भाग-19 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर.....
" आँखों की पुतलियों का पुतली बन नाचना "
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22जुलाई, 2016...............लूनावाडी स्थान से चाय पीने के बाद कोई आधा घंटा चले, और एक मोड़ आया जिस पर एक टैंट गड़ा था व उसके आगे एक बोर्ड लगा था... जिससे ज्ञात हो गया कि हम श्री खंड महादेव यात्रा के अंतिम पड़ाव "भीमद्वारी" पहुंच चुके हैं.... समय चार बज चुके थे, जैसे ही मोड़ मुड़ कर आगे बढ़े... तो दूर धुंध में एक धुँधली सी बस्ती नज़र आई और एकाएक वहाँ क़ुदरत का करिश्मा देखा दोस्तों, कि दूसरे ही पल हवा का एक झोंका उस धुंध को अपने संग उड़ा ले गया.... और वह धुँधली सी बस्ती एकाएक हमारी आँखों के समक्ष निखर आई, और विशाल रतन जी अपना चिरपरिचित तकिया कलाम बोल उठे "औसम्"
जैसे-जैसे किश्तों में हवा धुंध को पीछे धकेल रही थी, वैसे-वैसे ही किश्तों में भीमद्वारी की विहंगम दृश्यावली हमारे समक्ष प्रकट हो रही थी... तीनों तरफ ऊंचे-ऊंचे पर्वतों के मध्य एक बेहद बड़ी मैदान नुमा ढलान और उस ढलान में जहाँ तक मेरी नज़र जा रही थी, यात्रा सम्बन्धी टैंट ही टैंट नज़र आ रहे थे..... लूनावाडी में हमें दुकानदार ने सलाह दी थी कि भीमद्वारी में जितना हो सके आख़िर वाले टैंटों में ही रुकना... ताकि कल सुबह जल्दी जाने में आपका अगला रास्ता कुछ कम हो जाए, इसलिए हम दोनों ने कई सारे शुरूआती टैंट तो ऐसे ही बगैर देखे पार कर दिये.... कुछ मध्य में पहुँचें तो एक मस्कुरातें से चेहरे ने बड़े प्यार से हम से पूछा, "भैया टैंट" ......... वो "नवनीत" था, और हमने आगे जाने का विचार छोड़ हंसमुख से नवनीत के मेहमान बनना मुनासिब जाना......
दो जन योग्य अंग्रेजी तम्बू में हम दोनों जन पहुँच चुके थे और साथ ही साथ चाय व पचास-पचास वाले बिस्कुट भी आ पहुँचें.... धुंध ने फिर से भीमद्वारी पर अपना कब्जा जमा दिया था, सो अब कुछ नज़र नही आ रहा था... सो चाय पी कर लमलेट होना इन थके शरीरों की मजबूरी थी..... मजबूर शरीर एक ढेड घण्टा लेट कर फिर से मजबूत बन गया तो मैं झटके से उठ, फिर से बाहर देखने की चाह ले...टैंट से बाहर निकला तो सामने पहाड से गिरता झरना देख, विशाल जी को जोर- जोर से आवाज़ें लगाने लगा कि आप का "औसम्" फिर से आ गया जनाब जी ....!!!
मैं और विशाल जी अभी उस झरने की सुंदरता को पचा नही पाये थे कि एकाएक धुंध हटी और विशाल जी चीखे, " विकास जी उस तरफ देखो..! " और अब मेरी आँखें भी विशाल जी की आँखों की तरह ही जम चुकी थी.... वो "पार्वती झरने" के प्रथम दर्शन थे दोस्तों..... तभी प्रकृति देवी को हम गरीबों पर दया आ गई और उसने धुंध को नीचे घाटी की ओर निरिक्षण करने भेज दिया.... तो अब सम्पूर्ण भीमद्वारी नज़र आ रहा था, हमारी आँखों की पुतलियाँ अब "पुतली" बन नाच रही थी, कभी सामने "मटरनडी पर्वत शिखर" पर जा रही सूर्यास्त की स्वर्णिम किरणें देखती, तो मध्य दुधिया झरना दिखता, फिर एकाएक पार्वती झरना पर जा पहुँचती.... परन्तु मेरी आँख की पुतली को कहाँ चैन, फिर उछलती और "रोपा पर्वत " के शिखर छू कर "कुंशा पर्वत" तक पहुँच....फिर से मटरनडी पर्वत पर पहुँच जाती, बस यह ही क्रम मुझे गोल-गोल घूमाता रहा....... कि विशाल जी फिर बोले, " वो देखो विकास जी, पार्वती झरने के पास भेड़ों का कितना बड़ा झुंड...!" वे भेड़े दिन भर चर कर अपने डेरे की ओर वापस आ रही थी......
