रविवार, 18 जून 2017

भाग-9 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर....Shrikhand Mahadev yatra(5227mt)

भाग-9 श्री खंड महादेव कैलाश की ओर.....
                                 "मन्नत" 

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                                       मैं और विशाल रतन जी श्री खंड महादेव कैलाश पदयात्रा की पहली अग्नि परीक्षा "डांडा की धार " यानि डण्डे के समान सीधी खड़ी चढ़ाई पर,  सुबह के पांच बजे अंधेरे में पगडंडी पर अपनी टार्च की प्रकाश-परिधि का पीछा करते हुए चढ़ रहे थे... उस समय जंगल में शायद हम दोनों ही उस अंधेरे में चल रहे थे, क्योंकि एक घंटे के करीब हमें चलते-चलते बीत चुका था... परन्तु कोई भी आने-जाने वाला पदयात्री हमें नही मिला,  उस डंडा धार की चढ़ाई ने हमें बिल्कुल हल्की सी राहत दी कि चंद मीटर का कुछ समतल सा भूभाग राह में आया..... और वहीं रुक मैने श्रीमती जी द्वारा घर से चलते समय दिये केलों को अपनी रक्सक से निकाला... वो सिर्फ चार ही केले थे,  जिनमें से दो तो हम कल अपनी पदयात्रा शुरु करते समय खा गए थे,  बचे ये दो केले मैने अपनी रक्सक में डाल लिये थे....
                     दोस्तों, जीवन में अब तक हजारों दर्जन केले खा लिये होगे... परन्तु अपनी केरल यात्रा के समय खाया लाल रंग का केला और इस पदयात्रा पर खाया वो बेचारा केला (जिसे रक्सक में पड़े हुए बाकी सामान ने दबाब में ले लिया था) के स्वाद को जीवन भर याद रखने की कोशिश में हूँ..... क्योंकि यदि आप अपनी यात्राओं के अनुभवों को उस यात्रा के दौरान खाई हुई वस्तुओं के साथ जोड़ दें,  तो नतीजा एक बेहद मीठी याद के रुप में निकलता है... उस याद की मिठास तमाम उमर आपकी जीभ और दिमाग पर हावी रहती है......
                      सुबह के साढे पांच बजे कुछ-कुछ चानन(प्रकाश) सा होने लगा,  पेड़ों का रंग काले से अब हरा नज़र आना शुरु हो गया और कुछ इक्का-दूक्का यात्री भी मिलने लगे, हम बराहटी नाले से काफी ऊपर आ चुके थे...इतनी ऊपर कि अब चैल घाटी में बसे गाँव भी नज़र आने शुरु हो गए थे....घने जंगल और पेड़ों के झुरमुटों में अब कुछ कमी हो रही थी क्योंकि हम पहाड की काफी ऊँचाई पर आ चुके थे,  परन्तु इस पहाड का मुझे कहीं भी कोई शिखर नज़र नही आ रहा था....
                      रास्ते में एक तम्बू लगा आया तो मैने कहा कि, "विशाल जी यह भी लंगर ही लगता है, परन्तु अभी तो बंद है...शायद ये लोग सो रहे है "       तो विशाल जी ने कहा, "नही,  वो देखो तम्बू के पीछे हिस्से में से धुआँ उठ रहा है..ये लोग जाग चुके है,  आवाज़ लगाते हैं शायद कुछ चाय-नाश्ते का इंतजाम हो जाए "       और एक आवाज़ पर ही टैंट के दरवाजे पर लगे परदे खोल दिये गए व हमें अंदर आने के लिए कहा.... अंदर आए तो देखा कि वह टैंट कोई लंगर नही बल्कि अस्थायी दुकान है,  जिसमें वह दुकानदार लड़का अब जल्दी-जल्दी बिस्कुट व नमकीन के पैकेटों की लड़ियाँ टांग रहा था और कुछ नमकीन व मैगी की लड़ियाँ तम्बू के बाहर टांग दी गई,  जिससे वह तम्बू अब पूर्णता दुकान प्रर्दश्ति होने लगा........ अब हम उस खुले व साफ-सूथरे टैंट के अंदर बैठे थे, जिस के एक कोने में कई सारे कम्बलों की तह पड़ी थी......
