैं अपना गणित लगाने लग पड़ता हूँ- "देख नंदू, हम तंगलिंग से सुबह 6बजे चले थे और शाम के 4बजे गणेश पार्क में आ पहुँचें हैं, मतलब कि दस घंटे.....और इन दस घंटों में दो घंटे खाने-पीने व नए दम होने के निकाल कर बचते हैं आठ घंटे, और ऐसी खड़ी चढ़ाई पर एक घंटे में बड़ी मुश्किल से एक किलोमीटर ही चढ़ा जा सकता है.....तो इस हिसाब से हम तंगलिंग से यहाँ तक आठ किलोमीटर चल चुके हैं और इन आठ किलोमीटर में हमने जबरदस्त ऊँचाई ग्रहण कर ली है लगभग 1500मीटर की....यह कमरतोड़ चढ़ाई ही इस यात्रा को शिव से संबंधित यात्राओं में सबसे मुश्किल बनाती है...और अभी आगे का सफ़र भी मुझे बहुत चुनौती भरा लगता है जैसा अतिकुर रहमान ने हमें बताया था, हां एक बात और मैं अपने अनुभव से कहना चाहता हूँ नंदू.....इस यात्रा को जल्दबाज़ी में करना, खुद को मुसीबत में डालना सिद्ध हो सकता है......जल्दबाज़ी ऐसे कह रहा हूँ मान लो दिल्ली जैसे महानगर से कोई शुक्रवार की रात रिकांगपिओ आती बस में बैठ पोवारी या शांगटांग उतर सीधा ही किन्नर कैलाश को चल दे और उसे हर हाल में यहाँ गणेश पार्क तक पहुँचना ही पड़ेगा, क्योंकि रास्ते में तो कुछ भी व्यवस्था नहीं है....तब उसको निश्चित की 'ऊँचाई की बीमारी' यानी हाई एल्टीच्यूट सिकनेस घेर लेगी, सो इस यात्रा पर मैदानों से आए यात्रियों को जल्दबाज़ी नहीं दिखानी चाहिए....अपने शरीर को पहाड़ की भिन्न-भिन्न ऊँचाईयों के अनुरूप ढालते हुए इस दुर्गम यात्रा पथ पर बढ़ना चाहिए।"
                       नंदू की तरफ से कोई भी हुंगारा अब ना आता सुन, मैं ज़रा सा उठकर नंदू को देखता हूँ....वह मेरी बातें सुनता-सुनता गहरी नींद में सो गया है। मुझे क्या पता था कि इसी  "जल्दबाज़ी"  का कीड़ा भी नंदू के दिमाग में घुसा हुआ है और इस संबंध में हुई मेरी बात के बीच में ही नंदू सो गया। अब मेरी आँखें भी भारी होने लगती हैं, कमरतोड़ चढ़ाई की थकावट ने मुझे भी बेसुध कर दिया।
                  
