मंगलवार, 12 मई 2020

भाग-2 "मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"

भाग-2  " मेरी किन्नर कैलाश यात्रा"
     
इस यात्रा को आरंभ से पढ़ने का यंत्र https://vikasnarda.blogspot.com/2020/05/blog-post.html?m=1स्पर्श करें।
                
                      " किन्नौर का स्वागती द्वार"



        पिछली किश्त में.....मैं और नंदू 20अगस्त 2017 के दिन पहाड़ में बसे खूबसूरत शहर "ठियोग" से कुछ दूर सड़क के किनारे बैठे हुए ठियोग की खूबसूरती को निहारते हुए सुबह का नाश्ता यानि घर से साथ लाये हुए स्वादिष्ट "राजमाँह-चावल" के स्वाद को उन वादियों की यादों के साथ जोड़ रहे थे, कि जब कभी भी इस हसीन मंज़र की याद आए तो इन स्वादिष्ट राजमाँह-चावल का स्वाद भी इस सोने की याद पर सुहागे का काम कर दे...!
                          नाश्ता करते-करते नंदू का फोन बज उठता है......क्योंकि नंदू की दुकान अब खुल चुकी है, भाभी जी का फोन-" जी सुनते हो, यह झालर वाला लाल सूट कितने का बेचना है..?"
नंदू- "1200रुपये बता कर, हज़ार तक दे देना।"
फिर पांच मिनट बाद भाभी जी का फोन- "जी, ये 800रुपये दें रहे हैं।"
नंदू- "ला, मेरी बात करा.........बहन जी, बिल्कुल सही रेट तो बताया आपको, ना मेरी ना आपकी चलो 950रुपये ही दे दो।"           और, दिन के पहले ग्राहक से सूट का सौदा 900रुपये में पक्का हुआ।
                        10बजे मेरी गाड़ी फिर से पहाड़ों पर लहरा रही सड़क पर लहराने लगी। ठियोग का बाज़ार गुज़रा.....अब आगे एक से एक हसीन दृश्य मुझे प्रभावित करने में जुटा हुआ था, कि नहीं उस पीछे के मोड़ से मैं ज्यादा सुंदर हूँ देखो मेरे पास उस मोड़ से भी ज्यादा देवदार के पेड़ हैं.....!
                        "नहीं इन दोनों को छोड़ो, मेरे सीने पर लगे इन रसीले सेबों के बागीचों को तो देखो बरखुरदार"- तभी वो सामने दिख रहे पर्वतराज फरमाये।
                        कभी सड़क किनारे खड़ा "मजनू का पेड़" अपने लटकते पत्तों जैसी जुल्फों से गुलदस्ता बन हमारा स्वागत करता हुआ प्रतीत होता, तो कभी हरी-भरी वादियों में बसे एक अकेले आशियाने को देख उसके मालिक से क्षणिक जलन सी हो जाती।
                         साढ़े ग्यारह बजने वाले थे और हम इस रास्ते के सबसे खूबसूरत पडाव "नारकंडा" पहुँचने वाले भी थे कि नंदू का फोन फिर बज उठा। "जी, सुनते हो....वो फलानी भाभी सूट लेने आई है, 700रुपये के सूट को 400रुपये में ले जाने की ज़िद पर अड़ी बैठी है...!"
"तू उसे मना कर दे...मुझे इसे कोई सौदा नहीं बेचना है, इसने पहले से ही मेरे 400रुपये मार रखे हैं...!!" नंदू झल्ला कर बोला।
                          फोन बंद कर नंदू बोला- " यार विक्की, तेरा दवाइयों का काम अच्छा है, जितना पैसा ग्राहक से मांगते हो...वो उतने ही दे कर जाता है, परन्तु हमारे काम में बहुत मगज़मारी है....तीस सूटों में एक सूट पसंद कर खरीदने के बाद भी, तीन-चार दिन बाद हमें वापस करने आ जाती हैं कि यह सूट मुझ पर नहीं जच रहा, कोई और दिखाओ....!!!     अब मैं नंदू की यह बात सुन कर खूब हंस रहा हूँ।
                            शिमला से 65किलोमीटर आगे शिवालिक के ऊपरी पहाड़ों में बसा नारकंडा मुझे बहुत पसंद है, इसके छोटे से बाज़ार में काफी चहलकदमी होती है....और यदि किस्मत साथ दे तो, क्या गज़ब के दर्शन होते हैं यहाँ से उन शिखरों के..... जिन्हें हिम का घर यानि "हिमालय" कहा जाता है।
                            परंतु इस बार नारकंडा भी बादलों की सैरगाह बना हुआ था, अपनी गाड़ी बाज़ार से कुछ आगे ले जाकर सड़क किनारे खड़ी कर....नंदू को बाज़ार घुमाने ले आता हूँ। खासकर उस हलवाई की दुकान पर जहाँ पर लगे ब्रेड पकौड़ों व समोसों के पहाड़ को बाज़ार से गुज़रते वक्त दे गया था,  भूख तो थी भी नहीं..... अभी भी श्रीमती जी द्वारा बनाए गए स्वादिष्ट राजमाँह-चावल का स्वाद स्मृति में था....और हाँ,  मैं हैरान था कि इन ब्रेड पकौड़ों व समोसों को देख मेरी या नंदू की "इच्छुक भूख" भी जागृत नहीं हो सकी।