                       यह सब देख,  मेरे प्रश्न-बाणों का रूख अब दुकानदार की तरफ होना ही था.....सो प्रश्नों का उत्तर मिला कि," इस जगह का नाम रेऊश है और लंगर तो पीछे बराहटी नाले पर जूना अखाड़ा वालों का ही है,  यहाँ आप लोग रात रुक कर आ रहे हैं... उस लंगर के बाद जो दो-तीन तम्बू आपने रास्तें में अलग-अलग जगह पर लगे देखे,  वे लंगर नही हम स्थानीय लोगों द्वारा इस यात्रा के लिए लगाई गई दुकानें हैं.... जो हर साल इस यात्रा के शुरु होने से एक महीने पहले से यात्रा पथ पर लगनी आरम्भ हो जाती है,  जो यात्रियों को भोजन व रात्रि विश्राम की सुविधा प्रदान करती है..... ऐसी सैंकड़ों अस्थायी दुकानें आप को इस यात्रा पथ पर लगी हुई मिल जाँएगी.....!"
                        मैने उनसे रात्रि विश्राम का शुल्क जानना चाहा,  तो उन्होंने कहा, " मैं 200रुपये प्रति व्यक्ति लेता हूँ.. जिसमें रात्रि भोजन भी सम्मिलित होता है.... परन्तु जैसे-जैसे आप ऊँचाई की ओर बढ़ते जाएगें, रहने-खाने की कीमतें भी बढ़ती जाँएगी,  आपको प्रत्येक दुकान पर चाय-नाश्ता व निश्चित मूल्य पर भरपेट भोजन और रात काटने के लिए जगह व बिस्तर मिल जायेंगें "
                        दुकानदार की बात सुन कर विशाल जी ने मुझ से कहा कि, " विकास जी, कल रात बराहटी नाले वाले लंगर के तम्बू में धूँऐ से भरी रात काटने की बजाय यह टैंट कितना सुविधाजनक जान पड़ता है, हम अब अपनी आगामी यात्रा में अब किसी भी लंगर पर रात नही रुकेंगें... ऐसे ही किसी निजी टैंट पर अगली रात काटेगें....! "   मैने भी विशाल जी की बात पर हामी भर दी,  तो दुकानदार ने कहा कि, " वैसे भी अब अगले 25किलोमीटर में केवल दो ही लंगर लगे हुए है,  एक लंगर तो "थाचडू" पर, और दूसरा थाचडू से 11किलोमीटर की दूरी पर "भीम द्वारी" में मिलेगा.... वैसे दुकानों की कमी नही है,  अपनी सुविधा के अनुरूप आप खर्च कर सुविधाएं प्राप्त कर सकते हैं "
                        और,  फिर से चल दिये हम दोनों डगर पर... बम भोले के उद्घोष के संग,  सुबह के सात बजने को थे...कि पीछे से एक अकेला युवक नंगे पैर चलता हुआ हमसे आगे निकला,  तो उसकी रक्सक में त्रिशूल लगा देख... मैने उनको पीछे से आवाज़ दे रोक कर त्रिशूल के विषय में पूछा.... तो उन्होंने कहा कि, "मेरी और इस त्रिशूल की यह दूसरी श्री खंड यात्रा है,  पिछली यात्रा पर मैं भगवान शिव से एक मन्नत मांग कर आया था कि मन्नत पूरी होने पर ये ही त्रिशूल मैं दोबारा भगवान आपको चढ़ाने आऊँगा...!! "
                         मै उत्साहित हो कर बोला, " तो आपकी मनोकामना पूर्ण हो गई....!!! "    परन्तु उस युवक ने कुछ ढीले से शब्दों में कहा,  " जी नही... चार साल पहले मांगी थी मनोकामना, वह तो अभी तक पूर्ण नही हुई... परन्तु यह त्रिशूल जरूर भगवान शिव को चढ़ाने जा रहा हूँ, कि क्या-जाने आगामी जिंदगी कैसी और कौन सी करवट ले ले और मैं इस कठिन यात्रा को दोबारा कर ही ना पाऊँ...!!"
                          उन की ये बात सुन,  मैं व्यक्तिगत सोच की उधेड़बुन में फंस गया,  कि युवक की इस यात्रा में उसकी मनोदशा को.....अपने ईष्ट पर अथाह आस्था या फिर मन्नत ना पूरी करने का डर कहूँ या फिर "आस्था व डर का मिश्रण....!!!"