                   
              मेरे पाठक दोस्तों, यहाँ मैं आपसे एक दुखद घटना की भी चर्चा करना चाहता हूँ। यह दुखद घटना पिछले साल मतलब जून2019 की है, यानि कि मेरी किन्नर कैलाश यात्रा के दो वर्ष बाद की।
              1 अगस्त 2019 को अधिकारिक रूप से यात्रा शुरू होने से पहले जून महीने में पांच दोस्त चल पड़ते हैं मुँह उठाकर किन्नर कैलाश! चार नौजवान 'बड़ागाँव, कुमारसेन शिमला'  के और उनका एक रिश्तेदार झज्जर हरियाणा से। पांचों में से दो ढीले निकले, पीछे रह गए.... ऊपर से मौसम खराब हो गया, धुंध की वजह से दिशा ज्ञान भी जाता रहा...रात का अंधेरा आ घिरा, पगडंडी से भी नाता टूट गया...बगैर रास्ते के चलने लगे, नतीजा झज्जर वाले वरुण सिंह का संतुलन बिगड़ा और वह खाई में जा गिरा...सिर पर चोट, पंख-पखेरू उड़ गए....दूसरा कुमारसेन का पीयूष वर्मा अंधेरे में ग्लेशियर से फिसल नीचे गिर, वहीं पड़ा ठंड से मर गया।  दोनों की लाशें गुफा के क्षेत्र में मिली, बाकी बचे उन तीनों युवकों को भी पुलिस प्रशासन द्वारा बचा कर नीचे लाया गया, यहाँ तक कि उनको बचाने गई पुलिस के एक कर्मी के साथ भी हादसा घट गया....गनीमत है कि उसे चोटें ही आई, जान बच गई। मतलब कि आजकल की युवापीढ़ि बस सोशल मीडिया पर लाइक पाने या स्टार बनने हेतु अपनी जान की कीमत भी नहीं जान पाती, एक सनक कि इस वर्ष की फलानी-फलानी यात्रा पर मैं सबसे पहले पहुँच कर वहाँ की फोटो शेयर करूँ......ठीक ऐसे ही कुछ लड़के मुझे इसी किन्नर कैलाश यात्रा पर वापसी करते मिलते हैं गुफा से पहले, जो इस घमण्ड में थे कि पिछले साल की श्रीखंड यात्रा के शुरू होने से एक महीना पहले, वह दोनों सबसे पहले थे जो श्रीखंड पहुँचें।
         "परन्तु घमण्डी तो तू खुद भी बहुत है विकास नारदा, कभी अपने पलंग के नीचे भी लाठी फेर पर देख ले!!!!"
                       खैर, अब यदि आप कोई अनुभवी पर्वतारोही हो तो अलग बात है मेरे पाठक दोस्तों, वरना ऐसी दुर्गम यात्राओं का अंजाम "शव यात्रा" भी हो सकता है....इसलिए मैं हमेशा से कहता आ रहा हूँ- "हे गिरिराज, तुम बाहर से जितने सुंदर हो...भीतर से उतने ही निर्मम हो..!"  सो इन यात्राओं पर पूरी तैयारी, सावधानी और समय सिर ही आना है प्रिय पाठको, मेरी बात याद रखना।
                     