                            वैसे दोस्तों, नारकंडा की सबसे ज्यादा मशहूर जगह हाटू पर्वत के शिखर पर बना "हाटू माता" का प्राचीन मंदिर है। किवदंतियों के अनुसार इस मंदिर में लंकापति रावण की पत्नी मंदोदरी को माता के रूप में पूजा जाता है,  तो कुछ हाटू माता को मां काली का स्वरूप मानते हैं,
              सच क्या होगा, मैं क्या जानूँ.... मेरा तो पर्वतों से वास्ता है...!!
                             मैंने कुछ वर्ष पहले हाटू शिखर से महान हिमालय के वो दिव्य दर्शन किए थे जिसे मैं आज तक भी नहीं भूला पाया हूँ।
                             नंदू पिछले वर्ष यानि जून 2016में अपने परिवार के साथ मेरी सलाह पर रिकांगपिओ घूमने निकला था, तब वह हाटू माता मंदिर देख रात नारकंडा में ही ठहर गया था।
                            बाज़ार का चक्कर लगा कर, गाड़ी ले नारकंडा से थोड़ा सा बाहर निकल सड़क किनारे लगे पर्यटन विभाग के टैंट नंदू को बाहर-बाहर से दिखाने के लिए ज़रा सा रुक कर कहता हूँ- " वैसे तो तुझे पता ही है कि नारकंडा में होटलों की कमी नहीं, पर पर्यटक यहाँ सुख-सुविधाओं से लैस इन सरकारी टैंटों में भी रुक सकते हैं।"
                           सड़क हमें अब नीचे-ही-नीचे उतार रही है, क्योंकि उसे हमें सतलुज घाटी में जो पहुँचाना था।
                         "लो, सामने सतलुज भी दिखने लगी नंदू" मैं बोला।  "सेंज"  पार करने के बाद हमारी गाड़ी सतलुज नदी के किनारे-किनारे उसके बहाव के उलट रामपुर बुशहर की ओर जाती सड़क पर बहने लगी। सतलुज घाटी के दोनों ओर के पहाड़ों का हरा रंग बहुत निराला है, धूप यहाँ पहुँचते ही चुभने सी लगती है। इस घाटी में सड़क लगभग मैदानी इलाकों सी हो जाती है, दूसरे-तीसरे गेयर से निकलकर गाड़ी चौथे-पांचवें गेयर में हूँकारे मार रही होती होती है।
                           हमारे साथ चलते-चलते समय भी पौने दो बजे तक पहुँच चुका था....औसतन हर आधे घंटे बाद नंदू का फोन बजता और हर बार भाभी जी का फोन ही होता- "जी, सुनते हो...यह सूट!!!!
                           चलते-चलते हम रामपुर बुशहर से पहले सड़क किनारे बने महालक्ष्मी मंदिर के सामने रुक जाते हैं... क्योंकि वहाँ स्थापित बैठे हुए भगवान हनुमान जी की विशाल मूर्ति सैलानियों को बरबस रोक ही लेती है।
                           इस बार रामपुर बुशहर में, मैं तनिक भी नहीं रुका, नंदू को इशारों से ही रामपुर बुशहर के राजा का मशहूर "पदम महल" चलती गाड़ी से ही दिखा दिया... क्योंकि अभी सफ़र काफी पड़ा था। पिछली दफा जून 2015 में जब इस रास्ते से परिजनों से अपनी मारुति वैन को भरकर रिकांगपिओ गया था, तो रामपुर बुशहर से आगे का रास्ता बीच-बीच में टूटा हुआ ही था....और,जून 2016 में जब नंदू भी नारकंडा घूम कर रिकांगपिओ की तरफ जा रहा था, तो 'टापरी' कस्बे के बाद खराब रास्ते की वजह से उसकी गाड़ी का टायर फट गया, तो उसने रिकांगपिओ जाने का विचार छोड़ अपनी गाड़ी को वापस मोड़ लिया और देहरादून अपने किसी रिश्तेदार के चल दिया.....सो, हम चाहते थे कि जैसे भी करके दिन के उजाले में रिकांगपिओ पहुँच ही जाए, पर इस बार सड़क जैसे मक्खन-मलाई हो गई हो....गाड़ी बगैर झटके खाये अगले पड़ावों की ओर फिसलती जा रही थी।
                      "ज्यूरी" कस्बे से गुज़रते हुए नंदू कहता है कि यहाँ भी जमीन से गर्म पानी निकलता है, विक्की।
                      "हां,नंदू वापसी पर यहाँ जरूर रुकेगें यार।"  ज्यूरी के गुज़रते ही मैं "फानचा" गाँव के बारे में पूछताछ करने लग पड़ता हूँ, क्योंकि पिछले वर्ष मैं "श्रीखंड महादेव कैलाश" जांओं गाँव वाले प्रचलित रास्ते से गया था। परंतु श्रीखंड शिला तक पहुँचने में नाकामयाब हुआ था। श्रीखंड पहुँचने से मात्र डेढ़ किलोमीटर पहले आये एक जबरदस्त बर्फीले तूफान में अपनी जान बचाकर वापस उतर आये थे...सो मंजिल के इतने करीब होने पर भी मिली नाकामयाबी तब से टीस सी बन कर बैठी है मन में...!!
                      इसलिए भविष्य में,  मैं ज़िद्दी अब अपनी ज़िद में एक अलग और मुश्किल रास्ते से फिर दोबारा श्रीखंड जाना चाहता हूँ और वह पैदल रास्ता फानचा गाँव से चढ़ता है। खैर, देखो कब भोलेनाथ मुझ हठी को अपना हठ निभाने का स्वर्णिम अवसर प्रदान करते हैं...!!