दोस्तों, यह रमणीक स्थल मेरे जीवन के देखे हुए बेशुमार पर्वतीय स्थलों में सबसे अधिक सुंदर है....मैं तो कहता हूँ कि इस की प्राकृतिक सौम्यता के आगे "गुलमर्ग" के रंग भी फीके है...!!!
वहीं टैंट के बाहर खड़े-खड़े नवनीत के पिता संसार चंद जी से हमारी भेंट हुई तो मुझ जिज्ञासु व व्याकुल व्यक्ति के प्रश्नबाण, दिमाग़ रुपी तरकश से निकलने आरंभ हो चले..... ये क्या, वो क्या, ये ऐसे क्यों है, वो ऐसे क्यों है, आदि-इत्यादि...!!! आप लोग इतना सामान इतनी दूर नीचे से ऊपर कैसे ढो कर लाते हो, हर वर्ष वार्षिक यात्रा के लिए....... तो संसार चंद जी ने उत्तर दिया कि इनमें जो सामान खराब होने वाला नही होता, उसे हम लोग एक गड्ढा खोद... उसमें भर कर ऊपर से मिट्टी डालकर बंद कर जाते हैं, सारी सर्दियाँ उन पर पचासों फुट बर्फ जमी रहती है और बर्फ पिगलने के बाद अगली वार्षिक यात्रा शुरू होने के एक महीने पहले हम पुन: यहीं लौट कर आ, उन गड्ढों को फिर से खोल कर अपना सामान निकाल कर टैंट आदि लगाने शुरू कर देते है.... कई बार तो बचा हुआ सूखा राशन भी इन गड्ढों में रख जाते हैं और ताज़ुब भी बात है, वह राशन भी बिल्कुल उसी हालत में ठीक-ठाक मिलता है, जिस हालत में हम उसे रख कर नीचे अपने गाँव चले जाते हैं.....
और, बातें करते-करते संसार चंद जी हमें भीमद्वारी के प्रसिद्ध "लाल पानी" दिखाने ले जाते है, जो उनके टैंटों से कुछ ही दूरी पर था..... पहाड में से भूमिगत रूप से जल निकल रहा था और जल बहने वाली सारी भूमि व चट्टानें लाल रंग से रंगे पड़े थे, संसार चंद जी ने कहा कि यहीं भस्मासुर की जीवन लीला समाप्त हुई थी.....
दोस्तों, स्थानीय लोगों की विश्वास है कि एक राक्षस प्रवृति व्यक्ति ने तपस्या कर भगवान शिव से एक घातक वर माँग लिया कि मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूँ वो भस्म हो जाए, वर प्राप्ति के उपरांत वह व्यक्ति "भस्मासुर" नाम के जाना जाने लगा.... तत्पश्चात भस्मासुर माता पार्वती पर मोहित हो कर, उसके कपटी मन में कपट जागृत हो गया तो वो अपनी घातकता भगवान शिव पर आज़मानें लगा, तो भगवान शिव उस कपटी राक्षस से इस पर्वतीय क्षेत्र श्री खंड में लुक-छिप कर बच रहे थे..... भगवान शिव की विवशता को जान भगवान विष्णु ने मोहनी रूप धारण कर भस्मासुर को अपने रूप के जाल में फंसा... नृत्य करते हुए उसका अपना हाथ ही उसके सिर पर रखवा दिया और वो कपटी भस्मासुर स्वयं ही भस्म हो गया.....!!!