                       आधे घंटे बाद सीताराम जी हमारे लिए दो थालियाँ लाते हैं, जिनमें मल्लिका मसूर की दाल व चावल थे। पहला चम्मच मुँह में रखते ही तृप्ति की अनुभूति होती है। दाल-चावल खाने के बाद हम पर और ज्यादा नींद का नशा चढ़ जाता है, दोनों ही फिर से सो जाते हैं.....परंतु आधे-पौने घंटे बाद मैं अकेला ही उठकर टैंट से बाहर आ जाता हूँ क्योंकि मुझे सूर्यास्त देखने का लालच है। शाम की सुनहरी धूप में "रंगकूम्मो" पर्वत और ज्यादा आकर्षक नज़र आने लगता है। मौसम में ठंडक आ चली थी तो मैं भी धूप में बैठ सीताराम जी के पास जा बैठता हूँ।
                      सामने का दृश्य.....आमने-सामने पर्वतों की श्रृंखला के बीचो-बीच लकीर सी बहती सतलुज और उन पर्वतों पर बसे गाँव-कस्बे-शहर। मेरी जिज्ञासाएँ ही मुझे सीताराम जी के पास दरअसल खींच लाई थी। सो उन के पास बैठते ही अपनी मानसिक प्रश्नावली के प्रथम प्रश्न के उत्तर की चेष्टा लिए सीताराम जी से पूछता हूँ- "सीताराम जी मलिंगखट्टा तो प्राचीन नाम जान सकता है, और गणेश पार्क नवीन...तो इस जगह का नाम गणेश पार्क कैसे पड़ गया..?"
                     सीताराम जी पीछे मुड़कर मुझे इसी पहाड़ का शिखर दिखाते हैं, जो उनके ढाबे के बिल्कुल पीछे ही है- "यह देखिए इस पर्वत शिखर की बनावट में भगवान गणेश की शक्ल नज़र आती है, इसीलिए इस जगह का नाम गणेश पार्क पड़ गया।"
                     पहले प्रश्न का उत्तर प्राप्त होते ही, मैं दूसरा प्रश्न सीताराम जी से पूछता हूँ कि मैंने सुना था इस जगह का नाम "आशिकी पार्क" भी है....यह कैसा नाम है, इसके पीछे भी कोई किस्सा-कहानी है क्या...?
                     मेरे इस प्रश्न पर सीताराम जी के चेहरे पर एकाएक ही उग्र भाव उभर आया और वे थोड़ा तैश में बोले- "बकवास है यह सब, यहाँ भगवान शिव का निवास स्थान है कैलाश.....वहाँ आशिकी का क्या काम!!" तभी हमारे पास ही बैठा सीताराम जी का नेपाली नौकर हमारे बीच में एकदम से बोलता है- "अरे, वह देखो...ये छोटे-छोटे बच्चे कहां चले आ रहे हैं..!!!"
                      "छोटे बच्चे" शब्द सुन हमारा ध्यान और नज़र उन तीनों बच्चों पर जा ठहरती है.....जो अभी हम से दूर हैं और हमारी ओर चढ़े आ रहे हैं। सीताराम जी उन्हें देख बोलते हैं- "ये बच्चे घर से भाग कर कैलाश जाने के लिए आए हैं!!"
                      सबसे आगे चला आ रहा लड़का उनका लीडर जान पड़ रहा था, जो बार-बार पीछे मुड़ कर उन्हें देख रहा था। उसका कद तीनों बच्चों में सबसे लम्बा था और उसके हाथ में पानी की एक खाली बोतल और बगल में एक हल्का सा कम्बल था, 10-11साल का लग रहा था। उसके पीछे आ रहा दूसरा बालक उन तीनों में से सबसे छोटा है मुश्किल से 7-8साल का, उसने भी अपनी बगल में एक पतला का कम्बल दबा रखा था। सबसे पीछे वाला बालक 9-10साल का, जिसने अपनी पीठ पर स्कूल बैग टांग रखा था।
                      बच्चे, और वो भी अकेले, निश्चित ही घर से से भागे हुए.....कोई मां-बाप नहीं भेज सकता ऐसे अपने जिगर के टुकड़ों को मौत के मुँह में, किन्नर कैलाश के खतरनाक रास्ते पर....जहाँ हमारे जैसे को भी घर वालों के आगे कई पापड़ बेल कर आना पड़ता है.....यह सोचते ही मेरे मन में चिंताजनक विचारों की उथल-पुथल आरंभ हो जाती है!
                                              
                                                 (क्रमश:)

               



देवदार अब कहीं-कहीं ही नज़र आ रहा था, निरंतर नीचे दिख रहा सतलुज घाटी का दिलकश दृश्य इस पदयात्रा का सबसे हसीन पहलू साबित हो रहा था।

मानसरोवर झील से बह कर आ रही सतलुज पर बना शांगटांग पुल।

आधिकारिक यात्रा के समय कंगरिंग गाँव से पांच घंटे की चढ़ाई के बाद "सेरियो" नामक इस जगह पर रहने-खाने की व्यवस्था हो सकती है, परन्तु उस वक्त उस ढाबे के केवल अवशेष ही बकाया थे।

सेरियो के बाद "गिरिराज की सखी पगडंडी" हम पर कुछ समय के लिए रहम कर अपने-आप को सीधा-सपाट कर लेती है। 

 अब नंदू की भूख जाग उठी है, सो पगडंडी पर हम दोनों जजों ने अपनी कचहरी लगा 'बंदी बिस्कुटों' की उम्र कैद को मृत्युदंड में बदल डाला...! 