                       मेरा कैमरा मुझे धोखा दे चुका था, सो अब यात्रा की यादों को सहेजने का सारा भार मेरे मोबाइल फोन के ज़िम्मे आन पड़ा था, मतलब अब ज़ूम वाले चित्र मैं इस यात्रा पर नहीं खींच पाऊँगा....और ट्रैकिंग के दौरान मुझे अपने मोबाइल की बैटरी को भी एक अमूल्य रतन की तरह बचा कर रखना पड़ेगा।
                       जैसे-जैसे हम आगे-आगे चलते जा रहे थे, पहाड़ों पर प्रकृति देवी द्वारा बख्शी सुंदरता उनके सिर चढ बोलती जा रही थी। जगह-जगह बहते पानी के झरने देख मन का मयूर अपने पंख फैला देता था।
                      मैं थोड़ी-थोड़ी देर बाद गाड़ी रोक, आस-पास के चित्र खींचने लग पड़ता और हंसते हुए नंदू को कहता हूँ- "मेरी यह बहुत बुरी आदत है कि जगह-जगह मैं गाड़ी रोक फोटो खींचने लग पड़ता हूँ...मेरे परिवार वाले तो मेरी इस आदत से परेशान हो जाते हैं, पर तू ना परेशान होना यार....!"    और, नंदू हंस कर मेरा समर्थन कर देता है।
                        गाड़ी चलाते हुए "चौरा" गाँव में बने स्वागती गेट "किन्नौर द्वार" की तरफ देख कहता हूँ- "ले नंदू, अब हम देवभूमि किन्नौर क्षेत्र में दाखिल होने वाले हैं।"
                       "हां यार, पर मैं तो आगे आने वाले उस पहाड़ को काटकर बनाई सुरंग के मुहाने को किन्नौर द्वार कहूँगा...!"
                        "हां नंदू, मैं भी इसी सड़क पर आगे आने वाली  'तरण्डा ढांक'  की सुरंग को ही किन्नौर का स्वागती द्वार मानता हूँ यार, चल तुझे वहीं पहुँचकर उस अजूबी सड़क का इतिहास सुनाता हूँ।"
                        तभी सड़क पर एक ऐसा खूबसूरत झरना क्या दिखा, मैं चंचल बालकों की तरह व्यवहार करने लगा। गाड़ी रोक नंदू के हाथ अपना मोबाइल थमा उससे कई सारी फोटो उस चंचल-शोख झरने के साथ खिंचवा डाली। पास ही एक और झरना धार बनाकर समतल जगह पर गिर रहा था, मैं उसके सामने अपनी दोनों बाहें फैला कर खड़ा हो जाता हूँ कि जैसे किसी बिछड़े स्कूली यार को वर्षों बाद मिल रहा हूँ। मन की चंचलता आतुर हो रही थी कि कपड़ों समेत ही अपने यार को जप्फी डाल लूँ,  परंतु यह कमबख़्त शातिर दिमाग हर बार बीच में अपनी टांग अड़ा ही देता है कि विक्की तू अब "विकास" हो चुका है....!!!
                      अगले दस मिनट बाद..... लो हम आ खड़े हो जाते हैं, अपना मूक स्वागत करवाने...."तरण्डा ढांक" की उस चट्टान के समक्ष, जिसे बीच में से भेद कर सड़क आर-पार निकल जाती है।
                        ले यारा नंदू...चल करवा ले अपना स्वागत किन्नौरी द्वार से...!"  कहता हुआ मैं गाड़ी को उस अजूबे सी सड़क के प्रवेश द्वार के सामने खड़ी कर उसमें से बाहर निकल जाता हूँ।
                       एक अजीब सी शांति, तब भंग हो जाती है जब हमारे पास कोई गाड़ी शूँ कर उस खूबसूरत सुरंग रूपी किन्नौरी स्वागती द्वार के आर-पार हो जाती है। टहलते हुए हम दोनों सुरंग के पार निकल, चहलकदमी कर रहे हैं.... हवा के झोंके कभी मंद-मंद मुस्कुराने लग पड़ते तो कभी वह हमारे कानों में अपनी चीखें छोड़ जाते। नीचे गहराई में बह रही सतलुज की आवाज़ ज़रा-ज़रा सी कानों में पड़ तो रही थी, पर मैं उसे अनसुना कर रहा था।
                         "कमाल है यार, पिछले साल जब मैं इस सड़क से गुज़रा था तो इस खतरनाक रास्ते को देख दांतों तले अंगुलियाँ दब गई थी!"  नंदू बोला।
                         "हां नंदू...अपना भी कुछ ऐसा ही हाल था जब मैं भी पहली दफा  2015 में अपनी ओमनी वैन ले इस पर से गुज़रा था....यह अजूबा सा दिखने वाली सड़क कोई ढाई-तीन किलोमीटर लंबी होगी और हर कोई अंजान जब इस सड़क के ऊपर से गुज़रता है, तो समझता है कि दीवार से सीधे खड़े चट्टानी पहाड़ को बड़ी-बड़ी मशीनों से काट-काट कर, इस पर सुरंग सी सड़क बनाई होगी, तू भी ऐसा ही सोचता होगा नंदू..?"
                   "हां विक्की, मैं भी ऐसे ही सोच रहा हूँ।"