                           दोस्तों, मेरी एक "कटु सोच" आप संग बांट रहा हूँ कि, " भगवान और भक्त में यह मन्नत का व्यापार कब आरम्भ हुआ होगा.... जिस की रीत इस संसार के प्रत्येक धर्म में प्रचलित है,  इस रीति के पनपनें की तह तक सोचता हूँ... तो क्या किसी भगवान ने अपने भक्त को मन्नत का प्रलोभन दिया या फिर भक्त ने भगवान को,  कि मेरा यह कार्य कर दो... मैं आपकी सेवा में ऐसा करूंगा...!!! "
                           परन्तु दोस्तों मैं कुछ वास्तविक सोच का व्यक्ति हूँ.... ना चाहते हुए भी कटु सत्य बोल ही जाता हूँ, कि "महापुरुष इस धरा पर पैदा हुए और सत्य की राह पर चले,  धर्म व मानवता की रक्षा व सेवा के लिए के लिए तमाम उमर लगा गये..... ज्यादातर इन महापुरुषों ने अपने जीवन को सादगी व आर्थिक तंगियों में ही काटा,  अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को मानवता के संग ही बाँटा, चाहे हालात उनके विरुद्ध ही रहे हो"
                उन महापुरुषों के इस सांसरिक जहान से पलायन के उपरांत उनके नाम पर बड़ी-बड़ी धार्मिक इमारतें खड़ी हो गई, तमाम उमर भूमि पर सोने वाले महापुरुष के प्रतीक को आज सोने के सिंहासन पर बिठा पूजा जाने लगे,  निजी पूजा व दर्शन के मूल्य तय किये जाने लगे...और प्रचंड भव्यता से ग्रसित उस स्थान पर सम्मोहित या प्रभावित हुआ भक्त जाने-अनजाने में मन्नत नाम के व्यापार का हिस्सा बन जाता है, कुदरतन जिस भक्त की जायाइज़ मनोकामना पूर्ण हो गई (जायाइज़ मनोकामना से मेरा तात्पर्य है कि जो कुछ एक आम आदमी को अपने जीवन चक्र में चाहिए)  तो सौदा पार नही तो भक्त के ही फूटे कर्म या गलतियां,  क्या किसी भक्त ने कभी भगवान से यह मनोकामना मांगी कि मेरी बूढ़ी दादी को बी•ए• पास करवा दो, कम से कम किसी स्कूल में बच्चों को पढ़ा कर कुछ पैसे तो कमाने लगे.... नही ना दोस्तों,  हम सब की वही मिली-जुली मांगे है जिनका कुदरतन कम से कम पचास फीसदी तो पूर्ण होना तय है, उदाहरण पुत्र-प्राप्ति की मन्नत.... पुत्र हुआ तो वारे न्यारे.....!!
                          बाकी पचास फीसदी मन्नत उनकी पूर्ण होती है,  जो मेहनती भी होते है...अपने कर्म को पूर्ण करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाते हैं.....!!!
                          दोस्तों,  मैने अभी हाल में ही की हुई अपनी राजस्थान भ्रमण यात्रा के दौरान एक ऐसा अत्यन्त भव्य व विशाल धार्मिक स्थल देखा,  जिसके बारे में ये बात प्रचलित है कि इस भव्य स्थल को "तस्करों" ने बनाया है.... वहाँ पूछने पर उत्तर मिला कि, " ये भगवान सब की सुनतें है...!! "        
                           अफ़ीम की खेती होती रही उस इलाके में.....और इस स्थल का मासिक चढ़ावा ढाई करोड रुपये को पार कर,  राजस्थान का सबसे ज्यादा कमाई वाला धार्मिक स्थल बन गया है.... मैं तो कहता हूँ यह मन्नतों की एक दुकान ही है, जहाँ मन्नतें बिकती हैं कि भगवान ये माल पार लगा दो... "आधा तेरा..आधा मेरा "
                            इस कड़ी के अंत में बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि हमारा मनुष्य मन बेहद कोमल व चंचल है, जो हमेशा सहारे की चाह में रहता है... और वो सहारा धार्मिक, आध्यात्मिक, भौतिक व सांसारिक ही होता है.. दोस्तों