  नंदू इस दृश्य को देख मुझे कहता है- "यार विक्की, रात के अंधेरे में जब उस पहाड़ पर रिकांगपिओ शहर जगमगाता होगा तो यहाँ से देखने में कितना खूबसूरत लगता होगा।"

रिकांगपिओ शहर का विहंगम दृश्य।

इनकी पीठ पर लदे जरनेटर, गैस के सिलेंडर आदि से ज़ाहिर हो रहा था कि वे ढाबा-टैंट वाले हैं जो मलिंगखट्टा से वापसी कर रहे हैं।   

"डेज़ी" जाति के पहाड़ी फूलों की झाड़ियाँ यहाँ-वहाँ सजावट के गुलदस्ते बन खड़ी थी।

और, मैं अपनी तुंगमापी घड़ी पर देखता हूँ कि ये फूल पहाड़ की कितनी ऊँचाई पर आने शुरू हुए हैं।

आखिर पौने चार बजे हम चलते-चलते वहाँ तक पहुँचते हैं, जहाँ से सामने ऊपर की तरफ देखते हुए मलिंगखट्टा (गणेश पार्क) के हमें प्रथम दर्शन होते हैं।

मलिंगखट्टा, एक बड़ी सी वृक्ष विहीन भूमि जिस में नीले रंग की तरपाल से बना एक ढाबा और जंगलात की इमारत नज़र आने लगती है।

मलिंगखट्टा से ज़रा सा नीचे लगे इन फूलों वाले पेड़ का नाम "ख़ौग़्" है, यह भी देवदार की एक जाति है।

और, मेरी दायी तरफ बर्फ से लबालब वो गिरिराज अब अपनी विशालता मुझे दिखा रहे थे, जिन्हें मैं नीचे से ऊपर चढ़ता हुआ निरंतर देखता आ रहा था।

अब हमें पगडंडी शिखर की उसी दिशा की ओर ले जा रही थी, जहाँ नीली तरपाल वाला ढाबा दिखाई पड़ रहा था। 

मलिंगखट्टा के पीछे, बादलों से घिरा पर्वत शिखर...इसी पर्वत पर हम सुबह से चढ़ते आ रहे थे।

मंजिल सामने देख नंदू मुझे कहता है- "मैं जल्दी-जल्दी ऊपर ढाबे पर जाकर रोटी पानी की व्यवस्था देखता हूँ,  तू अपनी चाल से चला आ!"   पगडंडी पर चला जा रहा नंदू।

  और, साढ़े चार बजने से दस मिनट पहले मैं भी मलिंगखट्टा, सीताराम के ढाबे "निखिल टैंट हाऊस" के नीचे पहुँचता हूँ...तो नंदू ऊपर से भागा-भागा मेरे पास आकर कहता है कि इस ढाबे वाले ने तो मना कर दिया कि शाम के इस वक्त उसके पास कोई खाना नहीं है।

ज़रा सा सोच कर सीताराम जी बोले- "आप टैंट में चलकर आराम करें, मैं आपके लिए दोपहर की बची दाल के साथ चावल बना देता हूँ " और यह कहकर सीताराम जी हमारे आगे-आगे चल देते हैं रसोई की तरफ।

   वहाँ पहाड़ की ढलान पर उन्होंने छह-सात टैंट लगा रखे थे, सीताराम जी के इशारे पर नंदू तो एक टैंट में चला जाता है।

 सीताराम जी अपने स्टोव में मिट्टी का तेल डाल हमारे लिए चावल बनाने में जुट गए और मैं चल देता हूँ टैंट की ओर। 

टैंट में नंदू पसरा पड़ा है, मैं भी उस साथ जाकर चौड़े में पसर जाता हूँ।

लेटते ही तुंगमापी घड़ी पर आदतन नज़र दौड़ाता हूँ- मलिंगखट्टा की समुद्र तल से ऊँचाई 3520 मीटर।

 नंदू की तरफ से कोई भी हुंगारा अब ना आता सुन, मैं ज़रा सा उठकर नंदू को देखता हूँ....वह मेरी बातें सुनता-सुनता गहरी नींद में सो गया है।

"मल्लिका मसूर की दाल व चावल"

 पहला चम्मच मुँह में रखते ही तृप्ति की अनुभूति होती है। 

आधे-पौने घंटे बाद मैं अकेला ही उठकर टैंट से बाहर आ जाता हूँ क्योंकि मुझे सूर्यास्त देखने का लालच है।