"परंतु नंदू यह असंभव कार्य हाथों से चलाए जाने वाले साधारण औज़ारों से संभव किया गया है....क्योंकि यह काम भी अंग्रेजों ने करवाया था।"
                  "अंग्रेजों ने....?" नंदू के बोल।
हां, अंग्रेजों ने.....जब हमारा देश उनकी गुलामी में था, और अंग्रेज तो थे व्यापारी, सो ब्रिटिश शासकों ने तिब्बत क्षेत्र से व्यापार में तेज़ी लाने और अपने काबू में रखने के लिए लॉर्ड डलहौजी की देखरेख में 1850 में शिमला से  तिब्बत तक 'खच्चर मार्ग' बनाने का निर्माण कार्य आरंभ किया था। परंतु इस जगह पर सतलुज नदी बहुत तंग घाटी से होकर गुज़रती है और घाटी के पहाड़ भी एक चट्टानी दीवार की तरह एकदम से सीधे खड़े हैं, सो अंग्रेज इंजीनियर अफसरों ने यह तरकीब लगाई। सदी के आखिरी वर्षों में यहाँ काम शुरू हुआ इस विशाल चट्टानी पहाड़ को साधारण हथौड़े-छैनी से काटने का। अंग्रेज अफसरों ने अपने बल-छल से स्थानीय नौजवानों को इस मुश्किल काम की अग्नि में समिधा की तरह झोंका। पहाड़ के ऊपर कहीं रस्सों से बांध-बांध कर उन पर लटकते उन मजदूरों ने  ना जाने कितने ही साल लगा दिए इस पहाड़ को कुरेदनें मे और ना जाने कितनी ही जिंदगियाँ बलि चढ़ गई इस असंभव रास्ते को पार लगाने के लिए। पीछे छोड़ आये 'ज्यूरी' कस्बे में इस तरण्डा ढांक रास्ता निर्माण में मरे मजदूरों की कोई यादगारी भी बनाई गई थी, ऐसा मैंने सुना है। आखिर देश आज़ाद होने के बाद, सन् पचास के दशक में शिमला से चल रामपुर बुशहर तक सड़क....उसके बाद तिब्बत सीमा पर शिपकी-ला नामक स्थान तक खच्चर मार्ग बनकर तैयार हुआ, देखो इस कठिन कार्य में एक सदी लग गई। नंदू यार, मैं इस तरण्डा ढांक को भी निर्माण कार्य के अजूबों में एक अजूबा ही मानकर चलता हूँ.... इस रास्ते के निर्माण के इतिहास को जिंदा रखने के लिए सरकार को चाहिए कि ज्यूरी में इस रास्ते के निर्माण इतिहास का कोई छोटा-मोटा संग्रहालय ही बना दे। तरण्डा ढांक की खुली सुरंग सड़क पर मैं अपनी गाड़ी को साइकिल की सी रफ्तार से जानबूझकर धीरे-धीरे बढ़ाता हुआ नंदू से यह वार्तालाप करता जा रहा हूँ।
                         "नंदू, अब आगे इसी सुरंग रूपी सड़क किनारे एक मंदिर भी आता है।"
                         "हां विक्की, वह तरण्डा माता का मंदिर है....पिछली बार मैं वहीं रुक कर गया था।"
                          "हां नंदू, वह जगह बड़ी सख्त है....वहाँ से गुज़रने वाले तकरीबन सारे ही वाहन चालक माता तरण्डा को नमन कर आगे निकलते हैं, इस मंदिर के बनने के पीछे भी एक रोचक कथा है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के उपरांत सेना को बहुत जरूरत महसूस हुई कि रामपुर बुशहर की सड़क से आगे इस खच्चर रास्ते को और चौड़ा कर एक बेहतर सड़क बनाई जाए ताकि भविष्य में युद्ध की स्थिति होने पर सेना की सप्लाई लाइन में कोई रुकावट ना आए, परंतु यहाँ सड़क बनाने में रुकावटें आनी आरंभ हो गई...हर दूसरे-तीसरे दिन कोई ना कोई चट्टान आ गिरती और मजदूर व मशीनरी उसके नीचे दब जाते। तब सेना के अधिकारियों को पास के ही 'निगुलसारी' गाँव वासी अपनी ग्राम देवी 'चित्रलेखा माता' के मंदिर में लेकर गए। माता की हवा उसके महंत के सिर आ गई तो वचन हुआ कि जिस जगह तुम सड़क बना रहे हैं, वह तरण्डा गाँव की ग्राम देवी का है उसे कतई पसंद नहीं कि कोई उसके क्षेत्र में उसकी सहमति के बिना छेड़छाड़ करे....तो इसलिए पहले तरण्डा देवी को मनाओ। सेना अधिकारियों ने तरण्डा गाँव में जाकर तरण्डा माता को सहमत कर, उन्हें मूर्ति रूप में लाकर इसी जगह पर स्थापित किया....... और, चमत्कारिक ढंग से सब अनहोनियाँ एक दम रुक गई, सड़क निर्माण का कार्य सुचारू ढंग से चल निकला। सेना ने ही तरण्डा माता के मंदिर का निर्माण किया और आज भी मंदिर की देखभाल सेना ही करती है।"
                          तरण्डा माता के माथा टेक हम पुन: चल देते हैं, फिर जगह-जगह उतरकर तरण्डा ढांक की अर्ध सुरंग में बनी सड़क पर खड़ी अपनी गाड़ी की फोटो खींचने लग जाता हूँ। अर्ध सुरंगी सड़क के किनारे लगी लोहे की रेलिंग को पकड़ कर, जब मैं नीचे बह रही सतलुज और सामने के नज़ारे देखता हूँ.....तो ऐसा आभास होता है कि मैं किसी गगनचुंबी इमारत की बालकोनी मे खड़ा हूँ...!!!