दोस्तों, सच बात बोलता हूँ ज़रा सी कड़वी तो होती है ही मेरी बातें.... मैं संसार चंद जी से बोल उठा कि ठीक इसी प्रकार की कहानी मैने मध्य प्रदेश भ्रमण के दौरान "पंचमड़ी" नामक पर्वतीय स्थल पर भी सुनी थी, अब किसे सत्य मानूँ...! खैर दोस्तों, तर्क बुद्धि इंसान हूँ....पर हिन्दू हूँ तो सब कुछ जानते- समझते हुए भी उन पुरातन लोक-कथाओं को सुनना व सुनाना मुझे आप लोगों की तरह ही अच्छा लगता है, क्योंकि इनमें से हमारे धर्म की प्राचीनता व भव्यता प्रकट होती है.......
मैने अपनी अंजलि में भर कर उस लाल पानी का स्वाद चखा, जो देखने में लाल रंग का नही बल्कि सामान्य पानी ही लग रहा था.... परन्तु उसका स्वाद सामान्य नही अपितु ज़ंग लगे पानी जैसे था, और मैने विशाल जी से कहा कि दरअसल इस पहाड की चट्टानों का रंग काला होने से यह बात साबित होती है कि इन चट्टानों में लोह तत्त्व की बहुतायत है.... और यह जल रिसता हुआ इनके सम्पर्क में आने के कारण रासायनिक क्रिया का शिकार हो चुका है.... इस जल के यदि हम चार घूंट पी ले तो, हमारे उदर में भी रासायनिक क्रियाएं आरंभ हो जाएगी, इस जल को पचाना बेहद कठिन है... लौहयुक्त चट्टानों के साथ पानी और हवा के मिल जाने पर उन पर ज़ंग जैसा लाल रंग लगा हुआ है जी, यदि अतीत में मेरे परदादा जी अपने समय में यहाँ पहुँचतें तो अवश्य इस को देख कर चकित रह जाते और यदि भविष्य में मेरे पड़पोतें यहाँ पहुँचेंगे तो शायद इस पहाड पर यह लाल पानी का स्रोत भी "ग्लोबल वारमिंग" की वजह से विलुप्त हो जाए.... और बर्फ केवल माउंट एवरेस्ट की चोटी पर ही मौजूद हो....!!!!!
अग्रिम यात्रा की पूछताछ पर संसार चंद जी ने कहा, "आपको कल मुंह-अंधेरे तीन बजे तड़के ही अपनी यात्रा प्रारंभ करनी होगी, तभी आप कल शाम तक वापस भीमद्वारी पहुँच पायेंगें...!!"
लाल पानी से वापस टैंट की ओर लौटते हुए विशाल जी एकाएक बोले, " हम कल की यात्रा के लिए एक गाइड साथ ले कर चलते हैं...! " मैने उनकी बात एक दम सिरे से दरकिनार कर दी और अहम भरे बोल बोला कि अब बचा ही क्या है, जो हमें किसी पथप्रदर्शक की आवश्यकता आन पड़ी है..... तो विशाल जी बोले, " नही, अब यात्रा का सबसे कठिन भाग शुरू होने वाला है... चाहे इस पथ पर सैकड़ों लोगों के पद चिन्ह हमारे संग-संग पड़ रहे हैं, परन्तु मेरा मन चाहता है कि मैं यहाँ से एक गाइड या मददगार संग लेकर श्री खंड जाऊँ, मुझे यह पूर्ण अहसास है कि विकास जी आपको किसी सहारे की जरुरत कम ही आन पड़ती हैं, परन्तु मेरी जरुरत है ताकि मैं इस कठिन यात्रा को पूर्णता का रूप दे सकूं...!! "
मैने फिर से कहा, " विशाल जी, मुझे आपका सहारा है और आपको मेरा... फिर क्यों तीसरे सहारे की आवश्यकता है, आप तो मुझे भलिभांति जानते ही है कि मैं अपने परिश्रम का श्रेय खुद ही लेना चाहता हूँ... क्योंकि मैं कुछ अंतर्मुखी, अड़ियल, अकड़ू व अहम से भरा हुआ इंसान हूँ..!!! "
मेरी बात सुन विशाल जी मंद-मंद मस्कुराएें और बोले, " देखिए विकास जी, हम हर वर्ष दो बार पर्वतारोहण के लिए निरंतर आ रहे हैं, पर्वतारोहण के लिए स्थान व कार्यक्रम आप ही निश्चित करते हैं, मैं तो बस आपके साथ चल देता हूँ... और यदि अतीत में देखे तो जमी हुई कमरुनाग झील की शीतकालीन ट्रैकिंग गाइड तुलसी दास की वजह से ही हम पूर्ण कर पाये थे और आपकी लमडल यात्रा की सम्पूर्णता का सेहरा भी राणा चरण सिंह के माथे पर है...!! "