टैंट से बाहर निकल चारों ओर नज़र दौड़ता हूँ।

शाम की सुनहरी धूप में "रंगकूम्मो" पर्वत और ज्यादा आकर्षक नज़र आने लगता है।

मेरी जिज्ञासाएँ ही मुझे सीताराम जी के पास दरअसल खींच लाती हैं।

सीताराम जी पीछे मुड़कर मुझे इसी पहाड़ का शिखर दिखाते हैं, जो उनके ढाबे के बिल्कुल पीछे ही है- "यह देखिए इस पर्वत शिखर की बनावट में भगवान गणेश की शक्ल नज़र आती है, इसीलिए इस जगह का नाम गणेश पार्क पड़ गया।"

तभी हमारे पास ही बैठा सीताराम जी का नेपाली नौकर हमारे बीच में एकदम से बोलता है- "अरे, वह देखो...ये छोटे-छोटे बच्चे कहां चले आ रहे हैं..!!!"

 "छोटे बच्चे" शब्द सुन हमारा ध्यान और नज़र उन तीनों बच्चों पर जा ठहरती है.....जो अभी हम से  दूर हैं और हमारी ओर चढ़े आ रहे हैं। सीताराम जी उन्हें देख बोलते हैं- "ये बच्चे घर से भाग कर कैलाश जाने के लिए आए हैं!!"

और, ये रहे वो तीनों बच्चे....मेरे पाठक दोस्तों।
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16 टिप्‍पणियां:

  1. विकास जी आपकी भाषा पर अच्छी पकड़ है भोले बाबा जी अपने भक्तों की पूरी परीक्षा लेते है तभी उनके सभी धाम काफी ऊंचाइयों पर है भोले बाबा आपको ऐसी ही हिम्मत देते रहे जय भोले बाबा जी की

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    1. बेहद धन्यवाद जी,परन्तु मुझे आपका परिचय नही प्राप्त हो रहा.....अपने गूगल पर अपना नाम लिख कर उसे अपडेट करें जी।

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  2. बचपन इंसान का वो प्यारा सा वक्त होता हैं जो जिंदगी भर याद रहता है और जीवन को ऊर्जा देता रहता है। ये मासूम बच्चें उस बियाबान में क्या कर रहे है? अब इसका जवाब हमें चैन नही लेने देगा☺️ जल्दी से आगे की क़िस्त लिखो।
    नन्दू के साथ हम भी विक्की ही बोलेंगे।☺️ ये यात्रा बहुत कठिन हैं विक्की।

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    1. Haha Haha.....आप का चैन बेचैन करने के लिए ही मैने इस घटना को आखिर में लिखा है जी, कि कुछ रोचकता कुछ सस्पैंस भी होना चाहिए।

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  3. बेहतरीन विवरण, नंदू भाई को तरीके से मानना, बचपन मे लौट कर आ जाना,ढंग से खाना बनवाना ओर कदम कदम में मौत से खेलना,जरा से लापरवाही सीधे स्वर्गे की यात्रा। एक दुर्गम यात्रा। बहुत ही बढ़िया।

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  4. बहुत सुन्दर विवरण

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  5. Heading ग़ज़ब है घर से भागे....याने आधिकारिक यात्रा समय में यात्रा 3 दिन की बजाये 4 ता 5 दिन में कर सकते है
    पहला दिन सेरियो
    दुसरा दिन गणेश पार्क या वन विभाग की गुफा
    तीसरा दिन दर्शन करके गुफा
    आगे जैसे शक्ति....
    सेरियो की जानकारी सही है
    जज कचहरी मृत्युदंड....
    आपने acclimitisation के बारे में एकदम सही कहा
    क्या लाइन लिखते है आप कभी अपने पलंग के नीचे भी लाठी फेर के देख
    सीताराम जी के पास आराम न करके आप चले गए तो लगा ही की बाते करके जानकारी पता करोगे
    या कही रंगकुम्मो पर्वत की बात तो नहीं करोगे चढ़ने की
    ये इतने छोटे बच्चे कहा जा रहे है
    बहुत अच्छा शानदार लेखन मजा आ गया