                         अब रिकांगपिओ करीब 50किलोमीटर दूर रह गया,  तरण्डा ढांक से "पलिंगी पुल"  को पार कर उस ओर बढ़ चलते हैं। नंदू को भाभी जी के कारोबारी फोन निरंतर आते जा रहे हैं, सूटों के सौदे फोन पर परवान चढ़ते जा रहेे हैं।
                           प्रकृति की असीम सौम्यता को तकते-तकते हम "वांग्टू" से गुज़र "टापरी" पहुँचते हैं। पिछली बार टापरी में सतलुज नदी में "उर्नी" गाँव की तरफ का पहाड़ निरंतर खिसक कर गिर रहा है, सड़क भी उसकी भेट चढ़ चुकी थी। सो टापरी से उर्नी गाँव की छोटी सी सड़क पर पूरा पहाड़ चढ़कर, लंबे रास्ते से घूमघाम कर पुन: मुख्य सड़क पर आना पड़ता था। उस छोटी सी सड़क पर बड़े-बड़े ट्रक आने के कारण, हम कई घंटे वहीं फंसे रहे थे। परंतु इस बार घाटी की दूसरी तरफ जाने के लिए एक अस्थाई पुल का निर्माण कर यातायात को निर्विघ्न चलाया जा रहा था। टापरी के बाद एक जगह से फिर सड़क पुल द्वारा सतलुज के पार निकल जाती है, पिछली बार की इस पुल पर हुई एक कटु स्मृति को याद आते ही नंदू को सुनाता हूँ कि जब हम पिछली बार "छितकुल" से वापस आ रहे थे, तो इस पुल के पीछे गाजे-बाजे के साथ गाड़ियों का काफ़िला रुका हुआ था और पुल पर अभी-अभी एक भेडू की बलि दी गई थी। भेडू का सिर अलग हो सड़क पर गिरा पड़ा था, धड़ अभी भी छटपटा रहा था.....बाराती बैंड-बाजे की धुन पर नाच रहे थे, यह मंजर हम सब को विचलित कर गया।
                        मेरे पिताजी बोले- "यह पुराना रिवाज़ है कि यदि बारात को कहीं दरिया पार करना पड़े, तो पहले उसे बलि दी जाती है कि वह बारात को सकुशल पार होने दें...!!"
                       "परंतु डैडी जी, अब तो पहले वाली बातें कहाँ....अब तो पक्के पुल बन गए हैं, अब इन व्यर्थ के रिवाज़ों को अलविदा कर देना चाहिए....!!"
                       डैडी जी बोले- "हां बदलाव तो हो रहा है, पर इसमें समय लगता है.... विकास।"
"नंदू, मेरे डैडी मुझे हमेशा मेरे पक्के नाम से ही पुकरातें हैं।" 
                      'करछम' अब कुछ ही दूर रह गया था, शाम के साढे चार बज चुके थे। दोपहर का खाना हमने खाया ही नहीं था, और नंदू उन बिस्कुटों के पैकेटों की गिनती कम करता जा रहा था...जो मैने ट्रैकिंग के दौरान आपातकालीन भोजन के रुप में रखे थे,  तो रास्ते में सड़क किनारे एक छोटी सी चाय की दुकान पर रुक जाते हैं जिस पर वह महिला दुकानदार गरमा-गरम पकौड़े बना रही थी। हम दोनों ने वहाँ जी भर के पकोड़े खाए और दो-दो कप चाय भी पी डाली।
                     "करछम" यहाँ सांगला घाटी से आती है बसपा नदी का सतलुज नदी में विलय होता है,  को हम चलती गाड़ी से निहारते हुए रिकांगपिओ की ओर बढ़े चले जाते हैं।
                      शाम पौने छह बजे हमारी गाड़ी आ रूकती है सतलुज नदी पर बने "शोंटोंग पुल" के ऊपर, जहाँ हर वक्त तेज हवाएँ चलती रहती है। पुल की रेलिंग पर भगवान बुद्ध को समर्पित हज़ारों प्रार्थना झंडियाँ बांध रखी हैं जो तेज़ हवा के बहाव के साथ-साथ निरंतर उड़ती हुई एक कर्णप्रिय ध्वनि प्रसारित करती हैं। बोध धर्म की मान्यता अनुसार इन प्रार्थना झंडियों पर लिखे मंत्र हवा में घुल कर उसके साथ-साथ दूर-दराज़ तक प्रवाहित होते रहते हैं।
                       मैं और नंदू हवा से फड़फड़ाती हुई उन झंडियों में खड़े हो अपनी सेल्फी खींचते हैं। शोंथोंग से आगे रिकांगपिओ की तरफ चल "पोवारी" में पहुँच, जब मैं एक फौजी से "तंगलिंग" गाँव (जहाँ से किन्नर कैलाश की पैदल यात्रा शुरू होती है) का रास्ता पूछता हूँ तो वह कहता है कि यहाँ आगे ही सतलुज नदी को पार करने के लिए एक झूला नुमा ट्राली है, जिसमें बैठकर तंगलिंग जाया जा सकता है....पर आपके पास तो गाड़ी है, सो पीछे वापस जाकर शोंटोंग गाँव से तंगलिंग के लिए चले जाओ।
                           अब हम दोबारा शोंटोंग पुल को पार कर सतलुज के किनारे बसे तंगलिंग गाँव की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं।
                                            ( क्रमश:)