विशाल जी की ये तर्कयुक्त बातें मुझ अड़ियल व्यक्ति के दिमाग़ की बत्ती जगा गई और मैने उन्हें तुरन्त गाइड साथ ले जाने की स्वीकृति दे दी.... और नवनीत को कहा गया कि वे हमारे लिए एक गाइड का प्रबंध करे.....!!!!!
............................(क्रमश:)
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लूनावाडी से आगे.... भीमद्वारी की ओर |
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भीमद्वारी से पहले..... प्रकृति को निहारता हुआ मैं |
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अंतिम पड़ाव को दर्शाता यह चित्रपट...... |
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और, मोड़ मुड़तें ही धुंध के कारण कुछ नही दिखाई दे रहा था...... |
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भीमद्वारी की शुरुआत..... |
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दोस्तों, क़ुदरत का करिश्मा...... पहले पल का दृश्य धुंध ने धुँधला कर रखा था, परन्तु दूसरे पल हवा ने उस धुंध को पीछे धकेल दिया और स्पष्ट दृश्य हमारे सामने था |
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भीमद्वारी के शुरूआती टैंटों को बगैर देखें ही हम आगे बढ़ते रहे... क्योंकि लूनावाडी में हमें दुकानदार ने सलाह दी थी कि भीमद्वारी में आखिरी टैंटों में रहना, ताकि अगले दिन की अग्रिम यात्रा का रास्ता कुछ कम हो सके... |
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जैसे-जैसे हम पगडंडी पर आगे बढ़ रहे थे.... हवा धुंध को पीछे धकेल रही थी |
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परन्तु धुंध के कारण भीमद्वारी का आखिरी छोर कहीं दिखाई नही दे पा रहा था.... |
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भीमद्वारी में मध्य रास्ते में एक मधुरभाषी आवाज़ ने हमारे कदम रोक दिये... और हम नवनीत के टैंट में ही रुक गए
वहीं से नीचे दिखाई देता श्री खंड सेवा दल का तीसरा लंगर.....जिसपर लाउड स्पीकर पर पहाडी गायक करनैल राणा का पहाडी भजन बज रहा था, "शिव पापीयों नू नहीं ओ मिलदें" |
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और, हम अंग्रेजी तम्बू में आ बैठे.... हमारे पीछे-पीछे ही चाय और पचास-पचास वाले बिस्कुट भी आ पहुँचें |
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कुछ आराम करने के पश्चात... जब मैं टैंट से बाहर देखने की चाह लेकर निकला, तो यह हसीन नज़ारा सामने था कि मटरनडी पर्वत पर सूर्यास्त की स्वर्णिम किरणें फैली हुई थी.... |
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औसम्.....औसम्..... औसम् |
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तभी धुंध हटी... और मैं चीखा, " विशाल जी वो देखो कितना खूबसूरत झरना...! " |
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वाह....क्या हसीन जल-प्रपात है |