                                                           ................................(क्रमश:)
बराहटी नाले से ऊपर जंगल में रास्ते किनारे.....किसी देव का स्थान 

ये ही वो दो केले थे..... दोस्तों, जो उस अंधेरे में बहुत स्वादिष्ट लग रहे थे 

पगडड़ी के किनारे एक पत्थर पर "भोले" लिखा था.....

सुबह के साढे पांच बजे..... कुछ चानन सा होने लगा और पेड़ों के रंग काले से हरे नज़र आने लगे.. 

और, अब कुछ यात्री भी राह में मिलने आरम्भ हो गए....इसलिए ही हम दोनों की इक्ट्ठी फोटो खिंच पाई 

जैसे-जैसे डंडा धार पर्वत की ऊँचाई पर चढ़ते जा रहे थे..... नीचे का दृश्य हसीन होता जा रहा था 

उसी हसीनता पर मंत्रमुग्ध हुए..... विशाल रतन जी

रेऊश नामक स्थान पर.... उस साफ-सुथरी अस्थायी दुकान पर बैठ चाय पीते हम दोनों...

अरे भाई,  ये त्रिशूल क्यों ले जा रहे हो...... तो इन्होंने कहा कि इस त्रिशूल और मेरी ये दूसरी श्री खंड यात्रा है, मन्नत थी सो इस त्रिशूल को श्री खंड चढ़ाने जा रहा हूँ... 

वाह ये हरियाली से भरे पहाड़..... आँखों को कितना सुकून दे रहे थे 

डंडा धार पर्वत की चढ़ाई से नीचे दिख रहे गाँव.... कल दोपहर जब हम जांओ गाँव में पहुँचें थे, तो ये गाँव ऊपर से हमें देख मस्कुरा रहे थे... और अब हम इन्हें और ऊपर जा कर मुस्कुरातें हुए देख रहे थे,  दोस्तों 
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4 टिप्‍पणियां:

  1. आस्था और डर दोनो साथ साथ चलते हैं।

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  2. भगवान से मन्नत मांगने का यही प्रयोजन होता हैं कि अब हमारा काम हो जाएगा ।शायद ये भी एक तरह की आस्था ही हैं।
    आप लोग अंधेरे में निकल पड़े ,क्या यह सही था क्योंकि अनजान जगह ऊपर से खतरनाक भी।धार की सीढिया एकदम थी या बीच बीच मे खुला स्थान भी था।

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    1. सही कहा आपने जी, रास्ता बहुत लम्बा व कठिन है इसलिए समय रख कर हमने जल्दी निकलने का फैसला लिया था....डंडा धार पर एक भी कदम समतल भूमि पर नहीं पड़ता...बस चढाई ही चढाई, कोई सीढ़ी नहीं।

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