                                     
ठियोग से आगे का हसीन सफ़र।

रास्ते में सड़क किनारे खड़ा "मजनू का पेड़" अपने लटकते पत्तों जैसी जुल्फों से गुलदस्ता बन हमारा स्वागत करता हुआ प्रतीत हो रहा था।

 तो कभी हरी-भरी वादियों में बसे एक अकेले आशियाने को देख उसके मालिक से क्षणिक जलन सी हो जाती। 

नारकंडा के बाज़ार में.....ब्रेड पकौड़े।

मैं हैरान था कि इन ब्रेड पकौड़ों व समोसों को देख मेरी या नंदू की "इच्छुक भूख" भी जागृत नहीं हो सकी। 

  बाज़ार का चक्कर लगा कर, गाड़ी ले नारकंडा से थोड़ा सा बाहर निकल सड़क किनारे लगे पर्यटन विभाग के टैंट नंदू को बाहर-बाहर से दिखाने के लिए ज़रा सा रुकता हूँ।

नारकंडा से आगे, सतलुज घाटी के प्रथम दर्शन।

रामपुर बुशहर से पहले आता महालक्ष्मी मंदिर।

क्योंकि वहाँ स्थापित बैठे हुए भगवान हनुमान जी की विशाल मूर्ति सैलानियों को बरबस रोक ही लेती है।

रामपुर बुशहर से आगे, तू कितना हसीन है।

 जैसे-जैसे हम आगे-आगे चलते जा रहे थे, पहाड़ों पर प्रकृति देवी द्वारा बख्शी सुंदरता उनके सिर चढ बोलती जा रही थी। 

अब रास्ता ऐसे हसीन पहाडों से गुज़रे, तो कमबख़्त चाहता है कि यह सफ़र खत्म हो!!!!