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तभी विशाल जी ने कहा, " वो इस ओर देखो महाराज...कितना विशाल झरना है "
यह पार्वती झरने के प्रथम दर्शन थे, दोस्तों |
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झरने से ऊपर पार्वती बाग के पर्वत के मध्य भेड़ों का झुंड, जो इस चित्र के मध्य में देखे दोस्तों |
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दोनों जल-प्रापतों का चित्र.... |
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सारा दिन चरने के बाद भेड़ों का झुंड....अपने डेरे पर वापस आते हुए |
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भीमद्वारी के प्रसिद्ध लाल पानी के बहाव के कारण भूमि भी लाल हो गई.... |
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लाल पानी का मुहाना... |
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संसार चंद जी को "निचोड़ता" हुआ मैं व्याकुल इंसान |
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अपने जीवन में देखे हुए बेशुमार पर्वतीय स्थलों में... सबसे हसीन भीमद्वारी है ही है...... |
भारी सामान ये टैंट वाले जमीन में गड्ढा खोदकर दबा जाते हैं अपनी यात्रा के दौरान हम जिस टेंट में रुके थे उसने भी लगभग यही जानकारी दी थी।
जवाब देंहटाएंयहां आकर जो नजारे दिखते हैं वह पूरी यात्रा के सबसे शानदार नजारे होते हैं
और आपकी यह बात पड़पोते वाली, पड़पोते आएंगे देखेंगे कि जंग लगा पानी मिलता है कि नहीं,
बिल्कुल सही है हो सकता है तब तक दुनिया में बहुत कुछ बदल जाए
जी संदीप जी, भीमद्वारी श्री खंड क्षेत्र का सबसे मनोरम स्थल है...जब थका हारा यात्री यहाँ पहुँचता है तो यह प्राकृतिक सौंदर्य देख तरोताज़ा महसूस करने लगता है......
हटाएंआप जिस तसल्ली से अपनी 'व्याकुलता' को शब्दों मे ढालते है, पाठक भी व्याकुलता और तसल्ली, दोनो ही भाव से पढ़ता है. बेहद खूबसूरत नज़ारे और यात्रा व्र्तान्त
जवाब देंहटाएंजी..... बेहद धन्यवाद जी
हटाएंगर बरूऐ जमी अस्त !
जवाब देंहटाएंअमी अस्त अमी अस्त अमी अस्त!!
भले ही कश्मीर के लिए कहा हो पर शायद उन्होने हिमाचल और उत्तरांचल नही देखा होगा शायद।
धर्म के पीछे का वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही हमें अंधभक्ति से बचाती है। संसार संबंधों की श्रृखला ही तो है जी कभी हम सहायतार्थ होते है कभी सहायताप्राप्त।
और अंत में, पहले की तरह दर्शन से भरा सुदंर यात्रा वर्णन। ऐसे सफर तो मंजिल से भी ज्यादा हसीन है जी। 😊😊
पहले तो आग घी के सहारे जल रही थी, भीमद्वारी ने सोडियम डाल दिया।😃
अब तो बस पैर मजबुत करने है,मध्य हिमालय के दयारा बुग्याल देखे दो साल हो गये।
अनुराग जी, बेहद सारा आभार.....छोटी उमर से ही एक फिल्मी गाना सुनता आ रहा था " यह कश्मीर है, यह कश्मीर है...!! " कश्मीर की सुंदरता को बाकी देश की पर्वतीय स्थलों की सुंदरता को पीछे कर फिल्मी जगत ने खूब उछाला.....मैं पिछले साल पहली बार परिवार के संग कश्मीर भ्रमण पर गया था.... और मेरे कश्मीर दर्शन के अनुभव मुझे संतुष्ट नही कर पाये.....बचपन में जैसा कश्मीर मैने फिल्मों में देखा था, वो नही देख पाया..... इसके पीछे मुख्य कारण आपकी मानसिक स्तिथि है, जो कश्मीर के माहौल में खुद व खुद बिगड़ जाती है..... बाकी इस विषय पर कुछ चर्चा मेरी अगली किश्त में भी है........जी