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    1. बेहद धन्यवाद प्रतीक जी, अभी सीताराम जी से मैने केवल दो ही तो प्रश्न पूछे थे कि ये घर से भागे बच्चे आ गए....सीताराम जी से हुई बातचीत का निचोड़ अगली किश्त में हाज़िर करूंगा जी।

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  6. हमेशा की तरह शानदार लेख ...👌👌
    आपकी लेखन शैली साधारण होकर भी विशिष्ट है....
    घटनाओं का ज्यों का त्यों वर्णन , जैसा महसूस किया वैसा का वैसा शब्दों में समेट लेते हो और फिर पाठकों को परोस देते हो।
    कोई मिलावट नही... शुध्द देशी घी
    जिसकी सुगंध दूर से ही आ जाती है....

    लेख बिना अपनी मौलिकता खोए शुरू से आखिर तक बांधे रखता है।

    8 की.मि. में 1500 मि.hight gain मतलब काफी कठिन ट्रेक है भाई जी .....
    जून 2019 की घटना से पाठको को निश्चित ही सिख मिलेगी कि किसी के देखा देखी कहीं भी मुँह उठाकर नही चल देना चाहिए नही तो मुँह दिखाने लायक नही रहेंगे।
    😃😃

    अब उन 3 बच्चों की चिंता हो गई मुझे....
    देखते हैं क्या होता हैं?
    एक निवेदन है भाई आप अगला भाग कोशिश कर के थोड़ा जल्दी पेश कर दे तो बेहतर रहेगा.....
    दो कड़ियों के बीच काफी समय हो जाता है।🙏🙏

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    1. सुमधुर आभार मनोज जी, उन तीनों बच्चों को देख कर मैं भी बहुत विचलित हुआ था....आगामी किश्तों में वर्णन करूँगा, बाकी रही अगली किश्त जल्दी लिखने की बात...तो कभी लगातार हर रोज़ ही लिखता रहता हूँ तो कभी कई दिनों तक एक शब्द भी लिखने का मन नहीं होता, जैसे इस किश्त को प्रकाशित किये हुए मुझे 6दिन हो चले हैं, अभी मैने इसे आगे लिखना आरंभ भी नहीं किया।

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  7. गहरी से गहरी बात हल्के फुल्के शब्दों में 💖 और दिमाग दोनो में पूरी तरह घुसाने की कला है आपके पास । वैसे बीच मे सोने का मतलब जे है कि नंदू भाई शायद स्पीड बढ़ाने का सुझाव देने वाले हैं 🤣🤣🤣
    अगर सीताराम जी जैसा जबाब देने वाला मिल जाये तो लोकल बन्दे से बहुत से राज #निकलवाये जा सकते हैं । निकलवाने से तात्पर्य यही है कि आपको पूरी रुचि लेते हुए कुरेदना पड़ेगा, आग चाहिए रो 😊

    बच्चों की भोले के प्रति दीवानगी अच्छी लगी हालाँकि परिवार को भारी पड़ रही होगी और खतरनाक तो है ही ।

    झज्जर वाले लड़के और साथी का हाल पढ़कर रूह कांप गई हालाँकि ऐसा अधिकतर अपनी ही गलती या घमण्ड की वजह से होता है ।

    गिरेबान में झाँकने का पर्यायवाची बढ़िया लगा यदि इसके पीछे भी कोई कहानी हो तो कृपया साझा करें 😊

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    1. सुमधुर आभार कौशिक जी, नंदू की जल्दबाजी हमें विपदा में डालने वाली है....लोकल बंदों से बात निकलवाने में मैं महारत रखता हूँ जी, घर से भागे बच्चों की कथा अगले भाग में उजागर करूँगा जी....बाकी अपने गिरेबान में झाँक कर ही तो मैं कहता हूँ कि मैं भी बहुत बड़ा घमण्डी हूँ।

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