मैं थोड़ी-थोड़ी देर बाद गाड़ी रोक, आस-पास के चित्र खींचने लग पड़ता और हंसते हुए नंदू को कहता हूँ- "मेरी यह बहुत बुरी आदत है कि जगह-जगह मैं गाड़ी रोक फोटो खींचने लग पड़ता हूँ...मेरे परिवार वाले तो मेरी इस आदत से परेशान हो जाते हैं, पर तू ना परेशान होना यार....!"  

जगह-जगह बहते पानी के झरने देख मन का मयूर अपने पंख फैला देता था। 

  तभी सड़क पर एक ऐसा खूबसूरत झरना क्या दिखा, मैं चंचल बालकों की तरह व्यवहार करने लगा।

ले, खींच मेरी फोटो...!

गाड़ी रोक नंदू के हाथ अपना मोबाइल थमा उससे कई सारी फोटो उस चंचल-शोख झरने के साथ खिंचवा डाली।

पास ही एक और झरना धार बनाकर समतल जगह पर गिर रहा था, मैं उसके सामने अपनी दोनों बाहें फैला कर खड़ा हो जाता हूँ कि जैसे किसी बिछड़े स्कूली यार को वर्षों बाद मिल रहा हूँ। मन की चंचलता आतुर हो रही थी कि कपड़ों समेत ही अपने यार को जप्फी डाल लूँ,  परंतु यह कमबख़्त शातिर दिमाग हर बार बीच में अपनी टांग अड़ा ही देता है कि विक्की तू अब "विकास" हो चुका है....!!!

सतलुज अब तंग घाटियों से गुज़र रही थी।


किन्नौर प्रवेश का आधिकारिक स्वागती द्वार।


परन्तु मैं तो "तरण्डा ढांक" की इस सुरंग के मुहाने को किन्नौरी स्वागती द्वार मानता हूँ।

किन्नौर का प्रवेश द्वार।

ले नंदू....हम आ पहुँचे किन्नौर के प्रवेश पर।

एक रंग यह भी।

ले यार, अब तू भी खींच मेरी फोटो।

अरे मारुति-सुज़ुकी वालो देख लो.....मैं आपके लिए एक बढ़िया मॉडल सिद्ध हो सकता हूँ!!!

चलो, कुछ चहलकदमी करते हैं।

सुरंग से पार का नज़ारा।

"तरण्डा माता" का मंदिर।

तरण्डा ढांक के सीधे खड़े चट्टानी पहाड़ को कुरेद-कुरेद कर बनाया रास्ता।

हां ना....एक अजूबे सी सड़क।

तरण्डा ढांक का यह रास्ता ढाई-तीन किलोमीटर लम्बा है।

मैं जगह-जगह उतरकर तरण्डा ढांक की अर्ध सुरंग में बनी सड़क पर खड़ी अपनी गाड़ी की फोटो खींचने लग जाता हूँ।

अर्ध सुरंगी सड़क के किनारे लगी लोहे की रेलिंग को पकड़ कर, जब मैं नीचे बह रही सतलुज और सामने के नज़ारे देखता हूँ.....तो ऐसा आभास होता है कि मैं किसी गगनचुंबी इमारत की बालकोनी मे खड़ा हूँ...!!!

"पलिंगी पुल" पर से जाती मेरी गाड़ी....नंदू को पीछे ही उतार गया था कि जब गाड़ी लोहे से बने इस पुल को पार करे, तो तू फोटो खींचना।

"वांग्टू" के आस-पास।
                                           
कुदरत की कारीगरी पर...हम इंसानों की कारीगरी।


रास्ते में सड़क किनारे एक छोटी सी चाय की दुकान पर रुक जाते हैं जिस पर वह महिला दुकानदार गरमा-गरम पकौड़े बना रही थी।

सड़क किनारे इस चट्टान में गिरा "बीज" अपनी हरीभरी दास्तान सुनता हुआ....कि यदि इच्छा-हौसला हो तो पत्थरों से भी फूल पनप सकते हैं।

राह में मिला, फिर से एक हसीन जल प्रपात।

 शाम पौने छह बजे हमारी गाड़ी आ रूकती है सतलुज नदी पर बने "शोंटोंग पुल" के ऊपर, जहाँ हर वक्त तेज हवाएँ चलती रहती है।

 मैं और नंदू हवा से फड़फड़ाती हुई उन झंडियों में खड़े हो अपनी सेल्फी खींचते हैं।
             ( अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ स्पर्श करें )


मेरे यात्रा वृतांत-
(1) शिमला से आगे......"खड़ा-पत्थर"
(2) मेरी लाखामण्डल यात्रा, जहाँ मुर्दे फिर से जी उठते थे..!
(3) "एक यात्रा बेईमान सी, तुंगनाथ की....!"