हटाएंऔर एक बात, आपके अंतिम शब्दों के बारे में... यदि भोजन स्वाद लगे तो उसे हिसाब, संयम या भूख रख कर खाना चाहिए, नही तो या तो आपका पेट खराब हो जाएगा.. या फिर उस व्यंजन से आपका मन भर जाएगा......... जी, और निकल चले हिमालय की ओर, हर बुग्याल आपकी राह दे रहा है जी
वाह बहुत बढ़िया जी, वैसे बादल और कुहरे से ढके पहाड़ मुझे बहुत अच्छे लगते हैं, बहुत ही विवरण, अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी , झरने बहुत खूबसूरत लग रहे हैं , वाह भष्मासुर वाली कहानी बहुत अच्छी लगी, कहते हैं की वरदान देने के बाद जब भस्मासुर ने शिव जी पर उस वरदान की सत्यता देखनी चाही तो शिव जी जहाँ जाकर शरण ली वो बिहार के सासाराम के पास गुप्तेश्वर धाम है, जहाँ का रास्ता भी बहुत मुश्किल है
जवाब देंहटाएंजी हां अभय आनंद जी .... मैने घुमक्कड़ी दिल से ग्रुप में मुकेश पांडे जी की गुप्तेश्वर यात्रा को पढ़ा था..... जी, बेहद धन्यवाद जी
हटाएंबहुत ही उम्दा लेख भाई साहब।
जवाब देंहटाएंओर आपकी वो ग्लोबल वार्मिंग वाली बात तो दिल को छू गयी।
ओर हाँ,
जब मैंने यह सामान वाली बात किनोर कैलाश यात्रा में मिले दुकानदार से पूछी तो उसका जवाब इसके विपरीत था
उसने कहा था कि समान बचे तो , वो नीचे उसे लेकर ही जाते हैं।
ओर भीमद्वारी के दृश्य वाकई मोहित करने वाले हैं।। आगामी लेखों का इंतजार रहेगा।
इति शुभम
बेहद धन्यवाद अक्षय जी, किन्नर कैलाश यात्रा में गणेश पार्क में लगे ढाबें एक तो तंगलिंग गाँव से केवल 10किलोमीटर की दूरी पर है...इसलिए ढाबें वाला अपना सब नीचे वापस ले आते हैं.... परन्तु भीमद्वारी की दूरी इस दूरी से तीन गुणा है..... और मैने गणेश पार्क में देखा कि दुकानदार लोहे की पेटियों में अपना सामान रख कर उन्हें वहाँ ही छोड़ कर आ रहे थे.....
हटाएंAwsome आ गया आपका सही लिखा है वैसे आप अहम् से भरे इंसान तो लगते नहीं खैर बहुत अच्छी पोस्ट
जवाब देंहटाएंप्रतीक जी, आदमी को खुद ही अपनी बुराईयाँ पता होती है... जी
हटाएंWow.... Learnt lot of new points, awesome clicks. Amazing
जवाब देंहटाएंअनेक धन्यवाद, गांधी साहब।
हटाएंबहुत बढ़िया लेख । आपकी लेखनी से सुंदरता का बखान सुन सुनकर जाने का मोह बन रहा है लेकिन जानती हूं ये दिल बहलाने की बाते हैं । लेकिन 30 साल पुराना जोश और ताकत होती तो जरूर यहां जाती 👍
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद जी।
हटाएंजमीन में खाना भरकर वो लोग चले जाते है और प्राकृतिक फ्रिज उसको खराब नही होने देता क्या दिमाग हैं लोगो के पास
जवाब देंहटाएंजी हाँ, जी।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद अनुराग जी।
हटाएंभाई जी
जवाब देंहटाएंअगले जन्म में जरूर इस यात्रा को करना चाहूंगा।।
क्योकि स्वास्थ्य कारणों से इस जन्म में सम्भव नही ।।
पर आपका लेखन मुझे काफी हद तक इस यात्रा में अपने साथ ले चल रहा है
बेहद धन्यवाद धीरेंद्र जी....आस करता हूँ कि आप जन्म में ही यह यात्रा अवश्य करें।
हटाएंEk numbar
जवाब देंहटाएंबेहद धन्यवाद जी।
हटाएं