                                          

17 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे किन्नर गेट देखना है।शानदार यात्रा👌👌

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी हां,तरण्डा ढांक सड़क किसी अजूबे से कम नहीं है जी।
      बेहद धन्यवाद।

      हटाएं
  2. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  3. Ati sundar prastuti aapne jo britanta deya mai be saath sath sair kar leya aur sab tasveer bahut acche hai Hardik Dhanyabad ham ko fb dwara padne ko mela avari hu🙏

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बेहद धन्यवाद, मेरे हमसफ़र बनने के लिए जी।

      हटाएं
  4. बहुत ही शानदार यात्रा का शुभारंभ. मतलब मजा आने वाला है आगे. हम तो चाह कर भी नही जा पाते, आप सबके यात्रा वृतांत पढ़ कर मान लेते हैं कि माना (गणित के अध्यापक हैं इसलिए) "हम भी साथ है." 🙏🌹

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. तो, मास्टर जी... यात्रा वृतांत रुपी सवालों के उत्तर मैं ठीक ही निकाल रहा हूँ ना.....कहीं भी पथभ्रष्ट नहीं होता, यदि हुआ तो आप मुझे दुरुस्त कर देना जी।

      हटाएं
  5. बहुत खूब भाई ...शानदार वर्णन ।

    रास्तों , ख़ुबसूरत मोड़ों, झरनों, पेड़ों और पहाड़ों से वार्तालाप ।
    मजा आ गया पढ़कर...
    लगता है घूमते हुए आपका प्रकृति से एकाकार हो जाता है।
    बिच बिच में नंदू का फोन पर महिला परिधानों का सौदा करना ...😄😄
    भाई आपका दवाइयों का व्यवसाय ही अच्छा है.... नंदू का ये कहना काफी है ये बताने के लिए कि इस व्यवसाय में अच्छे अच्छों का धैर्य जवाब दे देता हैं।
    भाई मै तो दिहाड़ी मजदूरी कर लूं पर ये काम ना होगा हमसे....

    झरने के सामने बाहें फैलाकर किसी पुराने स्कूली मित्र की कल्पना कर कपड़ों समेत उसे झप्पी देने का मन करना और फिर शातिर दिमाग का हमेशा की तरह रोक लेना।
    आपके मनोभाव को समझा जा सकता है।
    किन्नौर द्वार का इतिहास जानकर अचरज हुआ ...कि इसे मजदूरों ने मामूली औजारों से खुद को रस्सियों से बांधकर लटक लटककर बनाया।
    सलाम है इनके जज़्बे को....
    आपके लेखन कौशल का मुरीद हो गया हूं भाई ....
    आप अपने साथ पाठकों को भी सहयात्री बना लेते हो।
    पूरी यात्रा का इतना सजीव और जीवटता से वर्णन करते हो कि मुझ जैसे आलसीखोर को भी पूरा लेख पढ़ने को मजबूर का देते हो।। (जो खुद का लिखा हुआ भी नही पढ़ता 😃😃)
    👌👌👍👍....

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सुमधुर आभार मनोज जी.....आप का कमेंट पढ़ कर लगने लगा है कि आप में भी लेखन की खूबी है, तो आप भी लिखा करे जी।

      हटाएं
  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  7. श्रीखंड पहुँचने से मात्र डेढ़ किलोमीटर पहले आये एक जबरदस्त बर्फीले तूफान में अपनी जान बचाकर वापस उतर आये थे...सो मंजिल के इतने करीब होने पर भी मिली नाकामयाबी तब से टीस सी बन कर बैठी है मन में...!!आह !! मैं भी इसी दुःख से पीड़ित हूँ विकास जी:)  2019 में बिना यात्रा पूरी किये श्रीखंड से लौट के आना पड़ा 

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. योगी जी, ऐसी दुर्गम यात्रा की यह ही विडम्बना है कि इसमें अच्छी किस्मत का भी साथ होना जरुरी है जी।

      हटाएं
  8. ऐसे ही हसीन नजारों में तों समा जानें को ज़ी चाहता है ज़ी। देवदार के गगनचुंबी वृक्ष, बर्फ़ से ढ़की चोटियां,उन पर से गिरते बेपनाह झरनें बस इन्हीं से मोहब्बत हों जाती है विकास जी।💞💞

    जवाब देंहटाएं
  9. ऐसे ही हसीन नजारों में तों समा जानें को ज़ी चाहता है ज़ी। देवदार के गगनचुंबी वृक्ष, बर्फ़ से ढ़की चोटियां,उन पर से गिरते बेपनाह झरनें बस इन्हीं से मोहब्बत हों जाती है विकास जी।💞💞

    जवाब देंहटाएं